माध्यमिक शिक्षा आयोग (1954-56) ने माध्यमिक स्तर के पाठ्यक्रम के कौनसे दोष बताए थे? माध्यमिक शिक्षा आयोग तथा कोठारी आयोग (1964-66) ने माध्यमिक स्तर पाठ्यक्रम हेतु क्या सुझाव दिये।

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  प्रचलित माध्यमिक पाठ्यक्रम के दोष

भारतीय शिक्षा के प्रचलित माध्यमिक पाठ्यक्रम का निर्माण ब्रिटिशकालीन शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये किया गया है। परिणामस्वरुप इसके अन्तर्गत उन सभी विचारों तथा अनुभवों एवं विषयों का अभाव है जो स्वतन्त्र भारत के बालकों को उत्तम नागरिक बना सकें । यही कारण है कि पाठ्यक्रम की शिक्षक, बालक तथा अभिभावक सभी लोग आये दिन निन्दा करते रहते हैं। माध्यमिक शिक्षा आयोग के अनुसार हमारे प्रचलित माध्यमिक पाठ्यक्रम में निम्नलिखित दोष हैं-

(1) संकुचित आधार- माध्यमिक शिक्षा के प्रचलित पाठ्यक्रम का निर्माण बालक की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं तथा क्षमताओं एवं सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ण अवहेलना करते हुए केवल विश्वविद्यालयों की शिक्षा को दृष्टि में रखते हुए किया गया है। अतः इसका आधार अथवा दृष्टिकोण अत्यन्त संकुचित है ।

(2) पुस्तकीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान पर बल- चूँकि माध्यमिक शिक्षा के प्रचलित पाठ्यक्रम पर विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम का प्रभाव है, इसलिए यह भी पुस्तकी एवं सैद्धान्तिक ज्ञान पर ही बल देता है। ऐसे पुस्तकीय एवं सैद्धान्तिक ज्ञान को प्राप्त करके बालक व्यावहारिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा करने में असफल हो जाते हैं।

(3) विषयों से अधिक बोझल- प्रचलित पाठ्यक्रम का निर्माण विषय विशेष की दृष्टि से किया गया है। दूसरे शब्दों में इसके अन्तर्गत आवश्यकता से अधिक विषयों को स्थान दिया गया है, चाहे वे बालकों के लिए उपयोगी हों अथवा नहीं। विषयों के इस भारी बोझ से बालक हर समय दबे रहते हैं। दुःख की बात यह है कि इन विषयों को न तो बालकों की रुचियों तथा योग्यताओं के अनुसार ही छाँटा गया है और न ही एक विषय का दूसरे विषय के साथ सह-संबंध स्थापित करने का प्रयास किया गया है। इससे बालक ज्ञान के समग्र रुप से वंचित रह जाते हैं।

(4) जीवन से असंबंधित- माध्यमिक शिक्षा आयोग के ही शब्दों में- “माध्यमिक शिक्षा की भाँति माध्यमिक पाठ्यक्रम का जीवन से कोई संबंध नहीं है, यह बालकों को जीवन के लिये तैयार करने में असफल रहा है, वहाँ से बाहर की दुनिया का उन्हें कोई अभ्यास नहीं कराता, जिसमें वे शीघ्र ही प्रवेश करने वाले हैं।”

(5) व्यक्तिगत भेदों का कोई स्थान नहीं है- किशोर अवस्था में व्यक्तिगत विभिन्नतायें स्पष्ट हो जाती हैं । पर प्रचलित पाठ्यक्रम इन व्यक्तिगत विभिन्नताओं की अवहेलना करते हुए प्रत्येक बालक के लिए एक सी ही विषय-वस्तु प्रस्तुत करता है । यह अमनोवैज्ञानिक है।

(6) परीक्षा-केन्द्रित- प्रचलित पाठ्यक्रम का एक मात्र उद्देश्य बालक को परीक्षा के लिए तैयार करना है। अतः सभी शिक्षक परीक्षा में आने वाली सम्भावित विषय सामग्री के बताने में तथा बालक उसके रटने में हर समय जुटे रहते हैं। इससे बालकों को किसी विषय का वास्तविक ज्ञान नहीं हो पाता।

(7) तकनीकी तथा व्यावसायिक विषयों की कमी- प्रचलित पाठ्यक्रम में तकनीकी तथा व्यवसायिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। इससे न तो हमारे बालकों में इसके प्रति महत्व की भावना जागृत हो रही है और न ही देश की वास्तविक औद्योगिक उन्नति हो पा रही है।

(8) नैतिक तथा योग शिक्षा का अभाव- प्रचलित पाठ्यक्रम में योग तथा नैतिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है। परिणामस्वरुप बालकों में अनुशासनहीनता तथा चरित्रहीनता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। इसके लिए नैतिक तथा योग शिक्षा की आवश्यकता है।

(9) जनतन्त्र के लिये आयोग्य- प्रचलित पाठ्यक्रम में जनतन्त्रकीय आदर्शों का समावेश नहीं है। अतः इसके द्वारा बालकों में जनतन्त्रकीय भावना का विकास करना असम्भव है। चूँकि हमारे देश ने अब जनतन्त्रीय व्यवस्था स्वीकार कर ली है, इसलिये माध्यमिक शिक्षा का प्रचलित पाठ्यक्रम हमारे बालकों के लिये उपयोगी नहीं है।

पाठ्यक्रम के सुधार के लिये सुझाव उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि माध्यमिक शिक्षा के प्रचलित पाठ्यकम में अनेक दोष हैं । इन दोषों के कारण यह पाठ्यक्रम बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करने में असफल रहा है। पाठ्यक्रम के उक्त सभी दोषों को दूर करने के लिये माध्यमिक शिक्षा आयोग है तथा कोठारी आयोग ने अनेक सुझाव प्रस्तुत किये हैं। निम्नलिखित पंक्तियों में माध्यमिक शिक्षा आयोग द्वारा पाठ्यक्रम संबंधी सुधार के विषय में दिये गये सुझावों पर प्रकाश डाल रहे हैं।

1. प्राइमरी स्तर के बालकों का पाठ्यक्रम बाल-केन्द्रित होना चाहिये।

2. पाठ्यक्रम को बालकों की विभिन्न-रुचियों, आवश्यकताओं तथा प्रवृत्तियों का विकास करना चाहिये।

3. पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिये।

4. पाठ्यक्रम को बालक के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना चाहिए।

5. पाठ्यक्रम को अवकाश के सदुपयोग की शिक्षा भी देनी चाहिए।

6. पाठ्यक्रम को सामुदायिक जीवन से समायोजन करने में सहायता करनी चाहिये ।

7. पाठ्यक्रम को बालकों के जीविकोपार्जन की समस्या को हल करनी चाहिये ।

8. पाठ्यक्रम के विषय अलग-अलग न होकर एक दूसरे से संबंधित होने चाहिये।

9. उच्चतर माध्यमिक स्तर का पाठ्यक्रम विविध प्रकार का होना चाहिये। ऐसे विविध पाठ्यक्रम के अन्तर्गत कुछ विषय अनिवार्य होने चाहिये तथा बहुत से विषय ऐसे होने चाहिये जिनमें से प्रत्येक बालक अपनी-अपनी व्यक्तिगत रुचियों के अनुसार कुछ विषय चुन सके । इस प्रकार उच्चतर माध्यमिक स्तर के लिये माध्यमिक शिक्षा आयोग ने निम्नलिखित पाठ्यक्रम निर्धारित किया है

(अ) मुख्य विषय- (1) भाषा, (2) सामान्य विज्ञान, (3) समाजशास्त्र तथा (4) हस्तकला।

(ब) ऐच्छिक विषय- मुख्य विषयों के अतिरिक्त प्रत्येक बालक को निम्नलिखित वर्गों में से किसी एक वर्ग के अन्तर्गत तीन विषय चुनने चाहियें –

(1) मानवीय

(2) वैज्ञानिक

(3) प्राविधिक

(4) व्यावसायिक

(5) कृषि

(6) ललित कला

(7) गृह विज्ञान

पाठ्यक्रम के संबंध में कोठारी आयोग (1964-66) के सुझाव कोठारी शिक्षा आयोग ने भी माध्यमिक शिक्षा आयोग की भाँति प्रचलित पाठ्यक्रम के अनेक दोषों को दृष्टि में रखते हुए लोअर प्राइमरी से लेकर हायर सेकेण्डरी स्तर की कक्षाओं के पाठ्यक्रम के संबंध में निम्नलिखित सुझाव प्रस्तुत किये हैं-

1. पूर्व प्राथमिक स्तर- आयोग ने सुझाव दिया है कि पूर्व प्राथमिक अर्थात् पहली से चौथी कक्षा तक के पाठ्यक्रम में भाषा, गणित, कार्य-अनुभव, सर्जनात्मक क्रियायें, स्वास्थ्य-शिक्षा तथा समाज-सेवा आदि विषयों को स्थान मिलना चाहिये।

2. उच्च प्राथमिक स्तर- आयोग ने सुझाव दिया है कि उच्च प्राथमिक अर्थात् पाँचवी से सातवीं कक्षा के पाठ्यक्रम में नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा, दो भाषायें, विज्ञान, गणित, समाज-सेवी, सामाजिक-अध्ययन, कला तथा शारीरिक शिक्षा आदि विषयों को सम्मिलित किया जाये।

3. पूर्व माध्यमिक स्तर- आयोग ने सुझाव दिया है कि पूर्व माध्यमिक अर्थात् आठवीं से दसवीं कक्षा तक के पाठ्यक्रम में तीन भाषायें, विज्ञान, गणित, भूगोल, नागरिकशास्त्र, समाज-सेवा, कार्य-अनुभव, शारीरिक शिक्षा तथा नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों की शिक्षा दी जानी चाहिए।

4. उच्च माध्यमिक स्तर- आयोग ने सुझाव दिया है कि इस स्तर के पाठ्यक्रम में निम्नलिखित विषय सम्मिलित किए जाने चाहिये।

(1) कोई सी दो भाषायें जिनमें कोई सी वर्तमान भारतीय भाषा सम्मिलित हो तथा कोई सी वर्तमान विदेशी भाषा चुनी जाये।

(2) निम्नलिखित में से कोई तीन विषय लिये जायें ।

(3) कार्य अनुभव एवं समाज सेवा ।

(4) शारीरिक सेवा।

(5) कला अथवा चित्रकला।

(6) नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की क्रिया ।

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