राजस्थानी चित्रकला

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राजस्थानी चित्रकला का उद्‌भव एवं विकास :-

– राजस्थान में आलनिया दर्रा (कोटा), बैराठ (जयपुर), दर (भरतपुर), पुष्कर में अगस्त्य मुनि के आश्रम तथा सवाईमाधोपुर के सोलेश्वर एवं अमरेश्वर नामक स्थानों से शैलाश्रयों में आदिम मानव द्वारा बनाये गये रेखांकन राजस्थान की प्रारम्भिक चित्रण परम्परा को उद‌्‌घाटित करते हैं।

– सन् 1953 में वी. एस. वाकणकर ने राजस्थान में कोटा में चम्बल घाटी और दर्रा क्षेत्र, झालावाड़ के निकट कालीसिंध घाटी और अरावली में माउंट आबू तथा ईडर में चित्रित शैलाश्रयों की खोज की।

– उदयपुर के पास आहड़ व गिलूण्ड में मिली ताम्रयुगीन सभ्यता के पुरावशेषों में मृदभांडों पर प्राकृतिक व ज्यामितीय अलंकरण प्राप्त हुए हैं।

– नोह (भरतपुर), बैराठ (जयपुर) तथा सुनारी (झुंझुनूं) आदि लौहयुगीन सभ्यता के अवशेषों में मिट्‌टी के बर्तनों पर सलेटी व काले रंग की ज्यामितीय चित्रकारी इस बात की पुष्टि करती हैं कि राजस्थान में चित्रकला की लम्बी परम्परा विद्यमान रही है।

– तिब्बती इतिहासकार तारानाथ ने मरुप्रदेश में 7वीं सदी में शृंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया है परन्तु उस समय के चित्र आज भी अनुपलब्ध है।

– राजस्थान में सर्वाधिक प्राचीन उपलब्ध चित्रित ग्रंथ जैसलमेर भंडार में 1060 ई. के ‘ओध निर्युक्ति वृत्ति’ एवं ‘दस वैकालिका सूत्र चूर्णि’ मिले हैं जो नागपाल के वंशज आनंद द्वारा आलेखकार पाटिल से चित्रित कराये गये थे। इन ग्रंथों में इंद्र, हाथी व लक्ष्मी के चित्र अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक प्रतीत होते हैं।

– राजस्थानी चित्रकला का विकास जैन शैली, गुजरात शैली तथा अपभ्रंश शैली से माना जाता है। रायकृष्णदासजी के अनुसार ‘राजस्थानी चित्रकला का उद्‌भव अपभ्रंश से गुजरात एवं मेवाड़ में कश्मीर शैली के प्रभाव द्वारा 15वीं सदी में हुआ।’ विशुद्ध राजस्थानी शैली का प्रारम्भ 15वीं सदी के उत्तरार्द्ध से 16वीं सदी के पूर्वार्द्ध के मध्य माना जा सकता है।

– राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक केन्द्र मेदपाट (मेवाड़) को माना जाता है जिसने अजन्ता चित्रण परम्परा को आगे बढ़ाया। मेवाड़ शैली का प्रारम्भिक चित्र 1260 ई. का ताड़पत्र पर रचित एवं चित्रित प्रथम उपलब्ध ग्रंथ ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि’ (आहड़ में मेवाड़ शासक तेजसिंह के समय चित्रित) है।

राजस्थानी चित्रकला का नामकरण

– राजस्थानी चित्रकला शैली का सर्वप्रथम वैज्ञानिक विभाजन स्व. आनन्द कुमार स्वामी ने ‘राजपूत पेंटिंग्स’ नामक पुस्तक में सन् 1916 ई. में किया था। डॉ. स्वामी ने अर्वाचीन भारतीय चित्रकला शैली को राजपूत चित्रकला शैली एवं मुगल चित्रकला शैली नामक दो प्रमुख भागों में विभाजित किया। डॉ. स्वामी ने राजपूत चित्रकला शैली को पुन: दो भागों में (राजस्थानी चित्रकला शैली एवं पहाड़ी चित्रकला शैली) विभाजित किया है।

– श्री बेलिस ग्रे, ओ. सी. गांगुली, हैवेल ने राजस्थानी चित्रकला शैली को ‘राजपूत चित्रकला’ माना है।

– W. H. Brown ने अपने ग्रंथ ‘इंडियन पेंटिंग्स’ में राजस्थान की चित्रकला का नाम ‘राजपूत कला’ दिया है।

– एच. सी. मेहता ने ‘स्टडीज इन इण्डियन पेंटिंग्स’ में राजस्थानी चित्रकला को ‘हिन्दू चित्र शैली’ की संज्ञा दी है।

– स्व. जदुनाथ सरकार ने राजस्थानी शैली को ‘प्रांतीय मुगल कला’ माना है।

– डॉ. हर्मन गोएट्ज ने चित्रों में अंकित स्थापत्य तथा वेशभूषा के आधार पर 1616 – 1620 ई. के लगभग बोस्टन प्रिमिटव्ज की उत्पत्ति मानी है।

राजस्थानी चित्रकला की विशेषता :-

– लोक-जीवन का सान्निध्य।

– भाव प्रवणता की प्रचुरता।

– विषय-वैविध्य एवं वर्ण – वैविध्य।

– भक्ति एवं शृंगार का सजीव चित्रण।

– प्रकृति परिवेश देश काल के अनुरूप।

– लोक-जीवन में भावनाओं की बहुलता।

– चटकीले, चमकदार और दीप्तियुक्त रंगों का संयोजन।

– एकाश्म चेहरे की अधिकता।

– रेखाओं का बहुत कम प्रयोग।

– आकृतियों में महीन रेखाओं का प्रयोग।

– आंतरिक अभिव्यक्ति प्रधान शैली।

– वसली (एक पर एक जमाए गए कई कागज) पर निर्मित चित्र।

– भक्तिकाल और रीतिकाल का सजीव चित्रण।

– साहित्य, संगीत एवं चित्रकला का अनूठा समन्वय।

– शृंगार रस का बहुधा प्रयोग।

– प्रकृति का मानवीकरण।

– राजकीय तड़क-भड़क, विलासिता, अन्त:पुर के दृश्य एवं पतले वस्त्रों का विशेष प्रदर्शन।

– सामान्य रूढ़ियों का लोप।

राजस्थानी चित्रकला शैली का वर्णन :-

– राजस्थानी चित्रकला शैली को भौगोलिक, सांस्कृतिक आधार पर चार प्रमुख शैलियों (स्कूलों) में विभाजित किया गया हैं, जो अनेक उप शैलियों में विभाजित है।

1. मेवाड़ स्कूल :- चावंड शैली, उदयपुर शैली, नाथद्वारा शैली, देवगढ़ उपशैली, शाहपुरा उपशैली, सावर उपशैली तथा बनेड़ा, बागौर, बेंगू, केलवा आदि ठिकाणों की कला।

2. मारवाड़ स्कूल :- जोधपुर शैली, बीकानेर शैली, किशनगढ़ शैली, अजमेर शैली, नागौर शैली, सिरोही शैली, जैसलमेर शैली तथा घाणेराव, रियाँ, भिणाय, जूनियाँ आदि ठिकाणों की कला।

3. ढूँढाड़ स्कूल :- आमेर शैली, जयपुर शैली, शेखावटी शैली, अलवर शैली, उणियारा उपशैली तथा झिलाय, ईसरदा, शाहपुरा, सामोद आदि ठिकाणों की कला।

4. हाड़ौती स्कूल :- बूँदी शैली, कोटा शैली एवं झालावाड़ शैली।

1. मेवाड़ स्कूल :-

– राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक केन्द्र।

– अजन्ता परम्परा का निर्वहन केन्द्र।

– प्रथम उदाहरण – श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि (1260 ई. में तेजसिंह के समय चित्रित)।

– महाराणा मोकल के समय 1423 ई. में चित्रित पुस्तक ‘सुपासनाह चरियम्’ में मेवाड़ शैली का प्रभाव झलकता है।

– मेवाड़ शैली का उजला रूप सन् 1540 ई. का विल्हण कृत ‘चौरपंचाशिका ग्रंथ’ के चित्रों में देखने को मिलता है।

– इस शैली के प्रमुख चित्रों में से एक ‘चम्पावती विल्हण’ नामक चित्र प्रतापगढ़ में चित्रित है।

– डगलस बैरेट एवं बेसिल ग्रे ने ‘चौरपंचाशिका शैली’ का उद्‌गम मेवाड़ में माना है।

– महाराणा कुम्भा के समय का पण्डित भीकमचन्द द्वारा रचित ग्रंथ ‘रसिकाष्टक’ में विभिन्न ऋतुओं तथा पशु-पक्षियों के उत्तम चित्र उपलब्ध हुए हैं जो कुम्भा कालीन चित्रकला की पुष्टि करते हैं।

(i) चावण्ड शैली :-

– चावण्ड को 1585 ई. में महाराणा प्रताप द्वारा अपनी संकटकालीन राजधानी बनाया गया जहाँ पर प्रताप के समय चित्रकला शैली की शुरूआत हुई।

– महाराणा प्रताप के समय का प्रसिद्ध चित्र कृति ‘ढोला-मारू’ (1592 ई.) है जो मुगल शैली से प्रभावित है। यह कृति वर्तमान में राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली में सुरक्षित है।

– महाराणा अमरसिंह के काल में मेवाड़ की राजधानी चावण्ड में 1605 ई. में चित्रकार ‘निसारद्दीन’ ने ‘रागमाला’ का चित्रण किया।

– महाराणा अमरसिंह के काल को ‘चावण्ड शैली का स्वर्णकाल’ कहा जाता है।

(ii) उदयपुर शैली

– मेवाड़ शैली का प्रमुख केन्द्र।

– इस शैली का प्राचीनतम चित्र ‘श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णि’ है जो 1260 ई. में गुहिल शासक तेजसिंह के समय आहड़ में चित्रित हुआ था। इस शैली का दूसरा प्रमुख चित्र ग्रंथ ‘सुपासनाह चरितम्’ है जो महाराणा मोकल के समय 1423 ई. में चित्रित हुआ।

– उदयपुर शैली का सर्वप्रथम मूल स्वरूप प्रतापगढ़ में चित्रित ‘चौरपंचाशिका’ नामक ग्रंथ के चित्रों में दिखाई देता है।

– ‘महाराणा जगतसिंह प्रथम’ का काल उदयपुर शैली का स्वर्णकाल माना जाता है। इस काल में वल्लभ सम्प्रदाय के प्रसार के कारण श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बन्धित चित्रों का निर्माण अधिक हुआ। इस काल में रागमाला, रसिकप्रिया, गीतगोविन्द, भागवतपुराण एवं रामायण इत्यादि विषयों पर लघु चित्रों का निर्माण हुआ। महाराणा जगतसिंह के समय साहिबदीन एवं मनोहर जैसे चित्रकार थे। साहिबदीन ने 1655 ई. में ‘शूकर क्षेत्र महात्म्य’ एवं ‘भ्रमरगीत’ जैसे चित्र रचे।

– चित्रकार :- साहिबदीन, कृपाराम, मनोहर, नसीरुद्दीन, उमरा, श्योबक्स, जीवाराम, भैरूराम आदि।

– विषय :- कृष्ण की लीलाओं का चित्रण, नायक-नायिका भेद, रागमाला, बारहमासा, रामायण, कादम्बरी, नल-दमयन्ति, गीत-गोविन्द, सूरसागर आदि।

– महाराणा जगतसिंह के समय ही कृष्ण चरित्र की भाँति रामचरित्र का चित्रांकन हुआ था। इसका चित्रांकन 1649 – 1653 ई. के मध्य साहिबदीन एवं मनोहर ने किया।

– चितेरों की ओवरी :- महाराणा जगतसिंह द्वारा राजमहल में निर्मित एक चित्रशाला। इसे तस्वीरां रो कारखानों भी कहा जाता है।

– चमकीले पीले एवं लाख के लाल रंग की प्रधानता।

– इस शैली में हाशिये पर लाल व पीले रंग का प्रयोग।

– पुरुष आकृति :- गठिला शरीर, लम्बी मूँछें, विशाल नयन, छोटा कद, छोटी ग्रीवा, कपोल तक जुल्फें आदि।

– नारी आकृति :- औज, उदात्त व सरल भाव लिए चेहरा, मीनाकृत आँखें, गरुड़ सी लम्बी नाक, ठिंगना कद, चिबुक पर तिल, लम्बी वेणी एवं भौंहे नीम के पत्ते की भाँति।

– राणा जयसिंह के काल में लघु चित्रों के निर्माण की अधिकता।

– महाराणा अमरसिंह द्वितीय के काल में रसिकप्रिया के 46 चित्र चित्रित किए गए।

– महाराणा हम्मीरसिंह के काल में ‘बड़े पन्नों’ पर चित्र बनाने की परम्परा शुरू हो गई।

– महाराणा भीमसिंह के काल में भित्ति चित्रों का अधिक निर्माण।

– विशेषताएँ :-

 – प्रकृति का आलंकारिक रूप से चित्रण।

 – लाल रंग की प्रधानता।

 – आम्र वृक्ष एवं अशोक वृक्ष का अधिक अंकन।

 – हाशिये पर लाल रंग का प्रयोग।

 – भवन का सफेद रंग से चित्रण।

 – चमकीले रंगों का प्रयोग।

 – हाथी, शेर, हिरण, घोड़े का चित्रण बहुलता से।

 – राजस्थानी चित्रकला की मूल शैली।

 – बादलों से युक्त नीले आकाश का चित्रण।

 – पोथी ग्रंथों का अधिक चित्रण।

 – गुर्जर एवं जैन शैली से प्रभावित।

 – कदम्ब वृक्ष व हाथी का चित्रण प्रधान।

– महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के समय का प्रमुख चित्रकार नुरुद्दीन था जिसने ‘पंचतंत्र’ (कलीला-दमना) पर अनेक चित्र बनाए।

– कलीला-दमना :- मेवाड़ शैली में चित्रित पंचतंत्र कहानी के दो पात्र। इन चित्रों के माध्यम से एक ब्राह्मण राजा के पुत्रों को कहानी के रूप में दिखाते हुए शिक्षा देता है। इस कहानी में कलीला-दमना नाम के दो गीदड़ हैं जिनमें एक सरल स्वभाव का एवं दूसरा बुरे स्वभाव का है। इसका सर्वप्रथम पता अलबरूनी ने लगाया। कलीला-दमना के आधार पर सर्वप्रथम सचित्र पुस्तक 1258 ई. में बगदाद में तैयार की गई। यह एक रूपात्मक कहानी है।

(iii) नाथद्वारा शैली :-

– मेवाड़ शैली का दूसरा प्रमुख केन्द्र।

– उदयपुर शैली एवं ब्रज शैली का समन्वित रूप।

– महाराणा राजसिंह के समय उद्‌भव एवं विकास।

– श्रीनाथजी के प्राकट्‌य एवं लीलाओं से संबंधित चित्रण।

– पिछवाई :- श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे सज्जा के लिए बड़े आकार के कपड़े के पर्दे पर बनाए गए चित्र। यह नाथद्वारा शैली की मौलिक देन है।

– प्रमुख चित्रकार :- नारायण, चतुर्भुज, रामलिंग, चम्पालाल, घांसीराम, तुलसीराम, उदयराम, हरदेव, हीरालाल, विटुल, भगवान आदि।

– इस शैली की दो प्रमुख महिला चित्रकार कमला एवं ईलायची थी।

– तिलकायत श्री गोवर्धनजी के समय यहाँ की चित्रकला का विकास चरम सीमा पर था।

– पुरुष आकृति :- पुरुष में गुसाईयों के पुष्ट कलेवर, नन्द और अन्य बाल-गोपालों का भावपूर्ण चित्रण।

– नारी आकृति :- प्रौढ़ता, छोटा कद, तिरछी व चकोर के समान आँखें, शारीरिक स्थूलता व भावों में वात्सल्य की झलक।

– विशेषताएँ :-

 – श्रीनाथजी का अधिक चित्रण।

 – हरे व पीले रंग का अधिक प्रयोग।

 – केले के वृक्ष की प्रधानता।

 – पृष्ठभूमि में सघन वनस्पति।

 – आसमान में देवताओं का अंकन।

 – गायों का मनोरम अंकन।

 – पिछवाई चित्रण।

 – पुष्टिमार्ग सम्प्रदाय का प्रभाव।

(iv) देवगढ़ उपशैली :-

– महाराणा जयसिंह के राज्यकाल में रावत द्वारिकादास चूण्डावत द्वारा 1680 ई. में स्थापित ठिकाणा।

– देवगढ़ के सामंत ‘सोलहवें उमराव’ कहलाते थे।

– इस शैली का उद्‌भव द्वारिकादास चूण्डावत के समय हुआ।

– चित्रण विषय :- मरुस्थल का प्राकृतिक परिवेश, शिकार के दृश्य, अंत:पुर, राजसी ठाठबाट, शृंगार, सवारी आदि।

– चित्रण में पीले रंगों का बाहुल्य।

– मारवाड़ शैली से साम्यता।

– मारवाड़, जयपुर एवं मेवाड़ की समन्वित शैली।

– प्रमुख चित्रकार :- बगता, कँवला प्रथम, कँवला द्वितीय, हरचंद, नंगा, चोखा, बैजनाथ आदि।

– इस शैली को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का श्रेय ‘डॉ. श्रीधर अंधारे’ को जाता है।

– यहाँ के भित्ति चित्र ‘अजारा की ओवरी’ एवं ‘मोती महल’ में विद्यमान हैं।

(v) शाहपुरा उपशैली :-

– मुगल शासक शाहजहाँ ने शाहपुरा को स्वतंत्र रियासत बनाया। यहाँ विकसित चित्रकला मेवाड़ शैली से प्रभावित है। शाहपुरा उपशैली में लोक-जीवन के चित्रण का विशेष प्रभाव था। शाहपुरा उपशैली ‘पड़ चित्रण’ के लिए प्रसिद्ध है। शाहपुरा के श्रीलाल जोशी एवं दुर्गालाल जोशी के परिवारों ने आज भी पड़ चित्रण के माध्यम से पहचान कायम रखी है। शाहपुरा उपशैली के प्रमुख चित्रों में राजा उम्मेदसिंह का 1778 ई. में चित्रित व्यक्ति चित्र, 1772 ई. में चित्रित रागमाला सेट (लंदन में विद्यमान) प्रमुख हैं।

2. मारवाड़ स्कूल :-

– जोधपुर एवं आस-पास के क्षेत्र में राठाेड़ों के आश्रय में पल्लवित चित्रकला शैली को मारवाड़ स्कूल (शैली) के नाम से जाना जाता है।

– यहाँ के चित्रकारों ने अजन्ता शैली परम्परा को आधार बनाकर चित्रांकन किया जिसका प्रथम स्वरूप मण्डोर में दृष्टव्य है।

– तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ ने सातवीं सदी में मरु प्रदेश में शृंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया जिसने पश्चिमी भारत में यक्ष शैली को जन्म दिया।

– मारवाड़ स्कूल का प्रारम्भिक चित्र प्रतिहार कालीन ‘ओध निर्युक्ति वृत्ति’ है जो 1060 ई. के लगभग चित्रित किए गए थे।

(i) जोधपुर शैली :-

– 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में मुगल एवं स्थानीय शैली के प्रभाव से विकसित चित्रकला शैली।

– इस शैली का सर्वाधिक विकास राव मालदेव के समय हुआ। मालदेव के समय चौखेलाव में, जोधपुर की बल्लियों एवं छतों पर राम-रावण युद्ध एवं शप्तशती के अनेक अवतरणों का चित्रांकन किया गया था। मालदेव को ही मारवाड़ के कलात्मक परिवेश को नया रूप देने का श्रेय दिया जाता है।

– जोधपुर शासक मोटा राजा उदयसिंह के समय मारवाड़ शैली पर मुगल शैली का प्रभाव झलकने लगा।

– इस शैली में चित्रित 16सीं सदी का ‘उत्तराध्यायन सूत्र’ वर्तमान में बड़ौदा (गुजरात) संग्रहालय में सुरक्षित है।

– जोधपुर शैली के पूर्ण विकास का काल 16वीं-17वीं सदी माना जाता है।

– जोधपुर महाराजा सूरसिंह के काल में कई सचित्र ग्रंथों का निर्माण हुआ। इनके समय का बिलावल रागिनी वाला चित्र एवं सूरसिंह का व्यक्ति चित्र महत्वपूर्ण है। इसके आश्रय में ‘ढोला-मारू’ भागवत आदि सचित्र ग्रंथ रचे गये। चित्रों के शीर्षक गुजराती भाषा में नागरी लिपी में है।

– 1623 ई. में वीरजी द्वारा पाली में विट्‌ठलदास चाँपावत के लिए रागमाला का तिथियुक्त चित्र चित्रित किया जो मारवाड़ स्कूल की मौलिकता को प्रदर्शित करने वाला प्राचीनतम चित्र है।

– महाराजा जसवन्तसिंह प्रथम के समय जोधपुर में कृष्ण चरित्र को आधार बनाकर चित्रांकन की नई परम्परा शुरू हुई। इनके काल में रसिकप्रिया एवं सूरसागर का चित्रांकन बहुलता से हुआ। इन्हीं के समय नाथों नामक चित्रकार ने व्यक्ति चित्र अधिक बनाये।

– महाराजा मानसिंह के समय बने चित्रों में नाथ सम्प्रदाय का प्रभाव अधिक था। इन्हीं के काल में मारवाड़ शैली के सर्वाधिक सुन्दर एवं प्राणवान चित्रों का चित्रांकन किया गया। इन चित्रों में सामन्ती संस्कृति, राजसी ठाट-बाट, शिकार के दृश्यों का सजीव चित्रण किया गया।

– डालू नामक प्रसिद्ध चितेरा महाराजा अभयसिंह के दरबार में था।

– महाराजा विजयसिंह के समय के प्रमुख चितेरे उदयराम व फेजअली थे।

– महाराजा जसवंतसिंह के काल में करीम, घासी, नाथों, नारायणदास जैसे चित्रकार थे।

– अनु मल्हौत्रा ने बप्पा जी के नाम से महाराजा गजेसिंह द्वितीय के ऊपर ‘द महाराजा ऑफ जोधपुर द ग्लेक्सी लिव्ज ऑन’ चित्र बनाया।

– महाराजा भीमसिंह के समय व्यक्ति चित्र, दरबार एवं जुलूस से संबंधित चित्र अधिक बने। 1800 ई. में निर्मित चित्र ‘दशहरा दरबार’ जोधपुर शैली का सुन्दर उदाहरण है।

– महाराजा मानसिंह के समय अमरदास भाटी, दाना भाटी, शंकरदास, माधोदास, शिवदास, लादूनाथ एवं सरताज सतिदास जैसे प्रमुख चित्रकार थे।

– महाराजा तख्तसिंह के समय जोधपुर शैली पर कम्पनी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा। इनके समय का प्रसिद्ध चितेरा शंकरदास था। महाराजा तख्तसिंह के समय सुनहरे रंगों का अधिक प्रयोग हुआ तथा चित्रों में अलंकारिता में वृद्धि हुई।

– जोधपुर शैली में राजस्थानी प्रेमाख्यान (ढोला मारवण, मूमल-निहालदे, उजली-जेठवा आदि), राजसी ठाट-बाट युक्त दरबारी जीवन, रेगिस्तानी परिवेश, बारहमासा, गीतगोविन्द, रसराज (मतिराम द्वारा चित्रित) आदि विषयों पर चित्रण किया गया।

– अन्य प्रमुख चित्रकार :- बिशनदास, नारायणदास, रामू, अकली, मतिराम, छज्जु भाटी, देवदास, बभूत, रामसिंह भाटी आदि।

– पीला व लाल रंग की प्रधानता। चित्रों के हाशिये में पीले रंग का प्रयोग।

– पुरुष आकृति :- धनुष समान बड़ी आँखें, घनी दाढ़ी-मूँछें, लम्बा कद, गठीला बदन, मोटी ग्रीवा, मुखमण्डल शौर्य से ओतप्रोत।

– नारी आकृति :- गठीला बदन, काले घने लम्बे लहराते बाल, लम्बे हाथ, लम्बी अंगुलियाँ, बादाम सी आँखें, पतली कमर, विकसित नासापुट आदि।

– विशेषताएँ :-

– आम के वृक्ष, ऊँट, घोड़े व कुत्ते को प्रमुखता।

– खंजन पक्षी का बखूबी चित्रण।

– विद्युत रेखाओं सहित गोलाकार घने बादल।

– बादाम-सी आँखें और ऊँची पाग का चित्रण।

– स्त्रियों के आभूषणों में मोतियों का बाहुल्य।

– चित्रों के हाशिये में पीले रंग का प्रयोग।

(ii) बीकानेर शैली :-

– बीकानेर शैली का प्रादुर्भाव 16वीं सदी के अन्त में माना जाता है।

– इस शैली का प्रारम्भिक चित्र ‘भागवत पुराण’ माना जाता है जो महाराजा रायसिंह के समय चित्रित है।

– बीकानेर चित्रकला की प्रमुख विशेषता ‘मथेरण कला’ एवं ‘उस्ता कला’ है।

– महाराजा रायसिंह के समय उस्ता अलीरजा एवं उस्ता हामिद रुकनुद्दीन प्रसिद्ध मुगल चित्रकार थे।

– बीकानेर शैली में मथेरण चित्र जैन चितेरों द्वारा बनाये गये जो बीकानेर की मौलिक देन है। बीकानेर में प्रमुख मथेरण चितेरों में मुन्नालाल, मुकुन्द, जयकिशन, चन्दूलाल, शिवराम, जोशी मेघराज आदि थे।

– बीकानेर चित्र शैली पर राजा कल्याणमल के समय मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा।

– बीकानेर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल महाराजा अनूपसिंह के काल को माना जाता है। इन्हीं के काल में विशुद्ध बीकानेर शैली का रूप देखने को मिलता है।

– उस्ता कला :- ऊँट की खाल पर चित्रण।

– प्रमुख उस्ता चित्रकार :- हामिद रुकनुद्दीन, मुसव्विर रुकनुद्दीन, साहबदीन, शाह मोहम्मद, अहमद अली, अबू हमीद, अली रजा, आसीर खाँ आदि। उस्ता आसीर खाँ ने महाराजा कर्णसिंह के समय उस्ता चित्रण को चित्रांकन किया। महाराजा अनूपसिंह के समय प्रसिद्ध चित्रकार मुसव्विर रुकनुद्दीन ने रसिकप्रिया एवं बारहमासा पर कई चित्र बनाए।

– बीकानेर शैली का सर्वाधिक पुराना व्यक्ति चित्र 1606 ई. में नूर माेहम्मद द्वारा चित्रित व्यक्ति चित्र है।

– सुप्रसिद्ध कला चित्रकार ‘हरमन गोएटज’ ने बीकानेर शैली के चित्रों के संरक्षण में पर्याप्त योगदान दिया।

– विशेषताएँ :-

– मथेरण एवं उस्ता कला।

– बीकानेर शैली के चित्रों पर कलाकार का नाम, उसके पिता का नाम एवं संवत् उपलब्ध होता है।

– मुगल शैली, जैन शैली एवं दक्षिण शैली से प्रभावित है।

– इस शैली में रेखाओं की गत्यात्मकता, कोमलांकन तथा बारीक रेखांकन विशेष रूप से किया गया।

– चटक रंगों के स्थान पर कोमल रंगों का प्रयोग किया गया। लाल, जामुनी, बैंगनी, बादामी आदि रंगों का प्रयोग इस शैली में किया गया।

– मोतियों के आभूषण का अधिक अंकन।

– इस शैली में आकाश को सुनहरे छल्लों से युक्त मेघाच्छादित्त दिखाया गया है।

– बरसते बादलों में से सारस-मिथुनों की नयनाभिराम आकृतियाँ इस शैली की प्रमुख विशेषता है।

(iii) किशनगढ़ शैली :-

– किशनगढ़ रियासत की स्थापना किशनसिंह ने 1609 ई. में की। यहाँ राजा राजसिंह के समय से चित्रकला को प्रोत्साहित किया जाने लगा था। भंवरलाल, सूरध्वज जैसे चित्रकारों ने इस शैली को आगे बढ़ाया।

– किशनगढ़ शैली का स्वर्णयुग :- राजा सावंतसिंह का काल (1699-1764 ई.)।

– राजा सावंतसिंह ‘नागरीदास’ के नाम से कविताएँ लिखते थे। नागरीदास ने लगभग 75 ग्रंथ लिखे। ‘नागर समुच्चय’ सावंतसिंह का प्रसिद्ध ग्रंथ है।

– मोरध्वज निहालचंद राजा सावंतसिंह के दरबार में प्रसिद्ध चित्रकार था। निहालचंद ने राजा सावंतसिंह की पासवान ‘बणी-ठणी’ को राधा का रूप देकर प्रसिद्ध चित्र का चित्रांकन किया। एरिक डिकिन्सन ने बणी-ठणी को ‘भारत की मोनालिसा’ कहा है। भारत सरकार ने 5 मई, 1973 को ‘बणी-ठणी’ पर डाक टिकट जारी किया।

– इस शैली को प्रकाश में लाने का श्रेय एरिक डिकिन्सन एवं डॉ. फैयाज अली को दिया जाता है।

– प्रसिद्ध चित्रकार :- सूरध्वज, मूलराज, मोरध्वज निहालचंद, सीताराम, अमरु, छोटू, धन्ना, रामनाथ, सवाईराम, लालड़ी दास, तुलसीदास, नानकराम, सूरतराम, अमीरचंद आदि।

– विशेषताएँ :-

– बणी-ठणी का चित्रण।

– काव्य में कल्पित रूप एवं मांसल सौन्दर्य का अनूठा चित्रांकन।

– प्रकृति के विराट रंगमंच का रंगीला चित्रण।

– कांगड़ा शैली एवं ब्रज साहित्य से प्रभावित शैली।

– वसली (कागज) पर निर्मित चित्रों का बाहुल्य।

– वेसरि (नाक में पहना जाने वाला आभूषण) का चित्रांकन।

– निम्बार्क सम्प्रदाय से प्रभावित शैली।

– चाँदनी रात में राधा-कृष्ण की केलिक्रीड़ा, बादलों का सिंदूरी चित्रण।

– इस शैली में झील, नाँव, कमल का फूल, सारस, बगुला एवं नारी सौंदर्य को प्रमुख रूप से चित्रित किया गया है।

(iv) अजमेर शैली :-

– जोधपुर शैली, कम्पनी शैली से प्रभावित चित्रकला शैली।

– इस शैली में हिन्दू, मुस्लिम एवं ईसाई धर्म को समान प्रश्रय मिला।

– प्रमुख चित्रकार :- चांद, तैयब, नवला, लालजी, रामसिंह भाटी, नारायण, अल्लाबख्श, भाटी माधोजी, उस्ना आदि।

– महिला चित्रकार साहिबा अजमेर शैली की प्रसिद्ध चितेरी है।

– इस शैली के चित्रों में लाल, पीले, हरे एवं नीले रंगों के साथ-साथ बैंगनी रंग का विशेष प्रयोग किया गया है।

– इस शैली का प्रमुख चित्र चांद द्वारा अंकित राजा पाबूजी का सन् 1698 ई. में चित्रित है।

– बीकानेर शैली की भाँति नारी अंकन में इस शैली के चित्रकारों में लावण्यमय लम्बा इकहरा शरीर अंकित किया है।

– अजमेर शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि वह एक स्थान पर केन्द्रित न रहकर छोटे-छोटे ठिकानों एवं जनसाधारण तक पहुँच स्थापित की है।

(v) जैसलमेर शैली :-

– संरक्षक :- महारावल हरराज, अखैसिंह व मूलराज।

– महारावल मूलराज द्वितीय का शासनकाल जैसलमेर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।

– यह शैली स्थानीय शैली है जिसमें जोधपुर शैली या मुगल शैली का प्रभाव नहीं झलकता है।

– चित्रों में रंगों का बाहुल्य है।

– ‘मूमल’ इस शैली का प्रमुख चित्र है। मूमल लौद्रवा की राजकुमारी थी।

(vi) नागौर शैली :-

– 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ में विकसित शैली।

– इस शैली में बूझे हुए रंगों का अधिक प्रयोग।

– पारदर्शी वेशभूषा नागौर शैली की प्रमुख विशेषता है।

– इस शैली के चित्रों पर जोधपुर, बीकानेर, अजमेर, मुगल और दक्षिण चित्र शैली का मिलाजुला प्रभाव है।

– ‘वृद्धावस्था’ के चित्रों को नागौर के चित्रकारों ने अत्यन्त कुशलतापूर्वक चित्रित किया है।

– सन् 1720 ई. का ‘ठाकुर इन्द्रसिंह’ का चित्र इस शैली का उत्कृष्ट चित्र है।

– नागौर में मुख्य रूप से शबीहों का चित्रण हुआ है।

– नागौर के महलों के दरवाजों पर भी लाख का चटकदार अंकन हुआ है।

– इस शैली में वृक्ष की छाँव में संगीत सुनते युगल नायिकाएँ, उद्यान के महल में मनोरंजन करती महिलाएँ, घोड़ों का अद्वितीय चित्रण, बेलबूटों के बीच उड़ती हुई परियों का चित्रण अत्यन्त मनोहारी प्रतीत होता है।

(vii) सिरोही शैली :-

– इस शैली में जैन ग्रंथों के लेखन एवं चित्रण का कार्य सर्वाधिक हुआ है।

– इस शैली में सोमपुरा एवं गुरोसां जाति के चितेरों ने जैन मुनियों की देखरेख में चित्रांकन की परम्परा को आगे बढ़ाया।

– सिरोही शैली में भित्ति चित्रण की परम्परा महाराजा अखैराज के समय प्रारम्भ हुई।

– सिरोही की प्राचीन राजधानी चन्द्रावती में चित्रण परम्परा का उल्लेख ‘विमल प्रबंध’ नामक ग्रंथ में मिलता है।

– पुरुष आकृति :- गोल चेहरे, बैठी हुई ठुड्‌डी, नाक – भौहें – आँख आदि कम नुकीली, पतली मूँछें एवं छोटा कद।

– नारी आकृति :- ठिगनी, गाेल चेहरा, माँसल शरीर, कम नुकीली नाक, मोटी आँख, पीपल के पात जैसा पेट आदि।

– इस शैली में प्रकृति परिवेश का वृहद चित्रण नहीं मिलता है।

– इस शैली में लाल, पीले, हरे एवं काले रंगों का अधिक प्रयोग किया गया है। इस शैली में चटकदार रंगों का प्रयोग भी मिलता है।

3. ढूँढाड़ स्कूल :- जयपुर एवं उसके आस-पास का क्षेत्र ढूँढाड़ के नाम से जाना जाता है एवं यहाँ विकसित चित्र शैली को ढूँढाड़ चित्र शैली कहा जाता है। ढूँढाड़ स्कूल में आमेर शैली, जयपुर शैली, अलवर शैली, शेखावटी शैली तथा उणियारा उपशैली मुख्यत: शामिल की जाती हैं।

(i) आमेर शैली :-

– ढूंढाड़ शैली का प्रारम्भिक रूप जिसका विकास दो चरणों में हुआ।

– आमेर शैली का प्रारम्भिक चित्रित ग्रंथ ‘आदिपुराण’ है जो 1540 ई. में पुष्पदत्त द्वारा चित्रित किया गया था।

– 16वीं सदी के उत्तरार्द्ध में ईसरदा ठिकाने में चित्रित ग्रंथ ‘सचित्र भागवत’ आमेर शैली के प्रारम्भिक स्वरूप का प्रमुख उदाहरण है।

– अकबर के समय रचित ग्रंथ ‘रज्मनामा’ में आमेर शैली के 48 चितेरों के नामों का उल्लेख मिलता हैं जिन्होंने इस ग्रंथ को तैयार करने एवं चित्रित करने में सहयोग दिया था। यह ग्रंथ जयपुर के ‘पोथीखाना’ में सुरक्षित है।

– आमेर राजा मानसिंह प्रथम के समय 1590 ई. में आमेर में चित्रित ‘यशोधरा चरित्र’ एवं मोजमाबाद में 1606 ई. में चित्रित ‘आदिपुराण’ आमेर शैली का एक महत्वपूर्ण सचित्र ग्रंथ है जो आमेर शैली का तिथियुक्त क्रमिक विकास को स्पष्ट करते हैं।

– आमेर शैली में सचित्र ग्रंथों के अलावा भित्ति चित्रण परम्परा का भी विकास पर्याप्त मात्रा में हुआ है। आमेर शैली में भित्ति चित्र के प्रमाण मानसिंह की छतरी, बैराठ राजा प्रासाद, मुगल गार्डन, आमेर के महल, मौजमाबाद महल, भाऊँपुरा की छतरी आदि में प्राप्त होते हैं।

– मौजमाबाद आमेर शैली का प्रारम्भिक गढ़ रहा है। मानसिंह के समय आमेर शैली पर मुगल प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

– आमेर शैली के विकास का दुसरा चरण मिर्जा राजा जयसिंह के समय प्रारम्भ होता है। इनके समय बिहारी द्वारा लिखित बिहारी सतसई ने अनेक चित्रकारों व रसिकजनों को प्रभावित किया हैं। मिर्जा राजा जयसिंह ने 1639 ई. में अपनी रानी चन्द्रावती के लिए ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘कृष्ण रुक्मणि री वेलि’ आदि ग्रंथों का चित्रांकन करवाया जिसमें कृष्ण एवं गोपियों के युगल स्वरूप का चित्रण लोक शैली में हुआ है।

– इस शैली में प्राकृतिक रंगों जैसे गेरु, सफेदा, हिरमच, पेवड़ी, कालूस आदि का प्रयोग अधिक हुआ है।

(ii) जयपुर शैली

– सन् 1727 ई. में सवाई जयसिंह द्वारा जयपुर शहर बसाने के बाद आमेर शैली के नवीन रूप में विकसित चित्रकला शैली ‘जयपुर शैली’ के रूप में जानी गई।

– सवाई जयसिंह ने अपने राजचिन्हों, कोषों, कला का खजाना, साज-सामान आदि को सुव्यवस्थित ढंग से संचालित करने के लिए 36 कारखानों की स्थापना की जिनमें ‘सूरतखाना’ भी एक है। सूरतखाने में जयपुर के चित्रकार चित्रों का निर्माण करते थे। सवाई जयसिंह के समय ही रसिकप्रिया, कविप्रिया, गीतगोविन्द, रागमाला, बारहमासा एवं नवरस चित्रों का निर्माण हुआ। सवाई जयसिंह के दरबार में मोहम्मद शाह, साहिबराम, शिवदास राय जैसे चित्रकार प्रमुख थे। शिवदास राय ने ब्रजभाषा में ‘सरस रस ग्रंथ’ नामक सचित्र पांडुलिपी को तैयार किया जिसमें कृष्ण विषयक चित्र 39 पृष्ठों पर अंकित हैं।

– महाराजा ईश्वरीसिंह के समय का प्रसिद्ध चितेरा साहिबराम था जिसने महाराजा ईश्वरीसिंह का एक आदमकद चित्र चंदरस से बनाया। ईश्वरीसिंह के समय एक अन्य प्रसिद्ध चितेरा लाल था जिसने पशु-पक्षियों की लड़ाई के अनेकानेक चित्र बनाए। साहिबराम ने बड़े व्यक्ति चित्र (पोट्रेट – आदमकद) बनाकर चित्रकला में नई परम्परा डाली। ईश्वरीसिंह के समय चित्र सृजन का केन्द्र सूरतखाना (आमेर) से हटकर जयपुर आ गया।

– सवाई माधोसिंह प्रथम के शासनकाल में रामजीदास एवं गोविन्द अच्छे चितेरे थे। इस काल में अलंकारों के चित्रण के स्थान पर मोती, लाख तथा लकड़ी की मणियों को चिपका कर रीतिकालीन अलंकारिक मणिकुटि्टम प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया। लाल नामक चितेरा महाराजा ईश्वरीसिंह एवं महाराजा माधोसिंह के समय का प्रसिद्ध चित्रकार था। वह बड़े आकार में शिकार व जंगली जानवरों की लड़ाईयों के चित्र बनाने में निपुण था।

– सवाई पृथ्वीसिंह के समय मंगल, हीरानंद, त्रिलोका जैसे प्रसिद्ध चित्रकार थे।

– सवाई प्रतापसिंह के शासनकाल को जयपुर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल कहा जाता है। सवाई प्रतापसिंह ने स्वयं 21 ग्रंथों का चित्रण किया था। महाराजा प्रतापसिंह के सानिध्य में राधा-कृष्ण की लीलाओं, नायिका भेद, राग-रागिनी, रीति-वर्णन आदि विषयों पर चित्रांकन अधिक हुआ है। सवाई प्रतापसिंह के समय के प्रमुख चित्रकार साहिबराम, सालिगराम, घासी, रामसेवक, चिमना, निरंजन, गोपाल, उदय, लक्ष्मण, सीताराम, फेडूला, हीरा, मंगला, केसू, सांवला, गजा, हरिनारायण, दयाराम आदि थे।

– सवाई जगतसिंह के समय तक जयपुर शैली की मौलिकता बनी रही। गोवर्धनधारण एवं रासमण्डल वाले संसार के प्रसिद्ध चित्र इस समय के प्रमुख उदाहरण है। ‘पुण्डरिक जी की हवेली’ के भित्ति चित्र सवाई जगतसिंह के समय बने थे।

– महाराजा रामसिंह के समय कम्पनी शैली के प्रभाव से यथार्थवादी चित्रण का विकास हुआ एवं पोट्रेट चित्र बनाए जाने लगे। महाराजा रामसिंह ने कलाकारों को प्रोत्साहित करने हेतु ‘मदरसा ए हुनरी’ (महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट‌्स एण्ड क्राॅफ्टस) की स्थापना की। इसी समय में आचार्य की हवेली, दुसाध की हवेली, सामोद की हवेली, पुरोहितजी की हवेली में सुन्दर भित्ति चित्रों का निर्माण हुआ जिनमें अधिकांश चित्रों पर यूरोपीय प्रभाव झलकता है।

– दश महाविद्या का ‘जवाहर सैट’ महाराजा सवाई माधोसिंह द्वितीय के समय का प्रमुख चित्र है।

– ईश्वरीसिंह के काल में 17” X 27” नाम का कागज इतना लोकप्रिय था कि इन कागज के टुकड़ों को ‘ईश्वरीसिंह पाठा’ नाम से पुकारा गया।

– विशेषताएँ :-

– बड़े-बड़े केनवासों पर आदमकद चित्रण की परम्परा।

– चित्रों के हाशिये पर गहरे लाल रंग का प्रयोग।

– चित्रों में सफेद, लाल, नीला, पीला एवं हरे रंग की बहुलता।

– जयपुर शैली में पुरुष व महिलाओं के चित्र आनुपातिक है।

– इस शैली में ‘हाथियों की लड़ाई’ के अद्‌भुत चित्रों का निर्माण।

– मुगल शैली से अत्यधिक प्रभावित।

– उद्यान दृश्यों का अधिक चित्रण।

(iii) अलवर शैली :-

– सन् 1775 ई. में राव राजा प्रतापसिंह ने जयपुर से अलग होकर अलवर रियासत की स्थापना की। इन्हीं के काल में अलवर में चित्रकला को नया स्वरूप प्रदान किया। प्रतापसिंह के समय शिवकुमार एवं डालूराम प्रसिद्ध चित्रकार थे। राजगढ़ किले में राव राजा प्रतापसिंह के समय चित्रकार डालूराम द्वारा किया गया भित्ति चित्रण अलवर शैली के चित्रण के प्रारम्भिक सर्वोत्कृष्ट उदाहरण हैं।

– अंगडाई लेती, कांटा निकालती एवं शृंगार करती नायिकाओं एवं दासियों का चित्रण भावपूर्ण एवं मनोहारी है।

– राव राजा बख्तावरसिंह ने अलवर शैली को सम्मोहक एवं मौलिक स्वरूप प्रदान किया। राजा बख्तावरसिंह ‘चंद्रसखी’ एवं ‘बख्तेश’ नाम से काव्य रचना करते थे। ‘दानलीला’ बख्तावरसिंह का प्रमुख ग्रंथ है। बख्तावरसिंह के समय बलदेव, डालूराम, सालगा, सालिगराम प्रसिद्ध चितेरे थे।

– महाराजा विनयसिंह का काल अलवर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल माना जाता है। उन्होंने प्राचीन सचित्र पुस्तकों के शाही एलबम एवं लघु चित्रावलियों का संग्रह करवाकर एक पुस्तक शाला की स्थापना की। महाराजा विनयसिंह के दरबार में गुलाम अली, बलदेव, आगामिर्जा देहलवी, नत्थासिंह दरबेश जैसे विद्वान एवं चित्रकार विद्यमान थे। गुलिस्तां का सुलेखन एवं चित्रांकन उन्हीं के काल में किया गया। विनयसिंह के समय में निर्मित दीवानजी का रंगमहल भित्ति चित्रण की दृष्टि से प्रसिद्ध है।

– राजा बलवन्तसिंह के समय चित्रकारों ने पोथी चित्रों, लघु चित्रों एवं लिपटवाँ पट चित्रों का चित्रांकन किया। उनके समय कामशास्त्र पर बने चित्र, वैश्याओं के व्यक्ति चित्र, नफीरी वादन का चित्र प्रमुख है। इनके दरबार में प्रमुख चित्रकार सालिगराम, जमनादास, छोटेलाल, बकसाराम, नन्दराम आदि थे।

– महाराजा मंगलसिंह के समय नानकराम, बुद्धराम, उदयराम, मूलचंद, जगन्नाथ एवं रामगोपाल प्रसिद्ध चित्रकार थे।

– मूलचंद नामक प्रसिद्ध चित्रकार हाथीदाँत पर चित्र बनाने में प्रवीण था।

– बुद्धराम पशु-पक्षियों के चित्रांकन में दक्ष था।

– महाराजा शिवदान सिंह के समय मंगलसेन, नानकराम, बुद्धराम प्रसिद्ध चित्रकार थे।

– विशेषताएँ :-

– ईरानी, मुगल एवं जयपुर शैली का प्रभाव।

– सुन्दर बेल-बूंटों वाली वस्लियों का निर्माण।

– चिकने व उज्जवल रंगों का प्रयोग।

– लाल, हरे व सुनहरी रंगाें का विशेष प्रयोग।

– हाथीदाँत पर चित्रण।

– वैश्याओं का चित्रण।

– योगासन इस शैली का प्रमुख विषय रहा है।

(iv) शेखावटी शैली :-

– 15वीं सदी में कच्छवाहा वंश के शेखाजी द्वारा शेखावटी क्षेत्र में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर चित्रण परम्परा को प्रारम्भ किया।

– शेखावटी क्षेत्र भित्ति चित्रण के लिए प्रसिद्ध है। इस क्षेत्र में भित्ति चित्र शैली का विकास बड़ी-बड़ी हवेलियों में हुआ।

– शेखावटी की हवेलियों में चित्रण की यह परम्परा 19वीं सदी में अपने चरमोत्कर्ष पर थी।

– शेखावटी भित्ति चित्रण पर लोक कला शैली के साथ-साथ कम्पनी शैली का भी पूर्ण प्रभाव दिखाई देता है।

– शेखावटी को भित्ति चित्रों के कारण ओपन आर्ट गैलेरी की संज्ञा दी जाती है।

– शेखावटी क्षेत्र में रामगढ़, नवलगढ़, मुकुन्दगढ़, पिलानी आदि कस्बों में उत्कृष्ट हवेलियाँ हैं जो भित्ति चित्रण के लिए विश्व विख्यात है।

– शेखावटी के भित्ति चित्र धार्मिक, सामंती एवं शृंगारिक, लोक जीवन आधारित, औद्योगिकरण एवं कम्पनी शैली से प्रभावित है।

– विशेषताएँ :-

– बड़े-बड़े हाथी और घोड़ों तथा चोबदारों, चँवर-धारणियों का लोक-कलात्मक अंकन।

– गवाक्षों के दोनों ओर की दीवारों पर चित्रांकन।

– गवाक्ष एवं मुख्य द्वार पर सुघड़ शैली में देवी-देवताओं का अंकन।

– हवेलियों की बाह्य दीवारों पर एवं अंदर कथात्मक बड़े-बड़े फलकों का चित्रांकन।

– भित्ति चित्रण में विविध विषयों का चयन, स्वर्ण एवं प्राकृतिक रंगाें का प्रयोग, फ्रेस्काे-ब्रुनो, फ्रेस्को-सेको व फ्रेस्को-सिम्पल विधियों का प्रयोग किया गया।

– शेखावटी के भित्ति चित्रण में कत्थई, नीले व गुलाबी रंग की प्रधानता है।

– शेखावटी के भित्ति चित्रण में ‘बलखाती बालों की लट का एक ओर अंकन’ मुख्य विशेषता है।

– शेखावटी के भित्ति चित्रों में तिथि एवं चित्रकारों के नाम मिलते हैं।

– शेखावटी की उदयपुरवाटी में जोगीदास की छतरी के भित्ति चित्र चित्रांकन परम्परा का प्राचीनतम उदाहरण है। इसके चित्रकार का नाम ‘देवा’ मिलता है।

– फ्रांसीसी ‘नदीन ला प्रेन्स’ ने फतेहपुर की हवेलियों के भित्ति चित्रों के संरक्षण के लिए सराहनीय कार्य किया।

(v) उनियारा शैली :-

– जयपुर एवं बूँदी रियासतों की सीमा पर बसा नरुका ठिकाना।

– राव राजा सरदारसिंह के समय चित्रकला का विकास प्रारम्भ हुआ। इस समय भीमा, मीरबक्श, काशी, रामलखन, भीम प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्होंने नगर एवं उनियारा के रंगमहलाें में भित्ति चित्रण को चित्रित किया। इस शैली पर जयपुर एवं बूँदी शैली का समन्वित प्रभाव है।

– उनियारा में कवि केशव की कविप्रिया पर आधारित बारहमासा, राग-रागिनी, राजाओं के भित्ति चित्र एवं धार्मिक चित्रों का चित्रण किया गया है।

– मीरबक्श द्वारा चित्रित ‘राम-सीता, लक्ष्मण-हनुमान’ उणियारा शैली का उत्कृष्ट चित्र है।

– उनियारा शैली भित्ति चित्रण एवं लघु चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।

– इस शैली में पशु, पक्षियों एवं वनस्पतियों का अंकन कुशलता से किया गया। ऊँट, शेर, घोड़ा, हाथी आदि के चित्र प्रमखता से चित्रित है।

4. हाड़ौती स्कूल :- कोटा – बूँदी – झालावाड़ – बारां का क्षेत्र हाड़ौती कहलाता है। इस क्षेत्र में हाड़ा राजपूत शासकों के संरक्षण में पल्लवित चित्रकला शैली को हाड़ौती स्कूल के नाम से जाना गया।

 हाड़ौती स्कूल में बूँदी शैली, कोटा शैली एवं झालावाड़ शैली प्रमुख है।

(i) बूँदी शैली :- राव सुर्जन हाड़ा (1554-85) के समय विकसित चित्रकला शैली।

– इस शैली पर मेवाड़ और मुगल शैली का प्रभाव है।

– महाराव शत्रुशाल (छत्रशाल) ने सुंदर भित्ति चित्रों से सुसज्जित रंगमहल बनवाया।

– शैली के प्रारम्भिक चित्र :- राग दीपक, रागिनी बिलावल, रागिनी भैरवी, रागिनी मालश्री, रागिनी खंभावती आदि।

– महाराजा भावसिंह के दरबारी कवि मतिराम ने ‘ललित कलाम’ की रचना की। भावसिंह के समय ही ‘रसराज’ पर आधारित चित्रण परम्परा की शुरुआत हुई।

– महाराजा बुद्धसिंह के समय लालकवि ने अलंकरण ग्रंथ की रचना की।

– महाराव उम्मेदसिंह का काल ‘बूँदी चित्रकला का स्वर्णकाल’ कहलाता है। महाराव उम्मेदसिंह ने बूँदी के राजमहल में चित्रशाला का निर्माण करवाया जिसमें बूँदी शैली के सर्वश्रेष्ठ चित्र अंकित हैं। चित्रशाला को ‘भित्तिचित्रों का स्वर्ग’ कहा जाता है।

– सुर्जन हाड़ा के पौत्र रतनसिंह को चित्रकला प्रेम के कारण जहाँगीर ने सर बुलंदराय की पदवी से सम्मानित किया था।

– राव राजा विष्णुसिंह ने रीतिकालीन शृंगारपरकता पर अनेक चित्रों का निर्माण करवाया।

– राव राजा रामसिंह (1821-89) के काल में बूँदी शैली अपनी मौलिकता खोने लगी।

– राव उम्मेदसिंह का जंगली सुअर का शिकार करते हुए बनाया गया चित्र विश्व प्रसिद्ध है।

– प्रमुख चित्रकार :- अहमद अली, गोविन्दराज, डालू, लच्छीराम, नूरमोहम्मद, सुरजन, रामलाल, श्रीकिशन साधुराम, रघुनाथ।

– चित्रण विषय :- सामंती जीवन, कृष्ण चरित, नायिका भेद, रागरंग, आमोद-प्रमोद, शिकार एवं पशुओं की लड़ाई।

– विशेषताएँ :-

– ईरानी, दक्षिणी, मराठा, मुगल व मेवाड़ शैली से प्रभावित।

– रेखाओं का सर्वाधिक व सशक्त चित्रण।

– सतरंगा चित्रण। हरा रंग प्रधान।

– पशु-पक्षियों का अधिक चित्रण।

– मयूर, हाथी, हिरण, सरोवर, केले व खजूर वृक्ष का अधिक चित्रण।

– भित्ति चित्रण बहुलीता से।

– प्रकृति का सुरम्य सतरंगा चित्रण।

– आकाश का वर्ण विधान एवं सघन प्राकृतिक सुषमा।

– महाराव राजा उम्मेदसिंह के काल में चित्रकला शैली में आए परिवर्तन :-

– भावनाओं की सरलता

– प्रकृति की विविधता

– पशु-पक्षियों तथा सतरंगे बादलों, जलाशयों आदि के चित्रण की बहुलता।

– नायक-नायिकाओं के शारीरिक सौन्दर्य की तीव्रता।

(ii) कोटा शैली :- 1631 ई. में कोटा की स्थापना राव माधोसिंह ने की। राव माधोसिंह व मुकुन्द सिंह के काल में चित्रांकन कार्य को प्रारम्भ किया गया लेकिन राव रामसिंह (1696 – 1707) के समय ही कोटा की स्वतंत्र शैली का विकास हुआ।

– महाराव भीमसिंह (1707-1720) के समय कोटा शैली पर वल्लभ सम्प्रदाय का स्पष्ट प्रभाव झलकने लगा।

– माधोसिंह ने स्वयं का नाम ‘कृष्णदास’ व कोटा का नाम ‘नंदगाँव’ रख दिया।

– महाराव दुर्जनशाल के समय वल्लभ सम्प्रदाय की प्रथम पीठ ‘मथुरेशजी’ की प्रतिष्ठा कोटा में की गई।

– महाराव शत्रुशाल (1749-66 ई.) के समय नंदगाँव (कोटा) में कन्हैया ब्राह्मण द्वारा भागवत का लघु सचित्र ग्रंथ का चित्रण किया गया। ‘ढोलामारू’ नामक ग्रंथ का चित्रण इन्हीं के काल में किया गया था।

– महाराव गुमानसिंह के काल में 1768 ई. में ‘रागमाला सैट’ का चित्रण डालू नामक चित्रकार द्वारा किया गया। यह कोटा शैली का सबसे बड़ा रागमाला सैट है।

– महाराव उम्मेदसिंह का शासनकाल ‘कोटा चित्रकला शैली का स्वर्णकाल’ कहलाता है। इनके समय ही झाला जालिमसिंह ने कोटा दुर्ग में झाला हवेली का निर्माण करवाकर उसमें नयनाभिराम भित्ति चित्रण करवाया। उम्मेदसिंह ने हवेली की दीवारों पर शिकार के विशाल चित्र बनवाये। महाराव उम्मेदसिंह के समय चित्रित ‘वल्लभोत्सव चन्द्रिका’ एवं ‘गीता पंचमेल’ प्रमुख ग्रंथ थे। इन्हीं के काल में कोटा शैली पर कम्पनी शैली का प्रभाव दृष्टिगोचर होने लगा।

– महाराजा रामसिंह के समय कोटा शैली में चित्रांकन बड़ी-बड़ी वसलियों पर किया गया।

– प्रमुख चित्रकार :- रघुनाथ, गोविन्दराम, डालू, लच्छीराम, नूर मोहम्मद, कन्हैया ब्राह्मण आदि।

– चित्रण विषय :- शिकार, हाथियों की लड़ाई, दरबारी दृश्य, बारहमासा, राग-रागिनियाँ, युद्ध निदर्शन आदि।

– विशेषताएँ :-

– बड़ी-बड़ी वसलियों पर शिकार का सामूहिक चित्रण।

– कोटा शैली में नारियों एवं रानियों को शिकार करते हुए दिखाया गया हैं।

– हल्के हरे, पीले एवं नीले रंग का अधिक प्रयोग।

– गहन जंगलों में शिकार की बहुलता।

– भित्ति चित्रण प्रमुखता से।

– चम्पा, सिंह, मोर एवं उमड़ते-घुमड़ते घने बादल प्रमुख: चित्रित।

– संरंगी प्रकृति परिवेश का चित्रण।

– इस शैली में हाशिये में लाल व नीले रंग का प्रयोग।

(iii) झालावाड़ शैली :- 1838 ई. में झालावाड़ रियायत के निर्माण के पश्चात विकसित शैली।

– झालावाड़ शैली का उन्नयन महलों एवं मंदिरों में भित्ति चित्रण द्वारा हुआ।

– झालावाड़ में भित्ति चित्रण का कार्य 19वीं सदी के मध्य से लेकर 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक चलता रहा।

– झालावाड़ के भित्ति चित्रों में राजसी वैभव व सामंती परिवेश का उत्तम चित्रांकन किया गया।

भित्ति चित्रण :-

– दीवारों पर किया गया चित्रांकन।

– विषय :- राजसी वैभवपूर्ण जीवन, महफिल, उद्यान विहार, रनिवास प्रेमलीला, धार्मिक चित्र, शिकार व युद्ध के दृश्य, लोकदेवताओं एवं प्रेमाख्यानों का चित्रण, राधा-कृष्ण की लीलाएँ आदि।

– शेखावटी के भित्ति चित्रों में लोकजीवन की झाँकी अधिक देखने को मिलती है।

– भित्ति चित्रण की विधियाँ :-

– फ्रेस्कोबुनो :- ताजी पलस्तर की हुई नम भित्ति पर किया गया चित्रण। राजस्थान में इस पद्धति को ‘आरायश’ या ‘आलागीला’ पद्धति कहा जाता है। शेखावटी में आरायश को ‘पणा’ कहा जाता है।

– फ्रेस्को सेको – चित्रण :- इस विधि में पलस्तर की हुई मिट्‌टी को पूर्ण रूप से सूखने के बाद चित्रण कार्य किया जाता है।

– साधारण भित्ति चित्रण :- वह चित्रण जो सीधे ही किसी भी भित्ति पर किया जाता हैं।

– कोटा की झाला हवेली आखेट चित्रों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।

– शेखावटी क्षेत्र के भित्ति चित्रण में कत्थई, नीले व गुलाबी रंग की प्रधानता है। ‘बलखाती बालों की लट का एक और अंकन’ स्त्री चित्रण में शेखावटी की मुख्य विशेषता है।

– भित्ति चित्र तैयार करने हेतु ‘राहोली’ का चूना अराइशी चित्रण के लिए सर्वोत्तम माना जाता है।

– कोटा में गढ़ के समीप स्थित ‘बड़े देवताओं की हवेली’ भित्ति चित्रों के लिए विख्यात है।

– शेखावटी को भित्ति चित्रों के कारण इसे ओपन आर्ट गैलेरी कहा जाता है।

– आमेर मिर्जा राजा जयसिंह द्वारा 1639 ई. में निर्मित गणेशपोल भित्ति चित्रों एंव अलंकरणों के लिए जानी जाती है।

– राजस्थान के प्रमुख आधुनिक चित्रकार :-

– गोवर्धनलाल बाबा :- कांकरोली (राजसमन्द) में 1914 में जन्म।

 ‘भीलों के चितेरे’ के रूप में प्रसिद्ध।

– प्रमुख चित्र :- बारात।

– इन्होंने भील जनजाति की लोक जीवन शैली को अपनी तूलिका से जीवन्त किया।

– परमानन्द चोयल :- कोटा में जन्म।

– आधुनिक प्रयोगवादी चित्रकार।

– ‘भैसों के चितेरे’ के रूप में प्रसिद्ध।

– देवकीनन्दन शर्मा :- 13 अप्रैल, 1917 को अलवर में जन्म।

– कलागुरु :- शैलेन्द्रनाथ डे।

– पशु-पक्षी चित्रण व भित्ति चित्रण में पर्याप्त ख्याति।

– ‘Master of Nature and Living objects’ नाम से प्रसिद्ध।

– श्री राजगोपाल विजयवर्गीय :- परम्परावादी चित्रकार व साहित्यकार।

– जन्म :- बालेर (सवाईमाधोपुर) में सन् 1905 में।

– कलागुरु :- शैलेन्द्रनाथ डे।

– 1970 में ‘कलाविद्’ एवं 1984 में ‘पद्‌मश्री’ से सम्मानित।

– सर्वाधिक प्रिय चित्रण विषय :-  नारी चित्रण।

– प्रमुख साहित्यिक रचना :- अभिसार निशा।

– एकल चित्र प्रदर्शनी की परम्परा को प्रारम्भ करने वाले राजस्थान के प्रथम चित्रकार।

– सन् 2003 में निधन।

– भूरसिंह शेखावत :- सन् 1914 में धोंधलिया (बीकानेर) में जन्म।

– राजस्थानी जनजीवन का सच्चा व यथार्थवादी चित्रण करने वाले चित्रकार।

– इन्होंने अनेक राष्ट्रभक्त नेताओं, देशभक्त शहीदों और क्रांतिकारी लौहपुरुषों का चित्रण किया।

– 15 मार्च, 1966 को निधन।

– मास्टर कुन्दनलाल मिस्त्री :- नवप्रभाववादी चित्रकार।

– आधुनिक राजस्थानी चित्रकला के जनक।

– कला गुरु :- प्रो. ब्राउन

– प्रसिद्ध चित्र :- सीता स्वयंवर, भील सरदार, जोगिन, कुम्हारिन बाजार की और, क्षमादान, ग्राम्यबाला आदि।

– पुरस्कार :- वेलिंग्ड्गटन प्राइज (1889)

– चित्र निपुण (1907)

– चित्रकला भूषण (1915)

– ज्योतिस्वरूप :- जोधपुर में जन्म।

– चित्र शृंखला :- Inner Jungle

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य :-

– भारत की आधुनिक चित्रकला के पिता :- राजा रवि वर्मा। (केरल)

– ‘मुरली मनोहर’ मेवाड़ के चित्रकार नरोत्तम शर्मा का प्रसित्र चित्र है।

– नीड़ का चितेरा :- सौभाग्यमल गहलोत (जयपुर)।

– जर्मन चित्रकार ए. एच. मूलर द्वारा चित्रित यथार्थवादी शैली के चित्र बीकानेर के राजकीय संग्रहालय में उपलब्ध है।

– बसोहली चित्र शैली :- जम्मू-कश्मीर की।

– कांगड़ा चित्र शैली :- हिमाचल प्रदेश की।

– मधुबनी चित्र शैली :- बिहार की।

– किशनगढ़ के शासक सावंतसिंह की प्रेयसी बनीठणी ‘रसिक बिहारी’ नाम से रचनाएँ करती थी।

– उदयपुर में महाराणा प्रताप का चित्र मास्टर कुन्दनलाल मिस्त्री ने बनवाया जिसकी प्रतिकृति भारत के विख्यात चित्रकार राजा रवि वर्मा ने बनाई थी।

– राज्य में प्राचीनतम गुहा चित्र हाड़ौती क्षेत्र में पाए गए हैं।

– नागौर चित्र शैली पर मुगल जैन एवं अफगानी शैली का प्रभाव दिखाई देता है।

– सुरजीत कौर चोयल हिन्दुस्तान की पहली चित्रकार है जिनके चित्रों को जापान की प्रतिष्ठित कला दीर्घा ‘फुकोका संग्रहालय’ में रखा गया है।

– हिलकारी :- सोने-चाँदी या रांगे का चूर्ण।

– हाड़ौती के शैल चित्र आलनिया नदी के किनारे अवस्थित है। हाड़ौती में शैल चित्रों को खोजने का कार्य सर्वप्रथम 1953 ई. में डॉ. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने किया।

– भित्ति चित्र के लिए प्रसिद्ध दुगारी महल बूँदी जिले में है।

– ‘बारहमासा’ के चित्रों का अंकन मुल्ला दाऊद कृत ‘चन्दायन’ से आरम्भ हुआ माना जाता है।

– मेवाड़ में कलीला दमना पर आधारित चित्र महाराणा संग्रामसिंह द्वितीय के काल में बने थे। इनका प्रमुख चित्रकार नुरुद्दीन था।

– विभिन्न चित्रशैलियों की प्रमुखता :-

चित्रशैलीरंगआँखमुख्य वृक्षनायिका की आयु
जयपुरहरामछलीनुमापीपलप्रथम यौवना
जोधपुरपीलाबादाम जैसीआमप्रौढ़ा
बीकानेरहरा व नीलामृगनयनी ललिता
मेवाड़लालमछलीनुमाकदम्बतरुणी
कोटानीलामृगाक्षीखजूरयौवन विभ्रमा
बूँदीहरा  युवती
नाथद्वारा चकोर के समानकदम्बदासी
किशनगढ़गुलाबी व सफेदखंजन जैसीकेलाविलासवती

– राजस्थानी चित्रकला से सम्बन्धित संग्रहालय :-

– पोथीखाना संग्रहालय – जयपुर

– पुस्तक प्रकाश – जोधपुर

– सरस्वती भण्डार – उदयपुर

– जैन भण्डार – जैसलमेर

– कोटा संग्रहालय – कोटा

– राजस्थान में चित्रकला के विकास हेतु कार्यरत संस्थाएँ :-

– अंकन – भीलवाड़ा

– पैग – जयपुर

– धौरां – जोधपुर

– तूलिका कलाकार परिषद – उदयपुर

– टखमण – 28 – उदयपुर

– कलावृत्त – जयपुर

– चितेरा  – जोधपुर

– राजस्थान ललित कला अकादमी :- जयपुर।

– पश्चिमी क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र :- उदयपुर।

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