राजस्थानी हस्तकला

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  • हाथों द्वारा कलात्मक एवं आकर्षक वस्तुओं को बनाना ही हस्तशिल्प (हस्तकला) कहलाता है। राजस्थान में निर्मित हस्तकला की वस्तुएँ न केवल भारत में प्रसिद्धि पा रही है बल्कि विदेशों में भी इन वस्तुओं ने अलग अमिट छाप छोड़ी है। आज भी राजस्थान अपनी हस्तकला के लिए सम्पूर्ण देश में ‘हस्तशिल्पों के आगार’ के रूप में जाना जाता है। राज्य की बंधेज कला, छपाई, चित्रकारी, मीनाकारी, पॉटरी कला, मूर्तिकला आदि हस्तकलाएँ विश्वभर में प्रसिद्ध है।
  • राजस्थान में राज्य औद्योगिक नीति 1988 में हस्तशिल्प उद्योग पर विशेष बल दिया गया है।
  • राजस्थान में हस्तकला का सबसे बड़ा केन्द्र ‘बोरानाडा’ (जोधपुर) में है।

1. वस्त्र पर हस्तकला :- वस्त्र पर हस्तकला में पिंजाई, छपाई, बुनाई, रंगाई, कढ़ाई एवं बन्धेज का कार्य किया जाता है।

(क) छपाई कला (ब्लॉक प्रिन्ट) :- 

  • कपड़े पर परम्परागत रूप से हाथ से छपाई का कार्य छपाई कला या ब्लॉक प्रिन्ट कहलाता है। राज्य में छपाई का कार्य छीपा/खत्री जाति के लोगों द्वारा किया जाता हैं। लकड़ी की छापों से की जाने वाली छपाई को ‘ठप्पा या भांत’ कहते हैं। कपड़ों पर डिजाइन बनाकर बारिक धागों से छोटी-छोटी गाँठें बाँधने को ‘नग बाँधना’ कहते हैं। राजस्थान की छपाई का प्राचीनतम उदाहरण मिस्र की पुरानी राजधानी अल फोस्तान में 969 ई. की कब्रों में राजस्थानी व गुजराती छींटों को दफनाए मृत शरीर के साथ लपेटा हुआ मिला है। राजस्थान में बगरू (जयपुर), सांगानेर (जयपुर), बाड़मेर, बालोतरा, पाली, आकोला (चित्तौड़गढ़) आदि रंगाई-छपाई के लिए प्रसिद्ध है।

(i) अजरख प्रिन्ट :- ‘बाड़मेर’ अजरख प्रिन्ट से छपे वस्त्रों के लिए प्रसिद्ध है। अजरख की विशेषता है – दोनों और छपाई। अजरख प्रिन्ट में विशेषत: नीले व लाल रंग का प्रयोग किया जाता है।

(ii) मलीर प्रिन्ट :- मलीर प्रिन्ट के लिए बाड़मेर प्रसिद्ध है।

बाड़मेर की मलीर प्रिन्ट में कत्थई व काले रंग का प्रयोग किया जाता है।

बाड़मेर छपाई में कपड़े पर ठप्पे छपाई की नई तकनीक ‘टिन सेल छपाई’ से छपाई की जाती है

(iii) दाबू प्रिन्ट :- चित्तौड़गढ़ जिले का आकोला गाँव दाबू प्रिन्ट के लिए प्रसिद्ध है। दाबू का अर्थ दबाने से है। रंगाई-छपाई में जिस स्थान पर रंग नहीं चढ़ाना हो, तो उसे लई या लुगदी से दबा देते हैं। यही लुगदी या लई जैसा पदार्थ ‘दाबू’ कहलाता है, क्योंकि यह कपड़े के उस स्थान को दबा देता है, जहाँ रंग नहीं चढ़ाना होता है।

राजस्थान में तीन प्रकार का दाबू प्रयुक्त होता हैं।

(A) मोम का दाबू :- सवाईमाधोपुर में।

(B) मिट्‌टी का दाबू :- बालोतरा (बाड़मेर) में।

(C) गेहूँ के बींधण का दाबू :- बगरू व सांगानेर में।

आकोला में हाथ की छपाई में लकड़ी के छापे प्रयोग किए जाते हैं, उन्हें बतकाड़े कहा जाता है। इसका निर्माण खरादिए द्वारा किया जाता है।

(iv) बगरू प्रिन्ट :- जयपुर के बगरू प्रिन्ट में लाल व काला रंग विशेष रूप से प्रयुक्त होता है।

(v) सांगानेरी प्रिंट :- सांगानेरी छपाई लट्‌ठा या मलमल पर की जाती है। ठप्पा (छापा) और रंग सांगानेर की विशेषता है। सांगानेर में छपाई का कार्य करने वाले छीपे नामदेवी छीपे कहलाते हैं। सांगानेरी प्रिन्ट में प्राय: काला और लाल रंग ज्यादा काम में लाए जाते हैं। सांगानेरी प्रिन्ट को विदेशों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय ‘मुन्नालाल गोयल’ को जाता है।

(vi) जाजम प्रिंट :- आकोला (चित्तौड़गढ़) की जाजम प्रिंट प्रसिद्ध है। इस प्रकार की छपाई में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। यहाँ की छपाई के घाघरे प्रसिद्ध हैं।

(vii) ‘रुपहली’ व ‘सुनहरी छपाई’ के लिए प्रसिद्ध :- किशनगढ़, चित्तौड़गढ़ व कोटा।

(viii) चुनरी भांत की छपाई के लिए प्रसिद्ध :- आहड़ और भीलवाड़ा।

(ix) सुनहरी छपाई के लिए प्रसिद्ध :- मारोठ व कुचामन।

(x) भौंडल (अभ्रक) की छपाई के लिए प्रसिद्ध :- भीलवाड़ा।

(xi) टुकड़ी छपाई के लिए प्रसिद्ध :- जालौर व मारोठ (नागौर)।

(xii) खड्‌ढी की छपाई के लिए प्रसिद्ध :- जयपुर व उदयपुर।

राजस्थान छीटों की छपाई के लिए सदा प्रसिद्ध रहा है। छीटों का उपयोग स्त्रियों के ओढ़ने और पहनने दोनों प्रकार के वस्त्रों में होता है। छीटों के मुख्यत: दो भेद हैं : छपकली और नानण। विवाहोत्सवों में वधू के लिए ‘धांसी की साड़ी’ काम में लाई जाती है। लहरदार छपाई के लूगड़ों को ‘लेहरिया’ कहते हैं। लेहरियों के मुख्य रंग के मध्य छपाई की रेखाएँ ‘उकेळी’ कहलाती है। मोठड़ा का लेहरिया बंधाई के लिए राजस्थान के जोधपुर और उदयपुर शहर प्रसिद्ध हैं।

फाँटा/फेंटा :- गुर्जरों और मीणों के सिर पर बाँधा जाने वाला साफा।

(A) चारसा :- बच्चों के ओढ़ने का वस्त्र।

(B) सोड पतरणे :- उपस्तरण।

(C) सावानी :- कृषकों के अंगोछे।

बयाना अपने नील उत्पादन के लिए जाना जाता था।

(ख) सिलाई :- कपड़े को काट-छाँटकर वस्त्र बनाने वाला कारीगर ‘दरजी’ कहलाता है।

– मेवाड़ में कोट के अन्दर रुई लगाने की प्रक्रिया ‘तगाई’ कहलाती है।

– विभिन्न रंगों के कपड़ों को विविध डिजाइनों में काटकर कपड़े पर सिलाई की जाती है, जो पेचवर्क कहलाता है। पेचवर्क शेखावटी का प्रसिद्ध है।

कढ़ाई :- सूती या रेशमी कपड़े पर बादले से छोटी-छोटी बिंदकी की कढ़ाई मुकेश कहलाती है। राजस्थान में सुनहरे धागों से जो कढ़ाई का कार्य किया जाता है उसे ‘जरदोजी’ का कार्य कहा जाता है।

भरत, सूफ, हुरम जी, आरी आदि शब्द कढ़ाई व पेचवर्क से संबंधित हैं।

काँच कशीदाकारी के लिए ‘रमा देवी’ को राज्य स्तरीय सिद्धहस्त शिल्पी पुरस्कार 1989-90 दिया गया। चौहटन (बाड़मेर) में काँच कशीदाकारी का कारोबार सर्वाधिक हैं। राजस्थान में रेस्तिछमाई के ओढ़ने पर जरीभांत की कशीदाकारी जैसलमेर में होती है।

गोटा :- सोने व चाँदी के परतदार तारों से वस्त्रों पर जो कढ़ाई का काम लिया जाता है उसे ‘गोटा’ कहते हैं। कम चौड़ाई वाले गोटे को लप्पी कहते है। खजूर की पत्तियों वाले अलंकरण युक्त गोटा को ‘लहर गोटा’ कहते हैं।

गोटे का काम जयपुर व बातिक का काम खण्डेला में होता है।

गोटे के प्रमुख प्रकार :- लप्पा, लप्पी, किरण, बांकड़ी, गोखरू, बिजिया, नक्शी आदि।

जयपुर का गुलाल गोटा देशभर में प्रसिद्ध है। जयपुर का गुलाल गोटा लाख से निर्मित है।

(ग) रंगाई :- वस्त्रों की रंगाई का काम करने वाले मुसलमान कारीगर रंगरेज कहलाते हैं। सीवन खाना, रंग खाना, छापाखाना सवाई जयसिंह द्वारा संस्थापित कारखाने हैं जो वस्त्रों की सिलाई, रंगाई एवं छपाई से सम्बन्धित थे।

रंगाई के प्रमुख प्रकार :- पोमचा, बन्धेज, लहरियां, चुनरी, फेंटया, छींट आदि।

बन्धेज :- कपड़े पर रंग चढ़ाने की कला।

चढ़वा/बंधारा :- बंधाई का काम करने वाले कारीगर।

बंधेज का सर्वप्रथम उल्लेख :- हर्षचरित्र में (बाणभट्‌ट द्वारा लिखित)।

बाँधणूँ के प्रकार :- डब्बीदार, बेड़दार, चकदार, मोठड़ा, चूनड़ और लेहर्‌या।

जयपुर का बन्धेज अधिक प्रसिद्ध है। जरी के काम के लिए जयपुर विश्व प्रसिद्ध है।

– राज्य में बन्धेज की सबसे बड़ी मंडी जोधपुर में है तो बन्धेज का सर्वाधिक काम सुजानगढ़ (चूरू) में होता है।

– ऐसा माना जाता है कि बन्धेज कला मुल्तान से मारवाड़ में लाई गई थी।

– बन्धेज कार्य के लिए तैय्यब खान (जोधपुर) को पद्‌मश्री से सम्मानित किया जा चुका है।

– बन्धेज कला की नींव सीकर के फूल भाटी व बाघ भाटी नामक दो भाईयों ने रखी।

पोमचा :- स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र।

प्रकार :- 1. कोड़ी 2. रेणशाही 3. लीला 4. सावली

पोमचा का तात्पर्य :- कमल फूल के अभिप्राय युक्त ओढ़नी। राज्य में पोमचा वंश वृद्धि का प्रतीक माना जाता है। पोमचा बच्चे के जन्म पर नवजात शिशु की माँ के लिए पीहर पक्ष की ओर से आता है।

बेटे के जन्म पर पीला व बेटी के जन्म पर गुलाबी पोमचा देने का रिवाज है।

जयपुर का पोमचा पूरे राज्यभर में प्रसिद्ध है।

पोमचा सामान्यत: पीले रंग का ही होता है।

पीले पोमचे का ही एक प्रकार ‘पाटोदा का लूगड़ा’ सीकर के लक्ष्मणगढ़ तथा झ़ंुझुनूं का मुकन्दगढ़ का प्रसिद्ध है।

चीड़ का पोमचा राज्य के हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित है।

लहरिया :- राज्य में विवाहिता स्त्रियों द्वारा ओढ़ी जाने वाली लहरदार ओढ़नी।

लहरिया के प्रकार :- फोहनीदार, पचलड़, खत, पाटली, जालदार, पल्लू, नगीना।

राज्य में जयपुर का ‘समुद्र लहर’ लहरिया सबसे अधिक प्रसिद्ध है।

मोठड़ा :- लहरिये की लहरदार धारियां जब एक-दूसरे को काटती है तो वह मोठड़ा कहलाती हैं। राज्य में जोधपुर का मोठड़ा प्रसिद्ध है।

बडूली :- वर पक्ष की ओर से वधू के लिए भेजी जाने वाली चूनड़।

चुनरी / धनक :- बूँदों के आधार पर बनी बँधेज की डिजाइन चुनरी कहलाती है, तो बड़ी-बड़ी चौकोर बूँदों से युक्त अलंकरण को धनक कहते है। जोधपुर की चुनरी राज्यभर में प्रसिद्ध है। बारीक बंधेज की चुनरी शेखावटी की प्रसिद्ध है।

(घ) बुनाई :- ‘काेली’ एवं ‘बलाई’ वस्त्र बुनने का काम करने वाली हिन्दू जातियाँ हैं।

राज्य में वस्त्र से सम्बन्धित हस्तकलाएँ –

(i) कोटा डोरिया की मसूरिया साड़ी :- सूती धागों के साथ रेशमी धागों व जरी के काम से युक्त साड़ी।

प्रमुख केन्द्र :- कैथून (कोटा)। कोटा रियासत के शासक झाला जालिम सिंह ने मैसूर से कुछ बुनकरों को बुलाया जिसमें बुनकर महमूद मसूरिया ने यह कला प्रारम्भ की।

सूत और सिल्क के ताने-बाने के लिए राज्य में कैथून और जैनब मसूरिया के लिए मांगलोद, मलमल के लिए तनसुख एवं मथानिया, ऊन के लिए बीकानेर और जैसलमेर तथा लोई के लिए नापासर प्रसिद्ध हैं।

(ii) जरी / जरदोजी वर्क :- धातु से बने चमकदार तारों से कपड़े पर कशीदाकारी। राजस्थान में जरी की कला सवाई जयसिंह के काल में सूरत से जयपुर लायी गयी थी।

(iii) जसोल की जट पट्‌टी :- जसोल गाँव (बाड़मेर) अपने ‘जट   पट्‌टी’ उद्योग के लिए प्रसिद्ध है। जट पटि्टयाँ बकरी के बालों से बनती हैं।

(iv) दरी उद्योग के लिए प्रसिद्ध :- लवाण (दौसा) व टांकला (नागौर)।

(v) राजस्थान में सर्वाधिक दरी व गलीचे का कार्य जयपुर व अजमेर के क्षेत्रों में होता हैं। जयपुर का गलीचा उद्योग प्रसिद्ध है।

(vi) जालौर का लेटा गाँव व गुढ़ा बालोतान गाँव ‘खेसला उद्योग’ के लिए राज्यभर में प्रसिद्ध है।

(vii) नमदा उद्योग :- टोंक एवं बीकानेर में।

– बातिक :- कपड़े की परत को मोम से ढ़क कर उस पर चित्र बनाना बातिक कहलाता है। बातिक कला का उद्‌भव दक्षिण भारत में हुआ। खण्डेला (सीकर) बातिक कला के लिए प्रसिद्ध है। आर. बी. रायजादा बातिक कला के सिद्धहस्त कलाकार माने जाते है। उमेशचन्द्र शर्मा का सम्बन्ध भी बातिक कला से ही है।

– सूंठ की साड़ियों के लिए प्रसिद्ध :– जोबनेर (जयपुर)।

– हुरमुचो :- कढ़ाई की विशेष शैली। बाड़मेर में प्रचलित। हुरमुचो कशीदा को आधुनिक भारत में बचाये रखने का श्रेय सिंधी समुदाय को है।

– लेटा, मांगरोल एवं सालावास :- कपड़े की मदों की बुनाई हेतु प्रसिद्ध स्थल।

2. जेवर शिल्प / धातु बर्तन शिल्प / शस्त्र शिल्प :-

सुनार :- सोने एवं चाँदी के जेवर बनाने का काम करने वाले कारीगर।

जड़िया :- नगों की जड़ाई करने वाले कारीगर।

(क) मीनाकारी :- सोना व चाँदी के आभूषणों व कलात्मक वस्तुओं पर मीना चढ़ाने की कला मीनाकारी कहलाती है। मीनाकारी में मुख्यत: लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है। ‘मीनाकारी’ की कारीगरी आमेर के ‘राजा मानसिंह प्रथम’ लाहौर से जयपुर लाये थे। लाहौर के सिक्खों ने यह कला फारस के मुगलों से सीखी।

प्रमुख मीनाकार :- कांशीराम, कैलाशचन्द्र, हरीसिंह, अमरसिंह, किशनसिंह, शोभासिंह आदि।

मीनाकारी का जादूगर :- कुदरतसिंह (जयपुर)। सन् 1988 ई. में ‘पद्‌‌मश्री’ से सम्मानित।

कागज जैसे पतले पतरे पर मीनाकारी :- बीकानेर

चाँदी पर मीनाकारी :- नाथद्वारा (राजसमन्द)

पीतल पर मीनाकारी :- जयपुर।

ताँबे पर मीनाकारी :- भीलवाड़ा।

सोने पर मीनाकारी :- प्रतापगढ़।

काँच पर विभिन्न रंगों से बहुरंगी मीनाकारी :- रैतवाली क्षेत्र (कोटा)।

(ख) थेवा कला :- काँच की वस्तुओं पर सोने का सूक्ष्म व कलात्मक चित्रांकन। इस कला में हरा रंग प्रयुक्त होता है। प्रतापगढ़ का राजसोनी परिवार थेवा कला के लिए प्रसिद्ध है। यह कला दो शब्दों से मिलकर बनी है।

थेरना :- बार-बार स्वर्ण सीट को पीटते रहने की प्रक्रिया।

वादा :- स्वर्ण शीट पर विभिन्न आकृतियाँ उकेरने के लिए उपयोगी चाँदी के रिंग की फ्रेम।

इस प्रकार स्थानीय भाषा में उच्चारित ‘थेरनावादा’ से मिलकर ‘थेवा’ शब्द बना।

इस कला में रगीन बेल्जियम काँच का प्रयोग किया जाता है। इस कला का आविष्कार लगभग 16वीं सदी में प्रतापगढ़ रियासत के ‘राजा सावंतसिंह’ के समय में हुआ। नाथूजी सोनी को थेवा कला का जनक माना जाता है।

थेवा कला के प्रसिद्ध कलाकार :- रामप्रसाद राजसोनी, बेणीराम राजसोनी, रामविलास राजसोनी, जगदीश राजसोनी, महेश राजसोनी एवं गिरिश कुमार।

– थेवा कला का नाम ‘इनसाइक्लोपीडिया ऑफ ब्रिटेनिका’ में भी अंकित है।

– हैदर अली ने अपनी भारत यात्रा के वृतान्त में थेवा कला की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है।

– जस्टिन वर्की को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर थेवा कला को बढ़ावा देने के लिए राजीव गाँधी राष्ट्रीय सम्मान 2009 से नवाजा गया।

(ग) तबक :- चाँदी के तारों को हिरण की खाल की कई परतों में रखकर कई घण्टों तक पीटा जाता है। इसके फलस्वरूप बनने वाले पते तबक/वर्क कहलाता है।

पन्नीगर :- तबक का कार्य करने वाले कारीगर।

जयपुर का पन्नीगरान मोहल्ला तबक या वर्क कार्य के लिए देश-विदेश में प्रसिद्ध है।

कुंदन कला :- सोने के आभूषणों में कीमती पत्थरों को जोड़ने की कला। राजस्थान में कुंदन के काम के लिए जयपुर जिला सर्वाधिक प्रसिद्ध है।

कोफ्तगिरी :- फौलाद की बनी हुई वस्तुओं पर सोने-पीतल की / के पतले तारों से की जाने वाली जड़ाई कोफ्तगिरी कहलाती है। यह कला मूल रूप से दमिश्क की है। राज्य के जयपुर एवं अलवर जिले इस कला के लिए प्रसिद्ध हैं।

तहनिशां :- तहनिशां कला में किसी भी वस्तु पर डिजाइन को गहरा खोदकर उसमें पीतल का पतला तार भर दिया जाता है। राजस्थान में अलवर जिले की तलवार जाति एवं उदयपुर की सिकलीगर जाति इस कला के लिए सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं।

तारकशी :- चाँदी के बारीक तारों से विभिन्न आभूषण एवं कलात्मक वस्तुएँ बनाना तारकशी कहलाता है। तारकशी का कार्य नाथद्वारा में सर्वाधिक किया जाता है।

बादला :- पानी को ठंडा रखने के लिए जस्ते (जिंक) से निर्मित कलात्मक पानी की बाेतलें ‘बादला’ कहलाती हैं। जोधपुर के बादले सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं। बादले का आविष्कार कुचामन के कुम्हारों ने किया था।

मुरादाबादी :- पीतल के बर्तनों पर खुदाई करके उस पर कलात्मक नक्काशी का कार्य मुरादाबादी कहलाता है। प्रमुख केन्द्र :- जयपुर व अलवर।

कलईगिरी :- तांबा, पीतल आदि धातुओं के बर्तनों पर की जाने वाली चमक कलई कहलाती है और कलई करने वाला कारीगर ‘कलईगर’ कहलाता है।

आरण :- धातुएँ गलाने और बर्तन ढालने के लिए प्रयुक्त होने वाले चूल्हा भट्‌टी।

भरत / भर्त :- पीतल, ताँबा या अन्य धातुओं की ढ़लाई का काम। दौसा जिले की महवा तहसील का बालाहेड़ी गाँव पीतल के ठप्पेदार अनूठे बर्तनों के लिए प्रसिद्ध है।

– पीलसोद :- मन्दिरों में प्रयुक्त होने वाला दीप स्तम्भ। यह पीतल का बना होता है।

– पहुना (चित्तौड़गढ़) :- लौह उपकरण उद्योग के लिए प्रसिद्ध।

– बाँसवाड़ा जिले का चंदूजी का गढ़ा तथा डूंगरपुर का बोडीगामा तीर-कमान के लिए प्रसिद्ध है।

– पोकरण अपने कलात्मक बतनों के लिए जाना जाता है।

– सोमाड़ा (दौसा) के काँसे-पीतल के हुके सम्पूर्ण राजस्थान में प्रसिद्ध है।

– सिकलीगर :- हथियार बनाने, उन्हें तीक्ष्ण करने और साफ करके चमकाने का काम करने वाला कारीगर।

– भोगलियां / ठेरणा :- दो गाँठ वाली तलवार।

– कुलाबो :- मूठ लगी खमदार पत्ती वाली तलवार।

– अलवर तथा सिरोही में तलवारें बनाने का काम उत्कृष्ट कोटि का होता हैं।

– गोफण :- पक्षियों को उड़ाने और पशुओं को खेत से बाहर निकालने के लिए पत्थर फेंकने के लिए सूत की बंट कर बनाई गई पट्‌टी, जिसके दोनों छोरों में लगभग एक हाथ लम्बी डोरियाँ लगी होती हैं। गोफण मुख्य रूप से मेवाड़ एवं बाँगड़ के आदिवासियों का प्रमुृख हथियार है।

– नागौर :- राजस्थान का धातु नगर।

मणिहारे एवं लखारे :-

लखारा :- चूड़ियाँ बनाने एवं बेचने का धन्धा करने वाला कारीगर।

कातर्‌‌या :- काँच की चूड़ियाँ।

लाखोलया :- लाख की छोटी-छोटी अँगूठियाँ।

जन्दरी :- लकड़ी से बना यंत्र, जिस पर चूड़ीगर चूड़ियां उतारता हैं।

मोकड़ी :- लाख की बनी चूड़ियाँ। जयपुर लाख की चूड़ियों के लिए प्रसिद्ध है। लाख के आभूषणों एवं खिलौनों का निर्माण उदयपुर में अधिक होता है।

मूंठिया :- चार या आठ चूड़ियों का जोड़ा।

काष्ठ कला :- चित्तौड़गढ़ का ‘बस्सी’ नामक कस्बा काष्ठ कला के लिए प्रसिद्ध है। बस्सी में काष्ठ कला का जन्मदाता प्रभात जी सुथार को माना जाता है। प्रभात जी की प्रथम प्रतिमा गणगौर की प्रतिमा थी। यह प्रतिमा तत्कालीन शासक रावत गोविन्दसिंह के समय 1652 ई. में बनाई।

– खाती / बढ़ई :- लकड़ी का काम करने वाला कारीगर।

– बरसोद :- खाती (सुथार) को वर्षान्त पर फसल से मिलने वाला अनाज।

– बाजोट :- लकड़ी की कलात्मक चौकी जिस पर पूजा सामग्री रखी जाती है।

– झेरणी / ढेरणी :- दही आदि मंथने के लिए लकड़ी की छोटी रेई।

– पातड़ा :- साधुओं का भोजन करने का चौड़ा-चपटा पात्र।

– कावड़ :- मंदिरनुमा काष्ठकलाकृति, जिसमें कई द्वार होते हैं और उन पर देवी-देवताओं के पौराणिक चित्र बने होते हैं। कावड़ के सभी दरवाजे खोल देने पर राम-सीता के दर्शन होते हैं। कावड़ को लाल रंग से रंगा जाता है जिस पर काले रंग से चित्र बनाये जाते हैं। कावड़ का निर्माण बस्सी (चित्तौड़गढ़) की खेरादी जाति के लोगों द्वारा किया जाता हैं।

– बेवाण :- काष्ठ से निर्मित मंदिर। इन बेवाणों को बनाने एवं इन पर चित्रकारी का कार्य कलात्मक होता है। बेवाण को ‘मिनिएचर वुडन टेम्पल’ भी कहा जाता है। बस्सी के कलाकार ‘बेवाण’ बनाने में निपुण हैं।

– काष्ठ पर कलात्मक शिल्प बनाने में जेठाणा (डूंगरपुर) प्रसिद्ध है।

– कठपुतलियाँ एवं खिलौने :- राजस्थान में काष्ठ से बनी कलात्मक चित्रांकन से युक्त कठपुतलियाँ राजस्थान की परम्परागत हस्तशिल्प की अनूठी सौगात हैं। कठपुतली की जन्मस्थली राजस्थान को माना जाता है। कठपुतली बनाने का काम आमतौर पर उदयपुर व चित्तौड़गढ़ में होता है। कठपुतली नाटक में स्थानक ही नाटक का मूल स्तम्भ होता है। कठपुतलियाँ ‘आडु की लकड़ी’ की बनाई जाती है। स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर ने कठपुतली कला का विस्तार तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। दादा पदम जी को कठपुतलियों का जादूगर कहा जाता है।

  • – गणगौर बनाने का कार्य चित्तौड़ के बस्सी में किया जाता है।
  • – गलियाकोट (डूंगरपुर) :- रमकड़ा उद्योग।
  • – बाड़मेर लकड़ी पर कलात्मक खुदाई करके फर्नीचर बनाने के लिए प्रसिद्ध है।
  • – चूरू चंदन काष्ठ पर अति सूक्ष्म नक्काशी के लिए देश-विदेश में विख्यात है। स्व. मालचन्द बादाम वाले, चौथमल, नवरत्नमल चन्दन की काष्ठ कला के लिए विख्यात है।
  • – चन्दन काष्ठ कला के चितेरे :- पवन जांगिड़, चौथमल जांगिड़, महेशचन्द्र, रमेशचन्द्र जांगिड़, मूलचन्द्र जांगिड़।
  • – मेड़ता के खस के पखे तथा लकड़ी के खिलौने प्रसिद्ध है।
  • – नाई गाँव (उदयपुर) :- लकड़ी के आभूषणों के लिए प्रसिद्ध।
  • – पालणां :- छोटे बच्चों के लिए हींदा डालने और खाखला आदि भरने के लिए काम में आने वाला छाबड़ा।
  • – चेला :- काष्ठ के तराजू के पलड़े।
  • चर्म उद्योग :-
  • – मोची / रेगर / चमार :- चमड़े का काम करने वाली जातियाँ।
  • – चोबवाली :- विवाहोत्सवों पर वर-वधू के लिए बनने वाली जूतियाँ।
  • – बिनोटा :- दुल्हे की जूतियाँ।
  • – ‘मोजड़ी’ जूतियाँ के लिए प्रसिद्ध शहर :- जोधपुर।
  • – बडू (नागौर) में बनने वाली कशीदायुक्त जूतियों की एक परियोजना UNO द्वारा UNDP के तहत चलाई जा रही है।
  • – नागरी :- जयपुर की प्रसिद्ध जूतियाँ।
  • – मानपुरा-मांचेड़ी (जयपुर) :- चमड़े की वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध स्थान।
  • – सपाटा :- स्त्रियों की जूतियाँ।

उस्ता कला :- बीकानेर में ऊँट की खाल पर सुनहरी नक्काशी का चित्रण करना ही मुनव्वती कला कहलाती है। यह कला ‘उस्ता कला’ के नाम से भी प्रसिद्ध है। बीकानेर के उस्ता परिवारों ने यह कार्य शुरू किया। मुनव्वती कला का उद्‌गम ईरान में हुआ। यह कला मुगल काल में भारत तथा भारत से राजस्थान आई। राजस्थान में उस्ता कला के कलाकारों को सर्वप्रथम आश्रय बीकानेर के राजा रायसिंह ने दिया। राजस्थान में सर्वप्रथम प्रसिद्धि दिलाने वाला व्यक्ति ‘कादरबख्श’ था। इलाही बख्श उस्ता जर्मन चित्रकार ए. एच. मूलर का शिष्य था। इलाहीबख्श उस्ता ने स्व. गंगासिंहजी का चित्र बनाया जो वर्तमान में भी UNO मुख्यालय में लगा हुआ है। अगस्त 1975 में ‘उस्ता कैमल हाइड ट्रेनिंग सेंटर’ की स्थापना बीकानेर में की गई। इस सेंटर के प्रथम निदेशक स्व. हिसामुद्दीन उस्ता थे तथा प्रथम प्रशिक्षण प्राप्त करने वाला कारीगर मोहम्मद असगर उस्ता था। 1914 ई. में दुलमेरा (बीकानेर) में जन्मे हिसामुद्दीन उस्ता इस कला के प्रसिद्ध कलाकार थे। 1986 में हिसामुद्दीन उस्ता को राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने पद्‌मश्री से सम्मानित किया। वर्ष 1987 में हिसामुद्दीन उस्ता का निधन हो गया। वर्तमान में इस कला के प्रसिद्ध कलाकार हनीफ उस्ता है जिन्होंने अजमेर के ख्वाजा साहब की दरगाह पर स्वर्ण नक्काशी का कार्य किया। जोधपुर के ज्योति स्वरूप शर्मा ने ऊँट की खाल से ढाल व सुराही पर नक्काशी की।

– मारवाड़ में ऊँट के बच्चे को ‘तोड़्यो’ कहा जाता है जिसके मुलायम बालों को सूत के साथ धागा मिलाकर कपड़ा तैयार किया जाता है। इसे बाखल कहते है।

– गेंड़े की खाल से बनी ‘ढाल’ पर सुनहरी नक्काशी के लिए जोधपुर के ‘लालसिंह भाटी’ को राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया गया है।

मृण शिल्प :-

 कुम्हार / कुंभार :- मिट्‌टी के बर्तन, खिलौने, खेलू आदि बनाने वाला। वैदिक काल में कुम्हार के लिए कुलाल शब्द का प्रयोग होता था।

 टेराकोटा :- मृण-शिल्प अर्थात् मिट्‌टी से मूर्तियां बनाने की कला। मोलेला गाँव (राजसमन्द) मृण शिल्प के लिए प्रसिद्ध है। मोलेला व हरजी के कुम्हार मिट्टी में गधे की लीद मिलाकर मूर्तियाँ बनाते हैं एवं उन्हें उच्च ताप पर पकाते हैं। प्रसिद्ध शिल्पकार :- मोहनलाल प्रजापत। मोलेला गाँव के कुम्हार मूर्तियाँ बनाने के लिए ‘सोलानाड़ा तालाब’ की काली चिकनी मिट्‌टी काम में लेते हैं।

  • – हरजी गाँव (जालौर) के कुम्हार मामाजी के घोड़े बनाते हैं।
  • – बू-नरावता गाँव मिट्‌टी के खिलौने, गुलदस्ते, गमले, पक्षियों की कलाकृतियों के काम के लिए प्रसिद्ध है। बू-नरावतां गाँव नागौर जिले में स्थित है।
  • – मेहटोली (भरतपुर) :- मृत्तिका शिल्प के लिए प्रसिद्ध गाँव।
  • – श्यामोता (सवाईमाधोपुर) :- यहाँ के कुम्हारों द्वारा बनाये जाने वाले मिट्‌टी के खिलौने एवं बर्तन पूरे राजस्थान में प्रसिद्ध है।
  • – सुनहरी टेराकोटा :- बीकानेर।

पॉटरी :- मिट्‌टी के बर्तन बनाने की कला को पॉटरी कहते है। यह राजस्थान का सर्वाधिक प्राचीन और परम्परागत हस्तशिल्प है। पॉटरी को 800° C तक ताप में पकाया जाता है। पॉटरी कला के तीन प्रकार प्रचलित हैं –

(A) ब्ल्यू पॉटरी :- चीनी मिट्‌टी के आकर्षक बर्तनों पर चित्रकारी।

  • – पर्शिया / दमिश्क :- विश्व में ब्ल्यू पॉटरी का जन्म स्थल।
  • – भारत में इस कला का प्रचलन दिल्ली व मुल्तान में अकबर के शासन काल में हुआ।
  • – राजस्थान में इस कला को सबसे पहले लाने का श्रेय आमेर के राजा मानसिंह प्रथम को जाता है। मानसिंह इस कला को लाहौर से जयपुर लेकर आए।
  • – राजस्थान में ब्ल्यू पॉटरी का सर्वाधिक विकास महाराजा रामसिंह के समय हुआ था। राजस्थान में इस कला काे लाने का वास्तविक श्रेय महाराजा रामसिंह को ही जाता है।
  • – पूरे देश में इस कला को प्रसिद्ध करने का श्रेय पद्‌मश्री प्राप्त कृपालसिंह शेखावत को जाता है। कृपालसिंह शेखावत को 1974 ई. में पद्‌मश्री से सम्मानित किया गया है। इन्होंने ब्लू पॉटरी में 25 रंगों का प्रयोग कर नई शैली (कृपाल शैली) का विकास किया। कृपालसिंह शेखावत का जन्म मऊ (सीकर) में हुआ था। इनका 2009 में निधन हो गया था।
  • – ब्ल्यू पॉटरी में नीला, हरा, मटियाला तथा तांबाई रंग विशेष रूप से काम में लेते हैं।
  • – ब्ल्यू पॉटरी के कलाकार :- प्रभुदयाल यादव, मीनाक्षी राठौड़, गोपाल सैनी।
  • – स्व. नाथी बाई ब्ल्यू पॉटरी की सिद्ध हस्तकला महिला थी।
  • – ब्लैक पॉटरी के लिए प्रसिद्ध :- कोटा।
  • – कागजी पॉटरी के लिए प्रसिद्ध :- अलवर। कागजी पॉटरी को पतली, कागदी परतदार या डबलकोर्ट पॉटरी भी कहा जाता है।
  • – खुर्जा गाँव (UP) की सुप्रसिद्ध ब्ल्यू पॉटरी मशीन से बनती है।
  • – सुनहरी पेंटिंग वाली पॉटरी के लिए प्रसिद्ध :- बीकानेर।
  • – मूण :- पश्चिमी राजस्थान में बनाये जाने वाले बड़े मटके।
  • – कुंजबिहारी सोनी :- मिट्‌टी की ज्वैलरी बनाने में सिद्धहस्त।
  • लकड़ी, हाथीदाँत व चन्दन का कार्य :-
  •  हाथीदाँत का काम भरतपुर, जयपुर, मेड़ता, पाली एवं उदयपुर में होता है। हाथीदाँत के प्रमुख कारीगर मालचंद, रमेश चन्दनवाला, गोवर्धन, फकीरचन्द, लालचन्द है।
  • – किशोरी ग्राम (अलवर) :- संगमरमर की मूर्तियों एवं घरेलू उपयोग की वस्तुृओं के निर्माण के लिए प्रसिद्ध।
  • – सिकन्दरा (दौसा) :- इमारती पत्थरों के डिजाइन व पशु-पक्षियों की मूर्ति के लिए प्रसिद्ध।
  • – रमकड़ा उद्योग :- गलियाकोट (डूंगरपुर)।
  • – तलवाड़ा (बाँसवाड़ा) :- काले पत्थर की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध।
  • – थानागाजी (अलवर) :- लाल पत्थर की मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध।
  • – पेपरमेशी के प्रसिद्ध कलाकार :- पातीराम, चिरंजीलाल, श्रीचन्द, कुंवरसिंह, देवकीनन्दन शर्मा, मन्जू शर्मा, वीरेन्द्र शर्मा।
  • – राजस्थान में कागज उद्योग का प्रमुख केन्द्र :- सांगानेर (जयपुर)।
  • – कुमारप्पा राष्ट्रीय हाथ कागज संस्थान :- सांगानेर (जयपुर) में। इस संस्थान की स्थापना UNDP व खादी ग्रामोद्योग आयोग के संयुक्त प्रयासों से की गई है।
  • – पटवा :- आभूषणों को विभिन्न प्रकार के डोरों में पिरोकर पहनने योग्य बनाने वाला कारीगर।
  • – जीणपोश :- घोड़े की पीठ पर डाला जाने वाला विशेष वस्त्र।
  • – घोड़े की सजावट में प्रयुक्त वस्तुएँ :- जीणपोश, सपाट, गजगाव, हवाई, मेलखोरा, जेरबंद, कंदोरा, झूल।
  • – ऊँट की सजावट में प्रयुक्त वस्तुएँ :- पलाण, सिंघाड़े, पागड़ा, मोहरी, कोड़ियाला, गोरबन्द, छींकी, कमरबन्द।
  • – मिरर वर्क के लिए प्रसिद्ध जिला :- बाड़मेर।
  • – गोटा उद्योग के प्रमुख केन्द्र :- खंडेला (सीकर), भिनाय (अजमेर) एवं जयपुर।
  • – पेपरमेशी :- कागज की लुगदी बनाकर उसे विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ बनाना पेपरमेशी कहलाता है। राजस्थान के जयपुर व उदयपुर जिले पेपरमेशी कार्य के लिए प्रसिद्ध हैं।
  • – राजस्थान में कागज निर्माण का कार्य साँगानेर (जयपुर) व सवाईमाधोपुर में किया जाता है।
  • – खांडे :- लकड़ी की तलवारनुमा कलात्मक आकृति।
  • – हाटड़ी :- घर में मसालों व अन्य सामान रखने हेतु चार या छ: खाने वाले कलात्मक डब्बे बनाए जाते हैं, जिसे पश्चिमी राजस्थान में ‘हाटड़ी’ कहते हैं। हाटड़ी को चोपड़ा भी कहा जाता है।
  • – हस्तकलाओं का तीर्थ :- जयपुर को।
  • – हरजी गाँव (जालौर) :- मामाजी के घोड़े बनाने के लिए प्रसिद्ध।
कलास्थान
1.नांदणेशाहपुरा (भीलवाड़ा)
2.तारकशी के जेवरनाथद्वारा (राजसमन्द)
3.सुराहीरामसर (बीकानेर)
4.दर्पण पर कार्यजैसलमेर
5.मेहन्दीसोजत (पाली)
6.कृषि औजारगजसिंहपुरा (श्रीगंगानगर)
7.सूंघनी नसवारब्यावर
8.मौठड़ेजोधपुर
9.जस्ते की मूर्तियाँजोधपुर
10.तलवारसिरोही
11.खेल सामग्रीहनुमानगढ़
12.कशीदाकारी जूतियाँभीनमाल (जालौर)
13.चंदन की मूर्तियाँचूरू
14.पाव रजाईजयपुर
15.लाख की पॉटरीबीकानेर
16.कल्चर्ड मोतीबाँसवाड़ा
17.लकड़ी के झूलेजोधपुर
18.सॉफ्ट टॉयजश्रीगंगानगर
19.भीलों की चूनड़आहड़ (उदयपुर)
20.शीशम का फर्नीचरहनुमानगढ़, श्रीगंगानगर
21.मलमल व जटामथानिया व तनसुख (जोधपुर)
  • – राजस्थान लघु उद्योग विकास निगम (राजसिको) की स्थापना :- जून 1961 में।
  • – राजस्थली एम्पोरियम :- राजसिको द्वारा हस्तशिल्पियों को प्रोत्साहन देने व उनके सामान के विपणन के लिए आयोजित एम्पोरियम।
  • – राजसिको द्वारा आदिवासी हस्तशिल्प प्रशिक्षण केन्द्र उमर गाँव (बूँदी) में दरी बुनाई, सीसारमा (उदयपुर) में फर्नीचर कार्य, बासी (चित्तौड़) तथा धरियाबाद में दरी बुनाई हेतु स्थापित किये गए है।

– राजस्थान की 14 वस्तुएँ GI टैग में शामिल हैं जिसमें –

1. कोटा डोरिया 2. ब्ल्यू पॉटरी

3. मोलेला क्ले वर्क 4. कठपुतली

5. साँगानेरी हैण्ड ब्लॉक प्रिन्ट 6. थेवा कला

7. कोटा डोरिया (लोगो) 8. बगरू हैण्ड ब्लॉक प्रिन्ट

9. थेवा कला 10. मकराना मार्बल

11. मोलेला क्ले वर्ग (लोगो) 12. ब्ल्यू पॉटरी (लोगो)

13. कठपुतली (लोगो) 14. पोकरण पोटरी

  • फुलकारी के लिए राजस्थान, पंजाब, हरियाणा को संयुक्त रूप से GI टैग मिल चुका है।
  • – फैशन फोर डवलपमेंट योजना की शुरूआत :- 2008 में।
  • उद्देश्य :- खादी एवं ग्रामोद्योग को बढ़ावा देना।
  • – खरादी :- लकड़ी का ठप्पा तैयार करने वाले कारीगर को खरादी कहा जाता है। इस प्रिंट में लाल व काले रंग का विशेष प्रयोग किया जाता है।
  • – मेण/भेसा प्रिंट :- सवाईमाधोपुर।
  • – आजम प्रिंट :- आकोला (चित्तौड़गढ़)।
  • – कटारी प्रिंट :- बालोतरा (बाड़मेर)। इस प्रिंट को प्रसिद्ध करने में यासीन खान छीपा का विशेष योगदान रहा।
  • – खड्‌डी प्रिंट :- जयपुर और उदयपुर गहरी लाल रंग की ओढ़नी पर की जाती है।
  • – जयपुर का बंधेज विश्व प्रसिद्ध है।
  • – जोधपुर का प्रतापशाही ओर जयपुर का राजशाही लहरिया प्रसिद्ध है।
  • – लाल बूंद की पोमचा की बंधेज :- सवाईमाधोपुर।
  • – शेखावटी क्षेत्र चोपड़ की चूनरी, तिबारी की बंधेज प्रसिद्ध है।
  • – काँच की कशीदाकारी के लिए बाड़मेर व जैसलमेर प्रसिद्ध है।
  • – पेचवर्क शेखावटी की प्रसिद्ध हस्तकला है।
  • – तुडिया कला के लिए धौलपुर प्रसिद्ध है। यह काँसा, पीतल आदि से नकली जेवर बनाने की कला है।
  • – बेवाण और कठपुतली के लिए प्रसिद्ध जिला :- कोटा।
  • – पातरे-तिरपणे (जैन साधुओं के लिए लकड़ी के बर्तन) के लिए पीपाड़ (जोधपुर) प्रसिद्ध हैं।
  • – मोणक (मोण) :- मिट्‌टी का अण्डाकार मटका।
  • – फूल-पत्ती की साड़ियाँ :- श्रीनाथद्वारा (राजसमन्द)।
  • – ऊन के बने नमदे :- टोंक।
  • – हस्तशिल्प डिजाईन प्रशिक्षण केन्द्र :- जयपुर में।
  • – मारवाड़ में ‘दामणी’ ओढ़नी का एक प्रकार है।
  • – डूँगरपुर जिले में देवल की खान से परेवा पत्थर निकलता है।
  • – हैण्डलूम मार्क हैण्डलूम कपड़ों की प्रमाणिकता बतलाता है।
  • – छातों के लिए प्रसिद्ध :- फालना।
  • – अजमेर :- गोटा कलस्टर।
  • – किशनगढ़ :- सिल्क एवं वुडन पेंटिंग कलस्टर।
  • – स्ट्राबोर्ड का राज्य में एकमात्र कारखाना कोटा जिले में स्थित है।
  • – मुड़ढ़ा :- सरकण्डों से तैयार की गई कुर्सी।
  • – नरोत्तम शर्मा पिछवाई कला के प्रसिद्ध कलाकार है।
  • – बगरू के छीपों की छपाई का स्वर्णकाल :- 1976 से 1979 ई. तक।
  • – जैसलमेर में जरीभाँत के ओढ़ने ‘रेस्ति छपाई’ तकनीक से बनते हैं।
  • – कंवरजोड़ :- मामा द्वारा विवाह के अवसर पर अपनी भान्जी के लिए लाई गई ओढ़नी।

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