पाठ्यक्रम अस्तित्व के मुद्दे एवं समस्याओं के बारे में लिखो।

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 शिक्षा एक सोद्देश्य प्रक्रिया हैं एवं पाठ्यक्रम इन उद्देश्यों की पूर्ति का एक महत्त्वपूर्ण है। शिक्षा क्यों दें? किसको दें? कब दें? तथा शिक्षा कैसी हो? आदि ऐसे आधारभूत प्रश्न हैं जिन पर पाठ्यक्रम आयोजकों को विचार करना जरूरी होता है एवं इस विचार-श्रृंखला में उन्हें अपने समाज की प्रकृति, उसके स्थायी मूल्यों एवं उसके परिवर्तनशील क्षेत्रों का अध्ययन करना होता है। जिस तरह वर्तमान समाजं अपने भूत एवं भविष्य दोनों से जुड़ा होता है उसी तरह पाठ्यक्रम में किये जाने वाले परिवर्तन भी उन समस्याओं से अलग नहीं हो सकते जो भूत एवं वर्तमान से जुड़ी हुई है। इसलिए उन घटनाओं का ज्ञान प्राप्त करना जरूरी होता है जो हमारे वर्तमान समाज एवं आने वाले भविष्य से सम्बन्धित होती हैं। घटनाओं में जिस तरह परिवर्तन आता है एवं तकनीकी में परिवर्तन दिखाई देता है, पाठ्यक्रम में भी उसी तरह परिवर्तन करना पड़ता है। इस तरह पाठ्यक्रम के अस्तित्व को बनाए रखना कठिन हो जाता है क्योंकि पाठ्यक्रम में परिवर्तन सामाजिक परिस्थितियों एवं विषय की समृद्धता के आधार पर लाना जरूरी हो जाता है एवं समाज की सम्भावित प्रवृत्तियों का आभास प्राप्त करना भी जरूरी हो जाता है।


1. पाठ्यक्रम अस्तित्व के विशिष्ट मुद्दे

राष्ट्रीय एकता का अर्थ तथा उद्देश्य-

राष्ट्रीय एकता से अर्थ है निजी स्वार्थों तथा संकुचित दायरों से ऊपर उठकर किसी भी समस्या पर सम्पूर्ण राष्ट्र के हित को दृष्टि में रखते हुए विचार करना एवं उसके अनुकूल आचरण करना। हर नागरिक इस तरह से सोचे एवं आचरण करे जिससे वे सम्पूर्ण राष्ट्र को एक इकाई के रूप में स्वीकार कर सके। राष्ट्र की जो भौगोलिक सीमाएँ हैं उसके चप्पे-चप्पे को अपना घर में रहने वाले हर व्यक्ति को चाहे वह किसी प्रदेश का हो, कोई धर्म मानता हो, किसी भाषा का प्रयोग करता हो, कैसी भी वेशभूषा अथवा खान-पान हो, उससे भाई के समान व्यवहार करना एवं यह समझना कि हम सभी एक परिवार के ही लोग हैं। हमारा सुख एक है, दुःख एक है। इस तरह के विचार तथा आचरण को राष्ट्रीय एकता कहा जाता है।

भावात्मक एकता राष्ट्रीय एकता का आधार होता है। जब किसी भी राष्ट्र के निवासी से एक हो जाते हैं, तब उनमें राष्ट्रीय प्रगति हेतु अपने संकुचित हितों तथा निजी स्वार्थों को त्यागने की प्रवृत्ति का विकास होता है। राष्ट्र की समस्त भूमि से अनुराग होना, समूचे राष्ट्र के हितों का ध्यान रखने को ही संक्षेप में हम राष्ट्रीय एकता कह सकते हैं।

राष्ट्रीय एकता के निम्न उद्देश्य हैं-

(1) राष्ट्रीय एकता को स्थापित करना।

(2) राष्ट्र की सामाजिक तथा आर्थिक उन्नति में मदद देना।

(3) भारत के सामाजिक वर्गों के छिन्न-भिन्न होने की वृद्धि को रोकना तथा उनमें भावात्मक रूप सामाजिक भाव पैदा करना।

(4) सभी वर्गों की संस्कृति का विकास करते हुए राष्ट्रीय जीवन को समृद्ध बनाना।

राष्ट्रीय एकता की प्राप्ति के लिए योगदान देने वाले कारक

हमारा देश विभिन्नताओं का देश है। यहाँ विभिन्न जातियाँ, उप-जातियाँ, प्रजातियाँ, सम्प्रदाय, धर्म, संस्कृति, भाषाएँ तथा भू-भाग आदि पाये जाते हैं। फलस्वरूप प्रान्तीयता, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, राजनैतिक दल आदि राष्ट्रीय एकता के बाधक तत्व पैदा होते हैं तथा यह विस्मृत कर देते हैं कि हम एक ही राष्ट्र के हैं। हमारी एक ही संस्कृति है तथा धर्म एवं भाषा का भावात्मक सम्बन्ध एक ही है। प्रभावकारी तत्व अथवा शक्तियाँ निम्न हैं-

(1) जातिवाद की समाप्ति।

(2) प्रान्तीयता के बोध की उपेक्षा।

(3) साम्प्रदायिकता की समाप्ति।

(4) राजनैतिकता का राष्ट्रीयकरण।

(5) भाषा सम्बन्धी समस्या का निराकरण।

उपरोक्त तत्व जो सकारात्मक रूप में राष्ट्रीय एकता में मददगार हैं, वहीं नकारात्मक रूप में बाधक अथवा राष्ट्र को विघटित करने वाली शक्तियाँ हैं।

1. जातिवाद- राष्ट्रीय तथा भावात्मक एकता हेतु जातिवाद को खत्म कर देना चाहिए क्योंकि इस भावना से व्यक्ति अपनी जाति के हित को सर्वोपरि समझता है एवं राष्ट्रीय हित हेतु अपने को समर्पित नहीं करता। अगर उसमें राष्ट्र के लिए जाति से ऊपर समर्पण की भावनाएँ हैं, तो निश्चय ही वह व्यक्ति राष्ट्रीय एकता का पोषक होगा।

समाजशास्त्री जी.एस. घुरिये के अनुसार, “यह जाति-प्रेम की भावना ही है, जो अन्य जातियों में कटुता पैदा करती है तथा राष्ट्रीय चेतना के विकास हेतु अनुपयुक्त वातावरण तैयार करती है।”

2. प्रान्तीयता- प्रान्तीयता भी राष्ट्रीय एकता में बाधक है। अगर सभी व्यक्ति एक ही राष्ट्र के निवासी अपने को मानें, तो एक-दूसरे के निकट आयेंगे तथा सुख-समृद्धि एवं एकता में अभिवृद्धि होगी। प्रान्तों की सरकारें इसलिए ही बनायी गयी हैं कि प्रशासन द्वारा राष्ट्र की नीति क्रियान्वित हो सके, लेकिन एक-दूसरे प्रान्त को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। इस तरह केन्द्रीय शासन की नीति को अथवा उसकी योजनाओं को क्रियान्वित करने में ये प्रान्तीय सरकारें रुचि नहीं लेतीं।

3. साम्प्रदायिकता- अगर हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई तथा अन्य जातियों में परस्पर सद्भाव है, तो एकता निश्चित रूप से स्थापित की जा सकती है। अगर इन सम्प्रदायों में वैमनस्यता रहती है, तो वे अपने सम्प्रदाय के हितों की तरफ अग्रसर होते हैं तथा दूसरे के हितों की उपेक्षा कर देते हैं।

डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने इस सम्बन्ध में कहा है, “आज एकता की मुख्य समस्या मुस्लिमों तथा गैर-मुस्लिमों के मध्य उपयुक्त सम्बन्धों की स्थापना की है। अतः सांप्रदायिकता पूर्णरूप से नष्ट करने की जरूरत है।

4. राजनैतिक दलों की भूमिका- अगर हमारे देश की समस्त पार्टियाँ (दल) राजनैतिक विचारधाराओं में तो अलग-अलग विचारधाराएँ रखते हों, लेकिन क्षेत्रीयता एवं स्वार्थपरता का अभाव हो, तो वह राजनैतिक दल राष्ट्र की एकता में सहायक सिद्ध होंगे। हमारे यहाँ लोकतन्त्रात्मक शासन पद्धति है। इसके अन्तर्गत सभी का जागरुक होना जरूरी है एवं अपने कर्तव्यों तथा अधिकारों को जानकर ही वे राष्ट्र का भला कर सकते हैं

5. भाषा सम्बन्धी समस्या- हमारे देश में भाषाओं के आधार पर राज्यों का गठन हुआ। हमारे देश की राजभाषा अथवा राष्ट्र भाषा हिन्दी है, लेकिन अहिन्दी भाषी क्षेत्र दक्षिण के लोग हिन्दी की उपेक्षा करते हैं, वे कहते हैं कि हिन्दी हम पर थोपी जा रही है। इस तरह वे राष्ट्र भाषा का विरोध करते हैं। इससे राष्ट्रीय एकता निर्बल होती है। इसलिए राष्ट्र भाषा जो कि पारस्परिक सम्पर्क का माध्यम है, से हमें घृणा नहीं करनी चाहिए तथा उसको अपनाकर राष्ट्र की एकता हेतु प्रयास करना चाहिए।

भाषा विवाद आदि को विकृत न होने दिया जाय, तो हम भावात्मक रूप में एक सूत्र में बँध सकते हैं।

राष्ट्रीय एकता के विकास में कठिनाइयाँ :

भारत सरकार ने देश की विघटनकारी प्रवृत्तियों को रोकने के लिए उपायों की खोज के लिए 1961 ई. में डॉ. सम्पूर्णानन्द की अध्यक्षता में भावात्मक एकता समिति का गठन किया। 1962 ई. में इस समिति ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया। इस समिति के मतानुसार राष्ट्रीय भावात्मक एकता के विकास में अग्रलिखित तत्त्व बाधक हैं-

1. जातिवाद, 2. साम्प्रदायिकता, 3. क्षेत्रीयता, 4. प्रान्तीयता, 5. भाषावाद, 6. युवकों में निराशा, 7. आदर्शों का अभाव, 8. आर्थिक विषमता, 9. तुच्छ राजनीति।


राष्ट्रीय एकता के लिए वर्तमान शैक्षिक कार्यक्रम

राष्ट्रीय एकता के विकास हेतु वर्तमान समय में जो उपाय किये जा रहे हैं, उनमें मुख्य कार्यक्रम अग्र प्रकार हैं

1. राष्ट्रीय एकता परिषद् का गठन।

2. विश्वविद्यालयों तथा कॉलेजों में राष्ट्रीय एकता समितियों का गठन करना जिनका उद्देश्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों के व्यक्तियों के मध्य आपसी सद्भाव तथा उनके विचारों को सम्मान प्रदान करना है। वर्तमान समय में इस प्रकार की 100 से ज्यादा समितियाँ कार्य कर रही हैं।

3. राष्ट्रीय जीवन के विविध क्षेत्रों के चुनिन्दा लोगों की ऐसी समितियों का निर्माण करना जो राष्ट्रीय एकता के प्रयासों हेतु जन आन्दोलन को निश्चित दिशा प्रदान करें।

4. पाठ्य-पुस्तकों को सर्वेक्षण करके उनमें से ऐसे पूर्वाग्रहित तथा मनगढन्त प्रकरणों तथा प्रसंगों को हटाना जो विभिन्न समुदायों में घृणा भाव पैदा करते हों।

5. सूचनाओं के प्रचार-प्रसार हेतु समुचित योजना निर्धारित करना।

6. लेखकों के शिविर आयोजित करना।

7. राष्ट्रीय एकीकरण के लिए अन्तर्राज्यीय शिक्षक-छात्र शिविरों का आयोजन

8. प्रमुख ऐतिहासिक घटनाओं तथा महापुरुषों की शताब्दियाँ मनाना।


राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं राष्ट्रीय एकता

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में देश के विभिन्न भागों में रहने वाले लोगों की सामाजिक-सांस्कृतिक विभिन्नताओं को विद्यार्थियों द्वारा सही ढंग से समझने हेतु जरूरी कदम उठाने का सुझाव दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा के सामान्य पाठ्यक्रम में राष्ट्रीय अस्मिता को अक्षुण्ण रखने के लिए भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन का इतिहास, भारतीय संविधान द्वारा प्रतिपादित आदर्शों एवं अन्य महत्त्वपूर्ण विषय वस्तुओं को समावेशित किया गया है। इन तत्त्वों को विषयगत सीमाओं से ऊपर मानकर इस प्रकार प्रारूपित किया गया है जिससे भारत की समान सांस्कृतिक विरासत, सर्वशक्ति सम्पन्नता, लोकतन्त्रात्मक-समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता, समानता, सामाजिक न्यास, पर्यावरण की सुरक्षा, सामाजिक कुरीतियों से मुक्ति आदि जैसे मूल्यों को प्रोत्साहित किया जा सके। इसके लिए उपयुक्त ढाँचा विकसित करने, सांस्कृतिक चेतना से ओत-प्रोत संस्थाओं का जाल व्यवस्थित करने, वर्तमान में मौजूद सांस्कृतिक खाई को भरने के लिए उत्तम संस्थाओं के विकास पर बल दिया गया है। राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान तथा प्रशिक्षण परिषद (N.C.E.R.T.), पाठ्यक्रम विकास एवं साहित्य निर्माण के लिए प्रयत्नशील है। इस नीति में प्रत्येक राज्य में सांस्कृतिक संसाधन तथा प्रशिक्षण केन्द्र स्थापित करने को कहा गया है। ये C.C.R.T. एवं अन्य संस्थाएं N.C.E.R.T. के सहयोग से सांस्कृतिक टेक्नोलॉजी के मॉडल विकसित करें। इसमें अन्तर्जातीय सांस्कृतिक सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से क्षेत्रीय सांस्कृतिक केन्द्रों की स्थापना पर भी बल दिया गया है।

इन सबसे विद्यार्थी भारतीय सांस्कृतिक चेतना की विभिन्नता से परिचय प्राप्त कर उनमें समन्वय स्थापित कर सकेंगे। इनके साथ ही सामूहिक सामाजिक गान, सांस्कृतिक कैम्प, रैलियों, पुरातत्त्व सामग्री के संरक्षण आदि के द्वारा राष्ट्रीय-सांस्कृतिक ऐता का विकास भी हो सकेगा।


2. आर्थिक नियोजन का अर्थ तथा परिभाषाएँ :

आज सभी राष्ट्रों के जीवन हेतु आर्थिक नियोजन मूल मन्त्र है तथा आर्थिक विकास भूत जरूरत है। नियोजन वह धुरी है, जिसके चारों तरफ आर्थिक क्रियाएँ चक्कर लगाती हैं। देश की सभी आर्थिक क्रियाएँ नियोजन पर आधारित होती हैं। व्यक्ति की भाँति देश के सर्वांगीण विकास हेतु देश को नियोजन की मदद लेनी पड़ती है। नियोजन की मदद से ही आर्थिक प्रगति को एक शक्तिशाली तत्व माना गया है।

जब सन् 1947 में भारत ने राजनैतिक स्वतन्त्रता प्राप्त की तो यह अनुभव किया गया है कि आर्थिक स्वतन्त्रता तथा आत्म निर्भरता के बगैर राजनैतिक स्वतन्त्रता अधूरी रह जायेगी। अतः देश के विकास कार्यक्रमों के संचालन हेतु आर्थिक नियोजन का मार्ग अपनाया गया तथा अप्रैल सन् 1951 से पंचवर्षीय योजनाओं को शुरू किया गया। किसी देश की अर्थव्यवस्था का विस्तृत तथा सुव्यवस्थित प्रबन्ध इस ढंग से किया जाय कि आर्थिक प्रगति की दर में पर्याप्त वृद्धि सम्भव हो सके। ऐसे प्रबन्ध को ही आर्थिक नियोजन कहा जाता है। आज विश्व का कोई भी राष्ट्र चाहे विकसित हो अथवा अर्द्ध विकसित, पूंजीवादी हो या समाजवादी एवं विश्व की कोई भी अर्थव्यवस्था चाहे वह पूंजीवादी या समाजवादी अथवा साम्यवादी या मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धान्तों पर आरूढ़ क्यों न हो, आर्थिक नियोजन के बगैर विकास के मार्ग पर गतिमान नहीं हो सकती।

आर्थिक नियोजन से तात्पर्य, अर्थव्यवस्था के सभी अंगों को समन्वित करते हुए देश के साधनों के संबंध में विवेकपूर्ण कार्यक्रम बनाने एवं आवश्यक नियन्त्रण तथा निर्देशन से है, जिससे पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को एक निश्चित समय में पूरा किया जा सके।


आर्थिक नियोजन की परिभाषाएँ निम्न तरह हैं

हेयक के अनुसार- “आर्थिक नियोजन से तात्पर्य केन्द्रीय सत्ता द्वारा उत्पादक क्रियाओं का निर्देशन है।”

डाल्टन के अनुसार- “आर्थिक नियोजन अपने विस्तृत अर्थ में, विशाल साधनों के संरक्षक व्यक्तियों द्वारा निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु आर्थिक क्रियाओं का इच्छित निर्देशन है।”

एल. रॉबिन्स के अनुसार- “नियोजन से तात्पर्य उत्पाद पर किसी भी प्रकार के राजकीय नियंत्रण से है।”

वाटरसन के अनुसार- “नियोजन विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु श्रेष्ठतम उलब्ध विकल्प का संगठित, सुविचारित तथा सतत प्रयास है।”


आर्थिक नियोजन के उद्देश्य

स्वतन्त्रता के बाद देश का तीव्र, सन्तुलित तथा सर्वांगीण विकास करने की दृष्टि से आर्थिक नियोजन को अपनाया गया। अब तक नौ पंचवर्षीय योजनाएँ एवं तीन वार्षिक योजनाएँ पूर्ण हो चुकी हैं और दसवीं पंचवर्षीय योजना चल रही है। अत: इन 55 वर्षों के आर्थिक नियोजन के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं

(1) गरीबी उन्मूलन- यद्यपि आर्थिक नियोजन में प्रारम्भ से ही गरीबी की समस्या पर ध्यान दिया गया है, लेकिन पांचवीं और छठवीं पंचवर्षीय योजना में “गरीबी उन्मूलन” को आधारभूत लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है।

(2) आर्थिक विषमताओं की कमी- आर्थिक नियोजन में प्रारम्भ से ही आय सम्पत्ति के वितरण में विषमताओं को कम करने को एक महत्वपूर्ण उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। प्रायः प्रत्येक योजना में इस उद्देश्य को दोहराया गया है कि अवसरों की समानता स्थापित की जायेगी, आय तथा सम्पत्ति की असमानता में कमी लायी जायेगी और आर्थिक शक्ति के वितरण में समानता लायी जायेगी।

(3) देश का सन्तुलित विकास- देश के विभिन्न क्षेत्रों में आर्थिक विकास की विषमताओं को ध्यान में रखते हुये आर्थिक नियोजन में देश के सन्तुलित विकास पर जोर दिया गया है।

(4) समाजवादी समाज की स्थापना- भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के निर्माताओं ने नियोजन के अन्तर्गत समाजवादी समाज की स्थापना पर विशेष बल दिया है। इसके अन्तर्गत आर्थिक असमानताओं को कम करने तथा सामाजिक न्याय तथा समानता स्थापित करने पर महत्व दिया गया है, जिससे आर्थिक प्रगति का लाभ देश का प्रत्येक नागरिक उठा सके।

(5) राष्ट्रीय तथा प्रति-व्यक्ति आय में वृद्धि- भारत में आर्थिक नियोजन का मुख्य उद्देश्य राष्ट्रीय और प्रति-व्यक्ति आय में तीव्र वृद्धि करना है, जिससे देश के लोगों का जीवन-स्तर ऊंचा उठ सके।

(6) कल्याणकारी राज्य की स्थापना- भारतीय योजना का उद्देश्य देश में कल्याणकारी राज्य की स्थापना करना भी है। इस सन्दर्भ में योजना आयोग ने लिखा है, “वर्तमान सामाजिक और आर्थिक निर्माण कार्य में आर्थिक क्रियाओं को पुन: व्यवस्थित करने की समस्या नहीं है, बल्कि निर्माण कार्य को इस प्रकार संगठित करना है कि मूल आवश्यकतायें पूरी हो सकें।”

(7) रोजगार सुविधाओं में वृद्धि- भारत में आर्थिक नियोजन का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य देश में रोजगार सुविधाओं में वृद्धि करना है। प्रत्येक योजना के विस्तृत उद्देश्यों में इस तथ्य को शामिल किया गया है कि देश में रोजगार सुविधाओं में वृद्धि की जायेगी।

(8) जनसंख्या वृद्धि पर नियन्त्रण- चतुर्थ पंचवर्षीय योजना से भारत के आर्थिक नियोजन में जनसंख्या वृद्धि नियन्त्रण को एक आधारभूत उद्देश्य के रूप में स्वीकार हुआ है।

(9) आत्मनिर्भरता की प्राप्ति- यद्यपि योजना के प्रारम्भ से ही आत्मनिर्भरता के लक्ष्य की ओर बढ़ने का प्रयास किया गया है, लेकिन तृतीय योजना से इस उद्देश्य पर विशेष बल दिया गया है। पांचवी योजना में तो यह लक्ष्य रखा गया था कि योजना के अन्त तक शुद्ध विदेशी सहायता को समाप्त कर दिया जायेगा।


आर्थिक नियोजन तथा पंचवर्षीय योजनाएँ

स्वतंत्रता के बाद देश के तीव्र एवं सन्तुलित आर्थिक विकास के लिए विभिन्न पंचवर्षीय योजनाएं लागू की गयीं। इन योजनाओं की रणनीति या व्यूह रचना इस प्रकार तैयार की गयी कि कृषि के साथ औद्योगिक विकास भी हो तथा राष्ट्रीय आय बढ़े। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं की व्यूह रचना निम्न प्रकार रही-

प्रथम पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- स्वतंत्रता के बाद देश के तीव्र सन्तुलित आर्थिक विकास के लिये पंचवर्षीय योजनाओं की शुरुआत की गयी। प्रथम पंचवर्षीय योजना की अवधि 1 अप्रैल, 1951 से 31 मार्च, 1956 तक रही। “युद्ध और विभाजन के फलस्वरूप उत्पन्न आर्थिक असन्तुलन को ठीक करना तथा एक सर्वांगीण और सन्तुलित विकास की पद्धति प्रारम्भ करना, जिसके फलस्वरूप देश की राष्ट्रीय आय बढ़े और लोगों के रहन-सहन के स्तर में शीघ्र वृद्धि हो सके” उद्देश्यों को लेकर प्रथम पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई। इस योजना में कृषि को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी।

द्वितीय पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- द्वितीय पंचवर्षीय योजना 1 अप्रैल, 1956 से प्रारम्भ हुई। इस योजना के दस्तावेज में कहा गया, “हमारी द्वितीय योजना का उद्देश्य ग्रामीण भारत का पुनर्निमाण करना, औद्योगिक प्रगति की आधारशिला रखना, समाज के अशक्त एवं उपेक्षित वर्गों के लिये यथासम्भव अधिक अवसर सुरक्षित करना और राष्ट्र के समस्त प्रदेशों का सन्तुलित विकास करना है।” इस योजना में कृषि के स्थान पर औद्योगिक विकास पर विशेष जोर दिया गया है। इस योजना को तैयार करते समय देश में समाजवादी समाज की स्थापना का लक्ष्य ध्यान में रखा गया। इसमें

(i) योजना में औद्योगिक क्षेत्र पर विशेष रूप से आधारभूत एवं उद्योगों के विकास पर विशेष ध्यान दिया गया।

(ii) इस योजना में परिवहन एवं संचार को सर्वोच्च स्थान, उद्योग एवं खनिज को द्वितीय स्थान दिया गया।

(iii) सामाजिक सेवा को प्राथमिकता के क्रम में अन्तिम स्थान दिया गया।

(iv) इस योजना में कृषि को अपेक्षाकृत कम महत्व दिया गया।

तृतीय पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- प्रथम दो पंचवर्षीय योजनाओं में सफलता प्राप्त कर लेने के बाद 1 अप्रैल, सन् 1961 से तृतीय पंचवर्षीय योजना प्रारम्भ हुई। इसका आकार प्रथम दो योजनाओं से बड़ा था। इस योजना का लक्ष्य भारतीय अर्थव्यवस्था का केवल तीव्रता से विस्तार करना ही नहीं था, वरन् साथ ही साथ उसे आत्मनिर्भर एवं आत्मवाहक भी बनाना था। इस योजना की व्यूह रचना की मुख्य बातें थीं-

(i) खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना

(ii) आधारभूत उद्योगों का विकास करना

(iii) आर्थिक विषमता में कमी लाना। इस योजना में कृषि विकास को प्राथमिकता मिली।

चौथी पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- चौथी पंचवर्षीय योजना (अप्रैल 1969 से मार्च 1974) संसद में 18 मई, 1970 को रखी गयी थी। इसका उद्देश्य स्थायित्व और घटी हुई अनिश्चितताओं वाली दशा के अन्तर्गत विकास की गति को तेज करना था। इसमें कृषि उत्पादन सम्बन्धी उतार-चढ़ावों और विदेशी सहायता की अनिश्चितताओं के विरुद्ध सुरक्षात्मक प्रावधान रखे गये थे। चौथी योजना का उद्देश्य समानता और सामाजिक न्याय को बढ़ाने वाले उपायों के द्वारा लोगों के जीवन-स्तर को ऊंचा उठाना था। योजना में अपेक्षाकृत कमजोर वर्गों और कम सम्पन्न लोगों की दशा सुधारने पर विशेषतः रोजगार एवं शिक्षा की व्यवस्था के द्वारा अधिक बल दिया गया। सम्पत्ति, आय और आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण को घटाने और बिखराने के लिये भी प्रयास किये जाने थे।

पांचवीं पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- भारतीय पंचवर्षीय योजनाओं की श्रृंखला में पांचवीं योजना 1 अप्रैल, 1974 को प्रारम्भ हुई। यह योजना 31 मार्च, 1979 को समाप्त होनी थी, किन्तु इसे 31 मार्च, 1978 को ही पूर्ण कर दिया गया। योजना को निर्धारित अवधि से एक वर्ष पूर्व समाप्त करने का प्रमुख कारण तत्कालीन जनता सरकार की आर्थिक नीति थी। वह सरकार नियोजन को अपनी नीतियों के अनुसार अपनाना चाहती थी। इस प्रकार वास्तविक रूप से यह योजना चार वर्षीय ही रही।


पांचवी पंचवर्षीय योजना के मूल रूप से दो प्रमुख उद्देश्य थे

(अ) गरीबी दूर करना, और (ब) विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता की प्राप्ति।

छठी पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- छठी पंचवर्षीय योजना का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य गरीबी को दूर करना एवं राष्ट्र को विभिन्न क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाना था। छठी योजना में निम्न वर्ग की स्थिति सुधारने एवं रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए निम्न व्यूह रचना अपनायी गयी-

(1) अधिकाधिक रोजगार प्रदान करने वाले क्षेत्रों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गयी। इनमें कृषि, सिंचाई, लघु एवं कुटीर उद्योग, खनिज उत्पादन आदि आते हैं।

(2) न्यूनतम आवश्यकता कार्यक्रम में केवल भोजन एवं आवास को ही सम्मिलित नहीं किया गया बल्कि संचार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पौष्टिक आहार आदि सुविधाएं भी सम्मिलित की गयी हैं।

(3) आत्मनिर्भरता प्राप्ति के उद्देश्य के लिए उद्योगों एवं विज्ञान की प्रगति को भी उचित प्राथमिकता दी गयी है।

(4) गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वाले लोगों के उपभोग स्तर को सार्वजनिक संस्थाओं द्वारा निःशुल्क या आर्थिक सहायता देकर तथा वस्तुओं और सेवाओं के वितरण द्वारा ऊंचा उठाया जायेगा।

(5) भूमिहीन श्रमिकों, छोटे कृषकों, कारीगरों, पिछड़े क्षेत्र के लोगों की समस्याओं की ओर ध्यान दिया जायेगा।

सातवीं पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- स्वतंत्रता के बाद देश के योजनाबद्ध ढंग से विकास हेतु पंचवर्षीय योजनाएं प्रारम्भ की गयीं। यह योजना 1 अप्रैल, 1985 से 31 मार्च, 1990 तक की अवधि के लिये बनायी गयी। इस योजना का महत्वपूर्ण बिन्दु आर्थिक एवं सामाजिक आत्मनिर्भरता प्राप्त करना था। इस योजना की व्यूह रचना (प्रमुख बातें- उद्देश्य, वित्त, कार्यक्रम आदि) इस प्रकार रहीं-

सातवीं योजना का प्रमुख उद्देश्य देश को आत्मनिर्भर, आधुनिक तथा तकनीकी दृष्टि से विकसित बनाना था। इस योजना का निर्माण यद्यपि पांच वर्ष के लिये किया गया है लेकिन अगले 15 वर्षों (1985-2000) के सन्दर्भ में विचार किया गया ताकि 21वीं शताब्दी में प्रवेश करने वाला भारत आधुनिक एवं आत्मनिर्भर हो। इस योजना के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार थे –

(1) देश में अधिक से अधिक मात्रा में उत्पादक रोजगार बढ़ाना।

(2) गरीबी की सीमा रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या घटाना।

(3) विभिन्न क्षेत्रों, प्रदेशों, शहरों एवं गांवों के बीच असमानता कम करना।

(4) खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता प्राप्त करना एवं उपभोग का स्तर ऊंचा करना।

(5) शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पोषण एवं आवास की दृष्टि से सामाजिक स्तर को ऊंचा उठाना।

(6) छोटे परिवार की धारणा को स्वेच्छा से अपनाना।

(7) सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्र में स्त्रियों को उचित स्थान दिलवाना।

(8) उत्पादन क्षमता का अधिकतम उपयोग करना एवं उत्पादकता में सुधार करना।

(9) उद्योगों में प्रतिस्पर्धा, आधुनिकीकरण एवं कार्यकुशलता में वृद्धि करना।

(10) ऊर्जा की बचत करना एवं ऊर्जा के गैर परम्परागत स्त्रोतों का विकास करना।

(11) विज्ञान एवं तकनीकी का एकीकरण एवं समन्वय करना।

(12) पर्यावरण एवं परिवेश की रक्षा के प्रभावशाली उपाय करना।

आठवीं पंचवर्षीय योजना की व्यूह रचना- 1989 से 1991 के बीच भारत में राजनैतिक अस्थिरता रही। इस अवधि में तीन सरकारें बदल गयीं। इसका प्रभाव हमारे योजनाबद्ध विकास पर भी हुआ। अलग-अलग सरकारों की विकास की प्राथमिकताएं अलग-अलग होने के कारण आठवीं योजना 1 अप्रैल 1992 से प्रारम्भ हो पायी। यह योजना 31 मार्च 1997 तक चली। इस योजना के प्रमुख उद्देश्य निम्न प्रकार हैं-

(1) रोजगार के अवसरों को सृजित करना ताकि शताब्दी के अन्त तक लगभग पूरा रोजगार स्तर प्राप्त किया जा सके।

(2) जनसंख्या नियन्त्रण करना एवं इसके लिए जनता का सक्रिय सहयोग लेना।

(3) सभी के लिए प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था करना तथा 15 से 35 वर्ष की आयु के व्यक्तियों के बीच निरक्षरता का उन्मूलन करना।

(4) सभी लोगों के लिए स्वच्छ पेयजल एवं प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान करना।

(5) सिर पर मैला ढोने की प्रथा समाप्त करना।

(6) कृषि का विकास एवं विविधीकरण करना।

(7) आर्थिक विकास के लिए आधारभूत संरचना को सुदृढ़ करना।

भारत में नियोजन की प्रमुख समस्याएं

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् आर्थिक नियोजन के कारण भारत में आर्थिक विकास को एक निश्चित दिशा तथा गति मिली है, लेकिन सीमित संसाधनों एवं असीमित जरूरतों के बीच ताल-मेल बिठा पाना बहुत ही कठिन होता है। इसके अलावा अन्य कई समस्याएं भी नियोजन की सफलता में बाधक होती हैं। भारत में नियोजन के मार्ग में आने वाली कुछ मुख्य समस्याएं निम्न तरह हैं –

1. सांख्यिकीय आंकड़ों तथा सही सूचनाओं का अभाव,

2. उद्देश्यों एवं प्राथमिकताओं को सुस्पष्ट करने में कठिनाई,

3. अपर्याप्त वित्तीय संसाधन,

4. योजनाओं की समय सीमाबद्धता,

5. जन सहयोग का अभाव,

6. प्रेरणा एवं प्रोत्साहन का अभाव,

7. प्रशासनिक व्यय की अधिकता,

8. विशेषज्ञों की कमी,

9. नियोजन प्रक्रिया का त्रुटिपूर्ण होना,

10. योजनाओं के क्रियान्वयन में राष्ट्रीय चरित्र का अभाव,

11. बढ़ती जनसंख्या,

12. निरक्षरता

13. अत्यधिक गरीबी तथा बेरोजगारी

14. पड़ोसी देशों से सम्बन्धों का मधुर न होना,

15. आर्थिक तथा राजनैतिक अस्थिरता।

3. विज्ञान तथा तकनीकी :

विज्ञान, आज सभ्यता तथा प्रगति का पर्याय बन चुका है। तकनीकी के विकास ने आर्थिक तथा सामाजिक संरचना में अभूतपूर्व परिवर्तन ला दिया है एवं क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारों ने लोगों के जीवन-दर्शन को भी प्रभावित किया है। विज्ञान तथा तकनीकी का ज्ञान अब इतना महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा है कि लोग अपनी दिन-प्रतिदिन की समस्याओं का वैज्ञानिक हल चाहने लगे हैं। इसलिए किसी भी देश को अपने समग्र विकास हेतु आज अधिक-से-अधिक तकनीकी विशेषज्ञों की आवश्यकता अनुभव होने लगी है।

विज्ञान तथा तकनीकी के विकास ने मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र एवं क्रिया-कलापों को प्रभावित किया है। उदहारणार्थ-कृषि, उद्योग, चिकित्सा, संचार, परिवहन, दैनिक सामान्य जीवन आदि की वर्तमान आवश्यकताओं की पूर्ति विज्ञान तथा तकनीकी ज्ञान से ही सम्भव है। राष्ट्रीय सुरक्षा एवं निःशस्त्रीकरण की समस्या का हल भी विज्ञान तथा तकनीकी का ज्ञान ही प्रदान कर सकता है। वर्तमान आर्थिक विकास का तो मूल ही विज्ञान तथा तकनीकी है। विज्ञान के द्वारा न सिर्फ भौतिक प्रगति हो रही है, वरन् इससे अभौतिक प्रगति अर्थात् व्यक्तियों के सोचने के ढंग एवं दृष्टिकोण में भी परिवर्तन हो रहा है। इसलिए आज व्यक्ति तथा समाज हेतु विज्ञान तथा तकनीकी के ज्ञान तथा उनकी प्रक्रियाओं की सही समझ होना बहुत ही आवश्यक है। विकासशील समाज के लिए तो इसका और ज्यादा महत्त्व है।


विज्ञान एवं तकनीकी के विकास में शिक्षा की भूमिका

विश्व के कई विकासशील देशों की तरह भारत में भी विज्ञान शिक्षा पर अधिक-से-अधिक ध्यान दिया जा रहा है। विज्ञान तथा तकनीकी के इस युग में विज्ञान शिक्षा सिर्फ प्रगति हेतु ही नहीं वरन् मानव अस्तित्व की रक्षा हेतु अनिवार्य हो गई है। भारत सरकार द्वारा नियुक्त लगभग सभी शिक्षा आयोगों ने विज्ञान तथा तकनीकी के महत्त्व पर प्रकाश डाला है। कोठारी आयोग के अनुसार, “हमने शिक्षा की पुनर्संरचना के लिए इस प्रतिवेदन में जिनसे बुनियादी उपागम तथा दर्शन को अपनाया है, वह इस धारणा पर आधारित है कि देश की प्रगति, कल्याण तथा सुरक्षा शिक्षा के विस्तार एवं गुणात्मक विकास एवं विज्ञान तथा तकनीकी के अनुसन्धान पर ही निर्भर है।” परिणामस्वरूप आज भारत में शिक्षा के विस्तार के साथ-साथ विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा का भी व्यापक विस्तार हुआ है। इसके द्वारा प्रशिक्षित वैज्ञानिक एवं तकनीशियन मानव शक्ति में भी वृद्धि हुई है।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के समय इंजीनियरिंग, कृषि तथा चिकित्सा शिक्षा संख्यात्मक तथा गुणात्मक दोनों दृष्टि से बहुत पिछड़ी हुई थी। आज हर जिले में औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थान (आई.टी.आई), पॉलीटेक्निक एवं उच्चर तथा रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज तथा भारतीय प्रौद्योगिक संस्थान (आई.आई.टी) की स्थापना से इंजीनियरिंग शिक्षा का एक व्यवस्थित जाल-सा फैल गया है। इस साथ ही आज भारत में कृषि शिक्षा के लिए लगभग 20 विश्वविद्यालय तथा 100 से ज्यादा कॉलेज हैं। भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद् तथा कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा कृषि क्षेत्र में किये गये अनुसन्धानों के कारण कृषि उत्पादन में वृद्धि, हरित क्रान्ति, खाद्यान्न में आत्म-निर्भरता, दुग्ध-उत्पादन में वृद्धि आदि लक्ष्यों को प्राप्त करने में बहुत ज्यादा सफलता मिली है।

चिकित्सा शिक्षा के क्षेत्र में जहाँ पर 1947 में मात्र 15 मेडिकल कॉलेज थे वहीं आज देश में इनकी संख्या 100 से ज्यादा हो गई है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली एवं स्नातकोत्तर चिकित्सा शिक्षा तथा अनुसन्धान के कई और संस्थान आज विश्व स्तर के माने जा रहे हैं। औषधि अनुसन्धान संस्थानों तथा औषधि निर्माता कारखानों की उपलब्धियाँ तो बेजोड़ हैं, जिन्होंने सभी तरह की दवाओं से बाजारों को भर दिया है। परिणामस्वरूप मनुष्य की औसत आयु में बढ़ोत्तरी हुई है एवं अनेक असाध्य बीमारियों पर नियन्त्रण हो सका है। इस तरह विज्ञान तथा तकनीकी के विकास में शिक्षा ने अभूतपूर्व योगदान किया है।


विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा की प्रमुख समस्याएं

कई उपलब्धियों के बाद भी भारतीय समाज की जरूरत को अभी तक विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा शत-प्रतिशत पूरा नहीं कर सकती है। इसमें जो कमियाँ रह गई हैं एवं इसके विकास के मार्ग में जो प्रमुख बाधाएं हैं, वे अग्र तरह हैं

1. नियोजन तथा योजनाबद्ध कार्यक्रम का अभाव।

2. तकनीकी शिक्षा को आधार प्रदान करने हेतु अनिवार्य सामान्य शिक्षा में गुणात्मक सुधार की जरूरत।

3. तकनीकी शिक्षा द्वारा वांछनीय प्रवृत्तियों का विकास न होना एवं सरकारी नौकरियों की ज्यादा लालसा।

4. विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा हेतु कुशल अध्यापकों का अभाव।

5. माध्यमिक स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा की समस्या।

6. छोटे एवं मध्यम स्तर पर तकनीशियनों का अभाव।

7. भारत में अपार शक्ति का समुचित उपयोग न हो पाना।

8. अनुपयुक्त पाठ्यक्रम।

9. शिक्षा का माध्यम।

10. तकनीकी शिक्षा में व्यावसायिक शिक्षा का अभाव।

11. तकनीकी शिक्षा एवं उद्योगों में सहयोग का अभाव।

12. विज्ञान तथा तकनीकी शिक्षा के आधुनिकीकरण की समस्या।

13. अनुसन्धान के अपर्याप्त संसाधन।

14. आधुनिकीकरण के कारण नवीन समस्याओं का उदय।

15. बेरोजगारी की समस्या।

4. औद्योगीकरण तथा नगरीकरण

औद्योगीकरण तथा नगरीकरण आधुनिक युग की एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक-आर्थिक प्रक्रिया है। औद्योगीकरण तथा नगरीकरण एक-दूसरे के कारण एवं परिणाम है। जब किसी क्षेत्र में उद्योग-धन्धे विकसित हो जाते हैं एवं मशीनों के द्वारा बड़े-बड़े मिल तथा कारखानों में उत्पादन कार्य होने लगता है तब वहाँ पर नगरीकरण की प्रक्रिया तेजी से क्रियाशील होती है। भारत में कई नगरों का विकास इसी तरह हुआ है। इस अर्थ में औद्योगीकरण नगरीकरण का कारण होता है। इसके विपरीत जब सुविधाओं की अधिक-से-अधिक उपलब्धता अथवा अन्य कारणों से कोई ग्रामीण क्षेत्र अथवा समुदाय नगर का रूप धारण कर लेता है तो वहाँ पर धीरे-धीरे उद्योग-धन्धे पनपने लगते हैं। इस स्थिति में औद्योगीकरण नगरीकरण का परिणाम होता है। इस तरह औद्योगीकरण तथा नगरीकरण की प्रक्रियाएं एक-दूसरे से सम्बन्धित ही नहीं हैं, वरन् एक-दूसरे की पूरक भी हैं। इसलिए इन दोनों के सामाजिक, आर्थिक प्रभाव भी प्राय: एक जैसे ही होते हैं। विज्ञान तथा तकनीकी के विकास के कारण औद्योगीकरण एवं नगरीकरण की प्रक्रिया में और अधिक वृद्धि हुई है।

औद्योगीकरण तथा नगरीकरण से हुए सामाजिक आर्थिक परिवर्तनों के कारण जहाँ हमें कई सुविधाएं प्राप्त हुई हैं वहीं इसके कई दुष्परिणाम भी देखने को मिल रहे हैं। आज भारत में औद्योगीकरण तथा नगरीकरण के फलस्वरूप जो परिवर्तन हुए हैं तथा जो गम्भीर समस्याएं उत्पन्न हुई हैं, वे अग्रांकित हैं –

(क) सामाजिक जीवन में परिवर्तन :

1. सामुदायिक जीवन का हास।

2. व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का विकास।

3. सामाजिक मूल्यों तथा सम्बन्धों में परिवर्तन।

4. जाति प्रथा का निर्बल होना एवं अन्तर्जातीय विवाहों का प्रचलन।

5. स्थान की कमी के कारण गन्दी बस्तियों का विकास।

6. रोजगार में पुरुषों की अधिकता से स्त्री-पुरुष अनुपात में अंतर।

7. मनोरंजन की व्यापारीकरण।

8. मानसिक चिन्ता, दुर्घटना, बीमारी तथा रोगों में वृद्धि।

9. अपराध, व्यभिचार, संघर्ष तथा प्रतिस्पर्धा में वृद्धि।

10. भौतिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक प्रदूषण की समस्या।


(ख) पारिवारिक जीवन में परिवर्तन :

1. संयुक्त परिवारों का विघटन तथा एकाकी परिवारों का उदय।

2. स्त्रियों का घर से बाहर काम करना।

3. पारिवारिक नियन्त्रण तथा महत्त्व में कमी आना।

4. प्रेम-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह, विलम्ब विवाह तथा तलाक का बाहुल्य।


(ग) धार्मिक जीवन में परिवर्तन :

1. परम्परागत मूल्यों में परिवर्तन तथा नवीन मूल्यों का विकास।

2. धार्मिक संकीर्णता में कमी एवं धार्मिक सहनशीलता में वृद्धि।

3. नैतिक आचरण में कमी।


(घ) राज्य के कार्यों में परिवर्तन :

1. नये श्रमिक वर्ग का उदय तथा उनकी समस्याएं।

2. नई कॉलोनियों तथा बस्तियों की व्यवस्था।

3. स्त्री-श्रमिकों के वेतन, छुट्टी तथा सुरक्षा की समस्या।

4. बाल-श्रमिकों के शोषण की समस्या।

5. शैक्षिक आवश्यकताओं की पूर्ति की समस्या।


(ङ) ग्रामीण समुदायों में परिवर्तन :

1. गाँवों में रोजगार की कमी।

2. हस्त कलाओं तथा ग्रामोद्योग का हास।

3. गाँवों का नगरीकरण।


(च) आर्थिक जीवन में परिवर्तन :

1. पूँजीवाद का विकास।

2. श्रम विभाजन तथा विशेषीकरण।

3. बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण बेकारी की समस्या में बढ़ोत्तरी।

4. औद्योगिक झगड़े, बीमारी एवं दुघटनाओं में वृद्धि

5. नशाखोरी, वेश्यावृत्ति, भिक्षावृत्ति तथा बाल-अपराध में वृद्धि।


5. कृषि का विकास :

भारत एक कृषि प्रधान देश है। स्वतन्त्रता प्राप्ति के 50 वर्ष बाद भी आज देश के लगभग 70 प्रतिशत आबादी के जीविकोपार्जन का प्रमुख स्रोत कृषि ही है। कृषि को भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है। इसकी पुष्टि इन तथ्यों से भी होती है कि राष्ट्रीय आय में एक तिहाई योगदान कृषि का है एवं भारत की दो तिहाई जनसंख्या के रोजगार का मूल स्रोत यही है। भारत की लगभग एक अरब से ज्यादा जनसंख्या हेतु खाद्यान्न एवं 42 करोड़ पशुओं के लिए चारा कृषि क्षेत्र से ही उपलब्ध होता है। भारत के कई उद्योग, जैसे-चीनी, सूती वस्त्र, जूट, बागान आदि प्रत्यक्ष रूप से कृषि के विकास के साथ जुड़े हैं एवं अन्य उद्योगों से भी इसका सम्बन्ध है। विदेशी मुद्रा अर्जन में भी कृषि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत में कुल निर्यात का लगभग 20 प्रतिशत कृषि तथा उससे सम्बन्धित उत्पादों का होता है। उत्पादन की दृष्टि से चाय एवं मूंगफली के उत्पादन में भारत का विश्व में प्रथम स्थान, चावल, गन्ना, जूट तथा कपास के उत्पादन में द्वितीय स्थान एवं लाख के उत्पादन में तो एकाधिकार की स्थिति है।

उक्त विवेचन से भारत में कृषि के महत्त्व का सहजता से अनुमान लगाया जा सकता है। अतः स्वाभाविक है कि कृषि के विकास हेतु सरकारी तथा गैर-सरकारी स्तर पर कई प्रयास किये गये हैं एवं किये जा रहे हैं। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में कृषि का विशेष ध्यान दिया गया है। भारत में हरित क्रान्ति लाने हेतु उत्तम बीज, नवीन कृषि उपकरणों, रासायनिक उर्वरकों तथा सिंचाई सुविधाओं के अधिकाधिक प्रयोग पर बल दिया गया है। इससे कृषि उत्पादन में अभूतपूर्व वृद्धि भी हुई है, लेकिन राष्ट्रीय आय में कृषि की प्रमुख भागीदारी होने एवं ज्यादातर जनसंख्या के रोजगार का स्रोत होने के कारण इसके विकास पर अभी और ध्यान देने की जरूरत है। भारतीय कृषि के विकास में कुछ प्रमुख समस्याएं निम्न हैं-

(i) कृषि पर जनसंख्या का बढ़ता हुआ भार

(ii) कृषकों का परम्परावादी दृष्टिकोण तथा अशिक्षित होना

(iii) वास्तविक कृषकों के पास भूमि की कमी अथवा भूमि का न होना

(iv) कृषि जोतों का बहुत छोटा आकार अर्थात् अनार्थिक जोतें

(v) वित्तीय संसाधनों का अभाव एवं साहूकारों का नियन्त्रण

(vi) दोषपूर्ण विपणन व्यवस्था

(vii) उत्पादन की पिछड़ी हुई तकनीकें

(viii) उत्तम बीजों तथा उर्वरकों का कम प्रयोग

(ix) सिंचाई सुविधाओं की अपर्याप्तता तथा मानसून पर ज्यादा निर्भरता

(x) फसलों की सुरक्षा का अभाव

(xi) कृषि शिक्षा का अभाव एवं

xii) कृषि अनुसन्धानों पर कम ध्यान देना आदि।


6. संसाधनों का दोहन तथा संरक्षण :

शिक्षा एक सामाजिक प्रक्रिया है एवं सामाजिक परिवर्तन तथा विकास का एक मुख्य साधन है। शिक्षा के द्वारा ही सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक विकास सम्भव होता है। इसलिए शिक्षा के विकास हेतु उपलब्ध संसाधनों का अधिक-से-अधिक सदुपयोग किया जाना चाहिये एवं इन संसाधनों को संरक्षित रखने का भी प्रयत्न होना चाहिए। शिक्षा के विकास के प्रमुख संसाधनों को अग्रलिखित वर्गों में विभाजित किया जा सकता है-

1. प्राकृतिक संसाधन

2. मानवीय संसाधन

3. सामुदायिक संसाधन

4. वित्तीय संसाधन

5. आधुनिक संसाधन तथा शैक्षिक तकनीकी

मनुष्य का जीवन प्राकृतिक संसाधनों-वायु, जल, भूमि, वन तथा वनस्पतियों पर निर्भर है। शिक्षा के क्षेत्र में, यही बालक के वास्तविक प्रायोगिक क्षेत्र तथा अभ्यासशालाएं होती हैं इसलिए शिक्षा के विकास में इन संसाधनों का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है। दूसरी तरफ इन संसाधनों का अधिकतम दोहन तथा उनका संरक्षण भी शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। इसलिए पाठ्यक्रम विकास में इन संसाधनों की उपयोगिता तथा उनके संरक्षण के उपायों का समावेश अवश्य किया जाना चाहिए।

मानव स्वयं एक संसाधन है एवं शिक्षा उसके समुचित विकास का एक सशक्त माध्यम है। अतः ‘शिक्षा और मानव संसाधन विकास’ एक-दूसरे के पर्याय माने जा रहे हैं। मानव का समुचित तथा सर्वांगीण विकास करना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य होता है लेकिन हर समुदाय में कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो किसी विशिष्ट क्षेत्र में विशेषज्ञता रखते हों। यह विशेषज्ञता पूर्व-शिक्षा, पूर्व-अनुभव, चिन्तन या सृजनात्मकता के कारण हो सकती है। इसलिए विद्यालयों को इन विशेषज्ञों (मानव संसाधनों) की सेवाओं का लाभ उठाना चाहिए।

सामुदायिक संसाधनों का उपयोग, जैसे-सामाजिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक अभिलेखों, विद्यार्थी जीवन के अनुभवों, विशेषज्ञों की सेवाओं, सामुदायिक कुशलताओं आदि के उपयोग के रूप में किया जा सकता है।


पाठ्यक्रम अस्तित्व की समस्याएं :

पाठ्यक्रम की दृष्टि से यदि देखा जाए तो विद्यालयी पाठ्यक्रम का स्कूली शिक्षा में विशेष महत्त्व होता है। भारत में स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम की काफी आलोचना की जाती है। पिछले कुछ वर्षों में मध्यान्तर भोजन योजनाएं बनायी गयी थीं। वे बड़ी स्कूली कमियों को दूर करने हेतु बनायी गयी थीं लेकिन आधुनिक समय में केन्द्रीय एवं राज्य सरकारें पाठ्यक्रम के पुनरीक्षण और माध्यमिक शिक्षा के सम्पूर्ण पैटर्न को एक स्वरूप प्रदान करने का प्रयास कर रही हैं लेकिन इस क्षेत्र में बहुत कम प्रगति दिखलाई दे रही है। परम्परागत गलत प्रत्ययों ने एवं आचरण स्कूली अभ्यास ने बहुत-सी समस्याएं खड़ी कर दी हैं।


पाठ्यक्रम अस्तित्व के मुख्य मुद्दे तथा समस्याएं अग्र तरह हैं

1. शिक्षा को पुनर्परिचित कराने की आवश्यकता- ज्यादातर शिक्षक, प्रधान अध्यापक एवं शैक्षिक प्रशासक पाठ्यक्रम का मतलब विविध परम्परागत शैक्षिक विषयों के संकलन से अधिक नहीं समझते हैं। पाठ्यक्रम की अवधारणा पूर्णतया विविध आयु वर्ग के छात्रों के शैक्षिक अनुभवों पर आधारित है। यह पाठ्यवस्तु के अभ्यास से प्रभावित नहीं है। राज्यों का नया पाठ्यक्रम विषय आधारित न होकर बाल-आधारित हो गया है तथा यह पाठ्य-पुस्तक एवं भूतकालीन सैद्धान्तिक परम्पराओं से ज्यादा प्रभावित है। इसमें जो भी परिवर्तन आये हैं, वे विस्तृत रूप में आये हैं। छात्रों को पर्याप्त रूप से बौद्धिक, सामाजिक एवं प्रयोगात्मक अनुभव प्रदान करने का प्रयत्न किया जा रहा है। परम्परागत शिक्षकों के कारण नयी योजना उतनी प्रभावशाली रूप से कार्य नहीं कर सकती है। इस कारण इनमें शीघ्र सुधार लाने की सम्भावना कम हो जाती है। यह एक बहुत बड़ी समस्या है क्योंकि शिक्षक उतनी शीघ्रता से नयी तकनीकों को नहीं अपना पा रहे हैं। इस समस्या के समाधान के लिए अग्रलिखित सुझाव दिये जा सकते है-

1. शिक्षकों को गत्यात्मक प्रोग्राम हेतु अस्थायी रूप से व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

2. सेवारत प्रशिक्षण तथा पुनर्परिचित हेतु हजारों शिक्षकों, प्रधान अध्यापकों एवं प्रशासकों को प्रशिक्षण प्रदान करना चाहिए।

इस तरह के व्यावसायिक प्रशिक्षण के द्वारा शिक्षकों में तकनीकी ज्ञान का समायोजन किया जा सकता है तथा शिक्षकों की क्षमताओं एवं योग्यताओं का विकास किया जा सकता है।

2. विश्वविद्यालय की प्रभुत्वता- पाठ्यक्रम के सैद्धान्तिक एवं ज्यादा किताबी होने का एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि यह ज्यादातर विश्वविद्यालय की आवश्यकताओं एवं प्रवेश प्रक्रिया को ध्यान में रखकर निर्धारित किया जाता है। स्कूली छात्र बहुत बड़ी संख्या में स्कूली शिक्षा खत्म करके विश्वविद्यालयों में प्रवेश लेते हैं। पाठ्यवस्तु कमेटी ज्यादातर कॉलेज के उन शिक्षकों के प्रभुत्व में कार्य करती है जिनकी पहुँच ऊंची होती है एवं इस तरह पाठ्यवस्तु विश्वविद्यालय स्तर पर निर्धारित किया जाता है एवं हर बार परिवर्तित एवं संशोधित पाठ्यवस्तु विश्वविद्यालय के प्रभाव से ही निर्धारित होता है। विश्वविद्यालय में प्रवेश लेते समय छात्र पाठ्यवस्तु की शिकायत कर सके इस तरह की कोई व्यवस्था नहीं है। पाठ्यवस्तु के निर्धारण में स्कूली शिक्षक एवं अभिभावकों और छात्रों की कोई भूमिका नहीं होती है। यह एक बहुत जटिल मुद्दा एवं समस्या है। शिक्षक पाठ्यक्रम को पढ़ाता है पर उसका पाठ्यक्रम निर्धारित करने से कोई महत्त्व नहीं होता है। इस समस्या के समाधान हेतु छात्रों एवं शिक्षकों तथा अभिभावकों का पाठ्यक्रम निर्धारण में महत्त्व होना चाहिए।

3. वैज्ञानिकता के निकट आने की जरूरत- पाठ्यवस्तु निर्माण हेतु कुछ वैज्ञानिक पहुँच का भी ध्यान रखना चाहिए। पाठ्यक्रम निर्माण करते समय समस्याओं पर पूर्णरूपेण विचार करना चाहिए तभी हम उन्हें सफलतापूर्वक हैण्डिल कर सकते हैं। पुराने विषयों के साथ कुछ नये वैज्ञानिक विषयों को भी जोड़ना चाहिए। देश में पाठ्यक्रम अनुसन्धानों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रमों में वैज्ञानिकता पहुँच की बहुत जरूरत है। समस्या पर सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से विचार करके यह कहा जा सकता है कि पाठ्यक्रम में समय-समय जरूरतों के अनुसार परिवर्तन करना चाहिए। विषय की अन्तर्वस्तु का मूल्यांकन करना पाठ्यक्रम के सभी प्रकरणों के महत्त्व के अनुसार उसका रूपान्तरण करना है। छात्र का मूल्यांकन उसके विस्तृत सामाजिक तथा मानवीय विकास के सन्दर्भ में करना चाहिये। पाठ्यक्रम निर्माण में छात्रों की योग्यताओं, रुचियों एवं क्षमताओं और विशेष रूप से उसकी समायोजन क्षमताओं का ध्यान रखना जरूरी है। यह जरूरी है कि प्रस्तावित पाठ्यक्रम अन्तर्वस्तु न्यूनतम से अधिकतम एवं सरल से कठिन के पैटर्न पर आधारित है जिसे औसत एवं औसत से ऊपर के छात्र हल कर सकें, ऐसा होना चाहिए तथा पाठ्यक्रम में कोई भी संशोधन विभिन्न क्षमताओं के छात्रों पर ज्यादा भार न डालें।

4. पाठ्यक्रम निर्माण में शिक्षकों का संघ- सामान्य तौर पर यह कहा जाता है कि एक पाठ्यक्रम जो एक राज्य के विद्यालय के लिए बनाया जा रहा है, वह सभी राज्यों के अनुसार स्वीकृत किया गया है। पाठ्यवस्तु के चयन अथवा इसके पैटर्न में परिवर्तित कोई स्वतन्त्रता नहीं होती है। कल्पनाशील शिक्षक प्रस्तावित पाठ्यक्रम को स्वीकार करते हैं जो स्थानीय परिस्थितियों तथा व्यक्तिगत संस्थानों के आधार पर निर्मित होता है लेकिन कुछ शिक्षक इससे दूर रहते हैं ज्यादातर शिक्षक सुनिश्चित पाठ्यक्रम आधारित पैटर्न को प्राथमिकता देते हैं जिसमें कम-से-कम खतरा हो एवं सुस्पष्ट निर्देशन हो। शिक्षक एवं प्रशासक पाठ्यक्रम नियोजन में सन्तोषजनक ढंग से सहभागिता नहीं करते हैं। कई बार सही तरीके से पाठ्यक्रम को समझा भी नहीं जाता है। अगर वे पाठ्यक्रम निर्माण के समय एकजुट होकर सही तरह से सहभागिता करें तो पाठ्यक्रम सम्बन्धी कई समस्याओं का सामना उन्हें नहीं करना पड़ेगा। क्योंकि अनुभवी शिक्षक ही छात्रों की वास्तविक कठिनाइयों को समझते हैं एवं अगर वे पाठ्यक्रम निर्माण के समय पाठ्यक्रम निर्माताओं के संज्ञान में उन समस्याओं को ले आएं तो ये समस्याएं छात्रों को भविष्य में प्रभावित नहीं कर पाएंगी।

5. विषयों के एकीकृत हेतु जरूरत- पाठ्यक्रम की पुनर्व्यवस्था विविध विषयों एवं उनकी विविध इकाइयों एवं विस्तृत अध्ययन सामग्री के कारण एवं विभिन्न विषयों की तुलना के कारण बहुत जरूरी हो जाती है। पाठ्यक्रम के विभिन्न विषय अधिकांशतः पृथक रूप से प्रस्तुत किये जाते हैं एवं हर इकाई की अध्ययन सामग्री मानवीय ज्ञान तथा रुचि पर आधारित होती है लेकिन जब हम कुछ विषयों का एकीकरण करने हेतु समूह बनाते हैं, जैसे सामाजिक विज्ञान एक ऐसा विषय है जिससे सभी परिचित हैं तथा इसकी पहुँच परम्परागत रूप से हर व्यक्ति तक है इसलिए सामाजिक विज्ञान विषय में इतिहास, भूगोल,नागरिकशास्त्र तथा अर्थशास्त्र विषयों को एकीकृत करके एक समूह बनाया जाता है। इसी तरह सामान्य विज्ञान में शिक्षकों एवं विशेषज्ञों के विकास हेतु विज्ञान की एक अथवा दो शाखाएं हैं (भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, जीव विज्ञान आदि) इसमें छात्र विभिन्न विज्ञानों में अन्तर्सम्बन्ध नहीं स्थापित कर सकते हैं। इसी कारण वे एकीकृत विषयों को चुनते हैं। कई बार शिक्षकों एवं छात्रों पर इसी कारण कार्य भार बढ़ जाता है। बहुत-से विषय होने के कारण कई बार छात्रों के सामने हाईस्कूल स्तर पर कुछ भाषाओं को सीखने की समस्या भी पैदा हो जाती है। इसलिए विषयों के एकीकरण की समस्या भी एक महत्त्वपूर्ण समस्या है।

6. पाठ्यवस्तु के अतिभार की समस्या- छात्र के सामने पाठ्यवस्तु के अतिभार की समस्या भी एक महत्त्वपूर्ण समस्या है। किताबी ज्ञान पर इसी कारण ज्यादा दबाव डाला जाता है। हर विषय में बहुत-से तथ्य तथा उनकी विस्तृतता से पाठ्यवस्तु बोझिल बन जाती है। इसका ज्यादातर छात्र हेतु ज्यादा महत्त्व नहीं होता है। जिन विशेषज्ञों को पाठ्यक्रम का पुनरीक्षण करने के लिए नियुक्त किया जाए उन्हें जहाँ तक सम्भव हो, छात्रों की रुचि के अनुकूल विषय-सामग्री का चुनाव करना चाहिए तथा उसी विषय-सामग्री को चुनना चाहिए जिसकी विषय में ज्यादा माँग हो। विषय-सामग्री अधिगमकर्ता की रुचियों, आवश्यकताओं तथा तार्किक विकास को ध्यान में रखकर चुनी जानी चाहिए। पाठ्यक्रम एवं शिक्षक दोनों पर कोई दबाव नहीं होना चाहिए। शिक्षक को यह अनुभव होना चाहिए कि सबसे महत्त्वपूर्ण बालक है तथा उसके विकास के लिए हमें उसे शिक्षित करना है। किस तरह उसकी स्मृतियों पर भार डाले बगैर उसे महत्त्वपूर्ण जानकारी दी जा सकती है एवं किस तरह विभिन्न विषयों के आंकड़े एवं महत्त्वपूर्ण तथ्यों का ज्ञान छात्रों को प्रदान किया जाए जिससे उसका सर्वांगीण विकास हो सके तथा अधिगमकर्ता उस विषय में पारंगत बन सके।

7. विभिन्नीकृत पाठ्यचर्या में कठिनाइयाँ– तात्कालिक वर्षों में पाठ्यक्रमों में बहुत-से विभिन्नीकृत कोर्स प्रदान किये हैं। ये कोर्स छात्रों की रुचियों, अभिवृत्तियों तथा योग्यताओं के आधार पर लाये गये हैं जिनका उपयोग छात्र अपनी-अपनी योग्यताओं एवं रुचियों तथा अभिवृत्तियों के अनुसार कर सकते हैं। इनमें कॉमर्स में, फाइन आर्ट तथा गृह विज्ञान में, कृषि विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी में प्रयोगात्मक कोर्स शामिल हैं लेकिन ये कोर्स पूर्ण रूप से उपयोगी सिद्ध नहीं हो पा रहे हैं क्योंकि इनकी उपयोगिता में कुछ समस्याएं आ रही हैं, जैसे-उपकरणों की कमी, प्रतीक्षित नियोक्ताओं की कमी, निर्देशन सामग्री का अभाव आदि। कुछ ऐसे बहुउद्देशीय विद्यालयों की जरूरत है जहाँ पर कृषि एवं तकनीकी प्रशिक्षित नियोक्ता हों तथा प्रशिक्षित शिक्षक छात्रों को उचित रूप से प्रशिक्षित कर सके। हालांकि बहुत-से कोर्स पेश किये गये हैं जिनमें अच्छे प्रशिक्षित शिक्षक भी उपलब्ध हैं। उचित शैक्षिक एवं व्यावसायिक निर्देशन के अभाव में ये विद्यालय पूर्णत: प्रभावहीन सिद्ध होते हैं। विभिन्नीकृत पाठ्यक्रमों के अनुसार स्कूलों की पुनर्व्यवस्था होना जरूरी है जिससे विभिन्न समस्याओं का समाधान हो सके लेकिन इस समस्या का समाधान करना इतना सरल नहीं है।

8. पाठ्य-पुस्तकों की समस्या- पाठ्य-पुस्तकें तथा संस्थान द्वारा प्रदत्त शिक्षण-सामग्री छात्रों के सामने एक बहुत महत्त्वपूर्ण तथा गम्भीर समस्या होती है। यह समस्या पाठ्यक्रम सुधार की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है। पाठ्य-पुस्तकें अक्सर अन्तर्वस्तु तथा प्रस्तुतीकरण के सन्तोषजनक स्तर की नहीं होती है। वे संस्थान द्वारा प्रदत्त शिक्षण-सामग्री तथा शिक्षकों को निर्देशन प्रदान करने में पूर्णतया सक्षम नहीं होती है। समस्या उस समय ज्यादा पैदा हो जाती है जब निर्देश का माध्यम प्रान्तीय भाषाएं हों। प्रकाशक अगर पुस्तकों से ज्यादा लाभ प्राप्त नहीं कर पाते हैं तो वे अच्छी पुस्तकें जो बड़े पैमाने पर नहीं बिकती हैं, उनको नहीं छापते हैं। इस तरह अच्छी पुस्तकों का निर्माण नहीं हो पाता है।

पाठ्य-पुस्तकों की समस्या का समाधान करने हेतु विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण होना आवश्यक है। विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण होने से पाठ्य-पुस्तकों के अतिभार की समस्या का समाधान सम्भव है। सरकार इस क्षेत्र में प्रयत्न कर रही है एवं विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी एकीकरण लाने का प्रयत्न कर रही है। राष्ट्रीयकरण से विविध राज्यों के पाठ्यक्रम में एकरूपता आ जाएगी। संक्षेप में निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि हम उच्च गुणवत्ता युक्त पुस्तकों का निर्माण करने में सक्षम नहीं हैं तथा हमारे पास न ही योग्य लेखक हैं एवं उचित कीमतों का अभाव भी है जिससे पाठ्य-पुस्तकों की समस्या आज खड़ी हुई है।

9. पाठ्यक्रम तथा परीक्षा- पाठ्यक्रम की समस्या परीक्षा एवं मूल्यांकन से घनिष्ठ रूप से जुड़ी होती है। शैक्षिक व्यवस्था में पाठ्यक्रम के उद्देश्यों, शिक्षण की विधियाँ, पाठ्यक्रम के विषय तथा उन उद्देश्यों का मूल्यांकन एकल शैक्षिक प्रक्रिया का रूप माना जाता है। हमारे देश में परीक्षा पाठ्यक्रम के अतिरिक्त प्रश्नों पर आधारित होती है अर्थात् परीक्षा में अधिकतर पाठ्यक्रम से बाहर भी प्रश्न पूछ लिये जाते हैं। यह एक छात्र तथा शिक्षक के लिए बहुत बड़ी समस्या होती है कि वह पाठ्यक्रम के बाहर से पूछे गये प्रश्नों को किस तरह पढ़े एवं तैयार करे। यह व्यवस्था एक तरह से पाठ्यक्रम को व्यर्थ सिद्ध कर देती है तथा इसमें बड़े पैमाने पर सुधार की जरूरत है। इससे परीक्षा व्यवस्था भी प्रभावित होती है एवं पाठ्यक्रम के उद्देश्यों में है भी परिवर्तन आ जाता है। परीक्षा अगर पाठ्यक्रम से बाहर के प्रश्नों पर आधारित हो जाए तो पाठ्यक्रम की प्रासंगिकता पर ही प्रश्न चिन्ह लग जाता है। यह एक ऐसा मुद्दा है जिससे माध्यमिक परीक्षा, उच्च परीक्षा एवं उच्चतर स्तर तक के छात्र प्रभावित होते हैं। सभी स्तरों पर पाठ्यक्रम से ज्यादा प्रश्न पूछे जाते हैं। इसलिए यह समस्या सभी स्तर के छात्रों के सामने आती है।

परीक्षा की व्यवस्था में सुधार लाने हेतु विशेष तौर पर प्रशिक्षित कर्मचारी से ही प्रश्न-पत्रों का निर्माण कराना चाहिए जो विशेष रूप से इस तरह के प्रश्नों का चयन करे जो पाठ्यक्रम के अंग हों। ऐसी आशा की जाती है कि कुछ वर्षों में इस समस्या की तरफ ध्यान दिया जाएगा एवं इसमें सुधार आएगा। मूल्यांकन की व्यवस्था एवं मूल्यांकन विस्तृत पाठ्यक्रम के आधार पर होना चाहिए जिसमें इस तरह प्रश्नों का निर्माण किया जाए जो सम्पूर्ण पाठ्यक्रम का प्रतिनिधित्व करते हों जिसमें बहुत बुद्धिमत्ता से रचनात्मक शिक्षण विधियों का प्रयोग किया जाए। सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पर आधारित प्रश्न-पत्रों का निर्माण किया जाए जिसमें सभी इकाइयों से प्रश्न चुने जाएं। इस तरह एक ऐसा प्रश्न-पत्र बनाया जाए जो सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पर अधिकाधिक छात्रों की बुद्धिमत्ता एवं ज्ञान का मूल्यांकन करने में सक्षम हो।

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