एक व्यक्ति के रूप में बालक के विकास के बारे में लिखो।

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हर मकान की आधार शिक्षा उसकी अन्य संरचना से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती है। उसी तरह बच्चे का प्रारम्भिक विकास बाद के विकास की बजाय ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। विकास का प्रारम्भ विवृद्धि से पहले होता है। विवृद्धि केवल परिपक्वावस्था तक होती है लेकिन विकास तो जीवनपर्यन्त चलता है। एक शिशु का विकास जब होता है तभी वह एक विकसित मानव बन पाता है। बालक के प्रारम्भिक जीवन का विकास जैसा होता है बच्चे के भविष्य की आधारशिला भी वैसी ही बनती है।


एक व्यक्ति के रुप में बालक का विकास

एक व्यक्ति के रुप में शिशु का विकास जन्म से ही शुरु हो जाता है । गर्भस्थ शिशु के शारीरिक अंगों की लम्बाई-चौड़ाई बढ़ने के साथ-साथ उसका भार भी बढ़ता है । उसके शरीर के विभिन्न अंगों में गत्यात्मक क्रियाओं का विकास शुरु हो जाता है एवं साथ ही साथ उसमें विविध तरह की संवेदनाओं का विकास भी शुरु हो जाता है । जन्म से बाल्यावस्था तक प्रमुखतः शारीरिक, मानसिक, सांवेदिक, सामाजिक, नैतिक, गत्यात्मक एवं भाषागत विकास शुरु हो जाता है। बाल्यावस्था के बाद किशोरावस्था तक प्रमुखतः शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक, नैतिक विकास प्रक्रियाओं के साथ-साथ उसकी रुचियों एवं व्यक्तित्व में भी परिवर्तन आने लगता है तथा एक शिशु धीरे-धीरे एक व्यक्ति के रुप में विकसित होते हुए एक व्यक्ति की तरह सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक विशेषताएँ ग्रहण करने लगता है ।


एक मनो-सामाजिक हस्ती के रुप में विकास

बालक का विकास सर्वप्रथम एक व्यक्तित्व के रुप में होता है । जन्म के बाद धीरे-धीरे उनका संवेगात्मक एवं सामाजिक विकास शुरु होता है । एक व्यक्ति विशेष के रुप में उसे पहचाना लाने लगता है। शारीरिक विकास के कारण उसकी लम्बाई एवं भार में वृद्धि हो जाती है तथा मांसपेशियाँ सुदृढ़ हो जाती हैं, उसका मानसिक विकास भी शुरु हो जाता है । संवेगों का प्रस्फुटन होने लगता है। परिवार में माता एवं अन्य लोगों से अन्तःक्रिया करने लगता है तथा धीरे-धीरे उसका सामाजिक दायरा भी बढ़ता जाता है। पहले जहाँ सिर्फ वह अपनी माता से ही अन्तःक्रिया करता था, धीरे-धीरे अपने भाई-बहनों एवं परिवार के अन्य सदस्यों से भी अन्तःक्रिया करने लगता है। परिवार से बाहर निकलकर जब वह विद्यालय जाने लगता है तो वह अपने संगी-साथियों एवं विद्यालय के शिक्षकों से भी अन्तःक्रिया करने लगता है। इस तरह धीरे-धीरे सामाजिक विकास का क्षेत्र बढ़ता जाता है। खेल के माध्यम से वह अपने संवेगों पर नियंत्रण रखना भी सीखता है एवं भावों की अभिव्यक्ति करते समय उसका भाषा विकास भी होता है। विभिन्न शब्दों का ज्ञान होता है, वाक्य निर्माण की समझ आती है, भाषा पर नियंत्रण स्थापित होता है । इस तरह एक मनो-सामाजिक हस्ती के रुप में बालक धीरे-धीरे विकसित होता है।

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