पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय किन-किन चरणों से गुजरना पड़ता है ? पाठ्यचर्या निर्माण में ध्यान योग्य बातें कौनसी हैं?

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पाठ्यचर्या निर्माण के विभिन्न चरण

पाठ्यचर्या विद्यालयी शिक्षा का केन्द्र बिन्दु है। पाठ्यचर्या एक सुनियोजित क्रिया है। समस्त शिक्षण प्रक्रिया में पाठ्यचर्या का एक विशेष महत्व है। इसलिए इसका निर्माण बहुत ही सूझ-बूझ से करना चाहिए।

(1) स्थिति विश्लेषण- सैद्धान्तिक रूप से कहा जा सकता है कि पाठ्यचर्या को आरम्भ करने का कोई बिन्दु नहीं होता है। परन्तु व्यावहारिक दृष्टि से पाठ्यचर्या को कहीं से आरम्भ करना होगा। यह कार्य स्थिति विश्लेषण से आरम्भ किया जा सकता है। स्थिति विश्लेषण से हमारा अभिप्राय है किसी स्थिति विशेष के सभी तत्वों का विश्लेषण किया जाए। इससे ही प्रभावशाली पाठ्यचर्या के निर्माण में सहायता मिलती है और मार्गदर्शन मिलता है। विश्लेषण निम्नलिखित तत्वों का किया जाता है :

(i) प्रचलित पाठ्यचर्या का अध्ययन- शिक्षण में हर समय एवं हर स्थान पर पाठ्यचर्या का प्रयोग किया जाता है। इसका विवेकपूर्ण अध्ययन कर गुण-दोषों को जाना जा सकता है दोष पहचान लेने पर दोषों को दूर कर पाठ्यचर्या को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है। इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि पाठ्यचर्या निर्माण की अपेक्षा इसमें सुधार लाया जाता है इसलिए पाठ्यचर्या में सुधार लाने को ही निर्माण कहा जा सकता है।

(ii) अध्यापक- अध्यापक ही वह व्यक्ति है जो पाठ्यचर्या को कार्य रूप देता है। यदि अध्यापक (चाहे कैसा भी हो) को पाठ्यचर्या की रूपरेखा दे दी जाए तो आवश्यक नहीं है कि वह अच्छे परिणाम दे सकेगा। यदि अच्छे परिणाम प्राप्त करने हैं तो हमें अपने अध्यापकों की कार्य क्षमता, कौशल ज्ञान एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के विषय में पूर्ण जानकारी होनी चाहिए। इस जानकारी के आधार पर ही पाठ्यचर्या से वे परिणाम प्राप्त किए जा सकते हैं जिनकी अपेक्षा की जाती है।

(iii) छात्र- कोई भी दो छात्र या व्यक्ति बुद्वि, क्षमता, रुचि एवं मानसिक स्तर में समान नहीं होते। इसलिए पाठ्यचर्या निर्माण करते समय छात्रों की उपर्युक्त भिन्नताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए।

(iv) वातावरण- प्रभावशाली पाठ्यचर्या निर्माण करते समय हमें उस भौगोलिक एवं सामाजिक पर्यावरण का भी ध्यान रखना होगा जिससे बालक विद्यालय में आते हैं। पर्यावरण के दो घटक होते हैं जो बालकों को अत्यधिक प्रभावित करते हैं। ये दोनों घटक हैं- (1) बालक का परिवार और (2) बालक की मित्र-मण्डली। परिवार का आकार, परिवार का आर्थिक स्तर एवं परिवार के सदस्यों का शैक्षिक स्तर बालक पर विशेष प्रभाव डालते हैं। किशोर अवस्था में बालक पर उसकी मित्र-मण्डली का भी गहरा प्रभाव पड़ता है। इसलिए पाठ्यचर्या निर्माता को इन दोनों घटकों पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए। वास्तविकता तो यह है कि बालक की समस्त पृष्ठभूमि पर ध्यान देना चाहिए। इसमें से सकारात्मक प्रभावों को पुनर्बलन देना चाहिए और साथ ही नकारात्मक प्रभावों को कम करने का प्रयास करना चाहिए।

(2) लक्ष्य- बालक की समस्त शिक्षा में का विशेष महत्व है। ये लक्ष्य ही पाठ्यचर्या निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसलिए पाठ्यचर्या निर्माता को इस ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। यह चरण भी अनेक अवस्थाओं से गुजरता है। इसके मुख्य चरण है।

(i) लक्ष्यों को अन्तिम रूप देना- यही वह चरण है जिसमें पाठ्यचर्या निर्माता लक्ष्यों का निर्धारण करता है। यहाँ यह भी ध्यान रखना होना कि उद्देश्य शिक्षा के सामान्य उद्देश्यों और राष्ट्रीय लक्ष्यों के अनुरूप हो। निर्धारित उद्देश्य की व्याख्या स्पष्ट रूप से की जानी चाहिए।

(ii) उद्देश्यों को व्यावहारिक संज्ञा में परिलक्षित करना- व्यावहारिक संज्ञा में प्रस्तुत किये उद्देश्य ही अध्यापक को बतायेंगे कि उससे उसके संदर्भ में क्या अपेक्षा है। ये उद्देश्य ही अध्यापक का मूल्यांकन करने के लिए मार्गदर्शन करेंगे।

(iii) उद्देश्यों का वर्गीकरण- शिक्षा का मुख्य उद्देश्य बालक का सर्वागीण विकास करना है। इसका अर्थ है कि व्यक्तित्व के विकास के लिए विभिन्न पक्षों पर बल दिया जाए। इसलिए निर्धारित उद्देश्यों को शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक, कौशलात्मक, अभिरुचियात्मक वर्गों में विभाजित किया जाना चाहिए। इसका लाभ यह भी होगा कि पाठ्यचर्या में आवश्यक सन्तुलन बना रहेगा।

(3) विषय सामग्री का चयन- पाठ्यचर्या निर्माण के लिए चाहे कोई भी उपागम अपनाया जाए परन्तु उद्देश्यों के अनुरूप विषय सामग्री का चयन तो करना ही होगा क्योंकि इस विषय-वस्तु के माध्यम से पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयत्न किया जाएगा। पाठ्यचर्या को उपयोगी एवं अर्थपूर्ण बनाने के लिए निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए।

(i) वैधता की कसौटी- वैधता दो प्रकार से देखी जा सकती है। प्रथम तो समस्त सामग्री पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए पर्याप्त एवं उपयुक्त हो। द्वितीय विषय सामग्री प्रामाणिक होनी चाहिए।

(ii) सार्थकता की कसौटी- पाठ्यचर्या निर्माता को उन्हीं विषयों का चुनाव करना चाहिए जो सार्थक एवं अर्थपूर्ण हों। इसलिए कहा जा सकता है कि विस्तार एवं उद्देश्यों को ध्यान में रखकर विषय से संबंधित आधारभूत धारणाएँ, विचार एवं सिद्धान्तों का चयन करना चाहिए।

(iii) रूचि की कसौटी- विषय का चयन करते समय वही सामग्री चुनें जो बालकों की आवश्यकताओं एवं रुचियों के अनुरूप हो।

(iv) विधि का चयन- विषय-वस्तु का चयन कर लेने के बाद अगला महत्वपूर्ण कदम विधि का चयन होता है। यदि विधि उपयुक्त नहीं होगी तो विषय सामग्री चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते। इसलिए उपयुक्त विधि का चयन ही करना चाहिए। आधुनिक विधियों का अधिक से अधिक प्रयोग करना चाहिए।

(v) मूल्यांकन- सम्पूर्ण शिक्षण प्रक्रिया कर लेने के पश्चात शिक्षक को यह निश्चित करना भी आवश्यक है कि छात्रों ने कहाँ तक प्रगति की अथवा उनकी उपलब्धियाँ क्या हैं। इसके लिए अवलोकन और परीक्षणों की व्यवस्था की जाती है। परीक्षण विधि का चयन करते समय शैक्षिक उद्देश्यों को ध्यान में रखना चाहिए। साथ ही साथ परीक्षण वस्तुनिष्ठ भी होना चाहिए। मूल्यांकन के परिणाम ही पाठ्यचर्या में सुधार लाने के लिए दिशा प्रदान करेंगे।


पाठयचर्या निर्माण में ध्यान देने योग्य बातें

1. पाठ्यचर्या निर्माण के पूर्व उसका एक निश्चित प्रारूप तैयार कर लेना चाहिए। इस प्रारूप का स्वरूप छात्रों, शिक्षकों, समाज व देश को ध्यान में रखकर करना

चाहिए। इसके उपरांत शिक्षाविदों एवं अनेक सामाजिक संगठनों की राय लेते हुए पाठ्यचर्या निर्माण की प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए।

2. पाठ्यक्रम के निर्माण का स्तर निर्धारित करने के लिए किस कक्षा का किस विषय का पाठ्यक्रम तैयार किया जाना है इसे ध्यान में रखना चाहिए। जिस स्तर के बालकों के लिए पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाना है इन बालकों के पूर्व ज्ञान के स्तर को ध्यान में रखना चाहिए।

3. पाठ्यचर्या को ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों में बाँटकर पाठ्यचर्या के उद्देश्यों का निर्धारण।

4. विद्यार्थियों की वर्तमान आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर पाठ्यचर्या का निर्माण होना चाहिए। उनके भविष्य की रोजगार की संभावनाओं को भी पाठ्यक्रम निर्माण के समय ध्यान में रखा जाना चाहिए।

5. पाठ्यचर्या के निर्माण के समय समाज, संस्कृति, सभ्यता, राष्ट्रीयता एवं अन्तर्राष्ट्रीयता की भावना को भी विचार क्षेत्र में रखा जाना चाहिए।

6. पाठ्यक्रम निर्माण के सिद्धान्तों एवं शिक्षा के उद्देश्यों को भी ध्यान में रखना चाहिए।

7. पाठ्यचर्या में शिक्षक व छात्रों के लिए विषयगत तथ्य, प्रयोग आदि संगठित किये जाने चाहिए।

8. बालक का सर्वांगीण विकास हो इस तथ्य को पाठ्यचर्या निर्माण में ध्यान में रखा जाना चाहिए।

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