कला में शिक्षा तथा शिक्षा में कला के बीच अन्तर का वर्णन कीजिए।

Estimated reading: 1 minute 100 views

जिस तरह शारीरिक विकास हेतु भोजन का महत्त्व हैउसी तरह सामाजिक विकास के लिए शिक्षा का।

पौधों का विकास कृषि के द्वारा तथा मनुष्य का विकास शिक्षा के द्वारा होता है।” लॉक

शिक्षा मानव व्यवहार का परिशोधन है।”

“शिक्षा एक ऐसी सुनियोजित तथा चेतन प्रक्रिया हैजिसमें एक व्यक्तित्व ज्ञान के दूसरे व्यक्तित्व को उसके विकास के लिए प्रभावित करता है।” -एडम्स

“मानव की सम्पूर्णता का प्रकटीकरण ही शिक्षा है।” -विवेकानन्द

उक्त विचारों से शिक्षा की सटीक विचारधारा हमारे सामने आती है।

कला सत्य की अनुकृति की अनुकृति है।” -प्लेटो

कला अनुकरणीय है।” अरस्तु

“कला आदिभौतिक सत्ता को व्यक्त करने का माध्यम है।” -हीगेल

कला बाह्य प्रभाव (इम्प्रेशन) की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) है।”

अगर अपने भावों की क्रियारेखारंगध्वनि अथवा शब्द द्वारा इस तरह अभिव्यक्त किया जाए कि उसे देखने अथवा सुनने वाले में भी वही भाव पैदा हो जाएंतो उसको कला कहा जाएगा।”

हर महान् कला ईश्वरीय कृति के प्रति मानव-आलाद की अभिव्यक्ति है।” रॉस

“हर महान् कला है।

न तज्झानं न तच्छिस्थं न सा विद्या न सा कला।”

नाट्यशास्त्र में भरत मुनि ने स्पष्ट किया कि ऐसा कोई ज्ञान नहींकोई शिल्प नहींकोई विधा नहींजो कला नहीं।

कला के बारे में कहा गया है कि वह कला जो कलाकार की मौलिक रचना हो एवं जो इससे पहले न कभी थी एवं न कभी होगी।”

“मनुष्य की रचनाजो उसके जीवन में आनन्द प्रदान करती हैकला कहलाती है।”

“सत्यम् शिवम् सुन्दरम् की अभिव्यक्ति ही कला है।”

कलानां प्रवरं चित्रं धर्मार्थकाममोक्षदं ।

मगल्यं प्रथमं चैतद् गृहे यत्र प्रतिष्ठितम् ।

-‘चित्रसूत्रम्,’  विष्णुधर्मोत्तर पुराण

उक्त शिक्षा एवं कला की विशेष टिप्पणियों को देखते हुए तथा गहन अध्ययन के बाद यही निष्कर्ष निकलता है कि कला में शिक्षा एवं शिक्षा में कला में कोई विशेष अन्तर नहीं है। अगर अन्तर है तो यह है कि परम्परागत कला को करने हेतु शिक्षित होना आवश्यक नहीं लेकिन शास्त्रीय चित्रण हेतु शिक्षा जरूरी है।

इस तरह उन्नीसवीं शताब्दी तक कला शब्द शिल्प से कला तथा कल्पना‘ हेतु पहले कला‘ के सन्दर्भ में उस विश्वास के साथ कह सकें कि यह और यह तो कला है एवं वह और वह कला नहीं है ।” ‘कला‘ शब्द के विषय में अस्पष्टताओं को स्पष्ट करने हेतु इसके इतिहास पर नजर डालते हैं।

यूनानी में ‘tcchne’ टैक्ने के समानप्राचीन लैटिन में Ars का अर्थ भी एक बिल्कुल भिन्न वस्तु है। इसका अर्थ होता है शिल्प अथवा दक्षताजैसे- बढ़ईगिरीलोहारगिरी अथवा शल्य चिकित्सा । शिल्प से अलग कला की धारणा जो हम रखते हैं वह यूनानियों तथा रोमनों को नहीं थी जिसे हम कला कहते हैं। उसे वे शिल्पों का एक समूह मात्र मानते थे। मध्यकालीन लैटिन में Ars का अर्थ आधुनिक अंग्रेजी में कला‘ के प्रारम्भिक अर्थ के समान ही एक विशेष तरह का पुस्तकीय ज्ञान था। शेक्सपियर के समय भी इसका यही अर्थ था जैसे एक जादूगर अपने सामान हेतु कहता था कि मेरी कला यहाँ रख दो अथवा मेरी कला यहाँ लाओ। इस तरह पुनर्जागरण युग के कलाकारों ने प्राचीन दुनिया के कलाकारों के समान ही स्वयं को एक शिल्पकार ही माना। 17वीं शताब्दी में यह हो सका कि शिल्प की तकनीक तथा सौन्दर्य को अलग-अलग देखा जाने लगा। अठारहवीं शताब्दी के अन्त तक यह अन्तर इतना बढ़ गया कि ललित कलाओं तथा उपयोगी कलाओं के मध्य अन्तर करना पड़ा। तब ललित कलाओं‘ का अर्थ कोमल अथवा तरह उन्नीसवीं अत्यधिक दक्षता वाली कलाओं से न होकर सुन्दर कलाएं‘ होने लगा। इस शताब्दी तक कला शब्द शिल्प से अलग होकर एक नये रूप में प्रयोग होने लगा। कला-रचना क्या है यह कोई ऐसी वस्तु है जो कलाकार द्वारा कच्चे माल को बदलकर बनायी गयी है अथवा पहले से निर्धारित योजना अथवा उद्देश्य समझकरयह किस तरह बनायी गयी है। इसे हम तकनीक भी नहीं कह सकते तथा मनगढन्त भी नहीं कह सकते । क्योंकि कला रचनाएं अकस्मात् उत्पन्न नहीं की जा सकती हैं। लेकिन अगर यह कलाकार की दक्षता नहीं है तो यह उसका तर्क अथवा इच्छा-शक्ति अथवा चेतना नहीं हो सकती । इसलिए यह कोई दूसरी चीज नहीं होनी चाहिए या तो कलाकार से बाहर की कोई नियन्त्रणकारी शक्तिउस समय हम उसे प्रेरणा कह सकते हैं अथवा उसके अन्दर की कोई ऐसी शक्ति जो इच्छाशक्तिआदि से भिन्न हो । इस समय कला-रचना कलाकार के मस्तिष्क की कोई अचेतन वस्तु हो सकती है। इस हालत में उत्पादक शक्ति कलाकार का अचेतन मस्तिष्क है।

किसी वस्तु की रचना करने का अर्थ है कि उसे जान-बूझकर स्वेच्छा से बनाएं । स्वेच्छा से किया गया काम जिम्मेदारी से होता है । यह जरूरी नहीं कि वह किसी बाह्य उद्देश्य की प्राप्ति हेतु वह कार्य कर रहा होन वह जरूरी है कि वह किसी पूर्व-निर्धारित योजना का अनुसरण कर रहा हो तथा इस तरह वह निश्चय ही किसी ऐसी वस्तु का रूपान्तरण नहीं कर रहा जिसे सही तरह से कच्चा माल कहा जा सके।

जब हम कलाकार द्वारा एक चित्र की एक वस्तु की बात करते हैं तो जिस तरह के बनाने की तरफ हमारा संकेत होता है वह उस प्रकार का है जिसे हम रचना करना कहते हैं क्योंकि यह वास्तविक कला है। यह किसी साध्य के साधन रूप में नहीं बनाई गईयह किसी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार नहीं बनाई गई तथा यह किसी पहले से मौजूद वस्तु का रूप परिवर्तित करके नहीं बनाई गई फिर भी उसे जान-बूझकर और जिम्मेदार ढंग से बनाया गया है। इस तरह की कला रचनाएं उन लोगों द्वारा ही सम्भव है जो वे जानते हैं कि वे क्या कर रहे हैं। वे पहले से यह नहीं जानते कि इस प्रयत्न का क्या परिणाम होगा?

कुला रचना ऐसी वस्तु हो जिसे हम वास्तविक वस्तु कहें। यह एक काल्पनिक वस्तु हो सकती है। इस तरह एक कलाकृति की रचना उस वस्तु की तरह की जा सकती है जिसका एकमात्र स्थान कलाकार के मस्तिष्क में हो। अगर एक संगीतकार ने एक लय बना ली है लेकिन इसे लिखागाया अथवा बजाया नहीं है। ऐसा कुछ नहीं किया कि इसे जन-सम्पत्ति बना सकेतो हम कहेंगे कि यह लय उसके मस्तिष्क में है या एक काल्पनिक लय है। अगर वह इसे गाता अथवा बजाता है तो हम इसे काल्पनिक लय से भिन्न एक वास्तविक लय कहते हैं। जब हम एक कलाकृति के बनाने की बात करते हैं तो हमारा अर्थ एक वास्तविक कलाकृति बनाने से होता है। अगर कोई कलाकृति कलाकार के मस्तिष्क में ही है तो उसने कलाकृति के लिए सिर्फ योजना बनाई है।

कलाकृति का निर्माण दो चरणों में होता है-प्रथमभोजन बनानाजिसका अर्थ रचना है । दूसराउस योजना को निश्चित सामग्री प्रस्थापित करनाजो गढ़ना कहलाता है। एक योजना बनाना भी सृजन का एक मामला है। योजना होने के कारण उसे दुहराना भी घबराहटपूर्ण होगा। इस तरह यह एक कल्पनात्मक सृजन का उदाहरण है। इस तरह की कलाकृतियाँ किसी निश्चित उद्देश्य को पूरा करने के लिए बनाई गई होगी अर्थात् दूसरों को सूचना देने हेतु अथवा स्वयं को योजना का स्मरण दिलाने के लिए। इसके अनुसार इनका बनाना कलात्मक सृजन नहीं करना होगा वास्तव में यह सृजन बिल्कुल नहीं है तथा यह करने की योजना एक विशिष्ट तरह की दक्षता है अर्थात् कलाकार का शिल्प ।

अपनी लय बना चुकने के बाद कलाकार कुछ और कर सकता है अथवा बोल-बोलकर इसे गा या बजा सकता है अथवा लिख सकता है तथा इस तरह दूसरों हेतु यह सम्भव कर सकता है कि वे भी अपने मस्तिष्क में उसे रख सकेजो उसके मस्तिष्क में है। लेकिन संगीत वाले कागज पर जो लिखा अथवा छपा हैलय नहीं है । यह कुछ ऐसी वस्तु है जिसका बुद्धिमत्तापूर्ण अध्ययन दूसरों को अपने मस्तिष्क में उस लय को बना लेने की सामर्थ्य देता है अर्थात् वह कागज पर केवल संकेत चिह्न है जिससे सारांश अथवा कोई संगीतज्ञ ही उसे पढ़कर उसका अध्ययन कर सकता है।

कल्पना करना अवश्य ही वह कार्य है जो वास्तव में किया जाता है। लेकिन कल्पित विषयस्थिति अथवा घटना ऐसी चीजें हैं जो वास्तविक अथवा अवास्तविक हो सकती हैं। कल्पना करने वाला उसके वास्तविक अथवा अवास्तविक रूप की चिन्ता नहीं करता । बहाना बनाने वाला भी बिना विचारेबहाना बना लेता है। वह इस बात से अनभिज्ञ रहता है कि वह अपने लिए अवास्तविक विषयस्थितियाँ या घटनाएं बना रहा है लेकिन जब यह विचार करता है तो यह पाता है कि चीजें अवास्तविक हैं। यह इसे सत्य मानने की भूल कर बैठता है।

कुछ कल्पनाएं जान-बूझकर अनजाने मेंविशिष्ट पूर्ण अथवा लगन के साथ कल्पित की जाने हेतु चुन ली जाती है तथा दूसरी दबा दी जाती है। क्योंकि पहले वे कल्पनाएं हैं जिनकी सच्चाई की व्यक्ति कामना करता है। असत्यपरक कल्पनाओं को त्याग दिया जाता है। इस तरह वास्तविक कल्पनाएंवास्तविक कला रचनाओं को जन्म देती हैं

कला तथा कल्पना का सम्बन्ध कम-से-कम पिछले दो सौ सालों से साधारण बात रहा है। किसी उपन्यास अथवा फिल्म की कलाकल्पना का एक अच्छा उदाहरण है।  चित्रकला पर इसे लागू नहीं किया जा सकता। जब सौन्दर्यशास्त्र को इस पर आधारित करने का प्रयत्न किया जाता है तो परिणाम सौन्दर्यशास्त्र विरोधी होता है। इसका कारण यह हो सकता है कि मनोवैज्ञानिकों को जिन्होंने कलात्मक सृजन को दिवा-स्वप्न की भाँति स्पष्ट करने का प्रयल किया हैउन्हें यह नहीं मालूम कि मनोविनोद कला तथा वस्तुतः कला के बीच विभेद जैसी भी कोई वस्तु होती है और जो कलाकार गलत धारणा से इस तरह का दिवा-स्वप्न दृष्टा होता है जो अपनी कल्पना में एक बहाने की दुनिया बना लेता हैगलत ही है। योग्य कलाकारों तथा योग्य सौन्दर्यविदों ने बार-बार इस गलत धारणा का विरोध किया है।

अगर एक संगीतकार द्वारा एक लय का बनाना कल्पनात्मक सृजन का एक उदाहरण है तो लय एक काल्पनिक वस्तु है तथा यही एक कविता या चित्र अथवा किसी दूसरी कला रचना पर भी लागू होता है। इसमें विरोधाभास प्रतीत होता हैहो सकता है कि हम लय को काल्पनिक वस्तु न मानकर एक वास्तविक वस्तुआवाजों का वास्तविक संग्रह मानें तथा यह कि चित्र कैनवास का वास्तविक रंगों से ढका हुआ वास्तविक टुकड़ा । कला रचना‘ शब्द से हमारा अर्थ किसी ऐसी चीज को नाम देना है जिसे हम वास्तविक कहेंगे। किसी संगीत को ध्यान से सुनने परचित्र को देखने परहमें जो प्राप्त होता है वह एक विशेष प्रकार का इन्द्रिय आनन्द हैं। जिस सीमा तक हम अपनी इन्द्रियों का प्रयोग कर रहे होते हैं उतना ही इन्द्रिय सुख प्राप्त करते हैं। किसी भी कलाकृति को देखते समय हम कल्पना करते हैंजब हम एक चित्र देख रहे होते हैं तब वास्तव में जो हम देखते हैं तथा जो हम काल्पनिक रूप से देखते हैं. इन दोनों के मध्य प्रत्येक व्यक्ति ने कुछ अन्तर नोट किया होगा। इसका एक स्पष्ट उदाहरण कठपुतली का खेल देखने में हम हावभावों के बदलने के साथ-साथ कठपुतली दिखाने वाले की वाणी के शब्दों तथा लयों के परिवर्तन के साथ-साथ कठपुतली के चेहरों पर बदलती हुई अभिव्यक्ति देखी । यह जानते हुए भी कि वे सिर्फ कठपुतलियाँ हैं। हम यह जानते हैं कि इनके चेहरों की। अभिव्यक्ति बदल नहीं सकती लेकिन इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । हम उन अभिव्यक्तियों की काल्पनिक रूप से देखते चलते हैं जिनके विषय में हम यह जानते हैं कि वास्तव में हम इन्हें नहीं देख रहे हैं।

19वीं शताब्दी के अन्त तक  चित्रकला में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। तब तक सभी का यह मानना था कि  चित्रकला एक चाक्षुष कला‘ है तथा चित्रकार वह व्यक्ति है जो अपनी आंखों का प्रयोग करता है तथा हाथों का प्रयोग उन चीजों को उतारने हेतु करता हैतब एक चित्रकार सिजान आया तथा उसने अन्धे आदमी की तरह चित्रण करना शुरू कर दिया। उसके शान्त जीवन के अध्ययनजिसमें उसकी आत्मा का सार मूर्तित थासिजान नहीं था। चित्रकला कभी भी चाक्षुष कला नहीं हो सकती । चित्रकार हाथ से चित्र बनाता है,आंखों से नहीं । प्रभाववादी चित्रकारों ने सिर्फ प्रकाश को बनाया। ऐसे-ऐसे चित्रकार हुए हैं जिन्होंने अपने हाथोंउंगलियोंकलाइयों तथा बाहों सेयहाँ तक कि अपने भावों तथा अंगूठों से भी काम करते थे। चित्रकार वह चित्रित करता है जो चित्रित किया जा सकता है । सिजान का अभ्यास काण्ट‘ के सिद्धान्त कि कलाकार हेतु रंगों का एकमात्र प्रयोग आकृतियों को दिखने योग्य बनाने में है। लेकिन वास्तव में यह बिल्कुल अलग है। काण्ट‘ चित्रकार की आकृतियों को कैनवास पर दिखने योग्य दो आयाम वाली खिची हुई आकृतियाँ मानते थे जबकि सिजान की आकृतियाँ कभी दो आयाम वाली नहीं होती वे ठोस हैं तथा हम उन पर एक कैनवास से होकर पहुँचते हैं। इस तरह की  चित्रकला में चित्र का तल गायब हो जाता है । वह शून्य में पिघल जाता है तथा हम इसमें से गुजर जाते हैं। 19वीं शताब्दी के बाद के चित्र में दर्शक उनमें क्या पाता है यह इस पर निर्भर करता है कि उनमें क्या है इन चित्रों को देखने में दर्शक रंग के केवल सपाट नमूनों को देखताः हैवह और कुछ चित्र से नहीं पा सकता ।

 चित्रकला के विषय में जो भूला हुआ सत्य सिजान के ढंग से फिर सामने आया कि एक चित्र को देखने पर दर्शक का अनुभव निश्चित रूप से चाक्षुप अनुभव बिल्कुल नहीं है। वह जो अनुभव करता हैवह उसके देखने मात्र में समाया हुआ नहीं है। देखने के अनुभव को चाक्षुष कल्पना द्वारा संशोधित तथा पवित्र करके किये गये अनुभव में भी समाया हुआ नहीं है। यह सिर्फ देखने मात्र से ही सम्बन्धित नहीं है। इसमें स्पर्श का योगदान भी है। जैसे कैनवास पर कैसा टैक्सचर है कपड़े की मोटाई कैसी है छाल का ठण्डा खुरदरापनपत्थर की चिकनाहट अथवा कुरमुरापन तथा गुण जो ये चीजें हमारी संवेदनशील उंगलियों के निशानों को दिखा देती है। इस तरह चित्रकार की भाषा दर्शक के मस्तिष्क को संवेदनशील बना देती है तथा दर्शक चित्रकार की भाषा को समझ जाता है ।

कला का आनन्द इन्द्रिय अनुभव ही नहीं हैयह कल्पनात्मक अनुभव है । संगीत को सुनने वाला व्यक्ति सिर्फ उसकी सुखद आवाजों का ही अनुभव नहीं कर रहा होता है वह कल्पनात्मक रूप में सभी तरह की गतियों का अनुभव कर रहा होता हैजैसे-समुद्रआकाशसितारेवर्षा की बूंदों का गिरनाहवा का तेज बहनादुकानझरने का बहनानृत्यआलिंगन तथा युद्ध आदि । चित्रों को देखने वाला व्यक्ति भी रंगों के नमूनों को देखने के साथ-साथ कल्पना में इमारतोंप्रकृतिदृश्यों तथा मानवीय आकृतियों में घूमता है। इसलिए कला के गुण-दोषों का विवेचन करने की समुचित योग्यता रखने वाले व्यक्ति हेतु एक कला रचना का मूल्य इन्द्रिय तत्त्वों द्वारा प्रदत्त आनन्द की भावना से नहीं हैजो कला-रचना के वास्तविक आधार हैंवरन् कलात्मक अनुभव की उस आनन्द भावना से है जिसे वे इन्द्रिय तत्त्व जगाते हैं। कला रचनाएं एक साध्य हेतु साधन होती हैं। यह साध्य सम्पूर्ण कल्पनात्मक अनुभव है जिसका आनन्द लेने योग्य ये हमें बनाती हैं।

इसलिए वस्तुतः कला-रचना एक सम्पूर्ण क्रिया है जिसका आनन्द लेने वाला व्यक्ति अपनी कल्पना द्वारा इसे समझता है अथवा इसके प्रति सजग होता है।

डॉ. स्वामीनाथन के शब्दों में, “कला का मूल प्रयोजन एक ऐसे समानान्तर संसार का सृजन है जिसमें स्वचेतन मनुष्य अहं-भाव से मुक्त होकर अपने को अनन्त रूपों में देख सकता है।

Leave a Comment

CONTENTS