रीति-रिवाज व प्रथाएँ

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– भारत के अन्य प्रदेशों से आकर यहां बसने वाले लोगों के अतिरिक्त यहां की सभी जातियों के रीति-रिवाज मूलतः वैदिक परम्पराओं से संचालित होते आये हैं।

– यहां तक कि मुसलमानों तथा भील, मीणा, डामोर, गरासिया, सांसी इत्यादि आदिम जातियां भी हिन्दुओं के रूढ़िगत रीति-रिवाजों से अप्रभावित नहीं हैं।

– राजस्थान के हर प्रसंग के लिये निश्चित रिवाजों में सरसता और उपयोगिता है, वह इसके सामाजिक जीवन की उच्च भावना की द्योतक है।

– राजस्थान के रीति-रिवाजों की सबसे बड़ी विशेषता उनका सादा व सरल होना है।

– सामन्ती व्यवस्था होने से राजस्थान के रीति-रिवाजों पर भी इनकी छाप रही है। इसी व्यवस्था के प्रभाव से यहां बाल-विवाह, वृद्ध विवाह व अनमेल विवाह का भी प्रचलन रहा है। राजपूतों में कन्या के साथ डावरियाँ भी दहेज में दिये जाने की परम्परा रही है। परन्तु अब प्रायः यह समाप्त हो गई है।

– मेहन्दी राजस्थान की नारियों की हथेली का विशेष श्रृंगार है।

सोलह संस्कार

– मनुष्य शरीर को स्वस्थ तथा दीर्घायु और मन को शुद्ध और अच्छे संस्कारों वाला बनाने के लिए गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि तक निम्न सोलह संस्कार अनिवार्य माने गए हैं-

1. गर्भाधान– गर्भाधान के पूर्व उचित काल और आवश्यक धार्मिक क्रियाएं। हिन्दुओं का प्रथम संस्कार। इस संस्कार को मेवाड़ क्षेत्र में बदूरात प्रथा के नाम से भी जाना जाता है।

2. पुंसवन- गर्भ में स्थित शिशु को पुत्र का रूप देने के लिए देवताओं की स्तुति कर पुत्र प्राप्ति की याचना करना पुंसवन संस्कार कहलाता है।

3. सीमन्तोन्नयन– गर्भवती स्त्री को अमंगलकारी शक्तियों से बचाने के लिए किया गया संस्कार। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार यह संस्कार गर्भधारण के छठे से आठवें मास के मध्य तक किया जा सकता है। सीमंतोनयन संस्कार की परम्परा मारवाड़ में अगरणी नाम से प्रचलित थी। यह संस्कार खोळ भराई, साधुपुराना, चौक पुराना, अठमासे की गोद भरना आदि नामों से जाना जाता हैं।

4. जातकर्म- बालक के जन्म पर किया जाने वाला संस्कार।

5. नामकरण– शिशु का नाम रखने के लिए जन्म के 10वें या 11वें दिन किया जाने वाला संस्कार।

6. निष्क्रमण-जन्म के चौथे मास में बालक को पहली बार घर से निकालकर सूर्य और चन्द्र दर्शन कराना।

7. अन्नाप्राशन– जन्म के छठे मास में बालक को पहली बार अन्न का आहार देने की क्रिया। इसे देशाटन संस्कार भी कहा जाता है।

8. चूड़ाकर्म या जडूला– शिशु के पहले या तीसरे वर्ष में सिर के बाल पहली बार मुण्डवाने पर किया जाने वाला संस्कार।

9. कर्णवेध– शिशु के तीसरे एवं पांचवें वर्ष में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें शिशु के कान बींधे जाते हैं।

10. विद्यारम्भ– देवताओं की स्तुति कर गुरु के समीप बैठकर अक्षर ज्ञान कराने हेतु किया जाने वाला संस्कार।

11. उपनयन– इस संस्कार द्वारा बालक को शिक्षा के लिए गुरु के पास ले जाया जाता था। ब्रह्मचर्याश्रम इसी संस्कार से प्रारम्भ होता था। इसे ‘यज्ञोपवीत संस्कार‘ भी कहते थे। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों को ही उपनयन का अधिकार था। इस दिन बालक जनेऊ धारण करता है। जनेऊ धारण करने का उत्तम दिन रक्षाबन्धन को माना जाता है।

12. वेदारम्भ– वेदों के पठन-पाठन का अधिकार लेने हेतु किया गया संस्कार।

13. केशान्त या गोदान– सामान्यतः 16 वर्ष की आयु में किया जाने वाला संस्कार, जिसमें ब्रह्मचारी को अपने बाल कटवाने पड़ते थे।

14. समावर्तन या दीक्षान्त संस्कार– शिक्षा समाप्ति पर किया जाने वाला संस्कार, जिसमें विद्यार्थी अपने आचार्य को गुरुदक्षिणा देकर उसका आशीर्वाद ग्रहण करता था तथा स्नान करके घर लौटता था। स्नान के कारण ही ब्रह्मचारी को ‘स्नातक‘ कहा जाता था।

– देराळी :- समावर्तन संस्कार का बिगड़ा हुआ स्वरूप।

15. विवाह संस्कार– गृहस्थाश्रम में प्रवेश के अवसर पर किया जाने वाला संस्कार।

16. अंत्येष्टि– यह मृत्यु पर किया जाने वाला दाह संस्कार। मानव जीवन का अंतिम संस्कार।

राजस्थान के रीति-रिवाज तीन भागों में विभक्त किये जा सकते हैं –

जन्म संबंधी रीति-रिवाज

– गर्भाधान– नव विवाहित स्त्री के गर्भवती होने की जानकारी मिलते ही उत्सवों का आयोजन होता है। इस अवसर पर महिलाओं द्वारा मंगल गीत गाये जाते हैं।

– पंचमासी– यह एक प्रकार से पुंसवन संस्कार है जिसके अन्तर्गत जब गर्भवती महिला का 5 माह का गर्भधारण का समय पूरा हो जाता था, तब गर्भ की सुरक्षा हेतु देवी-देवताओं की पूजा की जाती थी।

– आठवां पूजन– गर्भवती स्त्री के गर्भ को जब सात मास पूर्ण हो जाते हैं तो आठवें मास में आठवां पूजन महोत्सव मनाया जाता है। इस अवसर पर देवताओं का पूजन करके उनसे मनौतियां मांगी जाती है। इस अवसर पर प्रीतिभोज का भी आयोजन किया जाता है।

– आगरणी– गर्भ धारण के आठ माह पश्चात् इसका आयोजन किया जाता था। आगरणी पर गर्भवती महिला की माता महिला के लिए घाट (ओढ़नी) व मिठाई (विशेषकर घेवर) भेजती थी।

– जन्म– यदि लड़के का जन्म होता है तो घर की बड़ी औरत कांसे की थाली बजाती है, परन्तु लड़की के जन्म पर सूप बजाया जाता है। जन्म के बाद परिवार की वृद्ध महिला बच्चे को जन्म-घुट्टी पिलाती है।

– जामणा– पुत्र जन्म पर नाई बालक के पगल्ये (सफेद वस्त्र पर हल्दी से अंकित पद चिन्ह) लेकर उसके ननिहाल जाता है। तब उसके नाना या मामा उपहार स्वरूप वस्त्राभूषण, मिठाई लेकर आते हैं, जिसे ‘जामणा‘ कहा जाता है।

– सुआ– इस संस्कार के अन्तर्गत बच्चे के जन्म के बाद सारे घर की शुद्धि की जाती थी। जब तक घर की शुद्धि नहीं हो जाती तब तक बाहर का कोई भी आदमी घर का पानी नहीं पीता था। जच्चा के घर को सुआ कहते हैं।

– न्हावण / न्हाण :- प्रसूता का प्रथम स्नान व उस दिन का संस्कार।

– सतवाड़ौ :- प्रसव के सातवें दिन का प्रसूता का स्नान या संस्कार।

– आख्या- बच्चे के जन्म के आठवें दिन बहिनें आख्या करती हैं तथा सांखियाँ (मांगलिक चिह्न) 卐 भेंट करती हैं।

– दसोटण :- जोधपुर राजघराने में पुत्र जन्म के बाद 10वें दिन अशौच शुद्धि के अवसर पर किया जाने वाला समारोह।

– सुहावड़– मारवाड़ की परम्परा अनुसार प्रसूता को सौंठ, अजवाईन, घी-खांड़ के मिश्रण के लड्डू बना कर खिलाये जाते हैं, इसे सुहावड़ कहा जाता है।

– पनघट पूजन– बच्चे के जन्म के कुछ दिनों उपरान्त कुंआ पूजन की रस्म मनाई जाती है। इस प्रथा को ‘कुआँ पूजन’ या ‘जलवा पूजन‘ भी कहते हैं। इस अवसर पर घर, परिवार और मौहल्ले की स्त्रियां बच्चे की मां को लेकर देवी-देवताओं के गीत गाती हुई कुएँ पर जाती है। कुएँ पर जल पूजा भी की जाती है।

– ढूँढ :- बच्चे के जन्म के बाद प्रथम होली पर ननिहाल पक्ष की ओर से उपहार, कपड़े, मिठाई व फूल भेजे जाते हैं।

– गोद लेना– जब किसी दम्पत्ति के कोई बच्चा नहीं होता है तो वह अपने परिवार से या अपने सम्बन्धी के बच्चे को अपना लेता है। इसे गोद लेना कहते हैं। इस रस्म का मुख्य उद्देश्य वंश को चलाना होता है। राजस्थानी परम्परा के अनुसार गोद लिये हुये बच्चे को स्वयं के बच्चे के बराबर हक मिलता है।

विवाह संबंधी रीति-रिवाज

– सगाई– किसी लड़की के लिए लड़का रोका जाने की प्रक्रिया। वैवाहिक संबंध की दृष्टि से लड़का व लड़की के परिजन किसी भाट, चारण, पुरोहित वर्ग के व्यक्ति के माध्यम से रिश्ता तय करते हैं, तो उसे सगाई की रस्म कहते हैं। लड़की के लिए लड़का रोकने के लिए कच्चा दस्तूर किया जाता है। इस रिवाज के अनुसार लड़के के घर नारियल व रूपया आदि भेजते हैं। वागड़ क्षेत्र में इसे टेवलिया या सगपण भी कहा जाता है।

– टीका– सगाई के बाद वर का पिता अपने निकट संबंधियों व परिजनों को आमंत्रित करता है। इस अवसर पर वधू पक्ष वाले वर को चौकी पर बिठा कर उसका तिलक (टीका) कर अपने सामर्थ्यानुसार उसे भेंट देते हैं। आजकल सगाई तथा टीका एक साथ ही कर दिया जाता है।

– सिंझारी – श्रावण कृष्णा तृतीया पर्व के दिन कन्या या वधू के लिए भेजा जाने वाला सामान।

चिकणी कौथली– सगाई के बाद वर को मुख्य रूप से गणेश चौथ पर तथा वधू को छोटी तीज, बड़ी तीज व गणगौर पर उपहार भेजे जाते हैं।

– सावौ – विवाह का शुभ मुहूर्त।

– पीली चिट्ठी- सगाई के पश्चात् विवाह तिथि तय करवाकर कन्या पक्ष की ओर से वैवाहिक कार्यक्रम एक कागज में लिखकर एक नारियल के साथ वर के पिता के पास भिजवाया जाता है। इसे लग्न पत्रिका या सावा भी कहते हैं।

– गणपति पूजन– विवाह से कुछ दिन पूर्व वर एवं वधू दोनों ही पक्ष वाले अपने घरों में गणेशजी की स्थापना करते हैं, ताकि विवाह संबंधी सम्पूर्ण कार्य मंगलपूर्ण तरीके से सम्पन्न हो सके। इस अवसर पर गणेशजी को घर के एक कक्ष में बिठाया जाता है।

– कुंकुम पत्रिका– विवाह कार्यक्रम हेतु यह दोनों पक्षों द्वारा छपवायी जाती है। इसकी प्रथम प्रति रणथम्भौर स्थित त्रिनैत्र गणेशजी को भेजने की प्रथा है।

– इकताई – इसमें वर-वधू की शादी के जोड़े का (कपड़े) दर्जी नाप लेता है।

– रीत – विवाह निश्चित होने पर लड़के वालों की तरफ से लड़की को भेजे जाने वाले उपहार।

– मुगधणा – विवाह में भोजन पकाने के लिए काम में ली गई लकड़ियाँ।

– बान बैठना– लग्न पत्र पहुंचने के पश्चात् वर और वधू के परिवार वाले अपने घरों में वर-वधू को चौकी पर बिठाकर गेहूँ, आटा, घी तथा हल्दी के घोल को इनके बदन पर मलते हैं जिसे पीठी करना कहते हैं। इस क्रिया को ‘बान बैठना‘ तथा वर या वधू को मेहमान अपनी सामर्थ्य के अनुरूप रुपये देते हैं जिसे बान देना कहते हैं। बान बैठने के पश्चात वर-वधू घर के बाहर नहीं जाते। यदि बाहर जाना चाहे तो एक लौहे की कटार साथ लेकर जाना पड़ता है। ऐसा माना जाता है कि यह कटार इनकी बूरी आत्माओं से रक्षा करती है।

– कांकनडोर बांधना– विवाह के पूर्व वर व वधू के हाथ में बांधा गया लाल मोली का धागा कांकन डोर बांधना कहा जाता है। इस डोरे में मोरफली, लाख व लौहे के छल्ले पिरोये जाते हैं। एक कांकन डोरा वर के दाहिने हाथ पर बांधा जाता है। और दूसरा डोरा वधू को भेजा जाता है।

– बना-बनी- विवाह के अवसर पर लड़का (बनड़ा) और लड़की (बनड़ी) के लिए गाये जाने वाले गीत।

– परणेत– विवाह (परिणय) से संबंधित गीत।

– बत्तीसी नूतना (भात नूतना)– इसमें वर तथा वधू की माता अपने पीहर वालों को निमंत्रण देने व पूर्ण सहयोग की कामना प्राप्त करने जाती है।

– मायरा (भात)– लड़की के विवाह के समय ननिहाल पक्ष द्वारा अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार धन देना।

– बनौला/बंदौला- बनौला से तात्पर्य आमंत्रित करना है। इस प्रथा के अन्तर्गत परिवार के सभी लोग बनौला देने वाले के यहां खाना खाते हैं। बनौला परिवार के रिश्तेदार या मित्र देते हैं।

– निकासी या बिन्दोरी– विवाह से एक दिन पूर्व वर को घोड़ी पर बिठाकर गाजे-बाजे के साथ गाँव या कस्बे में घुमाया जाता है। इसे निकासी या बिन्दौरी कहते हैं। इसमें वर के मित्र, परिचित एवं रिश्तेदार सम्मिलित होते हैं। वर मंदिर में जाकर देवी-देवताओं की पूजा करता है। इसके बाद वर को किसी मित्र या परिचित के घर पर ठहरा देते हैं। निकासी के बाद वर-वधू को लेकर ही वापस अपने घर पर लौटता है। निकासी में एक और रिवाज प्रचलित है। इसके अनुसार जिस रास्ते से निकासी निकलती है, उसी रास्ते से वर घर वापस नहीं लौटता है। निकासी के समय जब वर घोड़ी पर बैठता है, तो रिश्तेदार उसे रुपये देते हैं। इसे घुड़चढ़ी कहते हैं।

– कूकड़ी के गीत – यह गीत रातिजगा की समाप्ति पर गाया जाने वाला आखिरी गीत है।

– बागपकड़ाई – दूल्हे की घोड़ी की लगाम पकड़ने का नेग।

– बांनौ – विवाह की रस्म प्रारम्भ करने का प्रथम दिन।

– ‘सांकड़ी की रात’ – विवाह से संबंधित रस्म। इसमें बारात विदा होने से एक दिन पहले रात को ‘मेल की गोठ’ होती है।

– रोड़ी (घूरा) पूजन– इसमें रातिजगा के दूसरे दिन बारात रवाना होने के पूर्व स्त्रियां वर को घर के बाहर कूड़े-कचरे की रोड़ी या थेपड़ी पूजने के लिए ले जाती हैं।

– जानोंटण – वर पक्ष की ओर से दिया जाने वाला भोज।

– लडार – कायस्थ जाति में विवाह के छठे दिन वधू पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया जाने वाला भोज।

– बारात– निर्धारित तिथि को वर पक्ष के मित्र, रिश्तेदार एवं परिचित बारात लेकर वधू पक्ष के घर के लिए प्रस्थान करते हैं। जहाँ बारात को डेरे (निश्चित स्थल) पर ठहराया जाता है। इस अवसर पर सामेला की रस्म अदा की जाती है। सामेला के बाद वर अपने मित्रगणों एवं परिजनों के साथ बारात को लेकर वधू के घर पर जाता है। आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोग बारात में हाथी, ऊँट को भी सजाकर शामिल करते हैं।

– ढुकाव – वर जब घोड़ी पर बैठकर वधू के घर पहुँचता है तो वह ढुकाव कहलाता है।

– कंवारी जान का भात – बारात का स्वागत करने के पश्चात बारात को कराया जाने वाला भोजन।

– टूंटिया– बारात रवाना होने के बाद वर पक्ष के यहाँ स्त्रियों द्वारा विवाह का स्वांग रचना व हंसी-ठिठोली करना टूंटिया कहलाता है। इस रस्म का प्रारंभ श्रीकृष्ण-रूक्मणी के विवाह से माना जाता है।

– मांडा झांकना – दामाद का पहली बार ससुराल आना।

– सामेला (मधुपर्क/ठुमावा) – जब बारात वधू के यहां पहुंचती है तो वर पक्ष से नाई और ब्राह्मण बारात के आने की सूचना वधू पक्ष को देता है। बदले में उसे उचित पारितोषिक दिया जाता है। तत्पश्चात् वधू पक्ष वाले बारात की आगवानी (स्वागत) करते हैं जिसे सामेला या ठुमाव या मधुपर्क कहते हैं।

– बरी पड़ला – वर पक्ष वधू के लिए पोशाक और आभूषणों को लेकर आता है, उसे बरी कहते हैं। पड़ला उसके साथ ले जाने वाले मेवे तथा मिठाइयाँ आदि को कहा जाता है। जब वर पक्ष बारात लेकर आता है तो बरी पड़ला अपने साथ लेकर जाता है। बरी में दी जाने वाली पोशाक को वधू विवाह (फेरों) के समय पहनती है।

– पड़जान– राजपूत समुदाय में बारात के वधू के घर पहुंचने पर वधू के भाई या संबंधी द्वारा बारात का आगे आकर स्वागत करना।

– तोरण मारना– विवाह के अवसर पर दूल्हे द्वारा दुल्हन के घर के मुख्य द्वार पर लटके तोरण पर छड़ी लगाना तोरण मारना कहलाता है। इस रस्म के बाद आधा विवाह हो जाना मान लिया जाता है। तोरण मारना एक प्रकार से वर की शूरवीरता की परीक्षा करना भी रहा है। पहले एक ही वधू को ब्याहने के लिए कई वर आ जाते थे और जो ऊंचे बंधे तोरण को पहले मारने में सफल होता उसी के साथ कन्या का विवाह कर दिया जाता था। विवाह के लिए सुथार ही थंभ, मंडप और तोरण बनाते हैं। तोरण सप्तभुजा, पंचभुजा अथवा गोलाकार होता है। इसके बीच में चिड़िया तथा मयूर की आकृति लगाई जाती है। तोरण और थंभ आने पर महिलाएं शुभ गीत गाती हैं ‘अरे खातीड़ा रा बेटा, थे चतुर सुजान, तोरणियो घडल्याया चनकणिए रूखां रो।‘

– जेवड़ौ – तोरण पर सास द्वारा दूल्हे को आँचल से बाँधने की रस्म।

– झाला-मिला की आरती– तोरण द्वार पर सास अथवा बुआ सास द्वारा की जाने वाली विशेष प्रकार की मांगलिक आरती।

– पावणा– विवाह में आने वाले मेहमानों के लिए गाये जाने वाले गीत पावणा कहलाते हैं।

– सीटणा– मेहमानों को भोजन कराते समय गाये जाने वाले गाली गीत सीटणा कहलाते हैं।

– कामण– स्त्रियों द्वारा गाये जाने वाले रसीले गीत। कामण का अर्थ जादू-टोने से है।

– बिनोटा – दूल्हा – दुल्हन की जूतियाँ।

– कन्यावल– विवाह के दिन वधू के माता-पिता व भाई-बहिनों द्वारा किया जाने वाला उपवास कन्यावल कहलाता है।

– वधू के तेल चढ़ाना– बारात आने के बाद वधू के अन्तिम बार पीठी की जाती है और तेल चढ़ाया जाता है। तेल चढ़ाने के बाद विवाह होना जरूरी है।

– फेरे– फेरों को सप्तपदी भी कहते हैं। यह विवाह की सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती है। इस रस्म के अनुसार वर अपनी वधू का हाथ अपने हाथ में लेकर (हथलेवा जोड़ना) अग्नि के चारों ओर घूमकर सात फेरे लेता है। पंडित या पुरोहित मांगलिक मंत्रों को बोलता रहता है। सात फेरों के माध्यम से यह विश्वास किया जाता है कि वर-वधू सात जन्मों तक इस बंधन को निभाते रहेंगे। फेरों के बाद पुरोहित वर-वधू से वचन निभाने का आश्वासन लेता है।

– कन्यादान– इस रस्म के अनुसार वधू के माता-पिता वधू का हाथ वर के हाथ में देते हैं। इस समय पंडित वेद मंत्रों का उच्चारण करते हुए वधू के माता-पिता से कन्यादान का संकल्प लेता है। वर कन्या की जिम्मेदारी निभाने का वचन देता है।

– बासी मुजरा (पेसकारा)– विवाह के दूसरे दिन जहां बारात ठहराई जाती है वहां से वर पुनः वधू के यहां नाश्ता करने आता है, इस अवसर पर मांगलिक गीत गाये जाते हैं।

– जेवनवार– वधू के घर पर बारात को चार जेवनवार (भोज) कराने का रिवाज है।

– सीख (भेंट)– राजस्थान में विवाह के बाद वर-वधू एवं बारातियों को सीख देकर विदा किया जाता है।

– ऊझणौ (ओझण) – वधू पक्ष द्वारा वर पक्ष को दिये जाने वाले राशि एवं उपहार।

– मांमाटा– विवाह में कन्या की सास के लिए भेजी जाने वाली भेंट जिसमें नगद, मिष्ठान एवं सोने/चांदी की एक कटोरी भेजी जाती है।

– पहरावणी– बारात विदा करते समय प्रत्येक बाराती तथा वर-वधू को यथा शक्ति धन दिया जाता है। इसे पहरावणी की रस्म, समठणी या रंगबरी कहते हैं। पहले सभी बारातियों को पगड़ी पहनाई जाती थी। इसलिये इसे ‘पहरावणी’ कहा जाता था। विदाई के समय वर-वधू पक्ष के लोग एक दूसरे को रंग/गुलाल लगाते हैं, इसलिये इसे ‘रंगबरी’ भी कहा जाता है। यह अंतिम वैवाहिक रस्म होती है, जो वधू पक्ष के घर पर संपन्न होती है। इसके बाद वधू वर के ससुराल चली जाती है।

– मुकलावा या गौना– विवाहित अवयस्क कन्या को वयस्क होने पर उसे अपने ससुराल भेजना ‘मुकलावा‘ करना या ‘गौना‘ कहलाता है। वर्तमान में परिपक्व अवस्था में विवाह होने के कारण गौना विवाह के साथ ही कर दिया जाता है।

– विदाई– इसमें वर और वधू के वस्त्रों के छोर परस्पर बांधे जाते हैं और दोनों की अंगुलियों में चावल के दाने रखे जाते हैं। वधू के परिवार की स्त्रियां वधू को विदा करने के लिए विदाई गीत गाती हैं जिसे ‘कोयलड़ी‘ गीत कहते हैं।

– पैसरों – विवाह के बाद दूल्हे के घर के आँगन में सात थालियों की कतार को दूल्हे द्वारा तलवार से ईधर-उधर सरकाना और दुल्हन द्वारा जेठानी के साथ मिलकर संग्रह करने की रस्म।

– कुल देवता की पूजा – विवाह के बाद वर-वधू जब घर पहुँचते हैं, तो वर की बहन नवविवाहित युगल की आरती उतार कर उसे गृह में प्रवेश करवाती है। इसके बाद वर-वधू एक साथ कुलदेवता की पूजा करते हैं। इसके बाद वर तथा वधू एक दूसरे के हाथों में बंधे हुए कांकन डोरा को खोलते हैं।

– हथबौलणो – नव आगंतुक वधू का प्रथम परिचय।

– जुआ-जुई– विवाह के दूसरे दिन खाने के पश्चात् दोपहर को एक बर्तन में जल और दूध भरकर वर-वधू के सामने रखकर उसमें पैसा/अंगुठी डाल दी जाती है। वर या वधू में से जिसके हाथ में अंगुठी आ जाती है वही विजयी माना जाता है।

– बढ़ार– यह विवाह के दूसरे दिन वर पक्ष द्वारा अपने रिश्तेदारों व मित्रगणों को दिया जाने वाला भोज है जिसे आजकल आशीर्वाद समारोह तथा अंग्रेजी में रिसेप्शन (Reception) कहते हैं।

– बरोटी – विवाह के बाद वधू के स्वागत में किया जाने वाला भोज।

– हीरावणी – विवाह के समय नववधू को दिया जाने वाला कलेवा।

– ननिहारी– राजस्थान में पिता द्वारा बेटी को विवाह के बाद प्रथम बार विदा कराकर लाने की परम्परा ननिहारी कहलाती है।

– रियाण– पश्चिमी राजस्थान में विवाह के दूसरे दिन अफीम द्वारा मेहमानों की मान-मनोवल करना ‘रियाण‘ कहलाता है।

– खोल्याँ– शेखावाटी के ठिकानों के कामदार मुसलमान थे। इनके यहां विवाह के समय ससुराल में वधू को ‘खोल्याँ‘ रखने का एक दस्तूर होता है। वधू को ससुराल के किसी मोजिज व्यक्ति के ‘खोल्याँ‘ रखकर अर्थात् गोद में रख उसे पिता बना देते हैं। इसका उद्देश्य यह है कि ससुराल में वह उसे अपनी बेटी के समान ध्यान से रखे।

– हरक बनोला, सिंघोड़ा, सामा आदि वैवाहिक रस्में श्रीमालियों में प्रचलित रस्में हैं।

– सोटा सोटी – शादी के बाद वर-वधू नीम की छड़ियों से गोल-गोल घूमकर सोटा सोटी का खेल खेलते हैं।

– खेहटियौ विनायक – विवाह के अवसर पर प्रतिष्ठित की जाने वाली विनायक की मिट्‌टी की मूर्ति।

– छात – विवाह में नाई द्वारा किए जाने वाले दस्तूर विशेष पर दिया जाने वाला नेग।

– बालाचूनड़ी – मामा द्वारा वधू की माता के लिए लाई गई ओढ़नी।

– कंवरजोड़ – मामा द्वारा वधू (भाणजी) के लिए लाई गई ओढ़नी।

– बयाणौ / बिहांणा – विवाह के समय प्रात:काल में गाये जाने वाले गीत।

– घुड़लौ – विवाह में पुत्री की विदाई पर गाया जाने वाला गीत।

– खोल / छोल – दुल्हन की झोली भरने की रस्म।

मृत्यु संबंधी रीति-रिवाज

– बैकुण्ठी– मृत्यु के बाद मृत शरीर को दाह संस्कार के लिए जिस बाँस या लकड़ी की अर्थी पर श्मशान ले जाया जाता है, उसे बैकुण्ठी कहते हैं। बैकुण्ठी को चारों ओर से एक रस्सी से बांधा जाता है, जिसमें एक भी गांठ नहीं होती है। जब वृद्ध व्यक्ति की शव यात्रा निकलती है, तो बैंड वाले ‘राम धुन’ (रघुपति राघव राजा राम) बजाते हुए चलते हैं। शव यात्रा के दौरान लोग ‘राम नाम सत्य है…’ का उच्चारण करते हुए चलते हैं।

– बखेर अथवा उछाल- वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु होने पर श्मशान ले जाते समय राह में पैसे बिखेरना।

– दंडोत– बैकुंठी के आगे मृत व्यक्ति के पोतों व अन्य निकट संबंधियों द्वारा साष्टांग दंडवत करते हुये आगे बढ़ना।

– पिंडदान– शव को श्मशान ले जाते समय प्रथम चौराहे पर पिंडदान किया जाता है। आटे से बना पिंड गाय को खिलाया जाता है। अर्थी को चार व्यक्ति कंधा देते हैं जिसे कंधा देना कहते हैं।

– आधेटा– घर और श्मशान तक की यात्रा के बीच में चौराहे पर बैकुण्ठी की दिशा परिवर्तन की जाती है। यह क्रिया आधेटा या आधेरा/आधा रास्ता कहलाती हैं।

– लौपा / लांपा – अन्त्येष्टि की क्रिया हेतु अग्नि की आहूति सबसे बड़ा बेटा अथवा निकट के भाई द्वारा की जाती है जिसे लौपा / लांपा कहते हैं।

– अंत्येष्टि – श्मशान में शव को लकड़ी से बनाई गई चिता पर रख दिया जाता है। मृतक का पुत्र तीन परिक्रमा करने के बाद चिता को मुखाग्नि देता है। कपाल फटने के बाद मृतक का पुत्र एक बाँस पर कटा नारियल बाँधकर उसमें घी भरकर मृतक की कपाल पर उडेल देता है। इस रस्म को कपाल क्रिया कहते हैं।

– सांतरवाड़ा– जब तक मृतक की अन्त्येष्टि क्रिया न हो जाये तब तक घर व पड़ौस में चूल्हे नहीं जलाये जाते हैं। अन्त्येष्टि में गये व्यक्ति स्नान आदि कर मृत व्यक्ति के घर जाते हैं जहां घर का मुखिया उनके प्रति आभार प्रकट करता है। सांतरवाड़ा रस्म के तहत मृत्यु के पश्चात् 12 दिन तक किसी स्थान पर तापड़ बिछा कर बैठा जाता है।

– भदर– किसी की मृत्यु हो जाने की स्थिति में शोक स्वरूप अपने बाल, दाढ़ी, मूँछ इत्यादि कटवा लेना भदर कहलाता है।

– फूल एकत्र करना – मृत्यु के तीसरे दिन मृतक के परिजन श्मशान घाट जाकर चिता की राख में से मृतक की अस्थियाँ चुन कर एक मिट्टी के कलश में इकट्ठा करते हैं, जिन्हें लाल वस्त्र में रखते हैं। इसे फूल चुगना कहते हैं। इसके बाद परिवार के कुछ सदस्य कलश में एकत्रित अस्थियों को गंगा, पुष्कर या अन्य किसी जलाशय में बहा देते हैं।

– तीये की बैठक – मृत्यु के तीसरे दिन शाम को तीये की बैठक होती है, जो लोग शव यात्रा में नहीं जा पाते हैं, वो तीये की बैठक में भाग लेकर संवेदना व्यक्त करते हैं। बैठक में पुरोहित मृत आत्मा की शांति के लिए शांति पाठ करता है। बैठक में सम्मिलित होने वाले समस्त जन स्वर्गीय व्यक्ति के चित्र पर पुष्प अर्पित करते हैं और मृतक की आत्मा की शांति के लिए दो मिनिट मौन रखकर प्रार्थना करते हैं।

– मौसर– राजस्थान में मृत्यु भोज की प्रथा है। इसे मौसर, औसर या नुक्ता कहते हैं। मृतक के निकटतम संबंधी अपने संबंधियों व ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं। यह क्रम 12 दिन तक जारी रहता है। जीते जी मृत्यु भोज करना जोसर कहलाता हैं। आदिवासियों का मृत्यु भोज कांगिया कहलाता है।

– मूकांण – मृतक के पीछे उसके संबंधियों के पास संवेदना प्रकट करने की क्रिया।

– डांगड़ी रात – तीर्थादि से लौटकर करवाया जाने वाला रात्रि जागरण।

– दोवणियां – मृतक के 12वें दिन घर की शुद्धि हेतु जल से भरे जाने वाले मटके।

– पगड़ी– मोसर के दिन ही मृत व्यक्ति के बड़े पुत्र को उसके उत्तराधिकारी के रूप में पगड़ी बांधी जाती है।

– फूल पदराना– हरिद्वार, पुष्कर या बेणेश्वर में पूरे विधि-विधान के साथ दिवंगत परिजनों की अस्थियों व चिता भस्म को बहती जलधारा में प्रवाहित करने की क्रिया।

– रंग बदलना– किसी के पिता की मृत्यु होने पर उसके परिवार के सभी सदस्य सफेद साफे बांधते हैं और 12वें दिन उत्तराधिकारी के ससुराल से गुलाबी रंग के साफे लाये जाते हैं जो पूरे कुटुम्ब में वितरित किये जाते हैं। सफेद साफे उतार कर उसके स्थान पर गुलाबी साफे बांधने की यह परम्परा रंग बदलना कहलाती है।

– राजस्थान के राजघरानें में पगड़ी बांधने वाले व्यक्ति को जयपुर में पगड़ी बंधजी, उदयपुर में महिदित छापदार एवं जोधपुर में कपड़बरदार कहा जाता है।

– महीदोत जी– राजस्थान में दर्जियों को सम्मानपूर्वक कहा जाता था।

– अमामा– मुगल काल में पगड़ियों को कहा जाता था।

– पोतिया– बाड़मेर में कलबी कृषकों द्वारा पगड़ी के रूप में प्रयुक्त साफा।

– लहरिया बंधाना– मेवाड़ में साफा बांधने को कहा जाता है।

– महीने का घड़ा– व्यक्ति की मृत्यु के एक माह पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।

– छमाही– व्यक्ति की मृत्यु के छः माह पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।

– बारह माह का घड़ा– व्यक्ति की मृत्यु के एक वर्ष पश्चात् उसके परिवार द्वारा किया जाने वाला यज्ञ व दान।

– श्राद्ध– भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक सौलह दिनों का श्राद्ध पक्ष होता है। श्रा­द्ध जिस तिथि को जिस व्यक्ति की मृत्यु हुई थी उसी दिन किया जाता है।

– ओख– इस प्रथा के अन्तर्गत जब किसी परिवार में त्यौहार के अवसर पर कोई मृत्यु हो जाती है तो पीढ़ी दर पीढ़ी उस त्यौहार को नहीं मनाया जाता है।

– सापौ /सियावों / हरजस / छेड़ो – वृद्ध व्यक्ति की मृत्यु पर गाये जाने वाले गीत।

अन्य रीति-रिवाज

– नांगल– मकान निर्माण के बाद नवनिर्मित गृह के प्रवेश की रस्म नांगल कहलाती है।

– जनेऊ प्रथा– ब्राह्मण जाति में बच्चों के जनेऊ डालने की प्रथा है। इसे यज्ञोपवित भी कहा जाता है।

– कूकड़ी की रस्म – सांसी जनजाति की रस्म। इस रस्म के तहत विवाहोपरांत युवती को अपनी चारित्रिक पवित्रता की परीक्षा देनी होती है।

– धारी संस्कार – सहरिया जनजाति का मृत्यु से संबंधित संस्कार। यह संस्कार मृतक के मृत्यु के तीसरे दिन किया जाता है जिसमें एक कुण्डे के नीचे दीपक जलाया जाता है जहाँ किसी जानवर का पदचिह्न बनता है जिससे यह माना जाता है कि मृत व्यक्ति ने उसी रूप में जन्म लिया है।

– टीका-दौड़ – नए राजा के गद्दी पर बैठते ही पड़ौसी राज्य पर हमला करने की रस्म।

– हलाणौ – प्रथम प्रसव के बाद कन्या को दिया जाने वाला सामान व विदाई।

– धरेजा – अविवाहित व्यक्ति या विधुर द्वारा अविवाहित स्त्री या विधवा से आपसी सहमति से विवाह करना।

– ढींगोली – स्त्रियों का एक व्रत।

– पाती माँगना – इसमें धार्मिक परम्पराओं के तहत देवी-देवताओं से आशीर्वाद माँगा जाता है।

– हरवण गायन – वागड़ क्षेत्र (डूँगरपुर-बाँसवाड़ा) में मकर संक्रान्ति परगायी जाने वाली श्रवण कुमार की गाथा।

– सावळ – कीर जाति में खेत से सर्वप्रथम तोड़कर बहन-बेटी को दी जाने वाली वस्तु।

– पंचांग श्रवण – मकर संक्रान्ति पर हाड़ौती क्षेत्र में विशेषकर गागरौण व आस-पास के क्षेत्र में ज्योतिषों द्वारा अपने यजमानों को सुनाया जाने वाला पंचांग।

– पुरणाई – माँगलिक अवसरों पर गोबर आदि से आँगन लेपने की क्रिया।

– गाघराणौ :- पुनर्विवाह की प्रथा, विशेषकर देवर के साथ।

– ओजू (वजू) – नमाज पढ़ने से पूर्व शुद्धि के लिए हाथ-पाँव धोने की क्रिया।

– अंगवारौ – किसानों द्वारा पारस्परिक सहयोग से कृषि कार्य करने की प्रथा।

– देवरघट्‌टा – बड़े भाई की मृत्यु के पश्चात उसकी पत्नी का विवाह छोटे भाई के साथ कर दिया जाता है तो इसे देवरघट्‌टा विवाह कहते हैं।

– तागा करना – आत्महत्या के शरीर पर शस्त्र से घाव करना।

प्रमुख प्रथाएँ

– बाल विवाह– यह छोटी उम्र में ही विवाह कर देने की प्रथा है, जिसका प्रचलन निम्न जातियों में अधिक है। प्रतिवर्ष राजस्थान में अक्षय तृतीया पर हजारों बच्चे विवाह बंधन में बांध दिए जाते हैं। बाल विवाह का प्रचलन गुप्तकाल से माना जाता है। बाल विवाह का प्रथम लिखित प्रमाण बाणभट्ट की पुस्तक हर्षचरित्त से माना जाता है।

– आखातीज का सावा शादियों के लिये उत्तम माना जाता है। यह अबूझ सावा के रूप में प्रसिद्ध हैं।

– राजस्थान में सर्वप्रथम बाल विवाह पर रोक जोधपुर रियासत ने 1885 ई. में लगवाई।

– अजमेर के श्री हरविलास शारदा ने 1929 ई. में बाल विवाह निरोधक अधिनियम प्रस्तावित किया, जो ‘शारदा एक्ट‘ के नाम से प्रसिद्ध है। 1 अप्रैल, 1930 से यह अधिनियम समस्त देश में लागू हुआ। शारदा एक्ट में विवाह योग्य उम्र के लिए लड़के की आयु 18 वर्ष तथा लड़की की आयु 14 वर्ष तय की गई। इस अधिनियम से पूर्व ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ के निर्णयानुसार जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री सर प्रतापसिंह ने सन् 1885 में बाल विवाह प्रतिबंधक कानून बनाया था। अब शारदा एक्ट को समाप्त कर नया अधिनियम-बाल विवाह निरोध अधिनियम लागू कर दिया गया है। बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम 2006 को 10 जनवरी 2007 से अधिसूचित किया गया। यह कानून 1 नवम्बर, 2007 से लागू हुआ। वर्तमान में लड़कों के लिए विवाह योग्य उम्र 21 वर्ष एवं लड़कियों के लिए 18 वर्ष निर्धारित की गई है।

– सती प्रथा– पति की मृत्यु हो जाने पर पत्नी द्वारा उसके शव के साथ चिता में जलकर मृत्यु को वरण करना ही सती प्रथा कहलाती थी। मध्यकाल में अपने सतीत्व व प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने हेतु यह प्रथा अधिक प्रचलन में आई। धीरे-धीरे इसने एक भयावह रूप धारण कर लिया तथा स्त्री की इच्छा के विपरीत परिवार की प्रतिष्ठा ओर मर्यादा बनाए रखने के लिए उसे जलती चिता में धकेला जाने लगा। राजस्थान में इस प्रथा का सर्वाधिक प्रचलन राजपूत जाति में था।

– राजस्थान में सर्वप्रथम 1822 ई. में बूंदी रियासत में विष्णुसिंह ने सतीप्रथा को गैर कानूनी घोषित किया गया। बाद में राजा राममोहन राय के प्रयत्नों से लार्ड विलियम बैंटिक ने 1829 ई. में सरकारी अध्यादेश से पहले बंगाल में तथा फिर पूरे भारत में इस प्रथा पर रोक लगाई। यह कानून बनने के बाद 1830 ई. में अलवर रियासत ने इस प्रथा पर सर्वप्रथम रोक लगाई। भारत में सती प्रथा का प्रथम उल्लेख गुप्त काल के एरण अभिलेख से मिलता है। राजस्थान में सती प्रथा का प्रथम प्रमाण घटियाला अभिलेख (जोधपुर) में मिला है जो 861 ई. का है। इस अभिलेख के अनुसार राणुका की मृत्यु पर उसकी पत्नी संपल देवी सती हुई थी। अकबर ने भी सती प्रथा को रोकने के प्रयास किए।

– राजस्थान में सन् 1987 के देवराला (सीकर) सती काण्ड, जिसमें रूपकंवर अपने पति श्रीमालसिंह शेखावत के पीछे सती हुई थी, के बाद सती निवारण अधिनियम पारित किया गया। जिसके तहत सती प्रथा को प्रोत्साहित करने वाले सभी मेले, कार्यक्रमों व साहित्य पर रोक लगा दी गई।

– सती प्रथा को ‘सहमरण‘, ‘सहगमन‘ या ‘अन्वारोहण‘ भी कहा जाता है।

– मोहम्मद तुगलक पहला शासक था, जिसने सती प्रथा पर रोक हेतु आदेश जारी किए थे।

– अनुमरण– पति की मृत्यु कहीं अन्यत्र होने व वहीं पर उसका दाह संस्कार कर दिए जाने पर उसके किसी चिन्ह के साथ अथवा बिना किसी चिन्ह के ही उसकी विधवा के चितारोहण को ‘अनुमरण‘ कहा जाता है। ऐसी सतियों को ‘महासती‘ भी कहा जाता है। मृतपुत्र के साथ भी स्त्रियां सती होती थी, जिन्हें ‘मां-सती‘ कहा जाता था।

– जौहर प्रथा– युद्ध में जीत की आशा समाप्त हो जाने पर शत्रु से अपने शील-सतीत्व की रक्षा करने हेतु वीरांगनाएं दुर्ग में प्रज्जवलित अग्निकुण्ड में कूदकर सामूहिक आत्मदहन कर लेती थी, जिसे ‘जौहर करना‘ कहा जाता था। राजस्थान में प्रथम जौहर 1301 ई. में रणथम्भौर दुर्ग में हम्मीरदेव की पत्नी रंगदेवी के नेतृत्व में हुआ। यह एक जल जौहर था।

– डावरिया– राजा महाराजा व जागीरदार पहले अपनी लड़की की शादी में दहेज के साथ कुछ कुंवारी कन्याएं भी देते थे, जिन्हें डावरिया कहा जाता था।

– केसरिया करना– राजपूत योद्धाओं द्वारा पराजय की स्थिति में पलायन करने या शत्रु के समक्ष आत्मसमर्पण करने की बजाय केसरिया वस्त्र धारण कर दुर्ग के द्वारा पर भूखे शेर की भांति शत्रु पर टूट पड़ना व उन्हें मौत के घाट उतारते हुए स्वयं भी वीर गति को प्राप्त हो जाना ‘केसरिया करना‘ कहा जाता था।

– समाधि प्रथा– इस प्रथा में कोई पुरुष या साधु महात्मा मृत्यु को वरण करने के उद्देश्य से जल समाधि (किसी तालाब में पानी में बैठकर अपनी जान दे देना) या भू-समाधि (जमीन में गड्ढ़ा खोदकर बैठ जाना व उसे मिट्टी से भर देना) ले लिया करते थे। यह कृत्य आत्महत्या के समान था लेकिन ऐसे पुरुषों को जनता बड़ी श्रद्धा से देखती थी और उनकी पूजा करती थी।

– सर्वप्रथम जयपुर के पॉलिटिकल एजेण्ट लुडलो के प्रयासों से सन् 1844 में जयपुर राज्य ने समाधि प्रथा को गैर कानूनी घोषित किया। इसे पूर्णरूपेण समाप्त करने के लिए सन् 1861 में एक नियम पारित किया गया।

– नाता– राजस्थान में नाता अथवा ‘पुनर्विवाह‘ की प्रथा भी है। इस प्रथा के अनुसार पत्नी अपने पति को छोड़कर किसी अन्य पुरुष के साथ विवाह कर सकती है। विधवा भी अपनी पसन्द के व्यक्ति के साथ रह सकती है। यह प्रथा आदिवासियों में अधिक प्रचलित है। पर्दा प्रथा का उदय गुप्तकाल में हुआ था।

– त्याग प्रथा– राजस्थान में राजपूत जाति में विवाह के अवसर पर चारण, भाट, ढोली इत्यादि लड़की वालों से मुंह मांगी दान-दक्षिणा प्राप्ति के लिए हठ करते थे, जिसे ‘त्याग‘ कहा जाता था। मध्यकालीन राजस्थान में यह त्याग स्वेच्छापूर्वक अपने पद व स्थिति के अनुसार दिया जाता था। लेकिन समय के साथ-साथ यह प्रथा बोझ बन गई और इसका भार उठाना असहनीय बन गया। त्याग की इस कुप्रथा के कारण भी प्रायः कन्या का वध कर दिया जाता था।

– सर्वप्रथम 1841 ई. में जोधपुर राज्य में ब्रिटिश अधिकारियों के सहयोग से नियम बनाकर ‘त्याग प्रथा‘ को सीमित करने का प्रयास किया गया। बाद में ‘वाल्टर कृत राजपूत हितकारिणी सभा‘ ने इस कुप्रथा को समाप्त करने का प्रयास किया।

– अहेड़ा का शिकार– राजपूताने में होली के दिन शिकार करने के रिवाज को अहेड़ा का शिकार कहा जाता था।

– डाकन प्रथा– राजस्थान की कई जातियों विशेषकर भील और मीणा जातियों में स्त्रियों पर ‘डाकन‘ होने का आरोप लगाकर उन्हें मार डालने की कुप्रथा व्याप्त थी। प्रचलित अंधविश्वास के अनुसार ‘डाकन‘ उस स्त्री को कहा जाता था जिसमें किसी मृत व्यक्ति की अतृपत आत्मा प्रवेश की गई हो। ऐसी स्त्री समाज के लिए अभिशाप मानी जाती थी।  जो यातनाएं दे-देकर मार दी जाती थी। यह एक अत्यंत ही अमानवीय क्रूर प्रथा थी।

– सर्वप्रथम अप्रैल, 1853 ई. में मेवाड़ में महाराणा स्वरूप सिंह के समय में मेवाड़ भील कोर के कमाण्डेण्ट जे.सी. बुक ने खैरवाड़ा (उदयपुर) में इस प्रथा को गेर कानूनी घोषित किया।

– पान्या की गोठ– मेवाड़ क्षेत्र में जहां बढ़िया मक्की पैदा होती थी वहां पान्या की गोठ का प्रचलन था। मक्की के आटे की रोटी थेप कर उसे ढ़ाक के पत्तों के बीच में दबाकर उपलों की गर्म राख में रख दिया जाता था रोटी बनकर तैयार हो जाती थी फिर दही या दूध के साथ इसे खाया जाता था।

– लोह– विवाह या सगाई के मौके पर सगे संबंधी द्वारा बकरे को कटाया जाना लोह कहलाता है।

– कन्या वध– राजस्थान में विशेषतः राजपूतों में प्रचलित इस प्रथा में कन्या के जन्म लेते ही उसे अफीम देकर या गला दबाकर मार दिया जाता था। कन्या-वध समाज में अत्यंत ही क्रूर व भयावह कृत्य था। हाड़ौती के पॉलिटिकल एजेण्ट विलकिंसन के प्रयासों से लार्ड विलियम बैंटिक के समय में राजस्थान में सर्वप्रथम कोटा राज्य में सन् 1833 में तथा बूंदी राज्य में 1834 ई. में कन्या वध करने को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया।

– सूला– कबाब की किस्म का यह व्यंजन मांसाहारियों का प्रिय व्यंजन था।

– खाजरू– राजपूत लोगों द्वारा गोठ या पार्टी हेतु पाले गये बकरों को काटना खाजरू कहलाता है।

– दहेज प्रथा– दहेज वह धन या सम्पत्ति होती है जो विवाह के अवसर पर वधू पक्ष द्वारा विवाह की आवश्यक शर्त के रूप में वर पक्ष को दी जाती है। वर्तमान में इस प्रथा ने विकराल रूप धारण कर लिया है। इसने लड़कियों के विवाह को अति दुष्कर कार्य बना दिया है। यद्यपि सन् 1961 में भारत सरकार द्वारा दहेज निरोधक अधिनियम भी पारित कर लागू कर दिया गया लेकिन इस समस्या का अभी तक कोई निराकरण नहीं हो पाया है।

– पर्दा प्रथा– प्राचीन भारतीय संस्कृति में हिन्दू समाज में पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था लेकिन मध्यकाल में बाहरी आक्रमणकारियों की कुत्सित व लोलुप दृष्टि से बचाने के लिए यह प्रथा चल पड़ी, जो धीरे-धीरे हिन्दू समाज की एक नैतिक प्रथा बन गई। स्त्रियों को पर्दे में रखा जाने लगा। वह घर की चारदीवारी में कैद होकर रह गई। राजपूत समाज में तो पर्दा प्रथा अत्यंत कठोर थी। मुस्लिम समाज में यह एक धार्मिक प्रथा है।

– 19वीं शताब्दी में कुछ समाज सुधारकों ने इस प्रथा का विरोध किया, जिनमें स्वामी दयानन्द सरस्वती प्रमुख थे। पर्दा प्रथा को दूर करने हेतु उन्होंने स्त्री शिक्षा पर बल दिया।

– विधवा विवाह – ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयासों से लॉर्ड डलहौजी ने 1856 ई. में विधवा पुनर्विवाह अधिनियम बनाया। सवाई जयसिंह, स्वामी दयानन्द सरस्वती एवं संत जाम्भोजी द्वारा भी विधवा विवाह को बढ़ावा देने का प्रयास किया। श्री चांदकरण शारदा ने ‘विधवा विवाह’ नामक पुस्तक लिखी।

– चारी प्रथा – खेराड़ क्षेत्र (भीलवाड़ा – टोंक) में प्रचलित प्रथा। इस प्रथा में लड़की के माता-पिता वर पक्ष से कन्या मूल्य लेते हैं।

– दास प्रथा – दास प्रथा का सर्वप्रथम उल्लेख कौटिल्य (चाणक्य) ने अपनी पुस्तक अर्थशास्त्र में किया है। कौटिल्य ने नौ प्रकार के दासों का उल्लेख किया है। 1562 ई. में अकबर ने इस प्रथा पर रोक लगाई थी। 1832 ई. में लॉर्ड विलियम बैंटिक ने दास निवारक अधिनियम बनाया। इस प्रथा पर सर्वप्रथम 1832 ई. में कोटा-बूँदी रियासत में रोक लगाई।

– आन्न प्रथा – इस प्रथा में राणा के प्रति स्वामी भक्ति की शपथ लेनी पड़ती थी। 1863 ई. में मेवाड़ में इस प्रथा को बन्द कर दिया।

– नौतरा प्रथा – वागड़ (डूँगरपुर-बाँसवाड़ा) में प्रचलित प्रथा। इस प्रथा में व्यक्ति को आर्थिक सहायता की जाती है।

– चौथान :- कोटा में मानव व्यापार पर लिया जाने वाला कर।

– औरतों व लड़के-लड़कियों का क्रय-विक्रय नामक कुप्रथा पर सर्वप्रथम रोक कोटा राज्य में 1831 ई. में लगाई गई थी।

– सागड़ी प्रथा :- पूंजीपति या महाजन अथवा उच्च कुलीन वर्ग के लोगों द्वारा साधनहीन लोगों को उधार दी गई राशि के बदले या ब्याज की राशि के बदले उस व्यक्ति या उसके परिवार के किसी सदस्य को अपने यहाँ घरेलू नौकर के रूप में रख लेना बंधुआ मजदूर प्रथा (सांगड़ी प्रथा) कहलाती है। राजस्थान में 1961 ई. में ‘सागड़ी प्रथा निवारण अधिनियम’ पारित किया गया।

– छेड़ा फाड़ना – जो भील अपनी स्त्री का त्याग करना चाहता है, वह अपनी जाति के पंच के लोगों के सामने नई साड़ी के पल्ले में रुपये बाँधकर उसको चौड़ाई की तरफ से फाड़कर स्त्री को पहना देता है। यह भील जनजाति में तलाक की एक प्रथा है।

– नातरा / आणा प्रथा – आदिवासियों में विधवा स्त्री का पुनर्विवाह की प्रथा।

– लोकाई / कांदिया – आदिवासियों में दिया जाने वाला मृत्यु भोज।

– दापा – आदिवासी समुदायों में वर पक्ष द्वारा वधू के पिता को दिया जाने वाला वधू मूल्य।

– जवेरा – आदिवासी समुदाय द्वारा नवरात्रा अनुष्ठान समाप्ति पर निकाला जाने वाला जुलूस।

– मौताणा – किसी आदिवासी की किसी दुर्घटना या अन्य कारण से मृत्यु हो जाने पर आदिवासी समाज के पंचों द्वारा आरोपी से वसूली जाने वाली क्षतिपूर्ति राशि।

– हमेलो – जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग एवं माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध संस्थान (उदयपुर) द्वारा आयोजित किया जाने वाला आदिवासी लोकानुरंजन मेला।

– बयौरी – आदिवासी जनजाति में दिन के भोजन के बाद विश्राम का समय।

– गाधोतरो – जब किसी गाँव में वहाँ के निवासियों से परेशान होकर कोई पिछड़ी जाति गाँव छोड़ने का निर्णय लेती थी तो उस जाति के लोग गाय के सिर की पत्थर की मूर्ति उस गाँव में स्थापित कर जाति के सभी लोग गाँव छोड़ देते हैं, जिसे गाधोतरो कहा जाता है।

– हाथी वैण्डो प्रथा – भील समाज में प्रचलित वैवाहिक परम्परा इसमें पवित्र वृक्ष पीपल, साल, बाँस व सागवान के पेड़ों को साक्षी मानकर हरज व लाडी (दूल्हा-दुल्हन) जीवनसाथी बन जाते हैं।

– कोंधिया / मेक – गरासिया जनजाति में प्रचलित मृत्युभोज।

– आणा / नातरा – गरासिया जनजाति में विधवा विवाह की प्रथा।

– अनाला भोर भू प्रथा – गरासिया जनजाति में प्रचलित नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा।

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