पाठ्यचर्या प्रतिमानों के आधारों का वर्णन कीजिए।

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 पाठ्यक्रम प्रतिमान के आधार

पाठ्यक्रम प्रतिमान सम्बन्ध विभिन्न विचारों के अध्ययन से पाठ्यक्रम प्रतिमान निर्माण के कुछ आधार स्पष्ट हो जाते हैं। अब हम इन आधारों पर विचार करेंगे। प्रमुख आधार इस प्रकार हैं-

(1) मानव जाति के अनुभव- पाठ्यक्रम निर्धारण का पहला अधिनियम यह है कि पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियाओं, विषयों और वस्तुओं को सम्मिलित करना चाहिए जो बालक को समस्त मानव जाति के अनुभवों की जानकारी करायें।इन अनुभवों को बालक कक्षा में, खेल के मैदान में, प्रयोगशाला में अथवा अन्य किसी स्थान पर प्राप्त कर सकता है। इस ज्ञान को प्राप्त करने के उपरान्त वह जीवन में भाग लेने के लिए पूर्ण रूप से तैयार हो जाता है।

(2) जीवन से सम्बन्धित- पाठ्यक्रम निर्धारण का दूसरा अधिनियम यह है कि पाठ्यक्रम में वही पाठ्यवस्तु अथवा क्रियायें सम्मिलित की जायें जो किसी न किसी रूप में बालक के वर्तमान जीवन से सम्बन्धित हो और भावी जीवन के लिए उपयोगी हों। दूसरे शब्दों में जो विषय अथवा क्रियायें बालक के जीवन और भविष्य से सम्बन्धित नहीं हों उन्हें पाठ्यक्रम में स्थान नहीं देना चाहिए।

(3) रुचियाँ तथा योग्यताएं- यह पाठ्यक्रम निर्धारण का तीसरा अधिनियम है। इस सिद्धान्त के अनुसार पाठ्यक्रम की रचना बालक की रुचियों और योग्यताओं के अनुसार होनी चाहिए। जिस श्रेणी में बालक में जैसे रुचि, योग्यता अथवा आकांक्षा हो उस प्रकार की पाठ्यवस्तु चुनी जानी चाहिए जिससे बालक को सीखने में आनन्द आवे और पीड़ा न हो। जिस वस्तु को सीखने में आनन्द आता है उसे बालक शीघ्र सीख लेता है और काफी समय तक याद रखता है।

(4) रचनात्मक शक्तियों का विकास- प्रत्येक बालक में किसी न किसी क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने की योग्यता होती है । अत: पाठ्यक्रम द्वारा बालकों को ऐसे अवसर मिलने चाहिए कि वे अपनी रचनात्मक योग्यता को व्यक्त कर सकें । रेमान्ट का कहना है कि जो पाठ्यक्रम उपयुक्त हो उसे निश्चित रूप से रचनात्मक विषयों के प्रति सुझाव होने चाहिए। अत: पाठ्यक्रम में बालक की रचनात्मक शक्तियों के विकास का पूरा प्रबन्ध होना चाहिए।

(5) व्यक्तिगत विभिन्नताएं- पाठ्यक्रम निर्धारण का चौथा अधिनियम व्यक्तिगत विभिन्नताओं का ध्यान रखना है। पाठ्यक्रम व्यक्तिगत भेदों पर आधारित होना चाहिए । शिक्षा के मनोवैज्ञानिक विकास के पहले सभी व्यक्तियों के लिए एक-सा पाठ्यक्रम उपयुक्त समझा जाता था। मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति एक दूसरे से भिन्न है और उसका ने विशेष व्यक्तित्व है । पाठ्यक्रम द्वारा इस विशेष व्यक्तित्व का विकास होना चाहिए। यदि पाठ्यक्रम कठोर हुआ तो विशेष व्यक्तित्व का विकास सम्भव न हो सकेगा। इसलिए पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए। पाठ्यक्रम के लचीले होने से उसमें आवश्यकतानुसार परिवर्तन किया जा सकता है। शिक्षक को यह अधिकार होना चाहिए कि वह पाठ्यक्रम में आवश्यकतानुसार कर ले। तभी वह उसको सफल बना सकेगा।

(6) अग्रदर्शिता- यद्यपि पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों और क्रियाओं का समावेश होना चाहिए जो बालक के जीवन से सम्बन्धित हों परन्तु बालक के सफल जीवनयापन एवं भावी जीवन में अनुकूलीकरण की दृष्टि से पाठ्यक्रम में ऐसे विषयों, वस्तुओं और क्रियाओं को भी स्थान देना चाहिए जिनके द्वारा बालक अपने जीवन में आने वाली समस्याओं तथा परिस्थितियों को समझ सके और भविष्य में सफल जीवन बिना सके। ‘रायबर्न’ के कथनानुसार, बालक जो कुछ विद्यालय में सीखता है उसके द्वारा इसमें ऐसी योग्यता आनी चाहिए कि वही जीवन की परिस्थितियों से अनुकूलन करें और आवश्यकता पड़ने पर परिस्थितियों में परिवर्तन ला सकें।”

(7) पर्याप्त समय की व्यवस्था- पाठ्यक्रम का एक अधिनियम यह भी है कि उसमें समय का ध्यान रखा जाये। एक विषय के कोर्स को पूरा करने के लिए जितने समय की आवश्यकता हो उतना ही समय पाठ्यक्रम में उसके लिए निश्चित करना चाहिए। निश्चित समय में कम या अधिक समय देने से हानियाँ हो सकती हैं। बालकों के विकास-क्रम को ध्यान में रखकर किसी विषय को पूरा करने के लिए उचित समय निर्धारित करना चाहिए।

(8) सामाजिक पक्ष- पाठ्यक्रम निर्धारण का सातवाँ अधिनियम यह है कि पाठ्यक्रम में ऐसी क्रियाएं और विषय सम्मिलित किये जायें जो बालक की सामाजिक भावनाओं को प्रोत्साहन दें। ऐसी भावनाओं के उदय होने पर बालक समाज में रहने योग्य बन सकेगा और अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकेगा। पाठ्यक्रम में समस्त मानव जाति की ऐसी प्रथाओं और मान्यताओं एवं सामाजिक समस्याओं को स्थान देना चाहिए जो बालक के वर्तमान जीवन से सम्बन्धित हो । विद्यालयों में ऐसा कार्यक्रम रखना चाहिए जो जाति के विकास से सम्बन्धित हो। इस प्रकार के कार्यक्रम बालकों को समाज में भली प्रकार रहने के लिए शक्ति प्रदान करते हैं और उनके अनुभवों को सार्थक बना देते हैं। चूँकि समाज में परिवर्तन होते रहते हैं इसलिए पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार बनाना चाहिए तभी वह बदलते समाज की आवश्यकताओं को पूरा कर सकेगा।

(9) सह-सम्बन्ध- पाठ्यक्रम निर्धारण में यह बात ध्यान देने योग्य है कि पाठ्यक्रम के विषयों में परस्पर सह-सम्बन्ध होना चाहिए। विषय पृथक्-पृथक् न हों। एक विषय की शिक्षा के आधार पर दूसरे विषयों की शिक्षा भी दी जा सके। अतः आजकल सभी शिक्षा-शास्त्री विषयों के सह-सम्बन्ध पर बल देते हैं। इसी सिद्धान्त के आधार पर एकीकृत पाठ्यक्रम तैयार किया जाता है। सह-सम्बन्ध के कई लाभ हैं जिनसे आज भली भाँति परिचित हैं।

(10) जनतन्त्रीय भावना के विकास- वर्तमान भारत के प्रजातन्त्रीय राज्य में पाठ्यक्रम का एक विशेष कार्य है । बालकों में प्रजातन्त्र की भावना का विकास करना उसका एक आवश्यक एवं महत्त्वपूर्ण कार्य समझा गया है । अतएव पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो जनतन्त्र की भावना एवं आदर्शों का पोषक हो। स्कूल के समस्त कार्य, खेल और अध्ययन सामूहिक रूप से होने चाहिये । शिक्षक, विद्यार्थी एवं जाति के सभी लोगों को अपना-अपना उत्तरदायित्व निभाना चाहिए तभी जनतन्त्रीय भावना का विकास हो सकेगा।

(11) स्वस्थ आचरण की प्राप्ति- ‘क्रो तथा क्रो महोदय के अनुसार पाठ्यक्रम उन विषयों, वस्तुओं और क्रियाओं को स्थान देना चाहिए जो बालकों को एक दूसरे के प्रति उत्तम व्यवहार तथा सदाचरण करना सिखायें ।

(12) कौतूहल एवं सामान्यीकरण- ए.एन. व्हाइटहैड के कथनानुसार, पाठ्यक्रम निर्धारण में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह शिक्षा-जीवन की तीनों अवस्थाओं को पूर्ण करें, (अ) कौतूहल, (ब) यथार्थता तथा (स) सामान्यीकरण । इस दृष्टि से पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो बालकों को यथार्थ ज्ञान दे और जिसे प्राप्त करके बालक वास्तविक जीवन सफलता प्राप्त कर सके।

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