पाठ्यक्रम का विकास, क्रियान्वयन तथा समृद्धिशीलता के बारे में लिखो।

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  पाठ्यक्रम के अन्तर्गत वे सभी लक्ष्य, उद्देश्य, अन्तर्वस्तु, प्रक्रियाएं, संसाधन एवं सभी तरह के सीखने के अनुभवों के मूल्यांकन के साधन शामिल होते हैं जो कक्षा-कक्ष अनुदेशन एवं तत्सम्बन्धित अन्य क्रियाकलापों के माध्यम से विद्यालय तथा समुदाय के भीतर एवं बाहर विद्यार्थियों के लिए आयोजित किये जाते हैं। वर्तमान समय में शिक्षा एक व्यापक रूप धारण कर चुकी है जिसके कारण इसकी सीमाएं निश्चित कर पाना कठिन हो गया है। विद्यालय में आयोजित होने वाली सभी प्रवृत्तियाँ पाठ्यक्रम का ही अंग होती हैं। पाठ्यक्रम का विकास विभिन्न शैक्षिक अनुभवों एवं परिस्थितियों के आधार पर किया जाता है। पाठ्यक्रम के विकास तथा क्रियान्वयन पर कई तत्त्वों का प्रभाव पड़ता है । पाठ्यक्रम का विस्तार आज समय की माँग है। विज्ञान एवं तकनीकी के विकास के कारण पाठ्यक्रम का विकास भी बढ़ा है एवं पाठ्यक्रम को अधिक समृद्धिशील बनाने के प्रयत्न किये जा रहे हैं जिससे पाठ्यक्रम छात्रों हेतु ज्यादा उपयोगी हो सके एवं शिक्षा के स्तर को बनाये रख सके। आज नवीन प्रवृत्तियाँ पाठ्यक्रम का एक हिस्सा बन गयी हैं। नवीन शिक्षण विधियों द्वारा बाल-केन्द्रित शिक्षा पर बल देने से प्रयोगशालाएं, कार्यशालाएं तथा पुस्तकालय शैक्षिक प्रवृत्तियों के कार्यस्थल बन गये हैं। इसलिए पाठ्यक्रम को ज्यादा सुसम्बद्ध बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

पाठ्यक्रम विकास एवं क्रियान्वयन की संरचना

स्थानीय स्तर पर पाठ्यक्रम विकास तथा क्रियान्वयन एवं निर्माण के एक ढाँचे को दिखाया जा रहा है जिसके प्रमुख चार अंग हैं-

1. व्यवस्था की दिशा

2. व्यवस्था की आवश्यकताएं

3. व्यवस्था का क्रियान्वयन

4. व्यवस्था को वैधता प्रदान करना

1. व्यवस्था की दिशा- व्यवस्था की दिशा यह सुनिश्चित करती है कि क्या नागरिक छात्र एवं व्यावसायिक स्टाफ के व्यक्ति यह अनुभव करते हैं कि जिस कार्यक्रम को वे आगे बढ़ाने जा रहे हैं वह सम्पूर्ण समूह की रुचियों, आवश्यकताओं एवं वर्तमान तथा भविष्य के मूल्यों पर आधारित है। तीन सलाहकार समितियाँ (विद्यार्थी सलाहकार समिति, नागरिक सलाहकार समिति, स्टाफ सलाहकार समिति) आपस में विषयों को आदान-प्रदान करके जब किसी बिन्दु पर सहमत होते हैं तब उसे शिक्षा परिषद् के सम्मुख प्रस्तुत करके शिक्षा के उद्देश्यों में शामिल कर लिया जाता है। ये तीनों समितियाँ तीन विभिन्न समुदायों का प्रतिनिधित्व करती हैं जो पाठ्यक्रम विकास कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त है । इसे चित्र संख्या 1 में दर्शाया गया है-

2. व्यवस्था की आवश्यकताएं- व्यवस्था की आवश्यकता से तात्पर्य इन बातों से है कि पाठ्यक्रम में क्या कुछ शामिल किया जाये, इसमें विभिन्न तत्त्वों को क्यों चुना गया है एवं उन्हें शिक्षार्थियों को कब पेश किया जायेगा। छात्रों की संख्या एवं विद्यालयों से अपेक्षित उद्देश्यों के आधार पर हर अन्तर्वस्तु क्षेत्र के लिए, निर्देशन तथा परामर्श हेतु एवं पाठ्येत्तर क्रियाओं हेतु व्यापक कार्यक्रम के उद्देश्य निश्चित किये जाते हैं। यह एक प्रकार से विद्यालय के प्रत्येक श्रेणी स्तर हेतु उद्देश्यों का विशिष्टीकरण होता है। चित्र संख्या 1 के दूसरे भाग में PI, Pa, Pi, P. शैक्षिक क्षेत्रों के आकार तथा क्रियाओं के विस्तार के आधार पर अलग-अलग कार्यक्रमों को प्रदर्शित करते हैं। निर्णय प्रक्रिया के अन्य जरूरी अदा तत्त्व हैं-अधिगम सिद्धान्त की प्रक्रिया, विषयों के लिए न्यूनतम योग्यताओं का निर्धारण, वैज्ञानिक अवबोध, क्रियान्वयन के लिए आवश्यक स्टाफ प्रतिमान, अन्तर्वस्तु का चयन तथा उसको प्रदान करने की प्रक्रिया, पाठ्यक्रम की वैधता के निर्धारण और उनकी समस्याओं से सम्बन्धित अनुसन्धान कार्य आदि । निर्णय प्रक्रिया इसका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है एवं यह शिक्षकों, प्रधानाध्यापकों तथा केन्द्रीय स्टाफ के एक वृहद् कार्यदल द्वारा पैदा किया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम विकास के प्रारूप को तैयार करने का दायित्व शैक्षिक क्षेत्र के पाठ्यक्रम परिषद् का होता है ।

निर्णय को आधार प्रदान करने वाले मुख्य तत्त्व अग्रांकित हैं-

(1) सम्भावित तथा उपलब्ध सुविधाएं और उपकरण ।

(2) विद्यालय के शैक्षिक सत्र की अवधि तथा कार्यदिवसों की संख्या, विविध विषयों के लिए उपलब्ध तथा जरूरी समय।

(3) अनुदेशन की व्यवस्था।

(4) उपलब्ध स्टाफ का सदुपयोग, उनकी क्षमताएं एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन हेतु आवश्यक क्षमताएं।

(5) सेवारत प्रशिक्षण की आवश्यकता तथा प्रावधान ।

 (6) आर्थिक आवश्यकता तथा प्रावधान

चित्र संख्या 1. द्वितीय भाग-व्यवस्था की आवश्यकताएं

सन्दर्भ- Lee C. Deighton’s Encyclopedia of Education

नागरिकों तथा शिक्षा परिषद् को मिलकर लागत उत्पादन प्रभावशीलता के अन्य विकल्पों पर भी विचार किया जा सकता है। इसके बाद पाठ्यक्रम का ऊर्ध्वाधर तथा क्षैतिज प्रारूप शिक्षा परिषद् के सामने स्वीकार करने के लिए किया जा सकता है। क्योंकि सम्पूर्ण पाठ्यक्रम एक बार में परिवर्तित नहीं किया जा सकता है। इसलिए सम्भावित परिवर्तनों की जरूरतों तथा उसके लिए संसाधनों (श्रम, समय तथा धन) की प्राथमिकताओं का निर्धारण भी निश्चित रूप से होना चाहिए । इन परिवर्तनों हेतु आवश्यक सेवारत-प्रशिक्षण कार्यक्रम को भी निर्धारित किया जा सकता है।

3. व्यवस्था क्रियान्वयन- व्यवस्था क्रियान्वयन में इस बात का चित्रण तथा वर्णन किया जाता है कि शिक्षार्थी को पाठ्यक्रम कैसे अर्थात् किस रूप में पेश किया जाये। कार्य उद्देश्य जो कि कार्यक्रम उद्देश्यों के ही परिष्कृत रूप होते हैं एवं अपेक्षित उपलब्धियों का विशिष्टीकरण करते हैं, छात्रों तथा विद्यालय समुदाय की विशेषताओं के अनुकूल होने चाहिए। उद्देश्य शिक्षार्थियों की पारिवारिक तथा पारिस्थितिकीय स्थितियों की दृष्टि से भी उपयुक्त होने चाहिए । प्रत्येक शिक्षक से कार्य-उद्देश्यों को लिख सकने को सोचना यथार्थ से परे है। इसलिए पाठ्यक्रम हेतु उत्तरदायी प्रशासकों के मार्ग-निर्देशन में शिक्षकों तथा प्रधानाध्यापकों की एक समन्वय समिति को यह उत्तरदायित्व सौंपा जाना चाहिए। अन्य शिक्षकों तथा प्रधानाध्यापकों की एक समन्वय समिति को यह उत्तरदायित्व सौंपा जाना चाहिए । अन्य शिक्षकों तथा प्रधानाध्यापकों की एक समन्वय समिति को यह उत्तरदायित्व सौंपा जाना चाहिए। अन्य शिक्षकों एवं प्रधानाध्यापकों से पृष्ठ-पोषण प्राप्त करने की विधियों का भी विकास किया जाना चाहिए। अन्य जरूरी अदा तत्त्वों में अधिगम सिद्धान्त वे परिस्थितियाँ जिनमें कार्य सम्पन्न होता है तथा कार्य उपलब्धि के स्तर को जानने के मापदण्ड शामिल होते हैं।

कार्य-उद्देश्यों के निर्धारण के बाद उन्हें प्राप्त करने हेतु शिक्षण व्यूह रचनाओं का विकास किया जाता है । इसके अन्तर्गत अन्तर्वस्तु, सन्दर्भ सामग्री,प्रयुक्त की जाने वाली प्रक्रियाओं एवं अधिगम क्रियाओं के बारे में निर्णय लेना होता है । व्यवस्था को क्रियान्वित करने हेतु अन्तिम समीक्षा एवं स्वीकृति पाठ्यक्रम समिति द्वारा होनी चाहिए। व्यवस्था क्रियान्वयन को चित्र संख्या 1 के तृतीय भाग में दर्शाया गया है।

4. व्यवस्था को वैधता प्रदान करना- व्यवस्था की वैधता जवाबदेही को दर्शाती है। क्या छात्रों को शैक्षिक उद्देश्यों (कार्यक्रम तथा कार्य-उद्देश्यों के रूप में निर्धारित) की प्राप्ति हो गई है ? अगर नहीं तो क्यों? क्या कार्य-उपलब्धि उद्देश्यों के निर्माण में कोई गम्भीर त्रुटि रह गई है? क्या अतिरिक्त प्रशिक्षण की जरूरत है ? क्या कार्यक्रम उद्देश्यों को परिवर्तित करने की जरूरत है? क्या स्टाफ सुविधाओं तथा उपकरणों के उपयोग में परिवर्तन की जरूरत है? जो भी हो, जरूरी सुधार के लिए उन्हें पुनः पृष्ठपोषित किया जा सकता है । पाठ्यक्रम प्रतिमान की सफलता का मूल्यांकन प्रामाणिक परीक्षणों तथा शिक्षक निर्मित परीक्षणों के द्वारा विद्यालय एवं दूसरे विद्यालयों में किया जा सकता है । व्यवस्था की वैधता के निर्धारण को चित्र संख्या 1 के चतुर्थ तथा अन्तिम भाग में दर्शाया गया है।

सन्दर्भ- Lee C. Deighton’s Encyclopedia of Education

भारत में पाठ्यक्रम का संगठन तथा विकास

वर्तमान समय में भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 के अन्तर्गत प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा का राष्ट्रीय पाठ्यक्रम (1988) प्रस्तावित किया गया है। इस पाठ्यक्रम की मुख्य विशेषताएं अग्र तरह हैं-

(1) समान सामान्य पाठ्यक्रम ।

(2) न्यूनतम अधिगम स्तर की सुनिश्चितता।

(3) सांस्कृतिक विरासत तथा तकनीकी प्रगति में सन्तुलन ।

(4) मूल्य शिक्षा।

(5) राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1968 की भाषा नीति को जारी रखना।

(6) शैक्षिक तकनीकी तथा संचार माध्यमों का सभी को लाभ ।

(7) ‘कार्य अनुभव’ अधिगम प्रक्रिया का जरूरी अंग।

(8) पर्यावरण शिक्षा।

(9) विज्ञान तथा गणित की अनिवार्य सामान्य शिक्षा ।

(10) शारीरिक शिक्षा तथा खेल को महत्त्वपूर्ण स्थान ।

(11) अन्तर्राष्ट्रीय सद्भाव की शिक्षा।

(12) पूर्व प्राथमिक शिक्षा पर बल ।

(13) प्राथमिक शिक्षा में बाल-केन्द्रित उपागम ।

(14) माध्यमिक शिक्षा स्तर पर व्यावसायिक शिक्षा का प्रावधान ।


अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पाठ्यक्रम विकास

विज्ञान तथा तकनीकी की प्रगति एवं उत्कृष्ट संचार सुविधाओं ने विश्व के देशों में समय तथा दूरी की सीमा को समाप्त कर द्यिा है एवं अन्तर्राष्ट्रीयता के युग का प्रारम्भ हुआ है। इससे विविध क्षेत्रों में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग की भावना का विकास हुआ है। अन्य सभी क्षेत्रों के समान ही पाठ्यक्रम विकास के क्षेत्र में भी अन्तर्राष्ट्रीयता का समावेश हुआ है । यूनेस्को एवं अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा ब्यूरो विभिन्न राष्ट्रीय संगठनों की सहायता से इस दिशा में सक्रिय भी हैं। पाठ्यक्रम विकास के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का प्रथम प्रयास 1967 में ऑक्सफोर्ड में आयोजित तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन प्रकाश में आया । इस सम्मेलन में डॉ. डब्ल्यू. जी. कार द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय तथा क्षेत्रीय पाठ्यक्रम सम्मेलनों के आयोजन हेतु ‘International Centre for the Study of Instruction’ स्थापित करने का प्रस्ताव तथा रूपरेखा पेश की गई। इसकी सफलता के लिए उन्होंने दो बातों की जरूरत पर बल दिया-

(1) अपने क्षेत्र में पर्याप्त स्वतन्त्रता।

(2) प्रभावी प्रशासन हेतु समुचित समन्वय सेवाएं

डॉ. कार ने कहा कि इनके लिए पर्याप्त कौशल अनुभव तथा सद्भाव की जरूरत होगी। इसलिए इसमें थोड़ी संख्या में किन्तु अत्यधिक सुयोग्य कर्मचारी होने चाहिए जो एक ‘शासी परिषद्’ के प्रति उत्तरदायी हो । ‘शासी परिषद्’ का गठन अग्र तरह किया जाए-

(1) गणित, मानवीय विषय, कलाएं, सामाजिक अध्ययन, विज्ञान अनुशासनों के विद्वान् ।

(2) शिक्षा प्रणालियों का संचालन करने वाली एवं उनका वित्तीय भार वहन करने वाली सरकारों के प्रतिनिधि । (3) शिक्षक संगठनों के प्रतिनिधि ।

(4) पाठ्यक्रम तथा अध्यापन क्षेत्र के विद्वान ।

परिषद के सदस्यों के चयन के बारे में डॉ. कार के मतानुसार सरकारी प्रतिनिधि यूनेस्को के सहयोग से चयनित किये जा सकते हैं एवं शिक्षकों के प्रतिनिधि विश्व शिक्षक संघ के सहयोग से । विभिन्न अनुशासनों के विद्वान उपयुक्त अन्तर्राष्ट्रीय संगठनों के सहयोग से चयनित किये जा सकते हैं। डॉ. कार के अनुसार चतुर्थ वर्ग के सदस्यों अर्थात् पाठ्यक्रम तथा अध्यापन क्षेत्र के विद्वानों की संख्या लगभग कुल सदस्यों की दो-तिहाई होनी चाहिए। इस तरह इसमें विभिन्न राष्ट्रों, जातियों, सांस्कृतिक मूल के प्रतिनिधि होंगे।

‘इन्टरनेशनल सेण्टर फॉर द स्टडी कन्स्ट्रक्शन’ एवं ‘शासी परिषद् ‘ का मुख्य दायित्व वर्तमान पाठ्यक्रम की बजाय भविष्य के पाठ्यक्रम पर विचार करना होगी। डॉ. कार की दृष्टि में इसे अपने समय, शक्ति तथा साधनों का कम-से-कम एक-तिहाई भाग आगामी पाँच अथवा दस वर्षों के लिए विचार करने में लगाना चाहिए ।

तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय पाठ्यक्रम सम्मेलन में ही नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन (अमेरिका) के निदेशक डॉ. ओलसेन्ड ने पाठ्यक्रम विकास की प्रवृत्तियों की चर्चा करते हुए विचार व्यक्त किया है कि वर्तमान शताब्दी के तीसरे दशक में जब प्रगतिशील शिक्षा का बोलबाला था, तब पाठ्यक्रम मुख्य रूप से बाल-केन्द्रित था। चौथे दशक में जब हम द्वितीय विश्वयुद्ध में उलझे हुए थे तब वह समाज-केन्द्रित था। पाँचवें तथा छठे दशक में विद्वानों का वर्चस्व हो जाने के कारण पाठ्यक्रम अनुशासन केन्द्रित रहा । डॉ. सेन्ड ने आशा व्यक्त की थी कि सत्तर के दशक में ‘सम्पूर्ण पाठ्यक्रम पर बल रहेगा जो सभी बालकों के लिए होगा एवं सभी पक्षों को समाहित करेगा तथा अस्सी के दशक तक वास्तविक अर्थ में पाठ्यक्रम विकसित हो जायेगा। डॉ. सेन्ड का अनुमान तकरीबन ठीक ही रहा । उन्होंने पाठ्यक्रम में सम्भावित परिवर्तनों को भी सूचीबद्ध किया है। हालांकि यह सूची संयुक्त राज्य अमेरिका में पाठ्यक्रम विकास की स्थितियों तथा प्रवृत्तियों को ध्यान में रखकर बनाई गई है, फिर भी यह विश्वव्यापी प्रवृत्तियों का पर्याप्त अंशों में संकेत देती है। डॉ. सेन्ड द्वारा प्रस्तुत की गई सूची अग्र तरह की है-

पाठ्यक्रम की वर्तमान तथा सम्भावित प्रवृत्तियाँ

वर्तमान तक की स्थिति एवं प्रवृत्तिसम्भावित प्रवृत्ति
1. अकादमिक विद्वता पर मुख्य बल।1. अकादमिक के साथ शैक्षणिक विद्वता पर भी बल।
2. सिर्फ अकादमिक विद्वानों तथा शिक्षकों का सम्भागित्व ।2. शिक्षकों के सम्भागित्व पर विशेष बल के साथ-साथ जन-सामान्य एवं विद्वानों एवं विद्यालय के सभी स्तरों के निर्णय कार्य से सम्बन्धित व्यक्तियों के सम्भागित्व पर भी बल ।
3. बाल-केन्द्रित समाज-केन्द्रित या अनुशासन-केन्द्रित पाठ्यक्रम ।3. सम्पूर्ण पाठ्यक्रम, मानवीय पाठ्यक्रम ।
4. पूर्व निर्मित कार्यक्रमों का क्रियान्वयन ।4. वास्तविक रूप में प्रयोगात्मक कार्यक्रम, अनुभवजनित शैक्षिक विकल्प।
5. शिक्षा के साधनों के उन्नयन पर दृष्टि ।5. लक्ष्यों तथा उद्देश्यों पर केन्द्रीय दृष्टि, दार्शनिकों की प्रमुख पात्र के रूप में वापसी ।
6. सब कुछ पढ़ाने का प्रयत्न ।6. प्राथमिकताओं का निर्धारण ।
7. टुकड़ों में शिक्षण, एक बार में एक पाठ्यक्रम ।7. पूर्व प्राथमिक (नर्सरी) से महाविद्यालयों तक व्यापक विद्यालयी कार्यक्रम ।
8. प्राथमिक तथा माध्यमिक स्तरीय सुधार।8. प्राथमिक तथा माध्यमिक के साथ-साथ उच्च शिक्षा स्तर पर भी सुधार।
9. शिक्षकों का सेवारत प्रशिक्षण ।9. शिक्षकों की सेवारत शिक्षा ।
10. कक्षा में वर्ग शिक्षण।10. व्यक्तिगत शिक्षण ।
11. स्मरण शक्ति अर्थात् रटने पर बल ।11. खोज प्रवृत्ति का विकास।
12. संज्ञान शून्य अर्थात् सामान्य वातावरण ।12. अधिगम हेतु प्रेरक वातावरण ।
13. क्रमिक कक्षाबद्ध विद्यालय ।13. कक्षारहित अविभाजित विद्यालय।
14. समय सारणी तथा कालांशबद्ध कक्षाएं ।14. सम्पर्क द्वारा स्वतन्त्र अधिगम ।
15. पाठ्य-पुस्तकों, विद्यालय भवन तथा दैनन्दिन समय विभाग चक्र से बँध हुआ शिक्षक।15. शिक्षक, माध्यम तथा मशीन (शैक्षिक उपकरण) तीनों का सहयोग ।

पाठ्यक्रम की समृद्धिशीलता

सामान्य तौर पर कक्षा-शिक्षण करते हुए शिक्षक निर्धारित पाठ्यक्रम पर आधारित पाठ्य-पुस्तकों के अध्ययन-अध्यापन तक ही सीमित रहता है लेकिन प्राप्त ज्ञान एवं अनुभव को प्रभावी तथा अद्यतन बनाने के लिए छात्रों को उसमें वृद्धि करके उसे और ज्यादा समृद्ध बनाना होता है । इसके लिए पाठ्यक्रम में भी नवीन ज्ञानात्मक एवं अद्यतन सामग्री को जोड़ना चाहिए। पुस्तकालयों, वाचनालयों में सहायक पुस्तकों, नवीन शोधों के परिणाम, विषयों उपयोगी प्रकरणों तथा समाचार-पत्रों आदि से एकत्रित सामग्री की मदद से पाठ्यक्रम को समृद्धिशील बनाया जा सकता है। ज्ञानात्मक समृद्ध-सामग्री का उपयोग करने से मुख्य लाभ अग्र तरह हैं-

(1) पाठ्य-पुस्तकें अतीत की घटनाओं, अनुभवों तथा तथ्यों तक ही सीमित होती हैं। उनसे तात्कालिक घटनाओं एवं समस्याओं का ज्ञान नहीं हो पाता है। अगर पाठ्यक्रम में तात्कालिक घटनाओं का वर्णन हो तो सहायक पुस्तकों की जरूरत कम होगी।

(2) समृद्धिशील पाठ्यक्रम उपयोगिता तथा आज की ज्वलन्त समस्याओं पर आधारित होता है। इसलिए इससे ज्ञान के ज्ञान की वृद्धि होती है।

(3) समृद्धिशील पाठ्यक्रम विषय के प्रति छात्र की रुचि बढ़ाता है।

(4) समृद्धिशील पाठ्यक्रम होने पर विविध मददगार पुस्तकों में दिये गये तथ्यों की जाँच भी हो सकती है।

(5) शिक्षा के स्तर को समृद्धिशील पाठ्यक्रम के द्वारा ऊंचा उठाया जा सकता है।

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