राजस्थान की जातियाँ एवं जनजातियाँ

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  • राजस्थान में विभिन्न जातियों का उद्भव हुआ हैं। उनका समन्वय यहाँ के लोगों की शारीरिक रचना सामाजिक जीवन व्यवसाय तथा रीति रिवाजों में पाया जाता हैं।
  • राज्य में 7 वीं शताब्दी में राजपूतों का उदय हुआ था। इन लोगों के विभिन्न वंश जैसे कच्छवाह, चौहान, राठौड़, सिसोदिया आदि यहाँ पर कायम हो गये।
  • राज्य के उत्तरी पूर्वी भाग पर जाट जाति ने अधिकार कर लिया था तथा वे राज्य के निवासी बन गए।
  • राज्य में कुछ छोटी जातियाँ आरम्भ से ही पाई जाती हैं जैसे – धोबी, मछुए, डोम, मातंग, चमार, नट, गाछे आदि।
  • राज्य में हिन्दूओं की लगभग 150 जातियाँ और उपजातियाँ निवास करती हैं।
  • राज्य में पाए जाने वाले मुसलमानों में शेख, पठान, मेव, सैयद आदि जातियाँ पाई जाती हैं।
  • राज्य की आदिम जातियों में भील, मीणा, सहरिया, गरासिया, डामोर आदि प्रमुख हैं।
  • राजस्थान की उपेक्षित जातियों में अहेरी, भील, बदी, बाजगर, बन्जारा, चांडाल, बावरी, सांसी, सहरिया, नट, मोची, सुथार, लुहार, कालबेलिया, माली, नाई, जोगी, मेघवाल, मेहतर, आदि मुख्य हैं।

राज्य की प्रमुख हिन्दू जातियाँ

राजपूत –

  • राजस्थान में 7वी शताब्दी में राजपूत काल के उद्भव के बाद राज्य में राजपूत जाति का विस्तार व वर्चस्व बढ़ा।
  • यह जाति अपनी मान मर्यादा और आन-बान के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • राजपूत सामान्यत: सुडौल और मजबूत कद काठी वाले होते हैं।
  • वर्तमान समय में इनके व्यवसाय में बदलाव आया हैं।

ब्राह्मण –

  • राजपूतों के बाद सामाजिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण जाति ब्राह्मण हैं।
  • इनका मुख्य कार्य पूजा-पाठ व खेती हैं।
  • ये वैष्णव व शैव धर्मावलम्बी होते हैं।

वैश्य –

  • इस जाति वर्ग में ओसवाल, अग्रवाल, माहेश्वरी आदि आते हैं।
  • इस जाति वर्ग के ज्यादातर लोग व्यापार करते हैं।
  • इनको सामान्य लोग बणिये कहते हैं।

काश्तकार –

  • इन लोगों का मुख्य पेशा खेती करना हैं।
  • वर्तमान समय में खेती के लाभप्रद नहीं रहने के कारण इनकी आर्थिक स्थिति में गिरावट आई हैं।
  • इस जाति वर्ग में जाट, गुर्जर, माली, सिरवी, धाकड़, कलबी आदि शामिल हैं।

जाट –

  • राज्य में जाट जाति का सबसे पहले बीकानेर व जैसलमेर में उद्भव हुआ था।
  • जाटों में बीकानेर के संस्थापक राव बीका को राज्य स्थापित करने में सहायता की थी। इसके बाद ये राज्य के विभिन्न भागों में फैल गये।

अहीर –

  • अहीर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के अभीर शब्द से हुई हैं। जिसका अर्थ होता है – दुधवाला।
  • ये वैष्णव धर्मावलम्बी जाति हैं।
  • वर्तमान में यह जाति खेती पर निर्भर हैं।
  • अहीर नन्दराज औरंगजेब का समकालीन था, जिसके अधीन 360 गाँव थे।

गूजर –

  • यह एक क्षत्रीय जाति हैं।
  • इनका मुख्य पेशा खेती करना तथा पशुपालन हैं।
  • मध्यकाल में अलवर राज्य पर गूजर जाति का अधिकार था।

माली –

  • मध्यकाल में गूजर और माली जाति की महिलाओं को राजवंश के राजकुमारों की देखभाल करने के लिए रखा जाता था।
  • शहाबुद्दीन गौरी के समय से इन्होने बागवानी का पेशा अपनाया।

चमार –

  • इस जाति के लोग मुख्य रूप से चर्म का कार्य करते हैं।
  • चमार जाति के लोग लोकदेवता रामदेवजी की पूजा करते हैं।

जोगी –

  • प्राचीन समय में जिन नाथ पुरूषों ने सम्प्रदाय में रहकर गृहस्थ जीवन अपना लिया उनसे कई नाथ जातियों की उत्पत्ति हुई। इन्हे जोगी कहा जाने लगा।

कुम्हार–

  • यह जाति बर्तन, खिलौने, मूर्तियां आदि के निर्माण का कार्य करती हैं।
  • ये लोग स्वयं को प्रजापति की संतान मानकर प्रजापत कहते हैं।
  • मारवाड़ में पूरबिए, मारू, मोयला और जाघैड़ कुम्हार पाये जाते हैं।
  • बाण्डा कुम्हार राज्य में गुजरात से आए थे। ये खेती का कार्य कम करते है।
  • मारू कुम्हार चूने मिट्टी का कार्य करते हैं।
  • मोयला कुम्हार जालौर, साचौर, सिवाणा और मालाणी में ज्यादा पाये जाते हैं। ये लोग पहले मुसलमान थे।
  • जांघेड़ कुम्हारों का मूल स्थान ढूंढ़ाड़ हैं।
  • राज्य में चेजार (इमारती लकड़ी का काम करने वाले), खेतेड़ा (खेती करने वाले), भाटेड़ा (मिट्टी के बर्तन बनाने वाले) इत्यादि तीन प्रकार के कुम्हार पाये जाते हैं।

राज्य की जनजातियाँ

  • आदिवासी या जनजाति – ये लोग सभ्यता के प्रभाव से वंचित रहकर अपने प्राकृतिक वातावरण के अनुसार जीवन यापन करते हुए अपनी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन आदि को संरक्षित किए हुए हैं।
  • जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 1.22 करोड़ (कुल जनसंख्या का 17.83%) हैं।
  • राज्य में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या :- 92.38 लाख। (कुल जनसंख्या का 13.48%)
  • राज्य में उदयपुर जिला जनजातियों की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण जिला हैं।
  • राजस्थान का भारत में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या की दृष्टि से 6 वां स्थान हैं।

जनजातियों का भौगोलिक वितरण

  • राजस्थान में भौगोलिक वितरण की दृष्टि से जनजातियों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता हैं।

दक्षिणी क्षेत्र –

  • राज्य की कुल जनजातियों का 57 प्रतिशत इस क्षेत्र में निवास करता हैं।
  • इस क्षेत्र में पाई जानी वाली मुख्य जनजातियाँ भील, मीणा, डमोर तथा गरासिया हैं।
  • विस्तार – इस क्षेत्र में सिरोही, चितौड़गढ़, राजसमन्द, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और उदयपुर आदि जिलें शामिल हैं।
  • 70 प्रतिशत गरासिया जनजाति सिरोही एवं आबू रोड़ तहसीलों में पाई जाती हैं।
  • 98 प्रतिशत डामोर जनजाति डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा तहसील में पाये जाते हैं।

पूर्वी व दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र –

  • प्रमुख जनजातियाँ – इस क्षेत्र में भील, मीणा, सहरिया व सांसी जनजाति का बाहुल्य हैं। इस क्षेत्र में मीणा जाति की अधिकता हैं।
  • सांसी जनजाति भरतपुर में निवास करती हैं।
  • विस्तार – अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, कोटा, बूँदी, बारां, अजमेर, भीलवाड़ा, झालावाड़, टोंक आदि जिलों में।

उत्तर पश्चिम क्षेत्र –

  • इस क्षेत्र में राज्य की लगभग 7.14 प्रतिशत जनजातियाँ पाई जाती हैं।
  • प्रमुख जनजातियाँ – भील, गरासिया व मीणा।
  • विस्तार – यह जनजाति पश्चिमी राजस्थान के 12 जिलों यथा चुरू, हनुमानगढ, गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, पाली बाड़मेर, जालौर, सीकर, झुंझुनूं आदि में पाई जाती हैं।

राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

मीणा –

  • मीणा शब्द का अर्थ मत्स्य या मछली होता हैं।
  • मीणा जनजाति की 51.20 प्रतिशत जनसंख्या राज्य के 5 जिलों जयपुर, करौली, दौसा, उदयपुर, सवाई माधोपुर में पाई जाती हैं।
  • मीणा जनजाति में मछली का सेवन निषेध हैं।

मीणा जनजाति की उपजातियाँ –

  • मीणा जनजाति में दो प्रमुख वर्ग है – (i) जमीदार मीणा व (ii) चौकीदार मीणा।
  • जमीदार मीणा जयपुर के आस-पास के भागों में रहते हैं। जबकि चौकीदार मीणा उदयपुर, कोटा, बॅूंदी चितौड़गढ़ आदि जिलों में पाये जाते हैं।

मीणा जनजाति में अन्य सामाजिक वर्ग –

  • आद मीणा, रावत मीणा, सुरतेवाल मीणा, ठेढ़िया मीणा, पड़िहार मीणा, भील मीणा, चाैथिया मीणा

सामाजिक जीवन –

  • इस जनजाति में रक्त सम्बन्धों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता हैं।
  • इनमें गोद प्रथा पाई जाती हैं।
  • मीणा जनजाति के लोग ढाणी, गाँव और पाल में रहते हैं।
  • इनमें पितृवंशीय परम्परा तथा संयुक्त परिवार प्रथा पाई जाती हैं।

धर्म –

  • इनका धर्म हिन्दू हैं तथा ये दुर्गा माता की पूजा करते हैं।
  • जादु टोणे में विश्वास रखते हैं।

अर्थव्यवस्था –

  • जमीदार मीणा कृषि व पशुपालन का कार्य करते हैं।
  • चौकीदार मीणा चौकीदारी की जगह अन्य व्यवसाय में संलग्न है- मीणा जनजाति में बंटाईदारी की व्यवस्था प्रचलित हैं। इसमें छोटा बट्ट, हाड़ी बट्ट तथा हासिल बट्ट आदि शामिल हैं।
  • वर्तमान में मीणा जनजाति ने खेती के अलावा अन्य व्यवसायों को अधिक अपनाया हैं।

अन्य तथ्य :- मीणा

 मीणाओं का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता हैं।

 राजस्थान की जनजातियों में मीणा जनजाति सर्वाधिक संख्या में पायी जाती हैं।

 कर्नल जेम्स टॉड ने मीणों का मूल स्थान काली खोह पर्वतमाला बतलाया है। यह पर्वतमाला अजमेर से आगरा तक फैली हुई हैं।

 सबसे शिक्षित जनजाति।

 मीणाओं में देवर ब‌ट्‌टा (देवर से) विवाह करने की प्रथा नहीं होती है।

 मीणा के मुख्य आराधक देव भैरव, माताजी, हनुमानजी, चारभुजा हैं। इष्ट देवी :- जीण माता।

भील –

  • विस्तार – भील जनजाति राज्य में दूसरी प्रमुख जनजाति हैं। जिनका विस्तार भीलवाड़ा, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, सिरोही व चितौड़गढ़ जिलों में हैं।
  • उत्पत्ति – भील जनजाति की उत्पत्ति के संबंध में विद्वानों के विभिन्न मत हैं – कर्नल टॉड ने इन्हे मेवाड़ राज्य-अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले निवासी बताया हैं।
  • शाब्दिक अर्थ – तीर चलाने वाला व्यक्ति

वस्त्र व आभूषण –

  • वस्त्र पहनने के आधार पर भीलों को दो वर्गों में बांटा गया हैं – (i) लंगोटिया भील (ii) पोतीदा भील
  • खोयतू – लंगोटिया भीलों द्वारा कमर में पहने जाने वाली
  • कछावू – भील स्त्रियाँ घाघरा पहनती है जो घुटने तक नीचे होता हैं।
  • फालू – भील लोग घर पर अपनी कमर पर अंगोछा लपेटा रखते है जिसे फालू कहते हैं। यह स्त्रियाँ भी पहनती हैं जिसे कछाव कहते हैं।

बस्तियाँ और घर –

  • पाल – भीलों के बहुत से झोपड़ों का समूह पाल कहलाता हैं।
  • पालवी – इनके मुखिया को पालवी कहते हैं।
  • कू – भीलों के घरों को स्थानीय भाषा में कू कहा जाता हैं।
  • फलां – भीलों के छोटे गाँव।
  • पाल –  भीलों के बड़े गाँव।

सामाजिक व्यवस्था –

  • भील जनजाति में संयुक्त परिवार प्रथा पाई जाती हैं।
  • तदवी – एक ही वंश की शाखा के भीलों के गाँवों को तदवी या वंसाओं कहा जाता हैं।
  • दापा – भील जनजाति में विवाह के समय कन्या का मूल्य दिया जाता है जिसे दापा कहते हैं। यह वर पक्ष से लिया जाता हैं।
  • भीलों में बहुपत्नी, देवर, नातरा विवाह, घर जमाई प्रथा आदि का प्रचलन हैं।
  • फाइरे–फाइरे – खतरे के समय भीलों द्वारा किया जाने वाला रणघोष।
  • गमेती – भीलों के बड़े गाँव (पाल) का मुखिया।
  • बोलावा – भील जनजाति में मार्गदर्शक व्यक्ति।

धर्म –

  • भील जनजाति अधिकतर हिन्दू धर्म का ही पालन करती हैं तथा ये हिन्दूओं के त्योंहारों को मनाते हैं। इनमें होली का विशेष महत्त्व हैं।

अर्थव्यवस्था –

  • चिमाता – भील जनजाति द्वारा पहाड़ी ढ़ालों के वनों को जलाकर बनाई गई कृषि योग्य भूमि जिसमें वर्षा काल के दौरान अनाज, दाले, सब्जियाँ बोई जाती हैं।
  • दजिया – भीलों द्वारा मैदानी भागों में वनों को काटकर चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहुँ, चना, आदि बाेये जाते हैं। इस प्रकार की खेती को दजिया कहते हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

भील द्रविड़ भाषा का शब्द है।

– राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति।

– भील जनजाति को प्राचीन समय में किरात कहा जाता था।

– भोजन :- मक्के की रोटी व कांदे की भात मुख्य खाद्य पदार्थ हैं। माँसाहारी जाति लेकिन गाय का माँस खाना वर्जित है।

– भील स्त्री-पुरुषों को गोदने-गुदाने का बड़ा शौक होता है।

– भीलों में मुख्यत: पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।

– बहुविवाह प्रथा का प्रचलन।

– बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं।

– गोलड़ :- भीलों में नातरा लाई हुई स्त्रियों के साथ आए हुए बच्चों को “गोलड़’ कहा जाता है जो पारिवारिक सदस्य की तरह माने जाते हैं।

– मोकड़ी :- महुआ से बनी शराब।

 ये महुआ से बनी शराब बड़े चाव से पीते हैं।

– नृत्य :- हाथीमन्ना नृत्य, गैर, नेजा, गवरी, भगोरिया, लाढ़ी नृत्य।

 भील पुरुष व स्त्रियाँ दोनों शराब पीने के बहुत शौकीन।

 भील लोग बहिर्विवाही होते हैं।

 भील केसरियानाथ (ऋषभदेव) के चढ़ी केसर का पानी पीकर यह कभी झूठ नहीं बोलते।

 भील जनजाति में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना बहुत प्रबल होती हैं।

 पाखरिया :- यदि कोई भील किसी सैनिक के घोड़े को मार देता है तो वह पाखरिया कहलाता है।

 भील जनजाति अत्यन्त निर्धन जनजाति है जिसमें स्थानांतरित कृषि का प्रचलन है।

 भील जनजाति कृषि के अलावा पशुपालन व शिकार कार्य के माध्यम से जीवनयापन करती है।

 छेड़ा फाड़ना :- तलाक की प्रथा।

गरासिया –

  • यह मीणा और भील जनजाति के बाद राज्य की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति हैं।
  • इसका प्रमुख निवास क्षेत्र दक्षिणी राजस्थान हैं।
  • राज्य में सर्वाधिक गरासिया जनजाति उदयपुर जिले में पाई जाती हैं।
  • ये चौहान राजपूतों के वंशज हैं।
  • सामाजिक और पारिवारीक जीवन –
  • इस जनजाति में पितृसत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।
  • इनमें विवाह को एक संविदा माना जाता हैं उसका आधार वधू-मूल्य होता हैं।
  • मोर बंधिया – गरासिया जनजाति का एक विवाह प्रकार जो हिन्दुओं के ब्रह्म विवाह के अनुरूप होता हैं।
  • पहरावना विवाह – इसमें नाम-मात्र के फेरे होते हैं।
  • ताणना विवाह – इसमें कन्या का मूल्य वैवाहिक भेंट के रूप में दिया जाता हैं।
  • इनमें विधवा विवाह का भी प्रचलन हैं।
  • यह जनजाति शिव-भैरव और दुर्गा देवी की पूजा करते हैं।
  • प्रमुख त्योंहार – होली और गणगौर
  • स्थानीय, संभागीय और मनखारों या आम-आदिवासी इत्यादि तीन प्रकार के मेलों का आयोजन किया जाता हैं।
  • फालिया – गाँवों में सबसे छोटी इकाई अर्थात् एक ही गोत्र के लोगों की एक छोटी इकाई।

अर्थव्यवस्था –

  • इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन व कृषि हैं।
  • 85 प्रतिशत गरासिया कृषि कार्य से जुड़े हुए हैं।
  • ये लोग कृषि श्रमिकों का कार्य करते हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– गरासिया :- प्रमुखत: गरासिया जनजाति सिरोही जिले की आबूरोड एवं पिंडवाड़ा तहसीलों तक सीमित हैं।

 गरासिया जनजाति की जनसंख्या समग्र आदिवासी जनसंख्या का 6.70% हैं।

– गरासिया अत्यन्त अंधविश्वासी होते हैं।

– गरासिया जनजाति में शव जलाने की प्रथा है।

– गरासिया सफेद रंग के पशुओं को शुभ (पवित्र) मानते हैं।

सांसी –

– साँसी :- साँसी जनजाति की उत्पत्ति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है।-

  • सांसी जनजाति राज्य के भरतपुर जिले के कुछ भागों में पाई जाती हैं।
  • यह खानाबदोश जनजाति हैं।
  • इसे दो भागों में बांटा जा सकता हैं – (i) बीजा (ii) माला

सामाजिक जीवन –

  • ये लोग बहिर्विवाही होते हैं अर्थात् एक विवाह में ही विश्वास रखते हैं।
  • इनमें विधवा विवाह का प्रचलन नहीं हैं।

अर्थव्यवस्था –

  • ये लोग घुमक्कड़ होते हैं तथा इनका कोई स्थायी व्यवसाय नहीं होता हैं।
  • यह हस्तशिल्प व कुटीर उद्योगों में संलग्न हैं।

सहरिया –

  • यह राज्य की कुल जनजातियों का 0.99 प्रतिशत हैं।
  • राज्य की 99.2 प्रतिशत सहरिया जनजाति बारां जिले में किशनगज एवं शाहबाग तहसीलों में निवास करती हैं।

सामाजिक जीवन –

  • फला – सहरिया जनजातियों के गाँव की सबसे छोटी इकाई।
  • सहरोल – सहरिया जनजाति के गाँव
  • इनमें बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन हैं।
  • कोतवाल – इस जाति के मुखिया को कोतवाल कहते हैं।
  • इनमें साक्षरता अत्यन्त कम हैं।

आर्थिक जीवन –

  • समतल भूमि के स्थान पर मुख्यत: ज्वार की खेती करते हैं।
  • वनों से लकड़ी व वन उपज एकत्र करना भी इनका मुख्य कार्य हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– सहरिया :- भारत सरकार द्वारा घोषित राजस्थान की एकमात्र आदिम जनजाति।

 मामूनी की संकल्प संस्था का सम्बन्ध सहरिया जनजाति से है।

 इस जनजाति में भीलों की तरह गोमाँस खाना वर्जित माना गया है। इसमें मृतक को जलाने की प्रथा प्रचलित है।

 नातरा की प्रथा प्रचलित है।

 सहरिया जनजाति का प्रसिद्ध मेला :- सीताबाड़ी का मेला।

डामोर –

  • विस्तार – दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति तथा बांसवाड़ा जिले में गुजरात सीमा पर डामोर जनजाति मुख्यतया पाई जाती हैं। उदयपुर, चुरू, गंगानगर, हनुमानगढ़ आदि जिलों में भी यह जनजाति पाई जाती हैं।
  • राज्य की कुल आदिवासी जनसंख्या में इनका भाग 0.63 प्रतिशत हैं।
  • इन्हें डामरिया भी कहा जाता हैं।

आर्थिक जीवन –

  • इन लोगों का मुख्य पेशा खेती व आखेट हैं।
  • ये मक्का, चावल आदि फसलों की खेती करते हैं।
  • आर्थिक दृष्टि से यह जनजाति पिछड़ी हुई हैं।

सामाजिक जीवन –

  • यह जनजाति स्वयं को राजपूत मानती हैं।
  • इनके झगड़ों का फैसला पंचायत द्वारा होता हैं।
  • फलां – डामोर जनजाति के गाँवों की सबसे छोटी इकाई।
  • इनमें बहुपत्नी विवाह पद्धति का प्रचलन हैं।
  • नतरा – डामोर जनजाति की स्त्रियां अपनी पति की मृत्यु के बाद इस प्रथा का पालन करती हैं।
  • छेला बावजी का मेला – डामोर जनजाति के लिए गुजरात के पंचमहल में आयोजित किया जाता हैं।
  • ग्यारस की रेवाड़ी का मेला – डूंगरपुर में सितम्बर में महीने में आयोजित किया जाता हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– डामोर :- इस जनजाति के लोग शराबप्रिय एवं माँसाहारी हैं।

 पुरुष भी स्त्रियों की भाँति गहने पहनने के शौकीन हैं।

 डामोर के 95% लोग खेती करते हैं।

 इस जनजाति में बच्चों के मुंडन की प्रथा प्रचलित हैं।

– चाड़िया :- डामोर जनजाति में होली के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला कार्यक्रम।

– मुख्य मेला :- बेणेश्वर मेला (डूंगरपुर)

कंजर –

  • कंजर शब्द का अर्थ – जंगलों में विचरण करने वाला।
  • कंजर शब्द की उत्पत्ति – संस्कृत शब्द ‘काननचार’ या कनकचार के अपभ्रंश से हुई हैं।
  • विस्तार – कोटा, बूँदी, बारां, झालावाड़, भीलवाड़ा, अलवर, उदयपुर आदि जिलें।

सामाजिक जीवन –

  • कंजर जनजाति के परिवारों में पटेल परिवार का मुखिया होता हैं।
  • किसी विवाद की स्थिति में ये लोग हाकम राजा का प्याला पीकर कसम खाकर विवाद का निर्णय करते हैं।
  • आराध्य देव – हनुमानजी तथा चौथ माता।

आर्थिक जीवन –

  • पाती मांगना – चोरी डकैती से पूर्व ईश्वर से प्राप्त किया जाने वाला आशीर्वाद।
  • वर्तमान समय में कंजर जनजाति अन्य व्यवसायों में भी संलग्न हुई हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

कंजर :- कंजर नाम संस्कृत शब्द ‘काननचार’ अथवा ‘कनकचार’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है – जंगलों में विचरण करने वाला।

 अपराधवृत्ति के लिए प्रसिद्ध। धुमंतु जनजाति।

 कंजर मुख्यत: कोटा, बूँदी, बाराँ, झालावाड़, भीलवाड़ा, अलवर, उदयपुर, अजमेर में है। मृतक को गाड़ने की प्रथा।

– कंजरों के मकान के दरवाजे नहीं होते हैं।

– कंजर को पैदल चलने में महारत हासिल है।

– कंजर महिलाएँ नाचने-गाने में प्रवीण होती हैं।

– इस जनजाति में मरते समय व्यक्ति के मुँह में शराब की बूँदें डाली जाती हैं।

– राष्ट्रीय पक्षी “मोर’ का माँस इन्हें सर्वाधिक प्रिय होता हैं।

कथौड़ी –

  • ये राज्य में बिखरी हुई अवस्था में निवास करती हैं।
  • मुख्य व्यवसाय – खेर के जंगलों के पेड़ों से कत्था तैयार करना।
  • विस्तार – दक्षिण पश्चिम राजस्थान।

जनजाति विकास कार्यक्रम

  • बांसवाड़ा जिले में कुशलगढ़ में वर्ष 1956 में बहुउद्देश्य जनजातिय विकास खण्ड प्रारम्भ किया गया था।
  • परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम – यह कार्यक्रम मीणा बहुल दक्षिणी व दक्षिणी पूर्वी जिलों में शुरू की गई थी।
  • उद्देश्य – इस योजना का लक्ष्य जनजातियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना तथा बेरोजगारी को दूर करना। इस योजना में पेयजल, ग्रामीण गृह निर्माण, लघु सिंचाई व चिकित्सा आदि योजनाओं को लागु किया गया हैं।
  • जनजाति उपयोजना क्षेत्र – इस योजना को पाँचवी पंचवर्षीय योजना द्वारा लागु किया गया था। इसका योजना द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, रोजगार, पेयजल आदि सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इस योजना द्वारा आदिवासियों को चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया गया हैं।
  • सहरिया विकास कार्यक्रम – इसका प्रारम्भ बारां जिले की किशनगंज व शाहबाद तहसीलों की एकमात्र जनजाति सहरिया हेतु किया गया।

स्वच्छ परियोजना –

  • UNICEF के सहयोग से वर्ष 1985 में आदिवासी क्षेत्रों में शुरू की गई नारू उन्मुलन परियोजना हैं।
  • इस योजना में स्वच्छता एवं पेयजल संसाधनों में वृद्धि के प्रयास किए गए हैं।
  • इस योजना का लक्ष्य 1992 में पूर्ण हो गया हैं।

बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम –

  • बांसवाड़ा व डूंगरपुर के अलावा राज्य के सम्पूर्ण भू-भाग पर आदिवासियों की बिखरी हुई संख्या निवास करती हैं।
  • इस योजना का लक्ष्य बिखरी हुई आदिवासी जनजातियों को एकजुट करना हैं।

एकलव्य योजना –

  • इस योजना का लक्ष्य आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा से वंचित बालकों के विकास हेतु छात्रावास एवं स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना करना हैं।
  • रोजगार कार्यक्रम – इस योजना का लक्ष्य आदिवासियो को रोजगार के अतिरिक्त अवसर प्रदान करना हैं।
  • रूख भायला कार्यक्रम – इस योजना का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्र में सामाजिक वानिकी को बढ़ावा देना तथा पेड़ों की अवैध कटाई को रोकना हैं।

जनजातीय क्षेत्रीय विकास – प्रमुख संस्थाए

  • माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान – जनजाति विकास के लिए सन् 1964 में स्थापित इस संस्थान का उद्देश्य जनजातियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जीवन स्तर में सुधार करना हैं।
  • वनवासी कल्याण परिषद् – उदयपुर में स्थित इस संस्थान द्वारा संचालित ‘वनवासी को गले लगाओ’ अभियान प्रारम्भ किया गया हैं।
  • राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ (राजस संघ) – इस संस्थान का उद्देश्य आदिवासियाओं को व्यापारी वर्ग के शोषण से मुक्त करना तथा सहकारी संगठनों के माध्यम से इनकी निर्धनता को दूर करना। इस संस्थान की स्थापना 1976 में की गई थी।

अन्य महत्वपूर्ण योजनाएँ

जनजाति उपयोजना क्षेत्र :- 1974 में लागू।

 6 जिले शामिल :- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़ व आबूरोड (सिरोही) की 23 पंचायत समितियाँ शामिल जिसमें 4409 गाँव आबाद हैं।

– परिवर्तित क्षेत्र विकास उपागम (MADA) :-

 1978-79 ई. में अपनाया गया।

 राज्य के 16 जिलों के 3589 गाँव सम्मिलित किये गये।

– जनजाति विकास विभाग की स्थापना :- 1979 में।

– सहरिया विकास कार्यक्रम :- 1977-78 में शुरू।

 इस कार्यक्रम में कृषि, लघु-सिंचाई, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, पेयजल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, पुनर्वास सहायता आदि पर व्यय किया जाता है।

– बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम :- 1979 में शुरू। जनजाति क्षेत्र विकास विभाग (TADA) द्वारा संचालन

 क्रियान्विति :- भारत विकास परिषद द्वारा।

 रूख भायला कार्यक्रम के अन्तर्गत 500 चयनित स्वयंसेवकों को 300 रुपये प्रतिमाह भत्ता दिया जाता है।

 अनुसूचित जाति विकास सहकारी निगम की स्थापना :- मार्च 1980 में निगम पैकेज ऑफ प्रोग्राम, स्काईट योजना, यार्न योजना, बुनकर शेड योजना के माध्यम से अनुसूचित जनजाति के लोगों को स्वावलम्बी बनाने का प्रयास कर रहा है।

अन्य तथ्य :-

– हेडन भीलों को पूर्व-द्रविड़, रिजले इन्हें द्रविड़, प्रो. गुहा इन्हें प्रोटो-ऑस्टोलायड प्रजाति से संबंधित मानते हैं।

– कर्नल जेम्स टॉड ने भीलों को “वन-पुत्र’ की संज्ञा दी।

– भीली व्याकरण के प्रकाशनकर्ता :- सी. एस. थॉम्पसन।

– हेलरू :- गरासिया जनजाति की सहकारी संस्था।

– मेक :- गरासिया जनजाति में प्रचलित मृत्युभोज।

– सोहरी :- गरासिया जनजाति में प्रचलित अनाज भण्डार की मिट्‌टी की आकर्षक कोठियां।

– गरासिया जनजाति में आखातीज (वैशाख शुक्ला तृतीया) से नव वर्ष का प्रारम्भ माना जाता है।

– वालर गरासिया जनजाति का नृत्य है जिसमें वाद्य यंत्रों का प्रयोग नहीं होता है।

– हारी-भावरी :- गरासिया समुदाय द्वारा की जाने वाली सामूहिक कृषि।

– सियावा का गौर मेला गरासिया जनजाति का प्रसिद्ध मेला है।

– सहरिया जनजाति कभी भी भीख माँगना मंजूर नहीं करते हैं।

– लोकामी :- सहरिया जनजाति द्वारा दिया जाने वाला मृत्यु भोज।

– लीला मोरिया विवाह की प्रथा से जुड़ा हुआ संस्कार है, जो सहरिया जनजाति से संबंधित है।

– सहरिया जनजाति की कुलदेवी :- कोड़िया देवी।

– दक्षिण पश्चिम राजस्थान की कोटड़ा तहसील में कथोड़ी जनजाति निवास करती है।

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