विषय केन्द्रित एवं बालकेन्द्रित पाठ्यचर्या का वर्णन कीजिए। इन दोनों पाठ्यचर्या में अंतर बताइए।

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विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या विभिन्न विषयों का समूह है, जो बालकों को पढ़ना पड़ता है। इसके द्वारा बौद्धिक विकास होता है परन्तु व्यक्तित्व का विकास नहीं हो पाता है। इसी सन्दर्भ में डॉ. सफाया का कहना है कि, “प्रत्येक विषय का अलग-अलग अस्तित्व होता है। उसकी प्रकृति क्षेत्र का निर्धारण स्पष्ट रुप से होता है। समस्त ध्यान व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के अध्ययन के मूल्यों की अपेक्षा बालक के बौद्धिक विकास पर दिया जाता है।”

भाटिया और नारंग के मतानुसार “परम्परागत विधि पाठ्यचर्या को अलग-अलग विषयों के समूह के रुप में मानती है जिन्हें छात्रों को पढ़ना पड़ता है।’

शिक्षा के क्षेत्र में कार्य करने वाले अनेक लोग विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या की आलोचना तो करते हैं, फिर भी इसी पाठ्यचर्या को उच्च माध्यमिक स्तर पर स्वीकार करते हैं। स्वीकार किए जाने के निम्नलिखित लाभ हैं या पक्ष में तर्क हैं:

(i) व्यवस्थित ज्ञान- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या द्वारा व्यवस्थित एवं क्रमबद्ध ज्ञान दिया जाता है जिसे बालक समझ और ग्रहण कर लेते हैं।

(ii) वर्गीकरण करने और समझने में सरलता- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या में पाठ्य-वस्तु पहले से ही निश्चित होती है। इसलिए विषय-वस्तु को विभिन्न विषयों में वर्गीकत करना सरल होता है। साथ ही प्रत्येक विषय की अलग पाठ्य-पुस्तक होने के कारण बालकों को विषय-वस्तु समझने में आसानी रहती है।

(iii) मूल्यांकन करने में सरलता- विषय-वस्तु निश्चित होने के कारण छात्रों की उपलब्धियों की जाँच करना सरल होता है। इसलिए छात्रों की उपलब्धियों की जांच की जा सकती है। इसी संदर्भ में सेलर एवं एलेक्जेंडर का कहना है, “पाठ्यचर्या योजना, शिक्षण तथा मूल्यांकन करने में बहुत सुविधाजनक होती है तथा उनका पालन भी सरलता से किया जाता है।”

(iv) परिवर्तन में सरलता- यह तो ज्ञात ही है जिस समाज में हम रहते हैं वह परिवर्तनशील है। इसलिए परिस्थितियाँ बदल जाने पर शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण सामग्री एवं शिक्षण विधियों आदि में परिवर्तन आता है जिसके फलस्वरुप पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन लाना आवश्यक हो जाता है। विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या में परिवर्तन लाना सरल एवं संभव होता है।

(v) बौद्धिक विकास में सहायक- छात्र ज्ञान प्राप्त करने और समझने की प्रक्रिया को सरलता से समझ लेते हैं। इसलिए छात्रों के बौद्धिक विकास में सहायता मिलती है।

(vi) ज्ञान के बढ़ते हुए विशिष्टीकरण में सहायक- समाज परिवर्तनशील है। इसमें ज्ञान का विस्फोट-सा हो रहा है। इसी कारण विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या विशिष्टीकरण में सहायक सिद्ध होती है।

(vii) मानव व्यवहार में सुधार लाने में सहायक- ज्ञान प्राप्त करने और सूझ-बूझ विकसित करने के लिए क्रमबद्ध अध्ययन बहुत आवश्यक होता है। इससे विकसित विचारशीलता द्वारा मानव व्यवहार की अनेक क्रियाएं अच्छाई की ओर बढ़ती हैं।

विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या के दोष- उपर्युक्त लाभ प्राप्त होने पर भी निम्नलिखित दोषों के कारण विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या की आलोचना की जाती है।

(i) संकीर्ण धारणा- माध्यमिक शिक्षा आयोग का कथन है, “वर्तमान पाठ्यचर्या संकीर्ण धारणा पर आधारित है। परम्परागत विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या को अध्ययन कर छात्र केवल कालेज में प्रवेश ले सकते हैं, सफलतापूर्वक जीवन यापन नहीं कर सकते। वास्तव में देखा जाए तो छात्र पाठ्यचर्या का अध्ययन करते हैं।’

विषय-वस्तु का चयन करते समय न तो छात्रों की आवश्यकताओं व रुचियों का ध्यान रखा जाता है और न विभिन्न विषयों में समन्वय स्थापित किया जाता है। इस प्रकार यह पाठ्यचर्या न तो मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उपयुक्त है और न सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त है।”  

अमनोवैज्ञानिक- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या अमनोवैज्ञानिक है क्योंकि इसमें बालाकों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, क्षमताओं, रुचियों को ध्यान में नहीं रखा जाता है। इसमें तो केवल विषय-वस्तु को रटने और अभ्यास करने पर बल दिया जाता है। इसी संदर्भ में एलवर्टी महोदय ने कहा है, “वे पाठ्यचर्या में दी गई परिभाषा को वैसा का वैसा उगल देते हैं जबकि उन्हें उसके वास्तविक अर्थ का पता नहीं होता है।”

(iii) सैद्धान्तिक- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या अधिकतर पुस्तकीय एवं सैद्धांतिक होती है और इसमें व्यावहारिक पक्ष की अवहेलना की जाती है जिससे कि वह प्राप्त ज्ञान को जीवन में प्रयोग नहीं कर सकता है।

(iv) विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या का निर्माण प्रौढ़ों द्वारा- पाठ्यचर्या का निर्माण प्रौढ़ करते हैं जिनके सोचने-विचारने का ढंग अलग होता है। इसलिए बालक उस स्तर तक नहीं पहुंच पाते जिसे कल्पना कर पाठ्यचर्या का निर्माण किया गया था।

(v) शिक्षा के अनौपचारिक साधनों की अवहेलना- बालक के सर्वांगीण विकास में अनौपचारिक साधनों-परिवार, मित्र-मण्डली, घर, चर्च, समुदाय आदि का महत्त्वपूर्ण योगदान रहता है। परन्तु विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या में इन महत्त्वपूर्ण अनौपचारिक साधनों की अवहेलना की जाती है। इसलिए इस पाठ्यचर्या द्वारा बालक का सर्वांगीण विकास करना संभव नहीं होता है।

(vi) पुरानी शिक्षण विधियाँ- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या में तथ्यात्मक ज्ञान ही दिया जाता है। इसलिए इस पाठ्यचर्या में आधुनिक शिक्षण विधियों के प्रयोग के प्रति उत्साह नहीं दिखाया जाता, जिसके कारण पुरानी परम्परागत विधियों (पाठ्य-पुस्तक व भाषण विधि) का ही प्रयोग होता रहता है।

(vii) परीक्षा आधरित- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या का एक मात्र उद्देश्य परीक्षा पास कराना होता है जिसके कारण बालक अपना सारा ध्यान तथ्य रटने पर ही लगाते हैं। छात्रों की उपलब्धियों के आधार पर ही अध्यापकों की सफलता का भी ज्ञान मिलता है।

(viii) पुस्तकीय ज्ञान पर बल- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या पूर्ण रुप से पुस्तकीय है। इसमें बालक की योग्यता उस ज्ञान से मापी जाती है जो कक्षा में विषय पढकर प्राप्त की जाती है। यदि वह परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त कर लेता है तो उसकी गणना योग्य बालक में कर ली जाती है चाहे वह व्यावहारिक जीवन में पूर्णरुप से असफल ही क्यों न रहे।

(ix) प्रजातांत्रिक मूल्यों से दूर- विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या में ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभवों द्वारा नहीं दिया जाता जो कि अच्छे नागरिक बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं। इस पाठ्यचर्या के द्वारा बालकों को ज्ञान तो दिया जा सकता है। परन्तु प्रजातांत्रिक गुण जैसे सहनशीलता, उदारता, सहानुभूति, निष्पक्षता आदि का विकास नहीं किया जा सकता।

(x) माध्यमिक शिक्षा आयोग- 1952-53 ने विषय केन्द्रित पाठ्यचर्या का विस्तृत अध्ययन कर निम्न दोष बताए हैं-

(1) संकुचित धारणा

(2) सैद्धान्तिक तथा पुस्तकीय

(3) विषय-वस्तु का बाहुल्य

(4) एकांकी पाठ्यचर्या

(5) परीक्षाओं का आधिपत्य

(6) व्यक्तिगत भेदों की अवहेलना

(7) व्यवसाय तथा तकनीकी अध्ययन का अभाव


बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या

आज के युग में बालक को शिक्षा का केन्द्र माना जाता है। आज की मनोवैज्ञानिक खोजों ने सिद्ध कर दिया है कि बालक को बालक मानकर शिक्षा दी जानी चाहिए। किसी भी दशा में उसे छोटा प्रौढ़ न माना जाए। सफल शिक्षण के लिए आवश्यक है कि बालक को समस्त शिक्षा उसकी आवश्यकताओं, प्रकृति, रुचियों, उसके मानसिक स्तर एवं शारीरिक क्षमताओं के अनुसार दी जाए। इसलिए बाल-केन्द्रित का अभिप्राय उस पाठ्यचर्या से लिया जाता है जिसकी रचना बालकों की आवश्यकताओं, योग्यताओं, क्षमताओं, मानसिक स्तर, प्रकृति एवं रुचियों के अनुसार की जाए। इसी संदर्भ में माथुर का कथन है, “बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या का अभिप्राय

उस पाठ्यचर्या से लिया जाता है जिसमें पाठ्यचर्या का संगठन/आयोजन बालक की आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुरुप किया जाता है।’

इसी संदर्भ में भाटिया और नारंग का कहना है कि, “यह बालक की अभिवृतियों, क्षमताओं, रुचियों तथा उनकी आवश्यकताओं पर आधारित है। बालक उसका केन्द्र बिन्दु है जिसके चारों ओर सम्पूर्ण शिक्षा प्रक्रिया घूमती है।”

उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर हम निष्कर्ष रुप में कह सकते हैं कि बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या वह है जिसमें शिक्षण की समस्त सामग्री तथा क्रियाएं, बालक की अभिरुचि, क्षमता, योग्यता, मानसिक स्तर, प्रकृति एवं आवश्यकताओं के अनुसार तैयार की जाती है। इसका मुख्य उदेश्य बालक का सर्वांगीण विकास करना है जिसका निरन्तर ध्यान रखा जाता है


बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या का महत्त्व या लाभ

(1) पाठ्यचर्या का निर्माण मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के अनुसार किया जाता है

(2) यह पाठ्यचर्या बालक की आवश्यकताओं के साथ-साथ उसके जीवन से भी संबंधित होती है।

(3) यह पाठ्यचर्या बालक के सर्वांगीण विकास को बल देती है।

(4) यह पाठ्यचर्या लचीली है अर्थात् बदली हुई परिस्थितियों के अनुसार पाठ्यचर्या में परिवर्तन करना सरल एवं संभव है।

(5) इस पाठ्यचर्या में समस्त ज्ञान का समन्वय संभव होता है जिससे शिक्षा शिक्षार्थवादी एवं उपयोगी बन जाती है।

(6) इस पाठ्यचर्या में सैद्धान्तिक पक्ष के साथ-साथ व्यावहारिक पक्ष को भी महत्त्व दिया जाता है।


बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या के दोष या सीमाएँ

बाल केन्द्रित पाठ्यचर्या के गुणों को देखकर यह नहीं समझ लेना चाहिए कि यह दोष मुक्त है। इसमें निम्नलिखित दोष पाए जाते हैं-

(1) इस पाठ्यचर्या में बालक की प्रकृति एवं रुचियों को महत्त्व दिए जाने के कारण अच्छे व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का निर्माण तो किया जा सकता है परन्तु यह आवश्यक नहीं कि वे अच्छे नागरिक भी सिद्ध होंगे।

(2) विद्यालय के कार्यक्रम में अव्यवस्था आ जाने की संभावना बढ़ जाती है।

(3) इस पाठ्यचर्या में अत्यधिक क्रियाशीलता का भय बना रहता है।

(4) विभिन्न विषयों को समुचित एवं सुनिश्चित ढंग से पढ़ाये जाने के कारण ज्ञान क्षेत्र सीमित रह जाता है।

(5) बालकों की रुचियों एवं मानसिक स्तर में भिन्नता कारण अलग-अलग पाठ्यचर्या उपलब्ध कराना संभव नहीं होता।

(6) इस पाठ्यचर्या में समाज की अवहेलना होती है।

विषय केन्द्रित और बाल पाठ्यचर्या में अन्तर

विषय केन्द्रित बाल केन्द्रित 
(1) यह अमनोवैज्ञानिक है।(1) यह मनोवैज्ञानिक है।
(2) केवल बौद्धिक विकास होता है।(2) इसमें सर्वांगीण विकास होता है।
 (3) इसमें सैद्धान्तिक ज्ञान दिया जाता है।(3) सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक ज्ञान दिया जाता है।
(4) विषय-वस्तु को महत्त्व दिया जाता है(4) बालक को महत्त्व दिया जाता है।
(5) इसमें पाठ्यचर्या की संकीर्ण धारणा है।(5) इसमें पाठ्यचर्या की व्यापक धारणा है।
(6) शिक्षा के अनौपचारिक साधनों की अवहेलना की जाती है।(6) अनौपचारिक साधनों को महत्त्व दिया जाता है।
(7) यह जीवन से संबंधित है।(7) यह जीवन से संबंधित है।

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