पाठ्यक्रम के अन्य आधारों के बारे में लिखो।

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 पाठ्यक्रम के अन्य आधार।

पाठ्यक्रम के दार्शनिक आधार के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण आधार भी हैं जिनका विवेचन इस अध्याय में किया गया है। शिक्षा की प्रक्रिया गतिशील है क्योंकि सामाजिक परिवर्तन होते हैं इसलिए उसी परिवर्तन के अनुरूप शिक्षा में परिवर्तन भी आवश्यक होता है। शिक्षा को जन्म समाज ने दिया, जिससे अपेक्षित समाज को तैयार कर सकें। इस प्रकार शिक्षा समाज को जन्म देती है अथवा उसका निर्माण करती है । सामाजिक परिवर्तन से सामाजिक दर्शन, सामाजिक मूल्यों, मान्यताओं राजनैतिक एवं आर्थिक व्यवस्था भी बदलती रहती है। इस प्रकार पाठ्यक्रम के निर्माण में इन सभी प्रकार के परिवर्तनों को ध्यान में रखना होता है। वास्तव में ‘सामाजिक परिवर्तन’ से आर्थिक पक्ष में परिवर्तन अधिक तीव्रता से होता है जबकि सामाजिक पक्ष में परिवर्तन मन्द गति से होता है अत: आर्थिक पक्ष अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।

‘रोस’ ने शिक्षा को एक ही सिक्के के दो पहलू कहा है-सैद्धान्तिक पक्ष तथा व्यावहारिक पक्ष । सैद्धान्तिक पक्ष को दर्शन तथा सामाजिक परिवर्तन निर्धारित करते हैं और मनोविज्ञान और विज्ञान उसके व्यावहारिक पक्ष को सुनिश्चित करता है। इस प्रकार पाठ्यक्रम के निर्माण में बालक की क्षमताओं, नैसर्गिक प्रवृत्तियों तथा उसके विकास के क्रम को ध्यान में रखना होता है । इस अध्याय में पाठ्यक्रम के अन्य आधारों का विवेचन किया गया है।

(1) मानववाद तथा पाठ्यक्रम, (2) मनोवैज्ञानिक आधार, (3) सामाजिक आधार,(4) वैज्ञानिक आधार, (5) ऐतिहासिक आधार, (6) स्वामित्व अधिगम-आव्यूह आधार ।

आधुनिक युग में कोई राष्ट्र अकेला रह कर न रह सकता है और न ही प्रगति कर सकता है । इसलिये मानवता अथवा विश्वबन्धुत्व की भावना का विकास करना शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य है। यह भावना मानवतावादी दृष्टिकोण है। इसलिए अन्य आधारों में मानवतावादी विचारधारा प्रमुख आधार माना जाता है। मानवतावादी शिक्षा के उद्देश्य एवं पाठ्यक्रम के प्रारूप का विवेचन किया गया है-

(1) मानवतावादी शिक्षा के उद्देश्य तथा (2) मानवतावाद तथा पाठ्यक्रम का प्रारूप । इनका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया गया है ।

(1) मानवतावादी शिक्षा के उद्देश्य मानवतावाद के सम्बन्ध में अब तक के वर्णन से यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिये कि यह विचारधारा समाज तथा व्यक्ति के सम्बन्धों को नये दृष्टिकोण से देखती है। यह एक ऐसा दार्शनिक परिवर्तन है जो व्हाइटहेड के शब्दों में सैकड़ों वर्षों में एक आध बार घटित होता है।

अब मानवतावादी शिक्षा के उद्देश्यों पर विचार कर लेना चाहिए । मानवतावादी शिक्षा का चरम लक्ष्य व्यक्ति को सुखी बनाना होगा जिससे कि वह प्रगति करता जाए और इस संसार को रहने योग्य स्थान बना सके। मानवतावादी शिक्षा के निम्नलिखित उद्देश्यों की प्रायः चर्चा की जाती है

(1) मानवतावादी शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति में आत्म विश्वास जाग्रत करना है। मानवतावाद का केन्द्र-बिन्दु मानव है किन्तु यदि वह आत्मविश्वास से विहीन हो जाएगा तो मानवतावाद का सारा प्रयास निष्फल हो जायेगा। अत: शिक्षा द्वारा उसमें आत्मविश्वास जाग्रत करना है।

(2) शिक्षा का उद्देश्य मानव की सभी योग्यताओं का विकास करना है। किसी एक पक्ष पर अधिक बल देने से उसके चतुर्दिक विकास में बाधा पड़ सकती है। अत: उसकी समस्त क्षमताओं का विकास शिक्षा का लक्ष्य होना चाहिए।

(3) शिक्षा द्वारा बालक में रचनात्मक समालोचना एवं समालोचनात्मक रचनात्मकता का विकास करना आवश्यक है। कु. साबिरा जैदी के शब्दों में वैज्ञानिक मानवतावादी शिक्षा का यह महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है।

(4) मानवतावादी शिक्षा का एक उद्देश्य यह है कि बालक की चेतना को सशक्त एवं जागरूक बनाया जाये, जिससे वह जीवन में जो कुछ सुन्दर एवं अनोखा है उसके विषय में सजग रह सके एवं जो कुछ घिसा-पिटा एवं रूढ़िगत है उससे मुक्ति पा सके । इस उद्देश्य का प्रबल समर्थक मैसलो है।

(5) मानवतावादी शिक्षा का उद्देश्य बालक को उसकी महानता की अनुभूति कराना भी है अर्थात् उसमें ऐसा आत्मबोध जगाना है कि वह समाज एवं सृष्टि का महत्त्वपूर्ण अंग बन सके । उसमें विकास की असीम सम्भावनाएं हैं।

(6) विद्यार्थियों में उच्च मूल्यों (बी-वेल्यू) का विकास करना अर्थात् उनमें उच्च स्तरीय एवं मानवीय मान्यताओं का विकास करना । मानवतावादी शिक्षा भौतिक मान्यताओं को स्वीकार करते हुए भी इस बात पर बल देती है कि प्रत्येक व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ऊपर उठे एवं उनमें उन मान्यताओं का विकास हो जिनसे समस्त मानव जाति एक सूत्र में बंधती है।

(7) मानवतावादी शिक्षा अन्त में हर बालक को एक अच्छा मनुष्य बनाने की कल्पना करती है एवं इस बात पर बल देती है कि किसी विद्यालय में ऐसे वातावरण की स्थापना होनी चाहिए तथा उसे ऐसे अनुभव प्रदान किये जाने चाहिए जो बालक में विवेक का विकास करके उसे ऊंचा उठा सकें।

(8) बालक के मानसिक स्वास्थ्य का विकास करना मानवतावादी शिक्षा का एक अन्य महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है । वह इस बात पर बल देता है कि जीवन में सुख एवं शान्ति का अनुभव करना परम आवश्यक है। स्वस्थ मन एवं मस्तिष्क मैसलो के मतानुसार व्यक्ति के आध्यात्मक विकास एवं सामाजिक समन्वय के लिए भी आवश्यक है।।

(9) मानवतावादी शिक्षा मूल रूप से यह स्वीकार करती है कि मानव एक विचारशील प्राणी है। अत: उसकी विचारशीलता स्वभाव एवं धैर्य का विकास करने का पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए जिससे वह स्वयं सत्य और असत्य के बीच भेद कर सके।


मानवतावाद एवं पाठ्यक्रम

शिक्षा दर्शन का मानवतावादी दृष्टिकोण पूर्व वर्णित उद्देश्यों की उपलब्धि के लिये अनुकूल पाठ्यक्रम की व्याख्या भी करता है किन्तु इस सम्बन्ध में सभी मानवतावादियों के विचार एक से नहीं हैं। बूबेकर के अनुसार, “मानवतावाद मानव स्वभाव एवं मानवीय दृष्टिकोण पर बल देता है।” कुछ अन्य मानवतावादी विचारकों के अनुसार पाठ्यक्रम में तर्क बुद्धि या विवेक को प्रमुख स्थान मिलना चाहिए और उन विषयों पर बल देना चाहिए जो तर्कपरक हों। डार्विन ने उसी प्रकार के पाठ्यक्रम की बात की है। तर्कबुद्धिपरक मानवतावादी (रेशनल ह्यूमेनिस्ट) इस बात पर जोर देते हैं कि पाठ्यक्रम के लिये उस सामग्री को चुना जाये जिसे वे अनिवार्य मानते हैं । यह सामग्री सम्पूर्ण मानव जाति के अनुभव में समान रूप से विद्यमान है। इस अनिवार्य सामग्री में से भी जो अधिक महत्त्वपूर्ण है उसे चुनने पर वे बल देते हैं। इसके चयन का आधार मानव की तर्कबुद्धि है। वे बुद्धि के विकास को शिक्षा का श्रेष्ठतम उद्देश्य मानते हैं। अत: जो पाठ्यक्रम इस उद्देश्य की पूर्ति में सहायक हो उसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

भारतीय मानवतावादियों; जैसे-टैगोर, गाँधी, जाकिर हुसैन, राधाकृष्णन् आदि की दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय एवं उसकी अच्छाइयों को शिक्षा के कार्यक्रमों में समाविष्ट करना है। अत: पाठ्यक्रम में मानवतावादी कला तथा शिल्प एवं अन्य विषयों का समावेश होना चाहिए। उनका कहना है कि जीवन में जो कुछ अच्छा है उसका पाठ्यक्रम में समावेश होना चाहिए। ये मानव एकता एवं सांस्कृतिक एकता पर बल देते हैं। इस दृष्टिकोण से अनेक पाठ्यक्रम में भाषा, इतिहास, साहित्य एवं समाज विज्ञान को अधिक महत्त्व दिया जायेगा।

गाँधीजी के अतिरिक्त सभी भारतीय मानवतावादी ज्ञानार्जन को महत्त्वपूर्ण समझते हैं। इकबाल ज्ञान की खोज को एक प्रकार की ईश्वरोपासना ही मानते हैं।

इस दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम में विज्ञान को विशिष्ट स्थान दिये जाने पर मानवतावादी बल देते हैं। इसके विपरीत गाँधी जी का कहना है कि मानव के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास के लिये केवल ज्ञान ही आवश्यक नहीं है वरन् उसके लिए सेवाभाव व कार्यानुभव की भी आवश्यकता है।

मैसलो एवं अन्य मनोवैज्ञानिक मानवतावादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति को यह बताना है कि जीवन मूल्यवान है’ एवं जीने की इच्छा करना मरने की इच्छा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। मानवतावादी ऐसे पाठ्यक्रम की कल्पना करते हैं जो बच्चों को परम अनुभूति प्रदान कर सकें। परम अनुभूति उनके व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में सहायक होती है। वे ऐसे पाठ्यक्रम की सिफारिश करते हैं जिनके माध्यम से बच्चों में उच्च मूल्यों का विकास हो सके।


(2) मनोवैज्ञानिक आधार

आधुनिक शिक्षा शास्त्री बालकों को पाठ्यक्रम का आधार मानते हैं। उनके कथनानुसार बालक की आवश्यकताओं, रुचियों तथा अनुभवों को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम का समायोजन करना चाहिये। शिक्षा बालक के लिये है, न कि बालक शिक्षा के लिये। अत: पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जो बालक के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास में सहायक हो । उसके व्यक्तित्व का पूर्ण विकास उसकी व्यक्तिगत योग्यताओं, रुचियों तथा शक्तियों के विकास पर और उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति पर निर्भर होता है। इन बातों का ज्ञान हमें मनोविज्ञान से होता है। इसलिए पाठ्यक्रम का निर्धारण मनोविज्ञान पर आधारित होना चाहिये और उसमें उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं को सम्मिलित करना चाहिये जो उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करें, व्यक्तिगत योग्यताओं को बढ़ायें और उसका शारीरिक, मानसिक एवं भावात्मक विकास करें।

दूसरे, मनोविज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि बालकों की प्रकृति, बुद्धि, योग्यता, आवश्यकता, रुचि आदि में पर्याप्त भिन्नता होती है। इसलिए मनोवैज्ञानिकों का कथन है कि बालकों की व्यक्तिगत असमानता के कारण पाठ्यक्रम के कठमुल्लेपन को तलाक दे देना चाहिये। दूसरे शब्दों में पाठ्यक्रम कठोर और जटिल नहीं होना चाहिये। पाठ्यक्रम इतना लचीला होना चाहिए कि वह सब स्तरों के बालकों को आवश्यकतानुसार शिक्षित कर सके। वह इतना व्यापक हो कि सब सामान्य बालकों के हित का साधक हो। पाठ्यक्रम में बालक की आन्तरिक जन्मजात प्रवृत्तियों का पूर्ण उपयोग होना चाहिये। इनके उपयोग में बालक की नैसर्गिक प्रवृत्तियों के विकास का और शिक्षा का उद्देश्य पूर्ण होता है। इसलिये पाठ्यक्रम में खेल अनुभव एवं क्रियात्मक कार्यों को महत्त्वपूर्ण स्थान देना चाहिये।

इसके अतिरिक्त बालक के विकास की कई अवस्थायें होती हैं। भिन्न-भिन्न अवस्था में बालक की आवश्यकतायें भिन्न-भिन्न होती हैं। इसलिये पाठ्यक्रम विषयों और क्रियाओं को संयोजन इस प्रकार होना चाहिये कि वह बालक की विभिन्न श्रेणीगत आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके। यह कार्य करने के लिये शिक्षकों को बालक के विकास की विभिन्न श्रेणियों की आवश्यकताओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये और इन्हीं को ध्यान में रखकर पाठ्यक्रम बनाना चाहिये। स्पष्ट है कि मनोविज्ञान पाठ्यक्रम को निश्चित करने का एक प्रमुख आधार है।


(3) सामाजिक आधार

बालक की आवश्यकतायें दो प्रकार की होती हैं- (1) वैयक्तिक और (2) सामाजिक । वैयक्तिक आवश्यकताओं के दृष्टिकोण से हम पाठ्यक्रम निर्धारण के सिद्धान्तों चर्चा कर चुके हैं। अतः अब हम सामाजिक दृष्टिकोण से पाठ्यक्रम निर्धारण के सिद्धान्तों को निश्चित करेंगे। व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी है । वह समाज में ही अपना जीवन बिताता है और समाज के सहयोग बिना उसका विकास कठिन है। अतः शिक्षा द्वारा उसे समाज के साथ अनुकूलन करने की क्षमता देनी चाहिये अर्थात् उसकी शिक्षा अथवा उसकी शिक्षा का पाठ्यक्रम समाज के दृष्टिकोण से निर्मित होना चाहिये। दूसरे शब्दों में समाज पाठ्यक्रम के निर्धारण का आधार होना चाहिए । सामाजिक आधार का आशय है कि पाठ्यक्रम में उन्हीं विषयों एवं क्रियाओं को सम्मिलित करना चाहिये जो सामाजिक दृष्टि से उपयोगी हों, जो बालकों में सामाजिकता की भावना तथा सामाजिक गुणों का विकास करें और जो व्यक्ति की प्रमुख तथा गौण दोनों प्रकार की सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा करें। दूसरे शब्दों में हमें पाठ्यक्रम परम्परागत प्रणाली के आधार पर नहीं बनाना चाहिये अपितु सामाजिक आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाना चाहिये। जो क्रियायें सामाजिक नहीं हैं अथवा जिनकी समाज के लिये कोई उपयोगिता नहीं है उन्हें पाठ्यक्रम में महत्त्व का स्थान नहीं मिलना चाहिये।

आज हमारा समाज प्रजातान्त्रिक है अतः शिक्षा का पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिए जो प्रजातन्त्र की भावना को घोषित करे। वह इतना लचीला तथा उदार हो कि सभी बालकों को अपनी योग्यतानुसार बढ़ने का अवसर दें, उन्हें समाज का उपयोगी सदस्य एवं देश का उत्तम नागरिक बनाये तथा उसमें राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत करे ताकि वे समाज तथा देश के प्रति अपने उत्तरदायित्वों तथा कर्त्तव्यों को निभा सकें।

इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु पाठ्यक्रम में भाषा, साहित्य, इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र, स्वास्थ्य, शारीरिक शिक्षा तथा सैनिक प्रशिक्षण आदि विषयों का समावेश होना चाहिये। साथ ही साथ पाठ्य विषय तथा पाठ्य-सामग्री ऐसी होनी चाहिए जिससे बालकों में सहानुभूति, सहयोग, समाज-सेवा, देश-भक्ति, सामूहिक उत्तरदायित्व, नेतृत्व आदि सामाजिक गुणों का विकास हो सके। उपरोक्त के अतिरिक्त समाज की आर्थिक, धार्मिक, औद्योगिक एवं राजनीतिक परिस्थितियाँ भी जीवन को प्रभावित करती हैं। अत: इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही शिक्षा ही शिक्षा का पाठ्यक्रम बनाना चाहिये जिससे बालक समाज की विभिन्न परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं का समाधान कर सके।

रेमान्ट’ महोदय के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जो बालक के जीवन को सफल बनाने में सहायक हो । वे सामाजिक उपयोगिता को जीवन की सफलता की कसौटी कहते हैं। यही पाठ्यक्रम के सामाजिक आधार का अर्थ है।


(4) वैज्ञानिक आधार

आधुनिक समाज प्रजातन्त्रात्मक होने के साथ-साथ व्यवसायात्मक भी है। अतः शिक्षाविदों की धारणा है कि पाठ्यक्रम में भाषा तथा साहित्यिक विषयों को ही महत्त्व या स्थान नहीं देना चाहिए वरन् पाठ्यक्रम में उन विषयों को भी सम्मिलित करना चाहिये जो व्यवसाय और विज्ञान से सम्बन्ध रखते हैं। उनके कथनानुसार जब तक बालक को विज्ञान, व्यवसाय, व्यापार तथा यन्त्रालयों में काम करने की शिक्षा न दी जायेगी तब तक वह भावी समाज में कुशलतापूर्वक रहने के लिए तैयार न हो सकेगा। वैज्ञानिक आधार का यही तात्पर्य है। अतएव पाठ्यक्रम ने विज्ञान, व्यापार, कला-कौशल, उद्योग-धन्धे व्यवसाय आदि विषयों तथा क्रियाओं को महत्त्व का स्थान मिलना चाहिये। उक्त बातों की शिक्षा देने का तात्पर्य वैज्ञानिक विषयों को शिक्षा देने से है। हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार सफल शिक्षा वह है जिससे व्यक्ति अपने जीवन की समस्त समस्याओं का समाधान कर सके और जो उसके जीवन को सभी प्रकार से सुखी बनाने में सहायक हो। यह केवल वैज्ञानिक विषयों की शिक्षा द्वारा ही सम्भव है। इस दृष्टि से स्पेन्सर वैज्ञानिक ज्ञान को साहित्यिक ज्ञान की अपेक्षा अधिक उत्तम तथा उपयोगी समझता है। अतः वैज्ञानिक विषयों की अवहेलना नहीं की जा सकती। उनकी शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। अतः पाठ्यक्रम में कोरे साहित्यिक, कलात्मक तथा भावात्मक विषयों के स्थान पर वैज्ञज्ञनिक विषयों को प्रधानता दी जानी चाहिए। यथार्थवादी पाठ्यक्रम में भावात्मक विषयों को महत्त्व का स्थान नहीं देते। वे पाठ्यक्रम के विषयों का निर्वाचन जीवन की वास्तविकता के आधार पर करते हैं इस दृष्टि से वे पाठ्यक्रम में दैनिक कार्यों, व्यवसायों तथा ऐसे विषयों को स्थान देते हैं जिनसे व्यक्ति अपने भावी जीवन से लाभ उठा सकें।

यहाँ पर वैज्ञानिकों तथा आदर्शवादियों के मत में पर्याप्त भिन्नता दिखलायी पड़ती है। आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य के नैतिक विकास में विज्ञान की शिक्षा इतनी उपयोगी नहीं है जितनी साहित्य और इतिहास की। आदर्शवादियों के अनुसार विज्ञान मनुष्य को शक्ति तो प्रदान करता है परन्तु उसे शक्ति का ठीक-ठाक उपयोग करना नहीं सिखाता। दूसरे शब्दों में विज्ञान से मनुष्य को हृदय की शिक्षा नहीं मिलती। यह कार्य साहित्य और इतिहास की शिक्षा से सम्पन्न होता है। पर यदि हम हरबार्ट महोदय के मतानुकूल पाठ्यक्रम के विषयों का संकलन करें तो वैज्ञानिक और आदर्शवादियों की मत-भिन्नता भी कुछ सीमा तक समाप्त हो जाती है हरबार्ट महोदय के कथनानुसार पाठ्यक्रम में साहित्य, इतिहास, कविता, संगीत और कला को प्रमुख और भूगोल, गणित, विज्ञान आदि विषयों को गौण स्थान देना चाहिये । पाठ्यक्रम के इस प्रकार के संगठन से वैज्ञानिक विषयों की अवहेलना नहीं होगी।


(5) ऐतिहासिक आधार

प्रत्येक समाज के आधारभूत मूल्य, विश्वास तथा परम्परायें होती हैं और इन सब में समय तथा काल के अनुसार परिवर्तन होता रहता है परन्तु कुछ में हमें इतना दृढ़ विश्वास हो जाता है कि हम उन्हें नहीं छोड़ते और ये ही हमारी शिक्षा के पाठ्यक्रम को प्रभावित करते हैं। पाठ्यक्रम में हम उन सभी विश्वासों एवं मूल्यों को अवश्य स्थान देते हैं जिन्हें हम आने वाली पीढ़ी को सौंपना चाहते हैं। यही पाठ्यक्रम के ऐतिहासिक आधार का अर्थ है।

शिक्षा के इतिहास का अवलोकन करने पर यह विदित होता है कि जैसे-जैसे राजनैतिक परिवर्तन होते रहे वैसे-वैसे शिक्षा में भी परिवर्तन हुआ है। महाभारत काल में द्रोणाचार्य ने पाण्डवों तथा कौरवों को युद्ध विधाओं की शिक्षा दी क्योंकि उस समय युद्ध को समाज अधिक महत्त्व देता था भक्तिकालीन युग में आध्यात्मिक शिक्षा वेदों, उपनिषदों तथा धर्म की शिक्षा को महत्त्व दिया जाता था। इस प्रकार चाणक्य तथा चन्द्रगुप्त काल में राजनीति की शिक्षा को अधिक प्राथमिकता दी गई । ब्रिटिश काल में अंग्रेजों को ऑफिस कार्य के लिए बाबुओं की आवश्यकता थी इसलिये उन्हें पाठ्यक्रम का रूप ऐसा दिया कि वह शिक्षा के द्वारा बाबू तैयार कर सकें। स्वतन्त्रता के बाद से बालक के सम्पूर्ण विकास को महत्त्व दिया जाने लगा है क्योंकि प्रजातान्त्रिक प्रणाली को अपनाया गया है।

पाठ्यक्रम का विषयों में विभाजन

पाठ्यक्रम के विषयों को चुन लेने के पश्चात् प्रश्न यह उठता है कि उनमें परस्पर क्या सम्बन्ध हो ? वे एक दूसरे से नितांत पृथक रखे जायें अथवा जंजीर की कड़ियों की भाँति एक दूसरे से गुंथे रहें । इस प्रसंग में लगभग सभी शिक्षा-शास्त्रियों का मत है कि जिस प्रकार समाज में प्रत्येक मनुष्य एक दूसरे के सहारे पर टिका हुआ है उसी प्रकार शिक्षा में प्रत्येक विषय ज्ञान की इकाई से जुड़ा हुआ है। अतएव वे सभी परस्पर जोड़कर पढ़ाये जाने चाहिए, तभी बालक ज्ञान के समग्र रूप से परिचित होगा और समाज में सफलतापूर्वक रहने के लिए तैयार हो सकेगा। उनका कहना है कि ज्ञान एक इकाई है, उसे खण्डों में नहीं बाँटा जा सकता। अतः पाठ्यक्रम के विभिन्न विषयों के बीच समन्वय स्थापित करना आवश्यक है। समन्वय के अभाव में शिक्षा में समन्वित उद्देश्य की पूर्ति कठिन हो जायेगी और जिसे निष्क्रियता, औपचारिकता एवं शब्दाडम्बरता को हम शिक्षा से दूर करना चाहते हैं वही महत्त्व के पद पर आसीन हो जावेगी। नन और ड्यूवी ने हमें इस भूल से बचने का आदेश दिया है। उन्होंने शिक्षा की प्राथमिक अवस्था में समन्वय को सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण तथा आवश्यक बतलाया है। अत: विषयों के स्थान पर आज क्रियाओं की स्थापना की गई है। ‘नन और ड्यूवी’ ने पाठ्यक्रम के विभिन्न ने विषयों के एकीकरण का मुख्य साधन बालक बतलाया है। उनका कहना है कि जब तक बालक शिक्षा की समस्त कार्यवाहियों का केन्द्र बिन्दु है तब तक पृथक्-पृथक्प्रवृत्तियों को पनपने का अवसर नहीं मिलेगा।

उपर्युक्त विवरण से यह अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि नियमित शिक्षा बिल्कुल व्यर्थ है और पाठ्यक्रम का विभाजन अप्रासंगिक तथा आवश्यक है। यद्यपि सभी शिक्षा शास्त्री इस बात से सहमत हैं कि शिक्षा की प्रारम्भिक अवस्थाओं में नियमित शिक्षा को गौण और बालक की सोद्देश्य क्रियाओं को प्रमुख स्थान मिलना चाहिये तथापि वे नियमित शिक्षा का विरोध नहीं करते। उनके कथनानुसार यदि बालक को नियमित आदेशों की आवश्यकता होती है तो उसे नियमित आदेशों की आवश्यकता होती है तो उसे नियमित आदेश मिलने चाहिये । यही बात पाठ्यक्रम के विभाजन के सम्बन्ध में भी सही है। स्कूल का कर्तव्य है कि वह बालक को समस्त मानव जाति के अनुभवों के सार से परिचित करे और उसे ऐसा ज्ञान दे जो उसके भावी जीवन में काम आ सके। इस कार्य के लिये शिक्षक को मानव अनुभवों के विश्लेषण और खण्ड-खण्ड करने की आवश्कयता पड़ती है क्योंकि तभी वह यह निश्चित कर सकता है कि अनुभव के अमुक भाग को स्कूल में लाभपूर्वक क्रियान्वित किया जा सकता है। इसी प्रकार हमें पाठ्यक्रम को स्वतन्त्र क्रियाओं में विभक्त करना पड़ता है परन्तु क्रियायें सोद्देश्य होनी चाहिये जिससे बालक यह अनुभव कर सके कि उसे अपने ज्ञान तथा कौशल का विस्तार करना आवश्यक है अन्यथा जीवन की समस्याओं के हल की सम्भावना कम हो जायेगी। दूसरे शब्दों में यदि विद्यार्थी को अपने अध्ययन का तत्कालीन लाभ एवं प्रयोजन न दिखलाई पड़ेगा तो बहुत कुछ सम्भव है कि वह उसी तैयारी को निरर्थक, निष्प्रयोजक एवं लाभशून्य समझे। अतएव पाठशालीय क्रियाओं का तत्कालीन प्रयोजन अनुभव कराना, एक सफल पाठ्यक्रम एवं शिक्षक का प्रथम कर्त्तव्य है।

नन द्वारा प्रस्तावित पाठ्यक्रम के आदर्श को अनेक शिक्षा-शास्त्री कल्पना का आदर्श मानते हैं। उनके कथनानुसार नन के पाठ्यक्रम के लक्ष्य सुन्दर और आदर्श तो अवश्य हैं परन्तु वास्तविक जगत में उसकी प्राप्ति असम्भव है। पाठ्यक्रम के इस आदर्श उद्देश्य-मानव की सर्वोत्कृष्ट निष्पत्तियों के साक्षात्कार को साधारण योग्यता का बालक प्राप्त नहीं कर सकता। रॉस महोदय का कथन है कि उक्त साक्षात्कार पूर्णरूपेण भले ही सम्भव न हो परन्तु आंशिक रूप से शिक्षा की विभिन्न अवस्थाओं में यह अवश्य सम्भव हो सकता है। प्रा. ए.एन. व्हाइटहैड ने शिक्षा जीवन की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है। ये तीन अवस्थायें इस प्रकार हैं-

(1) कौतूहल, (2) यथार्थता, (3) सामान्यीकरण ।

प्रत्येक विद्यार्थी के शिक्षा-जीवन की पहली अवस्था होती है जिसमें बालक के मानस में वस्तु जगत के सामग्री-वैचित्र्य के कारण तथा उसके विचार और अनुभवों के कारण कौतूहल सा होता है। इसी कौतूहलपूर्ण वातावरण में वह सब कुछ सीखता है। कौतूहल की अवस्था समाप्त होने पर यथार्थता की अवस्था आरम्भ होती है जिसमें बालक ठीक-ठीक नियम निर्धारण तथा तथ्य-संकलन करने के लिए प्रेरित होता है। इससे वह अपने ज्ञान व कौशल को बढ़ाता है। किशोरावस्था उसके शिक्षा-जीवन की तीसरी अवस्था है। इस अवस्था में उसके मन में सामान्यीकरण की उत्कंठा जागृत होती है। इस अवस्था में विद्यार्थी विस्तृत दृष्टिकोण अपनाने तथा गूढ़ सिद्धान्तों को समझने का प्रयत्न करता है। ‘व्हाइटहैड’ महोदय के अनुसार पाठ्यक्रम में उक्त तीनों अवस्थाओं का समावेश होना चाहिये। दूसरे शब्दों में पाठ्य-विषयों का रूप तथा उनकी सीमा उक्त अवस्थाओं के अनुसार ही निर्धारित होनी चाहिये। नन महोदय ने भी शिक्षण-प्रक्रिया के तीन सोपान माने हैं। उन्होंने इन सोपानों को ‘जिज्ञासा’, ‘उपयोगिता’ और ‘व्यवस्था’ की संज्ञा से विभूषित किया है। प्रत्येक विषय के शिक्षण में इन तीनों सोपानों का अनुकरण आवश्यक है क्योंकि ये तीनों बाल-विकास के सोपान हैं। उदाहरणार्थ इतिहास का शिक्षण दन्तकथाओं तथा कहानियों से होना चाहिये । कालान्तर में इनकी जगह पर बालक की ऐतिहासिक घटनाओं का ठीक-ठीक पता लगाने की प्रवृत्ति स्थान पावेगी। तत्पश्चात् घटनाओं का संकलन होगा और सुस्पष्ट ऐतिहासिक तथ्यों को उपलब्ध किया जायेगा जिससे वर्तमान को समझने में सहायता मिलेगी। इतिहास शिक्षण का आदर्श तभी पूर्ण हो सकेगा जबकि हम मानव के कार्यों की विभिन्न धाराओं को समझ सकें और आज की उलझन भरी दुनिया को सही दृष्टिकोण से देख सकें । उक्त स्पष्टीकरण से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि सुविधा की दृष्टि से पाठ्यक्रम का विषयों एवं क्रियाओं में विभाजन उचित है परन्तु इन सबका एक प्रयोजन होना चाहिये । संयोजन ही पाठ्यक्रम में एकरूपता स्थापित करेगा।

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