विशिष्ट बालकों हेतु पाठ्यक्रम निर्माण करते समय किन आधारों पर विचार आवश्यक है सोदाहरण स्पष्ट करें।

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पाठ्यचर्या के आधार– पाठ्यचर्या रचना के प्रमुख आधार है । दार्शनिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक, वैधानिक, ऐतिहासिक और ज्ञानात्मक ।

दार्शनिक आधार– पाठ्यचर्या शिक्षा के उद्देश्यों पर आधारित होती है और शिक्षा के उद्देश्यों का आधार दर्शन होता है । अतः समाज के लोगों का जीवन–दर्शन, उनकी सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विचारधारायें शिक्षा के पाठ्यक्रम का सुदृढ़ आधार होती हैं। चूंकि समाज परिवर्तनशील होता है उसकी दार्शनिक विचारधारा में परिवर्तन होता रहता है। अत: तदनुसार शिक्षा के उद्देश्यों और पाठ्यचर्या में भी परिवर्तन होता है एक देश के दार्शनिक सिद्धान्त दूसरे देश के दार्शनिक सिद्धान्तों से भिन्नता रखते हैं। इसलिए एक देश में प्रचलित पाठ्यचर्या दूसरे देश की शिक्षा के लिए उपयुक्त नहीं बैठता है। एक ही समाज में भिन्न युग में भिन्न पाठ्यचर्या का प्रयोग किया जाता है । उदाहरणस्वरूप हमारे देश में प्राचीन काल में शिक्षा की पाठ्यचर्या धार्मिक थी। उसमें वेद–वेदांग, धर्मशास्त्रों, कर्मकाण्डों का बाहुल्य था । लेकिन वर्तमान समय में ऐसी पाठ्यचर्या अपने देश के लिए उपयोगी नहीं है। हमारा जीवन–दर्शन प्रजातंत्रीय सिद्धान्तों समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता, आर्थिक खुलापन जैसे मूल्यों से प्रभावित है। अतः अब पाठ्यचर्या का निर्माण उक्त जीवन मूल्यों को ध्यान में रखकर किया गया है । हमारे देश के सभी शिक्षा के आयोगों यथा–राधाकृष्णनन आयोग, मुदालियर, आयोग, शिक्षा आयोग ने सभी स्तरों के शिक्षा के पाठ्यचर्या में प्रजातंत्रीय जीवन दर्शन को आधार बनाया है।

शिक्षा दर्शन के चार वादों ने शिक्षा की पाठ्यचर्या को अपनी विचारधारा के अनुसार प्रस्तावित किया है । इन चारों विचारधाराओं ने शिक्षा की पाठ्यचर्या को किस प्रकार प्रभावित किया है–इस पर प्रकाश डालना समीचीन होगा।

(1) आदर्शवाद और पाठ्यचर्या– आदर्शवाद मन–विचार, आत्मा, मानवीय मूल्यों और सांस्कृतिक धरोहर को भौतिक पदार्थों की अपेक्षा अधिक मूल्यवान, सत्य और शाश्वत मानता है। अतः आदर्शवादी पाठ्चर्या में धर्म–दर्शन, साहित्य, भाषा, इतिहास, भूगोल और गणित को व्यावसायिक विषयों, क्राफ्ट आदि की अपेक्षा अधिक महत्त्व दिया गया है ।

(2) प्रकृतिवाद और पाठ्यचर्या– प्रकृतिवाद प्राकृतिक वातावरण, मानव प्रकृति, जन्मजात प्रवृत्तियों और आवश्यकताओं को सभ्यता और संस्कृति की अपेक्षा अधिक महत्त्व देता है । अतः प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या में पुस्तकीय आज की अपेक्षा इन्द्रियानुभव–प्राकृतिक वातावरण और मानवीय प्रकृति से सम्बन्धित अनुभवों को वरीयता प्रदान की जाती है। प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या में बालक के वर्तमान को सुखद बनाने का प्रयास किया जाता है।

(3) प्रयोजनवाद और पाठ्यचर्या– प्रयोजनवादी विचारधारा ने आधुनिक पाठ्यचर्या को सर्वाधिक प्रभावित किया है। प्रयोजनवादी पाठ्यचर्या में ऐसी विषयवस्तु और क्रियाओं को सम्मिलित किया जाता है जो विद्यार्थियों में सोचने–समझने, तर्क और चिंतन करने समस्या का विश्लेषण करने और समाधान करने की क्षमता का विकास कर सके। ऐसी पाठ्यचर्या प्रकृतिवादी पाठ्यचर्या के समान बाल–मनोविज्ञान पर आधारित होती है और क्रिया प्रधान होती है । इसमें परम्परागत मूल्यों के बजाय बदलती हुई सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नये जीवन–मूल्यों और आदर्शों को अपनाने की शिक्षा दी जाती है।

(4) यथार्थवादी और पाठ्यक्रम– यथार्थवाद भौतिक जगत एवं इन्द्रियगम्य वस्तुओं को ही सत्य मानते हैं । अतः ऐसी पाठ्यचर्या में विधान, प्रौद्योगिकी, उद्योग–धन्धों एवं आर्थिक क्रियाओं से सम्बन्धित विषयों को प्रमुख स्थान मिलता है। धर्म, दर्शन, नैतिकता, साहित्य से सम्बन्धित ज्ञान का महत्त्व करती है।

उक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि दार्शनिक विचारधारायें पाठ्यचर्या के स्वरूप और विषय–वस्तु का निर्धारण करती है।

पाठ्यचर्या का सामाजिक और सांस्कृतिक आधार– शिक्षा के दोहरे सामाजिक दायित्व है। एक समाज के प्रति और दूसरा व्यक्ति के प्रति । समाज से संचित ज्ञान–संस्कृति और सभ्यता को नयी पीढ़ी को हस्तान्तरित करना–सामाजिक परिवर्तन के लिए नवीन जीवन मूल्यों और आदर्शों का विकास करना आदि शिक्षा के ऐसे कार्य हैं जो उसके सामाजिक उत्तरदायित्व को पूर्ण करने के लिए किये जाते हैं। शिक्षा व्यक्ति के प्रति अपने सामाजिक दायित्व की पूर्ति सामाजीकरण की प्रक्रिया के द्वारा करती है। पाठ्यचर्या में ऐसे विषय और कार्यक्रम रखे जाते हैं जिससे वे अपनी सामाजिक धरोहर को पहचानें और अपने को उन्हीं के अनुरूप ढालें । पाठ्यचर्या के द्वारा विद्यार्थियों को नये विचारों–व्यवहारों, आदतों और जीवन मूल्यों को संप्रेषित किया जाता है जिससे परिवर्तनशील समाज में वे अपना सामंजस्य कर सके। उदाहरणस्वरूप हमारे देश में इस समय सामाजिक परिवर्तन तीव्र गति से हो रहा है। अतः यहाँ पाठ्यचर्या में नवीन सामाजिक प्रवृत्तियों यथा–धर्म निरपेक्षता, समानता, जातिगत भेदभाव से मुक्ति, नारी स्वातन्त्र्य, पर्यावरण सुरक्षा जैसी चीजों को सम्मिलित किया गया है। लेकिन शिक्षा और समाज के व्यवहार और आदर्शों में समरूपता और सामंजस्य होना आवश्यक है, इससे दोनों में टकराव नहीं होता है और दोनों एक–दूसरे को लक्ष्य प्राप्ति में सहायता करते हैं।

(1) मनोवैज्ञानिक आधार – पाठ्यचर्या केवल तथ्यों और सूचनाओं का गट्ठर नहीं है, अपितु ऐसी योजना है जो बालकों का स्वाभाविक विकास करता है। अत: पाठ्यचर्या का मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों और नियमों पर आधारित होना आवश्यक है | मनोविज्ञान ने बाल–विकास, सीखने के नियम, व्यक्तिगत भिन्नता, बुद्धि परीक्षण, स्मरण की नवीन विधियाँ, मानसिक स्वास्थ्य–संरक्षण आदि के सम्बन्ध में नवीन तथ्य प्रदान किये हैं। पाठ्यचर्या का निर्माण करते समय इन तथ्यों का ध्यान रखा जाता है जिससे यह मनोवैज्ञानिक और स्वाभाविक बन सके। उदाहरणस्वरूप अब पाठ्यचर्या में छात्रों को रहने के बजाय समझबूझ के सीखने व्यक्तिगत भिन्नता के लिए अनेक विषयों का समावेश कार्यानुभव पर विशेष बल जैसी चीजें सम्मिलित हैं जो मनोवैज्ञानिक आधार को सिद्ध करती हैं।

(2) वैधानिक आधार– पाठ्यचर्या का आधार वैधानिक भी होना चाहिए यह विचार प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री हरबर्ट सेंसर का है। यह विज्ञान का युग है। अब मनुष्य की दिनचर्या विज्ञान और तकनीकी ज्ञान पर निर्भर करती है। जैसे विविध उपकरणों, उपस्करों का चलन और प्रयोग वैज्ञानिक ज्ञान पर निर्भर करता है । अतः प्रत्येक व्यक्ति को विज्ञान के मूलभूत नियमों का प्रारम्भिक ज्ञान आवश्यक है । इसलिए पाठ्यचर्या में विधान सम्बन्धी विषयों और क्रियाओं को सम्मिलित करना आवश्यक है।

(3) ऐतिहासिक आधार– पाठ्यचर्या का ऐतिहासिक आधार नयी पीढ़ी को मानव सभ्यता के विकास–क्रम से परिचित कराता है। इतिहास के द्वारा मनुष्य पिछली गलतियों से बचना सीखता है मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रागैतिहासिक काल से अब तक मनुष्य विकास के जिन सोपानों से गुजरा है, बालक अपने जीवन से प्रारम्भिक वर्षों में उनको दोहराता है। अतः पाठ्यचर्या में ऐतिहासिक घटनाओं, क्रियाओं का समावेश होना आवश्यक है।

(4) पाठ्यचर्या का धनात्मक आधार– शिक्षा का कार्य बालकों को नयी–नयी सूचनायें और ज्ञान देना ही नहीं होता यह ऐसी प्रक्रिया है जो बालक की मानसिक क्रियाओं जैसे, सोचने, समच्ने, स्मरण करने, तर्क करने, विश्लेषण और संश्लेषण करने, सामान्यीकरण करने आदि का विकास करती है । अतः पाठ्यचर्या को बनाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि बालकों के आयु स्तर के अनुरूप उसमें ऐसी विषयवस्तु सम्मिलित हो कि.बालक से विभिन्न स्तर की मानसिक क्रियाओं के विकास का अवसर मिले । बालक स्मरण करने के साथ–साथ तर्क और चिन्तन करने, समस्या समाधान करने की योग्यता प्राप्त कर सके । बड़ी कक्षाओं की पाठ्यचर्या में तुलना, व्याख्या, सिद्धान्त, निरूपण को रखा जाना चाहिए।

पाठ्यचर्या की आवश्यकता एवं महत्त्व– शिक्षा की प्रक्रिया में पाठ्यचर्या का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है । यह सीखने की प्रक्रिया का माध्यम होता है । यदि शिक्षा के उद्देश्य उसे लक्ष्यपूर्ण बनाते हैं तो पाठ्यक्रम उन लक्ष्यों को प्राप्त करने का साधन बनता है। पाठ्यचर्या वह मार्ग है जिस पर चलकर शिक्षक शिक्षार्थी को शिक्षा के लक्ष्य प्राप्त कराने में सहायता करता है बिना पाठ्यचर्या के शिक्षा की प्रक्रिया शून्य होगी।

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