विशेष आवश्यकताओं वाले बालकों की शिक्षा तथा इसके प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन कीजिए।

Estimated reading: 1 minute 62 views

प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण से आशय विश्व के सभी देशों में प्राथमिक शिक्षा के (कक्षा 1 से कक्षा 8 तक की शिक्षा) के लक्ष्य को प्राप्त करना है । यह कार्यक्रम ‘सभी के लिए शिक्षा’ की व्यवस्था से संबंधित है। भारत के संविधान के मूल अनुच्छेद 45 में चौदह वर्ष की आयु के सभी बालकों की निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान रखा गया था जिसके संदर्भ में “निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009″ दिनांक 1– 4– 2010 को देश में प्रभावी किया गया है । इसके अनुसार 7 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बालक को प्रारंभिक शिक्षा (कक्षा 1 से कक्षा 8 तक) पूरी होने तक किसी आसपास के विद्यालय में निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार प्रदत्त है । यह देश में प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकता के लक्ष्य को हासिल करने में किया गया कानूनी प्रतिबंध है । भारत में नवम्बर 2000 से “सर्वशिक्षा अभियान” की योजना केन्द्र शासन द्वारा राज्यों/प्रांतों की सहायता से संचालित है । इसका लक्ष्य भी सभी वर्गों के बालक बालिकाओं को प्राथमिक शिक्षा हेतु नामांकन अर्थात् शाला में प्रवेश दिलाना तथा कक्षा 8 तक की शिक्षा पूर्ण न होने तक उसे शाला में निरंतर बनाए रखना अर्थात् शाला त्यागने (ड्रॉप आउट) से मुक्ति दिलाना और सफलतापूर्वक प्राथमिक शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण हो प्राप्त करना है । बालकों के सभी वर्गों में शिक्षा की यह जागृति उत्पन्न करने से आशय सभी सामान्य बालकों के साथ वंचित वर्ग के बालक बालिकाओं अर्थात् आदिवासी, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक, पिछड़ा वर्ग, बालिकाएं, निःशक्त जन को प्राथमिक शिक्षा का लाभ दिलाता है। विशेष शैक्षिक आवश्यकताओं वाले बालक अर्थात् चलने– फिरने में असमर्थ, श्रवणबाधित, वाणिबाधित, दृष्टिबाधित, अधिगम बाधित, मानसिक रूप से मंद और वंचित वर्ग के बालक– बालिकाएं भी इस अभियान में पूर्णतः सम्मिलित है। बिना इन्हें सम्मिलित करें सर्वशिक्षा अभियान तथा शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य प्राप्त नहीं किया जा सकता।

प्राचीन काल में सामान्य शिक्षा व्यवस्था में सभी प्रकार के बालकों को शिक्षक द्वारा सामूहिक रूप से एक साथ शिक्षण दिया जाता था। शिक्षा के क्षेत्र में मनोविज्ञान के प्रवेश के उपरांत वैयक्तिक विभिन्नता के आधार पर शिक्षण देने की व्यवस्था प्रारंभ हुई। पूर्व में विशेष शैक्षिक आवश्यकता वाले विकलांग, अंध, बधिर, मूक, मंदबुद्धि बालकों को शिक्षा में उपेक्षित व असमर्थ बनता गया। कई लंगड़े– लूले– अंधे बालक शिक्षा के अभाव में जीवन यापन हेतु दूसरों की दया पर निर्भर रहने लगे तथा माँग– माँग कर आजीविका चलाने लगे। सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन आने के कारण इन विशेष आवश्यकता वाले बालकों के लिए पृथक शालाएं स्थापित करने की व्यवस्था प्रारंभ हुई। परिणामतः शिक्षित या व्यावसायिक प्रशिक्षित होने के बाद भी ये बालक सामाजिक व मनोवैज्ञानिक दृष्टि से अलगाव व अकेलेपन का शिकार हो गए। समावेशी शाला की अवधारणा (जिसमें विशेष आवश्यकता वाले बालक अन्य सामान्य बालकों के साथ एक साथ अध्ययन करते हैं) के कारण इन बालकों की मनोसामाजिक व वैयक्तिक आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा की व्यवस्था प्रारंभ हुई। शिक्षा के सार्वभौमिकरण के लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में ऐसे विशेष बालकों को शिक्षा की मुख्य धारा से जोड़ना आवश्यक हो गया।

विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा का प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण पर पड़ने वाला प्रभाव

स्कूली शिक्षा की राष्ट्रीय पाठ्यक्रम संरचना में इस तथ्य पर स्पष्ट जोर दिया गया है कि सभी सीखने वाले बालकों (विशेष आवश्यकता सम्पन्न बालकों सहित) के लिए वैयक्तिक अनुदेशक का अत्यधिक महत्त्व है। यदि विशेष आवश्यकता वाले बालकों को उपेक्षित व अचिन्हित किया गया तो वे शाला से ‘ड्रॉप आउट’ ले लेंगे अथवा विद्यालयों द्वारा स्वयं अमान्य कर दिये जायेंगे। ऐसा होने पर प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकता पर दुष्प्रभाव पड़ेगा।

विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा का प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण पर पड़ने वाला प्रभाव निम्नलिखित तथ्यों से स्पष्ट होता है–

(1) लक्ष्य की प्राप्ति– प्राथमिक शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य ‘सभी के लिए शिक्षा’ है । सभी के लिए शिक्षा से तात्पर्य है कि किसी भी वर्ग के किसी भी बालक (जो पढ़ने योग्य आयु अर्थात् 7 से 14 वर्ष की आयु के मध्य है) को शिक्षा से वंचित न किया जाए। सभी तक समाज में विशेष आवश्यकता वाले अंधे, बधिर, मूक, विकलांग, मंद बुद्धि, वंचित वर्ग के बालक शैक्षिक अवसरों से प्राय: लाभ प्राप्त करने में असमर्थ रहे हैं। इनके लिए विशेष समावेशी शालाओं के न होने से या शालाओं की उनके निवास ग्राम से अधिक दूरी होने पर आवागमन आदि की समस्या के कारण या तो विशेष आवश्यकता वाले बालक शालाओं में नामांकित ही नहीं होते थे अथवा अनेक कारणों से शाला जाना त्याग देते थे। शिक्षा के सार्वभौमिकरण का शत प्रतिशत लक्ष्य बिना विशेष आवश्यकता वाले बच्चों को शिक्षित किये बिना पूर्ण नहीं हो सकता।

समावेशी शालाओं में घर के समीप ही स्थित शालाओं को ही समावेशी बनाया जा सकता है तथा आवागमन में असमर्थ बालकों को दूर नगरों में अध्ययन हेतु जाने की जरूरत नहीं होती । समावेशी विद्यालयों में विशेष आवश्यकता वाले अधिकतम बच्चों को प्रवेश दिलाकर सार्वभौमिक शिक्षा के लक्ष्य को हासिल करने में सहायता प्राप्त की जा सकती है।

(2) संवैधानिक अनिवार्य– नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा के लक्ष्य की प्राप्ति– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 45 से 07 से 14 वर्ष के सभी बालक– बालिकाओं (निःसंदेह उनमें विशेष आवश्यकता वर्ग वाले सभी बालक आते हैं) के लिए निःशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान है तथा इसके लिए कानून/अधिगम भी बनाया जा चुका है। अतः संवैधानिक लक्ष्य की पूर्ति हेतु सभी विशेष आवश्यकता वाले विशेष बालकों को भी शिक्षित करना आवश्यक है। वर्तमान में इनकी शिक्षा के अवसर सामान्य बालकों की अपेक्षा कम है । ऐसे बालकों को शिक्षित कर सबके लिए शिक्षा’ का लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकेगा।

(3) शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति– विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा के उद्देश्य उनकी आवश्यकताओं के आधार पर बनाए गए हैं। ये उद्देश्य हैं–

(i) मंदबुद्धि बालकों सहित सभी श्रेणी की विशेष आवश्यकता वाले बालकों का मानसिक विकास करना ।

(ii) विकलांग बालकों की शारीरिक दुर्बलताओं को तथा अन्य विशेष आवश्यकता वाले बालकों का शारीरिक गतिविधियों, खेलकूदों आदि के माध्यम से शारीरिक विकास करना ।

(iii) ऐसे बालकों का नैतिक विकास करना वे भविष्य के उत्तम नागरिक कहलाए ।

(iv) इन बालकों में जीवनयापन हेतु रोजगार या नौकरी प्राप्त करने अथवा स्वयं का व्यवसाय स्थापित कर रोजी– रोटी कमाने योग्य बनाने हेतु उन्हें विद्यालयों में हस्तशिल्प, कला, संगीत आदिकी उनकी वैयक्तिकं क्षमताओं के अनुसार व्यवसायिक शिक्षा देना।

(v) विशिष्ट आवश्यकता वाले बालक अपनी दुर्बलताओं व कमियों के कारण प्रायः सामाजिक रूप से कटे हए होते हैं। उन्हें लगता है कि वे समाज के दूसरे बालकों जैसे सक्षम नहीं है । समावेशी विद्यालयों में उन्हें अन्य सामान्य बालकों के साथ रहने, खेलने, मिलजुलकर शिक्षा प्राप्त करने के अक्सर प्राप्त होते हैं। इससे इन बालकों का सामाजिक विकास भी होता है। इस प्रकार शिक्षा के द्वारा विशेष आवश्यकता वाले बालकों के सर्वांगीण विकास को पर्ण कर शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।

(4) उत्तम नागरिक बनाना– कोठारी आयोग के अनुसार, “असाधारण बालकों की शिक्षा का गठन सिर्फ मनुष्यता पर आधारित न रहकर उपयोगिता पर आधारित करना होगा। यदि उन्हें समुचित शिक्षा दी जाएगी तो न केवल वे विकलांगता पर विजय प्राप्त करेंगे अधिक समाज के एक उत्तरदायी नागरिक भी बनेंगे।” इस प्रकार सार्वभौमिक प्राथमिक शिक्षा का जो महान लक्ष्य उत्तम नागरिक बनाता है उसे विशेष बालकों को शिक्षा द्वारा भी पूरा किया जा सकता है।

(5) देश का शैक्षिक विकास करना– निरक्षरता तथा अज्ञान को शिक्षा के द्वारा ही दूर किया जा सकता है। अशिक्षित होना देश पर कलंक के समान है। प्राथमिक शिक्षा के संदर्भ में विश्व में पिछड़े देशों में भारत का नाम आता है। भारत में प्राथमिक स्कूलों में शुद्ध भर्ती 76 प्रतिशत आंकी गई है। जबकि कई देशों में 99 प्रतिशत बालक प्राथमिक शाला में भर्ती होते हैं। भारत में निःशक्तजन (अस्थिबाधित, श्रवण बाधित, दृष्टि बाधित, मंदबुद्धि बालक) प्रायः शालाओं में कम भर्ती पाए जाते हैं। यदि इन्हें प्राथमिक स्तर की शिक्षा दी जाएगी तो देश का नाम काली सूची से हट सकेगा।

(6) शिक्षित कर समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित करना – विशिष्ट बालकों की विशेष आवश्यकताओं में शिक्षा का प्रमुख स्थान है । यदि इन बालकों को शिक्षित किया जाए तो इन बालकों की मनोसामाजिक, आर्थिक, व्यावसायिक, पारिवारिक, स्वास्थ्य संबंधी अन्य आवश्यकताएं स्वयं पूर्ण हो सकेंगी तथा वे अन्य बालकों/व्यक्तियों के समान समाज की मुख्य धारा में सम्मिलित हो सकेंगे। दूसरी ओर इन्हें शिक्षित कर शिक्षा के सार्वभौमीकरण के प्रयासों को सफल बनाया जा सकेगा।

(7) दुर्गम तथा पहुँचविहीन क्षेत्रों में विद्यालयों की स्थापना तथा विशेष बालकों का प्रवेश– सड़कों रास्तों का जाल सा बिछ जाने के बावजूद वर्षाकाल में अनेक क्षेत्र पहुँचविहीन हो जाते हैं क्योंकि उनका संपर्क पानी भर जाने से अन्य स्थानों से कट जाता है। यदि पहाड़ों, वनों तथा दुर्गम स्थलों पर प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था अधिक से अधिक शालाओं को खोलकर की जाए तो उससे घर के बाहर दूरस्थ स्थलों पर जाकर नियमित रूप से शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ बालक शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं। शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य भी इन प्रयासों से पूर्ण हो सकेगा।

(8) गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक शिक्षा सुलभ करना– शिक्षा के सार्वभौमिकरण का लक्ष्य गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा भी है । यदि समावेशी विद्यालयों में विशेष बालकों की विशेष आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए वैयक्तिक शिक्षा, शिक्षण विधियों का उपयोग, पाठ्यक्रम की पुनर्रचना, शाला व कक्षा प्रबंधक, शिक्षण में आधुनिक टेक्नोलॉजी का उपयोग, क्रिया प्रधान शिक्षण, सतत समग्र मूल्यांकन, न्यूनतम अधिगम स्तर वाली गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की व्यवस्था होगी तो इससे सार्वभौमिक शिक्षा के स्तर को प्राप्त किया जा सकेगा।

(9) शाला त्यागी तथा अशिक्षित बालकों हेतु अनौंपचारिक शिक्षा– कई विशेष बालक अनेक कारणों से स्कूल जाना बीच में ही छोड़ देते हैं इससे 8वीं तक प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने का लक्ष्य पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसे शाला छोड़ देने वाले बालकों को अनौपचारिक शिक्षा माध्यम से शिक्षित कर स्वाध्यायी छात्र के रूप में परीक्षा की व्यवस्था की जाए तो शिक्षा के दायरे से बाहर जो जाने वाले विशेष बालकों को भी 8वीं तक शिक्षा दिलाई जाकर प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण का लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है। सर्वशिक्षा अभियान के अंतर्गत स्थापित वैकल्पिक शालाओं से विशेष बालक शिक्षा की धारा से पुनः जुड़ जा सकेंगे तथा सभी के लिए शिक्षा का लक्ष्य पाया जा सकेगा।

(10) शत प्रतिशत नामांकन– यदि अपंग, बधिर, मूक, मंदबुद्धि बालकों को उपेक्षित कर दिया जाए तो शत प्रतिशत प्रवेश व नामांकन संभव नहीं हो सकता। ऐसे बालकों को प्रवेश, पुनः प्रवेश दिलाकर तथा उन्हें शाला में बनाए रखकर ही शिक्षा का सार्वभौमिकरण का लक्ष्य हासिल हो सकता है।

(11) व्यावसायिक शिक्षा व प्रशिक्षण– विशेष आवश्यकता वाले बालकों की विशेष आवश्यकताओं की पहचान कर उसके अनुरूप शिक्षा के साथ उन्हें जीवन यापन के अवसर दे सकने वाली व्यावसायिक शिक्षा या शिल्प आदि की शिक्षा भी दी जाये तो ये लाचार विशिष्ट बालक शिक्षा के बाद आजीविका बनाकर अपना व परिवार का पेट पाल सकेंगे। मंदबुद्धि बालकों की समझ में शिक्षक की अनेक बातें समझ में नहीं आती हैं परन्तु हाथ के काम में वे विशेष निष्पादन देते पाए गए हैं। अतः उनके लिए बिजली का काम, कम्प्यूटर ऑपरेशन, फोटोग्राफी, टंकण, डिब्बे बनाने का काम, मोमबत्ती बनाना, सिलाई बुनाई, पाक कला आदि की व्यवसाय परक शिक्षा उपयोगी है । नेत्रहीन बालकों के लिए कुर्सी बुनाई,टोकरी बनाना, लिफाफे बनाना, टेलीफोन ऑपरेटर के काम दिये जा सकते हैं । अपंग बालकों को बढ़ईगिरी,लिपिक का काम, लाइब्रेरियन का काम, घड़ीसाजी, अध्यापक के नाम का व्यावसायिक प्रशिक्षण दिया जा सकता है। 8वीं तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद यदि वे अधिक शिक्षा प्राप्त करने में असमर्थ हुए तो स्वयं का रोजगार भी कर सकते हैं। प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण पर बालकों की रुचि इससे बढ़ेगी।

(12) शैक्षिक सुविधाओं का आकर्षण देना– प्रतिभाशाली बालकों को मेरिट स्कॉलरशिप, वंचित व लाभहीन विशेष बालकों को छात्रवृत्ति, पाठ्यपुस्तकें, गणवेश, मध्याह्न भोजन, साइकिल प्रदाय, छात्रावास, आश्रय सुविधा आदि निःशुल्क देना, अस्थि विकलांग को ट्राइसिकल वैसाखी, श्रवण बाधित को श्रवण यंत्र, नेत्रबाधित को चश्मे, ब्रेल लिपि की पुस्तकें का प्रदाय शैक्षणिक सुविधाओं को बढ़ाने का आकर्षण है जिससे आकर्षित होकर बालक शिक्षा पूर्ण कर सके तथा उन्हें कोई आर्थिक कठिनाई भी न उठानी पड़े। इन सबसे समावेशी शालाओं में उपस्थिति बढ़ती है तथा शाला त्यागने की समस्या कम होती है। शिक्षा के सार्वभौमिकरण की दिशा में यह विशेष बालकों की शिक्षा का पड़ने वाला प्रभाव है।

भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 तथा कार्य योजना 1992 में न केवल प्राथमिक शिक्षा बल्कि पूर्व प्राथमिक शिक्षा– पूर्व बाल्यकाल की देखभाल व शिक्षा (ECCE), आंगनबाड़ी शिक्षा को भी प्रोत्साहन देने की नीति बनाई गई है। अधिगम (सीखने) का न्यूनतम स्तर निर्धारित किया गया है। ऑपरेशन ब्लेकबोर्ड को 8वीं पंचवर्षीय योजना में भी निरंतर रखने की नीति निर्धारित है तथा समानता के लिए शिक्षा की नीति के अंतर्गत शैक्षिक असमानताओं को दूर करने तथा समान अवसरों से वंचित व्यक्तियों सहित निःशक्तजनों को शिक्षा में सहभागी बनाने के प्रयासों को विकसित करने की आवश्यकता बताई है। शारीरिक व मानसिक अपंगता वाले विशेष बालकों की सामान्य बालकों के साथ शिक्षा पर जोर देते हुए विकलांगों के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण की नीति भी आवश्यक बताई है। इस प्रकार विशेष आवश्यकता वाले बालकों की शिक्षा के द्वारा विश्व में चल रहे प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण तथा भारत के सर्वशिक्षा अभियान के द्वारा लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया गया है।

Leave a Comment

CONTENTS