राजस्थान – नाट्य कला

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  • राजस्थान में आदिवासी भीलों संस्कृति में लोकनाट्यों की परम्परा रही हैं जिसने राज्य में लोकनाट्यों के विकास में योगदान दिया हैं।
  • तुर्रा कलंगी – यह राजस्थान में सबसे प्राचीन लोकनाट्यों में से एक हैं। इसकी रचना मेवाड़ के दो पीर सन्तों शाहअली और तुक्कनगीर ने की थी।
  • सामंतवादी काल के दौरान लोकनाट्यों को राजकीय संरक्षण मिला जिससे वे विकसित हुए।
  • लोकनाट्य दरबारोन्मुखी थे इसलिए आम जनता तक इसकी पहुँच नहीं हो पाई। इन लोकनाट्यों का प्रदर्शन केवल कुछ पेशेवर निम्न जातियों द्वारा किया जाता था अत: यह केवल निम्न पेशेवर जातियों तक ही सीमित हो गई।
  • राजस्थान में लोकनाट्यों को उनके विविध स्वरूपों के आधार पर तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता हैं – 
  • पर्वतीय क्षेत्र – इस क्षेत्र के अन्तर्गत डूंगरपुर, उदयपुर, कोटा, झालावाड़ और सिरोही के क्षेत्र आते हैं।
  • रेगिस्तानी क्षेत्र – इस क्षेत्र में जैसलमेर, बीकानेर, बाड़मेर और जोधपुर के क्षेत्र सम्मिलित हैं।
  • पूर्वांचल क्षेत्र – इसमें जयपुर, अलवर, भरतपुर, धौलपुर तथा शेखावटी क्षेत्र शामिल हैं।
  • पहाड़ी क्षेत्रों में मीणों, भीलों, सहरियों, बणजारों तथा गरासियों आदि के द्वारा सामुदायिक मनोरंजन की संसकृति का विकास किया गया।
  • राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्रों में सरगरा, नट, भाट, भाण्ड आदि पेशेवर जनजातियों द्वारा जीविका के लिए स्वांग, लोकनाट्य आदि को मनोरंजन के रूप में विकसित किया गया।
  • भाण्ड (प्राचीन लोकनाट्य) के माध्यम से यह लोगों का मनोरंजन करते थे।
  • राजस्थान का पूर्वांचल क्षेत्र (शेखावाटी) ख्याल लोकनाट्य की प्रचलित शैली के लिए विख्यात हैं।

राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य

ख्याल

  • राजस्थान के लोकनाट्यों में ख्याल सबसे लोकप्रिय विधा हैं।
  • राजस्थान में इन लाेकनाट्यों के प्रमाण 18 वीं शताब्दी के प्रारम्भ से मिलते हैं।
  • विषय वस्तु – ख्यालों की विषय वस्तु पौराणिक विषयों से जुड़ी होने के साथ-साथ उसमें ऐतिहासिक तत्वों और वीराख्यानों का भी समावेश था।
  • भौगोलिक क्षेत्रों के अन्तर के आधार पर राज्य की प्रमुख ख्याले हैं – शेखावाटी, कुचामनी, जयपुरी, अली बख्शी, तुर्रा कलंगी, नौटंकी, किशनगढ़ी, मांची, हाथरसी आदि।
  • इन ख्यालों के ऊपर संगीत, नृत्य और गीतों की प्रधानता होती हैं। जिस ख्याल में जो तत्व ज्यादा प्रधान होगा वह उस तत्व की ख्याल कहलाएगी जैसे – संगीत ख्याल, नृत्य ख्याल आदि।

रम्मत –

  • रम्मत लोकनाट्य बीकानेर क्षेत्र के प्रसिद्ध हैं।
  • इनका प्रादुर्भाव बीकानेर क्षेत्र में 100 से भी अधिक वर्षों पूर्व सावन व होली के अवसरों के समय होने वाली लोक काव्य प्रतियोगिताओं के द्वारा हुआ हैं।
  • रम्मत की उत्पत्ति लोक कवियों के द्वारा राजस्थान के प्रसिद्ध महापुरूषों पर रचित काव्य रचनाओं को रंगमंच पर मंचित करने से हुई हैं।
  • रम्मत का प्रदर्शन मंच पर कलाकारों द्वारा दर्शकों के सामने विभिन्न प्रकार की वेशभूषा पहनकर किया जाता हैं।
  • रम्मत के दौरान नगाड़ा और ढोलक का प्रयोग मुख्य माद्य के रूप में किया जाता हैं।
  • राजस्थान के प्रमुख रम्मत क्षेत्र – बीकानेर, फलौदी, पाेकरण, जैसलमेर तथा इनके आस-पास के क्षेत्र।
  • रम्मत का सकारात्मक पहलु सामाजिक कुरीतियों के प्रति लोगों को जागरूक बनाना भी हैं।
  • लोक ख्याति अर्जित प्रमुख रम्मत – मोरध्वज, डूंगजी-जवाहरजी, राजा हरीशचन्द्र, गोपीचन्द्र भरथरी, पूरन भक्त की रम्मत आदि।

तमाशा –

  • राजस्थान में तमाशे की प्रसिद्ध परम्परा जयपुर में रही हैं।
  • जयपुर के महाराजा प्रतापसिंह के काल में इस लोकनाट्य की उत्पत्ति हुई।
  • उत्तर भारत से इस लोकनाट्य का विकास दक्षिण भारत में भी हुआ।
  • दक्षिण भारत में तमाशा लोकनाट्य का प्रसार करने वाले ये लोग ‘भट्ट’ कहलाते हैं।
  • भट्‌ट परिवारों के द्वारा तमाशा लोकनाट्य में जयपुरी ख्याल और ध्रुपद गायकी को शामिल किया गया हैं।
  • इस लोकनाट्य में संवाद काव्यमय होते हैं तथा तमाशे का मंचन खुले मंच पर किया जाता हैं।

भवाई –

  • राजस्थान के गुजरात की सीमा वाले क्षेत्रों में भवाई नामक नृत्य नाटिका प्रसिद्ध हैं।
  • यह नाट्यकला व्यावसायिक हैं।
  • भवाई के पात्र व्यंग्यवक्ता होते है जिनका लक्ष्य सामाजिक तथा तत्कालिन समस्याओं पर लोगों का ध्यान आकर्षित करना होता हैं।
  • इनका प्रदर्शन परम्परा के आधार पर किया जाता हैं किन्तु इसमें तत्कालिन सामाजिक समस्याओं का समावेश रहता हैं।
  • इसमें कथानक पर कम ध्यान दिया जाता हैं तथा गायन, नृत्य और हास्य पर ज्यादा ध्यान दिया जाता हैं।
  • भवाई जाति की उत्पति अजमेर के “नागोजी जाट’ ने की थी ।
  • भवाई जाति का आदि पुरूष “बाघाजी’ को माना जाता है।
  • मेवाड़ आंचल का प्रसिद्ध लोक नाट‌्य।
  • व्यवसायिक प्रकृति
  • इसमें कथानक पर कम ध्यान दिया जाता है तथा गायन, नृत्य हास्य पर अधिक जोर दिया जाता है।
  • इसमें बिना रंगमंच के पात्र व्यंग्यात्मक शैली में तात्कालिक सवाल-जवाब तथा समााजिक समस्याओं पर चोट करते है। भवाई शैली पर आधारित “शांति गांधी’ लिखित जस्मा –ओडन प्रसिद्ध नाट्य हैं।  
  • “सांगीलाल सागड़ियाॅ’ भवाई नाट्य के प्रसिद्ध कलाकार हैं। 

नौटंकी –

  • राजस्थान में नौटंकी का खेल धौलपुर तथा भरतपुर और उनके आस-पास के क्षेत्रों में किया जाता हैं।
  • नौटंकी का मंचन अखाड़ों द्वारा किया जाता हैं। प्रमुख अखाड़े – गंगापुर, करौली, अलवर तथा सवाई माधोपुर।
  • नौटंकी के प्रमुख विषयों के मंचन में नकाबपोश, सत्य हरीशचन्द्र, राजाभरथरी, रूप बसन्त आदि प्रमुख हैं।
  • इनका आयोजन सामाजिक समारोह, मेलों, विवाह-शादी तथा लोकोत्सवों के अवसर पर किया जाता हैं।

पारसी थियेटर –

  • इसका प्रादुर्भाव 20 वीं सदी के प्रारम्भ में एक रंगमंच कला के रूप में हुआ।
  • इस शैली का विकास इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध ‘शेक्सपीरियन थियेटर’ से प्रभावित होकर हुआ था।
  • पारसी थियेटर के प्रमुख तत्व –  
  1. नाटक के कथात्मक स्वरूप का निश्चित होना।
  2. मंचन करने वाले अभिनेताओं द्वारा मुख मुद्राओं तथा हाव-भाव का प्रदर्शन।
  3. संवाद की एक विशेष किस्म की शैली।  
  • राजस्थान में पारसी थियेटर शैली का प्रभाव 20 वीं सदी के तीसरे दशक में दिखाई देता हैं इस समय जयपुर व अलवर में महबूब हसन नामक व्यक्ति ने पारसी शैली में अनेक नाटकों का मंचन किया था। उनका यह प्रयास व्यक्तिगत था क्योंकि तत्कालिन राजाओं और राज्यों के अलग थियेटर हुआ करते थे।
  • इस दौर में थियेटर कला का आयोजन स्वतंत्र रूप से किया जा सकता था जिसमें अनेक कम्पनियाँ, मण्डल और थियेटर ग्रुप नाटकों का निर्माण करते थे।
  • गुणिजनखाना –
  • जयपुर में राजकीय संरक्षण में संचालित थियेटर विभाग।
  • इसकी स्थापना सवाई जयसिंह द्वितीय द्वारा जयपुर नगर की स्थापना के साथ हुआ था।
  • गुणिजनखाने के संबंध में मिलने वाले दस्तावेज के द्वारा राज्य में 17 वीं व 18 वीं शताब्दी में प्रचलित प्रदर्शन कलाओं के सन्दर्भ में जानकारी मिलती हैं।
  • राज्य की इन प्रदर्शनी कलाओं में परम्परा तथा संस्कृति के संबंध में बांटा जाता हैं।
  • परम्परागत प्रदर्शनी कलाओं के अन्तर्गत घरानाें का विशेष महत्त्व था।
  • जयपुर के रामप्रकाश थियेटर तथा झालावाड़ के थियेटरों के द्वारा इस कला का जुड़ाव आम जनता से हुआ तथा थियेटरों के विकास की स्वतंत्र शैली का विकास हुआ।
  • राजस्थान में कन्हैयालाल पंवार तथा माणिकलाल डांगी पारसी थियेटर के प्रसिद्ध रंगकर्मी थे। इनके प्रसिद्ध नाटकों में ढोला मारू, चुनरी, सीता बनवास, कृष्ण-सुदामा आदि प्रमुख हैं।
  • राजस्थान सरकार ने स्वतंत्रता के संगीत नाटक अकादमी की स्थापना के द्वारा इनके संरक्षण का प्रयास किया।
  • जयपुर में प्रसिद्ध रवीन्द्र मंच और उदयपुर में भारतीय लोक कला मण्डल प्रमुख रंगमंचशालाएं हैं।

गवरी –

  • राजस्थान के अन्दर मेवाड़ की गवरी प्रसिद्ध हैं।
  • इसके अन्तर्गत अनेक प्रकार की नृत्य नाटिकाएँ और झांकियों का प्रदर्शन किया जाता हैं जिनका विषय पौराणिक तथा लोक जीवन से संबंधित होता हैं।
  • गवरी का उद्भव शिव-भस्मासुर की कथा से होता हैं जिसमें भस्मासुर का भगवान विष्णु द्वारा अन्त किये जाने के उपलक्ष में शिवजी द्वारा भीलों के साथ नृत्य किया गया था जो गवरी के रूप में प्रचलित हुआ।
  • अरावली क्षेत्रों में रहने वाले भीलों के द्वारा प्रतिवर्ष 140 दिनों का गवरी समारोह आयोजित किया जाता हैं।
  • यह समारोह उदयपुर के आस-पास के क्षेत्रों में मानसून की समाप्ति के समय किया जाता हैं।
  • गवरी रंगमंचीय, कलात्मक तथा सांस्कृतिक अभिनय का मेल हैं।
  • गवरी लोकनाट्य का प्रचलन भील समुदाय की ऐतिहासिक परम्परा से जुड़ा हुआ हैं। इसका आयोजन रक्षा बन्धन के दूसरे दिन से प्रारम्भ होता हैं।
  • गवरी के पात्र बावन भैरू, चौसठ योगीनी और नव-लाख देवी-देवताओं की पूजा करते हैं।
  • गवरी लाकनाट्य का प्रमुख पात्र बूढ़िया भस्मासुर का जप होता है तथा अन्य प्रमुख पात्र राया होता हैं जो स्त्री वेश में हाेता हैं।
  • झामट्या पात्र कविता बोलता हैं और खट्कड्या इसे दोहराता हैं। गवरी के अन्य सभी पात्रों को खेला कहते हैं।
  • गवरी के पात्रों द्वारा भमरिया, गणपति, मीणा, कान-गूजरी, जोगी, नटड़ी, लाखा बणजारा आदि प्रमुख खेल होते हैं।
  • गवरी नाट्य के प्रमुख वाध्य – मंजीरा, चीमटा, मादल और थाली।
  • गवरी के आयोजन के समय राई, बूढ़िया और भोपा 40 दिनों तक कठोर नियमों का पालन करते हैं।
  • गवरी समाप्ति से दो दिन पहले जवारें बोये जाते है तथा 40 वें दिन जवारा और मिट्टी के साथ गवरी का विसर्जन किया जाता हैं।
  • गवरी की समाप्ति के छठे दिन नवरात्रि का प्रारम्भ होता हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

  • राजस्थान में आदिवासी भीलों की संस्कृति में लोकनाट्यों की परम्परा रही है जिसने राज्य में लोकनाट्यों के विकास में योगदान दिया हैं।
  • अलवर एवं भरतपुर के लोक नाट‌्यों में हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश की लोक संस्कृतियों का मिला-जुला रूप देखने को मिलता हैं।
  • धौलपुर एवं सवाई माधोपुर के लोक नाट‌्यों पर स्पष्टत: ब्रजभूमि की संस्कृति का प्रभाव झलकता हैं।
  • राजस्थान में लोकनाट्यों की नियमित परम्परा का प्रचलन 18 वीं सदी के पूर्वार्द्ध में शुरू हो गया था।
  • राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्रों में सरगरा, नट, भाट आदि पेशेवर जनजातियों द्वारा जीविका के लिए स्वांग, लोकनाट‌्य आदि को मनोरंजन के रूप में विकसित किया गया।

राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य :-

(1) ख्याल :-

विषय :- पौराणिक, ऐतिहासिक एवं वीराख्यान।

राजस्थान के लोकनाट्यों में सबसे लोकप्रिय विद्या हैं।

संगीत प्रधान लोकनाट्य ।

प्रमाण :- 18 वीं सदी में।

प्रयुक्त वाद्य यंत्र -: नगाड़ा, हारमोनियम, सारंगी, मंजीरा, ढोलक।

क्र.सं.ख्याल का नामप्रवर्तकप्रचलन क्षेत्रविशेषताएं
1.तुर्रा-कलंगी ख्यालशाह अली (शक्ति उपासक) तुक्कनगीर (शिव उपासक)निम्बाहेड़ा, घोसूण्डा(चतौड़) नीमच (MP)मंच की संजावट, सर्वाधिक दर्शक भाग लेने की सम्भावना, गैर व्यवसायिक प्रकृति। वाद्य यंत्र-चंग। काव्यात्मक शैली में संवाद। राजा हरिश्चन्द्र, रूकमणी-मंगल, राजा मोरध्वज, ऊखा चरित्र, इन्द्र सभा आदि तुर्रा-कलंगी की ख्याले है। इसमें स्त्री पात्रों की भूमिका पुरूष ही निभाते है।
2.अली बख्शी ख्यालराजा अलीबक्श के समयमुण्डावर (अलवर)अलीबक्श को अलवर का “रसखान’ कहा जाता है। कृष्ण लीला, निहालदे, चन्द्रावत, गुलकावली, अलवर का सिफ्तनामा अलीबक्शी द्वारा रचित प्रमुख ख्याले है।
3.कुचामनी ख्याललच्छीरामनागौर व निकटवर्ती क्षेत्रहास्य विनोद व लोकगीतों की प्रधानता। “ओपेरा’ जैसा रूप।खुले मंच का प्रयोग।लोकगीतों की प्रधानता।सामाजिक व्यंग्य पर आधारित कथा वस्तु का चुनाव। प्रमुख ख्याले – चांद-नीलगिरि, राव रिड़मल, मीरा-मंगल प्रसिद्ध कलाकार -: उगमराजवाद्ययंत्र -: ढोल,शहनाई, सारंगी
4.हेला ख्यालशायर हेलालालसोट (दौसा), करौली, सवाई माधोपुरलम्बी टेर देना।हेला ख्याल गणगौर पर्व के पश्चात् किया जाता है।वाद्य यंत्र-नोबत।
5.शेखावटी (चिड़ावा) ख्यालनानूरामशेखावटी क्षेत्र के सीकर, खण्डेला, जायल (नगौर)गायन, वादन व नर्तन तीनों का सम्प्रेिषत मिश्रण। हीर-रांझा, ढोला-मरवण, हरिशचन्द, आल्हादेव, भर्तृहरि आदि लोकप्रिय ख्याल
6.जयपुरी ख्यालसवाईसिंह के समय भूपत खां द्वाराजयपुर एवं निकटवर्ती क्षेत्रस्त्री पात्रों की भूमिका स्त्रियों द्वारा मुक्त एवं लचीली शैलीलोकप्र्रिय ख्याले -: जोगी-जोगन, कान-गूजरी, पठान, मिया-बीबी, रसीली तम्बोलनप्रसिद्ध कलाकार -: गुणीजन खाना के कलाकार
7.कन्हैया ख्यालश्री महावीर जी(करौली), सवाई माधोपुर, भरतपुर, धौलपुरमीणा समुदाय में प्रचलित। रामायण-महाभारत के प्रसंगो पर आधारित।वाद्य-: नौबत, ढप, चमटे, घेरागीत प्रस्तुतीकरण में “मेड़िया’ एवं “उल्टी मींड’ की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। ये दंगल मई-जून में दिन में होते है।

रम्मत -: रम्मत का अभिप्राय खेल है।

रम्मत बीकानेर, जैसलमेर, पोकरण और फलौदी क्षेत्र में होती है।

साहित्यिकता रम्मतों की मुख्य विशेषता है।

रम्मत बीकानेर की लोकप्रिय लोकनाट्य विधा है।

रम्मतों के गीत चौमसा लावणी (भक्ति और शृंगार विषयक), गणपति वन्दना, व्यक्ति विशेष से संबंधित होते है।

बीकानेर के रम्मतों का प्रारम्भ “फक्कड़दाता री रम्मत’ से होता है।

पाटा संस्कृति का सम्बन्ध रम्मत लोकनाट्य से है।

प्रमुख रम्मते -: पूरन भक्त, मोरध्वज, अमरसिंह राठौड़ री रम्मत, बारह गुवाड़ की रम्मत, हिडाउमेरी री रम्मत, रावलों की रम्मत आदि प्रमुख रम्मते है।

हिडाउ मेरी -: एक आदर्श पति-पत्नी पर आधारित सर्वाधिक लोकप्रिय रम्मत जिसकी रचना जवाहरलाल पुरोहित ने की।

प्रमुख रम्मत कलाकार -: श्री मनीराम व्यास, फागू महाराज, सुआ महाराज, श्री रामगोपाल मेहता, सोई सेवग, गीडोंजी आदि।

खेलार -: रम्मत खेलने वाले।

रम्मत में रंगमंचीय साज-सज्जा नहीं होती है।

बीकानेर में आचार्यों का चौक रम्मतों के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं सुव्यवस्थित अखाड़ा है।

रम्मत आज भी गैर-पेशेवर लोक नाट्य का ही रूप लिये हुए है।

जैसलमेर में तेजकवि ने रम्मतों का अखाड़ा प्रारम्भ किया था। तेजकवि ने “स्वतंत्र बावनी’, मूमल, जोगी भर्तृहरि, छबीली तम्बोलन आदि प्रसिद्ध रम्मते रची थी। 1943 में तेजकवि ने “स्वतंत्र बावनी’ की रचना कर इसे महात्मा गांधी को भेट किया।

सकमल एवं तुलसीराम जैसलमेर की रम्मतों के अन्य कलाकार थे। तेजकवि ने अपनी रम्मत का अखाड़ा श्रीकृष्ण कम्पनी से शुरू किया ।

रम्मत के दौरान नगाड़ा एवं ढोलक का प्रयोग मुख्य वाद्य के रूप में किया जाता है।

तमाशा -: जयपुर की परम्परागत लोक नाट‌्य शैली।

यह जयपुरी ख्याल व ध्रुपद धमार गाियकी का सम्मिलित रूप है।

यह महाराष्ट्र की लोक नाट्य शैली तमाशा से प्रभावित है। आमेर के राजा मानसिंह प्रथम (1594) के समय प्रादुर्भाव। इस समय मोहन कवि द्वारा रचित नाट्य “धमाका मंजरी’ का आमेर में प्रदर्शन किया गया ।

जयपुर महाराजा “प्रतापसिंह’ ने तमाशा के प्रमुख कलाकार “बंशीधर भट्ट’ को अपने गुणीजनखाने में पश्रय देकर इस लोक नाट्य विधा को प्रोत्साहित किया गया।

तमाशे में तबला, सारंगी, नक्कारा और हारमोनियम ही प्रमुख वाद्य हैं।

कलाकार -: गोपीजी भट्ट, फूलजी भट्ट, मन्नूजी भट्ट।

पठान, कान-गुजरी, रसीली-तम्बोलन, हीर-रांझा, जोगी-जोगन -: बंशीधर भट्ट द्वारा रचित तमाशे।

तमाशों में स्त्री पात्रों की भूमिका स्त्रियों द्वारा ही अभिनित की जाती है।

तमाशें में काव्यात्मक संवाद खुले रंगमंच पर होता है, जिसे “अखाड़ा’ कहते है।

गन्धर्व नाट्य -: मारवाड़ के निवासी गन्धर्व पेशेवर नृत्यकार होते है। इनके द्वारा “अंजना सुन्दरी’ “मैना सुन्दरी’ नामक संगीत नाट्यों का प्रदर्शन किया जाता था। यह संगीत नाट‌्य जैन धर्म पर आधारित होते है।

सवारी नाट्य -: सवारी अथवा जुलूस के रूप में नाट्य प्रदर्शन राजस्थान की प्राचीन परम्परा है।

सवारी नाट्य प्रदर्शन धार्मिक एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित होता है।

भरतपुर जिले के जुरहरा की रामलीला सवारी अत्यधिक प्रसिद्ध है।

दंगली नाट्य -: धौलपुर का बाड़ी-बसेड़ी क्षेत्र भेंट के दंगल तथा करौली क्षेत्र कन्हैया के दंगल के लिए विख्यात है।

चारबैत -: टोंक की संगीत दंगल रूपी लोक नाट्य विद्या यह पठानी मूल की काव्य विधा है जिसका गायन पहले पश्तो भाषा में होता था।

चारबैत लोक नाट‌्य शैली टोंक के नवाब फैजुल्ला खां के समय अब्दूल करीम खां एवं खलीफा करीम खां निहंग ने प्रारम्भ की।

रासलीला :- भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर आधारित लोकनाट‌्य। वल्लभाचार्य (वल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक) द्वारा शुरूआत।

इसमें नृत्य एवं संगीत पक्ष प्रबल होता है।

राजस्थान में शिवलाल कुमावत ने इसे विशेष स्वरूप प्रदान किया।

रामलीला :- भगवान श्रीराम के जीवन गाथा पर आधारित लोकनाट्य।

केन्द्र :- बिसाऊ, पाटूंदा तथा भरतपुर।

बिसाऊ की रामलीला मूकाभिनय पर आधारित है व प्रत्येक पात्र मुखौटे पहनता है ।

अटरू की धनुषलीला में धनुष राम द्वारा नहीं तोड़ा जाता बल्कि विवाह योग्य युवकों द्वारा तोड़ा जाता है।

जुरहरा की रामलीला में पंं. शोभाराम की लिखी लावणियां होती है।

सनकादिकों की लीलाएँ -: शरद पूर्णिमा के अवसर पर घोसूण्डा एवं बस्सी में सनकादिक लीलाओं का आयोजन किया जाता है। आबू क्षेत्र के गरासिए गणगौर पर “गौरलीला’ करते है।

स्वांग -:

शाब्दिक अर्थ :- किसी विशेष ऐतिहासिक, पौराणिक, लोक प्रसिद्ध एवं समाज में विख्यात चरित्र या देवी-देवता की की नकल करना।

भीलवाड़ा जिले के माण्डल में “नारों का स्वांग’ बड़ा प्रसिद्ध है।

स्वांग रचने वाले व्यक्ति को “बहरूपिया’ कहा जाता है । राजस्थान में स्वांग लोक नाट्य का प्रचलन 13वीं-14वीं सदी में माना जाता है।

मारवाड़ में रावल जाति के व्यक्ति स्वांग नाट्य का प्रदर्शन करते है।

बहरूपिया/भाण्ड -: अपना रूप एवं अभिनय चरित्र के अनुसार बदलने में माहिर।

यह नकलची कला में दक्ष होते है।

धनरूप नामक भाण्ड को महाराजा मानसिंह द्वारा जागीर दी गई।   

भानमति एवं भाण्ड मारवाड़ की विशिष्ट नकलची जाति है।

विलुप्त प्राय: कला।

नामी कलाकार -: परशुराम भाण्ड (केलवा)

भीलवाड़ा के जानकीलाल ने भारत उत्सवों में राजस्थान की बहरूपिया कला का प्रतिनिधित्व कर बहरूपिया कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।

नाैटंकी -:

शाब्दिक अर्थ – नाटक का अभिनय करना।

राजस्थान में नौटंकी का खेल भरतपुर, धौलपुर, करौली, सवाई  माधोपुर क्षेत्रों में किया जाता हैं।

राजस्थान में नौटंकी का प्रचलन श्री भूरीलाल (डीग निवासी) ने किया ।

प्रसिद्ध खिलाड़ी -: गिरिराज प्रसाद (कामां)

नौटंकी के प्रसिद्ध खेलों में नल-दमयन्ती, लैला-मजनूं, नकाबपोश, रूप-बंसत, राजा भर्तृहरि, सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र आदि प्रमुख है।

नौटंकी में नौ प्रकार के वाद्यों का प्रयोग किया जाता था।

“आशा की नाैटंकी’ सम्पूर्णी पूर्वी राजस्थान में प्रसिद्ध रही है। नौटंकी का आयोजन सामाजिक समारोहों, मेलों, विवाह-शादी तथा लोकोत्सवों के अवसर पर किया जाता है।

गवरी -:

राजस्थान का सबसे प्राचीन लाेक नाट्य।

उपनाम -: लोक नाट्यों का मेरू नाट्य।

यह भीलों द्वारा भाद्रपद माह के प्रारम्भ से आश्विन शुक्ला एकादशी तक गवरी उत्सव में किया जाने नाट‌्य  यह डूंगरपुर-बांसवाड़ा, उदयपुर, भीलवाड़ा एवं सिराेही क्षेत्रों में अधिक प्रचलित है।

गवरी लोकनाट्य का मुख्य आधार शिव तथा भस्मासुर की कथा है।  

भगवान शिव इस नाट्य के प्रमुख पात्र होते है।

इस नृत्य नाट्य में शिव को “पुरिया’ कहा जाता है।

राखी (रक्षाबन्धन) के अगले दिन से इसका प्रदर्शन 40 दिन तक चलता है।

इस नाट्य में स्त्रियों की भूिमका भी पुरूष करते है।

राई बुढ़िया, राईया, खटकड़िया, झामट्या तथा पाट भोपा इस नाट्य के पात्र होते है।

इस नाट्य के अन्य पात्र खेल्ये (खेला) कहलाते है।

“झामट्या’ लोक भाषा में कविता बोलता है तथा “खट्कड़िया’ उसे दोहराते है।

“कुटकुड़ियां’ इस नाट्य का सूत्रधार होता है।

इस मूल कथा नाट्य के साथ बनजारा-बनजारी, बादशाह की सवारी, हठिया अम्बाव, भियावड़, खाड़लिया भूत, कानगूजरी, कामा-मीणा, कालूकीर आदि गवरी के मुख्य प्रसंग व लघु नाटिकाऍ है।  

गवरी एक विशुद्ध धार्मिक लोक नाट्य है।

गळावन-बळावन की रस्म से गवरी की विदाई होती है।

नाट्य के वाद्य -: मंजीरा, चिमटा, मांदल एवं थाली।

गवरी की समाप्ति के छठे दिन नवरात्रि का प्रारम्भ होता है।

कठपुतली -: भारत में कठपुतली कलां की सात शैलियाॅ है। इनमें सूत्र संचालित पुतलिया (राजस्थान), बम्बोलोटम पुतलियां (दक्षिण भारत), छाया पुतलियां (आ.प्र.) छड़ पुतलियां (बंगाल) प्रमुख है। राजस्थान की कठपुतलियां भाटों एवं नटों द्वारा नचाई जाती है।

पारसी थियेटर -:

इसका प्रादुर्भाव 20वीं सदी के प्रारम्भ में एक रंगमच कला के रूप में हुआ है।

इस शैली का विकास इग्लैण्ड के प्रसिद्ध “शैक्सपीरियन थियेटर’ से प्रभावित होकर हुआ था।

पारसी थियेटर के तीन तत्व -:

(i) नाटक के कथानक स्वरूप का निश्चित होना।

(ii) मंचन करने वाले अभिनेताओं द्वारा मुखमुद्राओं तथा हाव-भाव का प्रदर्शन।

(iii) संवाद की एक विशेष किस्म की शैली।

  • जयपुर तथा अलवर में महबूब हसन नामक व्यक्ति ने पारसी शैली में अनेक नाटक मंचित किये।

         गुणीजनखाना -: जयपुर राज्य के राजकीय संरक्षण में संचालित थियेटर विभाग।  

  • राजस्थान में प्रथम पारसी थियेटर की स्थापना “रामप्रकाश रगमंच’ के नाम से महाराजा रामसिंह द्वितीय ने 1878 ई. में करवाई थी।
  • भवाई नाट्यशाला -: झालावाड़ 1921 में भवानीसिंह द्वारा ऑपेरा शैली में निर्मित।

      पश्चिमी तकनीक पर भारत में खेला गया प्रथम नाटक -: इन्द्रसभा       (लखनऊ में)

  • राजस्थानी नाटकों के जनक एवं निर्देशक -:

श्री कन्हैयालाल पंवार।

  • राजस्थान में पारसी थियेटर के प्रसिद्ध रंगकर्मी -: माणिक्यलाल डांगी एवं कन्हैयालाल पंवार।
  • कन्हैयालाल पंवार द्वारा अभिमंचित नाटक -:

1. रामू चनणा

2. ढोला-मारू

3. चुनरी

4. सीता बनवास

5. कृष्ण सुदामा।

  • “यहूदी की लड़की’ नाटक का अभिमंचन 1977 में ए.पी. सक्सेना ने किया।
  • रूपायन संस्थान -: बोरून्दा में स्व. श्री कोमल कोठारी एवं विजयदान देथा द्वारा स्थापित (1960 में स्थापित)।
  • “दरिन्दे’ नामक नाटक का निर्देशन सरताज माथुर ने किया।
  • केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी -: जोधपुर।

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