पाठ्यक्रम विकास के विभिन्न सोपानों का वर्णन कीजिए।

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 पाठ्यक्रम निर्माण में निम्नांकित पाँच सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(1) परिस्थितियों का विश्लेषण करना,

(2) उद्देश्यों की पहिचान तथा उनका चयन करना,

(3) पाठ्यवस्तु का चयन एवं व्यवस्था करना,

(4) शिक्षण विधियों का चयन एवं उनकी व्यवस्था करना, तथा

(5) परीक्षण एवं मूल्यांकन विधि का निर्धारण करना।


प्रथम सोपान : परिस्थितियों का विश्लेषण

अधिकांश लेखकों एवं शिक्षा शास्त्रियों ने चार सोपानों का उल्लेख किया है। वे इस प्रकार हैं- उद्देश्यों का चयन करना, पाठ्यवस्तु का चयन करना तथा उसकी व्यवस्था करना, अधिगम अनुभवों हेतु शिक्षण विधियों का चयन करना, उनकी व्यवस्था करना तथा मूल्यांकन एवं परीक्षा प्रणाली का निर्धारण करना। आधुनिक शिक्षा शास्त्रियों का मत है कि इन सोपानों का स्वरुप सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर होता है। सामाजिक प्रक्रिया बदलने से शिक्षा तथा पाठ्यक्रम का प्रारुप भी बदलता है। इसलिए पाठ्यक्रम निर्माण का प्रमुख सोपान- “परिस्थितियों का विश्लेषण करना है।” इस सोपान के बिना पाठ्यक्रम का स्वरुप तथा अन्य सोपानों का सम्पादन नहीं किया जा सकता है। इन सोपानों की क्रियाओं को विभाजित किया जाता है। छात्र की समस्याओं का निदान करना, शिक्षा की प्रक्रिया की कमजोरियों तथा अच्छाईयों का अवलोकन तथा समीक्षा करना। इस सोपान के अन्तर्गत सभी घटकों की समीक्षा की जाती है जिससे सम्पूर्ण परिस्थिति के संबंध में जानकारी हो सके और उसका समुचित उपयोग पाठ्यक्रम के निर्माण में किया जा सके। इसे ‘पाठ्यकम नियोजन’ की संज्ञा दी जाती है।

पाठ्यकम निर्माण करना ऐसी प्रक्रिया नहीं है जिसको एक बार सम्पन्न करने के बाद समाप्त हो जाती है अपितु इसमें निरन्तर पारिवर्तन करना आवश्यक होता है। इस प्रकार पाठ्यकम निर्माण एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया का स्वरुप चक्रीय होता है अर्थात् इसका अन्त नहीं होता है। पाठ्यकम के निर्माण के बाद जब से लागू किया जाता है तब छात्रों के मूल्यांकन तथा परीक्षण से ज्ञात होता है कि अभी किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता है पाठ्यकम निर्माण की प्रक्रिया सर्जनात्मक होती है जिसमें तार्किक एवं अनुभवजन्य दोनों प्रकार के चिन्तन की आवश्यकता होती है।

इस सोपान की क्रियाओं को प्रमुख रुप से दो परिस्थितियों में विभाजित करते हैं-

(1) आन्तरिक परिस्थितियाँ तथा (2) बाह्य परिस्थितियाँ।

(1) आन्तरिक परिस्थितियाँ का संबंध उन सभी घटकों तथा क्रियाओं से होता है जिनका प्रयोग पाठ्यक्रम निर्माण में किया जाता है। इस सोपान के अतिरिक्त अन्य सभी सोपानों की क्रियाओं को विश्लेषण करता है जिससे पाठ्यकम निर्माण में किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता है इसका बोध होता है। उद्देश्यों की उपयुक्तता, पाठ्यवस्तु की सार्थकता, शिक्षण विधियों की प्रभावशीलता तथा मूल्यांकन के निष्कर्षों का अध्ययन किया जाता है।

आन्तरिक परिस्थितियों के विश्लेषण में शिक्षक, छात्र, विद्यालय का वातावरण तथा विद्यालय भवन एवं पाठ्यवस्तु सहगामी क्रियाओं के लिए साधन उपलब्धता को भी ध्यान में रखना होता है। आन्तरिक परिस्थितियों के लिए प्रधानाचार्य की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण होती है। किसी शिक्षा संस्था के प्राचार्य के बदलने से सम्पूर्ण विद्यालय का वातावरण बदल जाता है। यह परिवर्तन तुरन्त दिखाई देता है और सभी उसकी चर्चा करते हैं। विद्यालय का वातावरण शैक्षिक कार्यों को अधिक प्रभावित करता है। छात्रों के परीक्षाफल उत्तम हो जाते हैं, शिक्षक अपने कार्यों में रुचि लेने लगते हैं तथा छात्र अधिक अनुशासित एवं अध्ययन में रुचि लेने लगते हैं। प्राचार्य के व्यक्तित्व और उसकी कार्य-शैली का विद्यालय वातावरण पर सीधा प्रभाव पड़ता है जबकि शिक्षक के व्यक्तित्व एवं कार्य-शैली का प्रभाव उसके कक्षा के छात्रों एवं कक्षा वातावरण तक सीमित रहता है। परिस्थिति विश्लेषण में इन बातों को ध्यान में रखना होता है।

(2) बाह्य परिस्थितियों के अन्तर्गत सामाजिक परिवर्तन, राजनैतिक परिवर्तन, आर्थिक परिवर्तन तथा सत्ता परिवर्तन को सम्मिलित किया जाता है। पाठ्यक्रम के निर्माण के समय सामाजिक परिवर्तन को ध्यान में रखकर उद्देश्यों को बदला जाता है क्योंकि परिवर्तन के साथ सामाजिक आवश्यकतायें भी बदल जाती हैं। राजनैतिक परिवर्तन या सत्ता परिवर्तन से देश की नीतियों में परिवर्तन आना स्वाभाविक होता है। जब प्रदेश या राष्ट्रीय स्तर पर सत्ता परिवर्तन हो जाता है तब सभी नीतियाँ भी बदलती है परिणामस्वरुप शिक्षा का रुप भी बदलता है। अंग्रेजों को बाबुओं की आवश्यकता थी इसलिए पाठ्यक्रम स्वरुप आज से बिल्कुल ही भिन्न प्रकार था।

आज नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों की अपेक्षा आर्थिक मूल्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता है इसलिए आज व्यवसायिक पाठ्यक्रमों पर अधिक बल दिया जाता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी व्यावसायिक शिक्षा को प्राथमिकता दी गई है। ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर अधिक दौड़ लगी हुई है जिससे छात्र जीवन में अधिक धनोपार्जन कर सकें। मेडिकल, इन्जीनियरिंग तथा तकनीकी की ओर अधिक रुझान है। वैज्ञानिक आविष्कारों के परिणामस्वरुप कम्प्यूटर के प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम को आरम्भ किया गया है।

इन परिस्थितियों में समाज तथा राष्ट्रीय समस्याओं का विश्लेषण करने की भी आवश्यकता होती है। समाज की समस्याओं को हल करने में शिक्षा की भूमिका अहम् हो गई है। शिक्षा सामाजिक परिवर्तन एवं नियंत्रण के लिए शक्तिशाली यंत्र माना जाता है। राष्ट्र तथा समाज के समक्ष जनसंख्या की वृद्धि तथा निर्माण किया गया है- जनंसख्या की शिक्षा, वातावरण प्रदूषण सभी पाठ्यक्रम कई विषयों में विभिन्न रुपों में विकसित किया गया है और उन्हें पढ़ाया भी जाता है।

आन्तरिक परिस्थितियों के विश्लेषण से पाठ्यक्रम में सुधार के लिए दिशा मिलती है। जबकि बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण से विकास एवं नए पाठ्यक्रम को आरम्भ में दिशा मिलती है।


द्वितीय सोपान : उद्देश्यों को पहिचानना तथा उनका चयन करना

पाठ्यक्रम निर्माण का द्वितीय सोपान उद्देश्यों का चयन करना है। शिक्षा तथा पाठ्यक्रम निर्माण उद्देश्य एक ही होते हैं। अतः शिक्षा के लिए उद्देश्यों को पहिचानने का अर्थ होता है अपेक्षित उद्देश्यों का प्रतिपादन करना है। उद्देश्यों के प्रतिपादन में कई स्त्रोतों का उपयोग किया जाता है। इसके प्रमुख स्त्रोत इस प्रकार हैं-

1. ज्ञानात्मक विकास

2. भावात्मक अथवा संवेगात्मक विकास

3. क्रियात्मक अथवा कौशलों का विकास

4. सामाजिक विकास

5. शारीरिक विकास।

इन उद्देश्यों का स्वरुप अधिक व्यापक तथा वृहद होता है। शिक्षा द्वारा प्राथमिक शिक्षा से विश्वविद्यालयों की शिक्षा तथा इन्हीं पक्षों के विकास का प्रयास किया जाता है। इन विकास पक्षों के आधार पर शिक्षा के पाँच प्रकार के उद्देश्य होते हैं।

शिक्षा के उद्देश्यों का वर्गीकरण

(1) ज्ञानात्मक उद्देश्य (2) भावात्मक उद्देश्य (3) क्रियात्मक उद्देश्य (4) सामाजिक उद्देश्य तथा (5) शारीरिक विकास उद्देश्य। पाठ्यक्रम का प्रारुप विशिष्ट होता है जिसका निर्माण विशेष स्तर के छात्रों के लिए विशिष्ट सामाजिक सन्दर्भ के लिए किया जाता है। इसके लिए आवश्यक होता है इन उद्देश्यों का चयन करके व्यवहारिक रुप में लिखा जाए जिसे विशिष्ट उद्देश्य कहते हैं। इन विशिष्ट उद्देश्यों के लिए पाठ्यवस्तु के स्वरुप का निर्धारण विशिष्ट उद्देश्यों

तथा विशिष्ट अधिगम परिस्थिति के आधार पर किया जा सकता है। यह प्रक्रिया त्रपदी होती है।

तृतीय सोपान : पाठ्यवस्तु का चयन एवं उसकी व्यवस्था

पाठ्यक्रम निर्माण का यह सबसे महत्त्वपूर्ण सोपान है। आरम्भ में पाठ्यवस्तु को ही प्राथमिकता दी जाती रही है, परन्तु अब भी इसका महत्त्व कम नहीं है। पाठ्यवस्तु-केन्द्रित पाठ्यक्रम के निर्माण में इसी सोपान को विशेष महत्त्व दिया जाता है।

पाठ्यवस्तु की व्यवस्था एवं अर्थापन ज्ञान, कौशल, अभिवृत्ति तथा मूल्यों के रुप में किया जाता है। इसकी व्यवस्था विद्यालय में पाठ्यक्रम के आधार पर की जाती है। विषय-वस्तुओं के मूल्यों के संबंध में अलग-अलग विचार हैं। मूल्यों को आन्तरिक तथा बाह्य रुप में समझने का प्रयास करते हैं। मूल्य सीखने के बजाय व्यवहारिक अधिक होते हैं। जीवन-यापन से व्यक्ति मूल्यों के संबंध में जानकारी होती है। अधिकांश विद्वानों का मत है कि पाठ्यवस्तु, मानसिक योग्यताओं, कौशल, अभिवृत्तियों, अभिरुचियों तथा मूल्यों के विकास का साधन है।

प्रत्येक पाठ्यवस्तु का अपना स्वरुप होता है जिसे विषयवस्तु भी कहते हैं। जिसको शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने के लिए किया जाता है। इस क्षेत्र में ‘बूनर’ का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। उसने पाठ्यवस्तु के स्वरुप के लिए सिद्धान्तों की व्यवस्था तथा शिक्षण विधियों का विवेचन किया है। प्रत्येक विषय की अपनी पाठ्यवस्तु, अपने सिद्धान्त, अपनी व्यवस्था तथा अध्यापन की अपनी निजी विधियाँ होती हैं जो अन्य विषय से भिन्न होती हैं। विज्ञान विषय में प्रयोग तथा निरीक्षण या प्रदर्शन विधि प्रयुक्त होती है, जबकि इतिहास विषय में प्रवचन तथा कहानी विधि प्रयुक्त की जाती है,बूनर का कहना है कि किसी विषय की पाठ्यवस्तु के लिए उसके स्वरुप को पहचानना पाठ्यक्रम निर्माण के लिए सबसे अधिक वैध माना जाता है। उसका स्वरुप छात्रों के विकास की दृष्टि से और उद्देश्यों की प्राप्ति की दृष्टि से समुचित होना चाहिए। ज्ञान को विभिन्न विषयों के शिक्षण से प्रदान करने की परम्परा रही है।

‘बूनर’ का विचार है तथा सत्य भी है कि पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियों का बहुत ही निकट संबंध होता है। यह कहना कठिन होता है कि कहाँ से आरम्भ करें तथा कहाँ पर समाप्त करें। शिक्षण विधियाँ ही छात्रों के व्यवहारिक परिवर्तन में सहायक तथा प्रभावी होती हैं। पाठ्यवस्तु की उपादेयता पढ़ाने की विधियों पर आश्रित होती है। आज के पाठ्यक्रम में अधिक से अधिक तथ्यों को सम्मिलित करने का प्रयास किया जाता है। इसलिए पाठ्यवस्तु के स्वरुप को विकसित करने में अधोलिखित मानदण्डों को ध्यान में रखना चाहिए-वैधता का मानदण्ड, महत्त्व का मानदण्ड, अभिरुचि का मानदण्ड तथा सीखने का मानदण्ड।

1. वैधता मानदण्ड से तात्पर्य यह है कि पाठ्यवस्तु का स्वरुप शुद्ध तथा स्पष्ट होना चाहिए। यह देखा गया है कि बहुत-सी पाठ्यवस्तु तथ्य भ्रामक तथा अशुद्ध होते हैं इसलिए पाठ्यवस्तु के स्वरुप के चयन तथा व्यवस्था में उसकी शुद्धता या वैधता की परख कर लेनी चाहिए।

2. महत्त्व मानदण्ड का अर्थ होता है कि पाठ्यक्रम के लिए पाठ्यवस्तु का चयन करते समय बालकों की दृष्टि से समाज तथा राष्ट्र की दृष्टि से सार्थक हो। पाठ्यवस्तु का स्वरुप उद्देश्यों के प्राप्ति की दृष्टि से सार्थक होना चाहिए।

3. अभिरुचित मानदण्ड से तात्पर्य यह है कि पाठ्यवस्तु के अन्तर्गत ऐसे तथ्यों, विचारों तथा प्रत्ययों को सम्मिलित किया जाए जिससे छात्र में विशिष्ट रुचियों का विकास किया जा सके। कुछ विद्वानों का मत है कि पूर्णरुप से अभिरुचि मानदण्ड को पाठ्यक्रम के निर्माण में महत्त्व देना चाहिए। पाठ्यवस्तु का स्वरुप ऐसा होना चाहिए जो छात्रों की रुचियों के अनुरुप हो जिससे छात्र उसमें स्वयं रुचि लेंगे। दूसरा शिक्षण के समय उदाहरणों को उनकी रुचियों के अनुरुप दिया जाए। इसका संबंध शिक्षक से अधिक होता है।

4. सीखने के मानदण्ड का अर्थ होता है कि छात्र पाठ्यवस्तु के स्वरुप से कितना सीखते हैं। इस मानदण्ड का संबंध छात्रों की क्षमताओं तथा योग्यता का पाठ्यवस्तु के की निकटता से होता है। इसके लिए छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नता महत्त्वपूर्ण घटक है। पाठ्यवस्तु के स्वरुप को छात्रों द्वारा की सीखी हुई उद्देश्यों से भी संबंधित करना चाहिए। छात्रों की आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाता स्वरुप।

पाठ्यक्रम में किसी पाठ्यवस्तु को सम्मिलित करने से पूर्व इन मानदण्डों की परख कर लेना नितांत आवश्यक होता है। उत्तम पाठ्यवस्तु वही मानी जाती है जो इन मानदण्डों की पूर्ति करती है। किसी भी मानदण्ड को अलगाव के रुप में प्रयुक्त नहीं करना चाहिए। परिस्थितियों के बदलाव में इन मानदण्डों का महत्त्व घटता, बढ़ता रहता है। किन्हीं विद्यालयों में पाठ्यवस्तु को तथा अन्त में उद्देश्यों को अधिक महत्त्व दिया जाता है। इसी कारण पाठ्यक्रम का प्रारुप बदलता रहा है- बाल-केन्द्रित, पाठ्यवस्तु-केन्द्रित, उद्देश्य-केन्द्रित तथा अनुभव-केन्द्रित पाठ्यक्रम के प्रकार माने जाते हैं।

पाठ्यवस्तु के स्वरुप के चयन एवं व्यवस्था में अधोलिखित तथ्यों को ध्यान में रखा जाता है-

1. छात्रों की अभिरुचियों एवं आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके।

2. पाठ्यवस्तु का स्वरुप छात्रों के पूर्व सीखे हुए ज्ञान से संबंधित हो।

3. पाठ्यवस्तु का स्वरुप छात्रों की क्षमताओं एवं योग्यताओं के अनुरुप हो।

4. छात्रों की व्यक्तिगत भिन्नता को भी ध्यान में रखा जाए।

5. पाठ्यवस्तु का स्वरुप शुद्ध तथा स्पष्ट हों।

6. पाठ्यवस्तु का स्वरुप छात्रों, समाज तथा विद्यालय की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हो।

7. पाठ्यवस्तु के स्वरुप के लिए शिक्षण विधियाँ उपलब्ध हों तथा शिक्षक उनका प्रयोग करने में सक्षम हों।

8. पाठ्यवस्तु के स्वरुप से उद्देश्यों की प्राप्ति भी की जा सके।

9. पाठ्यवस्तु को छात्र सीख सकें।

10. पाठ्यवस्तु का संबंध छात्रों के मानसिक, कौशल, अभिरुचित तथा मूल्यों के विकास से हो।

पाठ्यवस्तु के स्वरुप के निर्धारण के लिए विषय समितियों का गठन किया जाए। उनमें अनुभवी शिक्षकों को ही सम्मिलित किया जाए। पाठ्यवस्तु अथवा विषयवस्तु के स्वरुप का चयन करते समय परीक्षण तथा मूल्यांकन विधि को भी ध्यान में रखना चाहिए। शिक्षण तथा परीक्षण में पाठ्यवस्तु के स्वरुप के द्वारा संबध स्थापित किया जाता है। पाठ्यक्रम के निर्माण में परीक्षण प्रणाली को ध्यान में रखना होता है। पाठ्यक्रम का प्रारुप, परीक्षण प्रणाली के अनुरुप होना चाहिए।


चतुर्थ सोपान : शिक्षण विधियों का चयन तथा व्यवस्था करना

पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियों को अलग करना बहुत ही कठिन होता है क्योंकि एक समाप्त होता है को दूसरा आरम्भ हो जाता है। शिक्षण विधि का चयन पाठ्यवस्तु के स्वरुप के आधार पर किया जाता है। विश्व में छात्र और शिक्षक के मध्य अन्तःप्रक्रिया पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधि की सहायता से होती है। अधिगम परिस्थितियों तथा अवसरों में पाठ्यवस्तु तथा विधि एक साथ होती है। इस प्रकार अधिगम परिस्थितियों के लिए छात्र, शिक्षक, पाठ्यवस्तु, सहायक सामग्री तथा वातावरण में संबंध के लिए नियोजन किया जाता है। पाठ्यवस्तु का जिस ढंग से प्रस्तुतीकरण किया जाता है उसे शिक्षण विधि कहते हैं।

शिक्षण तथा शिक्षण की सबसे बड़ी कठिनाई यह होती है कि दो बालक एक ही अधिगम परिस्थिति में अलग-अलग प्रकार से अनुभव करते हैं। कक्षा शिक्षक जब कुछ कहता है तब प्रत्येक छात्र अपने ढंग से अनुभव करता है, उसका अर्थ लगाता है और अपने ढंग से उसे याद रखता है। इस प्रकार शिक्षण की एक ही अधिगम परिस्थिति में छात्रों के सीखने का ढंग अलग-अलग होता है। शिक्षक अपने प्रस्तुतीकरण के द्वारा ऐसे अनुभव प्रदान करे जिससे अपेक्षित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। परन्तु इन परिस्थितियों की उपयुक्तता का बोध परीक्षण से होता है।

पाठ्यक्रम के निर्माण में पाठ्यवस्तु तथा शिक्षण विधियाँ प्रमुख होते हैं। इसके अतिरिक्त शिक्षक तथा लय की प्रभावशीलता के लिए शिक्षण विधियाँ भी महत्त्व रखती हैं। परन्तु यह निर्णय लेना कठिन होता है कि कौन-सी विधि अधिक प्रभावशाली तथा उपयुक्त है क्योंकि प्रभावशीलता का मानदण्ड छात्र का सीखना है। प्रत्येक छात्र के सीखने तथा सोचने का ढंग अलग-अलग होता है। इसलिए शिक्षण विधि की उपयुक्तता छात्रों की दृष्टि से देखनी होती है। आगमन तथा निगमन विधियाँ अधिक प्राचीन हैं परन्तु किन छात्रों के लिए आगमन और किन छात्रों के लिए निगमन विधि उपयुक्त होगी यह कहना कठिन होगा।

आज के सन्दर्भ में शिक्षण विधियों के प्रत्यय एवं स्वरुप में भी परिवर्तन हुआ है। शिक्षण विधियों में पाठ्यवस्तु एवं प्रस्तुतीकरण को महत्त्व दिया जाता है। परन्तु अब पाठ्यवस्तु गौण है। उद्देश्यों की प्राप्ति प्रमुख है। शिक्षण आव्यूह द्वारा उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। प्रभावशाली शिक्षण के लिए प्रस्तुतीकरण ही पर्याप्त नहीं है अपितु सम्प्रेषण अधिक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। शिक्षक बात छात्रों तक पहुँचाना चाहता है उसके लिए समुचित सम्प्रेषण विधि को प्रयुक्त करना होता है। इसके लिए नए प्रत्यय माध्यम का विकास हुआ है। शिक्षण विधि तथा माध्यम दोनों का चयन करके उसकी व्यवस्था की जाती है। यह पाठ्यक्रम के स्वरुप को विकसित करने तथा छात्रों तक पहुँचाने की क्रियायें हैं।

पाठ्यवस्तु की प्रकृति एवं स्वरुप उद्देश्यों, शिक्षण विधियों, आव्यूहों तथा माध्यमों को प्रभावित करती है। इस क्षेत्र में शोध कार्यों की अधिक आवश्यकता है तभी किसी ठोस बात को कहा जा सकता है। प्राथमिक स्तर पर अक्षर ज्ञान के लिए, ‘कन्डीशनिंग विधि’ को प्रयुक्त करते हैं। जिसमें अक्षर की ध्वनि को महत्त्व देते हैं। जैसे ‘कु’ कबूतर, ‘ए’ एपिल तथा बी बाल आदि, परन्तु अक्षर के स्वरुप को महत्त्व नहीं दिया जाता है। एक बच्चे को पहले दिन जब विद्यालय भेजा गया तो उसके शिक्षक ने पढ़ाया ‘ए’ एपिल परन्तु बालक कहता है कि यह एपिल नहीं यह तो चिमटा है क्योंकि ‘ए’ अक्षर का स्वरुप चिमटे जैसा होता है। जब शिक्षक ने ‘बी’ को बाल कहा तो बालक ने कहा कि यह बाल नहीं है यह बाबा का चश्मा है क्योंकि बी का आकार बाबा के चश्मे से मिलता है। इसका अर्थ यह हुआ अक्षर ज्ञान के शिक्षण में ध्वनि एवं स्वरुप दोनों को महत्त्व देना चाहिए। शुद्ध अक्षर ज्ञान के लिए दोनों ही पक्ष ध्वनि तथा आकार सीखना चाहिए।

एक ही प्रकार के उद्देश्यों को विभिन्न प्रकार की पाठ्यवस्तु तथा विभिन्न शिक्षण विधियों द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षक द्वारा विविध एवं लचीली परिस्थिति उत्पन्न करनी होती है।


पंचम सोपान : परीक्षण तथा मूल्यांकन प्रणाली विधि का निर्धारण करना

पाठ्यक्रम निर्माण का यह महत्त्वपूर्ण तथा अन्तिम सोपान है। इसके अन्तर्गत छात्रों की उपलब्धियों तथा व्यवहार परिवर्तन (सीखे हुए अनुभवों) का मूल्यांकन किया जाता है जिससे अधिगम-परिस्थितियों तथा अवसरों की प्रभावशीलता का बोध होता है। पाठ्यक्रम के स्वरुप की उपयुक्तता की भी जाँच होती है। विद्यालय के वातावरण एवं शैक्षिक क्रियाओं की प्रभावशीलता एवं सार्थकता का बोध होता है। इस सोपान के कई कार्य हैं-शिक्षण व छात्रों को पुनबर्लन मिलता है। अधिगम-अवसरों के सुधार के लिए दिशा मिलती है। उद्देश्यों की प्राप्ति किस स्तर तक हुई इसकी जानकारी होती है। डेवीज ने इस सोपान को नियंत्रण की संज्ञा दी है जो आज के सन्दर्भ में अधिक उपयुक्त है।

पाठ्यक्रम के प्रारुप से बालकों के सम्पूर्ण विकास का प्रयास किया जाता है परन्तु परीक्षण में आज भी बालकों के ज्ञानात्मक पक्षों के विकास का ही परीक्षण किया जाता है। सम्पूर्ण अधिगम परिस्थितियों तथा अवसरों का मूल्यांकन नहीं होता है। बी.एस.ब्लूम ने परीक्षा प्रणाली ने में सुधार हेतु यही सुझाव दिया था कि बालक के सम्पूर्ण व्यवहार परिवर्तनों (ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक) का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। आज की परीक्षा प्रणाली का स्वरुप ऐसा है जो छात्रों को रटने के लिए बाध्य करता है। जो छात्र तथ्यों को रट लेता है वह अच्छे अंक प्राप्त कर लेता है। परीक्षा में नकल करने का अधिक अवसर होता है। साधारणतः निबन्धात्मक परीक्षाओं का ही प्रयोग किया जाता है। यह परीक्षा प्रणाली दोषपूर्ण है फिर भी सभी स्तरों के परीक्षण में निबन्धात्मक परीक्षा का प्रयोग होता है। चयन परीक्षाओं में अब वस्तुनिष्ठ परीक्षण का प्रयोग किया जाने लगा है। इनका स्वरुप निष्पत्ति परीक्षा का ही है जबकि उद्देश्य-केन्द्रित होना चाहिए और इनका स्वरुप मानदण्ड परीक्षा का होना चाहिए।

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