प्राचीन भारत में नाटक की प्रस्तुति कब होती थी?

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कुछ विद्वानों की मान्यता है कि-“संस्कृत नाटक आर्यों के धार्मिक कर्मकाण्ड के अवसर पर पेश किये जाते थे।”

लेकिन-उपर्युक्त मान्यता गलत है। वैदिक आर्यों का समस्त कर्मकाण्ड वैदिक मन्त्रों तक सीमित था। उन मन्त्रों का उच्चारण सिर्फ ब्राह्मण कर सकते थे। उन मन्त्रों तक अन्य जातियों की पहुँच वर्जित थी।

के नाट्यशास्त्र में एक कहानी है। उसमें लिखा है-भरत पुत्रों ने ब्राह्मण मुनियों के सामने एक नाटक खेला । नाटक में मुनियों के कर्मकाण्ड का मजाक उड़ाया गया। मुनियों ने भरत के पुत्रों को श्राप दिया। उन्होंने श्राप देते हुए कहा-शूद्र बनकर बार-बार तुम लोग जन्म भरत लेते रहो।

उक्त बात से स्पष्ट हो जाता है कि नाटक का प्रदर्शन आर्यों द्वारा किये जाने वाले धार्मिक के अवसर पर नहीं किया जाता था।

अनुष्ठान भारतीय नाटक जनता के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन से जुड़े हुए थे। भास के एक नाटक में कहा गया है कि-एक नाटक पेश किया जायेगा जिसमें सिंहासन के प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी के रूप में राम का राजतिलक होगा।”

हर्ष के नाटक में सूत्रधार द्वारा सूचित किया जाता है कि बसन्त ऋतु समारोह में एक नाटक खेला जाएगा। भवभूति के नाटकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि आम जनता के भी अपने अवसर थे। उनका अपना रंगमंच था। आम जनता अपने नाटकों का प्रदर्शन कलाप्रिय नाथ देवता के यात्रा समारोह के अवसर पर करती थी उक्त बातों से यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने प्रारम्भिक रूप में भारतीय नाटक का सम्बन्ध लोगों के धर्म से नहीं था वरन् नाटक सामाजिकसांस्कृतिक तथा धार्मिक जीवन का एक मुख्य भाग था।

वाल्मीकि रामायण के 69वें सर्ग में वर्णन मिलता है कि भरत उस समय ननिहाल में थे जब रामचन्द्र को वनवास मिला तथा उनके पिता दशरथ का देहान्त हुआ। भरत एक बुरा सपना देखते हैं और दुःखी होते हैं। उनके मित्र उनका मनोरंजन करने हेतु गीतनृत्यनाटक आदि का आयोजन करते हैं। श्लोक निम्न तरह है

“वादयन्ति तदा शान्ति लासयल्यपि बापरे ।

नाटकान्य परे स्माहहांस्यानि विविधानि च॥”

इसी तरह दशरथ के देहान्त के बाद अराजकता को बुराई बताते हुए गुरु वशिष्ठ कहते हैं –

नाराजनै: जनपदे प्रहृष्टा: नट नर्तकाः ।

उत्सवाश्च समात्राश्य वर्द्धन्ते राष्ट्रवर्द्धनाः ।।”

अर्थात् अराजकता फैलने पर नटों तथा नर्तकों को सुख-आनन्द नहीं रहता। राष्ट्र की समृद्धिउत्सवों तथा समाजों पर ही निर्भर है एवं अराजकता की स्थिति में इसका संवर्धन नहीं हो सकता।

बालकाण्ड के 13वें सर्ग में एक और वर्णन आता है। जब पुत्र प्राप्ति हेतु चक्रवर्ती महाराज दशरथ अश्वमेध यज्ञ की तैयारी करते हैं तो उस समारोह में समाज के सभी वर्गों के लोगों को आमंत्रित किया जाता है। इसमें नटों तथा नर्तकों को भी याद किया जाता था। श्लोक अग्र प्रकार है

कान्ति काशिल्प कारान्वर्धकीन्खनाकानपि ।

गण कात्रिशल्यवाश्चैव तथैव नट नर्तकान ॥”

इसी तरह राम के राज्याभिषेक के समय का एक वर्णन है

“नट-नर्तक संधानां गायकानां च गायताम् ।

यत: कर्णसुखा वाचः सुश्राक जनता ततः।”

यह श्लोक इस बात की सूचना देता है कि उस समय ऐसे आयोजन होते थे जिनमें नट-नर्तकों की मण्डलियाँ भाग लेती थीं एवं अभिनय को देखकर दर्शक आनन्द प्राप्त करते थे। उक्त सभी श्लोकों से यह स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है कि जिस समय वाल्मीकि ने रामायण की रचना की उस समय नाटक मण्डलियाँ थीं। ये मण्डलियाँ लोकप्रिय थीं एवं राजा भी उनको पूर्ण सम्मान देता था। इन श्लोकों से यह भी स्पष्ट होता है कि नाटकों का प्रदर्शन किन अवसरों पर होता थारामायण के अन्तिम भाग में लव-कुश द्वारा रामचरित गाने का वर्णन आता है। कुशीलव‘ शब्द का प्रयोग होता है । कुशीलव का अर्थ अभिनेता होता है । कई विद्वानों का मत। है कि लव-कुश तथा कुशीलव एक दूसरे के पर्याय हैं। डॉ. बेरीडील कीथ भी संस्कृत नाटकों पर रामायण के प्रभाव को इस अर्थ में स्वीकार करते हैं |

रामायण में एक श्लोक ऐसा भी है

वधू नाटक संधैश्च संयुक्ता सर्वत्र: पुरीम् ।”

यह श्लोक बताता है कि अयोध्या में महिला अभिनेत्रियाँ तथा पुरुष अभिनेताओं की अपनी-अपनी नाटक मण्डलियाँ भी थीं तथा रंगशालाएं भी। अयोध्याकाण्ड के प्रथम सर्ग में एक वाक्य है+

श्रेष्ठ शास्त्र समूहेषु प्राप्तो व्यामिश्रकेषु च ।

इस वाक्य का यह भी अर्थ लगाया जाता है कि राम ने व्यमिश्रक या मिश्रित भाषा (संस्कृत तथा प्राकृत) में नाटक का अध्ययन किया।

उक्त उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि रामायण काल में रंगमंच तथा नाटक का अस्तित्व उपलब्ध था एवं नाटकों का प्रदर्शन विशेष सुख-दुःख के अवसरों पर ही होता था। महाभारत में नाटकों के अभिनय का विवरण मिलता है। वन पर्व में धर्म द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा है-सुयश के लिए मैं कलाकारोंअभिनेताओं तथा नर्तकों की मदद करता हूँ ।

सूत विराट पर्व में इस बात का भी वितरण मिलता है कि अर्जुन ने राजकुमारी उत्तरा को नृत्य की शिक्षा प्रदान की। उत्तरा तथा अभिमन्यु के विवाह के अवसर पर नटवैतालिकतथा मगध आमन्त्रित किये गये एवं उन्होंने अपनी कलाओं को प्रदर्शित किया।

महाभारत के उद्योग पर्व में इसका विवरण मिलता है कि जब श्रीकृष्ण पाण्डवों का सन्देश लेकर दुर्योधन के पास गये तो उनके स्वागत में नृत्य तथा नाटक के कार्यक्रमों के आयोजन किये गये। जिस समय प्रद्युम्न का विवाह हुआ उस समय नट-मण्डली बुलाई गयी तथा उन्होंने गंगावतरण‘ नाटक अभिनीत किया। इस अवसर पर कुबेर रक्ताभिसार‘ नाटक रंगमंच पर प्रस्तुत किया गया। उस नाटक में किस अभिनयकर्ता ने किसका अभिनय कियाइसका भी विवरण मिलता है। इस नाटक में शूर ने रावण कासाम्य ने विदूषक का तथा मनोवती ने रम्भा का मनोहारी अभिनय कियाजिस पर प्रसन्न होकर दैत्यों ने कलाकारों पर द्रव्य बरसाया तथा दैत्य स्त्रियों ने अपने आभूषण तक दे दिये।

भागवद्पुराण में यह वर्णन मिलता है कि जब श्रीकृष्ण विजयी होकर द्वारिका आये तो वासुदेवआदि ने उनका स्वागत किया। इस अवसर पर नटनर्तकों तथा गन्धर्वो आदि ने अपनी कला का प्रदर्शन किया। जिस श्लोक में इसका वर्णन मिलता है उसमें नट शब्द का प्रयोग किया गया ।

डॉ. कीथ ने नट का अर्थ मौन अभिनेता माना हैलेकिन प्रसिद्ध भाष्यकार श्रीधर स्वामी के अनुसार नट का अर्थ नवरसाभिनेव चतुर” बताया है। यहाँ अभिनय चतुर शब्द ध्यान देने योग्य है।

हरिवंश पुराण में इसका विवरण मिलता है कि वज्रनाम नामक शासक की पुत्री प्रभावती को चुराने से सम्बन्धित जो नाटक पेश किया गया उसमें श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न ने अन्य यादवों के साथ स्वयं एक नायक का अभिनय किया था।

में इसका विवरण मिलता है कि सम्राट शत्रुजित के पुत्र ऋतुध्वजजिसका उपनाम कुबलयाश्व थानाटकाभिनय का प्रेमी था तथा वह अपना समय कविता लिखनेसंगीत सीखनेनाटक लिखने तथा खेलने में ही व्यतीत किया करता था। मार्कण्डेय पुराण इस तरह हमें रामायणमहाभारत एवं पुराणों में स्थान-स्थान पर नाट्याभिनय के प्रमाण मिलते हैं। उस समय नाटक मण्डलियाँ थीं तथा समय-समय पर वे अपना प्रदर्शन करती थीं।

इसका भी प्रमाण मिलता है कि जिस समय उपर्युक्त ग्रन्थों की रचना हुईउस समय तथा उसके पूर्व हमारे देश में नाट्याभिनय लोकप्रिय था एवं जनसामान्य तथा राज-समाज दोनों में अभिनय से जुड़े लोगों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था।

जैन साहित्य में नाट्याभिनय के प्रमाण मिलते हैं। ऐसा वर्णन मिलता है कि एक बार भगवान महावीर भ्रमण करते-करते आमलकप्पा नगरी पहुँचे। वहाँ अम्बसाल वन में वे एक अशोक वृक्ष के नीचे शिला पर बैठ गये। उसी समय भगवान महावीर का अभिनन्दन करने हेतु सूर्याभ देव पधारे । उन्होंने भगवान के अभिनन्दन में बाजे बजवायेसंगीत का आयोजन किया तथा उस अवसर पर एक नाटक भी अभिनीत किया।

कथा से यह प्रमाणित होता है कि भगवान महावीर के समय में नाट्याभिनय की प्रथा थी तथा उसकी प्रतिष्ठा इतनी ज्यादा थी कि भगवान महावीर जैसे अवतारी देव पुरुष भी उसे देखते थे।

बौद्ध काल में नाटकों का विकास हो चुका था। ललित विस्तार‘ में एक वर्णन आया है कि जिस समय भगवान बुद्ध राजगृह में थे उस समय मौद्गलायन तथा उपतिस्व ने अपनी नाट्य-कला का परिचय कई बार दिया। ऐसा भी विवरण मिलता है कि स्वयं तथागत के सामने राजगृह में एक नाटक खेला गया था। यह भी विवरण मिलता है कि कुवलय नाम की अभिनेत्री ने कुछ भिक्षुओं को धर्म से विरत कर दियाजिसके कारण वह अभिनेत्री संघ के क्रोध का भाजन बनी । उसने अन्त में प्रायश्चित किया। उसे भगवान तथागत से क्षमादान प्राप्त हुआ तथा वह अभिनेत्री का कार्य छोड़कर भिक्षुणी बनी।

यह भी कथा मिलती है कि राजा बिम्बिसार ने अपने दो अतिथियों के स्वागत के अवसर पर नाट्याभिनय का आयोजन किया था।

जातक कथाओं में भी नट तथा नाटकों का वर्णन मिलता है। उदय जातक‘ में एक वाक्य आता है-राजा पुतं अभिसिंचित्व नाटकानि पशुपत्य पेस्साम ।” अर्थात् राजा ने अपने बेटे को अभिषिक्त करके राजा बनाने सम्बन्धी उत्सव में नाट्याभिनय की व्यवस्था करने की इच्छा प्रकट की।”

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में नटों-नर्तकों तथा कलाकारों का वर्णन मिलता है । अर्थशास्त्र में यह निर्देश दिया गया है कि कलाकारों की मण्डलियों को अभिनय करने पर कर देना पड़ेगा। इन मण्डलियों को राज्य का संरक्षण प्राप्त था। बाहर से आने वाली मण्डलियों को हर अभिनय पर पाँच पण कर के रूप में देना पड़ता था।

पतञ्जलि के महाभाष्य में कंस-वधबाली-वध नामक दो नाटकों की चर्चा आती है। वात्स्यायन के कामसूत्र में इस तरह का वर्णन मिलता है कि सरस्वती भवन में पक्ष अथवा महीने के प्रसिद्ध पर्यों पर राजा की तरफ से नियुक्त नटों का अभिनय होता था। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि यह अभिनय सरस्वती मन्दिर के साथ-साथ अन्य मन्दिरोंजैसे-देवालयों एवं महत्त्वपूर्ण स्थानों में भी हुआ करता था। पारिवारिक मांगलिक अवसरों पर अस्थाई रंगशाला तथा रंगमंच बनवाकर अभिनय की व्यवस्था कर ली जाती थी।

सुवर्णाक्षी पुत्र अश्वघोष कृत सारिपुत्र प्रकरण‘ को प्रति चीन के तुर्फान प्रान्त में मिली है। यह नाटक ईसा से लगभग 200 वर्ष पहले रचा गया था। यह नौ अंकों का नाटक है। अश्वघोष अच्छे संगीत तथा अभिनेता थे। वे अपनी नाटक मण्डली के साथ घूम-घूमकर नाटकों का प्रदर्शन करते थे। इनकी मण्डली काशी में सक्रिय थी।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने भक्तिगामी रंगधारा की नींव डाली। उन्हीं की प्रेरणा से महाकवि गिरीशचन्द्र घोष उन विभूतियों में से थे जिन पर बंगीय रंगमंच ही नहीं वरन् समस्त भारतीय रंगधर्मी समुदाय को गर्व है । वे रंगमंच हेतु ही जिए तथा मरे । उनके एक प्रदर्शन को देखकर स्वामी परमहंस ने कहा था अशल नकल एक देखलाम‘-(असली नकल एक देखा)

रंगमंच के पुनीत आन्दोलन की उन्होंने नींव डाली उसे प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से देशबन्धु चितरंजन दासईश्वरचन्द्र विद्यासागरबंकिमचन्द्र चटर्जीद्विजेन्द्रनाथ राय तथा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने सुरक्षा प्रदान कर प्रोत्साहित किया।

प्रिंस द्वारकानाथ ठाकुर तथा महर्षि देवेन्द्रनाथ ठाकुर रंगमंच के बहुत बड़े संरक्षक थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने तो मृत्युपर्यन्त तक रंगमंच को संभाला।

ग्रीक रंगमंच :

1. पृथ्वी पर पहला नाटक कहाँ तथा कब खेला गयाइस बारे में कुछ निश्चित तौर पर नहीं कह सकते । लेकिन ग्रीक रंगभूमि पर एथेन्स‘ के लोगों के सामने पहला नाटक ई.पू. 49) में हुआ। इस पहले नाटक का नाम ‘The Suppliants’ थाजिसे लिखा था इस्किलस‘ ने। इससे पहले भी कई हजारों वर्ष पहले ग्रीक लोगों ने नाट्य माध्यम से मनोरंजन किया होगा। शायद उसका रूप तथा आशय अलग हो सकता है। प्रागैतिहासिक काल में अनुकरण का रूप कैसा थायह भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकते । अभिव्यक्ति के कौनसे साधन तथा माध्यम थेइसके भी साक्ष्य नहीं मिलते । लेकिन ई.पू. 2000 से ‘Passion plays’ होते थेयह निश्चित है । इस नाटक में ओसिरस‘ के हाथ-पाँव तोड़ना तथा उसकी मृत्यु के दृश्य दिखाये जाते थे। आयसिस‘ उसकी बहन तथा उसकी पत्नी उसे फिर जोड़ते थे। इस नाटक से लोगों का भरपूर मनोरंजन होता था। इसके बारे में किसी भी तरह का लिखा हुआ हुआ साहित्य नहीं मिलतालेकिन ई.पू. 1887-1849 में माकेटीस के सामने कुछ प्रदर्शित होने के स्पष्ट सबूत हमें मिलते हैं। लेकिन वे प्रदर्शन नाटक थे या केवल एक अभिनयइसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है।

2. नाट्य महोत्सव में मंचित होने वाले नाटकों के योग्य मूल्य मापन हेतु परिरक्षकों को मनोनीत किया जाने लगा। दो बार नाट्य महोत्सव आयोजित होते थे। मार्च के महीने में होने वाले नाट्य महोत्सवों को सिटी डायोननिसिया‘ कहते थे तथा जनवरी में होने वाले नाट्य महोत्सवों को लेनिगा‘ कहते थे ।

3. इस्किलस एक उत्तम वेशभूषाकार थे। उन्होंने स्वतः अपने नाटकों के पात्रों हेतु उपयोग होने वाली वेशभूषा तैयार की। उन्होंने परम्परानुसार चलती रही वेशभूषा में जरूरी बदलाव भी किये तथा जब गाउन Gowns बनवाये तो उन पर पात्रानुरूप एम्ब्रायडरी‘ करवायी। उनके नाटक द सप्लायंट्स‘ में स्त्री पात्रों के अलग वेशभूषा के कारण पेलासगस उनके पर-प्रान्तीय होने का अनुमान लगाता है। ऊंची ऐड़ी के जूतों के उपयोग से पात्रों के व्यक्तित्व में आती हैखासकर राजा की भूमिका करने वाले पात्र को यह जरूरी है। इससे उसकी विशेषता तथा साधारण सिपाहियों से उसका अन्तर प्रभावित होता था। केवल वेशभूषा से हीकौनसा पात्र किस भूमिका में हैयह आसानी से पहचाना जा सकता था। भव्यता

4. पात्रानुरूप केश-रचना भी प्रचलन में थी। सिर पर जूड़ा बाँधा जाता था जिसे ओंकस‘ कहते थे । अतिमूल्यता लाने हेतु इस्किलस ने विशिष्ट मुखौटे तथा वेशभूषा तैयार की। 5. हर नाटककार को नाट्य महोत्सव में चार नाटकों का मंथन करना पड़ता था जिसमें तीन लोकवादक तथा एक सैटिर‘ नामक नाट्य का समावेश हुआ करता था। सैटिर‘ पौराणिक पात्र कहा जाता है। उसका आधा शरीर मानव का एवं आधा बकरे का होता हैवह डायोनिसस‘ का भक्त है अतः सैटिर‘ नाटक में बकरे का कोरस हुआ करता था। सैटिर नाटक के फॉर्म को ज्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं है। केवल 410 ई.पू. में यूरिपिडस‘ द्वारा लिखा साथक्लॉप्स‘ में पूर्ण नाट्य तथा सोफोक्लिस ने 460 ई.पू. में लिखा हूफर्स‘ इन दो अपूर्ण सैटिर नाटकों की जानकारी उपलब्ध है।

6. ग्रीक रंगभूमि की कल्पना बगैर कोरस के तो हो ही नहीं सकती। कोरस ग्रीक रंगभूमि का एक अविभाज्य घटक है। शुरुआत में कोरस की संख्या 50 हुआ करती थी लेकिन इतने लोगों को नृत्य तथा संगीत का प्रशिक्षण देना कठिन होने लगा। इक्सिलस ने कोर को चार भागों में विभाजित किया तथा हर विभाग में बारह लोगों का समावेश किया। सोफोक्लिंस ने यह संख्या कुल पन्द्रह की। इस्किलस ने 12 संख्या सुलभीकरण की दृष्टि से चुनी तो सोफोक्लिस ने पन्द्रह । संख्या सौन्दर्य दृष्टि से पन्द्रह में पाँच लोगों को तीन लाइन्स बना सके । किसी दृश्य को अभिन्न करने हेतु नेता अगर कोरस से अलग होता है तो बचे हुए लोगों की सात-सात की ही लाइन्स बन सकती है । इस प्रकार से हर बार सिमेट्री‘ साधने में सरलता होती थी।

7. कोरस की भूमिका के बारे में विचार करें तो सर्वप्रथम द सप्लायंट्स‘ में कोरस का मुख्य पात्र के रूप में उपयोग किया गया है। कोरस के उपयोग से राजा पेलास्गस के महल में लौटने की अपने दरबारियों से वार्तालाप करने कीउन्हें न्याय देने की तथा फिर समुद्र तट पर वापस आने की बातेंइस्किलस स्पष्ट कर सकने में सफल हुए ।

8. ‘डायोनिसस‘ देवता के पूजा के उपलक्ष्य में गाये जाने वाले गानों (डिथिरम्ब) से बाहर निकलने हेतु ग्रीक नाट्य जब प्रयत्नशील था तब उसका पहला कदम कैसे पड़ा होगायह हम इस्किलस‘ के कोरम द सप्लायंट्स‘ नाटक में किये हुए कोरस के उपयोग से अन्दाजा लगा सकते हैं।

बाद में जब ग्रीक रंगभूमि पर नाटकों में नाट्य आने लगा तो कोरस की संख्या कम होती गई तथा उसका उपयोग विशिष्ट दृश्य में ही करने का चलन सामने आया। शैसपिस‘ नामक पहला नट कोरस से बाहर आया तथा कई भूमिका करने लगातब उसे अन्य नट सहयोग करने लगे। इस तरह नटों की संख्या बढ़ने लगी। इस्किलस के समकालीन नाटककारों ने नटों की संख्या तीन‘ की । एक समय पर ज्यादा से ज्यादा तीन नट एक दृश्य में दिखने लगे। ग्रीक नाटकों में ये संकेत यदि ध्यान में रखें तो फिर ये नाटक तथा उसकी प्रस्तुतिकरण की शैली हम समझ सकते हैं।

इस्किलस ने अपनी प्रतिभा के बल पर नब्बे नाटक लिखे तथा नाट्य-महोत्सव में प्रदर्शित किये। सब नाटकों का प्रयोग हुआ अथवा नहींयह हम पक्के तौर पर नहीं कह सकतेफिर भी उन्होंने प्रतियोगिता में सहभागी होकर पुराने नाट्य-तन्त्र में कई बदलाव किये ।

नाट्य संहिता से नाट्य प्रयोग तक कई तन्त्रों का समावेश नाट्यकला में होता है । इन सारे तन्त्रों का उपयोग उस समय पर करके उन्होंने नये-नये प्रयोग कर ग्रीक रंगभूमि को नवीन दिशा देने का प्रयास किया ।

आधुनिक रंगमंच- आज रंगमंच के क्षेत्र में अधुनातन प्रवृत्तियाँ काम कर रही हैं। आज नाट्य विधान तथा अभिनय जिस सीमा रेखाओंरियलिज्मनियोरियलिज्मसिम्बोलिज्म में कार्य कर रहे हैं।

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