संगीत, नृत्य, रंगमंच और कठपुतली के क्षेत्रीय रूपों का वर्णन कीजिए।

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(1) संगीत  :

भारतीय संगीत के अन्दर सुगम‘ अर्थात् शास्त्रीय संगीत की जटिलता से दूर रहकर सरल मन-मन्दिर में सुगमता से इष्ट अपने प्रियजन को अधिष्ठित कर जो गीत गाये जाते हैंउसे सुगम संगीत कहते हैं। इसके अन्तर्गत लोक गीत. भक्ति गीतदेशभक्ति गीतजनजाति रजवाड़ी गीत आते हैं।

1. लोक गीत- भारत के हर महिला के मन आंगन पर राज करने वाले ये गीत शुभ घड़ी में गाये जाते हैं। यूँघट की ओट में जब गाँव की नववधू अपने प्रीतम को याद करके अथवा देवर को छेड़ते हए कोई गीत गाती है अथवा विवाह के अवसर पर अपनी प्यार भरी फूल गेंदवा मारती है तो कोई भी चित्रकार अपनी तूलिका को तथा संगतराश अपनी छैनी को नहीं रोक सकता है । राजस्थानपंजाबगुजरातमद्रास सभी स्थान पर गाये जाते हैं। राजस्थान के लोक गीतों में लोक धुनों का बहुत समावेश होता है। इनके गीत आदिम जातियों द्वारा गाये जाते हैं एवं स्वरों तथा शब्दों की बहुत सादगी होती है ।

2. भक्ति संगीत- धार्मिक गीतों को भक्ति गीत कहा जाता है। वैष्णवशैवशाक्त धर्म से सम्बन्धित गीतों को भक्ति संगीत कहा जाता है । इसके अन्तर्गत वन्दनाभजनकीर्तनआदि आते हैं। भारत मातासरस्वती वन्दना को आधार माना जाता है । कुछ उत्कृष्ट गीत यहाँ उद्धृत हैं। मीरा का भजन पायो री मैंने‘ या मेरे तो गिरधर गोपाल‘, सूरदास का मेरो मन अन्नत कहाँ सुख पायो‘, आदि उत्कृष्ट भक्ति गीत हैं।

3. देशभक्ति गीत- राष्ट्र को समर्पित देश के आधार पर राष्ट्रीय भावनाओं को जाग्रत करने वाले गीतों को देशभक्ति गीत कहते हैं। भारत के राष्ट्रगान को विश्व का सर्वप्रिय तथा सर्वोत्कृष्ट गीत कहा गया है।

4. जनजाति गीत- भारत की विविध जनजातियों में उनके अपने स्थानीय यन्त्रों की मदद से गाये जाने वाले गीत जनजाति गीत‘ कहलाते हैं। भारत के विविध प्रान्तों के क्षेत्रीय ग्रामों में गीतों का विशेष तीज-त्यौहार दिनचर्या के क्रिया-कलापों में गाये जाते हैं। ये जनजाति गीत कई तरह के हैं। इनके अनेकानेद रस एवं व्यवस्थाएं हैं लेकिन यहाँ कुछ का ही वर्णन किया जाएगा।

5. रजवाड़ी गीत- रजवाड़ी गीतों को लाखों लोग गाते हैं तब ही इसे लोक गीत की श्रेणी में रखा गया है। ये रजवाड़ी गीत साधारण लोक गीत से ज्यादा परिष्कृत हैं। इन गीतों को सामन्त या विलासिता का गीत न समझकर शुद्ध लोक गीत मानना चाहिए। इन गीतों में प्रेमविलापमदिराशूरताशिकारआदि विषयों को लिया जाता है। इन गीतों का इतिहाससंस्कृतिसाहित्यराग सभी की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्व है। रजवाड़ी लोक गीत भी दो वर्गों में एक तो पेशेवर गायक तथा दूसरा आम गृहणियों द्वारा गाये जाते हैं। पेशेवर गायक इसमें शास्त्रीय गायन का पुट डाल देते हैं। वाद्य वृन्द का भी सहयोग लेते हैं जिसमें ढोलनक्काराढोलकसितारसारंगीसिंधी सारंगी तथा कहीं-कहीं हारमोनियम को भी लिया जाता है । राजस्थान के जैसलमेर के पुराने नाम माढ़ पर राग माढ़ बना तथा वहाँ की बेटियाँ माढ़ेची‘ कहलाई। इसलिए इन गीतों में माढ़माढ़ेची शब्दों का खूब प्रयोग हुआ। राजस्थान में रजवाड़े पेशेवर गायक राणादमाचीलंघामांगणियारदाढ़ीसिरासीजांगड़नंगारची आदि कई जातियाँ हैं जो ये लोक गीत गाती हैं। इनकी स्त्रियाँ भी उच्च कोटि की गायिकाएं होती हैं । गबरी बाई,खुशहाली बाईमांगी बाईनराणी बाईतुलसी बाईललता बाईआदि कुछ मुख्य गायिकाएं हैं। सामूहिक रूप में बैठकर जब ये महिलाएं पाबूजीतीजगणगौरहिचकीकललीदारूड़ीसांवणचौमासाजच्चाझाला आदि गाती थी तो एक संस्कृति की झलक मिलती थी। इन रजवाड़ी गीतों में उर्दू फारसी शब्दों को भी चयनित किया जाता था जैसे आलीजाहरिजीमुजरा आदि ।

इन गीतों में स्थापत्य कलाचीनी मिट्टी की तश्तरियाँसंगीत का आनन्दकविता सुननाआदि प्रमुख विषय होते थे। ओलगू लाखाखाजरूरिड़मल आदि भी प्रिय विषय थे । रुसणा (रूठी रानी) का गीतमजनूकल्लालीझालोंम्हातूंवीरतापूर्ण गीतराती जग्गा (देवी-देवताओं के गीत) कई गीत हैं। इन रजवाड़ी गीतों को विलुप्त नहीं होने देना चाहिए। विलुप्त होते इन गीतों को सुरक्षित करके हमें अपनी संस्कृति को जीवित रखना चाहिए ।

(2) नृत्य :

संगीत कला के समान नृत्यकला की गणना भी हमारे देश की प्राचीन कलाओं में की जाती है। प्राचीन काल में नृत्य देवदासियों द्वारा देवालयों में किया जाता था। कालान्तर में यह कला देवालय से निकलकर राज-दरबारों में आ गई। राजाओं द्वारा इस कला को प्रश्रय प्रदान किए जाने के कारण इसका बहुत विकास हुआ तथा कई नृत्य शैलियाँ प्रकाश में आई । संक्षेप में इन नृत्य शैलियों का वर्णन इस तरह किया जा सकता है ।

नृत्य का सम्बन्ध आंगिक अभिनय से है। शरीर के विविध अंगों के संचालन से मुद्रा की सृष्टि होती है। जिस तरह साहित्य में वर्णमाला का महत्त्व है उसी तरह नृत्य में मुद्रा का महत्त्व है। भारतीय नृत्य में मुद्राओं के द्वारा ही भाव व्यक्त किया जाता है । नृत्य के सभी प्रकारों में मुद्रा भाव-प्रदर्शन का एक माध्यम है लेकिन कत्थक नृत्य में इसका बड़ा महत्त्व है।

(i) शास्त्रीय नृत्य

भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का उद्भव मन्दिरों के प्रांगण में अपने स्तुत्य देवी की आराधना के लिए शुरू किया गया था। इन नृत्यों को मार्गी कहा जाता था ताकि आत्मा को शान्ति मिले। नाट्यशास्त्र में इन्हें मार्गी कहा गया है। शाही दरबारों में अपने संगी वादकों जिन्हें कर्नाटकम कहा जाता हैउनके साथ नृत्य करते थे। एक हिन्दू देवता जो मन्दिर में अधिष्ठित होते थेवे इन नर्तकों के शाही मेहमान होते थे।

शास्त्रीय नृत्यों को संगीत नाटक अकादमी ने श्रव्य कला को पेश करने का एक कार्य चलाया था। नृत्त‘ का अर्थ है-स्वच्छहस्त मुद्रा एवं चेहरों के भावों का प्रदर्शन करके शास्त्रीय नृत्य को किया जाता है ।

शास्त्रीय नृत्यों के प्रमुख प्रकार हैं :

1. भरतनाट्यम्, 2. कत्थक नृत्य, 3. कथकली, 4. कुचिपुड़ी, 5. मोहनी अट्टम, 6. मणिपुरी, 7. ओडिसी, 8. छऊ

1. भरतनाट्यम् – भरतनाट्यम् दक्षिण भारत के तमिलनाडु प्रदेश का शास्त्रीय नृत्य है। दो हजार वर्ष पुराने परम्परागत इस नृत्य का उद्गम स्थल तन्जावुर है। प्राचीन काल में ईश्वरोपासना के लिए मन्दिरों में देवदासियों द्वारा किये जाने के कारण इसे दासिअट्टये‘ भी कहा जाता है। लक्षण भावरागताल ये तीन भरतनाट्यम् के प्रमुख भाग हैं। संगीत के समस्त अंगों तथा उपांगों का प्रयोग शास्त्रोक्त तरह से किया जाता है।

भरतनाट्यम् की वेश-भूषा- इस नृत्य में नर्तकियाँ मराठी स्त्रियों की तरह लांघदार लम्बी साड़ी पहनती हैं। दोनों पैरों के बीच से इसको छोटे से जोड़ दिया जाता है। धोती के ऊपर वाले हिस्से को दुपट्टे की तरह कन्धे रखते हुए कमर पर लपेट लेते हैं। आधी अथवा चौथाई बाजू का ब्लाऊज पहना जाता है । कमर में करघनी एवं बाजू तथा गले में आभूषण पहने जाते हैं। बालों की सुन्दर ढंग से चोटी बनाई जाती है। मस्तक पर तिलकभौंहों के ऊपर से कपोल एवं दोनों तरफ बिन्दी एवं होठों तथा गालों पर हल्की-सी लाली लगाते हैं। आभूषणों में कई रत्नों से जड़ित मालाबुन्देटीकाअंगूठीचूड़ियाँबाजूबन्दपायलघुघरूहाथ फूलकंगन जैकेट आदि पहने जाते हैं। वेणी पर बेलाचमेली के फूलों की माला होती है। नर्तक पाजामाजो सिर्फ टीकाचोटी आभूषणचूड़ी को छोड़कर नर्तकियों जैसा ही पहनते हैं।

भरतनाट्यम् नृत्य क्रम भरतनाट्यम् के नृत्य क्रम को सात भागों में विभाजित किया जाता है

1. अल्लारिपु- भरतनाट्यम् का प्रारम्भ प्रार्थना के रूप में नटराज या गणपति को पुष्पांजलि अर्पित करके किया जाता है। इस मुद्रा में शरीर के दोनों अंग दायाँ-बायाँ भाग एक-सा रहता है। कलाकार की नृत्य मुद्रा दर्शकों के सम्मुख रहती है-नमस्कार की मुद्रा के पश्चात् गलाआंख भौंहों की मुद्रा से ईश्वर की आराधना करते हैंईश्वर से कार्यक्रम की सफलता का आशीर्वाद लिया जाता है

2. जेथीस्वरम् – द्वितीय चरण में गायन के साथ नृत्य होता है।

3. शब्दम् – साहित्यिक भाषा में ईश्वर की वन्दना तथा राजा की स्तुति को नर्तकी अपनी भाव-भंगिमाओं से प्रदर्शित करती है।

4. वर्णम् – सबसे महत्त्वपूर्ण तथा आकर्षक नृत्य के उस चरण में परसंचालन एवं अंग स्थितियों के समन्वयन से प्रियतम की प्रतीक्षा में नायिका का भाव दिखाया जाता है। अपनी इस कला प्रदर्शन में कलाकार को पूर्ण छूट रहती है ।

5. पदम् – पाँचवें चरण में श्रृंगारिक भावजन्य चेष्टाओं की पूर्ण प्रधानता रहती है।

6. तिल्लाना- इसमें घुघरुओं की तेज गति से उत्तेजना पैदा की जाती है।

7. श्लोकम् – संस्कृत के श्लोकों द्वारा भगवान कृष्ण की आराधना करते हुए कार्यक्रम समाप्त होता है।

(ii) कथक नृत्य :

कत्थक शब्द की उत्पत्ति कथा से हुई है तथा कथन करोति कथक‘ अर्थात् जो कथन करता है वह कथक है । कथा प्रधान होने के कारण उसे कथक कहा गया है । महापुराण,महापुराणमहाभारत एवं नाट्यशास्त्र में भी कथन शब्द मिलता है । मोहनजोदड़ोहड़प्पा की खुदाई में जो नृत्य मुद्राएं मिली हैं वे कथक नृत्य की हैं। पाली शब्द कोष में कथिको‘ एक उपदेश हेतु प्रयुक्त किया गया है। संगीत रत्नाकर के तेरहवें अध्याय में कथक‘ कथन का उल्लेख है। यह नृत्य सर्वप्रथम भगवान् कृष्ण द्वारा किया गया था अतः इसे नटवरी नृत्य भी कहते हैं। प्राचीन काल में कथावाचकों द्वारा मन्दिरों में पौराणिक कथाओं के आधार पर नट लोगजो भरत कहलाते थेनृत्य करते थे। बाद में नट जाति के लोगों में बुराइयाँ आने के कारण समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया था। यही कारण है कि उन नटों ने स्वयं कथा कर अपनी जीविका चलाने हेतु स्वयं नृत्य करना शुरू कर दिया जो नटवरी कहलाए। नटवरी नृत्य‘ के नाम से एक ऐसी शैली को जन्म दिया जिसमें भाव प्रधानताल प्रधान तत्त्वों का समावेश होने लगा। कथन के क्षेत्र में जयपुरलखनऊ तथा बनारस के घराने मशहूर हैं।

नृत्य क्रम :

कथक नृत्य में पग संचालन तथा आकर्षक मुद्राओं का सुन्दर समन्वय मिलता है। कथक नृत्य के दो प्रमुख अंग हैं

1. ताण्डव, 2. लास्य।

कथक नृत्य में नृत्यकारों के अलावा कुछ कलाकार भी होते हैं। एक व्यक्ति लहरादूसरा तबले पर संगीतकभी-कभी दूसरा सारंगी एवं तीसरा वायलन पर भी संगत देता है। लहरा देने हेतु सारंगी ज्यादा प्रयुक्त समझी जाती है। ज्यादातर शिक्षक तबले में बीच-बीच में बोल बोलते रहते हैं जिससे नर्तक के नर्तन में मदद मिल जाती है।

नृत्य के शुरू में लहरा जिसे नगमा भी कहते हैं,शुरू किया जाता है उसके बाद तबला वादक एक अथवा दो तिहाईदार उठान एवं चक्करदार टुकड़ा बजाकर सम पर आता हैउसके बाद गुरु तथा अन्य संगतकार को सलाम कर एक सुन्दर सी मुद्रा में खड़ा हो जाता है । इसके बाद आमद तथा निकास दिखाकर विविध भाव-मुद्रा में खड़ा हो जाता है इसे ठाढ़ कहते हैं। इस समय तबलावादक सीधा-सीधा ठोकस लगाते हैं । आवश्यकतानुसार अलग-अलग छोटे-छोटे मोहरे या तिहाई लगाकार सम पर आ जाते हैंनर्तक विविध ठाढ़ पेश करते हैं।

इसके बाद सलामी नृत्यमुगलकालीन परम्परा के आधार पर की जाती है। इसमें नतर्कक नृत्य के माध्यम से राजा या नवाब को सलाम करते हैं। अब यह परम्परा रही नहीं लेकिन हिन्दू पद्धति से नमस्कार भी किया जाने लगा है। इसके बाद तोड़ेपरनविविध लय में तथा कभी ताल में नृत्य को दर्शाते हैं । विविध बोली में तिहाईदार तथा तिहाई रहित तोड़े अंग संचालन एवं पैर के बोलों द्वारा प्रदर्शित करते हैं। तबले के साथ लडंत में श्रोतागण आनन्द लेते हैं कविता में नर्तक ब्रजभाषा में रचित कवित्त को ताल द्वारा सुनाते हैं। कवित्त के बाद गत तथा गतभाव की बारी में नर्तक नृत्य की विविध गति दिखाते हैं तत्पश्चात् लय को गतिमान करके नृत्य किया जाता है । तबले की गति तथा सतर्कता बहुत जरूरी है। अन्त में नर्तक तथा तबलिया थक जाते हैं तो नर्तक तिहाई या नवहुक्का की तिहाई लेकर अपना नृत्य खत्म करते हैं ।

(iii) कथकली :

दक्षिण भारत के केरल प्रदेश का वह प्राचीन शास्त्रीय नृत्य है। संगीतकथा एवं अभिनय सुन्दर समन्वय द्वारा 20 से 22 नर्तक इसकी प्रस्तुति करते हैं । रामायणमहाभारत एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित इन नृत्यों में नतर्क स्वयं कुछ नहीं बोलता सिर्फ भाव-भंगिमा द्वारा पार्श्व के गायन के आधार पर नृत्य करते हैं । इस नृत्य का आविर्भाव लोककथा माँ नाट्यनृत्य की परम्परा कृष्णनाट्यम‘ से हुआ। कथा का अर्थ है कहानी तथा कविता एवं कलि का अर्थ है खेल । किसी कथा के पात्रों के बड़े-बड़े मुखौटे लगाकर संगीतमय अभिव्यक्ति के साथ पेश करने को कथकली कहते हैं। इसमें स्त्री का अभिनय भी पुरुष करते हैं।

संगीत एवं वाद्य- यह नृत्य पार्श्व में संगीतमय कविताओं के द्वारा भावों को स्पष्ट किया जाता है। संगीत हेतु मर्दल‘ (मृदंग) रुद्रवीणा तथा बाँसुरी का प्रयोग होता है। पैरों में घुघरू बाँधा जाता है । गीतों की भाषा मलयालम होती है। पार्श्व में गीत कविता चलने से कथा समझने में कठिनाई नहीं होती। क्रियाओं के छन्द भिन्न-भिन्न तालों पर आधारित होते हैं।

वेषभूषा- शरीर पर एक चुस्त जैकेट तथा रंग-बिरंगा घाघरा पहनते हैं। सुन्दर केश सज्जाविशेष मुख श्रृंगार (पात्रों के अनुसार) चेहरे को लालपीलासफेदबिन्दीकाली भौंहैंआंखों में काजलओठों में सुर्सीपात्रों के अनुसार मस्तक पर तिलक तथा सिर पर गोल मुकुट लगाया जाता है। कभी-कभी लम्बा चोगाजिसका चौड़ा घेरा तथा लम्बी-लम्बी बाहें होती हैं एवं ऊपर से चादर भी ओढ़ लेते हैं । कुण्डल,लकड़ी की चूड़ीकविचमुकुट,हारनूपुरफूलमालाआदि से श्रृंगार रामरावणकृष्णशिवपार्वती की भूमिकाओं के अनुसार होता है ।

कथकली नृत्य क्रम :

1. पर्दे के पीछे से ईश्वर प्रार्थना एवं कथानायकों का परिचय ।

2. वादकों का सम्मिलित वाद्य वृन्द में सर्वप्रथम मर्दल (मृदंग) बजता है

3. अभिनेता एवं अभिनेत्री का धीरे-धीरे मंच पर प्रवेश। पात्रों के अनुरूप आंगिक मुद्राओं द्वारा भाव प्रकट कर पात्र परिचयजैसे रावण-रौद्र मुद्रा।

4. कथा प्रसंग के अनुसार रस भाव मुद्राओं द्वारा आंगिक अभिनय।

5. ज्यादातर कथाएं वध से सम्बन्धित होती हैं जैसे बालि वधकंस वधदुर्योधन वधरावण वध आदि।

(iv) कुचिपुड़ी यह आन्ध्र प्रदेश का प्रसिद्ध नृत्य है । इस नृत्य का प्रमुख उद्देश्य वैदिक तथा उपनिषदों में वर्णित धर्म तथा अध्यात्मक का प्रचार-प्रसार करना है। भागवत तथा पुराण इसका प्रमुख आधार है। इसमें लास्य तथा ताण्डव का समन्वय देखने को मिलता है । इस नृत्य के नृत्यकार तन्त्र-मन्त्र में भी विश्वास रखते हैं। इसकी वेशभूष्जा प्रायः भरतनाट्यम नृत्य शैली के प्रकार की होती है। इसमें पद संचालनहस्त मुद्राओंग्रीवा संचालनआदि पर विशेष बल दिया जाता है इसमें मृदंगमँजीराआदि वाद्य प्रयुक्त किये जाते हैं। दशावतार शब्दम्‘, ‘मण्डूक शब्दम् प्रलाद शब्दम् ‘, ‘श्रीरामपट्टाभिषेकम्‘, ‘शिवाजी शब्दम् ‘, आदि कुचिपुड़ी शैली के अन्य नृत्य नाटक हैं।

(v) मणिपुरी :

मणिपुरी नृत्य पूर्वी बंगालअसम की नृत्य शैली है । इसे वास्तव में लाईहरोबा‘ एवं रासनृत्य‘ के रूप में जाना जाता है। इसका प्रचार बंगालबिहारपूर्वोत्तर प्रान्त में बहुत ज्यादा हुआ। मणिपुर प्रदेश में लोकप्रिय के कारण ही इसे मणिपुरी नृत्य कहा जाता है । इस नृत्य शैली में 64 तरह के रासों का प्रदर्शन किया जाता है। इसमें नर्तक तथा नर्तकियाँ राधा-कृष्ण तथा गोपियों का स्वरूप धारण कर मंच पर लीला करते हैं

(vi) ओडिसी नृत्य शैली :

भगवान जगन्नाथ को समर्पित इस नृत्य शैली में पूर्णतया आध्यात्मिकता का पुट लिए होती है। यह नृत्य उड़ीसा में प्रचलित नृत्यकला की प्राचीनतम शैलियों में एक है। इस नृत्य का प्रमुख भाव समर्पण तथा आराधना होता है। भगवान के प्रति भक्ति-भावना इस नृत्य के माध्यम से व्यक्त की जाती है।

इस नृत्य में अंग संचालन,नेत्र संचालन,ग्रीवा संचालनहस्त मुद्राओं तथा पद संचालन पर विशेष ध्यान दिया जाता है । संगीत के लिए वाद्यों में मृदंगबाँसुरीमँजीरा तथा हारमोनियम आदि का प्रयोग किया जाता है एवं गायक स्वर भावों को प्रकाशित करता है।

(vii) छऊ नृत्य :

बंगाल में पुरुलियाबिहार में सरईकेलश तथा उड़ीसा में मयूरभंज में छऊ नृत्य के नाम से जाना जाता है। इस नृत्य का आयोजन चैत्र पर्व पर किया जाता है । इसके अलावा इस नृत्य का आयोजन आदिवासी,खेतिहर खुशहाली एवं शिकार के समय देवी-देवताओं की स्तुति के लिए करते हैं। आदिवासी नारी की श्रृंगार प्रक्रिया से लेकर हल्दी पीसनाधान कूटनाआदि इस नृत्य के प्रमुख विषय हैं। इस नृत्य में हर अंग का अलग ढंग से प्रदर्शन किया जाता है । अंगों का प्रदर्शन तोड़-मरोड़कर इस तरह किया जाता है जिससे तन की भावना व्यक्त हो सके । इस नृत्य शैली में 16 तरह के श्रृंगार का प्रदर्शन किया जाता है । महाराज कृष्ण भंजदेव के समय से लेकर प्रताप भंजदेव के समय तक इस नृत्य शैली का खूब विकास हुआकिन्तु वर्तमान में इस नृत्य शैली का अस्तित्व शनैः शनैः खत्म होता जा रहा है।

प्रमुख लोक नृत्य शैलियाँ हैं :

भारत के हर प्रान्त में भिन्न-भिन्न लोक नृत्य प्रचलित हैंजिनकी कुछ अपनी विशेषताएं । कुछ मुख्य लोक नृत्यों का वर्णन अग्र तरह हैं

(1) चट्टा नृत्य– चट्टा नृत्यं उत्तर प्रदेश प्रान्त का लोक नृत्य है । इसको स्त्री- -पुरुष दोनों ही मिलकर करते हैं । इस नृत्य की गति शुरू में धीमी रहती हैपरन्तु बाद में तेज हो जाती है जिससे दर्शकों को आनन्द मिलता है। यह नृत्य मेलों तथा तमाशों के अन्तर्गत किया जाता है ।

(2) रासलीला- इसका प्रचलन कई राज्योंयथा-उत्तर प्रदेशगुजरातमणिपुर आदि में देखने को मिलता है। रासलीला में गोप तथा गोपियों की परम्परागत वेशभूषा में नर्तक नृत्य करते हैं। राधाकृष्ण की इस नृत्य में प्रमुख भूमिका होती है। यह आंचलिक नृत्य है। गोकुलमथुरावृन्दावन में यह नृत्य काफी लोकप्रिय है। रास में ढोलमजीराझाँझकरतालशहनाईएकतारा आदि कई तरह के वाद्य प्रयोग किये जाते हैं।

(3) होली नृत्य- यह लोक नृत्य होली के अवसर पर ही किया जाता है। राधाकृष्ण की होली विशेष रूप से प्रसिद्ध है । अबीरगुलाल उड़ाते हुए इस नृत्य का आनन्द दर्शक उठाते । होली नृत्य राजस्थानगुजरातमहाराष्ट्रपंजाब एवं उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से प्रचलित।

(4) थाली नृत्य- थाली पर खड़े होकर नृत्य की परम्परा हमारे यहाँ बहुत पुरानी है। यह हमें उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में देखने को मिलता है। थाली पर खड़े होकर पैरों का भार एक साथ रखना एवं शरीर को सँभालना एवं घूम-घूमकर नृत्य करना थाली नृत्य की विशेषता है। इस नृत्य में सन्तुलन का विशेष महत्त्व होता है।

(5) भाँगड़ा- यह पंजाब का प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो कि वीर रस-प्रधान होता है । पुरुष तथा स्त्री दोनों के द्वारा ही यह नृत्य किया जाता है । इस नृत्य में शुरू में लय धीमी होती हैलेकिन धीरे-धीरे तेज होते हुए बाद में बहुत तेज हो जाती हैजिससे दर्शकों को आनन्द मिलता । इस नृत्य में हाथ तथा पैरों दोनों का संचालन विशेष ढंग से होता है । इसकी संगत में ढोलकनगाड़ा आदि का प्रयोग किया जाता है

(6) गिद्धा- यह नृत्य भी पंजाब का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। यह नृत्य स्त्रियों द्वारा किया जाता है । इस नृत्य का आयोजन मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।

(7) गोफ नृत्य- यह महाराष्ट्र का लोकप्रिय तथा कलात्मक लोक नृत्य है। इसमें हाथ तथा पैरों का संचालन ही प्रमुख होता है। इसमें ज्यादातर स्त्रियाँ तथा लड़कियाँ ही भाग लेती हैं । इस नृत्य में एक कुन्दे में रंग-बिरंगी रस्सियाँ बाँधो जाती हैं एवं नीचे एक हाथ में रस्सी तथा एक हाथ में डेढ़ फुट का डण्डा होता है जिसको गोफ बाँधने वाले लय से घूमते हुए एक विशिष्ट शैली की चोटीनुमा गोफ तैयार करते हैं।

(8) गौरीचा- यह महाराष्ट्र राज्य में किसानों का एक धार्मिक लोक नृत्य है । इस नृत्य में गौरी के प्रति श्रद्धा प्रकट की जाती है। नृत्य मण्डलियाँ घर-घर घूमकर इस नृत्य को करती हैं।

त्य- महाराष्ट्र के पश्चिम घाट पर सागर के किनारे रहने वाले मछुआरे लोग इस नृत्य को करते हैं। इस तरह के नृत्य में तटीय क्षेत्र पर स्थित प्रदेशों में मछुआरा नृत्य के नाम से मिलते हैं। इस नृत्य में स्त्री एवं पुरुष दोनों ही भाग लेते हैं।

(10) लावणी- महाराष्ट्र का विशेष तरह का लोक नृत्य है जो गाँवों में तमाशों के

(9) कोली अन्तर्गत होता है। इसमें स्त्रियाँ परम्परागत आंचलिक गीतों को गाकर प्रदर्शन करती हैं।

(11) गरबा- यह गुजरात प्रान्त का लोकनृत्य है। इस नृत्य का आयोजन मुख्य रूप से नवरात्रि के अवसर पर किया जाता है । इस नृत्य में स्त्रियाँ भाग लेती हैं। इस नृत्य में एक ही स्त्री बीच में खड़े होकर अपने ऊपर एक मिट्टी का घड़ा रखती है । इस घड़े में चारों तरफ छिद्र होते हैं एवं एक दीपक रखा जाता है। शेष स्त्रियाँ चारों तरफ घेरा बनाकर वृत्ताकार नृत्य करती हैं। रास के समान किये जाने वाले इस नृत्य का प्रमुख उद्देश्य दुर्गादेवी की आराधना करना होता है ।

(12) टिपरी नृत्य- यह महाराष्ट्र का लोक नृत्य है । इस नृत्य में टिपरी के रूप में डण्डे का प्रयोग किया जाता हैं । गुजरात में इस तरह के डण्डों का प्रयोग डाँडियाउत्तर प्रदेश तथा राजस्थान में इसका प्रयोग रास में किया जाता । यह सामूहिक लोक नृत्य होता है ।

(13) झाँझी नृत्य- यह राजस्थान का परम्परागत लोक नृत्य है । इसमें झाँझी के रूप में छोटे-छोटे मटके जो छिद्रयुक्त होते हैंउनमें दीये रखे जाते हैं। फिर स्त्रियाँ इन मटकों को अपने सिर पर रखकर सामूहिक रूप से नृत्य करती हैं।

(14) छपैली नृत्य- यह कुमायूँ का सर्वाधिक लोकप्रिय लोक नृत्य है। इसमें सहजताउल्लासनिश्चिन्तता की अभिव्यक्ति होती है। इस नृत्य में दो नर्तक होते हैं जो प्रेमी-प्रेमिकाभाई-बहिनजीजा-साली आदि कोई भी हो सकते हैंनृत्य-जोड़ी के अनुसार ही गीत रचना गाकर वह नृत्य किया जाता है।

(15) शिकारी नृत्य- बंगाल तथा असम की पहाड़ियों में बसने वाले भीलों के इस लोक नृत्य को शिकारी लोक नृत्य का नाम दिया गया है । इसको भील नृत्य भी कहते हैं। इस नृत्य में नर्तक जानवर की खाल पहनकर सामूहिक रूप से नृत्य करते हैं ।

(16) घूमर- यह राजस्थान का एक प्रचलित लोक नृत्य है । इस नृत्य में सिर्फ स्त्रियाँ ही भाग लेती हैं। इस नृत्य का आयोजन हर मांगलिक तथा पारम्परिक उत्सवोंयथा-दुर्गापूजा तथा होली आदि के अवसर पर किया जाता है। क्योंकि इस नृत्य को घूम-घूमकर किया जाता है अतः इस नृत्य को घूमर नृत्य कहा जाता है ।

(17) बिहू नृत्य- यह पूर्वोत्तर भारत में असम राज्य का एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है जो कि मोरीकचारी एवं खासी जनजाति के लोगों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है ।

इस नृत्य का वर्ष में तीन बार आयोजन किया जाता है-

1. नववर्ष के स्वागत के लिए वर्ष के पहले दिन वोहाग बिहू‘ के नाम से इस नृत्य का आयोजन किया जाता है।

2. बसन्त उत्सव पर वैशाख बिहू‘ के नाम से इस नृत्य का आयोजन किया जाता है ।

(18) गढ़वाली नृत्य- प्रकृति के सुरम्य वातावरण में बसे गढ़वाली लोग खेत काटने के समय खुशियाँ मनाने हेतु जो नृत्य करते हैं वह गढ़वाली नृत्य के नाम से विख्यात है। यह नृत्य सामूहिक आनन्द प्रदान करने वाला होता है । गढ़वाल प्रान्त के लोग इसको बड़े ही हर्षोल्लास के साथ करते हैं।

(19) रउफ नृत्य- यह जम्मू तथा कश्मीर राज्य का फसल कटाई हो जाने पर स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला एक प्रसिद्ध लोक नृत्य है। इस नृत्य में ग्रामीण स्त्रियाँ दो पंक्तियों में विभाजित हो आमने-सामने खड़ी हो जाती हैं। हर पंक्ति में तकरीबन पन्द्रह लड़कियाँ होती हैं जो एक-दूसरे के गले में बाँहें डालकर नृत्य करती हैं । इस नृत्य में वाद्य-यन्त्रों का सर्वथा अभाव रहता है ।

(20) पण्डवानी नृत्य- यह मध्य प्रदेश स्थित छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। पाण्डवों की कथा से सम्बन्धित होने के कारण इस नृत्य को पण्डवानी नृत्य के नाम से जाना जाता है। इसमें नर्तक वाद्य यन्त्रों की धुन पर नृत्य तथा अभिनय कर पाण्डवों की कथा का प्रदर्शन करते हैं । इस नृत्य में एकतारा वाद्य यन्त्र का मुख्य रूप से प्रयोग किया जाता है। वर्तमान में यह नृत्य अत्यधिक लोकप्रियता प्राप्त कर रहा है । ऋतुवर्माझाडूराम देवांगन तथा तीजनबाई इस नृत्य हेतु विख्यात हैं।

(21) बैम्बू नृत्य- यह नगालैण्ड के आदिवासियों का लोक नृत्य है। इसमें लकड़ी के गोल बड़े-बड़े डण्डों को लेकर नृत्य किया जाता है। इसमें कुछ नर्तक नीचे बैठकर खड़े तथा आडे डण्डे बिछा लेते हैं। फिर दोनों तरफ से डण्डों को मिलाकर बजाते हैं एवं कुछ नर्तक इन डण्डों से बने उन खानों में एक-एक पैर से नाचते हैं। इस नृत्य हेतु बहुत अभ्यास किया जाता हैं।

(22) डांडिया नृत्य- यह गुजरात प्रान्त का प्रसिद्ध नृत्य है। इस नृत्य में स्त्रियाँ अपने हाथ में छोटे-छोटे रंग-बिरंगे डाँडिए लेकर गोलाई में खड़ी होकर गीत गाती हैं। अलग-अलग। घेरे बनाकर परस्पर डण्डे बजाती हैं । डाँडिया नृत्य में गायनलयगीतआदि सभी तीव्र गति से संचालित होते हैं।

(23) दीपक नृत्य- गुजरात प्रान्त का नवरात्रि पर्व का प्रमुख आकर्षण है-दीपक नृत्यइसमें स्त्रियाँ छिद्रों वाले घट में दीपक रखती हैं जिसे सिर अथवा थाली में रखकर नृत्य की विविध भंगिमाएं पेश करती हैं

(24) पाणिहरि नृत्य- गुजरात में यह लोक नृत्य गागर लोटी‘ जरबा के नाम से भी जाना जाता है । इस नृत्य में स्त्रियाँ सिर पर बड़ा गागर एवं उसके ऊपर छोटी-सी लोटी रखक वृत्ताकार घूमते हुए नाचती हैं। सन्तुलन इस नृत्य का प्रमुख आकर्षण होता हैं।

(25) पंथी नृत्य- यह नृत्य छत्तीसगढ़ क्षेत्र के सतगामी समुदाय का अनुष्ठानिक नृत्य है । इस गायन में सतगुरु की प्रशस्ति होती है। पुरुष समूह ढोल तथा झाँझ की लय के साथ गाता है। धीरे-धीरे लय तेज होती जाती है एवं फिर नर्तक पद संचालन के साथ विशेष तरह की मुद्राएं बनाते हैं।

(26) कालारी पायतु- यह युद्ध-कौशल की कला है। इसमें कालारी‘ जिम्नास्टिक तथा पायात युद्ध कला है। गुरु के नेतृत्व में ये कलाएं दिखाई जाती हैं। यह केरल प्रान्त का नृत्य है।

(27) थप्यम नृत्य- केरल प्रान्त के इस नृत्य के द्वारा पुरखोंऐतिहासिक विभूतियोंतेजस्वी नायकों तथा धार्मिक चरित्रों की यादों को उजागर किया जाता है । इसके (थप्यम) करीब 150 स्वरूप प्रचलित हैं तथा हर थप्यम नृत्य की अलग श्रृंगार सामग्री है।

(28) पादायनी- केरल राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में देवी के मन्दिरों में मनोरंजन की इस कला का आयोजन किया जाता है। मुखौटा द्वारा विभिन्न देवी-देवताओं के स्वांग किये जाते हैं। संगीत तथा गायन से परिपूर्ण यह कला कार्यक्रम रात भर चलता है।

(29) झूमुरा नृत्य- असम राज्य के प्रचलित इस नृत्य में उन ग्वालों की व्यथा का वर्णन किया जाता है जिनकी पत्नियाँ कृष्ण के साथ रास करने चली जाती हैं। यह नृत्य तीन भागों में विभक्त होता है-रागदानीजी-तोड़ नाच तथा मेला नाच ।

(30) माडुभांगी- यह भी असम के सताराओं का अनुष्ठानिक नृत्य है । यह समूह नृत्य है महिलाओं द्वारा किया जाता है।

(31) कठपुतली नृत्य- यह राजस्थान का प्रसिद्ध नृत्य है । इसमें कठपुतली नृत्य करने वाले को कठपुतली भाट‘ कहते हैं। उत्तरी भारत के हिन्दी भाषा प्रदेशों में बलाई जाति के लोग। जो इस कला के मर्मज्ञ समझे जाते हैंउच्च वर्ग वालों के समारोहोंविवाहआदि में इस लोक नृत्य का आयोजन करते हैं। पृष्ठभूमि में गायन हेतु एक स्त्री तथा पुरुष होता है। यह गायक ही जरूरी संवाद भी बोलते हैं जो सवाल तथा जवाब की शक्ल में होते हैं। राजस्थान की इस कला में अमरसिंह राठौर की कहानी सर्वाधिक विख्यात है।

(32) तेराताली नृत्य- राजस्थान के इस आधुनिक नृत्य को महिलाएं ही पेश करती हैंलेकिन गायक का दायित्व पुरुष निभाता है। नर्तकों के पैरों एवं हाथों में घण्टियाँ बँधी रहती हैं जिन्हें नृत्य के समय लय तथा एक ताल के साथ बजाया जाता है। इस नृत्य में पेश किया जाने वाला गीत भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से सम्बन्धित होता है।

(33) गीदड़ नृत्य- यह राजस्थान का प्रसिद्ध लोक नृत्य है। शेखावाटी क्षेत्र में वसन्त पंचमी से होलिका दहन तक इस नृत्य का आयोजन किया जाता है । यह ख्याल है इसमें स्वांग धारण करके कलाकार द्वारा किसी विशेष घटना के आधार पर भावात्मक अभिनय किया जाता है । लक्ष्मणगढ़फतेहपुर तथा सीकर के गीदड़ नृत्य विख्यात हैं। यह नृत्य रात्रि के तीसरे पहर तक किया जाता है।

(34) पणघट नृत्य- राजस्थान का प्रसिद्ध पणट नृत्य जेघड‘ नृत्य के नाम से भी जाना जाता है। यह राजस्थानी घेलपणिहारी खयाल का मुख्य नृत्य है। इसमें यौवनाएं सिर पर गगरी रखकर नृत्य करती हैं।

(35) संकीर्तन नृत्य- मणिपुर के प्रसिद्ध इस नृत्य का आयोजन धार्मिक पर्वोविवाह तथा शिशु जन्मोत्सव पर किया जाता है। इस नृत्य में पुरुष तथा स्त्रियाँ कतारबद्ध होकर नृत्य करते हैं।

(36) वसन्त रास– यह मणिपुर का प्रसिद्ध नृत्य है जो कृष्णलीला से सम्बन्धित होता है। इस नृत्य में राधा तथा कृष्ण के प्रेमालाप का अनूठा मिश्रण है।

(37) थांगटा- यह नृत्य मणिपुर का अनुष्ठानिक लोक नृत्य है जो तलवार तथा भालों है के साथ किया जाता है।

(38) थाबल चोंगबी- मणिपुर प्रान्त में लोकप्रिय थावल चोंगवी‘ नृत्य होली के आसपास बगैर भेदभाव के पेश किया जाने वाला नृत्य है। इस नृत्य को हाथ में हाथ डालकर गोला बनाकर सामूहिक रूप से किया जाता है।

(3) रंगमंच :

दृश्य कला के अन्तर्गत नृत्तनाट्य की विशेषता उसके श्रव्य गुणों के कारण ही मिलती है। हमारे दो ज्ञानेन्द्र कान तथा आंख किसी स्थूल वस्तु के अभाव में भी हमें आनन्द प्रदान करते हैं। अतः श्रव्य कला का नाटक हमें दृश्य कला की श्रेणी में भी रखता है क्योंकि नाटक में श्रव्य तथा दृश्य दोनों कलाएं आती हैं-रंगमंच पर दर्शित दृश्यावली में स्थापत्य,मूर्ति तथा चित्रकला का सहयोगगायनवादननृत्यसभी का समावेश नाटक में होता है ।

अभिनय के अंग (प्रकार) :

भरतमुनि तथा आचार्यों ने अभिनय के चार अंग माने हैं –

1. आंगिक अभिनय- आंगिक अभिनय देह तथा मुख से सम्बन्धित अभिनय को कहते हैं। अंग अर्थात् हाथपैरवक्षकटिआदि से किया जाने वाला अभिनय । उपांग अर्थात् नेत्रभौंहनासिकाओंठआदि द्वारा किया जाने वाला अभिनय ।

आंगिक अभिनय का उपयोग आन्तरिक भागों के प्रदर्शन हेतु किया जाता है। हर मानसिक विचार शरीर के अंग-उपांगों को प्रभावित करते हैं । एक तरह से हर बाह्य चेष्टामुद्रा अथवा गति प्रायः आन्तरिक भाव-विकास की अनुवर्तिनी होती है ।

2. वाचिक अभिनय- वचन सम्बन्धित अभिनय को वाचिक अभिनय कहते हैं । वाचिक अभिनय के अन्तर्गत पात्रानुकूलभाषासंवादों की वाक्य संरचनाउच्चारणआदि पर विचार किया जाता है । वाचिक अभिनय में यह ध्यान रखना होता है कि पात्रों के अनुकूल भाषा होनी चाहिए । पात्र की सामाजिक तथा राजनैतिक प्रतिष्ठा के अनुरूप ही संवाद होना चाहिए ।

3. आहार्य अभिनय- मंच सज्जा तथा पात्रों के वेश-विन्यास को आहार्य अभिनय कहा है । अवस्थानुकृति को यथार्थता प्रदान करने हेतु आहार्य अभिनय अत्यावश्यक है। भरत ने इस बात पर बल दिया है कि नाटक में पात्र के अनुरूप रूप-सज्जा तथा वेशभूषा धारण कर कलाकार को अभिनय करना चाहिए । जाता है। भरत के समय में नेपथ्य में सूचिका अथवा सूचीगृह होता था जो पुरुष तथा स्त्री की सज्जा हेतु दो भागों में विभक्त रहता था। एक भाग में पुरुष पात्र चरित्रानुकूल अपने मुख पर नीलेपीले,लाल अथवा काले रंग या चन्दनआदि का लेप कर रूप-सज्जा करते थे एवं पात्रानुसार वस्त्र धारण करते थे । दूसरे भाग में स्त्रियाँ अपने मुख की रूप-सज्जा करती थीं तथा वस्त्र धारण कर मंच पर आती थीं।

4. रंगमंच – आत्म-प्रकटीकरण के कई उदात्त माध्यमों की भाँति रंगमंच भी एक माध्यम है बहुत बड़ाबहुत प्रभावकारी तथा बहुत उपयोगी माध्यम है। नारद मुनि को आकाश मार्ग से नारायण‘, ‘नारायण‘ कहते हुए मंच पर अवतरित होते देखकर सत्यवान के प्राण हरकर यमराज को ऊपर उठते देखकरधरती फटकर सीता का पाताल प्रवेशजयद्रथ का मस्तक कटकर उड़ते हुए जाकर उसके पिता तपस्यारत वृद्धक्षत्र की गोद में गिरना,मायालोक की बातें अथवा सम्मोहन शक्ति का प्रयोग सी लगती हैं। ये सब बातें नाटक के रंगमंच में दृश्यों का प्रस्तुतिकरण सिर्फ बुद्धि हाथ तथा कामचलाऊ विज्ञान की देन है। यह दर्शक का रंगमंच के प्रति प्रेम है।

रंगमंच- कुछ प्रमुख ड्रामा कम्पनी अग्रवत हैं –

(i) पारसी थिएट्रिकल कम्पनी- पारसी थिएट्रिकल कम्पनी बड़े-बड़े नगरों में एक दर्जन मिसो‘ तथा बाइयों एवं डेढ़ दर्जन मास्टरों के विज्ञापन के साथ-साथ चक्कर लगाया करती थीं-तड़क-भड़कचटकीले रंगों के साथ रात्रि के बजे से सुबह तक चलने वाले आंख का नशा‘, ‘धर्मी बालक‘, ‘वीर अभिमन्यु‘ जैसे नाटक हुआ करते थे। पारसी कम्पनी का काल थिएटर रंगमंच का स्वर्ण काल था। भारतेन्दु काल तक पारसी कम्पनियों का प्रवेश हो चुका था। यूरोपीय कम्पनी से प्रेरित पारसी कम्पनियों ने भी नाटक को व्यवसाय का माध्यम बनाया। ओरिजनल पारसी थिएटर कम्पनी 1870 के आस-पास स्थापित की गई थी। मालिक का नाम वेस्टन जी फ्रामजी था। इस कम्पनी के नाटकों की भाषा उर्दू-प्रधान होती थी एवं गीतों की भरमार होती थी।

(ii) विक्टोरिया थियेट्रिकल कम्पनी- 1877 में खुर्शीद जी बाटलीवाला ने विक्टोरिया. थिएट्रिकल कम्पनी की स्थापना की । बाटलीवाला अपनी कम्पनी को विलायत भी ले गये तथा यहाँ उन्होंने हैमलेट‘ का प्रदर्शन किया। मुंशी अम्बिका प्रसाद इस कम्पनी में नाटककार के रूप में वेतनभोगी थे। उन्होंने एक नाटक के शुरू में लिखा था-जो बहुत चर्चित हुआ

पय जल्वये हम्द परवरदिगार

कलम अपना करती है पहले सिंगार ।

(iii) अल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी- इसी समय 1877 में एल्फेड थिएट्रिकल कम्पनी की भी स्थापना हुई । न्यू अल्फेड कम्पनी द्वारा श्रवण कुमारभक्त प्रहलादऔर अभिमन्यु परिवर्तन आदि कई नाटक खेले गये।

इनके अलावा कोरिथिएन कम्पनीओल्ड थिएटर कम्पनीइम्पीरियल कम्पनीसुरविजय कम्पनीव्याकुल भारतकिर्लोस्कर कम्पनी भी अपना नाम कहा रहे थे।

(4) कठपुतली :

लोककथाओं में कठपुतली‘ कला का अपना अलग स्थान है। कठपुतली कला केवल मनोरंजन की नहीं रोचकता एवं सुन्दरता को भी बढ़ावा देती है। आज भी यदि कहीं कुठपुतली का खेल खेला जाता है तो लोग टी.वी. देखने की अपेक्षा कठपुतली देखना पसन्द करते हैं क्योंकि यह जीवट है। सुन्दर संगीत के साथ-साथ जब हीरो विलेन को घटक-पटक कर मारता है हीरोइन हीरो से मिलने जाती है तो उनके हाव-भावनखरे स्वत: ही दर्शकों का मन मोह लेते हैं-रंग-बिरंगेगोटा लगी कठपुतलियाँ अत्यन्त लगती हैं।

संगीत एवं वाद्य- कथावस्तु के आधार पर पर्दे के पीछे से गाया या जाता है। वाद्यों में हारमोनियमतबलासारंगी आदि का प्रयोग होता है । सभी पुतलियों को चलाने में गहन साधनाआवाज तथा उंगलियों का महत्त्व होता है।

कठपुतली- कई प्रकार की होती है।

आवश्यक सामग्री- ऊनी मोजेफँसखपच्चीकागजरंगब्रशकैंचीमिट्टीसुईधागाकपड़ा आदि।

उंगली कठपुतली/दस्ताना पुतली- हाथ में लेकर चलाई जाती है उसमें उंगलियों का कार्य महत्त्वपूर्ण है।

छड़ी पुतली- छड़ी लकड़ी को हाथ में लेकर उसके माध्यम से कठपुतली को घुमाया चलाया जाता है।

हस्त कठपुतली / सूत्र पतली पुतली- इस पुतली को बारीक सूत्रों (धागों) द्वारा जाता है।

कठपुतली बनाने की विधि-

इनका मुख लकड़ी का बना होता है तथा इन्हें हाथों व डोरी से संचालित किया जाता है। यदि सम्भव हो बाजार से एक सुन्दर कठपुतली खरीदें तो उनका साँचा मिट्टी में पकाकर उतार लेना चाहिए। इसके बाद तैयार साँचे में प्लास्टर ऑफ पेरिस भरकर चेहरा तैयार करना चाहिए। फिर कागज के छोटे-छोटे टुकड़े वैसलीन लगाकर चेहरे पर चिपका देना चाहिए। आरम्भ आंखों से करकेगोंद की हल्की परत चढ़ानी चाहिए-फिर गोंद की परत चढ़ाकर सफेद कागज के छोटे-छोटे परत चढ़ाकर सफेद कागज चिपकाना चाहिए। आंखों की जगह गड्ढे गहरे रहें । नाक आगे की ओर और मुख चिरा रहे। चेहरे को सुखाकर कपड़े की बैण्डेज (पट्टियों) को चेहरे पर चिपकाएं-तत्पश्चात् ब्रश एवं रंगआदि से आंखनाककानआदि बनाने चाहिए। कठपुतली की देह बनाने के लिए बच्चों के ऊनी मोजे लेकर अच्छी तरह फूँस भरकर केवल डेढ़ इंच लम्बी दो खपच्ची से हाथ बनाना चाहिए । हाथ कपड़े के सीने चाहिएहाथों में भी फूँस भरकर उसमें कपड़े पहनाना चाहिए। इस प्रकार एक सुन्दर कठपुतली का निर्माण होता है।

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