वेशभूषा

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राजस्थान लोक अंचल में मध्यकाल तक हर जाति समुदाय की अपनी वेशभूषा होती थी जो वस्त्रों की आकृति, रंग एवं उनके पहनने के ढंग से अलग से पहचान स्थापित करती है।

पुरुष वेशभूषा :-

(i) कमीज :- ग्रामीण पुरुषों के द्वारा धोती के साथ पहने जाने वाला कुर्तानुमा वस्त्र।

(ii) पगड़ी :- सिर को ढकने के लिये पहना जाने वाला वस्त्र।

– प्रतिष्ठा का सूचक।

– अन्य नाम :- साफा, पोतिया, फालिया, पेचा, घुमालों, अमलो।

– पगड़ियों की शैलियाँ :- जसवंतशाही, चूडावतशाही, भीमशाही, हमीरशाही, बखरमा, राजशाही, अमरशाही, अटपटी, उदेशाही, खंजरशाही, शिवशाही और शाहजहौनी।

– मारवाड़ में पहनी जाने वाली पगड़ी मेवाड़ की पगड़ी से आकार में बड़ी और ऊँची होती है।

– पगड़ी का वास्तविक संरक्षक मुगल सम्राट अकबर को माना जाता है।

– अकबर के समय में मेवाड़ में ईरानी पद्धति की ‘अटपटी’ पगड़ी का प्रचलन था।

– छाबदार :- मेवाड़ महाराणा की पगड़ी बाँधने वाला व्यक्ति।

– मेवाड़ महाराणा 26 वार की पगड़ी बाँधते थे, जिसे पाग कहते है। ध्यातव्य है कि 1 वार में 3 फीट होता है।

– उदयपुर की उमराव पाग एवं जोधपुर का जसवंतशाही पेचा राज्यभर में प्रसिद्ध है।

– राज्यभर में विवाहोत्सव पर ‘मीठड़े की पगड़ी’ श्रावण मास में तीज पर ‘लहरिया की पगड़ी’, दशहरे पर ‘जरी’ निर्मित पगड़ी, मदील और होली के अवसर पर फूल-पत्ती की छपाई वाली पगड़ी प्रयोग की जाती थी।

– राजस्थान में प्राचीन काल से ऋतुओं के अनुसार पगड़ियों के रंगों का चयन होता था। जैसे –

 बसंत ऋतु :- गुलाबी पगड़ी।

 ग्रीष्म ऋतु :- फूल गुलाबी तथा ‘बहरीया’

 वर्षा में :- मलयागिरी पगड़ी।

 शरद ऋतु में :- गुल-ए-अनार पगड़ी।

 हेमन्त ऋतु में :- मोलिया पगड़ी।

 शिशिर ऋतु में :- केसरिया पगड़ी।

– जाट जाति के लोग ‘तोकपॅला या सफेद रंग की’ विश्नोई व रामस्नेही सम्प्रदाय के लोग ‘सफेद रंग’ की, कबीरपंथी लोग ‘लाल रंग’ की, मेघवाल जाति के लोग ‘हल्के गुलाबी रंग की’ पगड़ियाँ पहनते थे।

– बावरा :- बंधेज कला द्वारा पाँच रंगों से रंगा गया साफा।

– मोरठा :- दो बार रंग निकाल बंधेज किया हुआ साफा।

– पगड़ी को सजाने का सामान :- तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी, धुगधुगी, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच।

– मदील :- दशहरे पर बाँधी जाने वाली पगड़ी।

– राजाशाही पगड़ी :- जयपुर में प्रचलित एक खास प्रकार की पगड़ी जिसमें लाल रंग के लहरिये बने होते थे।

– सादा पेच वाली पगड़ राजस्थान के हाड़ौती क्षेत्र में प्रचलित है।

– उदयपुर की पगड़ी चपटी, मारवाड़ की पगड़ी छज्जादार, जयपुर की पगड़ी खूँटेदार बाँधी जाती थी।

(iii) अंगोछा :- आदिवासी पुरुषों के द्वारा सिर पर बाँधा जाता है। केरीभाँत का अंगोछा लोकप्रिय है। अंगोछे के किनारे तथा पल्लू पर कंगूरा छपा होता है।

(iv) टोपी :- पगड़ी की तरह सिर को ढकने वाला वस्त्र।

19वीं सदी में पगड़ी / साफे की जगह टोपियों का प्रचलन प्रारम्भ हो गया।

 प्रकार :- कॉकसनुमा, खाखसा, उमा, चौखुलिया एवं दुपलिया।

(v) अंगरखी :- पुरुष द्वारा शरीर के ऊपरी भाग में पहना जाने वाला वस्त्र। सामान्यत: अंगरखी पूरी बाँहों को बिना कॉलर एवं बटन वाला चुस्त कुर्ता जिसमें बाँधने के लिए कसें होती हैं।

अंगरखी काले रंग का वस्त्र है, जिस पर सफेद धागे से कढ़ाई की जाती है। राज्य में फर्रुखशाही अंगरखी भी प्रसिद्ध थी। ग्रामीण भाषा में इसे ‘बुगतरी’ भी कहते है। इसे तनसुख, बगलबन्दी, डगला जैसे नामों से भी जाना जाता है। अंगरखी का ही संशोधित रूप अचकन है। मीनाकारी बेल वाली अंगरखी राजस्थान में बहुत प्रचलित है।

 सलूका :- सहरिया जनजाति में प्रचलित अंगरखी।

(vi) खेस :- पुरुषों द्वारा शरद ऋतु में कंधों पर डाले जाने वाला वस्त्र।

(vii) चोगा / चुगा :- अंगरखी के ऊपर पहना जाने वाला वस्त्र। राज्य में सम्पन्न वर्ग में प्रचलित। यह रेशमी, ऊनी या किमखान से बना होता था। ग्रीष्म ऋतु में तनजेब और जामदानी चुगों का उपयोग होता था। महाराजा सवाई माधोसिंह प्रथम का चोगा विश्व में किसी व्यक्ति द्वारा उपयोग किया गया एवं उपलब्ध विश्व का सबसे बड़ा चोगा है, जो सिटी पैलेस (जयपुर) में रखा गया है।

(viii) जामा :- यह शरीर के ऊपरी भाग में पहना जाने वाला वस्त्र है, जिसमें ऊपर चोली होती है और नीचे घेर, जो घुटने तक आता था। यह विशेष अवसरों (युद्ध / विवाह) के समय पहना जाता था। अकबर ने घेरेदार जामे का प्रचलन शुरू किया।

(ix) साफा :- साफा पगड़ी से मोटा, चौड़ाई में अधिक एवं लम्बाई में छोटा होता है। जोधपुरी साफा बन्धाई के लिए सम्पूर्ण भारत में प्रसिद्ध है। खपटा :- सहरिया जनजाति का साफा।

(x) पायजामा :- अंगरखी, चुगा और जामे के नीचे कमर व पैरों में पहना जाने वाला वस्त्र।

सदी के दिनों में बच्चों द्वारा पहना जाने वाला पायजामा ‘सूथना’ कहलाता है। चूड़ीदार पायजामे के स्थान पर पहने जाने वाला वस्त्र विरजस या ब्रिजेस कहलाता है। यह पायजामा सादा कपड़े का लाइनदार, चमकीला या गहरे रंग के प्रिन्ट का छपा हुआ होता है।

(xi) शेरवानी :- प्राय: मुस्लिम पुरुषों एवं शादी-उत्सवों के अवसर पर हिन्दू पुरुषों के द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र जो कोटनुमा एवं घुटने से लम्बा होता है।

(xii) धोती :- पुरुष द्वारा कमर पर पहना जाने वाला वस्त्र जो सामान्यत: चार मीटर लम्बा व 90 सेंटीमीटर चौड़ा सफेद रंग का होता है।

ढेपाड़ा :- आदिवासी पुरुषों द्वारा पहनी जाने वाली तंग धोती।

पंछा :-  सहरिया आदिवासी पुरुषों की धोती।

(xiii) घूघी (बरसाती) :- ऊन का बना वस्त्र जो सर्दी या वर्षा से बचाव हेतु ओढ़ा जाता है, घूघी कहलाता है।

(xiv) पछेवड़ा :- सर्दी से बचने के लिए पुरुषों के द्वारा कंबल की तरह ओढ़े जाने वाला वस्त्र।

(xv) भाखला, भाखली :- ग्रामीण क्षेत्रों में सर्दी से बचाव के लिए ओढ़ा जाने वाला वस्त्र।

सौड :- रजाई के नीचे ओढ़ने का वस्त्र।

बालाबन्द :- पगड़ी पर धारण करने वाला जरीदार वस्त्र।

बागौ :- घेर वाली पुरुषों की सर की पाग।

ऊपरणी :- पगड़ी पर बाँधा जाने वाला वस्त्र।

रतनपेच :- पगड़ी पर धारण करने वाला विशेष आभूषण।

(xvi) कमरबंद या पटका :- जामा या अंगरखी के ऊपर कमर पर बाँधा जाने वाला वस्त्र, जिसमें तलवार, कटार या खंजर आदि ठुंसा रहता है। अहमदाबादी, चंदेरी, पैठण, बनारस आदि के पटके बड़े प्रसिद्ध हैं, क्योंकि ये यहाँ की रेशम से बनते थे।

(xvii) बिरजस / ब्रीचेस :- चूड़ीदार पायजामे के स्थान पर काम में लिया जाने वाला वस्त्र। ब्रिटिश प्रभाव के तहत राजस्थान में ब्रीचेस का प्रचलन हुआ। यह ब्रिटिश काल में शिकार के समय की उपयुक्त ड्रेस थी। इसके ऊपर ऊनी लेदर के टुकड़ों युक्त कोट तथा सिर पर मोटी टोपी होती थी। आजकल मेवाड़ एवं मारवाड़ के राजपूत वर्ग में यह ड्रेस काफी प्रचलन में है।

(xviii) दातिया :- यह संकरा कपड़ा ठोढ़ी के ऊपर से होता हुआ पगड़ी में बाँधा जाता है। यह दाढ़ी को भली प्रकार रखने के लिए प्रयोग में लाया जाता था।

(xix) टेल :- यह जामा के डिजाइन से ली गई पोशाक है जो छोटी पेन्ट या पतलून और पगड़ी के साथ पहनी जाती है। इसकी लम्बाई जांघों तक होती है।

(xx) आतमसुख :- तेज सर्दी में ऊपर से नीचे तक पहने जाने वाला वस्त्र। यह चुगे से बड़ा रुईदार, बाँहें छोटी, अधिकतर ओढ़ने के या चलते समय कन्धे पर डालने के काम आता है। जयपुर महाराजा माधोसिंह का आतमसुख ‘अरमिना फर’ से बना हुआ है। इसकी तुलना कश्मीरी फिरन से की जाती है। विश्व का सबसे पुराना आतमसुख सिटी पैलेस, जयपुर में रखा हुआ है।

– पछेवड़ा, घूघी, कामली, चादरा, खोल्क आदि सर्दी में ऊपर से ओढ़े जाने वाले वस्त्र हैं।

– खोयतू :- आदिवासी पुरुषों द्वारा कमर पर बाँधी जाने वाली लंगोटी।

– पोतिया :- आदिवासी पुरुषों द्वारा पगड़ी की तरह सिर पर बाँधा जाने वाला मोटा वस्त्र।

– जोधपुरी कोट-पेन्ट को राष्ट्रीय पोशाक का दर्जा हासिल है।

– अरसीशाही पगड़ी :- मेवाड़ में महाराणा अरिसिंह (1778-1828 ई.) के समय प्रचलित।

स्त्री वेशभूषा :-

राजस्थान में प्रागैतिहासिक युग से लेकर वर्तमान काल तक अलग-अलग समय में अलग-अलग स्त्री परिधान रहा है। प्रागैतिहासिक काल में स्त्री वेशभूषा बहुत ही साधारण थी। उस काल में स्त्रियाँ केवल अद्योभाग को ढकने के लिए छोटी साड़ी का प्रयोग करती थीं। शुंगकाल एवं गुप्तकाल में स्त्रियाँ साड़ी को कर्घनी से बाँधती थी और ऊपर तक सिर को ढ़कती थीं। प्रारम्भिक मध्यकाल में स्त्रियाँ प्राय: लहंगे का प्रयोग करने लगी जो राजस्थान में घाघरा नाम से प्रसिद्ध हुआ। वर्तमान में राजस्थान में विभिन्न प्रकार की स्त्री-वेशभूषा प्रचलित है। वर्तमान में स्त्रियाँ सिर ढ़कने के लिए ओढ़नी, लूगड़ी व लहरिया-चूनरी आदि का प्रयोग करती हैं जबकि अधोवस्त्र के रूप में अंगरखी, काँचली, कुर्ती, ब्लाउज, घाघरा व लहंगा प्रचलन में हैं।

(i) कुर्ती व काँचली :- स्त्रियों द्वारा शरीर के ऊपरी हिस्से में पहना जाने वाला वस्त्र। बिना बाँह वाली चोली आँगी कहलाती है। कुर्ती हमेशा बिन बाँहों की होती है तथा बाँहें काँचली में होती है।

(ii) कापड़ी :- कपड़े के दो टुकड़ों को बीच में से जोड़कर बनाई गई चोली जो पीठ पर तनियों से बाँधी जाती हैं।

(iii) घाघरा, पेटीकोट, लहंगा :- कमर के नीचे एड़ी तक पहना जाने वाला घेरदार वस्त्र, जो कई कलियों को जोड़कर बनाया जाता है। जयपुर का रेशमी घाघरा प्रसिद्ध है।

धाबला :- ग्रामीण महिलाओं में प्रचलित ऊनी घाघरा।

(iv) कुर्ता :- ऊपरी हिस्से में पहना जाने वाला वस्त्र।

(v) सलवार :- कमर से लेकर पाँवों में पहना जाने वाला वस्त्र।

(vi) घघरी :- कंवारी व स्कूल छात्राओं द्वारा पहना जाने वाला कमर के नीचे का वस्त्र। यह घाघरे का छोटा रूप है।

(vii) पेसवाज :- शरीर को ऊपर से नीचे तक ढकती हुई पूर्ण पोशाक है जो चोली स्कर्ट के साथ होती है। यह ऊँची गर्दन का गाउन है जिसमें गर्दन और कमर को बाँधने के लिए डोरियाँ लगी होती हैं और बीच का हिस्सा खुला हुआ, बाँहें लम्बी चुस्त और चूड़ीदार युक्त होता है।

(viii)  ओढ़नी, लुगड़ी या साड़ी :- कुर्ती और काँचली तथा घाघरे के ऊपर शरीर पर पहना जाने वाला वस्त्र। पीला पोमचा, लहरिया, चुनरी, मोठड़ा, धनक आदि लोकप्रिय ओढ़नियाँ हैं। यह लगभग 2.50 मीटर लम्बी तथा 1.35 मीटर चौड़ी होती है।

राज्य में जोबनेर की फूल की साड़ी तथा सवाईमाधोपुर की सूंठ की साड़ियाँ प्रसिद्ध हैं।

– पोमचा सद्य: प्रसूता द्वारा पहना जाता है। पुत्र जन्म पर पीला पोमचा एवं पुत्री जन्म पर गुलाबी पोमचा पहनने का प्रचलन है।

– चीड़ का पोमचा हाड़ौती क्षेत्र में विधवा स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाली काली रंग की ओढ़नी है।

(ix) शरारा :- सलवार रूपी वस्त्र जो शरीर के निचले हिस्से, पैरों मेंे पहना जाता है।

(x) लहरिया :- लहरिया का प्रयोग पगड़ी व ओढ़नी दोनों ही रूप में होता है। लहरिया एक, दो, तीन, पाँच व सात रंगों में बनाया जाता है। माँगलिक अवसरों पर पचरंगा लहरिया सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। जयपुर में ‘समुद्र लहर’ नाम का लहरिया रंगा जाता है। यह स्त्रियों द्वारा श्रावण मास में विशेषकर तीज पर पहना जाता है।

– विभिन्न धारियों को रंगकर आड़ी करके रंगा हुआ कपड़ा लहरिया कहलाता है।

– जब लहरिये को आड़ी धारियां खंजरीनुमा ढंग से रंगा जाये तो गंडादार लहरिया कहलाता है।

– जब लहरिये को आड़ी धारियाँ दोनों ओर से एक-दूसरे को काटती हुई रंगा जाए तो मोठड़ा कहलाता है। जोधपुर का मोठड़ा विश्व प्रसिद्ध है।

(xi) पंवरी :- लाल या गुलाबी रंग की दुल्हन की ओढ़नी।

(xii) चुनरी :- बूँदों के आधार पर बनी डिजाइन चुनरी कहलाती है।

(xiii)  धनक :- बड़ी-बड़ी चोकोर बूँदों से युक्त अलंकरण धनक कहलाता है।

(xiv)  तिलका :- मुस्लिम स्त्रियाँ चूड़ीदार पायजामा पर एक चोगा-सा पहनती हैं। इसे ‘तिलका’ कहते है।

अवोचण :- पर्दानशीन औरतों के सिर पर ओढ़ने का वस्त्र।

चांदणी :- पर्दानशीन स्त्रियों के पर्दा करने का वस्त्र।

(xv) लूगड़ा :- आदिवासी स्त्रियों द्वारा पहने जाने वाले घाघरे का ही एक रूप है। इसमें सफेद जमीन पर लाल बूटे छपे होते हैं। इसे अंगोछा साड़ी भी कहते हैं।

(xvi)  कटकी :- आदिवासी लड़कियों व अविवाहित बालिकाओं की ओढ़नी, जिसकी जमीन लाल और काले व सफेद रंग की बूटियाँ होती है। इसमें छपने वाले अलंकरण को ‘पावली’ व ओढ़नी को ‘पावलीभाँत की ओढ़नी’ कहते हैं।

(xvii) ताराभाँत की ओढ़नी :- आदिवासी महिलाओं में लोकप्रिय ओढ़नी। इसमें जमीन भूरी लाल तथा किनारों का छोर काला षट्कोणीय आकृति वाला तारों जैसा होता है।

(xviii) रेनसाई :- इसमें लहंगे की छींट होती है। इसकी काली जमीन पर लाल व भूरे रंग की बूटियाँ बनी होती हैं। यह भी आदिवासियों में प्रचलित हैं।

(xix)  लहरभाँत और केरी भाँत की ओढ़नी :- आदिवासी महिलाओं में प्रचलित ओढ़नी।

(xx) जामसाई साड़ी :- विवाह के समय पहना जाने वाला वस्त्र, जिसमें लाल जमीन पर फूल-पत्तियों युक्त बेल-बूँटे बने होते हैं।

(xxi)  नान्दणा / नांदड़ा :- यह आदिवासियों द्वारा प्रयुक्त किया जाने वाला प्राचीनतम वस्त्र है। यह नीले रंग की छींट होती है। इसमें कभी छोटे चतुष्कोण, तितलीभाँत, 6 फल व 6 पत्तियों वाला पौधा अधिक लोकप्रिय है।

(xxii) दामड़ी :- मारवाड़ क्षेत्र की महिलाओं द्वारा प्रयुक्त लाल रंग की ओढ़नी, जिसमें धागों से कशीदाकारी होती है।

(xxiii) कछावू :- आदिवासी महिलाओं द्वारा घुटने तक के घाघरे को ‘कछावू’ कहा जाता है।

(xxiv) फूदड़ी :- आदिवासी वस्त्र। इसमें ताराभाँत का अलंकरण होता है।

– दामणी :- मारवाड़ की स्त्रियाँ लाल रंग की ओढ़नी पहनती हैं, जिस पर धागों की कशीदाकारी होती है। इस ओढ़नी को ‘दामणी’ कहा जाता है।

– तिलका (चोगा) मुस्लिम औरतों का पहनावा हैं।

– चोल, निचोल, पटू, दुकूल, असुंक, चीर-पटोरी, चोरसो, धोरावाली, चून्दड़ी आदि साड़ियों के नाम हैं।

– स्त्री कपड़ों के प्रकार :- जामादानी, किमखाव, टसर, पवारचा, मसरू, इलायची, मीर-ए-बादला, नौरंगशाही, बाफ्ता, मोमजामा आदि।

– पिरिया :- भील जनजाति में शादी के समय पहना जाने वाला पीले रंगा का लहंगा।

– सिंदूरी :- भील जनजाति में शादी के समय पहने जाने वाली लाल रंग की साड़ी।

– झूलकी :- गरासिया स्त्री-पुरुषों में कमीज के रूप में (शरीर के ऊपरी हिस्से में) प्रयुक्त वस्त्र।

– सलूका :- सहरिया स्त्री-पुरुषों में कमीज के रूप में (शरीर के ऊपरी भाग में) प्रयुक्त वस्त्र।

– जैसलमेर में जरी भाँत की ओढ़नी ‘छपाई’ तकनीक से बनायी जाती है।

– सिरपेच :- धातु, मोती या पन्ने से बना आभूषण जो साफे पर आगे की ओर बाँधने वाला पतले पट्‌टे जैसा होता है।

– कुम्हार, चौधरी, राइका, विश्नोई व मेघवाल जाति की महिलाएँ कटारछींट डिजाइन के घाघरे पहनती है। बालोतरा की कटारछींट प्रसिद्ध है।

– कौपीन :- संन्यासियों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र।

– ‘गरासियों की फाग’ सोजत की प्रसिद्ध है।

– पछेवड़ा :- रेजे या मोटे सूती कपड़े से बना सर्दी से बचाव हेतु ग्रामीण क्षेत्र में ओढ़ा जाने वाला वस्त्र।

राजस्थानी वस्त्र :-

1. उडि-उडियांण :- ओढ़ने का वस्त्र।

2. ओरणौ :- स्त्रियों की ओढ़नी।

3. कटारीभाँत :- एक प्रकार की ओढ़नी।

4. कोरणियौ :- वधू के मामा की ओर से दी जाने वाली पोशाक।

5. गुलीबंद :- सर्दी से बचाव के लिए कान पर डाला जाने वाला वस्त्र (मफलर)।

6. घाघरा :- स्त्रियों का अध:वस्त्र।

7. चंद्रकला :- स्त्रियों की एक बहुमूल्य ओढ़नी।

8. चांदणी :- पर्दानशीन स्त्रियों के पर्दा करने का वस्त्र।

9. चिरणोटियौ :- सधवा स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र।

10. तमोटी :- ओढ़ने की चद्दर।

11. ताखी :- छोटे बच्चों का सिर ढ़कने का वस्त्र विशेष।

12. धूमाळौ :- सर्दी में ओढ़ने का मोटा वस्त्र।

13. पटियारी :- बकरी के बालों का बना, दरीनुमा मोटा वस्त्र।

14. पांतियौ :- भोजन के लिए पंक्तिबद्ध बैठाने के लिए बिछाने का लम्बा वस्त्र।

15. पैरण :- खत्री-वैश्यों की स्त्रियों का एक अधोवस्त्र विशेष।

16. फूहलि :- बहन की राखी प्राप्त होने पर भाई द्वारा बहन को भेजी जाने वाली पोशाक।

17. बरड़ियौ :- मेघवाल जाति में दुल्हे के ओढ़ने का वस्त्र।

18. बींदबागौ :- दूल्हे की पोशाक।

19. बालाबंद :- पगड़ी पर धारण करने का जरीदार वस्त्र।

20. बुगची :- वह गठरी जिसमें वस्त्र या फुटकर सामग्री बाँधी जाती है।

21. भाकलियौ :- ऊँट की खालों का बना एक बिछावन।

22. मांझौ :- जरदोजी का वस्त्र विशेष।

23. मुसल्लौ :- नमाज पढ़ते समय बिछाने का वस्त्र या चद्दर।

24. लत्तौ :- फटा-पुराना वस्त्र।

25. लांग :- धोती या लंगोट का वह छोर जो दोनों जांघों के बीच से कमर से दोनों ओर बँधा रहता है।

26. लालर :- विधवा स्त्रियों की ओढ़नी।

27. लाळियौ :- शिशुओं की छाती पर लटका रहने वाला एक छोटा वस्त्र।

28. लोई :- स्त्रियों के ओढ़ने का ऊनी वस्त्र विशेष।

29. वाटवागौ :- विवाह मंडप में अग्नि परिक्रमा के पश्चात कन्या को पहनाई जाने वाली पोशाक।

30. समदरियौ :- स्त्रियों के ओढ़ने का ऊनी वस्त्र विशेष।

31. सुजनी :- जरी व कारचोब का काम किया हुआ बहुमूल्य वस्त्र।32. सोवड़ सौड़ :- रजाई के नीचे ओढ़ने का वस्त्र या कम्बल।

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