बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था के विकासात्मक कार्यों पर प्रकाश डालते हुए अपने अभिप्रेतार्थ पर प्रकाश डालिए।

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(अ) बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्य तथा उसके अभिप्रेतार्थ :

शैशवावस्था के उपरांत लगभग 6 से 12 वर्ष की आयु को बाल्यावस्था में परिगणित किया जाता है । इस अवस्था में तीव्र गति से बालक का बहुआयामी और बहुमुखी विकास दिखाई देता है । बाल्यावस्था में विकास की कुछ प्रमुख विशेषताएं दृष्टिगोचर होती हैं जिन्हें हम बाल्यावस्था के विकासात्मक कार्य कहते हैं। ये प्रमुख कार्य तथा इनके अभिप्रेतार्थ का विवरण अधोलिखित है-

(1) सीखने में तेजी- बाल्यावस्था में बालक की जिज्ञासा तथा वस्तुओं व क्रियाओं के प्रति कौतूहल प्रबल होता है। वह बड़ों से कई प्रश्न कर वस्तु व क्रियाओं को समझना चाहता है। उसकी मानसिक शक्तियों का तीव्र विकास होने से वह सीखने में तीव्र गति प्रदर्शित करता है। इसका अभिप्रेतार्थ यही है इस अवस्था में सिखाने के प्रयास तथा बालक की जिज्ञासा की शांति के प्रयास किये जाने चाहिए।

(2) सामाजिकता का विकास- बाल्यावस्था में बालक अपने ताउम्र मित्रों बालक बालिकाओं से खेलने में अधिकांश समय व्यतीत करता है। साथ ही प्रेम, सहयोग, सहनशीलता, आज्ञाकारिता जैसे सामाजिक गुण बालक में विकसित होते हैं। सामाजिकता के विकास का अभिप्रेत है कि बालकों को खेलने तथा सामाजिक गुणों के विकास का अधिक अवसर दिया जाए।

(3) यथार्थवादी दृष्टिकोण का विकास- शैशवावस्था में बालक कल्पनाशील रहता है परंतु बाल्यावस्था में उसे यथार्थ जगत का भाग होने लगता है। वह अपने हठ को छोड़कर वास्तविकता को स्वीकार करने लगता है । बाल्यावस्था का यह यथार्थवादी दृष्टिकोण उसे अधिक से अधिक वास्तविकता को सीखने के लिए संकेत देता है।

(4) बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास- बाल्यावस्था में बालक अंतर्मुखी न होकर बहिर्मुखी अधिक दिखाई देता है । वह मित्र-मंडली से खेलना तथा मिल बाँट कर खाने में अपनी रुचि प्रदर्शित करता है। अत: बाल्यावस्था में उसके बहिर्मुखी व्यक्तित्व को विकास के अवसर दिये जाने चाहिए।

(5) यौन भावना का उदय- बाल्यावस्था में काम प्रवृत्ति कम रहती है बालक विपरीत लिंग के प्रति प्रायः उदासीन रहते हैं। बालक में पुरुषोचित तथा बालिकाओं में स्त्रियोचित प्रवृत्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस उम्र में बालकों का बालिकाओं को उनके गुण से खेलने बात करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए।

(ब) किशोरावस्था के विकासात्मक कार्य तथा उनके अभिप्रेतार्थ  :

प्रायः 13 से 20 वर्ष की आयु भारत में किशोरावस्था परिगणित की जाती है। इस अवस्था के प्रमुख विकासात्मक कार्य तथा इनके अभिप्रेत इस प्रकार हैं-

(1) काम भावना की परिपक्वता- किशोरावस्था में बालक-बालिकाओं की कामेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है तथा उनमें काम भावना उच्च स्तर पर होती है। अत: वे भटक न जाएं या गलत संगत में न पड़ जाएं इस पर ध्यान देना अभिप्रेत है।

(2) अपराध की प्रवृत्ति- किशोरावस्था में नियमों की अवहेलना करने, बड़ों की अवज्ञा करने, शाला में अनुशासनहीनता करने तथा चोरी, मारपीट, कानूनों का उल्लंघन करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इनका कुविकास न हो इस हेतु माता पिता व शिक्षकों को ध्यान रखना चाहिए।

(3) संवेगात्मक अस्थिरता- किशोरावस्था में क्रोध, प्रेम, विद्वेष, काम भावना अस्थिर स्वरूप की होती है। किशोर स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख पाते । उनमें निर्णय में चंचलता होती है। अत: किशोरावस्था में किशोरों से उचित व्यवहार किया जाना चाहिए तथा उनकी भावनाओं की भी कद्र की जानी चाहिए। कठोर अनुशासन, डाँट-डपट उन्हें बर्दाश्त नहीं होती।

(4) आत्म प्रेम- डॉ. फ्रायड ने अपने आप से प्रेम की भावना को ‘नारसिसिज्म’ कहा है। किशोर-किशोरी स्वयं को आकर्षक बनाने में तथा अच्छे वस्त्र धारण करना, साज-श्रृंगार करने में लगे रहते हैं। वे वही कार्य करते हैं जो उन्हें अच्छा लगता है। कठोर अनुशासन व बंदिशें लगाने पर वे विद्रोही भी हो सकते हैं अतः अभिप्रेत यह है कि इस अवस्था में किशोरों से टेक्टफुली व्यवहार करना चाहिए।

(5) आत्म सम्मान की भावना- किशोरावस्था में आत्म सम्मान की भावना तीव्र होती है। यदि उनके आत्म सम्मान को ठोस पहुँचाई जाती है तो वे उद्विग्न हो उठते हैं। किशोरों को आत्म सम्मान की भावना का सकारात्मक उपयोग किया जाना चाहिए ताकि उन्हें श्रेष्ठ खिलाड़ी, श्रेष्ठ वक्ता, श्रेष्ठ लेखक, श्रेष्ठ कवि, श्रेष्ठ नेता बनाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए ।

(6) समाज सेवा- किशोरावस्था में समाज चिंतन करने की भावना होती है अतः इसका उपयोग सामाजिक कार्यों, लोगों की मदद करने, गंदी बस्तियों में सुधार कार्य करने, प्रौढ़ शिक्षा देने, जैसे समाजोपयोगी उपयोगी कार्यों में किया जाना अपेक्षित है।

(7) कल्पना बाहुल्य- किशोरावस्था में दैनिक जीवन में ही कल्पनाशीलता की भावना किशोरों-किशोरियों में पाई जाती है। चित्रकला, पेंटिंग, साहित्य रचना संगीत आदि की ओर उन्मुख किशोरों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराए जाने चाहिए ताकि वे अपनी कल्पनाशीलता का रचनात्मक उपयोग सृजनात्मक कार्यों में कर सकें।

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