पाठ्यचर्या विकास के किन्हीं तीन तकनीकी/वैज्ञानिक प्रतिमानों की विवेचना कीजिए

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 पाठ्यचर्या विकास हेतु प्रयुक्त किए जाने वाले कई प्रतिरूप हैं। तकनीकी/वैज्ञानिक प्रतिरूपों में हम विषयवस्तु केन्द्रित उपागम पर विशेष बल देते हैं। तकनीकी/वैज्ञानिक प्रतिरूपों में शिक्षाविदों से यह अपेक्षा की जाती है कि अपनी कार्य सिद्धि के लिए बौद्धिक और तार्किक उपागम का प्रयोग करें। तकनीकी/वैज्ञानिक उपागम के समर्थकों का विश्वास है कि पाठ्यचर्या नियोजन की विभिन्न प्रक्रियाओं की विधिवत रूपरेखा बनाना संभव है जिसके फलस्वरूप पाठ्यचर्या तकनीकी/वैज्ञानिक प्रतिरूपों की विवेचना प्रस्तुत करेंगे।

(1) टेलर मॉडल- पाठ्यचर्या विकास के टेलर मॉडल के अनुसार सर्वप्रथम हमें उस विद्यालय के प्रयोजनों को परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए जिस विद्यालय के लिए पाठ्यचर्या विकसित की जा रही है। हमें इन प्रयोजनों से संबद्ध शैक्षिक अनुभवों को भी ध्यान। में लाना चाहिए। हमें इन शैक्षिक अनुभवों के संगठन की योजना को परिभाषित करने के साथ-साथ इन प्रयोजनों की प्राप्ति के लिए मूल्यांकन प्रक्रिया पर विचार करना चाहिए। हम इस आकृति के द्वारा टेलर के प्रतिरूप को समझ सकते हैं।

उक्त आकृति के आधार पर हम समझ सकते हैं कि पाठ्यपुस्तक विकास के टेलर के प्रतिरूप के अनुसार हम तीन स्त्रोतों से व्यापक सूचनाएँ प्राप्त करते हैं। ये स्त्रोत हैं समाज,विषयवस्तु व अध्येता। समाज हमें अपनी संस्कृति, सभ्यता, मान्यताओं, सामाजिक मूल्यों आदि के संबंध में सूचनाएं प्रदान करता है जबकि विषयवस्तु हमें उन विभिन्न प्रकरणों, पाठ्यसामग्री के संबंध में सूचनाएँ प्रेषित करती है जिस विषवस्तु से संबंधित पाठ्यचर्या विकसित करनी है। अन्य स्त्रोत अध्येता के द्वारा हम उन विद्यार्थियों की रुचियों, योग्यताओं, आवश्यकताओं आदि के संबंध में सूचनाएं प्राप्त कर सकते हैं जिनके लिए उक्त पाठ्यचर्या विकसित की जा रही है। चूंकि इन स्त्रोतों से निर्धारित उद्देश्य सामान्य उद्देश्य होते हैं अतः हमें इन सामान्य उद्देश्यों को यथार्थ अर्थात् विशिष्ट अनुदेशात्मक उद्देश्यों में परिवर्तित करना होता है। इसके उपरान्त हो समुपयुक्त अधिगम अनुभवों का चयन करना चाहिए जो उद्देश्यों के समपयुक्त हों। टेलर के प्रतिरूप का अन्तिम बिन्दु मूल्यांकन है जो हमें पाठ्यचर्या के पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की सम्प्राप्ति के संबंध में प्रतिपुष्टि प्रदान करता है।

(2) ताबा प्रतिरूप- हिल्डा ताबा के अनुसार हमें पाठ्यचर्या से संबंधित प्रभावी निर्णय लेने हेतु पाठ्यचर्या के इस्तेमाल करने वाले व्यक्तियों की संलिप्तता सुनिश्चित करनी चाहिए। इस प्रतिरूप के अनुसार हमें पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया में शिक्षकों को अधिकाधिक रूप से सहभागी बनाना चाहिए। शिक्षकों को ही अपने विद्यार्थियों के लिए शिक्षण-अधिगम सृजित करना चाहिए। हिल्डा ताबा अपनी पाठ्यचर्या योजना के आधारभूत मॉडल में सात सोपानों की सूची प्रदान की है जिनमें शिक्षकों को विशेष निवेश जुटाने का प्रयास करना अपेक्षित है।

(i) शिक्षकों को उन विषय के विद्यार्थियों से संबंधित आवश्यकताओं का भलीभांति निदान अथवा निर्धारण कर लेना चाहिए जिन विद्यार्थियों के लिए वह पाठ्यचर्या विकसित की जा रही हो ताकि हम पाठ्यचर्या में विद्यार्थियों की आवश्यकताओं को अधिकाधिक रूप से सम्मिलित कर सकें।

(ii) शिक्षकों को उद्देश्यों के निर्माण हेतु विशेष निवेश/ सूचनाएं प्रदान करती चाहिए क्योंकि किसी अन्य की अपेक्षा विद्यार्थियों के संबंध में शिक्षक अधिक जानकारी रखता है।

(iii) ताबा के पाठ्यचर्या विकास के प्रतिरूप के तीसरे सोपान में विषय वस्तु पर जोर दिया गया है। इसमें शिक्षक संबंधित पाठ्यवस्तु के संबंध में सूचनाएँ/ सामग्री उपलब्ध करा सकता है।

(iv) जैसा कि हम जानते हैं कि पाठ्यचर्या विश्वास की प्रक्रिया में शिक्षक एक महत्वपूर्ण अंग है। क्योंकि पाठ्यवस्तु के आयोजन की प्रक्रिया शिक्षक द्वारा ही सम्पादित होती है। सम्पूर्ण प्रक्रिया में पाठ्यसामग्री का आयोजन महत्वपूर्ण भाग है।

(v) हमें विद्यार्थियों की रूचियों, योग्यताओं, आवश्यकताओं के समनुरूप अधिगम अनुभवों का चयन करना चाहिए ताकि पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की संप्राप्ति सुनिश्चित की जा सके।

(vi) ताबा के पाठ्यचर्या विकास के प्रतिरूप के छठे सोपान में शिक्षण अनुभवों के संगठन पर ध्यान दिया जाता है। यह संगठनात्मक कार्य मुख्य रूप से शिक्षकों द्वारा ही किया जाता है।

(vii) ताबा के प्रतिरूप का अन्तिम सोपान मूल्यांकन है जिसके द्वारा हम उपलब्धियों के संबंध में प्रतिपुष्टि प्राप्त व प्रदान कर सकते हैं। कुल मिलाकर ताबा के पाठ्यचर्या विकास के प्रतिरूप के अनुसार पाठ्यचर्या विकास की प्रक्रिया में पाठ्यचर्या के प्रयोक्ताओं की अधिकाधिक भागीदारी बनाना चाहिए।

(3) खेलर-अलैग्जेंडर प्रतिरूप- यह पाठ्यचर्या विकास का एक सुव्यवस्थित मॉडल है जो सेलर-अलेग्जेण्डर के द्वारा प्रस्तुत किया गया है। इसमें पांच भागों को सम्मिलित किया गया है।

(i) लक्ष्य, उद्देश्य और क्षेत्र- यह सेलर-अलैग्जेण्डर प्रतिरूप का मुख्य भाग है जो प्रत्येक मुख्य लक्ष्य पाठ्यचर्या क्षेत्र को व्यक्त करता है। ये लक्ष्य पाठ्यचर्या विकास के मूलाधार होते हैं। संपूर्ण आयोजन, कार्यान्वयन, आदि प्रक्रियाओं का मुख्य आधार पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की प्रभावी सम्प्राप्ति सुनिश्चित करने में निहित होता है।

(ii) पाठ्यचर्या अभिकलन/डिजाइन- इस भाग में हम अच्छी पाठ्यचर्या, उसके विषयवस्तु, संगठन तथा उपयुक्त अधिगम अनुभवों के बारे में पाठ्यचर्या नियोजकों के निर्णयों को सम्मिलित करते हैं। ये निर्णय पाठ्यचर्या विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(iii) पाठ्यचर्या क्रियान्वयन- इस भाग में हम शिक्षकों द्वारा अनुदेशन के संबंध में लिए गए निर्णयों को रखते हैं। पाठ्यचर्या में बहुत से अनुभवों को सम्मिलित किया जाता है ताकि अध्यापकों के पास विकल्पों में से समुपयुक्त चयन की सुविधा रहे। कार्यान्वयन प्रक्रिया में शिक्षक विद्यार्थियों की रूचियों, आवश्यकताओं, योग्यताओं के समनुरूप अधिगम अनुभवों एवं आयोजन प्रक्रिया का चयन कर सकते हैं।

(iv) पाठ्यचर्या मूल्यांकन– इस भाग में हम अध्यापकों तथा पाठ्यचर्या के प्रभाविता की जांच संबंधी निर्णयों को सम्मिलित करते हैं। हम मूल्यांकन के द्वारा शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया की प्रभाविता, सार्थकता के साथ-साथ शिक्षक के शिक्षण कौशलों का आकलन भी कर सकते हैं। यदि विद्यार्थी पूर्व निर्धारित उद्देश्यों की सम्प्राप्ति करने में सफलता अर्जित कर लेते हैं तो हम कह सकते हैं कि पाठ्यचर्या एवं उससे संबंधित शिक्षण प्रक्रिया सौद्देश्य व प्रभावी है।

(v) प्रतिपुष्टि तथा समायोजन- मूल्यांकन के द्वारा हम विद्यार्थियों की उपलब्धियों व शिक्षक की कार्यकुशलता के संबंध में प्रतिपुष्टि प्राप्त व प्रदान कर सकते हैं। यह प्रतिपुष्टि पाठ्यचर्या को मूल्यांकन की प्रतिपुष्टि के आधार पर समायोजित करने के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होती है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि ये तकनीकी/वैज्ञानिक प्रतिरूप एक प्रभावी पाठ्यचर्या के विकास हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। किसी भी विषय की पाठ्यचर्या का विकास व निर्धारण करते समय पाठ्यचर्या नियोजकों को इन प्रतिरूपों की मूलभूत अवधारणाओं व सिद्धान्तों को ध्यान में लाना चाहिए।

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