विशिष्ट बालकों के माता– पिता को इन बच्चों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति होना आवश्यक है। इस हेतु माता– पिता को किस प्रकार की शिक्षण विधियाँ ज्ञात होना चाहिए व्याख्या करें।

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विशिष्ट बालकों का जिक्र आते ही सबसे पहले अभिभावकों का जिक्र होता है कि ऐसे अभिभावकों में कौन से अभिभावक होते हैं, इनकी आर्थिक व सामाजिक स्थिति कैसी होती है, जिससे ये इस प्रकार के बच्चों का संतुलित व समन्वित विकास करें।

पिछले कुछ समय को इस बात पर जोर दिया जाता या दिया जा रहा कि बालक के विकास के लिए अध्यापक तथा माता– पिता में सहयोग होना चाहिए। इसका एक प्रमाण है– माता– पिता अध्यापक आन्दोलन । माता– पिता तथा अध्यापक के सहयोग के क्षेत्र बढ़ गय है, अतः अब इस प्रकार की सुविधाएं बढ़ गयी हैं जिससे घर तथा स्कूल आपस में निकट आ सकत है । अब तो यह सहयोग इस सीमा तक बढ़ गया है कि कुछ इस प्रकार के प्रोग्राम में जिनस माता– पिता को शिक्षित किया जाता है।

अमेरिका में इलिनॉयस में बहरे तथा अन्धों के राष्टीय स्कल में गर्मियों में एक– दो सप्ताह का स्कूल माता– पिता को शिक्षित करने के लिए लगता है। इसका उद्देश्य माता– पिता का अपने अक्षम बालक की समस्याओं को समझने में सहायता देता है तथा उन्हें बालकों की शिक्षा में भली– भाँति सहायक बनाना है । मैनिनसोटा राज्य के सामाजिक रक्षा विभाग से 1945 में एक पुस्तक प्रकाशित की गयी जिसमें कम सीखने वाले बालकों को शिक्षित करने के सुझाव माता– पिता को प्रशिक्षित करने की योजना बनी। इसका उद्देश्य माता– पिता को इस प्रकार प्रशिक्षित करना था कि वे अपने बच्चे को इस प्रकार प्रशिक्षित कर सकें कि वह विद्यालय में कम– से– कम समस्याएं उत्पन्न करें। अब इस योजना ने माता– पिता की शिक्षा का विस्तृत रूप ले लिया जाता है अमेरिका में अपाहिज बालकों तथा युवकों की राष्ट्रीय संस्था ने हमेशा से माता– पिता की शिक्षा को अपनी सेवाओं का एक अंतरंग भाग माना है। वह संस्था सुझाव सेवाएं भी करती हैं तथा The Crippled child पुस्तक प्रकाशित करके अपाहिज बालकों के माता– पिता को भेजती है । लॉस एंजिल्स में जॉन ट्रेसी क्लिनिक, जो कि बहरे बालकों के लिए है माता– पिता को तीन माध्यमों से शिक्षित करती है।

(i) एक छोटे, प्रयोगात्मक स्कूल द्वारा जो कि बहरे बालकों तथा उनके माता– पिता के लिए है। यहाँ माता– पिता तथा बालक एक साथ प्रवेश करते हैं। माता– पिता अध्यापक को पढ़ाते हैं या पढ़ाते हुए देखते हैं। उसे खेल के मैदान तथा क्लीनिक में सहायता देते हैं।

(iiii) बहरे बालकों की चाहे किसी भी आयु के हों, कक्षाएं आयोजित करके । इसमें सभ बहरे बालकों के माता– पिता को बुलाया जाता है।

(iiiiii) पत्राचार पाठ्यक्रम द्वारा। यह एक साल का है। इसमें माता– पिता के होठों को पढ़ाना संवेदनाओं को समझना तथा बालकों को बोलने के लिए तैयार करने के क्षेत्र में प्रशिक्षित किया जाता है।

इस सबसे विशिष्ट बालकों के शिक्षण में एक नये दर्शन का आभास होता है। इस दर्शन के अनुसार कोई भी बालक चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य उसके अध्यापकों के चार समूह होते हैं।

(1) घर के अध्यापक,

(2) खेल के अध्यापक,

(3) स्कूल के अध्यापक,

(4) समाज के अध्यापक।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इन चारों प्रकार के अध्यापकों में घर के अध्यापक सबसे प्रमुख हैं। घर के अध्यापक ही इस बात के लिए उत्तरदायी हैं कि बालक अपने बारे में क्या सोचते हैं तथा दूसरों के प्रति क्या विचार रखते हैं । दूसरों के प्रति उनके व्यवहार को भी माता– पिता ही देखते हैं। स्कूल अध्यापकों द्वारा यह अनुभव किया गया है कि वे बालक जो स्कूल आने से पहले अपने माता– पिता द्वारा पढ़ते हैं वे सीखने के लिए अधिक उत्सुक रहते हैं। यही बात विशिष्ट बालकों के साथ भी है। अत: बालकों की शिक्षा के लिए घर के स्कूल के साथ समाज के अध्यापकों में मेल होना चाहिए। इसके लिए उन्हें एक दूसरे को समझना चाहिए तथा शिक्षण के सामान्य उद्देश्य तथा प्रविधियों से परिचित होना चाहिए। अध्यापक तथा स्कूल के अफसर आदि विलक्षण एवं विशिष्ट बालकों के माँ– बाप की सहायता उनके बच्चों को समझने में कर सकते हैं। माता– पिता अपने अक्षम बालकों के प्रति निराश हो जाते हैं। इसका परिणाम अच्छा नहीं होता है । यदि वे अधिक उत्साहित और आशावान होते हैं तभी अपने बालकों की सहायता कर सकते हैं । विशिष्ट बालकों के माता– पिता को अपने बच्चों के सुधार का प्रयत्न आरम्भ से हा करना चाहिए। विशिष्ट बालकों की शिक्षा के लिए कार्य करने वालों को माता– पिता की काठनाई को अवश्य समझना चाहिए तथा उनकी सहायता करनी चाहिए।

बालकों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति जागृत करना

विशिष्ट बालकों के माता– पिता की सबसे बड़ी समस्या इन बालकों को संवेगात्मक रूप से स्वीकार करना है। बच्चे अपने माता– पिता के प्यार में अपने को सुरक्षित पाते हैं अक्षम बालकों के प्रति माता– पिता को दया नहीं दिखानी चाहिए और न ही उन्हें बेइज्जत तथा घृणित रूप से देखना चाहिए। न ही उन्हें ऐसे बालक होने का दुःख प्रकट करना चाहिए। उन्हें बालकों को वास्तव में प्यार करना चाहिए। न केवल ममता देनी चाहिए। बल्कि उनके सुधार के उपाय भी करने चाहिए । बालक को इस बात का आभास देना चाहिए कि वह परिवार का एक प्रिय सदस्य है प्रत्येक व्यक्ति उसको चाहता है। संक्षेप में, माता– पिता को अपने विशिष्ट बालक को संवेगात्मक रूप से स्वीकार करना चाहिए उनके प्रति असन्तोष की भावना नहीं रखनी चाहिए। ऐसी अभिवृत्ति माता– पिता के स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा है। चिकित्सक, मनोवैज्ञानिक, शिक्षा– शास्त्री तथा समाजसेवक को अक्सर उन माता– पिता को शिक्षित करना पड़ता है जो अपने बालकों को स्वीकार नहीं करते हैं। कभी– कभी माता– पिता अपने बालक को मेडीकल तथा. मनोवैज्ञानिक निरीक्षण के लिए ले जाना ठीक नहीं समझते और अपने भाग्य को कोसने लगते हैं । ऐसी स्थिति में उन विभिन्न विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे माता– पिता अपने बालकों को स्वीकार करने लगे।

बालक को स्वीकार करने के लिए मनाने की विधियाँ

अनेक ऐसी विधियाँ हैं जिनके द्वारा माता– पिता को अपने बालक को वस्तुनिष्ठ रूप से स्वीकार करने में सहायता दी जा सकती है, यथा–

1. पहली विधि यह है कि माता– पिता में यह भावना लायी जाये, “प्रत्येक मनुष्य को उसी के साथ रहना पड़ता है जो उसे मिलता है। कोई भी दुनिया में एक साथ बड़ा विद्वान, खिलाड़ी, वक्ता, संगीतकार आदि नहीं होता है। हमें जो प्राप्त हो गया है उसी के साथ रहना पड़ता है। वह सत्य है कि कोई व्यक्ति लम्बा होना चाहता है तो कोई छोटा संगीतकार बनना चाहता है तो कोई सुन्दर । परन्तु प्रौढ़ता का चिह्न है कि मनुष्य जो कुछ उसे प्राप्त होता है उसे स्वीकार कर लेता है। यदि मनुष्य एक– दूसरे को सिर्फ इसलिए स्वीकार करे कि वह पूर्ण नहीं है तो मनुष्य अकेला रह जाएगा क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है।” अक्षम बालक अपूर्ण होते हैं परन्तु माता– पिता को इन विचारों को रखकर हमेशा उन्हें स्वीकार करना चाहिए। उन लोगों को भी जो ऐसे बालकों के सत्संग में आते हैं।

2. अक्षम बालकों के माता– पिता को इस बात से अवगत कराना चाहिए कि उन्हीं की समस्या दुर्लभ या अनोखी नहीं हैं बल्कि अनेक माता– पिता के समक्ष यह समस्या है।

3. अध्यापक माँ– बाप को जीवन का प्रजातान्त्रिक विचार बताकर उन्हें अपने बालकों की ओर उन्मुख कर सकते हैं।

4. कुछ माता– पिता जीवन की समस्याओं के प्रति धार्मिक विचार रखते हैं। उन्हें यह बताना चाहिए कि प्रत्येक व्यक्ति भगवान का बालक है । अतः उसके प्रति प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है कि उसका सम्मान करे और उसके विकास का प्रयत्न करे।s

5. माता– पिता को इस बात से अवगत कराना चाहिए कि बालक की अक्षमता उसकी उन्नति नहीं रोकती है बल्कि हीन भावना मार्ग रोकती है। इस हीन भावना के उत्पन्न होने में माता– पिता का बहुत बड़ा हाथ रहता है। इस अक्षम बालक अंति संवेदनशील बन सकता है। उसमें शर्म,स्वदया आदि दुर्गुण आ सकते हैं। अधिकतर माता– पिता यह चाहेंगे कि उसका बालक अधिक अक्षम बने । इसके लिए उन्हें बालकों को हीन भावना से बचाना चाहिए।

6. माता– पिता को यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका अक्षम बालक अब ठीक नहीं हो पायेगा। उन्हें यह सोचना चाहिए कि यद्यपि बालक का एक अंग ठीक नहीं है। पर उसके अन्य अंग तो ठीक हैं। उन्हें हमेशा आशावान होना चाहिए।

7. माता– पिता को यह समझना चाहिए कि उनका बालक क्या– क्या सीख सकता है । एक पिता, जो यह सोचता है उसका सामान्य बुद्धि वाला बालक कभी डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता कि समस्या उस पिता की समस्या से गुण तथा मात्रा दोनों में बराबर है जिसका बालक मानसिक रूप से पिछड़ा हुआ है । यदि माता– पिता सुखी रहना चाहिए है तो उन्हें बात की ओर ध्यान देना चाहिए कि उनका बच्चा क्या बना या बन सकता है, कि न कि इस बात की ओर कि उनका बालक क्या नहीं बन सकता।

8. प्रतिभावान बालकों के माता– पिता को भी उतनी सहायता अपने बच्चों को स्वीकार करने के लिए चाहिए जितनी कि अक्षम बालकों के माता– पिता को । यदि एक बालक प्रतिभावान है तो वह अन्य बालकों से अलग रहेगा। इसे कुछ लोग सामाजिक कुसमायोजन मान लेंगे। ऐसी स्थिति में भी माता– पिता की स्वीकृति अनिवार्य है। एक प्रतिभावान बालक के विकास में व्यर्थ का घमण्ड व दिखावा बाधा बन सकता है । अतः माता– पिता को यह ज्ञान देना चाहिए कि उन्हें बालकों के समक्ष गर्वोक्तियाँ नहीं करनी चाहिए। गर्वोक्तियाँ इसके विकास में उसी प्रकार बाधा डालेंगी जिस प्रकार अक्षम बालक के विकास में दया फटकार आदि।

9. माता– पिता में समझ का विकास करना चाहिए बहुत से माता– पिता जो कि अपने अक्षम तथा प्रतिभावान बालक से परेशान रहते हैं उन्हें अध्यापक की सलाह की आवश्यकता है। उनसे मिलकर वे इनकी शिक्षा व प्रशिक्षण की सही रूपरेखा निर्धारित कर सकेंगे।

10. विशिष्ट बालकों को अन्य सामान्य बालकों के समान ही समझना चाहिए । उनको यह बताना चाहिए कि किन बातों में विशिष्ट बालक सामान्य बालकों के समान हैं माता– पिता में यह भावना डालनी चाहिए कि उनका बालक अन्य बालकों के समान केवल कुछ बातों में नहीं है। चाहे बालक विशिष्ट ओ या सामान्य सभी sके पास कुछ गुण और अवगुण दोनों ही होते हैं प्रत्येक बालक दूसरे से योग्यताओं तथा अयोग्यताओं के क्षेत्र में भिन्न होता है। माता– पिता का अभिमुखीकरण यहीं से आरंभ करना चाहिए। अध्यापक शिक्षा– शास्त्री तथा प्रधानाध्यापक को इस विचार को माता– पिता तक पहुँचाना चाहिए।

बालक की आधारभूत आवश्यकताओं को समझना

अध्यापक तथा समाज– सेवक को चाहिए कि वह माता– पिता को बालक की सामाजिक, मानसिक, शारीरिक, संवेगात्मक और आर्थिक आवश्यकताओं से अवगत कराये । सभी बालकों को एक सन्तुलित भोजन की आवश्यकता है, नींद व आराम की आवश्यकता है । वे समान प्यार के आकांक्षी होते हैं। वे अपनी इच्छाओं के अनुसार अपना जीवनयापन करना चाहते हैं वे दूसरों से प्रशंसा और सुरक्षा चाहते हैं । बालकों की इन विभिन्न आवश्यकताओं के प्रति जागरूक रहना माता– पिता का कर्तव्य है । क्योंकि बालकों की आवश्यकताओं को अध्यापक सही ढंग से समझते है |

शिक्षण की विधियों को समझना

सामान्य बालक की शिक्षा के मुख्य उद्देश्य आत्म अनुभव, अच्छे आत्मक सम्बन्ध, नागरिक कर्तव्यों के प्रति जागरूक होना आदि हैं। विशिष्ट बालकों के माता– पिता को इस बात में सहायता देनी चाहिए कि इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए वे भिन्न– भिन्न तरीके अपनायें उसके लिए विभिन्न पाठ्यक्रम तथा विभिन्न विधियाँ होनी चाहिए।

अक्सर माता– पिता इस बात को स्वीकार या नहीं समझते हैं कि उनके बालक की समस्या शिक्षा की सामान्य समस्याओं में से एक है। माता– पिता अपने विशिष्ट बालकों के उद्देश्य की प्राप्ति के लिए कुछ भिन्न समस्याओं,परिस्थितियाँ व विधियों को पायेंगे। कुछ प्रमुख विधियों इस प्रकार से हैं–

(1) उनके बालकों को सामान्य बालकों के स्कूल से निकाल दिया जायेगा।

(2) उन्हें विशेष कक्षा या विशेष स्कूल में अपने बालक को पढ़ाना पड़ेगा।

(3) अध्यापक द्वारा बताये गये विशेष पाठ्यक्रम व विधियों को समझाना पड़ेगा।

यह आवश्यक है कि अध्यापक तथा समाज– सेवक को, जो माता– पिता के साथ कार्य करता है, उनका विश्वास अवश्य प्राप्त कर लेना चाहिए। यह तभी हो सकता है जबकि वह तथा माता– पिता साथ– साथ बालक के सुधार के बारे में सोचें । इससे माता– पिता में बालकों को विशेष स्कूलों में भेजने का साहस बढ़ेगा।

इससे वे विशेष स्कूलों में भर्ती में देरी होने पर भी इन्तजार कर सकते हैं। इससे लाभ यह होता है कि बालकों की रुचि, आवश्यकता व अभिवृत्ति के अनुसार उनको उचित शिक्षा मिलती है जिससे उनका सही व्यक्तित्व विकास होता है।

माता– पिता की देन की प्रकृति को समझना

अध्यापक, निरीक्षक तथा अन्य को माता– पिता को बालक में परिपक्वता तथा सीखने के महत्त्व को समझना चाहिए। उन्हें जानना चाहिए कि अधिगम के लिए बालकों में तत्परता का . होना अनिवार्य है। उन्हें जानना चाहिए कि बालक में तत्परता कैसे उत्पन्न की जाये। उन्हें समझाना चाहिए कि प्रत्येक बालक, चाहे वह विशिष्ट हो या सामान्य उसकी अपनी विकास की गति होती है। उन्हें यह भी जानना चाहिए कि उनके बालक की अक्षमता कैसे उसके अधिगम को प्रभावित करती है। माता– पिता को इस बात की आवश्यकता है कि वे यह अध्ययन करें कि सभी बालकों में भाषा का विकास किस प्रकार होता है। माता– पिता उस विकास में कैसे भाग ले सकते हैं । यह जानना आवश्यक है कि बहरे तथा मानसिक रूप से पिछड़े बालकों के विषयों में माता– पिता का रोल अन्य माता– पिता के रोल से अधिक महत्त्वपूर्ण है । इस क्षेत्र में माता– पिता को शिक्षित करना चाहिए। अध्यापकों, निरीक्षकों तथा प्रधानाचार्यों के सम्मेलन आयोजित करने चाहिए। इससे लाभकारी फल प्राप्त हो सकते हैं।

अन्य अध्यापकों के साथ सहयोग के महत्त्व को समझना ।

सामान्य शिक्षा में यह अनुभव किया गया है कि चार प्रकार के अध्यापकों का समूह बालकों की शिक्षा में भाग लेता है– गृह अध्यापक, खेल के अध्यापक, स्कूल अध्यापक तथा समुदाय के अध्यापक जैसे– रेडियो, अखबार आदि।

इन चारों प्रकार के अध्यापकों में सहयोग होना अनिवार्य है। विशिष्ट बालकों के सम्बन्ध में उसकी आवश्यकताओं की मात्रा और अधिक हो जाती है। साथ ही समाज– सेवक, चिकित्सक तथा विभिन्न समुदाय की एजेन्सियों में मेल होना चाहिए। उन्हें सहयोग से कार्य करना चाहिए। विशिष्ट बालकों के माता– पिता को शिक्षाशास्त्रियों तथा अध्यापकों से विशेष सहायता मिलनी चाहिए।

शिक्षण सम्भावनाओं का ज्ञान

कुछ माता– पिता अपने बच्चों की शैक्षिक सीमाओं को देखकर इतने दुःखी होते हैं कि वे बालक को शैक्षिक सम्भावनाओं का अनुमान नहीं लगा पाते हैं जबकि यह महत्त्वपूर्ण है कि वे अपने बालक की सीमाओं की वस्तुनिष्ठ रूप से स्वीकार कर लें।

इससे भी महत्त्वपूर्ण है कि वे अपने बालकों की सम्भावनाओं का पता लगायें कि वह क्या बन सकता है। इस क्षेत्र में अध्यापक उनकी सहायता कर सकते हैं। उसे बालक की अभिवृत्तियाँ, अभिरुचियाँ, बुद्धि आदि का मापन करके माता– पिता को उससे अवगत कराना चाहिए।

विशिष्ट बालकों की अपनी प्रतिक्रिया को समझना

विशिष्ट बालकों के माता– पिता को इस बात की सहायता प्रदान करनी चाहिए कि वे अपने बच्चों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया को समझ सकें । उन्हें यह जानना चाहिए कि उनके व्यवहार के पीछे दया, क्रोध, झुंझलाहट या घृणा तो नहीं है । उन्हें इस बात का ज्ञान होना चाहिए कि उन्हें अपने व्यवहार द्वारा संवेगात्मक स्वीकृति कैसे दिखानी चाहिए। अध्यापक का कर्तव्य है कि उन्हें यह बतायें कि किस प्रकार की प्रतिक्रिया अधिक प्रभावशाली होती है। यह ज्ञान माता– पिता को अध्यापक अनौपचारिक वार्ता, परामर्श (अनिर्देशन) द्वारा दे सकता है यह समूह वाद– विवाद और अभिभावक सम्मेलन द्वारा भी सम्भव है।

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