रूपकारी का वर्णन कीजिए।

Estimated reading: 1 minute 66 views

 रूपकारी किसी कलाकृति का ढाँचा निर्मित करती हैजो सौंदर्यात्मक ढंग से संगठित होता है तथा जिसके माध्यम से कोई बात कही जाती है । रूपकारी स्वयं में कला हैक्योंकि कला के द्वारा जो संदेश दिया जाता हैवह रूपकारी द्वारा ही प्रकट होता है । जब कोई कलात्मक रचना की जाती हैतब रूपकारी की समस्या उसमें स्वयं ही समाहित होती है। एक उपयुक्त रूपकारी हेतु पर्याप्त अनुभव एवं लम्बे सजग अध्ययन की जरूरत होती है। कई वर्षों तक नियंत्रित प्रयोगनिरीक्षण तथा चयनित निर्णय की प्रक्रिया के बाद कला की शिक्षा में रुचि तथा अंतर्दृष्टि का विकास होता है।

छोटे बालकों में रूपकारी की सहज प्रवृत्ति होती है तथा वे अपनी रुचिकर वस्तुओं को बनाते रहते हैं। उनमें रूपकारी के भाव तथा रंगों की समझ का विकासउनके बौद्धिक विकास के साथ-साथ होता है। छोटे किशोरों में साहित्यिक तथा यथार्थवादी रचना की प्रवृत्ति होती है। इस कारण उनकी रचना छोटे बालकों की रचना से अलग होती है। धीरे-धीरे जब उनमें बौद्धिक चेतना का विकास होता हैतब उनके कार्य के स्तर में सुधार होता है। परिस्थिति के अनुरूप हर रचना में क्रम अथवा ज्यादा मात्रा में भावात्मक पहलू होता है एवं परिपक्वता के साथ-साथ उसमें बौद्धिकता का समावेश भी होने लगता है। किसी कलात्मक कार्य का पूर्णता के बाद रूप उभरकर आता है अर्थात् सम्पूर्णता की अनुभूति होती है ।

रूप की मुख्य विशेषताएं अग्रलिखित हैं –

1. रूप में संगठन तथा विविधता होती है- कला में रूप कई विविध चीजों का संगठन है,जो कला के उद्देश्य को प्रकट करता है। यह विविधता सिर्फ संरचनात्मक तत्त्वों तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह विषय सामग्रीरूपगतिलयअनुपात तथा बलों में भी होती है। विविधता को प्राप्त करने के कई साधन हैं तथा हर व्यक्ति विविधता को अपनाता हैजो उसके उद्देश्य को बताती है।

2. रूप में उद्देश्य की पूर्णता होती है- रचनाकाल में कलात्मक कार्य हमारे कार्य के साथ-साथ बदलता रहता हैलेकिन उससे हमारे मूलं उद्देश्य में कोई अंतर नहीं आता। सफल कार्यकलाकार की उपयोगी चीजों को चयन करने तथा असंगत चीजों को छोड़ने की योग्यता को दर्शाता है। हर कलात्मक कार्य जिसका कोई रूप हैवह इस बात का साक्षी है कि कार्य (कलाकार का उद्देश्य) पूर्ण हो गया है 1

3. रूप के स्थान की पूर्णता होती है- कला का कार्य पूर्ण तभी होता हैजब कलाकार यह महसूस करने लगता है कि उसने अपने अनुभव के संगठन हेतु जरूरी स्थान सम्बन्धी सम्बन्ध स्थापित कर लिये हैंजिस तरह कि एक भवन के निर्माण में कार्य की सुविधा तथा व्यवस्था का ध्यान रखा जाता है । इसलिए स्थान का संगठन करते समय कलाकार द्वारा वस्तुओं को गतिमान रखने की स्वतंत्रता अनुभव की जानी चाहिएजिससे सभी भागों का सर्वोत्तम सम्बन्ध स्थापित हो सके।

4. रूप में सामग्री तथा प्रयास की मितव्ययता होती है- रूप सामग्री के उचित सम्बन्धों का परिणाम है तथा उचित सम्बन्ध तभी स्थापित हो सकते हैंजब सामग्री की आंतरिक विशेषताओं को सम्मान दिया जाता है एवं यह हमारे विचारों को पूर्ण करने प्रतीत होते हैं ।

5. रूप हमारी एकाग्रता को नियंत्रित करता है- जब हम अपने अनुभव का चयन तथा संगठन करते हैंतब कलात्मक कार्य के द्वारा दर्शक की संवेदनाओं को उद्दीप्त करना भी हमारी जरूरत होती है तथा अगर यह कार्य दर्शक के ध्यान को अपनी तरफ खींच पाता है तो उसका अर्थ यह है कि उसमें रेखाओंरंगों तथा बनावट का सही प्रयोग हुआ है एवं ऐसी स्थिति में वह कार्य अपने रूप को भी प्राप्त करेगा।

6. रूप स्थायित्व उत्पन्न करता है- जब रूप का अनुभव किया जाता हैतब भारआकार तथा स्थान के सम्बन्धे में संतुलन होता है । अगर वस्तुएं अपने भार या स्थिति के कारण असंतुलित लगती हैं तो वह हमें बाधित करती हैं। इसलिए संगठन में स्थायित्व जरूरी है। 7. रूप गति को प्रकट करता है- जब रूप प्रकट होता हैतब विविध भाग समय सीमा से सम्बन्धित होते हैं । गति उनके सम्बन्धोंबहावस्थिति तथा रफ्तार को मापती है । गति कला में व्यवस्था लाती है तथा उद्देश्य एवं लय को स्थापित करती है। हर गति में एक लय होती हैजो तेजधीमी या मध्यम हो सकती है । यह अनुभूतियों को जगाती हैआंखों को निर्देशित करती हैध्यान को केन्द्रित करती हैउद्देश्य का विकास करती है तथा विभिन्न तरह की लय को पैदा करती है।

8. रूप संरचना को प्रकट करता है- जब रूप का अनुभव किया जाता हैतब वह कार्य की संरचना या नमूने को प्रकट करता है । यह आंतरिक ढाँचे तथा सजावट की चीजों को प्रदर्शित करता है । जब साधारण पुनरावृत्ति द्वारा आकार तथा रंगों का प्रयोग किया जाता हैतब रूप प्रत्यक्ष तथा स्पष्ट होता हैलेकिन कभी-कभी रचना जटिल होती हैआलेख कम स्पष्ट होता है एवं रंगों तथा आकृतियों की पुनरावृत्ति भी बहुत कम दिखाई पड़ती हैऐसा आधुनिक कला में होता है।

रूपकारी की शिक्षण विधि :

रूपकारी के शिक्षण के लिए कलान्तर से दो विधियाँ प्रयुक्त की जाती रही हैंजो अग्रलिखित है –

1. प्रथम विधि- प्रथम विधि में शिक्षक कुछ सिद्धान्तों के आधार पर कक्षा के सामने उन तथ्यों को पेश करता हैजिन्हें बालकों को सीखना है । प्रायः चित्र के हर बिन्दु की व्याख्या की जाती है तथा बाद में बालक शिक्षक का अनुकरण करते हुए यह प्रदर्शित करते हैं कि सिखाई गयी सामग्री उन्होंने समझ ली है। हालांकि इस विधि से समय की बचत होती है लेकिन रूपकारी के शिक्षण में इसे उपयुक्त नहीं माना जाता है क्योंकि इससे बालक में रूपकारी की गहन समझ का विकास नहीं होता तथा बालक की व्यक्तिगत अनुभूति को कोई स्थान नहीं मिलता।

2. दूसरी विधि- दूसरी विधि में बालक को अधिकाधिक प्रयोग तथा अभ्यास करके रूपकारी की गहन समझ का विकास करना होता है। शिक्षक का कार्य छात्र के सामने ऐसी परिस्थितियाँ पेश करना होता हैजिसमें कई क्रियाओं तथा विकल्पों को स्थान दिया जाए । बालक अपनी रुचि तथा अनुभव को स्वयं के प्रयत्नों द्वारा प्रदर्शित करने का प्रयत्न करता है । अध्यापक की हर क्रिया का उद्देश्य बालक को रूपकारी का अनुभव ग्रहण करने एवं उसके तत्त्वों की जानकारी में मदद प्रदान करना होना चाहिए। इसके अलावा बालकों की रुचि को विकसित करनेकला के उपकरणों की जानकारी प्राप्त करने तथा विकसित करनेकला सामग्री की सम्भावनाओं तथा सीमाओं को जानने के उद्देश्य को भी ध्यान में रखना चाहिए ।

प्रयोगवादी धारणा के अनुसार कला‘ उस उद्देश्य हेतु किया जाने वाला प्रयत्न हैजो व्यक्ति की वर्तमान योग्यता के आधार पर प्राप्त किया जाना असम्भव हैअर्थात् कला का जीवन्त रूप उसकी निरन्तर उत्तरोत्तर पूर्णता की प्राप्ति में है। इसके अनुसार किसी भी सिद्धान्त को स्थायी नहीं माना जा सकताबल्कि यह हमेशा उपकल्पना है। इसलिए बालक हेतु यह जरूरी है कि वह रूपकारी के सम्बन्ध में अपनी सोच पर निरन्तर पुनर्विचार करता रहे तथा संशोधन करता रहे । इस तरह परिपक्व होता हुआ बालक हमेशा एक चुनौती तथा स्वतंत्रता का अनुभव करता हैजिसे वह सहर्ष स्वीकार भी करता है।

रूपकारी के विशिष्ट तत्त्वों से सम्बन्धित क्रियाएं :

रूपकारी के तत्त्व अग्रलिखित हैं –

1. रेखाएं- रेखाएं रूपकारी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व हैजो चित्र को स्वरूप प्रदान करती है। रेखाएं सोधीवक्राकार या लयात्मक हो सकती है। इन्हें ज्यामितीय उपकरणों की सहायता से या स्वतंत्र रूप से खींचा जा सकता है। छात्रों को इन कलाकारों के कार्यों को देखना चाहिएजिन्होंने इस दिशा में प्रभावशाली कार्य किया हैजैसे-पिकासो रेखांकन में बहुत कुशल माना जाता है।

2. मुख्य भाग या खाली स्थान- कलाकृति के क्षेत्रफल तथा उसमें चित्रित वस्तुओं के अनुपात से खाली स्थान प्रकट होता है। छात्र का ध्यान प्रमुखतः आकृतियों को देखने पर ही हो जाता है। वह खाली स्थान नहीं देखताजबकि दोनों का समान महत्त्व है। स्थान के प्रभाव को दिखाने हेतु विविध रंगों की पट्टियों या आकृतियों के बीच रेखाओं का प्रयोग किया जाता है। 3. प्रकाश एवं छाया- छायांकन के प्रयोग से पोट्रेट तथा वस्तुओं के चित्र सजीव हो उठते हैं। छाया को दीवारफर्श पर या अन्य वस्तुओं पर दर्शाया जा सकता है।

4. बुनावट– कला में बुनावट का प्रयोग दो तरह से होता हैएक वस्तु के रूप में जैसे-कपड़े आदि पर चित्र बनाकर तथा दूसरे रंगों के माध्यम से आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर इसका प्रभाव पैदा किया जाता है। कपड़े में मोटेपतलेचिकनेमुलायमकठोर धागों से बुनावट की जानकारी प्राप्त होती हैजबकि पेंटिंग में बिन्दुओं की श्रृंखला या रेखाएं उसका आभास कराती हैं।

बुनावट के प्रभाव को समतल या चिकनी जगह पर पेंटिंग करकेलकड़ी या कार्ड बोर्ड पर अखबार की अथवा अन्य चित्रों की कटिंग चिपकाकरतैलीय रंगों में मिट्टी या रेत मिलाकर धरातल तैयार करने की क्रियाओं द्वारा सीखा जा सकता है।

5. रंग-रंगों का संयोजन कलाकृति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। रंग का सर्वाधिक भावात्मक प्रभाव पड़ता है। रंग दो तरह के होते हैं-मिट्टी के रंग एवं पारदर्शी रंग। मिट्टी के रंगों को गोंद के पानीअलसी के तेलमोमअण्डोविरोजाकाँचगुड़ तथा चूने आदि में मिलाकर स्थायी रंग बनाये जाते हैंजो लम्बे समय तक खराब नहीं होते । बाजार में पारदर्शी रंग बने-बनाये उपलब्ध होते हैंजो पानी के साथ प्रयोग किये जाते हैं। हालांकि आजकल रंगों के प्रयोग तथा उनकी विशेषताओं के बारे में छात्रों को जानकारी करायी जाती हैलेकिन रंगों के प्रभाव को एक लम्बे अभ्यास के अनुभव के बाद ही सीखा जा सकता है । कला संयोजन हेतु विविध तत्त्वों में संतुलन जरूरी है। इसलिए रंगों का प्रयोग अन्य तत्त्वों के साथ सिखाया जाना चाहिए। रूपकारी हेतु विविध शैलियाँ काम में लायी जाती हैंजैसे-अगर चादर या कपड़े पर पूर्ण धरातल की रूपकारी करनी हो तो विविध तरह के स्टेन्सिलस्प्रे या टप्पों के द्वारा रूपकारी की जा सकती है। अगर बोर्डर पर रूपकारी करनी हो तो ज्यामितीय तथा प्राकृतिक रूपकारी के ठप्पों का प्रयोग किया जा सकता है। पैनल रूपकारी हेतु स्थान रूपकारी की जा सकती है। स्टेन्सिल कागजगत्तेटिन आदि को किनारे से किसी आकार में काटकरप्रत्यक्ष डिजाइन या शेष भाग को काटकर तैयार किये जाते हैं । ठप्पे लकड़ीधातुआलू या किसी वस्तु से बनाये जा सकते हैंजिसमें आलेखन सरलता से गोदा जा सके एवं ठप्पे लगाते समय वह नष्ट भी न हो । ज्यादा प्रयोग वाले ठप्पे लकड़ी अथवा धातु के बनाए जाते हैं। रूपकारी कपड़ों के अलावा बर्तनोंकाँच के सामानफर्शछतहथियारों एवं अलंकृत वस्तुओं आदि पर की जाती हैजिससे उनका आकर्षण बढ़ता है।

विविध कक्षाओं में रूपकारी के प्रशिक्षण के लिए निर्धारित किया जाना चाहिए । कक्षा के स्तर में वृद्धि के साथ-साथ रूपकारी की सूक्ष्मता तथा जटिलता बढ़ाई जानी चाहिए। विविध कक्षाओं में रूपकारी के अन्तर्गत अग्रलिखित विषय-सामग्री रखी जा सकती है

1. पूर्व प्राथमिक कक्षा- पूर्व प्राथमिक कक्षा में छात्रों की आयु अति अल्प होती है तथा बौद्धिक विकास भी नहीं होताअतः उन्हें अपने कार्य में पूर्ण स्वतन्त्रता प्रदान की जानी चाहिए। ये चाकमिट्टीकोयलेपेन्सिल आदि किसी भी वस्तु से टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएं खींचकर अपने भावों को अभिव्यक्त कर सकते हैं। इस स्तर पर बालकों की प्रकृति के निरीक्षण के अवसर प्रदान करने चाहिए तथा प्रकृति में बिखरे रंगों की जानकारी प्रदान की जानी चाहिए ।

2. प्राथमिक कक्षा- प्राथमिक कक्षाओं के बालकों को विविध आकारों की जानकारी कराई जानी चाहिए। रंगों का प्रयोग सिखाने हेतु उन्हें सूखे रंग या मोटे ब्रुश तथा मोटे कागज के साथ गीले रंग दिये जाने चाहिए । आधुनिक समय में स्कैच पैन का प्रयोग बहुतायत से होता हैतथा बालक उससे कार्य करने में रुचि भी लेते हैं। अक्षर लेखन का अभ्यास भी इनके द्वारा भली तरह से कराया जा सकता हैअत: यह ज्यादा उपयुक्त उपकरण है।

3. पूर्व माध्यमिक कक्षा- पूर्व माध्यमिक कक्षाओं के छात्रों को उनकी संस्कृति का परिचय कराने हेतु दैनिक उपभोग की सामग्री का रेखांकन एवं भावात्मकप्रतीकात्मक तथा अलंकारिक चित्रों का रेखांकन कराया जाना चाहिए । ज्यामितीय कला का परिचय भी इन कक्षाओं से शुरू कर देना चाहिए।

4. माध्यमिक कक्षा- माध्यमिक कक्षाओं के छात्र किशोरावस्था में प्रवेश कर लेते हैं तथा अपनी क्रियाओं में ज्यादा परिपक्व हो जाते हैं। उनका बौद्धिक विकास भी तीव्र गति से हो रहा होता है एवं सामाजिक प्रवृत्ति भी पनप रही होती है । इस अवस्था के बालकों में अपने व्यवसाय के प्रति गम्भीरता देखी जाती है । इसलिए कलात्मक रूपकारी में विविधता की तरफ ध्यान दिया जाना चाहिए। उन्हें रंगों के विविध प्रयोगशेड तैयार करनाधरातल तैयार करना तथा उपकरणों का प्रयोग करना सिखाया जाना चाहिए। माध्यमिक कक्षा में छात्रों को मॉडलिंगप्रकाश तथा छाया के प्रयोग एवं त्रि-आयामी चित्रों को बनाने का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए । प्राकृतिक चीजों का निरीक्षण कराकर उनके मौलिक रूप तथा आकार का चित्रण कराया जाना चाहिए । मेधावी छात्रों हेतु कला-योजना का निर्माण कराया जाना चाहिएजिससे उनकी योग्यता का अधिकाधिक विकास हो सके।

Leave a Comment

CONTENTS