भारतीय परम्परागत कला का वर्णन कीजिए।

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नाटक से सम्बन्धित कुछ पारिभाषिक शब्द :

नाटक कला में :

1. वाणी- वाचिक अभिनय-वाणी द्वारा ही सम्भव है जिसमें वाणी को संगीत द्वारा आकर्षक बनाया जाता है।

2. हाव-भाव- रसों के हाव-भाव से ही अंग प्रदर्शन कर नाटक को सफल बनाया जाता है। भावों के दोनों प्रकार स्थायी एवं संचारी भाव का होना जरूरी है।

3गति- वाणी के उतार-चढ़ाव के साथ उसकी लयात्मकता को ही गति कहते हैं जो नाटक हेतु अति जरूरी है।

4. चरित्र चित्रण- मंच पर अभिनय पेश करने वाले कलाकार पात्र कहलाते हैं। लेखक तथा पात्र के सफल प्रदर्शन पर ही नाटक सफल होता है।

5. सम्यवाद- नृत्य तथा नाट्य कला में अग्र बातों का ध्यान संवाद लिखते समय रखना चाहिए।

संवाद छोटेभाषा सहज एवं सरलपात्र के अनुकूल संवाद की भाषा-देश काल एवं वातावरण के अनुकूल होनी चाहिए।

नाट्य लेखन- बीसवीं शताब्दी में बड़े नगरों में अव्यवसायी नाटक मंचीय बहुत सक्रिय हो गये थे । इन मण्डलियों का आर्थिक पक्ष बहुत कमजोर होता था । चन्दे के आधार पर नाटकों को किया जाता था। ज्यादा धन न होने के कारण मण्डली में से ही किसी से नाटक लिखवा लिया जाता था। ये लेखन नाटक की दृष्टि से तो सशक्त होते थे लेकिन साहित्य के क्षेत्र में थोड़े सशक्त नहीं होते थे। ये नाटक हस्तलिखित पाण्डुलिपि के रूप में ही उपलब्ध हैं। पारसी थिएटर में कुछ वेतनभोगी नाटकों को लिखते थे। उस समय के लिखे नाटक नाट्यर्थी में बहुत उत्कृष्ट हैं । उर्दू नाटकों को हिन्दी नाटकों की बजाय कम प्रोत्साहन मिला ।

कठपुतली :

भारत में कठपुतली का इतिहास बहुत प्राचीन है। सिन्धु घाटी की खुदाई के दौरान वहाँ मिट्टी से बनी कठपुतली प्राप्त हुई। इसके अलावा तमिलनाडु में कठपुतली कला को बोम्मल अट्टम‘ कहते हैं इसका जिक्र ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में लिखे गये तमिल ग्रन्थ शिलापड्डिकरम‘ में मिलता है।

मानव सभ्यता में मनोरंजन की सबसे प्राचीन कलाओं में कठपुतली‘ हजारों साल बीत जाने के बावजूद आज भी यह नये-नये रूपों में हमारा मनोरंजन कर रही है। प्राचीन ग्रीस में पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में कठपुतलियों के तमाशे दिखाये जाते थे जो टेराकोटा की बनी होती थी तथा उन्हें नेबरोस्पपॉस्टोज‘ जिसका अर्थ होता था-धागों से खींचा जाने वाला‘ । आज भी एथेन्स के नेशनल आर्कियोलॉजिकल संग्रहालय‘ में प्राचीन ग्रीस के यह कठपुतली सुरक्षित है।

जापान में कठपुतली कला को बनराकु‘ कहते हैं । यहाँ पर ज्यादातर कठपुतली लकड़ी की बनाई जाती है तथा इनकी ऊंचाई एक बच्चे से लेकर पूर्णतः किसी विकसित इन्सान जैसे होती है। 1000 वर्ष पुरानी इन कठपुतलियों का प्रदर्शनजापानी संगीत के साथ अनूठे ढंग से कठपुतलियों को काले कपड़े में ढककर रहस्यमय ढंग से प्रदर्शित किया जाता है। चीन- चीन में बच्चों को इतिहास की जानकारी कठपुतलियों का खेल दिखाकर किया जाता है । धागे से खींचे जाने वाले खिलौने एवं छाया कठपुतलियों का प्रयोग किया जाता है ।

बाँस की सीटी बजाते हुए चटख रंगों से इसका प्रयोग किया जाता है ।

जावा/सुमात्रा/इण्डोनेशिया- यहाँ छाया कठपुतलियों का ज्यादा प्रयोग होता है । भारत के नजदीक होने के कारण रामकथा‘ का ज्यादा प्रचलन है। तमाशों का प्रमुख आकर्षण होती हैं यहाँ की कठपुतलियाँ।

वियतनाम- यहाँ पर भव्य कठपुतलियों का नृत्य होता है जो पर्यटकों का प्रमुख आकर्षकण होता है । दसवीं शताब्दी से भी पुरानी इस कला को यहाँ मुआ रोई नॉक‘ कहा जाता है। ये कार्यक्रम पानी पर होता है इसका नामकरण या अर्थ भी पानी पर नाचने वाली कठपुतलियाँ । कमर तक भरे पानी में रॉड से पुतलियों को नचाया जाता है ।

यूरोपीय तथा अमेरिका- यहाँ की कठपुतलियाँ नर्म तथा गुदगुदे कपड़ों से तैयार की जाती हैं। प्रमुखतः चार भागों में विभाजित-1. फिंगर पप्पेट, 2. हैड पप्पेट, 3. हैण्ड या ग्लब पप्पेट, 4. सॉफ्ट पप्पेट तथा फुल साइज पप्पेट । बच्चों हेतु बनाये गये इन पप्पेट को टी.वी. कार्यक्रमों में बहुत प्रयोग किया जाता है । इसी की तर्ज पर भारत में गली गली सिमसिम‘ नामक हिन्दी टी.वी. शो बनाया गया ।

भारतीय कठपुतली

लोककलाओं में कठपुतली‘ कला का अपना अलग स्थान है । कठपुतली कला सिर्फ मनोरंजन की नहीं रोचकता तथा सुन्दरता को भी बढ़ावा देती है। आज भी अगर कहीं कठपुतली का खेल खेला जाता है तो लोग टी.वी. देखने की बजाय कठपुतली देखना पसन्द करते हैं क्योंकि यह जीवट है । सुन्दर संगीत के साथ-साथ जब हीरो विलेन को पटक-पटक कर मारता है अथवा हीरोइन हीरो से मिलने जाती है तो उनके हाव-भावनखरे स्वतः ही दर्शकों का मन मोह लेते हैं-रंग-बिरंगेगोटा लगी कठपुतलियाँ अत्यन्त सुन्दर लगती हैं ।

संगीत एवं वाद्य– कथावस्तु के आधार पर पर्दे के पीछे से गाया जाता है । वाद्यों में हारमोनियमतबलासारंगी आदि का प्रयोग होता है। सभी पुतलियों को चलाने में गहन साधनाआवाज एवं उंगलियों का महत्त्व होता है।

कठपुतली- कई तरह की होती हैं –

आवश्यक सामग्री- ऊनी मोचेफँस,खपच्चीकागज,रंगब्रश,कैंचीमिट्टीसुईधागाकपड़ा आदि ।

उंगली कठपुतली/दस्ताना पुतली– हाथ में लेकर चलाई जाती है । उसमें उंगलियों का कार्य महत्त्वपूर्ण है।

छड़ी पुतली- छड़ी लकड़ी को हाथ में लेकर उसके माध्यम से कठपुतली को घुमाया जाता है।

हस्त कठपुतली/सूत्र पतली पुतली- इस पुतली को बारीक सूत्रों (धागों) द्वारा चलाया जाता है।

कठपुतली बनाने की विधि- इनका मुख लकड़ी का होता है एवं इन्हें हाथों तथा डोरीसे संचालित किया जाता है। अगर सम्भव हो बाजार से एक सुन्दर कठपुतली खरीदें । उनका साँचा मिट्टी में पकाकर उतार लेना चाहिए । इसके पश्चात् तैयार साँचे में प्लास्टर ऑफ पेरिस भरकर चेहरा तैयार करना चाहिए। फिर कागज के छोटे-छोटे टुकड़े वैसलीन लगाकर चेहरे पर चिपका देना चाहिए । आरम्भ आंखों से करकेगोंद की हल्की परत चढ़ानी चाहिए-फिर गोंद की परत चढ़ाकर सफेद कागज के छोटे-छोटे परत चढ़ाकर सफेद कागज चिपकाना चाहिए। आंखों की जगह गड्ढे गहरे रहें । नाक आगे की तरफ तथा मुख चिरा रहे । चेहरे को सुखाकर कपड़े को बैण्डेज (पट्टियों) को चेहरे पर चिपकाएं-तत्पश्चात् ब्रश एवं रंगआदि से आंखनाककान आदि बनाने चाहिए । कठपुतली की देह बनाने हेतु बच्चों के ऊनी मोजे लेकर अच्छी तरह फंस भरकर सिर्फ डेढ़ इंच लम्बी दो खपच्ची से हाथ बनाना चाहिए। हाथ कपड़े के सीने चाहिएहाथों में भी फंस भरकर उसमें कपड़े पहनाना चाहिए। इस तरह एक सुन्दर कठपुतली का निर्माण होता है।

चित्रकला :

क्लांति ददातीति कला‘ अर्थात् सौन्दर्य की अभिव्यक्ति द्वारा सुख प्रदान करने वाली वस्तु का नाम कला है। भारतीय कला उस नि:एसीम सागर की तरह है जिसके ओर छोर एवं गहराई का सहज अनुमान नहीं हो पाता है। मानव ने शुरू से ही व्यावहारिक सजगता के साथ चित्रों के उदाहरण छोड़े हैं।

साहित्य संगीत और कला की त्रिवेणी अनादि काल से मानव की अन्तर्निहित एशिया जन्मी एवं यहीं पर इसका विकास हुआ एवं भारत ने इसमें सर्वाधिक योगदान दिया था।

में “किसी भी देश की संस्कृति का सम्यक् ज्ञान वहाँ की ललित कलाओं से होता है।” एवं उन्हें इतिहास के प्रमुख रूप में माना जाता है ।

किसी भी सरस चित्र के दर्शन से तन मन की पीड़ा दूर होती है तथा ऐसे चित्रों की सजावट मंगलकारी होती हैकलानां प्रवरं चित्र धर्म कामार्थ मोक्षदम मंगल्यं प्रथमं चैतदगृहे यब प्रतिष्ठितम् विष्णु

धर्मान्तर पुराणचित्रसूत्रम ललित कलाएं जीवन को ऋत आनन्द तथा शान्ति से पूर्ण करती है । ललित कलाओं के द्वारा ही जीवन में सत्य शिव एवं सौन्दर्य निहित है एवं उनका समन्वय जरूरी है।

चित्रकला के प्रमुख अग्रलिखित माध्यम हैं –

1. एकेलिक, 2. पैन एण्ड डंक, 3. पेस्टल रंग, 4. पोस्टर।

एकेलिक रंग  :

यह आधुनिक युग में आविष्कृत रेजीन माध्यम है जिसके रंग स्थायी होते हैं। इसे कागजकेनवासलकड़ी एवं भित्ति की किंचित् खुरदरी एवं शोषक सतह पर प्रयोग में लाया जाता है। सबसे पहले धरातल को रंग माध्यम से हल्का रंग देना चाहिए। तत्पश्चात् एकेलिक घोल का अस्तर लगा देना चाहिए । रंगों को टेम्परा की तरह पानी अथवा एकेलिक घोल में मिलाकर लगाया जाता है। सूखने पर यह कड़े हो जाते हैं तथा इन पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ता। इन रंगों से निर्मित चित्रों में तेल अथवा वार्निश जैसी चमक नहीं होतीलेकिन रंगों की स्वच्छता एवं आभा बहुत ज्यादा होती है। ये रंग बारीक पिसेबहुत मुलायम एवं हल्के होते हैं तथा पानी अथवा एकेलिक घोल में यह जल रंगों के समान घोले जा सकते हैं। ये पारदर्शी भी होते हैं। इसलिए बहुत ज्यादा पतले घोल के रूप में भी प्रयुक्त किये जा सकते हैं। जरूरत के अनुसार यह बहुत गाढ़े भी लगाये जा सकते हैं तथा जल्दी ही सूख जाते हैं। सूख जाने पर इन पर वार्निश आदि से चमक भी लगाई जा सकती है। इन चित्रों को साबुन एवं पानी के घोल से धोया भी जा सकता है अगर इन पर की गई वार्निश हटानी हो तो उसे भी स्प्रिट अथवा तारपीन के तेल से साफ किया जा सकता है।

पैन एण्ड इंक :

कला अपनी कला के अनुसार विभिन्न माध्यमों एवं प्रविधियों को जन्म देती है। इन सभी प्रविधियों को कलाकार विविध माध्यमों के साथ प्रयोग करता आया है। उन्हीं में से पेन एण्ड इंक‘ विधि है । इंक पेन विविध तरह के होते हैं। इंक पेनों का इस्तेमाल आउटलाइनों तथा छाया हेतु किया जाता है । ये कई तरह के होते हैं । उत्तम किस्म के पेन टेक्निकल पेन कहलाते हैं। जो काफी कीमती होते हैं । सस्ते पैनों में आजकल प्लास्टिक टिप वाले पेन भी उपलब्ध हैंजिनके द्वारा फाइन रेखाएं खींची जा सकती हैं। आउट लाइन तथा छाया लाइन तथा छाया प्रकाश हेतु इनका प्रयोग किया जाता है

इनके अतिरिक्त फ्री हैण्ड लैटरिंग हेतु विविध आकार-प्रकार के स्पीडबॉल पेन भी जरूरी हैं। ये डिप-इन-इंक टाइप के होते हैं। जिनको पेन होल्डर में लगातार इस्तेमाल किया जाता है। अन्य तरह के पैनों में फाउण्टेन पेन बिल्ट-इन इंक‘ भी हैं। इनमें इंक भरी जाती है अथवा इंक कार्टिज प्रयोग किये जाते हैं। ये विविध आकारों तथा प्रकारों में इंटरचेंजेबिल निबों के साथ उपलब्ध होते हैं।

राइटिंग पेनबॉल-पाइंट पेनफेल्ट-टिप्ड पेनबॉड-टिप्ड फेल्ट पेन अब वाटर प्रूफ रंगों में भी उपलब्ध हैंजो सस्ते हैं तथा चलने में रुकते नहीं एवं किसी भी पेपर सर्फेस पर इस्तेमाल किये जा सकते हैं। प्रायः पारदर्शक रंगों (इंक्स) हेतु आइवरी कार्ड अथवा स्कॉलर प्रयोग किये जाते हैं

पेस्टल रंग :

पेस्टल सर्वशुद्ध तथा साधारण चित्रण माध्यम है। ‘Vehicle’ के अभाव के कारण रंगतों का स्थायित्व बढ़ जाता है तथा रंगत बहुत समय तक खराब नहीं होती। लेकिन पेस्टल का दुर्गुण बस यही है कि इसका रख-रखाव बहुत ही कठिन होता है तथा रंगत की सीमित तान कल्पना तथा स्वतन्त्रता को सीमित कर देती है। अगर अत्यन्त श्रेष्ठ कागज तथा पूर्ण स्थायी रंगतों का प्रयोग किया जाये तो यह चित्रण का सर्वाधिक स्थायी माध्यम है।

चित्र-भूमि- पेस्टल हेतु खुरदरेपन की विविध श्रेणियों में तैयार किये गये विशेष कागज बाजार में मिलते हैं। इस कागज का रुआ इस तरह का होना चाहिए कि यह पेस्टल को बत्ती में से रंग छुड़ा सके तथा कागज के ऊपर गिरने न दें। इसलिए कागज में चिकनापन या चिकने धब्बे बिल्कुल नहीं होने चाहिए । बोर्ड पर बारीक रेत चिपकाने (जैसे बारीक रेगमार कागज पर होता है) से भी पेस्टल के योग्य श्रेष्ठ भूमि तैयार होती है। जब पेस्टल से समस्त चित्र-भूमि ढक दी जाये तो चित्र-भूमि का वर्ण कोई महत्त्व नहीं रखतालेकिन अगर चित्रण स्केची हो तथा पृष्ठभूमि सहज दिखाई पड़े तो उसका वर्ण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके लिए कई रंगों में पेस्टल कागज मिलते हैं। कभी-कभ सफेद खुरदरी सतह वाला हस्तनिर्मित कागज भी प्रयुक्त होता है।

तकनीक- पेस्टल की तकनीक ही अन्य माध्यम की तकनीक की तरह चित्रकार का व्यक्तिगत विषय हैतान के मधुर मिश्रण से लेकर मोटे-मोटे आघात अथवा रंग चालन तक सभी प्रभाव पेस्टल में सम्भव हैं । वर्ण मिश्रण हेतु अंगुली श्रेष्ठ साधन हैलेकिन कुछ कलाकार चमड़े या कागज की बनी विविध मोटाई की बत्तियाँ प्रयोग करते हैं। चित्रण करते समय चित्र-भूमि को इस तरह झुका रखना चाहिए कि रंग झड़कर कागज के अन्य स्थान पर न चिपक जाये । रंग के चूर्ण को श्वास के साथ अन्दर जाने से बचाना चाहिये।

पेस्टल चित्रों का स्थायीकरण :

प्रायः जिन चित्रों के वर्ण एवं पोत को अक्षुण्ण रखना होता हैउसका स्थायीकरण नहीं किया जाता है तथा इस तरह विशेष तरह से शीशे लगे चौखटे में लगाया जाता है कि चित्र का शीशा स्पर्श न कर पाये। इस तरह चित्र खराब नहीं हो पाता। ऐसा कोई भी स्थायीकरण माध्यम नहीं है जो पेस्टल के प्रभावों को यथावत् रख सकेलेकिन अच्छे स्थायीकरण माध्यम इस प्रभाव को बहुत कम प्रभावित करते हैं

साधारण माध्यम जो बाजार में मिलते हैंवे लाखकोपालसुन्दरस इत्यादि का एल्कोहॉल में पतला घोल होता है। इनमें चॉक एवं चारकोल को ड्राइंग का स्थायीकरण भी किया जाता है। एकेलिक रंगों के माध्यम को पतला करके स्प्रे करने पर भी स्थायीकरण सम्भव है।

इसमें जरा भी शक नहीं कि सच्ची कलाकृतियों का सौन्दर्य शाश्वत होता हैसार्वभौमिक होता हैदेश-काल के परिवर्तनों से परे होता है। उनका उत्कृष्ट सौन्दर्य सचमुच नयनाभिराम होता है।

पोस्टर :

पोस्टर कागज पर बनाये जाने वाले चित्र जिन्हें सिर्फ पोस्टर रंगों से बनाया जाता हैजो अपारदर्शी होते हैं एवं आमतौर पर शीशियों में पाये जाते हैं। इन अपारदर्शी रंगों समानता से कागज पर लगाया जाता है। आमतौर पर पोस्टर बनाते समय विद्यार्थी साधारण कागज का प्रयोग कर लेते हैं जिससे चित्रों की गम्भीरता एवं सुन्दरता नहीं आ पाती है। पोस्टर का अर्थ होता है किसी भी वस्तु का विज्ञापन करना जो दूर से भी दिखाई दे । पोस्टर रंगों को लगाने हेतु उत्तम तरह के कागजआइवरीआर्ट कागज या चिकने कागजों का प्रयोग करना चाहिए । सेबल हेयर के बने गोल एवं चीनी तुलिका कैलीग्राफी के लिए लगाना चाहिए। आमतौर पर विद्यार्थी चित्र तथा पोस्टर में अन्तर नहीं कर पाते हैं । चित्र में कोई स्लोगन नहीं लगतापोस्टर में स्लोगन जरूर लगता है लेकिन पोस्टर रंगों से बहुत सुन्दर चित्रों की भी रचना होती है चित्रण विधि- कागज पर रेखांकन करपोस्टर रंगों को ज्यादातर बगैर छाया प्रकाश के दिखायेसपाट रंगों से चित्रित करके अन्त में लगे हुए रंगों पर गहरे रंग से चित्रण कर रंगों को पूर्णता देकर चित्र खत्म करना चाहिए।

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