राजस्थान की जनजातियाँ

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– आदिवासी या जनजाति – ये लोग सभ्यता के प्रभाव से वंचित रहकर अपने प्राकृतिक वातावरण के अनुसार जीवन यापन करते हुए अपनी भाषा, संस्कृति, रहन-सहन आदि को संरक्षित किए हुए हैं।

– राजस्थान भारत के 6 जनजाति बहुल राज्यों में से एक हैं। राजस्थान का समूचा दक्षिणी पहाड़ी क्षेत्र एवं दक्षिणी पूर्वी पठारी क्षेत्र का कुछ भाग जनजाति बहुल क्षेत्र हैं। यहाँ मुख्यत: भील, मीणा, गरासिया, सहरिया, डामोर, कथौड़ी आदि जनजातियाँ निवास करती हैं।

– भारतीय संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जातियाँ व अनुच्छेद 342 के तहत अनुसूचित जनजातियाँ अधिसूचित की गई हैं। राजस्थान में 12 प्रकार की जनजातियाँ अधिसूचित हैं।

– जनगणना 2011 के अनुसार राज्य में अनुसूचित जाति की जनसंख्या 1.22 करोड़ (कुल जनसंख्या का 17.83%) हैं।

– राज्य में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या :- 92.38 लाख। (कुल जनसंख्या का 13.48%)

– राज्य में उदयपुर जिला जनजातियों की दृष्टि से सबसे महत्त्वपूर्ण जिला हैं।

– राजस्थान का भारत में अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या की दृष्टि से 6 वां स्थान हैं।

क्र. सं.जनजाति विवरणअनुसूचित जाति (2011)अनुसूचित जनजाति (2011)
1.भारत में कुल SC/ST जनसंख्या 201.37 करोड़104.28 करोड़
2.भारत की जनसंख्या से अनुपात16.63%8.08%
3.देश में सर्वाधिक आबादी वाला जिलाउत्तरप्रदेशमध्यप्रदेश
4.देश में सर्वाधिक अनुपात वाला जिलापंजाबमिजोरम
5.राजस्थान में SC/ST जनसंख्या1.22 करोड़92.38 लाख
6.राज्य की जनसंख्या से SC/ST अनुपात17.83%13.48%
7.राज्य का अनुपात की दृष्टि से देश में स्थान8वाँ13वाँ
8.राज्य में SC/ST सर्वाधिक आबादी वाले जिले1. जयपुर2. गंगानगर1. उदयपुर2. बाँसवाड़ा
9.राज्य में सर्वाधिक SC/ST अनुपात वाले जिले1. श्रीगंगानगर2. हनुमानगढ़1. बाँसवाड़ा2. डूँगरपुर
10.राज्य में न्यूनतम SC/ST आबादी वाले जिले1. डूँगरपुर2. प्रतापगढ़1. बीकानेर2. नागौर
11.राज्य में न्यूनतम SC/ST अनुपात वाले जिले1. डूंगरपुर2. बाँसवाड़ा1. नागौर2. बीकानेर

जनजातियों का भौगोलिक वितरण

– राजस्थान में भौगोलिक वितरण की दृष्टि से जनजातियों को तीन क्षेत्रों में विभाजित किया जा सकता हैं।

दक्षिणी क्षेत्र –

– राज्य की कुल जनजातियों का 57 प्रतिशत इस क्षेत्र में निवास करता हैं।

– इस क्षेत्र में निवास करने वाली मुख्य जनजातियाँ भील, मीणा, डामोर तथा गरासिया हैं।

– विस्तार – इस क्षेत्र में सिरोही, चितौड़गढ़, राजसमन्द, डूंगरपुर, बांसवाड़ा और उदयपुर आदि जिलें शामिल हैं।

– 70 प्रतिशत गरासिया जनजाति सिरोही जिले की पिण्डवाड़ा एवं आबूरोड़ तहसीलों में निवास करती हैं।

– 98 प्रतिशत डामोर जनजाति डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा तहसील में निवास करती हैं।

पूर्वी व दक्षिणी पूर्वी क्षेत्र –

– प्रमुख जनजातियाँ – इस क्षेत्र में भील, मीणा, सहरिया व सांसी जनजाति का बाहुल्य हैं। इस क्षेत्र में मीणा जाति की अधिकता हैं।

– सांसी जनजाति भरतपुर में निवास करती हैं।

– विस्तार – अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली, कोटा, बूँदी, बारां, अजमेर, भीलवाड़ा, झालावाड़, टोंक आदि जिलों में।

उत्तर पश्चिम क्षेत्र –

– इस क्षेत्र में राज्य की लगभग 7.14 प्रतिशत जनजातियाँ पाई जाती हैं।

– प्रमुख जनजातियाँ – भील, गरासिया व मीणा।

– विस्तार – यह जनजाति पश्चिमी राजस्थान के 12 जिलों यथा चुरू, हनुमानगढ, गंगानगर, बीकानेर, जैसलमेर, जोधपुर, पाली बाड़मेर, जालौर, सीकर, झुंझुनूं आदि में निवास करती हैं।

राजस्थान की प्रमुख जनजातियाँ

1. मीणा –

  • – मीणा शब्द का अर्थ मत्स्य या मछली होता हैं।
  • – मीणा जनजाति की 51.20 प्रतिशत जनसंख्या राज्य के 5 जिलों जयपुर, करौली, दौसा, उदयपुर, सवाई माधोपुर में पाई जाती हैं।
  • – राज्य में सर्वाधिक मीणा जनसंख्या जयपुर में निवास करती हैं।
  • – जनसंख्या के आधार पर राज्य की सबसे बड़ी एवं शिक्षित जनजाति।
  • – टोंक में जन्मे मीणा के धर्मगुरु जैन मुनि मगन सागर द्वारा लिखित मीणा पुराण में मीणाओं को ‘भगवान मीन’ का वंशज बताया है। इसमें मीणाओं के 5200 गौत्र का वर्णन है।
  • – कच्छवाहा वंश के संस्थापक दुल्हेराय ने मीणा जाति के शासक को पराजित कर आमेर पर अधिकार स्थापित कर लिया।
  • – मीणा जनजाति में मछली का सेवन निषेध हैं।

मीणा जनजाति की उपजातियाँ –

– मीणा जनजाति में दो प्रमुख वर्ग है – (i) जमीदार मीणा व (ii) चौकीदार मीणा।

– जमीदार मीणा जयपुर के आस-पास के भागों में रहते हैं। जबकि चौकीदार मीणा उदयपुर, कोटा, बॅूंदी चितौड़गढ़ आदि जिलों में पाये जाते हैं।

मीणा जनजाति में अन्य सामाजिक वर्ग –

– आद मीणा, रावत मीणा, सुरतेवाल मीणा, ठेढ़िया मीणा, पड़िहार मीणा, भील मीणा, चौथिया मीणा

सामाजिक जीवन –

– मीणा जनजाति की सबसे बड़ी पंचायत :- चौरासी।

– पटेल :- पंचायत का मुखिया।

  • – इस जनजाति में रक्त सम्बन्धों को अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता हैं।
  • – इनमें गोद प्रथा पाई जाती हैं।
  • – मीणा जनजाति के लोग ढाणी, गाँव और पाल में रहते हैं।
  • – इनमें पितृवंशीय परम्परा तथा संयुक्त परिवार प्रथा पाई जाती हैं।
  • – इस जनजाति में बाल विवाह का प्रचलन है।

– नाता प्रथा:- मीणा जनजाति में महिला अपने जीवित पति को छोड़कर अन्य किसी पुरुष के साथ भाग जाए या रहने लगे तो इसे ‘नाता प्रथा’ कहते हैं।

– छेड़ा फाड़ना :- तलाक की एक प्रथा।

धर्म –

– इनका धर्म हिन्दू हैं तथा ये दुर्गा माता की पूजा करते हैं।

– जादू-टोने में विश्वास रखते हैं।

– आराध्य देवी :- बाण माता।

– कुलदेवी :-  जीणमाता।

– लोक देवता :- बूझ देवता।

– इष्टदेव :- भूरिया बाबा (गोतम ऋषि)।

– मीणा जाति का प्रयागराज :- रामेश्वरम (सवाईमाधोपुर)।

अर्थव्यवस्था –

– जमीदार मीणा कृषि व पशुपालन का कार्य करते हैं।

– चौकीदार मीणा चौकीदारी की जगह अन्य व्यवसाय में संलग्न है। मीणा जनजाति में बंटाईदारी की व्यवस्था प्रचलित हैं। इसमें छोटा बट्ट, हाड़ी बट्ट तथा हासिल बट्ट आदि शामिल हैं।

– वर्तमान में मीणा जनजाति ने खेती के अलावा अन्य व्यवसायों को अधिक अपनाया हैं।

मीणा जनजाति के संबंध में अन्य तथ्य :-

  • – मीणाओं का उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता हैं।
  • – राजस्थान की जनजातियों में मीणा जनजाति सर्वाधिक संख्या में पायी जाती हैं।
  • – कर्नल जेम्स टॉड ने मीणों का मूल स्थान काली खोह पर्वतमाला बतलाया है। यह पर्वतमाला अजमेर से आगरा तक फैली हुई हैं।
  • – मीणाओं में देवर ब‌ट्‌टा (देवर से) विवाह करने की प्रथा नहीं होती है।
  • – गोटन :- मीणा जनजाति में मित्र/सहेलियों का समूह।
  • – प्रसिद्ध लेखक हरबर्ट रिजले ने मीणा जनजाति का संबंध द्रविड़ जाति से बताया है।
  • – मीणा लोग गोवर्धन पूजा के दिन शस्त्रों का प्रयोग नहीं करते हैं।
  • – मुख्य नशा – हुक्कापान।

– मेवासे :- आदिवासी मीणों के जंगलों में बने हुए घर।

– ओबरी :- मीणाओं में प्रचलित अनाज रखने की कोठी।

– बढालिया :- मीणा जनजाति में वैवाहिक संबंधों में मध्यस्थता करने वाला मामा – फूफा या अन्य व्यक्ति।

– मीणा जनजाति में मोरनी मांडणा परम्परा का प्रचलन है।

– नयावासी मीणा :- चौकीदार मीणा।

 पुरानावासी मीणा :- काश्तकार मीणा।

– ठेढ़िया मीणा :- जालौर क्षेत्र में निवास।

– चौथया मीणा :- मारवाड़ क्षेत्र में निवास।

2. भील –

  • – भील शब्द द्रविड़ भाषा के ‘बील’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है – तीर-कमान।
  • – राज्य की सबसे प्राचीन जाति।
  • – विस्तार – भील जनजाति राज्य में दूसरी प्रमुख जनजाति हैं। जिनका विस्तार बांसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, भीलवाड़ा, सिरोही व चितौड़गढ़ जिलों में हैं।
  • – भोमट :- मेवाड़ में भील आबादी क्षेत्र।
  • – कर्नल टॉड ने इन्हे मेवाड़ राज्य-अरावली पर्वत श्रेणियों में रहने वाले निवासी बताया हैं। कर्नल टॉड ने भीलों को ‘वन पुत्र’ की संज्ञा दी है।
  • – हेडन भीलों को पूर्व-द्रविड़, रिजले इन्हें द्रविड़, प्रो. गुहा इन्हें प्रोटो-ऑस्टोलायड प्रजाति से संबंधित मानते हैं।
  • – भील स्वयं को भगवान शिव की संतान मानते हैं।
  • – महाभारत में भीलों को निषाद कहा जाता था।
  • – सर्वाधिक भील आबादी – बाँसवाड़ा में।
  • – भील लोगों का आकार :-  छोटे कद, काली त्वचा, चौड़ी नाक एवं जबड़ा कुछ बाहर निकला हुआ होता है।

वस्त्र व आभूषण –

– वस्त्र पहनने के आधार पर भीलों को दो वर्गों में बांटा गया हैं – (i) लंगोटिया भील (ii) पोतीदा भील

– खोयतू – लंगोटिया भीलों द्वारा कमर में पहने जाने वाली लंगोटी।

– कछावू – भील स्त्रियाँ घाघरा पहनती है जो घुटने तक नीचे होता हैं।

– फालू – भील लोग घर पर अपनी कमर पर अंगोछा लपेटा रखते है जिसे फालू कहते हैं। यह स्त्रियाँ भी पहनती हैं जिसे कछाव कहते हैं।

– ढेपाड़ा :- पुरुषों द्वारा कमर से घुटनों तक पहनी जाने वाली तंग धोती।

– पोत्या :- पुरुषों द्वारा सिर पर पहना जाने वाला सफेद साफा।

– सिन्दूरी :- दुल्हन की साड़ी जो लाल रंग की होती है।

– पीरिया :- भील समाज में दुल्हन द्वारा पहना जाने वाला पीले रंग का लहंगा।

– परिजनी :- भील महिलाओं द्वारा पैरों में पहनने की पीतल की मोटी चूड़ियाँ।

बस्तियाँ और घर –

– पाल – भीलों के बहुत से झोपड़ों का समूह पाल कहलाता हैं।

– तदवी – एक ही वंश की शाखा के भीलों के गाँवों को तदवी या वंसाओं कहा जाता हैं।

– पालवी – इनके मुखिया को पालवी कहते हैं।

– कू – भीलों के घरों को स्थानीय भाषा में कू कहा जाता हैं। इसे टापरा भी कहा जाता है।

– ढालिया :-  टापरा के बाहर बना बरामदा।

– फलां – भीलों के छोटे गाँव।

– पाल –  भीलों के बड़े गाँव।

– गमेती – भीलों के बड़े गाँव (पाल) का मुखिया।

सामाजिक व्यवस्था –

– भील जनजाति में संयुक्त परिवार प्रथा पाई जाती हैं।

– अटक :- भीलों का गौत्र।

– भीलों में मुख्यत: पितृसत्तात्मक परिवार पाया जाता है।

– भीलों में कुटुम्ब प्रथा विद्यमान है।

– बहुविवाह प्रथा एवं विधवा विवाह का प्रचलन।

– बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन नहीं है लेकिन विधवा विवाह का अधिक प्रचलन है।

– भीलों में बहुपत्नी, देवर, नातरा विवाह, घर जमाई प्रथा आदि का प्रचलन हैं।

– दापा – भील जनजाति में विवाह के समय कन्या का मूल्य दिया जाता है जिसे दापा कहते हैं। यह वर पक्ष से लिया जाता हैं।

– फाइरे–फाइरे – खतरे के समय भीलों द्वारा किया जाने वाला रणघोष।

– बोलावा – भील जनजाति में मार्गदर्शक व्यक्ति।

– डाहल :- भीलों के गाँवों का सबसे बुजुर्ग व्यक्ति।

धर्म –

– भील जनजाति अधिकतर हिन्दू धर्म का ही पालन करती हैं तथा ये हिन्दूओं के त्योंहारों को मनाते हैं। इनमें होली का विशेष महत्त्व हैं।

– टोटम :- भीलों के कुलदेवता।

– भीलों में प्राकृतिक एवं दैनिक प्रकोपों से बचाव हेतु ‘होवण माता’ की पूजा एवं अपंग एवं विकलांग भील अपनी मनोकामना पूर्ति हेतु ‘खोड़ियाल माता’ की पूजा करते हैं।

– भीलों में ‘उन्दरिया पंथ’ की मान्यता है।

मेला –

– बेणेश्वर मेला :- डूँगरपुर में माही, सोम एवं जाखम नदियों के संगम पर बेणेश्वर धाम में माघ पूर्णिमा को आयोजित मेला। इसे आदिवासियों का कुंभ भी कहा जाता है।

– घोटिया अम्बा मेला :- बाँसवाड़ा में घोटिया अम्बा नामक स्थान पर भरने वाला भीलों का प्रसिद्ध मेला।

अर्थव्यवस्था –

– भीलों में आजीविका के मुख्य साधन शिकार, वनोपज विक्रय एवं कृषि आदि है।

– चिमाता – भील जनजाति द्वारा पहाड़ी ढ़ालों के वनों को जलाकर बनाई गई कृषि योग्य भूमि जिसमें वर्षा काल के दौरान अनाज, दाले, सब्जियाँ बोई जाती हैं।

– दजिया – भीलों द्वारा मैदानी भागों में वनों को काटकर चावल, मक्का, ज्वार, बाजरा, गेहुँ, चना, आदि बोये जाते हैं। इस प्रकार की खेती को दजिया कहते हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– भील द्रविड़ भाषा का शब्द है।

– भील जनजाति को प्राचीन समय में किरात कहा जाता था।

– भोजन :- मक्के की रोटी व कांदे की भात मुख्य खाद्य पदार्थ हैं। माँसाहारी जाति लेकिन गाय का माँस खाना वर्जित है।

– भील स्त्री-पुरुषों को गोदने-गुदाने का बड़ा शौक होता है।

– गोलड़ :- भीलों में नातरा लाई हुई स्त्रियों के साथ आए हुए बच्चों को “गोलड़’ कहा जाता है जो पारिवारिक सदस्य की तरह माने जाते हैं।

– मोकड़ी :- महुआ से बनी शराब।

– ये महुआ से बनी शराब बड़े चाव से पीते हैं।

– नृत्य :- हाथीमन्ना नृत्य, गैर, नेजा, गवरी, भगोरिया, लाढ़ी नृत्य, युद्ध नृत्य, द्विचक्री नृत्य, घूमरा नृत्य आदि।

– गैर नृत्य :- फाल्गुन मास में होली के अवसर पर भील पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।

– भील पुरुष व स्त्रियाँ दोनों शराब पीने के बहुत शौकीन।

– भील केसरियानाथ (ऋषभदेव) के चढ़ी केसर का पानी पीकर यह कभी झूठ नहीं बोलते।

– भील जनजाति में सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना बहुत प्रबल होती हैं।

– पाखरिया :- यदि कोई भील किसी सैनिक के घोड़े को मार देता है तो वह पाखरिया कहलाता है।

– भील जनजाति अत्यन्त निर्धन जनजाति है जिसमें स्थानांतरित कृषि का प्रचलन है।

– छेड़ा फाड़ना :- तलाक की प्रथा।

– गवरी (राई) :- भीलों का प्रसिद्ध नाट्य जो रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से प्रारम्भ होकर 40 दिन तक चलता है। यह राज्य का सबसे प्राचीन लोक नाट्य है।

– मेलनी :- आदिवासियों में जब किसी व्यक्ति की शादी होती है तब उनके परिवारजन 10-10 किलो मक्का देते हैं जिसे मेलनी कहा जाता है।

– मेवाड़ राजचिह्न में एक तरफ राजपूत शासक का तथा दूसरी तरफ भील सरदार का चित्र होता है।

– भील जनजाति जादू-टोने में विश्वास एवं अंधविश्वासी होती है।

– भीलों में विवाह की सह-पलायन प्रथा विद्यामान है जिसमें लड़के-लड़की भाग कर 2-3 दिन बाद वापस आते हैं तब गाँवों के लोग एकत्रित होकर उनके विवाह को मान्यता प्रदान कर देते हैं।

– डाम देना :- भीलों में रोगोपचार विधि।

– हाथीमन्ना नृत्य :- विवाह के अवसर पर भील पुरुषों द्वारा घुटनों के बल बैठकर तलवार घुमाते हुए किया जाने वाला नृत्य।

– हाथीवैण्डो प्रथा :- भील समाज में प्रचलित अनूठी वैवाहिक परम्परा जिसमें पवित्र वृक्ष पीपल, बाँस एवं सागवान के पेड़ों को साक्षी मानकर हरज व लाडी (दूल्हा-दुल्हन) जीवन-साथी बन जाते हैं।

– बोलवा :- मार्गदर्शक का कार्य करने वाला भील।

– भील जनजाति में प्रचलित विवाह :- देवर विवाह, विनिमय विवाह, सेवा विवाह, क्रय विवाह, सहपलायन विवाह, परविक्षा विवाह, बहुपत्नी विवाह, हरण विवाह, हठ विवाह, विधवा विवाह, गोल गधेड़ा विवाह आदि।

– भंगोरिया नामक त्यौहार भीलों में मनाया जाता है।

– नोतरा :- भील जनजाति में शादी के समय वर पक्ष द्वारा वधू पक्ष को दी जाने वाली रकम।

– जी. एस. थॉमसन :- ‘भीली व्याकरण’ नामक ग्रंथ के लेखक।

– प्रसिद्ध लेखक रोने ने अपनी पुस्तक ‘Wild Tribes of India’ में भीलों का मूल निवास मारवाड़ बताया है।

– भगत :- भील जनजाति में धार्मिक संस्कार सम्पन्न कराने वाला व्यक्ति।

– कोदरा :- भीलों द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला जंगली अनाज।

– बांगड़ी (भीली) :- भीलों की बोली।

– महुआ :- भीलों का पवित्र वृक्ष।

– भराड़ी :- भीलों की विवाह की देवी।

– विला :- भीलों के मंदिर व थान का पुजारी।

– कायटा या काट्‌टा :- भील जनजाति में मृत्युभोज।

– भील ‘कांडी’ शब्द को गाली एवं ‘पाडा’ शब्द को शुभ मानते हैं।

– डी. एन. मजूमदार ने भीलों का संबंध नेग्रिटो प्रजाति से बताया है।

– गोविन्द गुरु ने भीलों में सामाजिक जागृति के लिए भगत पंथ की स्थापना की।

– गोविन्द गुरु ने आदिवासियों के उत्थान हेतु 1883 ई. में सिरोही में सम्प सभा की स्थापना की।

– भीलों में जनचेतना जागृत करने के लिए सन् 1920-21 में मोतीलाल तेजावत द्वारा मातृकुंडिया (चित्तौड़) नामक स्थान पर एकी आंदोलन चलाया।

3. गरासिया –

  • – यह मीणा और भील जनजाति के बाद राज्य की तीसरी सबसे बड़ी जनजाति हैं।
  • – इसका प्रमुख निवास क्षेत्र दक्षिणी राजस्थान हैं।
  • – राज्य में सर्वाधिक गरासिया जनजाति सिरोही जिले में पाई जाती हैं।
  • – ये चौहान राजपूतों के वंशज हैं।
  • – गरासिया जनजाति का बाहुल्य सिरोही जिले की आबूरोड एवं पिण्डवाड़ा तहसील, पाली जिले की बाली तहसील एवं उदयपुर जिले की गोगुन्दा एवं कोटडा तहसील में है।
  • – गरासियों का मूल प्रदेश :- आबूरोड का भाखर क्षेत्र।
  • – कर्नल जेम्स टॉड ने गरासियों की उत्पत्ति ‘गवास’ से मानी है जिसका अभिप्राय सर्वेन्ट/नौकर होता है।

– सामाजिक और पारिवारिक जीवन –

– दो प्रकार के गरासिया

 1. भील गरासिया:- यदि कोई गरासिया पुरुष किसी भील स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसका परिवार भील गरासिया कहलाता है।

 2. गमेती गरासिया :- यदि कोई भील पुरुष किसी गरासिया स्त्री से विवाह कर लेता है तो उसका परिवार गमेती गरासिया कहलाता है।

– सामाजिक परिवेश की दृष्टि से गरासिया तीन वर्गों में विभाजित हैं :-

 1. मोटी नियात 2. नेनकी नियात 3. निचली नियात

– एकाकी परिवार का प्रचलन।

– सहलोत/पालवी :- गरासिया जनजाति की पंचायत का मुखिया।

– घेर :- गरासियों के घर।

– सौन्दर्य वृद्धि के लिए गोदने गुदवाने की प्रथा है। गरासिया स्त्रियाँ अत्यधिक श्रृंगार प्रिय होती हैं।

– इस जनजाति में पितृसत्तात्मक परिवार पाए जाते हैं।

– इनमें विवाह को एक संविदा माना जाता हैं उसका आधार वधू-मूल्य होता हैं।

– मोर बंधिया – गरासिया जनजाति का एक विवाह प्रकार जो हिन्दुओं के ब्रह्म विवाह के अनुरूप होता हैं।

– पहरावना विवाह – इसमें नाम-मात्र के फेरे होते हैं।

– ताणना विवाह – इसमें कन्या का मूल्य वैवाहिक भेंट के रूप में दिया जाता हैं। इसमें सगाई, फेरे आदि रस्में नहीं होती हैं।

– गरासिया जनजाति में प्रेम विवाह का अधिक प्रचलन हैं।

– अट्‌टा-सट्‌टा/विनिमय विवाह :- गरासिया में प्रचलित विवाह जिसमें लड़की के बदले उसी घर की लड़की को बहु के रूप में लेते हैं।

– खेवणा :- विवाहित स्त्री द्वारा अपने प्रेमी के साथ भागकर विवाह करना।

– मेलबो विवाह :- गरासियों में प्रचलित इस विवाह में विवाह खर्च बचाने के उद्देश्य से वधू को वर के घर छोड़ देते हैं।

– इनमें विधवा विवाह का भी प्रचलन हैं।

– यह जनजाति शिव-भैरव और दुर्गा देवी की पूजा करते हैं।

– प्रमुख त्योंहार – होली और गणगौर।

– गरासिया जनजाति में त्यौहारों का प्रारम्भ आखातीज (वैशाख शुक्ला तृतीया) से माना जाता है।

– स्थानीय, संभागीय और मनखारों या आम-आदिवासी इत्यादि तीन प्रकार के मेलों का आयोजन किया जाता हैं।

– गरासिया के प्रमुख मेले :- कोटेश्वर का मेला, चेतर विचितर मेला, गणगौर मेला, मनखारो मेला, नेवटी मेला, देवला मेला आदि।

– मनखारो मेला :- गरासिया समुदाय का सबसे बड़ा मेला जो सियावा (सिरोही) में भरता है।

– गरासियों का पवित्र स्थान :- नक्की झील (माउंट आबू)

– फालिया – गाँवों में सबसे छोटी इकाई अर्थात् एक ही गोत्र के लोगों की एक छोटी इकाई।

– मांड :- अतिथि गृह।

– ओसरा – घर के बाहर का बरामदा।

– घेण्टी :- गरासिया घरों में प्रयुक्त हाथ चक्की।

– आणा करना / नातरा प्रथा :- गरासिया जनजाति में विधवा पुनर्विवाह प्रथा।

– अनाला भोर भू प्रथा :- गरासिया जनजाति में नवजात शिशु की नाल काटने की प्रथा।

– हुरे :- गरासिया समुदाय में मृतक की याद में बनाया जाने वाला स्मारक।

– कोंधिया / मेक :- गरासिया समुदाय में प्रचलित मृत्युभोज।

– प्रमुख नृत्य :- वालर, लूर, कूद, मादल, रायण, मोरिया आदि।

– गरासिया जनजाति वालर नृत्य के लिए अत्यन्त प्रसिद्ध है जिसमें किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता है।

– हेलरू :- गरासिया समाज की एक सहकारी संस्था।

अर्थव्यवस्था –

– इनका मुख्य व्यवसाय पशुपालन व कृषि हैं।

– 85 प्रतिशत गरासिया कृषि कार्य से जुड़े हुए हैं।

– ये लोग कृषि श्रमिकों का कार्य करते हैं।

– हारी-भावरी कृषि :- गरासिया समुदाय में सामूहिक रूप से की जाने वाली कृषि।

– सोहरी :- गरासिया समुदाय में अनाज भण्डारण की कोठियाँ।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– गरासिया जनजाति की जनसंख्या समग्र आदिवासी जनसंख्या का 6.70% हैं।

– गरासिया अत्यन्त अंधविश्वासी होते हैं।

– गरासिया जनजाति में शव जलाने की प्रथा है।

– गरासिया सफेद रंग के पशुओं को शुभ (पवित्र) मानते हैं।

– हेलमों – गरासिया जनजाति में किसी व्यक्ति द्वारा कार्य करने के लिए रिश्तेदारों, सगे-संबंधियों को आमंत्रित करने एवं बदले में भोज देने की प्रथा।

4. सहरिया –

– यह राज्य की कुल जनजातियों का 0.99 प्रतिशत हैं। सहरिया जनजाति की जनसंख्या 1.11 लाख हैं।

– वनवासी जाति। सहरिया जनजाति की उत्पत्ति फारसी भाषा के ‘सहर’ शब्द से हुई जिसका अर्थ जंगल होता है।

– राज्य की 99.2 प्रतिशत सहरिया जनजाति बारां जिले में किशनगज एवं शाहबाद तहसीलों में निवास करती हैं।

– कर्नल जेम्स टॉड ने अपनी पुस्तक ‘Travels in Western INdia’ में सहरिया जनजाति को भीलों की एक शाखा माना है।

सामाजिक जीवन –

– गौत्र सहरिया सामाजिक संगठन का महत्वपूर्ण आधार है।

– पिता की मृत्यु के बाद ज्यैष्ठ पुत्र ही परिवार का मुखिया बनता है।

– बहुपत्नी प्रथा एवं विधवा विवाह का प्रचलन।

– फला – सहरिया जनजातियों के गाँव की सबसे छोटी इकाई।

– सहरोल – सहरिया जनजाति के गाँव

– सहराना – सहरिया जनजाति की बस्ती।

– कोतवाल – इस जाति के मुखिया को कोतवाल कहते हैं।

– इनमें साक्षरता अत्यन्त कम हैं।

– हथाई :- सहराना के मध्य में एक छतरीनूमा गोल या चौकोर झोंपड़ी या ढालिया। यह सहरिया समाज की सामुदायिक सम्पत्ति होती है।

– भंडेरी :- आटा/अनाज रखने की कोठरी।

– धारी संस्कार :- सहरिया जनजाति का मृत्यु से जुड़ा संस्कार।

– टापरी :- मिट्‌टी, पत्थर, बाँस, लकड़ी और घास-फूस से निर्मित सहरियाओं के घर।

– पंचायत :- यह सहरिया समुदाय की महत्वपूर्ण संस्था है जिसके तीन स्तर (पंचताई, एकदसिया एवं चौरासिया) होते हैं। चौरासिया सबसे बड़ी पंचायत है।

– सहरिया जनजाति में पुरुष वर्ग में गोदना वर्जित है।

– सहरिया समुदाय में नारी को व्यवहारिक रूप से पूर्ण प्राथमिकता एवं स्वतंत्रता प्राप्त है।

– सहरिया समुदाय में दहेज प्रथा प्रचलित नहीं है।

– सहरिया जनजाति में दीपावली के पर्व पर ‘हीड़’ गाने की परम्परा प्रचलित है।

– सहरिया जनजाति के स्त्री-पुरुष सामूहिक नृत्य नहीं करते हैं।

– प्रिय लोकदेवता :- तेजाजी।

– कुलदेवी :- कोड़िया देवी।

– आदिगुरु :- वाल्मिकी।

– लेंगी :- सहरिया समुदाय में मकर संक्रान्ति के अवसर पर लकड़ी के डण्डों से खेला जाने वाला खेल।

– इस समाज में भीख माँगना वर्जित है।

– सहरिया समुदाय में मृतक का श्राद्ध करने क परम्परा नहीं है।

– सहरिया पुरुष खपटा (साफा) सलूका (अंगरखी) एवं पंछा (घुटनों तक पहनी जाने वाली धोती) नामक वेशभूषा पहनते हैं।

– सहरिया जनजाति का कुंभ :- सीताबाड़ी का मेला (ज्येष्ठ अमावस्या)।

– कपिलधारा का मेला कार्तिक पूर्णिमा को बारां में भरता है।

– यह जनजाति भारत सरकार द्वारा घोषित ‘आदिम जनजाति समूह’ में शामिल है। (राजस्थान की एकमात्र जनजाति)।

– सहरिया जनजाति विकास कार्यक्रम भारत सरकार द्वारा वर्ष 1977-78 में प्रारम्भ किया गया।

आर्थिक जीवन –

– समतल भूमि के स्थान पर मुख्यत: ज्वार की खेती करते हैं।

– वनों से लकड़ी व वन उपज एकत्र करना भी इनका मुख्य कार्य हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– सहरिया :- भारत सरकार द्वारा घोषित राजस्थान की एकमात्र आदिम जनजाति।

– मामूनी की संकल्प संस्था का सम्बन्ध सहरिया जनजाति से है।

– इस जनजाति में भीलों की तरह गोमाँस खाना वर्जित माना गया है।

– इसमें मृतक को जलाने की प्रथा प्रचलित है।

– नातरा की प्रथा प्रचलित है।

– लोकामी :- सहरिया जनजाति द्वारा दिया जाने वाला मृत्यु भोज।

– लीला मोरिया विवाह की प्रथा से जुड़ा हुआ संस्कार है, जो सहरिया जनजाति से संबंधित है।

5. सांसी –

– साँसी जनजाति की उत्पत्ति सांसमल नामक व्यक्ति से मानी जाती है।-

– सांसी जनजाति राज्य के भरतपुर जिले एवं झुंझुनूं के कुछ भागों में पाई जाती हैं।

– जनसंख्या :- 86524

– यह खानाबदोश जनजाति हैं।

– इसे दो भागों में बांटा जा सकता हैं – (i) बीजा (ii) माला

सामाजिक जीवन –

– ये लोग बहिर्विवाही होते हैं अर्थात् एक विवाह में ही विश्वास रखते हैं।

– इनमें विधवा विवाह का प्रचलन नहीं हैं।

– सांसी जनजाति भाखर बावजी को अपना संरक्षक देवता मानती है।

– ये लोग नीम, पीपल, बरगद आदि वृक्षों की पूजा करते हैं।

– सांसी जनजाति के लोग चोरी को विद्या मानते हैं।

– प्रमुख त्यौहार :- होली एवं दीपावली।

– यह जनजाति लोमड़ी एवं साँड का माँस खाना अत्यधिक पसन्द करती हैं।

– सांसी जनजाति में नारियल की गिरी के गोले के लेन-देन से सगाई की रस्म पूरी होती है।

– कूकड़ी की रस्म :- सांसी जनजाति में प्रचलित रस्म जिसमें लड़की को विवाहोपरांत अपने चरित्र की परीक्षा देनी होती है।

– इस जनजाति के विवाह में तोरण या चंवरी नहीं बनाई जाती है बल्कि केवल लकड़ी का खम्भा गाड़ कर वर-वधू उसके सात फेरे लेते हैं।

– यह जनजाति अपने आपसी झगड़ों के निपटारे के लिए हरिजन जाति के व्यक्ति को मुखिया बनाती हैं।

अर्थव्यवस्था –

– ये लोग घुमक्कड़ होते हैं तथा इनका कोई स्थायी व्यवसाय नहीं होता हैं।

– यह हस्तशिल्प व कुटीर उद्योगों में संलग्न हैं।

6. डामोर –

– यह जनजाति मूल रूप से गुजरात की है।

– विस्तार – दक्षिणी राजस्थान के डूंगरपुर जिले की सीमलवाड़ा पंचायत समिति तथा बांसवाड़ा जिले में गुजरात सीमा पर डामोर जनजाति मुख्यतया पाई जाती हैं।

– राज्य की कुल आदिवासी जनसंख्या में इनका भाग 0.63 प्रतिशत हैं। जनसंख्या – 91.5 हजार।

– इन्हें डामरिया भी कहा जाता हैं।

आर्थिक जीवन

– इन लोगों का मुख्य पेशा खेती, पशुपालन व आखेट हैं।

– ये मक्का, चावल आदि फसलों की खेती करते हैं।

– आर्थिक दृष्टि से यह जनजाति पिछड़ी हुई हैं।

सामाजिक जीवन –

– यह जनजाति स्वयं को राजपूत मानती हैं।

– एकाकी परिवार का प्रचलन।

– परिवार का मुखिया पिता होता है।

– इनके झगड़ों का फैसला पंचायत द्वारा होता हैं।

– फलां – डामोर जनजाति के गाँवों की सबसे छोटी इकाई।

– मुखी :- डामोर समुदाय की पंचायत का मुखिया।

– इनमें बहुपत्नी विवाह पद्धति का प्रचलन हैं।

– नतरा – डामोर जनजाति की स्त्रियां अपनी पति की मृत्यु के बाद इस प्रथा का पालन करती हैं।

– छेला बावजी का मेला – डामोर जनजाति के लिए गुजरात के पंचमहल में आयोजित किया जाता हैं।

– ग्यारस की रेवाड़ी का मेला – डूंगरपुर में सितम्बर में महीने में आयोजित किया जाता हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– डामोर :- इस जनजाति के लोग शराबप्रिय एवं माँसाहारी हैं।

– पुरुष भी स्त्रियों की भाँति गहने पहनने के शौकीन हैं।

– डामोर के 95% लोग खेती करते हैं।

– नातेदारी प्रथा, तलाक एवं विधवा विवाह का प्रचलन। विवाह का मुख्य आधार वधू मूल्य होता है।

– डामोर लोग अंधविश्वासी होने के अलावा जादू-टोने, भूत-प्रेत आदि में विश्वास करते हैं।

– डामोर जनजाति में गुप्त विवाह निषेध है।

– दीपावली के अवसर पर इस जनजाति में पशुधन की पूजा लक्ष्मी के रूप में की जाती है।

– इस जनजाति में बच्चों के मुंडन की प्रथा प्रचलित हैं।

– चाडिया :- डामोर जनजाति में होली के अवसर पर आयोजित किया जाने वाला कार्यक्रम।

– मुख्य मेला :- बेणेश्वर मेला (डूंगरपुर)

7. कंजर –

– कंजर नाम संस्कृत शब्द ‘काननचार’ अथवा ‘कनकचार’ का अपभ्रंश है जिसका अर्थ है – जंगलों में विचरण करने वाला।

– जनसंख्या – 53818 (हाड़ौती क्षेत्र में सर्वाधिक)

– विस्तार – कोटा, बूँदी, बारां, झालावाड़, भीलवाड़ा, अलवर, उदयपुर आदि जिलें।

सामाजिक जीवन –

– कंजर जनजाति के परिवारों में पटेल परिवार का मुखिया होता हैं।

– किसी विवाद की स्थिति में ये लोग हाकम राजा का प्याला पीकर एवं ऋषभदेवजी की कसम खाकर विवाद का निर्णय करते हैं।

– आराध्य देव – हनुमानजी।

– आराध्य देवी – चौथ माता।

– कुलदेवी – जोगणिया माता।

आर्थिक जीवन –

– पाती मांगना – चोरी डकैती से पूर्व ईश्वर से प्राप्त किया जाने वाला आशीर्वाद।

– वर्तमान समय में कंजर जनजाति अन्य व्यवसायों में भी संलग्न हुई हैं।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

कंजर :-

– मृतक को गाड़ने की प्रथा।

– कंजरों के मकान के दरवाजे नहीं होते हैं।

– कंजर को पैदल चलने में महारत हासिल है।

– कंजर महिलाएँ नाचने-गाने में प्रवीण होती हैं।

– इस जनजाति में मरते समय व्यक्ति के मुँह में शराब की बूँदें डाली जाती हैं।

– राष्ट्रीय पक्षी “मोर’ का माँस इन्हें सर्वाधिक प्रिय होता हैं।

– यह जनजाति घुमंतू (खानाबदोश) जनजाति है।

– अपराध प्रवृत्ति के लिए प्रसिद्ध जनजाति।

– पटेल :- कंजर जाति का मुखिया।

– कंजर जाति की सबसे बड़ी विशेषता इनकी सामाजिक एकता होती है।

– कंजर जाति मोर का माँस अत्यधिक पसंद करते हैं।

– कंजर जाति के नृत्य :- चकरी नृत्य एवं धाकड़ नृत्य।

– खूसनी :- कंजर महिलाओं द्वारा कमर में पहना जाने वाला वस्त्र।

– मुख्य पेशा :- गायन एवं नृत्य।

– कंजर महिलाएं नृत्य में प्रवीण होती हैं।

– मुख्य वाद्य –  ढोलक एवं मंजीरा।

– प्रमुख मंदिर – 1. चौथ माता का मंदिर – चौथ का बरवाड़ा (सवाईमाधोपुर)। 2. रक्तदँजी का मंदिर – संतूर (बूँदी)।

– कंजर जाति अपने घर के पीछे खिड़की एवं दरवाजे अवश्य रखती है।

8. कथौड़ी –

– यह जनजाति मूलत: महाराष्ट्र की है।

– विस्तार – उदयपुर जिले की कोटड़ा, झाड़ोल एवं सराड़ा पंचायत समिति।

– जनसंख्या – 4833

– ये राज्य में बिखरी हुई अवस्था में निवास करती हैं।

– मुख्य व्यवसाय – खेर के जंगलों के पेड़ों से कत्था तैयार करना।

– कथौड़ी जनजाति एकमात्र ऐसी जनजाति है जिसे मनरेगा में 200 दिवस का रोजगार प्रदान किया जाता है।

– खोलरा – कथौड़ी जनजाति की घास-फूस से बनी झोंपड़ियाँ।

– नायक – कथौड़ी जनजाति का मुखिया।

– नृत्य – लावणी नृत्य, मावलिया नृत्य (नवरात्रा) एवं होली नृत्य।

– आराध्य देवी – कंसारी देवी एवं भारी माता।

– आराध्य देव – डूंगरदेव एवं वांध देव।

– इस जनजाति की भाषा में गुजराती एवं बागड़ी का मिश्रण है।

– इस जनजाति में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ शराब का सेवन करती हैं।

– यह जनजाति पेय पदार्थों में दूध का प्रयोग बिल्कुल नहीं करती है।

– स्त्री एवं पुरुष में गोदने गुदवाने का रिवाज है।

– इस जनजाति में आभूषण पहनने का रिवाज नहीं है।

– कथौड़ी जनजाति का बंदर का माँस अत्यधिक प्रिय है।

– यह जनजाति प्रकृति पर आश्रित है।

– यह जनजाति पुनर्जन्म में विश्वास करती है।

– इस जनजाति में दापा प्रथा एवं विधवा पुनर्विवाह का प्रचलन है।

– इस जनजाति में मृत्यु भोज प्रथा का प्रचलन भी है।

– कथौड़ी स्त्रियाँ मराठी अंदाज में साड़ी पहनती हैं जिसे ‘फड़का’ कहते हैं।

– जनजाति के प्रमुख वाद्य – तारणी, घोरिया, पावरी, टापरा एवं थालीसर।

9. कालबेलिया –

– जनसंख्या – 1,31,911

– निवास क्षेत्र – पाली, जोधपुर, राजसमंद, सिरोही, अजमेर, चित्तौड़, उदयपुर, राजसमन्द आदि।

– नृत्य एवं गायन में दक्ष।

– प्रमुख वाद्य – बीन एवं डफ।

– प्रमुख नृत्य – इंडोणी, शंकरिया, पणिहारी, बागड़िया आदि।

– गुलाबो – इस जनजाति की प्रसिद्ध नृत्यांगना, इन्होंने कालबेलिया नृत्य को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान प्रदान की है।

– कालबेलिया को साँप पालक जाति माना जाता है।

10. नट –

– जनसंख्या – 65894

– निवास क्षेत्र – अलवर, जोधपुर, जयपुर, पाली, टोंक, भीलवाड़ा, अजमेर आदि।

– करतब दिखाने में माहिर जाति।

– कठपुतली नृत्य में माहिर जाति।

अन्य आदिवासी जातियाँ –

– बागरी – खेतों की रखवाली कर अपना भरण-पोषण करने वाली जाति।

– कहार – पालकी उठाने एवं घरों में पानी भरने का कार्य कर अपना जीवनयापन करने वाली जाति।

– ओड़ – मिट्‌टी खोदने, पत्थरों को खोदने का कार्य एवं गधों पर मिट्टी लादकर ढोने वाली जाति।

– पिंजारा – रुई धुनकर (पिंजकर) रजाई-गद्दे भरने वाली जाति।

– गोयला – मिट्‌टी के बर्तन बनाने का कार्य कर जीवनयापन करने वाली एक मुस्लिम जाति।

– धाणका (धानका) :- राज्य की एक पिछड़ी अनुसूचित जनजाति।

जनजाति विकास कार्यक्रम

– बांसवाड़ा जिले में कुशलगढ़ में वर्ष 1956 में बहुउद्देशीय जनजातीय विकास खण्ड प्रारम्भ किया गया था।

– परिवर्तित क्षेत्र विकास कार्यक्रम – यह कार्यक्रम मीणा बहुल दक्षिणी व दक्षिणी पूर्वी जिलों में शुरू की गई थी।

– उद्देश्य – इस योजना का लक्ष्य जनजातियों के जीवन स्तर को ऊपर उठाना तथा बेरोजगारी को दूर करना। इस योजना में पेयजल, ग्रामीण गृह निर्माण, लघु सिंचाई व चिकित्सा आदि योजनाओं को लागू किया गया हैं।

– जनजाति उपयोजना क्षेत्र – इस योजना को पाँचवी पंचवर्षीय योजना के दौरान वर्ष 1974-75 में लागू किया गया था। इसका योजना द्वारा शिक्षा, चिकित्सा, जलापूर्ति, रोजगार, पेयजल आदि सुविधाएँ प्रदान की गई हैं। इस योजना द्वारा आदिवासियों को चिकित्सा के क्षेत्र में प्रशिक्षण प्रदान किया गया हैं।

स्वच्छ परियोजना –

– UNICEF के सहयोग से वर्ष 1985 में आदिवासी क्षेत्रों में शुरू की गई नारू उन्मुलन परियोजना हैं।

– इस योजना में स्वच्छता एवं पेयजल संसाधनों में वृद्धि के प्रयास किए गए हैं।

– सन् 1996 तक यह परियोजना सीडा (स्वीडन) एवं यूनिसेफ की सहायता से चलाई गई थी। सन् 1996 के बाद राज्य सरकार द्वारा एक स्वयंसेवी संस्था ‘स्वच्छ’ (गैर सरकारी) के रूप में पंजीकृत कराकर चलाया जा रहा है।

– इस परियोजना के तहत निम्न योजनाएँ संचालित हैं : 1. मॉ-बाड़ी केन्द्रों का संचालन

 2. कथौड़ी विकास कार्यक्रम

 3. खेल छात्रावास सुविधा

 4. जलोत्थान सिंचाई परियोजना

 5. आवास निर्माण

 6. सामुदायिक भवन निर्माण

अनुसूचित जनजाति स्वरोजगार योजना –

– वर्ष 2001-02 में प्रारम्भ।

– राजस संघ द्वारा संचालित।

– इस योजना में 18 वर्ष से अधिक आयु के राजस्थान के अनुसूचित जनजाति के बेरोजगार व्यक्तियों को रोजगार हेतु बैंकों से ऋण दिलवाकर आर्थिक सहायता प्रदान की जाती हैं।

– विस्तार – पाँच जिले (उदयपुर, डूँगरपुर, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ एवं सिरोही)।

बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम –

– बांसवाड़ा व डूंगरपुर के अलावा राज्य के सम्पूर्ण भू-भाग पर आदिवासियों की बिखरी हुई जनसंख्या निवास करती हैं।

– इस योजना का लक्ष्य बिखरी हुई आदिवासी जनजातियों को एकजुट करना हैं।

एकलव्य योजना –

– इस योजना का लक्ष्य आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा से वंचित बालकों के विकास हेतु छात्रावास एवं स्वास्थ्य केन्द्र की स्थापना करना हैं।

– रोजगार कार्यक्रम – इस योजना का लक्ष्य आदिवासियो को रोजगार के अतिरिक्त अवसर प्रदान करना हैं।

– रूख भायला कार्यक्रम – इस योजना का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्र में सामाजिक वानिकी को बढ़ावा देना तथा पेड़ों की अवैध कटाई को रोकना हैं।

– रूख भायला कार्यक्रम के अन्तर्गत 500 चयनित स्वयंसेवकों को 300 रुपये प्रतिमाह भत्ता दिया जाता है।

– क्रियान्विति :- भारत विकास परिषद द्वारा।

जनजातीय क्षेत्रीय विकास – प्रमुख संस्थाएँ –

– माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान – जनजाति विकास के लिए सन् 1964 में स्थापित इस संस्थान का उद्देश्य जनजातियों के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं जीवन स्तर में सुधार करना हैं। यह संस्थान उदयपुर में है।

– वनवासी कल्याण परिषद् – उदयपुर में स्थित इस संस्थान द्वारा संचालित ‘वनवासी को गले लगाओ’ अभियान प्रारम्भ किया गया हैं।

– राजस्थान जनजातीय क्षेत्रीय विकास सहकारी संघ (राजस संघ) – इस संस्थान का उद्देश्य आदिवासियों को व्यापारी वर्ग के शोषण से मुक्त करना तथा सहकारी संगठनों के माध्यम से इनकी निर्धनता को दूर करना। इस संस्थान की स्थापना 27 मार्च 1976 को की गई थी। इसका प्रधान कार्यालय प्रताप नगर (उदयपुर) में है।

अन्य महत्वपूर्ण योजनाएँ

जनजाति उपयोजना क्षेत्र :- 1974 में लागू।

6 जिले शामिल :- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, उदयपुर, राजसमन्द, चित्तौड़गढ़ व आबूरोड (सिरोही) की 23 पंचायत समितियाँ शामिल जिसमें 4409 गाँव आबाद हैं।

– परिवर्तित क्षेत्र विकास उपागम (MADA) :-

– 1978-79 ई. में अपनाया गया।

– राज्य के 18 जिलों के 44 लघु माडा कलस्टर सम्मिलित किये गये।

– जनजाति क्षेत्रीय विकास विभाग की स्थापना :- 1975 में उदयपुर में।

– सहरिया विकास कार्यक्रम :- 1977-78 में शुरू।

– इस कार्यक्रम में कृषि, लघु-सिंचाई, पशुपालन, वानिकी, शिक्षा, पेयजल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य, पुनर्वास सहायता आदि पर व्यय किया जाता है। यह कार्यक्रम बारां जिले की किशनगंज एवं शाहबाद तहसीलों में संचालित किया जा रहा है।

– बिखरी जनजाति विकास कार्यक्रम :- 1979 में शुरू। जनजाति क्षेत्र विकास विभाग (TADA) द्वारा संचालन

– अनुसूचित जाति विकास सहकारी निगम की स्थापना :- मार्च 1980 में निगम पैकेज ऑफ प्रोग्राम, स्काईट योजना, यार्न योजना, बुनकर शेड योजना के माध्यम से अनुसूचित जनजाति के लोगों को स्वावलम्बी बनाने का प्रयास कर रहा है।

अन्य तथ्य :-

– राष्ट्रीय आदिवासी भील सम्मेलन – जून 2010 में उदयपुर में आयोजित।

– आदिवासी बलिदान दिवस – 17 नवम्बर (यह दिवस मानगढ़ धाम पर 17 नवम्बर, 1913 को हुए भीषण हत्याकाण्ड की स्मृति में मनाया जाता है।)

– जनजातीय तीरंदाजी अकादमी – खेलगांव (उदयपुर) में।

– अनुसूचित जनजाति परामर्शदात्री परिषद – 27 अगस्त, 2010 को गठित। इस परिषद का अध्यक्ष मुख्यमंत्री होता है।

– अनुसूचित जनजाति एवं परम्परागत वनवासी (वनाधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 – 31 दिसम्बर, 2007 को लागू।

– चोखला –  एक विशेष क्षेत्र के आदिवासी गाँवों का समूह।

– चीराबावशी – राज्य के आदिवासी समाज में मृतात्मा का आह्वान करने की परम्परा।

– जसमां ओडण – राजस्थान के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित प्रेमाख्यान जिसमें ओड जनजाति की स्त्री ‘जसमां ओडण’ एवं ‘राव खांगार’ के प्रेमाख्यान का वर्णन है।

– हलमा/हीड़ा/हाँड़ा – जनजाति समुदायों में सामुदायिक सहयोग की परम्परा।

– वार – जनजाति समुदाय में सामूहिक सुरक्षा की प्रतीक मानी जाने वाली परम्परा। इसमें ‘मारुढोल’ के द्वारा लोगों तक संकट का संदेश पहुँचाया जाता है।

– भराड़ी – राजस्थान के दक्षिणांचल में भीली जीवन में व्याप्त वैवाहिक भित्ति चित्रण की लोकदेवी।

– लीला-मोरिया संस्कार – आदिवासियों में प्रचलित संस्कार। इस संस्कार में विवाह के अवसर पर दूल्हे के घर पर दूल्हे को वालर बाँधकर खाट पर बैठाकर उसके चारों ओर घूमते हुए नृत्य किया जाता है।

– लोकाई/कांदिया – आदिवासियों में मृत्यु के अवसर पर दिया जाने वाला भोज।

– ‘भांदरिया’ नामक आभूषण जनजातियों के हर स्त्री-पुरुष के गले में पहना जाता है। यह आभूषण गले की हंसली एवं काले धागे में पिरोया जाता है।

– मायस – नातरा करने वाले पुरुष द्वारा नातरा करने वाली स्त्री के पीहर पक्ष को दी जाने वाली सामग्री।

– नातरा – आदिवासियों में प्रचलित विधवा पुनर्विवाह की प्रथा।

– छेड़ा फाड़ना – तलाक की एक प्रथा।

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