वंशानुक्रम और वातावरण के व्यक्ति के विकास पर पड़ने वाले प्रभाव के सापेक्षिक महत्व को स्पष्ट कीजिये।

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बालक का विकास तथा वृद्धि उसकी शिक्षा पर निर्भर करती है। इसलिए यह प्रश्न उठता है कि क्या वंशानुक्रमीय विशेषताएँ ही बालक के विकास हेतु सक्षम हैं, क्या वातावरण ही अकेला बालक का विकास कर सकता है ? या वंशानुक्रम एवं वातावरण दोनों के सहयोग से बालक का विकास होता है। निष्कर्षों के आधार पर, बालक का विकास वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों के परस्पर सहयोग से होता है, यह सिद्ध हो चुका है। अतः हम यहाँ पर दोनों के सम्मिलित प्रभावों का अध्ययन करेंगे-

1. अपृथकता- बालक के विकास में वंशानुक्रम तथा वातावरण दोनों का योग रहता है । हम दोनों के प्रभावों को अलग-अलग मापना चाहें तो यह सम्भव न हो सकेगा। वंशानुक्रमणीय विशेषताएँ आठ पीढ़ियों से संबंध रखती हैं एवं वातावरण बहुत ही विस्तृत होता है। इसलिए दोनों के प्रभावों को पृथक नहीं किया जा सकता। जैसा कि मैकाइवर तथा पेज महोदय का मत है-

“जीवन की प्रत्येक घटना दोनों का परिणाम होती है। इनमें से एक परिणाम हेतु उतना ही जरूरी है जितना दूसरा। कोई न तो कभी हटाया ही जा सकता है और न कभी पृथक् ही किया जा सकता है।”

2. पूरकता- वंशानुक्रम तथा वातावरण के संबंध पर अगर गहन दृष्टि डाली जाय तो स्पष्ट होता है कि दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। बालक जन्म से जिन विशेषताओं को लेकर पैदा होता है, उनका विकास वातावरण के द्वारा ही हो पाता है। इसलिए दोनों ही एक-दूसरे को मदद देते रहते हैं, ताकि बालक का सामान्य विकास हो सके । अत: आज उत्तम शैक्षिक वातावरण प्रत्येक बच्चे को उपलब्ध कराया जा रहा है। इसी तरह के विचार को गैरेट महोदय ने भी प्रकट किया है-

“इससे और ज्यादा निश्चित कोई बात नहीं हो सकती कि वंशानुक्रम एवं वातावरण परस्पर सहयोगी प्रभाव हैं तथा दोनों ही सफलता हेतु अनिवार्य हैं।”  

3. स्वतन्त्र इच्छा शक्ति- बालक के विकास पर व्यक्तिवादी एवं समाजवादी आदि दृष्टिकोणों का प्रभाव पड़ता है। व्यक्तिवादियों का मत है कि बालक का विकास ‘स्वतंत्र इच्छा शक्ति’ पर ज्यादा निर्भर करता है एवं यह शक्ति वंशानुक्रम तथा पर्यावरण पर निर्भर होती है अत: बच्चों में शिक्षा के द्वारा इच्छा शक्ति का विकास करना चाहिए। प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री टी.पी. नन ने लिखा है-“मौलिक सत्य तो यह है कि बालक ही उस रचना-शक्ति का केन्द्र है, जो वंशानुक्रम तथा वातावरण को आत्म-प्रकाशन का एक माध्यम बनाता है। प्रकृति तथा शिक्षा से जो कुछ भी बालक प्राप्त करता है उसका व्यक्तित्व इन्हीं से निर्मित नहीं हो जाता, वरन् ये दोनों ही स्वतंत्र इच्छा शक्ति के विचार हैं एवं स्वतंत्र इच्छा शक्ति स्वयं सिद्ध वस्तु है।’

उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि बालक के विकास पर दोनों का प्रभाव पड़ता है। अत: शिक्षा देते समय शिक्षक को निम्न बातों पर ध्यान देना जरूरी है-

(1) प्रत्येक माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि वे वंशानुक्रम के प्रभाव से परिचित हों एवं स्वस्थ तथा अच्छे बच्चों को जन्म दें।

(2) मानव समाज सम्पन्न वातावरण को तैयार करे ताकि सभी बच्चों की क्षमताओं का उत्तम विकास हो सके ।

(3) शिक्षक बच्चों को पहचानें तथा उनके विकास हेतु सही वातावरण तैयार करें।

(4) मानव समाज को विकारग्रस्त बच्चों हेतु विशेष प्रबन्ध करना चाहिए ताकि उनमें निम्नता की भावना ग्रन्थि विकसित न हो सके।

(5) शिक्षक को वंश से प्राप्त शक्तियों का सामाजिक मानदण्डों के अनुसार विकास करने हेतु रचनात्मक कार्य करने चाहिए ।

(6) वंशानुक्रमणीय विशेषताओं में परिवर्तन सम्भव नहीं, इसलिए सुन्दर वातावरण देकर बच्चों को सही दिशा दी जा सकती है। जैसा कि रुथ वैनेडिक्ट, सोरेन्सन तथा वुडवर्थ आदि का मत है ।

(7) शिक्षक की भूमिका सबसे मुख्य होती है। बच्चों का विकास शिक्षक पर निर्भर करता है। जैसा कि सोरेन्सन ने लिखा है-“वंशानुक्रम तथा वातावरण का मानव विकास पर प्रभाव एवं उसका सापेक्षिक संबंध का ज्ञान शिक्षक हेतु विशेष महत्त्व रखता है।”

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