बालक के विकास को प्रभावित करने वाले अन्य कारकों का वर्णन करो

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बालक के विकास को प्रभावित करने वाले अन्य कारक निम्नानुसार हैं-

1. जनसंचार माध्यम :

जनसंचार माध्यमों का भी बालक के विकास पर प्रभाव स्पष्ट रुप से दिखाई देता है, दूरदर्शन का प्रभाव तो आजकल बालक पर तीन अथवा चार वर्ष की आयु से ही पड़ने लगता हैं । रेडियो, टेपरिकॉर्डर, चलचित्र आ का प्रभाव बालक पर बहुत पहले से ही पड़ने लगा है। आजकल टेलीफोन, समाचार-पत्र, पत्रिकाओं एवं पुस्तकों का प्रभाव विद्यालय में प्रवेश और अध्ययन करने के बाद पड़ता है क्योंकि इन साधनों हेतु शैक्षिक ज्ञान की जरुरत होती है । बालक जब पढ़ना सीख जाता है तब इन संचार साधनों से प्रभावित होता है। इस तरह बाल-विकास में संचार साधनों की भूमिका को वर्तमान समय में पूर्ण रुप से स्वीकार कर लिया गया है।

बालक के विकास में संचार साधनों की भूमिका को अग्रलिखित शीर्षकों द्वारा समझा जा सकता है-

1. शारीरिक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- आधुनिक समय में संचार साधनों के द्वारा बालकों को स्वास्थ्य संबंधी सूचनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनके माध्यम से बालक अपने शारीरिक विकास को सन्तुलित रुप प्रदान कर सकते हैं, जैसे- दूरदर्शन पर योगाभ्यास के कार्यक्रमों एवं आसनों के माध्यम से बालक अपनी शारीरिक विकृतियों को दूर कर सकता है और अपने शरीर का सन्तुलित विकास कर सकता है। इसी प्रकार संचार माध्यमों के द्वारा बालक ज्ञान प्राप्त करके अपने शारीरिक विकास को नवीन दिशा प्रदान कर सकते हैं।

2. मानसिक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- बालक के मानसिक विकास में भी संचार माध्यमों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। संचार साधनों के द्वारा बालक नवीन तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करते हैं, जिनसे उनमें तर्क एवं चिन्तन शक्ति का विकास होता है। दूरदर्शन के माध्यम से बालक नयी घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं, जैसे डिसकवरी चैनल द्वारा उनमें तर्क एवं चिन्तन शक्ति विकसित होती है। कई कार्यक्रम वे इन्टरनेट एवं वेबसाइटों के माध्यमों से देखते हैं, इससे उनका सन्तुलित मानसिक विकास होता है।

3. संवेगात्मक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- बालक संचार साधनों के माध्यमों से विविध तरह की कहानियाँ, कविताएँ एवं नाटकों को आत्मसात करता है। उनके संवेगों की स्थिरता एवं स्वयं के संवेगों पर नियंत्रण रखकर उनको देखता एवं सुनता है। इसके सुखद एवं अच्छे परिणामों से परिचित होता है। इससे बालक संवेगात्मक स्थिरता एवं संवेगों पर नियंत्रण रखना सीखता है। इन समस्त माध्यमों से उसमें विविध तरह के संवेग, प्रेम, भय, क्रोध आदि का सन्तुलित विकास होता है। इसलिए सन्तुलित संवेगात्मक विकास में जनसंचार साधनों की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

4. सामाजिक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- जनसंचार माध्यमों से सामाजिक एवं सांस्कृतिक सामग्रियों का प्रचार किया जाता है । इस प्रकार उससे बाल-विकास भी प्रभावित होता है। इस तरह के कार्यक्रम देखकर बालकों में भी सामाजिक गुणों का विकास होता है। बालकों द्वारा टेलीविजन देखते समय विभिन्न नाटक एवं फिल्में देखी जाती हैं जिनमें हमारे सांस्कृतिक एवं सामाजिक जीवन की झाँकी दिखाई देती है। इसी क्रम में रेडियो, टेपरिकॉर्डर, पत्रिका एवं समाचार-पत्रों के माध्यम से छात्रों में सामाजिक विकास की तीव्रता पायी जाती है। इससे यह ज्ञात होता है कि संचार माध्यम सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं ।

5. भाषायी विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- बालकों के भाषायी विकास पर भी संचार साधनों का विशेष प्रभाव पड़ता है क्योंकि भाषायी विकास में श्रवण का महत्त्वपूर्ण स्थान है। संचार साधनों में कुछ साधन ऐसे होते हैं जो श्रव्य-दृश्य हैं, जैसे- चलचित्र, दूरदर्शन तथा वीडियो आदि । इस तरह के साधन बालकों के भाषायी विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं क्योंकि इसमें बालक भाषा के शब्दों का उच्चारण की प्रक्रिया एवं बोलने वाले व्यक्ति के हावभाव को समझ सकता है। इसी तरह सुनने वाले तथा देखने वाले संचार साधनों के माध्यम से भी भाषायी विकास प्रभावित होता है।

6. चारित्रिक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- संचार साधनों में विविध साधन ऐसे होते हैं, जिनके द्वारा बालक का चारित्रिक विकास सम्भव होता है, जैसे समाचार-पत्र एवं पत्रिकाओं में विविध कहानियाँ, लघु कथाएँ निकलती रहती हैं, जिन्हें पढ़कर या सुनकर बालक अपने भीतर त्याग, सहयोग, प्रेम, परोपकार, दया जैसे विभिन्न चारित्रिक गुणों को समाहित करता है। टेलीविजन पर नाटक अथवा फिल्में देखकर स्वयं की तुलना नायक अथवा नायिका से करके उसके गुणों को स्वयं व्यक्त करते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि चारित्रिक विकास पर भी जनसंचार साधनों का प्रभाव पड़ता है

7. दक्षताओं के विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- कम्प्यूटर तथा इन्टरनेट के माध्यम से आज छात्र कई तरह के खेलकूद अथवा पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं के बारे में ज्ञान प्राप्त कर रहे हैं। दूरदर्शन स्पोर्ट चैनल एवं पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से संबंधित विविध चैनलों को देखकर बालक विभिन्न क्षेत्रों में दक्षताओं को प्राप्त कर सकता है। छात्र कम्प्यूटर पर ड्राइंग प्रोग्राम के माध्यम से ड्राइंग में दक्षता प्राप्त करता है एवं टाइपिंग के माध्यम से टाइपिंग में मास्टरी कर सकता है। इससे सिद्ध होता है कि संचार साधन बालकों में विविध तरह की दक्षताओं का विकास कर सकते हैं।

8. मूल्यों के विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- संचार साधनों के द्वारा सामाजिक मूल्य, जीवन मूल्य, नैतिक मूल्य कई मानवीय मूल्यों को कई तरह की कथाओं एवं नाटकों के माध्यम से विकसित किया जाता है। इन नाटकों को देखकर छात्र अपने विवेक से उन गुणों को जो उन्हें सबसे ज्यादा प्रभावित करते हैं अपने भीतर समाहित करते हैं। समाचार-पत्रों में भी विविध शीर्षकों के माध्यम से मूल्यों को विकसित करने वाली लघु कथाएँ प्रभावित होती हैं। इस तरह संचार साधन मूल्य विकास को भी प्रभावित करते हैं।

9. सृजनात्मक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- संचार साधन बालक के सृजनात्मक विकास में भी अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। टेलीविजन पर ज्ञानदर्शन के माध्यम से शैक्षिक कार्यक्रमों का प्रसारण किया जाता है। उसमें विविध आकृतियों के निर्माण एवं विज्ञान संबंधी प्रयोगों का प्रसारण होता है । इन कार्यक्रमों को देखकर बालकों में सृजनात्मकता का विकास होता है।

10. शैक्षिक विकास पर संचार साधनों का प्रभाव- कम्प्यूटर एवं इन्टरनेट के माध्यम से हम विश्व के किसी भी देश के शैक्षिक कार्यक्रमों को देख सकते हैं जिसके द्वारा बालक अपनी रुचि एवं इच्छा के अनुसार शैक्षिक गतिविधियों का निरीक्षण कर सकते हैं । इसके अतिरिक्त पत्रिकाओं एवं रेडियो पर भी विविध शैक्षिक कार्यक्रम आते हैं। टेलीविजन पर भी विज्ञान एवं गणित से संबंधित शैक्षिक कार्यक्रम आते हैं। इन सभी से बालकों का शैक्षिक विकास बहुत तेजी से होता है।


2. पोषण :

माता का आहार गर्भकालीन अवस्था से ही शिशु के विकास को प्रभावित करने लगता है। गर्भकालीन अवस्था में शिशु अपना आहार माता से प्लासेन्टा द्वारा प्राप्त करने लगता है तथा वह पूर्ण रुप से अपने आहार हेतु अपनी माता पर निर्भर करता है। इसलिए जरुरी है कि माता का आहार सन्तुलित हो तथा माता के भोजन में सभी पोषक तत्व मौजूद हों। माता के आहार में प्रोटीन, फैट्स एवं कार्बोहाइड्रेट उपयुक्त मात्रा में होना जरुरी है। प्रोटीन से कोशिकाओं का निर्माण होता है । फैट्स शरीर में ईंधन का कार्य करते हैं तथा कार्बोहाइड्रेट शरीर को शक्ति प्रदन करते हैं। कुछ गर्भवती स्त्रियों की यह धारणा होती है कि गर्भकालीन अवस्था में उन्हें दो जीवों के लिए भोजन करना होता है- एक स्वयं के लिए एवं दूसरा बच्चे के लिए। इस प्रवृत्ति से गर्भस्थ शिशु मोटा हो सकता है एवं जन्म से समय गर्भवती स्त्री को परेशानी हो सकती है । जरुरी है कि गर्भवती सन्तुलित आहार ले जिससे गर्भस्थ शिशु का विकास सामान्य रुप से हो सके।

हैपनर (Hepner, 1988) ने अपने एक अध्ययन में देखा कि गर्भवती स्त्रियों का अगर अहार सन्तुलित नहीं होता है, तो गर्भस्थ शिशु में कई तरह के दोष पैदा हो सकते हैं। इन दोषों के कारण जन्म के बाद कई विकृतियाँ देखी गयी हैं, जैसे- मानसिक दुर्बलता, शारीरिक असामान्यता,सामान्य शारीरिक कमजोरी,स्नायुविक अस्थिरता एवं मिर्गी आदि रोग । इस अवस्था में माँ द्वारा लिये गये आहार में अगर विटामिन ‘ए’ की कमी होती है तो नवजात शिशु की आँख में विकृतियाँ पैदा हो सकती हैं। इसी तरह विटामिन ‘डी’ की कमी से दाँत तथा हड्डियों में विकृतियाँ पैदा हो सकती हैं। कुछ अध्ययनों में देखा गया है कि माँ के आहार में अगर लगातार विटामिन ‘बी’ की कमी होती है तो नवजात शिशु की प्रारम्भ के कुछ वर्षों तक बुद्धि कम रहती है। ऐसे बच्चों को स्कूल में सीखने में भी असुविधा होती है। सामान्यतः उन स्त्रियों में आहार की ज्यादा गड़बड़ी होती है जो पतली रहने हेतु भोजन ही कम करती हैं। ऐसी स्त्रियाँ जब गर्भवती होती हैं तो आहार कम ही लेती हैं कि कहीं उनका पेट ज्यादा न निकल आए। इस तरह की स्त्रियों में आहार से संबंधित दोष गर्भस्थ शिशु के विकास को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं

एक अन्य अध्ययन (Morgane et. al. 1993) में देखा गया कि गर्भकालीन अवस्था में कुपोषण से गर्भस्थ शिशु का केन्द्रीय नाड़ी संस्थान क्षतिग्रस्त हो सकता है। माँ का आहार गर्भकाल के अन्तिम तीन माह में जितना खराब होगा गर्भस्थ शिशु के मस्तिष्क का भार उतना ही कम होगा क्योंकि गर्भकाल के अन्तिम तीन महीनों में ही मस्तिष्क के आकार का विकास तीव्र गति से होता है । इसी तरह इस दिशा में हुए एक अन्य अध्ययन (Baker, 1994) में देखा गया कि गर्भकालीन अवस्था में माँ को यदि पर्याप्त आहार दिया जाता है तो गर्भस्थ शिशु के पैन्क्रियाज, यकृत एवं खून की नलियों में विकृति आ जाती है जिससे उसे जीवनभर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ता है। एक अध्ययन (Chandra, 1991) में देखा गया कि गर्भकालीन अवस्था में जिन शिशुओं को पर्याप्त सन्तुलित आहार प्राप्त नहीं होता है, उनकी रक्षा प्रणाली पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है तथा ऐसे बच्चे श्वसन संबंधी बीमारियों से बहुत जल्दी ग्रसित हो जाते हैं ।


3. बाल पोषण अभ्यास :

बालक के विकास को प्रभावित करने में बाल पोषण अभ्यास का भी विशेष महत्त्व है । बालक का पालन-पोषण किस विधि से किया जा रहा है बालक का विकास उससे प्रभावित हो जाता है। बाल पोषण अभ्यास की मुख्य विधियाँ अग्रांकित हैं-

1. प्रभुत्वपूर्ण विधि- इस विधि में माता-पिता एवं अभिभावक बालक के साथ बहुत सख्ती से पेश आते हैं। उसे बात-बात पर शारीरिक दण्ड देते हैं एवं पूर्ण रुप से अपने अनुशासन में रखने का प्रयास करते हैं। ऐसे बालकों का विकास सामान्य रुप से नहीं हो पाता है। ऐसे बच्चे डर के कारण माता-पिता एवं अभिभावकों की आज्ञा का पालन करते हैं तथा पीठ पीछे वह उसके विपरीत कार्य करते हैं। माता-पिता से उनके संबंध खराब हो जाते हैं। कभी-कभी तो वे अपने माता-पिता से घृणा भी करने लगते हैं।

2. प्रजातांत्रिक विधि- इस विधि से अपने बच्चों का पालन-पोषण करने वाले माता-पिता बच्चों को पर्याप्त स्वतन्त्रता देते हैं । वे विविध तरह की आदतों को सिखाने में ज्यादा अनुमति देने वाले अथवा छूट प्रदान करने वाले होते हैं। माता-पिता उदारता का प्रदर्शन करते हैं तथा बच्चों को बहुत कम दण्ड देते हैं। वे बालक पर ज्यादा अपेक्षाों नहीं लादते हैं। बालक की योग्यताओं एवं क्षमताओं के अनुसार उसे प्रशिक्षण देते हैं। अगर बाल पोषण विधि प्रजातान्त्रिक वातावरण से संबंधित है तो बालक में स्वतंत्र चिन्तन, ज्यादा सृजनात्मकता, ज्यादा सहयोग जैसे लक्षण पैदा हो सकते हैं। इन लक्षणों की उपस्थिति से बालक के पारिवारिक संबंध बेहतर हो सकते हैं ।

3. अनुमतिपूर्ण विधि- इस विधि से बच्चों का पोषण करने वाले माता-पिता एवं अभिभावक बच्चों को उतनी स्वतंत्रता प्रदान करते हैं जितनी बच्चा चाहता है। इस विधि को मानने वाले अभिभावक यह मानते हैं कि बालक जब अपने द्वारा किये गये बुरे कर्मों का फल भोगेगा तो वह स्वयं ही सुधर जायेगा। इस विधि का प्रयोग अत्यधिक शिक्षित माता-पिता ही करते हैं।


4. भाई-बहन तथा साथी समूह :

बालक के विकास में उसके भाई-बहनों एवं साथी-समूह की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बच्चे ज्यादातर अनुकरण से सीखते हैं एवं वे ज्यादातर अपने भाई-बहनों एवं साथी समूह का अनुकरण करते हैं। किशोर अपने भाई-बहनों एवं साथियों से अन्तःक्रिया करता है जिससे उसे नये-नये विचार और मूल्य प्राप्त होते हैं। भाई-बहन हर कदम पर उसका साथ देते हैं तथा घनिष्ठ मित्र भी हर कठिन परिस्थिति में उसे भावनात्मक सहारा प्रदान करते हैं। किशोर बहुत से महत्त्वपूर्ण निर्णय यहाँ तक कि व्यवसायगत निर्णय भी अपने मित्रों से प्रभावित होकर लेता है। कुछ भाई-बहन एवं मित्र बालक हेतु रोल मॉडल का कार्य भी करते हैं।

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