पाठ्यचर्या के उद्देश्य प्रतिमान की विवेचना कीजिए। ब्लूम के उद्देश्य प्रतिमान के स्वरूप में मूल्यांकन आयाम के अर्थ तथा सोपानों का वर्णन कीजिए।

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पाठ्यक्रम का उद्देश्य प्रतिमान

इस प्रतिमान का आधार व्यवहारिक मनोविज्ञान है। इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षा के उद्देश्यों को महत्त्व दिया जाता है। शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति का साधन पाठ्यक्रम का प्रारुप होता है। कक्षा में शिक्षक अपनी पाठ्यवस्तु की सहायता से अधिगम परिस्थिति उत्पन्न करता है जिससे छात्रों के अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के रुप में की जाती है।

शिक्षा के अन्तर्गत उद्देश्यों को महत्त्व (1962) से दिया जाने लगा था। बी.एस. ब्लूम ने मूल्यांकन तथा परीक्षण में सुधार का प्रयास किया, उसमें उन्होंने शिक्षा के प्रारुप को विकसित किया और सुझाव दिया कि परीक्षा में सुधार के लिए शिक्षण में सुधार करना होगा। परीक्षण शिक्षा पर आधारित होना चाहिए। उन्हें परीक्षण तथा शिक्षण की क्रियाओं को उद्देश्य-केन्द्रित बनाने पर बल दिया कि शिक्षण में जिन उद्देश्यों को महत्त्व दिया जाये उन्हीं उद्देश्यों के लिए परीक्षण करना चाहिए।

इसके लिए उद्देश्यों का निर्धारण करना होगा उनकी परिभाषा करनी होती है। उद्देश्यों को व्यवहारिक रुप में बदलना होता है। राबर्ट मेगर ने उद्देश्यों को व्यवहारिक रुप में लिखने की प्रक्रिया (1962) में ही दी थी। परीक्षण तथा शिक्षण-उद्देश्य बनाया गया है। शिक्षण के लिये पाठ्यक्रम को उद्देश्यों के अनुरुप विकसित करना होता है। पाठ्यक्रम प्रतिमान की दृष्टि से उद्देश्यों को दो प्रकार से विभाजित किया जाता है-

(अ) व्यवहारिक या विशिष्ट या अनुदेशनात्मक उद्देश्य 

(ब) अभिव्यक्ति उद्देश्य

(अ) व्यवहारिक या विशिष्ट या अनुदेशनात्मक उद्देश्य- विद्यालय में इन्हीं उद्देश्यों को शिक्षण उद्देश्य कहते हैं। पाठ्यवस्तु के शिक्षण से इन उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। इन उद्देश्यों का संबंध ज्ञानात्मक पक्ष से अधिक होता है। राबर्ट मेगर ने ज्ञानात्मक पक्ष के व्यवहारिक उद्देश्यों को लिखने की विधि का विकास किया। पाठ्यक्रम-विकास में कक्षागत क्रियाओं को उद्देश्यों की दृष्टि से ध्यान में रखना होता है। शिक्षक को इनका सम्पूर्ण ज्ञान एवं कौशल होना चाहिए।

(ब) अभिव्यक्ति उद्देश्य- शैक्षिक परिस्थितियों से ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। अभिव्यक्ति उद्देश्यों का संबंध भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्षों के विकास से होता है। इन उद्देश्यों की प्राप्ति पाठ्यक्रम सहगामी क्रियाओं से किया जाता है। छात्र को अपने नैसर्गिक रुचियों एवं अभिरुचियों के विकास का अवसर दिया जाता है। ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की जाती है कि छात्र अपनी क्षमताओं का विकास कर सके। अनुदेशनात्मक उद्देश्यों का स्वरुप सुनिश्चित होता है। छात्र को अपने ढंग से विकसित करने का अवसर नहीं होता है। छात्र के विकास की दृष्टि से अभिव्यक्ति-उद्देश्य अधिक महत्त्वपूर्ण होते है।

यदि पाठ्यक्रम के विकास तथा निर्माण में अनुदेशनात्मक उद्देश्यों को ही महत्त्व दिया जायेगा तो प्रतिमान स्वरुप संकुचित होगा। व्यापक प्रतिमान के विकास के लिए सभी प्रकार के उद्देश्यों- ज्ञानात्मक, भावात्मक, क्रियात्मक, शारीरिक, सामाजिक तथा संवेगात्मक को ध्यान में रखना होता है। ‘उद्देश्य प्रतिमान’ के स्वरुप को ब्लूम ने विकसित प्रयुक्त किया है जिसका संक्षिप्त विवरण दिया गया है।


ब्लूम का शिक्षण-अधिगम हेतु मूल्यांकन का आयाम

आधुनिक युग में शिक्षण-व्यवस्था के लिये मूल्यांकन आयाम का अनुसरण किया जाता है जिसके अन्तर्गत वार्षिक योजना तथा इकाई योजना तैयार की जाती है। इस आयाम के अनुसार शिक्षा की प्रक्रिया को त्रिपदी माना जाता है। शिक्षण तथा परीक्षण क्रियाओं का आयोजन उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृष्टि से किया जाता है।

शिक्षा प्रक्रिया तथा मूल्यांकन आयाम दोनों से एक-दूसरे से घनिष्ठ रुप से संबंधित है। बिना मूल्यांकन के शिक्षा प्रक्रिया की प्रभावशीलता एवं उपादेयता का पता चलना कठिन है। शिक्षण की समस्त क्रियाओं का मूल्यांकन किया जाता है। छात्रों की उपलब्धियों के आधार पर सीखने के अनुभवों के समस्त साधनों के संबंध में निर्णय लिया जाता है। इस आयाम के अन्तर्गत मानदण्ड परीक्षा का उपयोग किया जाता है। शिक्षण की सभी क्रियाओं को उद्देश्य-केन्द्रित बनाने का प्रयास किया जाता है। इसमें वार्षिक योजना तथा इकाई योजना के विवेचन के साथ उसी पृष्ठभूमि का भी उल्लेख किया गया है। छात्र इस भूमिका के आधार पर वार्षिक तथा इकाई योजना को बोधगम्य कर सकेंगे।


मूल्यांकन आयाम का अर्थ

मूल्यांकन आयाम का शिक्षा में एक आन्दोलन के रुप में अभी हाल की ही घटना है। इसका अर्थ है कि, “विद्यालय द्वारा हुए बालक के व्यवहार परिवर्तन के विषय में साक्षियों के संकलन तथा उनकी व्याख्या करने की प्रक्रिया ही मूल्यांकन है।”

मूल्यांकन की प्रक्रिया में “शिक्षण तथा परीक्षण” साथ-साथ सम्पादन किया जाता है। इसलिये मूल्यांकन का प्रयोग अधिक व्यापक रुप में किया जाता है। इसमें मापन छात्रों की निष्पत्तियों तक ही सीमित नहीं होता है, अपितु शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रिया का ‘मूल्यांकन’ किया जाता है। परीक्षा’ केवल बालकों की निष्पत्तियों के मापन तक सीमित है। ‘मापन’ वह प्रक्रिया है, जिसमें मानवी गुणों को परिमाण में मापन कर लिया जाता है। ‘मूल्यांकन’ में बालक के सम्पूर्ण व्यवहार-परिवर्तन और शिक्षण की प्रक्रिया के उपकरणों एवं विधियों का मूल्यांकन किया जाता है। विद्यालय में बालक शिक्षा ग्रहण करने के लिये आता है। वह विशेष प्रकार के अनुभव अपने विद्यालय के जीवन में प्राप्त करता है। इन अनुभवों से उसके ज्ञान में वृद्धि, सोचने का ढंग बदलता है, उसकी कार्य शैली में परिवर्तन होता है तथा उसकी संवेदनशीलता एवं अभिवृत्ति विकसित होती है। बालक इस सम्पूर्ण विकास को ‘व्यवहार परिवर्तन’ कहते हैं। इस ‘व्यवहार-परिवर्तन’ में बालक के ज्ञानात्मक, क्रियात्मक तथा भावात्मक पक्ष सम्मिलित हैं। शिक्षा प्रणाली की सफलता व्यवहार परिवर्तन से ही ज्ञात की जाती है। मूल्यांकन प्रक्रिया द्वारा निम्नांकित बातों के बारे में निश्चय किया जाता है-

(1) शिक्षण के उद्देश्यों की प्राप्ति किस सीमा तक हुई है?

(2) सीखने के अनुभव कितने प्रभावशाली हैं ?

(3) बालकों के व्यवहार परिवर्तनों के स्तर का मापन किया जाता है

शिक्षा की प्रक्रिया को बी.एस. ब्लूम ने त्रिपदी प्रक्रिया से प्रदर्शित किया है-

मूल्यांकन आयाम में शिक्षण के उद्देश्यों, सीखने के अनुभवों तथा व्यवहार परिवर्तनों में घनिष्ठ संबंध स्थापित किया जाता है। शिक्षण एवं परीक्षण क्रियायें साथ-साथ सम्पादित होती हैं और इनका लक्ष्य उद्देश्य-केन्द्रित होना चाहिए। मूल्यांकन में छात्र की सफलताओं अथवा व्यवहार परिवर्तन का सही अनुमान लगाया जाता है। उनकी असफलताओं के कारणों का गम्भीरतापूर्वक निदान किया जाता है। इसके लिए शिक्षण की सभी प्रक्रियाओं की पर्याप्तता का निदान होना आवश्यक है, क्योंकि छात्रों की असफलताओं के लिये उन्हें उत्तरदायी माना जाता है परन्तु शिक्षा की सम्पूर्ण प्रक्रियायें उनकी असफलताओं के लिये समान रुप से उत्तरदायी हैं। अतः मूल्यांकन के अन्तर्गत शिक्षण की सम्पूर्ण प्रक्रियाओं के महत्त्व को बालक के व्यवहार परिवर्तन को उद्देश्यों की दृष्टि से आकलन किया जाता है।

विद्यालय में पढ़ाये जाने वाले सभी विषय बालक के विकास एवं वृद्धि में योगदान करते हैं क्योंकि शिक्षण की प्रक्रिया में ‘सीखने के अनुभव’ विद्यालय के विषयों द्वारा ही प्रदान किये जाते हैं। यहाँ संक्षेप में यह उल्लेख किया है कि हिन्दी शिक्षण में मूल्यांकन-विधि का प्रयोग किस प्रकार किया जा सकता है।


शिक्षण में मूल्यांकन आयाम के प्रयोग के लिये सोपान

अध्यापक को मूल्यांकन आयाम के अन्तर्गत निम्नांकित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(1) शिक्षण-उद्देश्यों का प्रतिपादन,

(2) शिक्षण-उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए सीखने के अनुभवों का सर्जन तथा

(3) बालकों में होने वाले व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन।

(क) शिक्षण-उद्देश्यों का प्रतिपादन

इस सोपान के अन्तर्गत अध्यापक को शिक्षण-उद्देश्यों को स्पष्ट ढंग से निर्धारित पड़ता है। बालक के विकास और शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये शिक्षण का स्थान। प्रकार है। शिक्षा के उद्देश्यों को दो भागों में विभाजित किया गया है-

(अ) सामान्य-उद्देश्य

(i) ज्ञानात्मक उद्देश्य, (ii) भावात्मक उद्देश्य, (iii) क्रियात्मक उद्देश्य।

(ब) विशिष्ट उद्देश्य (विषय-उद्देश्य का व्यावहारिक रुप)

(i) हिन्दी अथवा भाषा शिक्षण, (ii) विज्ञान शिक्षण, (iii) गणित शिक्षण, (iv) भूगोल शिक्षण, (v) इतिहास शिक्षण तथा (vi) कला शिक्षण।

मूल्यांकन की प्रक्रिया में शिक्षण के व्यावहारिक उद्देश्यों पर ही अधिक बल जाता है। शिक्षण के सामान्य व्यावहारिक उद्देश्यों के निम्नांकित भागों में विभाजित किया जा सकता है-

(i) ज्ञान-उद्देश्य- बालक को परिस्थितयों, पदों, प्रत्ययों, सिद्धान्तों तथा नियमों का बोध कराया जाता है जिससे वह पहिचान कर सके, स्मरण कर सके तथा परख कर सके।

(ii) कौशल-उद्देश्य- शिक्षण द्वारा बालकों में परिस्थितियों और जीवन की समस्याओं के हल ढूँढ़ने की कुशलता, वातावरण के साथ अनुकूलन की क्षमता उत्पन्न कर सके। मानवी क्रियाओं पर पड़ने वाले तथ्यों के प्रभाव को कारण एवं प्रभाव के रुप में समझने की क्षमता का विकास हो सके।

(iii) अभिवृत्ति का विकास- शिक्षा द्वारा बालक में अपने व्यक्तिगत, सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों के प्रति सही दृष्टिकोण विकसित करना है !

(iv) ज्ञान प्रयोग उद्देश्य- शिक्षा से प्राप्त ज्ञान को अपने जीवन की परिस्थितियों के लिये प्रयोग करने की क्षमता का विकास करना। हिन्दी शिक्षण में ज्ञान प्रयोग का विशेष महत्त्व है !

(v) मूल्यों का विकास उद्देश्य- शिक्षा द्वारा जीवन के प्रति अपेक्षित मूल्यों को विकसित करना एक प्रमुख उद्देश्य होता है जिससे बालक अपने समाज, राष्ट्र तथा विश्व का सुयोग्य नागरिक बन सके।


शिक्षण के लिये मूल्यांकन में निम्नलिखित विशिष्ट उद्देश्यों का प्रतिपादन किया गया है-

1. तथ्यों एवं सिद्धान्तों को बोध करना।

2. परिस्थितियों के ज्ञान से दैनिक जीवन की समस्याओं का समाधान निकालने की क्षमताओं का विकास करना।

3. तथ्यों के प्रति निरीक्षण और जीवन के तथ्यों को वातावरण के रुप में समझने की क्षमता का विकास करना।

4. परिस्थितियों के प्रति रुचि तथा मानवी क्रियाओं पर सांस्कृतिक प्रभाव को समझने की क्षमता का विकास करना।

5. तत्वों पर मानवी निर्भरता की सराहना की क्षमता का विकास करना।

6. मानवता एवं विश्व-व्यापकता की अभिवृत्ति का विकास करना।

(ख) सीखने के अनुभवों का सर्जन :

मूल्यांकन की प्रक्रिया का यह दूसरा सोपान है। सीखने के अनुभवों के लिये प्रमुख प्रविधियाँ तथा प्रक्रियायें निम्नलिखित हैं-

(अ) शिक्षण के विषय उद्देश्य।

(ब) पाठ्यक्रम का स्वरुप।

(स) शिक्षण-विधियाँ तथा प्रविधियाँ।

(द) शिक्षण-सूत्र एवं सहायक सामग्री।

(य) पाठ्य-पुस्तकें व गृह कार्य।

(र) शिक्षक एवं छात्र की क्रियाशीलता।

सीखने के अनुभवों से बालकों की निष्पत्तियों द्वारा उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता मिलती है। सीखने के अनुभवों को शिक्षण के उद्देश्यों तथा पाठ्य-वस्तुओं द्वारा नियंत्रित किया जाता है। शिक्षण तथा अधिगम के अनुभवों द्वारा अधिक प्रभावशाली होता है। अनुभवों हेतु बालकों की स्वयं क्रियायें सबसे बड़ा साधन मानी जाती हैं। अतः शिक्षक को प्रभावशाली शिक्षण एवं सीखने के लिये सोद्देश्य-क्रियाओं की व्यवस्था करनी चाहिये, जिससे बालकों को उनमें क्रियाशील रखा जा सके। जॉन डीवी के अनुसार शिक्षक का परम कर्तव्य यह है कि बालकों को सीखने की क्रियाओं के लिये समुचित प्रेरणा एवं प्रोत्साहन दें और पर्याप्त वातावरण का अवसर प्रदान करें, जिससे छात्रों को अधिक से अधिक सोद्देश्य-क्रियाओं को सम्पादित करने का अवसर मिले।

इसका आशय यह नहीं है कि शिक्षण एवं सीखने में अध्यापक का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं है अपितु सीखने की क्रियाओं तथा अनुभवों के सृजन की व्यवस्था शिक्षक द्वारा ही की जाती है। शिक्षक सम्पूर्ण सीखने की क्रियाओं का नियंत्रण करता है। उसका अपने छात्रों के प्रति व्यवहार मित्र, दार्शनिक तथा निदेशक के तुल्य होता है शिक्षण के सीखने के अनुभवों का आयोजन उपलब्ध साधनों के अनुसार किया जाता है। उदाहरणार्थ- ‘ताजमहल’ के शिक्षण के लिये वहाँ के शिक्षक को भौगोलिक यात्रा का आयोजन करना सुगम एवं बोधगम्य होगा परन्तु दिल्ली के शिक्षक को इस पाठ के लिये चित्र, मॉडल का उपयोग करना ही सम्भव हो सकेगा इसलिये सीखने के अनुभवों की क्रियायें भी पृथक्-पृथक् होंगी। एक स्थान के दो विद्यालयों में भी साधन अलग-अलग हो सकते हैं। उपलब्ध साधनों के द्वारा सीखने के अनुभवों को प्रभावी माना जाता है। साधनों की व्यवस्था की रुपरेखा प्रत्येक शिक्षक की योग्यता एवं क्षमताओं पर निर्भर करती है। अतः सामान साधनों में भी सीखने के अनुभवों की क्रियायें एक-सी नहीं हो सकती है। इसलिये शिक्षक को मूल्यांकन आयाम में उपलब्ध साधनों में ही अधिक से अधिक सीखने के अनुभवों का सृजन कराना चाहिये।

मूल्यांकन आयाम में पाठ्यवस्तु को छात्रों के स्तर एवं आवश्यकताओं के अनुसार ही प्रस्तुत करना चाहिये। प्रस्तुतीकरण में सीखने के अनुभवों के निमित्त सीखने के बिन्दु निश्चित किये जाते हैं। उनकी सहायता से सीखने की ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न की जाती हैं, जिससे बालकों की क्षमताओं का विकास तथा उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सके। उदाहरणार्थ- विद्यालय में संग्रहालय की व्यवस्था से बालकों में मॉडल चित्र तथा चार्ट बनाने की रुचि उत्पन्न होती है और कौशल का विकास होता है। शिक्षक पाठ-योजना की व्यवस्था सीखने के अनुभवों के सृजन के लिये करता है। मूल्यांकन आयाम में पाठ-योजना की रुपरेखा वैज्ञानिक होती है। अध्यापक तथा छात्रों की क्रियाओं के द्वारा अभीष्ट व्यवहार परिवर्तन के लिये प्रयास किया जाता है। पाठ-योजनाओं के नमूने अन्य अध्यायों में दिये गये हैं।।


(ग) व्यवहार-परिवर्तनों का मूल्यांकन

सीखने के अनुभवों के सृजन से बालकों के व्यवहार में परिवर्तन होता है। बालक के व्यवहार परिवर्तन उसके व्यक्तित्व के सभी पक्षों से संबंधित होते हैं। इसके अन्तर्गत बाह्य तथा आन्तरिक दोनों ही प्रकार के व्यवहार सम्मिलित हैं। बालक के व्यवहार के तीन मुख्य पक्ष-ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक होते हैं। शिक्षा बालक के कुछ विशेष गुणों, रुचियों एवं मूल्यों का विकास करने में समर्थ होती हैं। व्यवहार परिवर्तन का मूल्यांकन शिक्षा के उद्देश्यों की दिशा में सीखने की क्रियाओं तथा अनुभवों द्वारा किया जाता है।

आधुनिक परीक्षा प्रणाली के तीन मुख्य दोष हैं।

(1) बालकों के सीखने के अनुभवों एवं व्यवहार परिवर्तन से संबंधित नहीं है। लिखित परीक्षायें रटने पर अधिक बल देती हैं।

(2) यह परीक्षा प्रणाली सम्पूर्ण पाठ्य-वस्तु पर आधारित नहीं होती है।

(3) यह परीक्षायें वस्तुनिष्ठ तथा विश्वसनीय नहीं होती है।

मूल्यांकन आपस में इन दोषों को ध्यान में रखते हुये कुछ विशेष प्रकार की प्रविधियों का प्रयोग किया जाने लगा है, जिनमें निम्नांकित बातों का ध्यान रखा जाता है-

(अ) पाठ्य-वस्तु एवं व्यवहार परिवर्तनों के लिये एक तालिका तैयार की जाती है जो निर्देशन का कार्य करती है।

(ब) इस तालिका की सहायता से सम्पूर्ण पाठ्य-वस्तु पर परीक्षा के प्रश्नों को तैयार करते हैं।

(स) प्रश्न-पत्र में वस्तुनिष्ठ तथा निबंधात्मक प्रश्नों की व्याख्या की जाती है। यह तालिका प्रश्नों के लिए आधार प्रदान करती है।

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