बालकों के संवेगों की विशेषताएं के बारे में लिखो।

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बालकों तथा प्रौढ़ों के संवेग समान नहीं होते हैं। प्रौढ़ो में संवेग विकसित अवस्था में होते हैं एवं बालकों में संवेग विकासशील अवस्था में होते हैं। दोनों में संवेगों की संख्या की दृष्टि से भी अन्तर पाया जाता है। प्रौढ़ों में ज्यादा संख्या में संवेग पाये जाते हैं तथा बालकों में कम संख्या में पाये जाते हैं। प्रौढ़ों तथा बालकों की संवेगात्मक अभिव्यक्ति में भी अन्तर पाये जाते हैं। बालकों के संवेगों की विशेषताओं के वर्णन के अन्तर्गत भी प्रौढ़ों तथा बालकों के संवेगों में अन्तर का वर्णन है-

(1) बालकों के संवेग क्षणिक होते हैं। बालक में कोई भी संवेग क्यों न उत्पन्न हुआ हो, वह ज्यादा देर नहीं रहता है। बहुधा देखा गया है कि हँसते हुए बालक के आंसू थोड़ी ही देर में निकलने लगते हैं। क्रोधित बालक तुरन्त मुस्कराने लगता है। बालकों की बजाय प्रौढ़ों में अगर कोई संवेग एक बार पैदा होता है तो वह अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक व्यक्ति में उपस्थित रहता है । बालकों के संवेगों के क्षणिक होने के कई कारण होते हैं; जैसे-अनुभव तथा बौद्धिक योग्यताओं की कमी के कारण बालक संवेगात्मक परिस्थिति संवेगात्मक उत्तेजना को भली-भाँति समझ नहीं पाते हैं। दूसरे बालकों का स्मृति-विस्तार और ध्यान का विस्तार कम होता है, इसलिए भी उनमें उपस्थित संवेग शीघ्र परिवर्तित हो जाते हैं।

(2) बालकों में संवेग प्रौढ़ व्यक्तियों की अपेक्षा जल्दी-जल्दी पैदा होते हैं अर्थात् संवेग की आवृत्ति ज्यादा होती है। हर दिन बालक जितनी ज्यादा संख्या में संवेग का अनुभव करते हैं, उतनी ज्यादा संख्या में प्रौढ़ व्यक्ति नहीं करते हैं। विभिन्न संवेग (भय, क्रोध, प्रेम, घृणा, ईर्ष्या, हर्ष आदि) बालक में थोड़ी-थोड़ी देर बाद पैदा होते रहते हैं लेकिन प्रौढ़ व्यक्तियों में इतनी आवृत्ति नहीं होती है।

(3) बालकों के संवेगों की तीव्रता ज्यादा होती है । सम्भवतः उनका संवेगों पर नियन्त्रण अधिक न हो सकने के कारण ऐसा होता है। उदाहरण के लिए, क्रोध में बालक हाथ-पैर पटकने के साथ-साथ मचल जाता है; जमीन पर बुरी तरह लोटने लग जाता है, आदि । प्रौढ़ व्यक्तियों के संवेगों की तीव्रता इतनी ज्यादा नहीं होती है क्योंकि इनका इनके संवेगों ज्यादा अनुभव तथा ज्यादा सामाजिक योग्यताओं के कारण नियन्त्रण ज्यादा होता है। बालक की आयु जैसे-जैसे बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे वह समझने लग जाता है कि उसके संवेगों की यह तीव्रता प्रशंसनीय नहीं है, लोग इसका मजाक उड़ाते हैं। इसलिए उसकी इस तरह की समझ बढ़ने के साथ-साथ उसमें संवेगों की तीव्रता कम होती जाती है।

(4) बालकों की संवेगात्मक अनुक्रियाओं से वैयक्तिकता परावर्तित होती है। नवजात शिशुओं की संवेगात्मक अनुक्रियाएं समान होती हैं। उनमें ज्यादा अन्तर नहीं पाया जाता है लेकिन शिशुओं की आयु बढ़ने के साथ-साथ उनके अनुभव तथा मानसिक योग्यताओं में वृद्धि होती है। इस वृद्धि के कारण बालकों की संवेगात्मक अनुक्रियाओं में वैयक्तिकता आती-जाती है। वैयक्तिकता के कारण ही एक बालक डर के कारण भागना शुरू कर देता है, दूसरा स्तब्ध खड़ा रह जाता है तथा तीसरा अपनी माँ के आंचल में छिप जाता है।

(5) बालक के संवर्गों की शक्ति परिवर्तित होती रहती है। अध्ययनों में यह देखा गया है कि बालक की आयु बढ़ने के साथ-साथ उसमें कुछ संवर्गों की शक्ति घट जाती है तथा कुछ संवेगों की शक्ति बढ़ जाती है। कुछ संवेग जो ज्यादा शक्तिशाली होते हैं उनकी शक्ति कम हो जाती है तथा जिन संवेगों की शक्ति कम होती है या जो क्षीण होती हैं, उनकी शक्ति आयु बढ़ने के साथ-साथ कुछ बढ़ जाती है । प्रौढ़ व्यक्तियों के संवेगों की शक्ति में काफी स्थिरता आ जाती है।

(6) बालकों के संवेगों की अभिव्यक्ति का प्रकाशन शीघ्र ही उनके मुखमण्डल से व्यक्त होने लगता है। बहुधा यह देखा गया है कि बालक सामाजिक वातावरण पर बगैर ध्यान । दिए अक्सर बहुत जोर से क्रोध व्यक्त करते हैं, हर्ष अथवा घृणा व्यक्त करते हैं। प्रौढ़ व्यक्तियों में संवेगों की अभिव्यक्ति इतने प्रत्यक्ष ढंग से नहीं होती है । बहुधा वह अपने संवेगों को दबा जाते हैं तथा संवेगों की अभिव्यक्ति समाज द्वारा मान्य ढंग से एवं परिस्थितियों के अनुसार करते हैं। कई बार प्रौढ व्यक्तियों के व्यवहार से उनमें उपस्थित संवेगों का पता लगाना कठिन होता है लेकिन बालकों के संवेगों का पता उनके व्यवहार लक्षणों से आसानी से लगाया जा सकता । बालकों की बेचैनी, दिवास्वप्न, रोना-चिल्लाना, नाखून काटना, उंगली-अंगूठा चूसना, भाषा अभिव्यक्ति में अस्थायी दोषों से बालकों की संवेगात्मकता का पता चल जाता है लेकिन प्रौढ़ व्यक्तियों में संवेगों का पता कठिनाई से लगता है।

(7) बालकों के संवेगात्मक व्यवहार में वैयक्तिक भिन्नता पाई जाती है। अगर कई बालकों के एक विशिष्ट संवेगात्मक व्यवहार की तुलना करें तो यह दृष्टिगोचर होगा कि इस विशिष्ट संवेगात्मक व्यवहार में समानता के साथ-साथ अन्तर भी पाया जाता है। भय, क्रोध, प्रेम, घृणा आदि सभी तरह के संवेगात्मक व्यवहारों में भिन्न-भिन्न आयु वर्ग के बालकों की संवेगात्मक अभिव्यक्तियों में अन्तर पाया जाता है।

(8) बालकों के संवेगात्मक व्यवहार के निरीक्षण से स्पष्ट होता है कि बालकों के व्यवहार में कुछ विशिष्ट तरह के लक्षण पाये जाते हैं; जैसे-चीखना, चिल्लाना, दाँत किटकिटाना, मचल कर जमीन पर लोट-पोट होना, अंगूठा चूसना, हाथ-पैर पटकना तथा नाखून काटना आदि ।

उपर्युक्त के अलावा बालकों के संवेगों को कुछ अन्य विशेषताएं भी हैं। उदाहरण के लिए-

(क) बालकों के संवेग प्रौढ़ व्यक्तियों की बजाय अधिक शुद्ध अथवा स्पष्ट होते हैं।

(ख) बालकों में एक संवेग दूसरे संवेग में शीघ्र परिवर्तित हो जाता है। रोता हुआ बालक हँसने लग जाता है ।

(ग) बालकों का उनके संवर्गों पर ज्यादा नियन्त्रण नहीं होता है ।

(घ) बालकों के ज्यादातर संवेग मूर्त वस्तुओं या परिस्थितियों के सम्बन्ध में होते हैं।

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