शिक्षण व्यूहरचना का वर्णन कीजिए।

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शिक्षण व्यहरचना का अर्थ

इंग्लिश जैम शब्दकोष के अनुसार ‘नीति’ अथवा ‘स्ट्रेटेजी’ शब्द का अर्थ युद्ध में सेना को लड़ने के लिए उचित स्थान पर नियुक्त करने की कला से है, जिससे किसी विशिष्ट उद्देश्य की प्राप्ति की जा सके। अर्थात् ‘स्ट्रेटजी’ या नीति का अर्थ युद्ध कला तथा कौशल से है। दूसरे एनसाइक्लोपीडिया के अनुसार, “व्यूह रचना बड़ी सेना के कार्यों तथा उसकी क्रियाओं की योजना तथा निर्देशन देने की कला या विज्ञान है।”

यह स्पष्ट है कि इसके अन्तर्गत योजना या कार्य करने के मार्ग को बताना है । अत: व्यूह रचना का सम्बन्ध कार्य प्रणाली से होता है। इसी प्रकार शिक्षण के अन्तर्गत इसका सम्बन्ध शिक्षण की कार्य प्रणाली से होता है। अतः शिक्षण ‘स्ट्रेटेजी’ का अर्थ लक्ष्य प्राप्ति हेतु कार्य प्रणाली की कलात्मक एवं कौशलपूर्ण व्यवस्था करना है ।

शिक्षण व्यहरचना की परिभाशा

विभिन्न शिक्षाविदों ने शिक्षण नीति के सम्बन्ध में अपने मत इस प्रकार से स्पष्ट किये है –

1. बी.ओ. स्मिथ के अनुसार,  “स्ट्रेटेजी या व्यूह रचना कार्य के उन रूपों को कहते हैं जो कुछ उपलब्धियों को करने के लिये किये जाते हैं तथा कुछ आवश्यक कार्यों से सुरक्षा करते हैं।”

2. आईवर के. डेविस के अनुसार,  “व्यूह रचना अनुदेशन या शिक्षण की व्यापक होती हैं।”

3. ब्राउडी के अनुसार,  “शिक्षण-नीतियों का सम्बन्ध एवं क्षेत्र अत्यन्त ही व्यापक है। शिक्षण व्यूह रचनाओं में, विभिन्न शिक्षण-विधियाँ, रीतियाँ तथा युक्तियाँ सम्मिलित है |

शिक्षण में ‘शिक्षण व्यूह रचनाओं’ शब्द से अर्थ है, वह पूरी कार्य व्यवस्था तथा नीति जिसके माध्यम से शिक्षण-लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। यह कार्य व्यवस्था केवल एक ही पाठ से सम्बद्ध हो सकती है अथवा कई पाठों तक विस्तृत हो सकती है । अस्तु, व्यूह रचना की आवश्यकता एक या अनेक सम्बन्धित पाठों के सन्दर्भ में अनुभव की जाती है । बेन बी. स्टेसर के मतानुसार, “रचना के अन्तर्गत एक विशेष प्रकार के शिक्षण-व्यवहारों के अनुक्रम की व्याख्या करने के लिए तर्क रूप में की जाती है और यह एक या कई पाठों की सामान्यीकृत व्यवस्था है जिसमें संरचना, अनुदेशनात्मक लक्ष्यों के अनुसार वांछनीय छात्र व्यवहार तथा इसके सफल कार्यान्वयन हेतु सुनियोजित युक्तियों की रूपरेखा उपलब्ध होती है।”

शिक्षण व्यूह रचनाओं की मुख्य विशेषतायें

संप्रत्यात्मक दृष्टि से इसकी निम्नलिखित विशेषतायें हैं-

1. ‘व्यूह रचना’ की सफलता शिक्षक की व्यावसायिक निपुणता, अनुभव तथा उसकी सूझबूझ से प्रभावित होती है। चूंकि शिक्षण की वास्तविक परिस्थिति का साक्षात्कार होने से पहले तथा बाद की अवस्थाओं में रचना-कौशल विकसित करने तथा उसमें परिष्करण लाने के प्रति संकेत एवं सुझाव मिलते हैं, इसलिए शिक्षक को इस सम्बन्ध में विमर्शी-स्तर के चिन्तन का सहारा लेना पड़ता है।

2. ‘व्यूह रचना’ का प्रभाव सम्पूर्ण शैक्षिक परिस्थिति में निहित रहता है। शिक्षण-व्यवहार के क्षणिक अंशों से सम्बन्धित होकर पूरे पाठ या कई पाठों तक मिलने वाली शिक्षण-अधिगम की परिस्थिति से जुड़ा होता है।

3. ‘व्यूह रचना’ का स्वरूप शिक्षण-प्रक्रिया आरम्भ होने से पूर्व निर्धारित होता है। यह शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभाविता में अभिवद्धि लाने के लिये पूर्व-कल्पित परिस्थितियों के विश्लेषण पर निर्भर होता है।

4. ‘व्यह रचना’ के अन्तर्गत विधियों तकनीकी एवं यक्तियों का समावेश होता है । किसी एक रचना कौशल में एक से अधिक विधियों, तकनीकी एवं युक्तिया का समन्वित रूप में उपस्थिति सम्भव है।

5. शिक्षण की व्यूह रचना शिक्षक द्वारा स्वीकत अधिगम-सिद्धान्त तथा मानव-स्वभाव के बारे में उसकी मान्यताओं द्वारा प्रत्यक्ष एवं परोक्ष दोनो ही रूपों में प्रभावित होती है।

6. शिक्षण सम्बन्धी व्यूह कौशल, छात्र-केन्द्रित या लोकतान्त्रिक तथा शिक्षक-केन्द्रित या एकतान्त्रिक हो सकते हैं। छात्र-केन्द्रित रचना-कौशलों के उदाहरण हैं-परिचर्चा परियोजना-विधि, खोज प्रक्रिया, अन्वेषणात्मक शिक्षण, नियत कार्य विधि, विचारावेश प्रक्रिया, भूमिका-निर्वाह विधि, स्वाधीन-अध्ययन विधि, सक्ष्म-ग्राहिता प्रशिक्षण, पुनर्विलोकन विधि, शिक्षक-केन्द्रित रचना कौशलों में व्याख्यान व्यूह रचना, प्रदर्शन-व्यूह रचना, अनुशिक्षण कक्षायें, अभिक्रमित अनुदेशन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शिक्षण व्यूह रचनाओं के लाभ

शिक्षण व्यूह रचनायें शिक्षण की अर्ध उपकरण मानी जाती हैं। यह शिक्षक के लिए एक महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रदान करती है कि पाठ्यवस्तु को छात्र तक कैसे पहुंचाया जाये। अतः शिक्षण को गति प्रदान करते हुए उसको रुचिकर, चुनौतीपूर्ण एवं संगठित बनाती है। इसके साथ ही शिक्षण को व्यावहारिक, गत्यात्मक, स्पष्ट एवं सरल, प्रेरणादायक, प्रयोजनवादी तथा सक्रिय रूप प्रदान करने में विशेष भूमिका प्रदान करती है । अतः रचनाओं के शिक्षण अधिगम व्यवस्था में निम्नलिखित लाभ होते हैं-

1. विषय-वस्तु को छात्रों तक पहुँचाने का एक समुचित साधन व्यूह रचनाओं को माना जाता है। इससे छात्र को उसको समझने में सहायता होती है।

2. शिक्षक व्यूह रचनायें शिक्षण को व्यावहारिक रूप प्रदान करने में सहायक का कार्य करती हैं।

3. व्यूह रचनायें शिक्षक को गत्यात्मक रूप करने में लाभदायक होती हैं।

4. व्यूह रचनायें शिक्षण को सरल, स्पष्ट व आकर्षक बनाने में सहायक होती हैं।

5. व्यह रचनायें शिक्षण-अधिगम व्यवस्था में एक प्रेरणादायक रूप में कार्य करती हैं। इससे छात्र स्वतः सक्रिय होकर पाठ्य-वस्तु को आत्मसात करते हैं।

6. व्यूह रचनायें शिक्षण को प्रयोजनवादी बनाने में सहायक होती हैं।

7. यह शिक्षण को बोधात्मक रूप प्रदान करने में सहायक होती है।

8. व्यूह रचनायें शिक्षण को वास्तविक रूप प्रदान करने में सहायक होती है।

9. व्यह रचनायें शिक्षण-अधिगम व्यवस्था को निदानात्मक एवं रचनात्मक रूप प्रदान करने में अति लाभप्रद होती हैं।

10 व्यह रचनायें शिक्षक को सक्रिय रूप से अग्रसर करने में लाभप्रद होती हैं।

11. व्यूह रचनायें शिक्षक की एक सहायक के रूप में कार्य करती है।

12. छात्र स्वयं पाठ्य-वस्तु का निर्धारण इनकी सहायता से कर लेता है।

13. व्यह रचनायें छात्रों में सृजनात्मक क्षमताओं का विकास करने में सहायक होती है|

14. व्यूह रचनाओं से ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है |

15. शिक्षण कार्य छात्रों की रुचि, क्षमता तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर सम्पन्न किया जाता है।

16. यह शिक्षण को स्मृति स्तर से बोध स्तर तथा चिन्तन स्तर तक प्रदान करने में विशिष्ट भूमिका प्रदान करता है।

17. सफल एवं अच्छे शिक्षण की आधारशिला समुचित व्यूह रचनाओं पर आधारित होती है।

18. जिस प्रकार शतरंज का एक कुशल खिलाड़ी नयी-नयी चालें चलता है, नयी-नयी योजना बनाता है, उसी प्रकार एक कुशल शिक्षक भी शिक्षण की नवीनतम व्यूह रचनाओं के प्रयोग से शिक्षण को प्रभावशाली, आकर्षक, सजीव एवं सार्थक बनाता है।

19. व्यूह रचनाओं के द्वारा छात्रों के शिक्षण के प्रति उचित एवं सार्थक दृष्टिकोणों का विकास हो जाता है।

20. व्यूह रचनायें अनुसन्धानकर्ताओं के लिए विशेष रूप से लाभदायक होती हैं।

21. व्यूह रचनाओं के माध्यम से छात्रों में विश्लेषण एवं संश्लेषण की प्रवृत्ति का विकास होता है। साथ ही चिन्तन एवं निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।

22. व्यूह रचनायें छात्र को शिक्षण-अधिगम व्यवस्था में तार्किक तथा स्वतन्त्र रूप से क्रियाशील करने में लाभप्रद होती है।

23. ब्रेन स्टोर्मिंग व्यूह रचना के द्वारा छात्रों में मौलिक चिन्तन, तर्क-वितर्क एवं विचार-विमर्श की क्षमताओं का विकास किया जाता है।

24. शिक्षण को मानसिक रूप देने में सहायक होती है।

25. व्यूह रचनायें शिक्षण-अधिगम व्यवस्था को निर्देशात्मक, सुधारात्मक तथा व्याख्यात्मक रूप प्रदान करने में सहायक होती हैं।

26. समुचित विषय-सामग्री कब, कैसे और कहाँ से उपलब्ध हो सकेगी, इस सम्बन्ध में निर्णय भी व्यूह रचना के अनुसार होता है। यदि शिक्षक परिचर्चा या व्याख्यान का प्रयोग करने के लिये निर्णय लेता है तो विषय सामग्री का चयन करता है।

27. शिक्षक व्यूह रचना का उपयोग अधिगम लक्ष्यों को सरलतापूर्वक प्राप्त करने हेतु किया जाता है। इनके उपयोग से शिक्षक अपने पाठ को भली प्रकार व्यवस्थित कर लेता है और उसमें संगत युक्तियों का प्रयोग कर सकने में सफल होता है।

28. शैक्षिक परिस्थिति में शिक्षक तथा छात्र के मध्य किस प्रकार का अन्तर्विनियम होगा, किस हद तक छात्र द्वारा स्वयं अनुप्रेरित क्रियाओं को बढ़ावा एवं प्रोत्साहन दिया जायेगा तथा सम्पूर्ण क्रिया-कलापों का नियन्त्रण किसके हाथों में होगा। इन सभी बाते के बारे में सम्यक निर्णय लेने के प्रति रचना-कौशल का उपयोग किया जाता है।

29. शिक्षण के लिए उपयुक्त परिस्थिति का आयोजन, विषय सामग्री का चुनाव तथा अधिगम के संसाधनों की पहचान, व्यूह रचनाओं के अनुरूप कर सकने में सहायता मिलती है। इसलिए शिक्षण आयोजित करने से बहुत पहले व्यूह रचना के बारे में निर्णय लेना पड़ता है।

शिक्षण व्यूह रचना की सीमायें

शिक्षण व्यूह रचना की उपयोगिता एवं लाभों के साथ-साथ इनकी सीमायें अथवा हानियाँ भी होती हैं।

ये निम्न प्रकार हैं-

1. किस व्यूह रचना का प्रयोग किस प्रकार की विषय-वस्तु में किया जाये, यह शिक्षक के सामने कठिनाई होती है।

2. प्रत्येक व्यूह रचना की अपनी सीमायें होती हैं जैसे-व्याख्यान व्यूह रचना का प्रयोग प्राथमिक स्तर पर नहीं किया जा सकता है।

3. सभी उद्देश्यों की प्राप्ति एक व्यह रचना के प्रयोग द्वारा नहीं की जा सकती है।

4. एक शिक्षण व्यूह रचना का प्रयोग सभी शिक्षण स्तरों पर नहीं किया जा सकता है |

5. शिक्षक केन्द्रित व्यूह रचनाओं में छात्रों की रुचि, अभिरुचि तथा मानसिक योग्यताओं पर ध्यान नहीं दिया जाता।

6. छात्र केन्द्रित व्यूह रचनाओं में व्यक्तिगत शिक्षण ही लाभदायक होता हैं। अपेक्षाकृत सामूहिक शिक्षण लाभदायक नहीं होता।

7. शिक्षण व्यूह रचना का प्रयोग शिक्षक की योग्यता एवं कुशलता पर ही निर्भर होता है।

8. शिक्षण व्यूह रचनाओं में पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण पर ही अधिक बल प्रदान किया जाता है क्योंकि इनका प्रत्यक्ष सम्बन्ध अधिगम से नहीं होता है।

9. शिक्षण व्यूह रचनाओं के द्वारा शिक्षण को यान्त्रिक रूप में परिवर्तित कर दिया जाता है तथा छात्र को केवल रेखीय रूप में ही शिक्षण प्राप्त करना पड़ता है।

10. इनके द्वारा शिक्षकों में विषयगत अहंकार की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है।

अतः संक्षिप्त रूप में कहा जा सकता है कि स्ट्रेटेजी द्वारा शिक्षण की विस्तत एवं सामान्य योजना को प्रस्तुत किया जाता है जिसके अन्तर्गत विभिन्न युक्तियाँ तथा विधियों का प्रयोग किया जाता है। अतः इसके अर्थ को इस प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है-

1. नीति या व्यूह रचना का सम्बन्ध शिक्षण की कार्यप्रणाली से होता है।

2. यह शिक्षण कार्य प्रणाली का कलात्मक एवं वैज्ञानिक रूप है।

3. व्यूह रचना का मुख्य उद्देश्य शिक्षण लक्ष्यों की प्राप्ति करने से होता है।

4. व्यूह रचना स्वभाव से विशिष्ट होती है।

5. यह अनुदेशन की व्यापक विधि होती है।

6. यह शिक्षा के पाठ की एक सामान्य योजना है।

यक्ति का अर्थ

जिस प्रकार शिक्षण की विभिन्न रीतियाँ जैसे-प्रश्न-उत्तर प्रविधि उदाहरण प्रविधि व्याख्या स्पष्टीकरण प्रविधि आदि सब किसी-न-किसी शिक्षण-विधि की सहायक होती हैं। उसी प्रकार शिक्षण की विभिन्न युक्तियाँ भी किसी-न-किसी शिक्षण-नीतियों की सहायक हैं।

“शिक्षण-युक्तियाँ मौलिक रूप में अधिगम संरचना की आधारशिला हैं।”

डॉ. गुप्ता के अनुसार, “विभिन्न शिक्षण क्रियाओं में, एक शिक्षण-युक्ति, कशल शिक्षक के सफल शिक्षण हेतु, आधार स्वरूप प्रेरणादायक तत्त्व है।”

स्टॉन्स तथा मौरिस के अनुसार, “शिक्षण युक्ति लक्ष्य से सम्बन्धित होती है और शिक्षक के व्यवहार को प्रभावित करती है।”

वास्तव में सफल शिक्षण की आधारशिला उसके नियोजन पर है। जिस प्रकार शतरंज का एक कुशल खिलाड़ी नई-नई चालों को सोचता रहता है, नई-नई योजनायें बनाता है। ठीक इसी प्रकार एक आदर्श शिक्षक भी शिक्षण की नवीनतम युक्तियों को प्रयोग में लाता है, जिससे कि विद्यार्थी की जटिलतम समस्याओं का वह अपनी युक्तियों के द्वारा समाधान कर सके। शिक्षण की युक्ति का अर्थ अनेक विद्वानों ने अपने ढंग से किया है । प्रसिद्ध विद्वान् स्टोन्स तथा मौरिस महोदय ने लिखा है, “शिक्षण की युक्ति लक्ष्य से सम्बन्धित होती है और शिक्षक के व्यवहार को प्रभावित करती है। इसके अन्तर्गत शिक्षण के समय, परिस्थिति के अनुसार शिक्षक किस प्रकार का व्यवहार करता है । वह विद्यार्थियों के साथ विभिन्न भूमिकाओं में कार्यों को कैसे पूरा करता है तथा किस प्रकार शिक्षक एवं विद्यार्थियों के बीच अन्तः प्रक्रिया होती है।”

शिक्षक व्यूह रचना तथा युक्तियों का सम्बन्ध

आज की आधुनिक शिक्षण संरचना में, शिक्षण को वास्तविक गति, शिक्षण की विभिन्न युक्तियों के द्वारा ही मिली है। यदि आलोचनात्मक रूप में, हम शिक्षण युक्तियों का सम्बन्ध, संरचना से स्थापित करें तो हमें ज्ञात होगा कि शैक्षिक तकनीकी में इनका प्रयोग अब विवाद का प्रश्न नहीं है। शिक्षक की स्वयं योग्यताएं तथा शिक्षण की युक्तियाँ दोनों बातें अलग-अलग हैं | शिक्षण को प्रभावशाली बनाने के लिए, शिक्षण संरचना को व्यावहारिक, गत्यात्मक, प्रेरणादायक, सफल तथा प्रयोजनवादी बनाने के लिये हमें शिक्षण की सफल एवं उचित युक्तियों को प्रयोग में लाना परम आवश्यक है। आज का विद्यार्थी ज्ञान को ग्रहण करने के लिए सदैव तैयार नहीं रहता है तथा कक्षा-प्रशिक्षण अधिगम भी तब ही सफल होता है,जबकि शिक्षण रुचिकर,चुनौतीपूर्ण एवं सामाजिक हो।

इस प्रकार युक्ति का अर्थ है कि शिक्षक किसी परिस्थिति में कैसा व्यवहार करता है तथा छात्रों के साथ किस प्रकार कार्य पूरा करता है । संक्षिप्त में शिक्षण नीति के विकास हेतु शिक्षक जो कार्य या व्यवहार करता है, उन्हें शिक्षण युक्तियाँ कहते हैं।

शिक्षण नीतियाँ अथवा व्यूह रचनाओं के प्रकार

शिक्षक, शिक्षण की विभिन्न क्रियाओं को कक्षा में इस उद्देश्य से करता है कि वह कक्षा की विभिन्न परिस्थितियों में सफल हो सके । प्रायः यह देखा गया है कि शिक्षक तो शिक्षण के हेत कक्ष में आया है परन्तु विद्यार्थी निष्क्रिय, मौन, उदासीन हैं। शिक्षण-अधिगम की योजना नहीं हो पा रही। कक्षा की परिस्थितियों, वातावरण, शिक्षक के दृष्टिकोण आदि के कारण शिक्षण-अधिगम प्रभावित होता है । कक्षा में विद्यार्थी भी विभिन्न नीतियों से प्रभावित होते हैं। शिक्षण नीतियों के प्रभाव किस रूप में होते हैं? कौन-कौन सी शिक्षण नीतियाँ हैं?

शिक्षण नीतियों के विभाजन पर मुख्यतः दो बातों:कक्षा में उपस्थित वातावरण एवं परिस्थितियों तथा शिक्षक के स्वयं के दृष्टिकोण का प्रभाव परिलक्षित होता है। अत: इन आधारों के फलस्वरूप शिक्षण व्यूह रचनाओं को दो भागों में बाँटा जा सकता है-

 (I) प्रभुत्ववादी शिक्षण व्यूह रचनायें

यह शिक्षण की परम्परागत शिक्षण व्यूह रचनायें हैं । ये शिक्षक प्रधान होती हैं। इनमें विद्यार्थी का स्थान गौण होता है । शिक्षक सक्रिय रहता है तथा विद्यार्थी निष्क्रिय रहता है । शिक्षक अपने ढंग से छात्रों की रुचियों, क्षमताओ, आवश्यकताओं का ध्यान न रखकर छात्रों के मस्तिष्क में जान गँसता है। शिक्षण व्यवस्था स्मृति स्तर का हाता है। छात्रों को शिक्षण क्रियाओं में भाग लेने की स्वतन्त्रता नहीं होती है । इससे ज्ञानात्मक उद्देश्य की प्राप्ति होती है। व्यूह रचनाओं में निम्नलिखित मुख्य हैं-

(1) व्याख्यान

(2) पाठ प्रदर्शन

(3) ट्यूटोरियल

(4) अभिक्रमित अनुदर्शन

यह शिक्षण की परम्परागत व्यूह रचनायें होती हैं। प्रभुत्ववादी शिक्षण में शिक्षण शिक्षक केन्द्रित होता है। शिक्षक ही पाठय-वस्तु का निर्धारण अपने मनमाने ढंग से करता ह तथा छात्र की रुचि, अभिरुचि योग्यता का ध्यान नहीं रखा जाता है। अतः यह शिक्षक प्रधान होती है। ये निम्नलिखित प्रकार की होती है-

(1) व्याख्यान-

भूमिका- यह शिक्षण की अति प्राचीन विधि मानी जाती है । यह आदर्श विचारधाराओं की देन है। इसका विश्वविद्यालयों तथा उच्च कक्षाओं में विशेष महत्त्व है।

थोम्स एम. रिस्क महोदय के अनुसार, “व्याख्यान उन तथ्यों, सिद्धान्तों तथा अन्य सम्बन्धों का स्पष्टीकरण है जिनको शिक्षक चाहता है कि उसके सुनने वाले समझें।“

स्वरूप- इस नीति के अन्तर्गत शिक्षक छात्रों के सम्मुख किसी विषय पर भाषण देता है। छात्र ध्यान से सुनते जाते हैं तथा कभी-कभी बीच में अध्यापक से प्रश्न भी पूछते जाते हैं । अतः इसमें पाठ्य-वस्तु के प्रस्तुतीकरण पर अधिक बल दिया जाता है ।

गुण-

1. यह नीति शिक्षक के लिए सरल व सुविधाजनक है।

2. कम से कम समय में अधिक विषय-वस्तु का शिक्षण किया जा सकता है।

3. नवीन विषय को प्रस्तुत करने में सहायक होती है।

4. बालकों में भाषण सुनने की आदत का विकास होता है।

दोष-

1. छात्र निष्क्रिय स्रोत बन जाता है तथा उसकी रुचि की अवहेलना की जाती है।

2. शिक्षक का कक्षा पर एकाधिकार होता है।

3. इसका प्रयोग उच्च कक्षाओं में ही किया जाता है।

4. शिक्षक अधिकतर विषयान्तर वार्ता करते हैं।

सुझाव-

1. व्याख्यान देने की गति अधिक तीव्र नहीं होनी चाहिए।

2. व्याख्यान देने से पहले उसकी पूर्ण व्यवस्था कर लेनी चाहिए।

3. व्याख्यान सरल, सुबोध तथा प्रवाहमय भाषा में प्रस्तुत किया जाये।

4. शिक्षक को विषयान्तर अथवा विषय से बाहर नहीं जाना चाहिए।

(2) पाठ-प्रदर्शन-

भूमिका- यह व्यूह रचना प्रशिक्षण की परम्परागत विधि है। इसका विशेष रूप से प्रयोग तकनीकी स्कूलों तथा औद्योगिक प्रशिक्षण में अधिक किया जाता है। इसमें शिक्षण का प्रभत्व रहता है. क्योंकि शिक्षक जिस रूप में पाठ-प्रदर्शन करता है, छात्र उसका अनुकरण करता जाता है।

स्वरूप- पाठ-प्रदर्शन विधि में तीन सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(अ) प्रस्तावना- सर्वप्रथम विषय-वस्तु की प्रस्तावना दी जाती है।

(ब) विकास- दूसरे पाठ्य-वस्तु का विभिन्न शिक्षण बिन्दुओं के आधार पर विकास किया जाता है।

(स) एकीकरण- पाठ्य-वस्तु के एकीकरण पर बल दिया जाता है।

गुण-

1. इस शिक्षण व्यूह रचना का माध्यमिक कक्षाओं में अधिक महत्त्व है।

2. प्रशिक्षण स्कूलों में इसका विशेष महत्त्व है।

3. पाठ का विकास क्रमबद्ध रूप में हो जाता है।

दोष-

1. छात्र शिक्षक पर निर्भर रहता है। इससे छात्र की मौलिकता का हास होता है।

2. इस विधि का सभी स्तरों पर प्रयोग नहीं किया जा सकता है।

सुझाव-

1. पाठ प्रदर्शन से पहले पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण करना चाहिए।

2. छात्रों के बीच-बीच में स्पष्टीकरण भी देना चाहिए।

3. पाठ प्रदर्शन सम्बन्धी उपयुक्त सहायक सामग्री का प्रयोग करना चाहिए।

(3) अनुवर्ग या ट्यूटोरियल शिक्षण-

भूमिका- यह एक उपचारात्मक शिक्षण व्यूह रचना मानी जाती है । इसका प्रयोग अच्छे कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में किया जाता है। इसके प्रयोग से छात्र शिक्षण सम्बन्धी अनुभव प्राप्त करते हैं। साथ ही इसमें निर्देशन तथा परामर्श भी प्रदान किया जाता है।

स्वरूप- कक्षा को छोटे-छोटे अनुवर्ग समूहों में बाँट दिया जाता है तथा एक अनुवर्ग को एक शिक्षक को सौंप दिया जाता है। यह शिक्षक अपने वर्ग के छात्रों की शिक्षण सम्बन्धी सभी समस्याओं तथा कठिनाइयों को हल करता है तथा यथासम्भव निर्देशन व परामर्श देता है। अत: अनुवर्ग शिक्षण तीन रूपों में प्रयोग किये जाते हैं|

(क) निरीक्षित अनुवर्ग शिक्षण- इसमें व्यक्तिगत रूप से छात्र तथा शिक्षक नियमित रूप से मिलते हैं तथा शिक्षक छात्रों के कार्यों का निरीक्षण करता है।

(ख) सामूहिक अनुवर्ग- इसमें सामान्य वर्ग के छात्रों को सामूहिक रूप में शिक्षण प्रदान किया जाता है।

(ग) प्रयोगात्मक अनुवर्ग- इसमें क्रियात्मक पक्ष के शिक्षण उद्देश्यों पर बल दिया जाता है। इसका प्रयोग व्यक्तिगत व सामूहिक दोनों प्रकार से छात्रों को शिक्षण देने में किया जाता है।

गुण-

1. यह व्यक्तिगत शिक्षण हेतु छात्र के लिये अधिक उपयोगी सिद्ध हई है।

2. छात्र को अपनी कठिनाइयों को हल करने के अवसर प्रदान किये जाते हैं।

3. यह उपचारात्मक शिक्षण की एक विशेष विधि है।

दोष-

1. कक्षा के वर्गों में प्रतिस्पर्धा की भावना का विकास होता है।

2. एक शिक्षक द्वारा सभी छात्रों की समस्यायें हल करना असम्भव है।

3. शिक्षक पक्षपातपूर्ण व्यवहार करते हैं।

सझाव-

1. शिक्षक की रुचि के अनुसार कक्षा वर्ग प्रदान करना चाहिए।

2. शिक्षक को निष्पक्ष होकर शिक्षण देना चाहिए।

3. प्रत्येक छात्र को समान अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

4. अभिक्रमित अनुदेशन-

भूमिका- अभिक्रमित अनुदेशन प्रभुत्ववादी व्यूह रचनाओं में एक आधुनिकतम विधि के रूप में मानी जाता है । इसक विकास का श्रेय बी.एफ. स्किनर क्राउडर आदि मनोवैज्ञानिकों की है। इस विधि के द्वारा छात्र के व्यवहार को नियन्त्रित किया जाता है जबकि छात्र स्वयं सीखता है।

स्वरूप- छात्रों को अनुदेशन के रूप में पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे पदों के रूप में स्वय अध्ययन करने का निर्देश दिया जाता है । छात्र अपनी पढ़ने की गति के अनुसार स्वतन्त्र रूप से पढ़ता है । साथ ही अपने उत्तर की शुद्धता की जाँच भी करता है, जिससे उसे पुनर्बलन मिलता है। इस प्रकार छात्र सक्रिय रूप से पाठ्य-वस्तु का अध्ययन करता है ।

प्रकार-

1. रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन

2. शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन

3. मैथेमेटिक्स अभिक्रमित अनुदेशन

सिद्धान्त-

अभिक्रमित अनुदेशन के निम्नलिखित सिद्धान्त होते हैं-

(क) छोटे पदों का सिद्धान्त

(ख) सक्रिय अनुक्रिया का सिद्धान्त

(ग) तुरन्त पुष्टि का सिद्धान्त

(घ) स्वयं गति का सिद्धान्त

(ङ) छात्र परीक्षण सिद्धान्त

गुण –

1. छात्र सक्रिय रूप से अध्ययन करता है।

2. छात्र स्वयं सीखता तथा उसका परीक्षण भी करता जाता है।

3. सीखते समय छात्र क्रियाशील रहता है तथा अपनी गति के अनुसार अध्ययन करता है।

4. छात्र सीखने को अधिक तत्त्पर रहता है।

दोष-

1. सभी विषयों के शिक्षण में इसका प्रयोग नहीं किया जा सकता।

2. अनुदेशन की रचना करना अति कठिन कार्य है।

3. इसका प्रयोग ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों के लिए किया जाता है।

(II) प्रजातान्त्रिक शिक्षण व्यूह रचनायें

प्रजातान्त्रिक व्यूह रचनायें बाल-केन्द्रित होती हैं । छात्र स्वयं पाठ्य-वस्तु का निर्धारण करते हैं। शिक्षक का स्थान गौण होता है । शिक्षक एक निर्देशक, मित्र तथा सहायक का कार्य करता है। शिक्षण कार्य छात्रों की रुचि व क्षमताओं तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर किया जाता है। शिक्षण बोध स्तर के चिन्तन् स्तर तक चलता है। छात्र में सृजनात्मक क्षमताओं का विकास होता है । इन व्यूह रचनाओं से ज्ञानात्मक उद्देश्य के साथ-साथ भावात्मक तथा क्रियात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति होती है । प्रजातान्त्रिक शिक्षण व्यूह रचनाओं में निम्नलिखित को सम्मिलित किया जाता है –

1. प्रश्नोत्तर

2. सामूहिक वाद-विवाद

3. अन्वेषण

4. ऐतिहासिक खोज

5. समीक्षा

6. गृहकार्य

7. प्रोजेक्ट पद्धति

8. कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन

9. ब्रेन स्टोर्मिंग

10. स्वतन्त्र अध्ययन

11. पात्र-अभिनय या अनुकरणीय शिक्षण

12. नेता विहीन समूह

13. संवेदनशील प्रशिक्षण

प्रजातान्त्रिक शिक्षण व्यूह रचनाओं या नीतियों में शिक्षण की अन्तःक्रिया को महत्त्व दिया जाता है। इसमें शिक्षक व छात्र दोनों स्वतन्त्र एवं परस्पर रूप से सक्रिय रहते हैं । इसके अन्तर्गत छात्रों के भावों, मूल्यों, रुचियों, अभिरुचियों, क्षमताओं आदि का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस प्रकार इन नीतियों के द्वारा छात्र का सामूहिक रूप से विकास किया जाता है। यह निम्नलिखित प्रकार की होती हैं-

1. प्रश्नोत्तर-

भूमिका- इसके जन्मदाता प्रसिद्ध दार्शनिक सुकरात थे। इसलिए इसे सुकरात विधि भी कहते हैं। इसमें छात्र के पूर्व ज्ञान के आधार पर प्रश्नों की सहायता से नवीन ज्ञान प्रदान किया जाता है।

स्वरूप- थिंग महोदय के अनुसार, “शिक्षण का अर्थ कुशलता से प्रश्न करना है।” पारकर महोदय के शब्दों में, “प्रश्न समस्त शिक्षण क्रिया की कुंजी है।” अत: शिक्षण में प्रश्नों का बहुत महत्त्व होता है। इस प्रकार इस विधि द्वारा शिक्षक छात्रों से विभिन्न प्रकार के प्रस्तावनात्मक तथा विकासात्मक प्रश्नों को पूछकर शिक्षण प्रदान करता जाता है। साथ-साथ कठिन प्रश्नों का विवरण एवं स्पष्टीकरण भी प्रदान करता है।

प्रश्नों के प्रकार-

1. प्रस्तावनात्मक प्रश्न

2. विकासात्मक प्रश्न

3. विचारात्मक प्रश्न

4. बोध प्रश्न

5. पुनरावृत्ति प्रश्न ।

प्रश्नोत्तर व्यूह रचना में ध्यान देने योग्य बातें-

1. प्रश्न नुकीले, निश्चित, सरल व पाठ से सम्बन्धित होने चाहिए।

2. इनकी भाषा स्पष्ट, रोचक व आकर्षित होनी चाहिए।

3. प्रश्न सजीवता, स्फूर्ति, तारतम्य तथा आत्म-विश्वास सम्बन्धी विचारों से सम्बन्धित होने चाहिए।

4. द्विविधा सूचक प्रश्न नहीं करने चाहिए।

5. प्रश्नों को दोहराना नहीं चाहिए तथा एक समय में एक बात पूछनी चाहिए।

गुण –

1. इसमें छात्र व शिक्षक दोनों सक्रिय रहते हैं।

2. यह विधि रूचिपूर्ण एवं मनोवैज्ञानिक है।

3. यह विधि छात्रों में तर्क शक्ति एवं चिन्तन का विकास करती है।

4. कक्षा में अनुशासन की समस्या हल हो जाती है।

दोष-

1. छात्रों में प्रश्नों के उत्तर के बारे में अनुमान लगाने की आदत का विकास होता है |

2. शिक्षण के सभी उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो पाती है।

3. प्रश्नों की बनावट भ्रमोत्पादक होती है।

सुझाव-

1. प्रश्न स्पष्ट एवं तीव्रगामी होने चाहिए।

2. पाठ से सम्बन्धित ही प्रश्न पूछे जाने चाहिए।

3. प्रश्नों का वितरण सम्पूर्ण कक्षा में सामान्य रूप से होना चाहिए।

4. मानचित्र, चित्र आदि का प्रयोग करना चाहिए।

2. सामूहिक वाद-विवाद-

भूमिका- सामूहिक वाद-विवाद में शिक्षक छात्रों को किसी समस्या पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है । इससे छात्र व शिक्षक दोनों ही सक्रिय रूप से अपने-अपने विचार प्रस्तुत करते हैं। इसलिए इस नीति को सामाजिक अधिगम की एक विधि माना जाता है। ली के मतानुसार, “वाद-विवाद शैक्षिक समूह क्रिया है। इसमें शिक्षक व छात्र सहयोगपूर्वक एक-दूसरे से किसी समस्या पर बहस अथवा चर्चा करते हैं।”

सामूहिक वाद-विवाद की व्यूह रचना छात्र केन्द्रित होती है। वाद-विवाद का केन्द्र कोई विशेष समस्या होती है जिसका कोई कार्यक्रम तैयार किया जाता है जो सभी को मान्य होता है।

वास्तव में यह आपस में मिल-जुलकर तथ्यों, प्रत्ययों तथा सिद्धान्तों के स्पष्टीकरण की विधि है। शिक्षक व छात्र परस्पर विचार-विमर्श और वाद-विवाद करके किसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं। कुछ लोगों का विचार है कि हम मिल-जुलकर अधिक सीखते हैं परन्तु देखा गया है कि कुछ श्रेष्ठ छात्र सामूहिक वाद-विवाद से अधिक लाभान्वित नहीं होते हैं वरन् उनके सीखने में यह विधि बाधक सिद्ध होती है।

स्वरूप –

सामूहिक वाद-विवाद में मुख्यतः दो रूपों में कार्य किया जाता है-

(क) औपचारिक- औपचारिक वाद-विवाद पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम व उद्देश्य को लेकर तैयार किया जाता है । इसमें नियमों का पालन करना आवश्यक होता है।

(ख) अनौपचारिक- इसमें पूर्व निर्धारित कुछ भी नहीं होता। इसमें स्वतन्त्र मौखिक क्रिया-प्रतिक्रिया होती है। इसमें भाग लेने वाला किसी नियम से बँधा नहीं होता। कक्षा में होने वाला वाद-विवाद इसी प्रकार का होता है।

गुण-

1. इसमें सामाजिक अधिगम को अधिक अवसर दिए जाते हैं।

2. छात्रों की ज्ञान वृद्धि होती है।

3. छात्रों में किसी सनस्या पर विचार करने व बोलने की आदत का विकास हो जाता है।

दोष-

1. कुछ ही छात्र वाद-विवाद में भाग ले पाते हैं।

2. छात्र विषयान्तर वाद-विवाद अधिक करते हैं।

3. छात्रों में स्पर्धा हो जाती है।

सुझाव-

1. सभी छात्रों को बोलने के समान अवसर प्रदान किये जाने चाहिए।

2. वाद-विवाद के प्रसंग की पहले रूप-रेखा तैयार कर लेनी चाहिए।

3. आलोचना रचनात्मक व सार्थक होनी चाहिए।

3. प्रोजेक्ट या योजना शिक्षण व्यूह रचना-

योजना नीति अथवा व्यूह रचना के जन्मदाता श्री एच. किल्पैट्रिक थे। साथ ही यह विधि डॉ.जोन डी.वी.के प्रयोजनवाद के सिद्धान्तों पर आधारित है। किल्पैट्रिक महोदय ने प्रोजेक्ट को इस प्रकार से परिभाषित किया है-“प्रोजेक्ट सम्पूर्ण हृदय से किया जाने वाला उद्देश्यपूर्ण कार्य है जो सामाजिक वातावरण में सम्पन्न किया जाता है।”

स्वरूप- प्रोजेक्ट एक समस्यामूलक कार्य है। इसमें छात्र स्वयं क्रियाशील रहता है । इस व्यूह रचना में निम्नलिखित सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(i) परिस्थिति उत्पन्न करना- शिक्षक स्वयं छात्र के सम्मुख परिस्थिति उत्पन्न करेगा।

(ii) योजना का चुनाव- शिक्षक व छात्र दोनों योजना का चुनाव करेंगे।

(iii) योजना का कार्यक्रम तैयार करना- दोनों इसके कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करेंगे।

(iv) योजना को कार्यरत करना- छात्र अपने-अपने कार्य को करेंगे।

(v) कार्य का लिखित विवरण- पूर्ण योजना का लिखित विवरण तैयार करना।

डब्ल्यू. एच. किल्पैट्रिक महोदय के अनुसार प्रोजेक्ट निम्नलिखित चार प्रकार के होते है |

(i) रचनात्मक प्रोजेक्ट- जैसे-पत्र लिखना, कुआं खोदना, नाटक खेलना, मॉडल बनाना आदि।

(ii) कलात्मक प्रोजेक्ट- जैसे-संगीत, कविता आदि कार्यक्रम।

(iii) समस्यात्मक प्रोजेक्ट- जैसे-खाद्य समस्या, वर्षा क्यों होती है?

(iv) अभ्यासात्मक प्रोजेक्ट- जैसे-रेखाचित्र खींचना, पार्सल भेजना, मानचित्र भरना आदि।

सिद्धान्त-

(i) क्रियाशीलता का सिद्धान्त- छात्र स्वयं कार्य करने में क्रियाशील रहता है।

(ii) वास्तविकता का सिद्धान्त- प्रोजेक्ट का स्वरूप वास्तविक होता है।

(iii) उपयोगिता का सिद्धान्त- प्रोजेक्ट कार्य छात्र जीवन के लिए उपयोगी होते हैं।

(iv) सोउद्देश्यता का सिद्धान्त- इसमें किसी न किसी लक्ष्य की पूर्ति की जाती है।

(v) सामाजिकता का सिद्धान्त- इसमें किसी न किसी लक्ष्य की पूर्ति की जाती है।

गुण-

इसके प्रमुख गुण स्वतन्त्रता, मौलिक चिन्तन, वास्तविक जीवन का अनुभव, उत्तरदायित्व की भावना का विकास, सहयोग की भावना का विकास करना आदि है।

दोष-

इसका प्रयोग केवल सीमित पाठ्यक्रम तथा छोटी कक्षाओं में ही किया जा सकता है |

4. गृह-कार्य व्यूह रचना-

भूमिका- गृह-कार्य एक महत्त्वपूर्ण व्यूह रचना मानी जाती है। गह-कार्य के द्वारा छात्रों को व्यक्तिगत रूप से कार्य करने एवं सीखने के अवसर प्रदान किये जाते हैं। शिक्षण कार्य के अभ्यास हेतु इसका प्रयोग किया जाता है । गृह-कार्य का उद्देश्य छात्रों में विषय सम्बन्धी कौशल विकसित करना है।

प्रो. जी.एम. के अनुसार, “गृह कार्य शिक्षण की क्रिया में वह समय है जब शिक्षक बालकों की क्रियाओं की योजना अध्ययन की तैयारी के लिए बनता है।”

प्रो. अर्वेट ने भी अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किये हैं, “गृह कार्य साधारणतः मानसिक क्रिया के लिये कार्य की योजना बनाना तथा विधि निर्धारित करना है।

स्वरूप- गृह-कार्य का स्वरूप प्रयोगात्मक तथा व्यावहारिक होना आवश्यक है । इसमें काय सम्बन्धी विविधता होनी चाहिए। साथ ही छात्रों की रुचि पर आधारित होना चाहिए । गृह-काय के कई रूप होते हैं-जैसे-कक्षा कार्य पर आधारित. दैनिक गृह-कार्य तथा दीर्घकालीन समय के लिए दिया गया गृह-कार्य ।

गृह-कार्य के उद्देश्य-

1. छात्रों को अभिप्रेरणा देना तथा सीखने की क्रियाओं की ओर उन्मुख करना।

2. उद्देश्यों को स्थापित करना।

3. निश्चित सीखने के अभ्यास तथा क्रियाओं को देना।

4. अध्ययन तथा अन्य सीखने की क्रियाओं के लिए निर्देश देना।

गृह-कार्य के प्रकार-

(क) पाठ्य-पुस्तक गृह-कार्य- शिक्षकों द्वारा पाठ्य-पुस्तक दत्त कार्य का प्रयोग सबसे अधिक होता है । शिक्षक पाठ्य-पुस्तक के पृष्ठ, पैराग्राफ अथवा अध्याय को पढ़ने अथवा लिखने को दे देता है । इसका सम्पूर्ण भार छात्र के ऊपर होता है।

(ख) समस्या गृह-कार्य- इस प्रकार के गृह-कार्य की सफलता के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों को पहले निर्देश व सुझाव दिये जायें। सन्दर्भ पुस्तकों की सूची तथा पुस्तकालय का प्रयोग करना बता दिया जाये। इसमें किसी समस्या की ओर विचार केन्द्रित किया जाता है अथवा एक विषय को विकसित किया जाता है। छात्रों से कहा जाता है कि वे विषय सम्बन्धी तथ्यों को देखें, उसके मूल्यों, कारणों तथा सम्बन्धों के ऊपर अध्ययन करें तथा चिन्तन एवं मनन करें।

गृह-कार्य देते समय ध्यान देने वाली बातें-

1. गृह-कार्य उद्देश्यपूर्ण होना चाहिए, जो छात्र को अभिप्रेरित कर सके।

2. गृह-कार्य से स्वयं क्रिया करने को प्रोत्साहन देना चाहिए।

3. गह-कार्य निश्चित तथा स्पष्ट होना चाहिए तथा समय का ध्यान रखना चाहिए।

4. यह व्यक्तिगत विभिन्नता के सिद्धान्त पर आधारित होना चाहिए।

5. गृह-कार्य छात्र के पूर्व ज्ञान पर आधारित होना चाहिए।

6. गह-कार्य सम्बन्धी आवश्यक निर्देश दिये जाने चाहिए।

7. यह छात्र की रुचि के अनुरूप होना चाहिए।

8. गह-कार्य सरल से कठिन क्रम के रूप में होना चाहिए।

9. इसका सावधानी के साथ मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा उचित सुझाव प्रदान करने आवश्यक हैं।

गुण-

1. छात्रों में स्वयं अध्ययन करने की आदत का विकास होता है।

2. छात्रों में मौलिक चिन्तन एवं कल्पना शक्ति का विकास होता है।

3. उचित शिक्षण सम्बन्धी निर्देशन तथा सुझाव प्रदान हो जाते हैं।

4. छात्रों में शिक्षण के प्रति सही दृष्टिकोण का विकास हो जाता है।

दोष-

1. जब दत्त कार्य सीखने के लिए अभिप्रेरणा प्रदान नहीं करता तो छात्रों के लिए उपयोगी नहीं होता।

2. सीखने की क्रियाओं के लिए आवश्यक निर्देश न देने पर गृह कार्य से कोई लाभ नहीं होता।

सुझाव-

1. उद्देश्य ही दत्त कार्य की प्रकृति का निर्धारण करते हैं। इसलिए विशिष्ट उद्देश्य स्पष्ट करना आवश्यक है। शिक्षक को चाहिए कि वह छात्रों की आवश्यकताओं एवं रुचियों को ध्यान में रखे।

2. दत्त कार्य देने के साथ-साथ अध्ययन पथ प्रदर्शिका एवं अन्य सामग्री छात्रों को दी जाये।

3. शिक्षक द्वारा आवश्यक निर्देश भी दिये जायें।

4. दत्त कार्य निर्धारित करने में छात्रों का सहयोग लिया जाये।

5. शिक्षक को चाहिए कि वह अत्यधिक कठिन कार्य छात्रों को न दें।

5. समीक्षा व्यूह रचना-

भूमिका- समीक्षा या पुनरावलोकन का अर्थ फिर से सोचने, तथ्यों को दुहराने तथा उनकी स्पष्ट समीक्षा करके समुचित निष्कर्षों को निकालना होता है। छात्रों में विभिन्न कौशलों का विकास करना आवश्यक है। अत: यह शिक्षक के शिक्षण की सार्थकता का प्रतीक है।

स्वरूप- समीक्षा को उसके स्वरूप के आधार पर चार भागों में बाँटा जा सकता है-

(अ) मौखिक समीक्षा- जैसे प्रवचन, व्याख्या, पुस्तकों की आलोचना आदि ।

(ब) लिखित समीक्षा- पाठ्य-वस्तु का विश्लेषण, पुस्तकों की समीक्षा आदि ।

(स) समस्या समीक्षा- जैसे-विभिन्न शिक्षण समस्याओं तथा शोध कार्यों की समीक्षा ।

(द) साधारण समीक्षा- जैसे-पाठ, कथा, कहानी, उपन्यास आदि की समीक्षा ।

गुण-

1. यह उच्च कक्षाओं के शिक्षण के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

2. छात्र पुस्तकों तथा अन्य सामग्री की समीक्षा सरलता से करने लगते हैं।

3. छात्रों में विश्लेषण व संश्लेषण की प्रवृत्ति का विकास होता है।

4. अनुसन्धानकर्ताओं के लिए विशेष रूप से लाभदायक होती है।

दोष-

1. इसका प्रयोग प्राथमिक कक्षाओं में नहीं किया जा सकता है।

2. छात्र अधिकतर शिक्षकों पर निर्भर रहते हैं।

3. छात्रों में एक-दूसरे के अनुकरण करने की आदत पड़ती है।

सुझाव-

1. छात्रों को समीक्षा प्रकरण अलग-अलग प्रदान करने चाहिए।

2. शिक्षक को समीक्षा का समय भी निर्धारित करना चाहिए।

3. छात्रों से शिक्षण सम्बन्धी समीक्षा भी करनी चाहिए।

4. समीक्षा काल में शिक्षक द्वारा छात्रों के कार्य का उचित निरीक्षण करना चाहिए।

6. अन्वेषण व्यूह रचना

भूमिका- युरिको, का अर्थ है खोजना या पाना। प्रसिद्ध वैज्ञानिक आर्किमिडीज ने अपने “अपेक्षित घनत्व के सिद्धान्त” की खोज के सन्दर्भ में सर्वप्रथम इस शट का प्रयोग किया था। वह टब में स्नान कर रहा था। अचानक ‘ह्युरिको, ‘ह्युरिको,  कहकर भागा जिसका अर्थ था मैंने पा लिया, मैंने पता लगा लिया। अतः उसका मुख्य उद्देश्य अन्वेषण की प्रवृत्ति को उत्पन्न करना है।

हरबर्ट स्पेन्सर के अनुसार- “बालकों को जितना कम से कम सम्भव हो उतनी बताया जाये और जितना अधिक से अधिक सम्भव हो उतना खोजने के लिए प्रोत्साहित किया जाये।”

Heuristic शब्द यूनानी भाषा के “Heruisco” शब्द से निकला है जिसका अर्थ है-“I find out for myself.”

मै स्वय खोज करता है।” इस प्रकार यरिस्टिक पद्धति स्वयं खोज करने या अपने आप साखने की विधि है । यह एक वैज्ञानिक विधि है तथा इसका स्वरूप समस्यात्मक होता है । समस्या समाधान के लिए बालकों को तथ्यों का अध्ययन, अवलोकन तथा निरीक्षण करने का अवसर दिया जाता है। वे स्वयं अपने प्रयासों से. यन्त्रों से पुस्तकों तथा शिक्षकों की सहायता स उनस सम्बन्धित ज्ञान प्राप्त करें सत्य का पता लगायें तथा नियम व निष्कर्ष निकालें। इस विधि में बालक स्वयं अन्वेषक तथा आविष्कारक बन जाता है।

शब्दकोष के अनुसार “खोज का अर्थ आविष्कार करना, खोज करना, किसी विशिष्ट वस्तु का पता लगाना, किसी वस्तु का नवीन उपयोग खोजना, किसी तथ्य का उदघाटन करना।”

स्वरूप- शिक्षक द्वारा छात्रों के सम्मुख अन्वेषण हेतु समस्या प्रस्तुत कर दी जाती है । सभी छात्र उस समस्या का समाधान का हल करने का प्रयास करते हैं। प्रत्येक छात्र को व्यक्तिगत रूप से सोचने तथा अपने अनुसार समस्या पर कार्य करने की पूर्ण स्वतन्त्रता होती है । ये समस्या के तत्त्वों का विश्लेषण करके उसके सम्भावित उत्तर को ढूँढ़ते हैं।

गुण-

1. छात्रों में चिन्तन तथा निरीक्षण शक्ति का विकास होता है।

2. छात्रों में आत्म-निर्भरता का विकास होता है।

3. विश्लेषण तथा तार्किक शक्ति का विकास होता है।

4. छात्र स्वतन्त्र रूप से क्रियाशील रहता है।

दोष-

1. प्राथमिक कक्षाओं में प्रयोग असम्भव है।

2. अच्छे शिक्षकों का अभाव है।

3. छात्र इसमें कम संख्या में भाग लेते हैं।

7. ऐतिहासिक खोज

भूमिका- इस व्यूह रचना के प्रवर्तक जे.एस. ब्रूनर हैं । प्रायः अन्वेषण तथा खोज दोनों विधियों का एक ही अर्थ में प्रयोग कर लेते हैं । यह अत्यन्त गलत है । अतः इनके अन्तर को समझना आवश्यक है। यह इस प्रकार है-

क्र.ऐतिहासिक खोजक्र.अन्वेषण
1ऐतिहासिक खोज का प्रयोग सामाजिक विषयों के तथ्यों से सम्बन्धित खोज के लिये होता है।1अन्वेषण का प्रयोग वैज्ञानिक विषयों के प्रत्ययों व सिद्धान्तों के प्रतिपादन में किया जाता है।
2ऐतिहासिक खोज में तथ्यों की व्याख्या वर्णनात्मक होती है।2अन्वेषण में तथ्यों का बोध वस्तुनिष्ठ के रूप में प्रदान किया जाता है।
3इसका सम्बन्ध भूतकाल से होता है।3इसका सम्बन्ध वर्तमान से होता है।
4इसमें अवशेषों के आधार पर निष्कर्ष निकालते हैं।4इसमें निरीक्षण द्वारा प्रत्यक्ष रूप से निष्कर्ष निकाले जाते हैं।

स्वरूप- इस विधि के प्रयोग में सर्वप्रथम छात्रों को ऐतिहासिक तथ्यों का वर्णन दिया जाता है तथा यथासम्भव अवलोकन भी कराया जाता है । छात्र उससे सम्बन्धित वर्णन को लिखते जाते हैं। इसी बीच में शिक्षक निर्देशक के रूप में मौलिक बातों पर प्रकाश डाला जाता है। इस प्रकार से छात्र स्वयं खोज के आधार पर तथ्यों का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

गुण-

1. छात्रों में सृजनात्मक चिन्तन का विकास होता है।

2. तथ्यों को समझने की क्षमताओं का विकास होता है।

3. छात्रों द्वारा रटने की अपेक्षा तथ्यों को भली प्रकार से समझ लिया जाता है।

8. कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन

भूमिका- लारेन्स स्टोलरो तथा डेनियल डेविस (1969) ने एक शिक्षण प्रतिमान का प्रतिपादन किया है जिसके अन्तर्गत शिक्षक का स्थान कम्प्यूटर लेता है। यह छात्रों को तथ्यों की सूचनाओं की जानकारी कराता है। दूसरे साथ में छात्रों के व्यवहारों पर भी नियन्त्रण रखता है । इस प्रकार इसको ‘शिक्षण मशीन’ के रूप में प्रयुक्त किया जा रहा है जिससे इसे शिक्षण की महत्त्वपूर्ण एवं नवीनतम विधि माना जाता है। आजकल अमेरिका के स्कूलों में कम्प्यूटर का कक्षा शिक्षण में अधिक प्रयोग किया जा रहा है । इलेक्ट्रॉनिक कम्प्यूटर शिक्षण सम्बन्धी सूचनाओं भरने का काम करता है। इसे फीडिंग स्टेशन कहा जाता है । यह भरी हुई सूचनाओं का प्रसारण करता है। इससे छात्रों को सूचनायें प्राप्त हो जाती हैं जो उनके कार्य को निरन्तर मार्गदर्शित करती रहती हैं। इसके अतिरिक्त कम्प्यूटर का प्रयोग प्रगतिशील राष्ट्रों में आंकड़ों को एकत्रित तथा उनका विश्लेषण करने में किया जा रहा है । इसके द्वारा स्कूलों के बहुत जटिल कार्यों एवं प्रोग्रामों को सरलता से कर लिया जाता है । साथ ही कम्प्यूटर स्कूलों की प्रशासनिक तथा प्रबन्ध सम्बन्धी आवश्यकताओं की पूर्ति करता है।

“कम्प्यूटर अनुदेशन, कम्प्यूटर को सब कुछ जानने वाले शिक्षण मस्तिष्क के रूप में इस प्रकार प्रयुक्त करता है कि विद्यार्थी एक मानवीय शिक्षक के तत्काल माध्यम के बिना ही इससे प्रत्यक्ष रूप से अन्तः प्रतिक्रिया कर सकता है। दूसरे शब्दों में, विद्यार्थी कम्प्यूटर से प्रत्यक्ष रूप से सम्प्रेषण करता है क्योंकि कम्प्यूटर अनुदेशन के सभी प्रचलित रूपों के लिए मानवीय प्रयत्नों की आवश्यकता इतने बड़े परिमाण में होती है कि यह प्रणाली तैयार की जा सके और विशिष्ट अनुदेशन सम्बन्धी सामग्री को कम्प्यूटर में एकत्रित किया जा सके।”

स्टोलरो 1969 ने कम्प्यूटर तथा निर्देश के पाँच तरीके बताये हैं-

1. ट्यूटोरियल

2. ड्रिल और अभ्यास

3. पूछताछ

4. क्रीड़न

5. समस्या समाधान

इन पाँचों ही तरीकों में छात्र कम्प्यूटर के सम्मुख बैठता है तथा प्रोग्रामर द्वारा कम्प्यूटर को फीड किया जाता है। यह फीड की हुई सामग्री छात्र के सम्मुख आती है तथा छात्र अपनी प्रतिक्रिया करता है। उदाहरणार्थ कुछ तरीकों को नीचे समझाया गया है-

1. टयूटोरियल- कम्प्यूटर में फीड किये गये आंकड़ों के सह-सम्बन्ध के प्रकार छात्रों को बताते हैं-

HeightWeight
John 5469
Tom 6391
Marry 5874
Sue 6080

2. ड्रिल और अभ्यास- अभ्यासों द्वारा कम्प्यूटर को अभिक्रमित किया जाता है। गणित, अंग्रेजी तथा अन्य क्षेत्रों में अभ्यास कराया जाता है।

3. पूछताछ- कम्प्यूटर को एक समस्या छात्रों के सम्मुख उपस्थित करने के लिए अभिक्रमित किया जाता है । छात्र उसका उत्तर देने के लिए सूचनायें तथा साधनों का प्रयोग करते हैं।

स्वरूप- कम्प्यूटर शिक्षण प्रक्रिया को दो भागों में विभाजित किया जाता है-

(अ) व्यक्तिगत शिक्षण या ट्यूटोरियल शिक्षण- इसके द्वारा छात्रों को शिक्षण उद्देश्यों की उपलब्धि करायी जाती है।

(ब) पूर्व नियोजित सूचनाओं द्वारा शिक्षण- पाठ्य-वस्तु को छोटे-छोटे भागों में विभाजित किया जाता है। प्रत्येक पद में प्रश्न तथा सूचनायें होती हैं जो बारी-बारी से छात्र के सम्मुख प्रस्तुत की जाती हैं।

इस प्रकार कम्प्यूटर की सहायता से ज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक पक्षों सम्बन्धी ज्ञान प्रदान किया जाता है।

9. ब्रेन स्टोरमिंग या मस्तिष्क हलचल

भूमिका- बेन स्टोरमिंग का अर्थ शिक्षण में उन साधनों व सामग्री के प्रयोग से होता है जो छात्रों के मस्तिष्क में ज्ञान प्राप्ति हेतु हलचल मचा देते हैं। जैसे-वाद-विवाद, तर्क-वितर्क, विचार-विमर्श आदि शिक्षण साधनों का प्रयोग किया जाता है । इस प्रकार यह व्यूह रचना शिक्षक व छात्रों के बीच अन्तःक्रिया पर विशेष बल देती है।

स्वरूप – यह एक समस्या केन्द्रित विधि है जिसको लेकर समस्त छात्र स्वतन्त्र रूपसे तर्क-वितर्क प्रदान करते हैं । अतः वाद-विवाद द्वारा समस्या की सार्थकता की जाँच की जाती है । इस प्रकार छात्रों का मस्तिष्क विभिन्न विचारों एवं तर्कों से भर जाता है, जो ज्ञान प्राप्ति में सहायक होता है।

ब्रेन स्टोरमिंग पूर्णरूप से प्रजातान्त्रिक व्यूह रचना है। यह व्यूह रचना इस धारणा पर आधारित है कि एक व्यक्ति की अपेक्षा उनका समूह अधिक विचार दे सकता है। इस व्यूह रचना का प्रारूप समस्या केन्द्रित होता है।

इसमें छात्रों को एक समस्या दे दी जाती है और कहा जाता है कि वे वाद-विवाद करें और जो भी विचार उनके मस्तिष्क में आयें,उनको प्रस्तुत करें। इस प्रकार तर्क-वितर्क, वाद-विवाद, विचार-विमर्श द्वज्ञरा उनके मस्तिष्क में एक हलचल-सी मच जाती है। इसमें छात्र अपने विचारों की निर्भीकता एवं स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करते हैं। यह व्यूह रचना शिक्षक व छात्र के मध्य अन्तःप्रक्रिया पर विशेष बल देती है । इस प्रकार विचार व सुझावों का विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन किया जाता है । इस प्रकार प्राप्त ज्ञान स्थायी बनता है ।

गुण-

1 छात्रों में मौलिक चिन्तन, तर्क-वितर्क व विचार-विमर्श की क्षमताओं का विकास होता है।

2. ज्ञानात्मक व भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों का विकास होता है।

3. समस्या को सार्थकता व उनके समाधान करने की क्षमता का विकास होता है।

4. समूह में व्यवहार करना, एक-दूसरे की भावनाओं का आदर करना आदि गुणों का विकास होता है।

5. स्थायी ज्ञान प्राप्त होता है।

6. उच्च कक्षाओं के लिए विशेष उपयोगी है।

7. शिक्षण तथा सीखने की प्रक्रिया में महत्त्वपूर्ण योगदान है।

8. वैज्ञानिक प्रयोगों को हल करने में सहायता मिलती है।

9. प्रशासनिक तथा प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं के समाधान के लिए प्रयोग किया जाता है।

दोष-

1. सभी छात्र तर्क-वितर्क व वाद-विवाद में सहयोग नहीं दे पाते हैं।

2. टेलर, बैरी तथा ब्लेक 1958 के मतानुसार ब्रेन स्टोरमिंग द्वारा में बाधा उत्पन्न होती है।

3. औसत से नीचे स्तर के छात्र इसमें अधिक लाभ नहीं उठा पाते हैं।

4. भावात्मक पक्ष के उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो पाती।

5. समस्त विषयों का ज्ञान प्रदान नहीं किया जा सकता है।

6. यह खर्चीली शिक्षण पद्धति है।

10. स्वतन्त्र अध्ययन

स्वतन्त्र अध्ययन को ‘योजना कार्य’ भी कहा जाता है इसके अन्तर्गत छात्र स्वयं छोटे-छोटे समूह में दिये गये कार्य को करते हैं। शिक्षक की कक्षा में उपस्थिति होने की कोई विशेष आवश्यकता नहीं होती। छात्र नियमित रूप से अपने प्रोग्राम बनाते हैं तथा स्वयं अध्यापक की सहायता से उनकी रूप-रेखा तैयार करते हैं। अतः यह विधि पूर्णतः छात्र केन्द्रित होती है । मेगर महोदय ने इस विधि का औद्योगिक प्रशिक्षण में अधिक प्रयोग करने का सुझाव दिया है।

बासकिन (1961) ने इसे प्रोजेक्ट कार्य की संज्ञा दी है। उनके अनुसार, “स्वतन्त्र कार्य अथवा अध्ययन में छात्र स्वय अध्ययन करते है अथवा छोटे-छोटे समूह में कार्य करते है । परन्तु इस प्रकार के अध्ययन में शिक्षक उपस्थित रहने की आवश्यकता नहीं रहती है। इसमें कक्षा शिक्षण की भाँति नियमित कार्यक्रम का भी अनुसरण नहीं किया जाता है।”

छात्र अपने अध्ययन के कार्यक्रम की रूपरेखा स्वयं बनाते हैं तथा स्वयं ही उसका संचालन करते हैं । उनको अध्ययन सम्बन्धी स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है । शिक्षक एक सलाहकार एवं निर्देशन के रूप में होता है। छात्र स्वयं अथवा एक समूह में कार्य कर सकते हैं। यह विधि छात्र केन्द्रित होती है।

गुण-

1. इस विधि द्वारा छात्रों में स्वतन्त्र अध्ययन करने की प्रवृत्ति, व्यक्तिगत निर्देशन प्राप्त होना, उत्तरदायित्व, आत्म-विश्वास आदि गुणों का विकास होता है ।

2. इसका सम्बन्ध शिक्षण के तीनों पक्षों से है। प्रशिक्षण में इसका अधिक प्रयोग किया जा सकता है।

3. स्वतन्त्र अध्ययन करने की प्रवृत्ति के विकास का आत्म-विश्वास व उत्तरदायित्व की भावना का विकास होता है।

4. प्रशिक्षण संस्थाओं में इसका प्रयोग किया जा सकता है।

5. ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

दोष-

1. नियमित शिक्षण कार्यक्रम न होने से छात्रों से क्रमबद्ध ज्ञान प्रदान नहीं किया जा सकता है।

2. सभी छात्र इस योग्य नहीं होते कि वे स्वयं अध्ययन की रूपरेखा व संचालन कर सकें।

3. अनुशासनहीनता का भय बना रहता है।

11. पात्र-अभिनय या अनुकरणीय शिक्षण

भूमिका- यह अभिनयात्मक विधि है जिसका सम्बन्ध ज्ञानात्मक तथा सामाजिक कौशल विकसित करने से है। इससे छात्रों की रुचि, अभिरुचि तथा अभिवृत्ति में परिवर्तन लाया जा सकता है । इसमें अनुकरणीय शिक्षण को महत्त्व दिया जाता है । इस पात्र अभिनय या नाटकीय विधि में कक्षा को छोटे-छोटे समूहों में बाँट दिया जाता है और उनसे दूसरों के अनुभवों का अनुकरण कराया जाता है। इसमें क्रमश: छात्रों को शिक्षक और छात्र दोनों ही प्रकार के रोल खेलने पड़ते हैं। इसके माध्यम से एक छात्र शिक्षक बन जाता है और शेष उस समूह के छात्र उस शिक्षक के वास्तविक छात्रों का अभिनय करते हैं और अपनी भावनाओं तथा अनुभवों को स्वाभाविक रूप से व्यक्त करते हैं। इसमें छात्रों को अभिनय के लिए कोई अभ्यास नहीं कराया जाता है और उन्हें बिना किसी अभ्यास के कोई भूमिका दे दी जाती है जिसका निर्वाह छात्रों को करना होता है । विभिन्न कक्षा के पात्रों के माध्यम से, विद्यार्थीगण अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति स्वाभाविक रूप में करते हैं। सामाजिक कौशल का प्रशिक्षण इस शिक्षण युद्ध रचना के द्वारा सरल हो जाता है। यह विधि पाठ योजना से अधिक उत्तम एवं उपयोगी है क्योंकि इस विधि में छात्र स्वयं क्रिया करता है । इस विधि का अन्तिम उद्देश्य छात्रों में अन्तर्निहित शिक्षक के गुणों का विकास करना और वे कक्षा में, शिक्षक की अनुपस्थिति में, शिक्षक का अभिनय कर पात्र कर पात्र के रूप में अपनी प्रतिभाओं को विकसित कर सकें । प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. आत्माराम शर्मा ने ठीक ही लिखा है, “Role Playing Strategy is used to achieve the psychomoter objectives.” पात्र अभिनय शिक्षण नीति के द्वारा जहाँ छात्रों का मनोरंजन होता है, वहाँ वे अपने संवेगों की अभिव्यक्ति भी करते हैं । कक्षा शिक्षण में, वे पात्र अभिनय द्वारा अपने सामान्य व्यवहार को परिमार्जित करते हैं ।

कौशल का विकास किया जाता है। पाठ-प्रदर्शन की अपेक्षा अभिनय शिक्षण को अधिक महत्त्व दिया जाने लगा है क्योंकि यह पाठ-प्रदर्शन की अपेक्षा अधिक प्रभावशाली होती है |

स्वरूप- यह एक नाटकीय विधि मानी जाती है। छात्राध्यापक को इसके अभ्यास में शिक्षक और छात्रों दोनों की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। छात्राध्यापक को एक छोटे प्रकरण को अपने साथियों को ही पढ़ाना पड़ता है। अन्य सभी छात्रों की भूमिका निबाहते हैं । शिक्षण के कार्यों की समीक्षा की जाती है और सुधार के लिए सुझाव दिया जाता है । इसके बाद अन्य छात्राध्यापक शिक्षण करते हैं।

पात्र अभिनय के सोपान-निम्नलिखित सोपानों के माध्यम से ‘पात्र अभिनय’ किया जाता है-

(a) कार्य की रूप-रेखा बनाना

(b) पात्रों की भूमिका निश्चित करना

(c) पाठ अथवा प्रकरण का चुनाव करना

(d) शिक्षक के व्यवहार की निरीक्षण प्रविधि का निर्धारण करना

(e) पात्र अभिनय का अभ्यास करना

(f) पात्र अभिनय की समीक्षा करना

(g) सुधार हेतु सुझावों का विवेचन करना

इसमें सात सोपानों का अनुसरण किया जाता है-

(a) कार्यक्रम की रूपरेखा बनाना- सोपान के अन्तर्गत सम्पूर्ण क्रिया-कलापों की एक निश्चित रूप-रेखा तैयार की जाती है कि किस को क्या क्रियाएं कब और कैसे करनी हैं?

(b) पात्रों की भूमिका निश्चित करना– इसके अन्तर्गत यह निश्चित किया जाता है कि किन-किन पात्रों को कब-कब अपनी भूमिका निभानी है, ताकि प्रत्येक पात्र स्पष्ट रूप से अपना कार्य सम्पन्न कर सके।

(c) पाठ अथवा प्रकरण का चुनाव- तीसरे सोपान के अन्तर्गत पाठ का चुनाव किया जाता है कि किस पाठ के द्वारा अनुकरण करना है।

(d) शिक्षक के व्यवहार की निरीक्षण प्रविधि का निर्धारण- चतुर्थ सोपान में शिक्षक व्यवहार सम्बन्धी निरीक्षण विधि का निर्धारण किया जाता है । इसके द्वारा जो पात्र शिक्षक का कार्य करेगा उसके व्यवहार का किस विधि द्वारा निरीक्षण किया जाये । इसको भी निश्चित करना अति आवश्यक है।

(e) पात्र अभिनय का अभ्यास- प्रत्येक पात्र अपने-अपने अभिनय का अभ्यास करते हैं। इसमें अपनी अभिव्यक्ति को वास्तविक रूप प्रदान करने का अवसर प्राप्त होता है।

(f) पात्र अभिनय की समीक्षा करना- इस सोपान में पात्रों के. अभिनय सम्बन्धी सभी व्यवहारों एवं क्रियाओं की समीक्षा की जाती है। यह कार्य शिक्षक द्वारा किया जाता है।

(g) सुधार हेतु सुझावों का विवेचन करना- अन्तिम सोपान में भविष्य के लिए सुधार हेतु सुझावों पर परस्पर सभी के द्वारा विवेचन किया जाता है तथा सार्थक सुझावों को प्रदान किया जाता है।

पात्र अभिनय के सिद्धान्त-

सिद्धान्त- यह व्यूह रचना निम्नलिखित सिद्धान्तों पर आधारित है-

1. सामाजिक कौशल का विकास मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के उपयोग से किया जाता है |

2. वास्तविक कक्षा शिक्षण से पूर्व उन्हें अभ्यास का अवसर दिया जाता है।

3. स्वयं कार्य करने से अधिक सीखता है।

4. पृष्ठ-पोषण प्रविधि का प्रयोग किया जाता है।

गुण-

1. इसमें छात्राध्यापक के जीवन से सम्बन्धित कौशल का विकास अनुभव द्वारा किया जाता है।

2. अपनी क्रियाओं का विश्लेषण, संश्लेषण तथा मूल्यांकन छात्राध्यापक भली प्रकार समझ सकता है।

3. सामाजिक कौशल का विकास किया जाता है।

4. अपेक्षित उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

5. शिक्षक-व्यवहार के स्वरूप का विकास अपेक्षित ढंग से किया जा सकता है।

6. छात्रों को अपने मन की भावनाओं और संवेगों को व्यक्त करने का मौका मिलता है |

7. छोटी कक्षाओं में भी उपयोगी है।

8. छात्रों की अभिवृत्तियों में परिवर्तन एवं विकास होता है।

9. इसके प्रयोग के समय छात्रों को आनन्दं आता है (उनका मनोरंजन भी होता है) |

10. छात्राध्यापक के जीवन से सम्बन्धित कौशल का विकास अनुभवों द्वारा किया जाता है।

11. इसके द्वारा निम्न तथा मध्यम स्तर का ज्ञान, बोध तथा प्रयोग करने की क्षमता प्रभावित होती है।

12. यह मानवीय सम्बन्धों से सम्बन्धित विधि है।

13. इससे संवेगों की रचना, शारीरिक अभिव्यक्ति तथा विश्लेषणात्मक विकास में सहायता मिलती है।

14. यह इतिहास, साहित्य, नागरिक शास्त्र तथा विज्ञान आदि विषयों में बहुत महत्त्वपूर्ण शिक्षण नीतियों मंय से है।

15. इसके द्वारा वांछित उद्देश्य (ज्ञानात्मक तथा सामाजिक) प्राप्त किये जाते हैं।

16. शिक्षक-व्यवहार की समीक्षा तथा उसमें सुधार करना सम्भव है।

17. यह अनुभव की नकल होती है जिसे वास्तविक बनाया जाता है।

सीमाएं-

1. यह औपचारिक विधि है।

2. यह विशिष्ट शिक्षण कौशलों का विकास करने में असमर्थ रहती है।

3. छात्र कृत्रिम वातावरण में कार्य करते हैं, जिसे वास्तविक रूप देना सम्भव नहीं

4. शिक्षण संस्थाओं में छोटे बच्चों के साथ अधिक उपयोगी है।

दोष-

इस आव्यूह के निम्नलिखित दोष हैं-

1. सामान्य शिक्षक-व्यवहार के विकास के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है। विशिष्ट शिक्षण-कौशल का विकास इसके द्वारा नहीं किया जा सकता है।

सुझाव-

इसके प्रयोग में निम्नलिखित सावधानियाँ रखनी चाहिए-

1. इसका प्रयोग करने से पूर्व इसके बारे में पूर्व रूप-रेखा बनाना।

2. इस विधि के अन्तरंग सिद्धान्तों तथा विधि को भली-भाँति समझ लेना चाहिए।

3. छात्राध्यापक के भूमिका निर्वाह के समय प्रवक्ता की उपस्थिति भी होनी चाहिए।

4. इस विधि के अन्तरंग सिद्धान्तों तथा विधि को भली-भाँति समझ लेना चाहिए।

5. शिक्षा के साथ पुर्नावत्तन देना चाहिए।

6. वास्तविक शिक्षण कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व इसके अभ्यास के लिए अवसर देने चाहिए।

7. अभ्यास करना चाहिए।

8. पात्र अभिनय के अन्त में छात्रों और शिक्षक, दोनों को मिलकर कार्य की समीक्षा करनी चाहिए और सभी पक्षों पर विस्तृत वार्तालाप किया जाना चाहिए।

9. पात्र अभिनय के समय शिक्षक को पूरे समय कक्षा में रहना चाहिए।

12. नेता विहीन समूह-

इस शिक्षण में व्यूह रचना बनाने का उद्देश्य छात्रों को अपनी समस्या को स्वतन्त्र रूप में हल करने से है। छात्र को पर्याप्त अवसर प्रदान किये जाते हैं तथा शिक्षक उनके कार्य को प्रोत्साहित करता है। शिक्षक का कार्य छात्रों में परस्पर विचार-विमर्श, आलोचना, वाद-विवाद कराना आदि कार्यों को बढ़ावा देना है तथा स्वयं एक सहायक के रूप में कार्य करना है । अतः यह विधि स्वयं सीखने के लिए अधिक उपयोगी मानी जाती है।

गुण-

1. इसमें छात्रों का स्थान प्रमुख होता है। शिक्षक का कार्य योजना बनाना तथा उचित निर्देश देना होता है।

2. परस्पर विचार-विमर्श से छात्र तर्कपूर्ण ढंग से ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।

3. छात्रों को बौद्धिक तथा सामाजिक कौशल के विकास हेतु पर्याप्त अवसर प्राप्त हो जाते हैं।

4. छात्र चिन्तामुक्त रहते हैं।

5. छात्र विचार व्यक्त करने में स्वतन्त्र रहते हैं।

6. छात्र अधिक स्वतन्त्र होने के कारण समस्या समाधान के लिए अपने भावात्मक विचारों को पूर्ण रूप से व्यक्त कर सकते हैं।

7. मध्यम श्रेणी के ज्ञानात्मक तथा भावात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति सम्भव है।

दोष-

1. शिक्षक की अनुपस्थिति में महत्त्वपूर्ण वाद-विवाद सम्भव नहीं है क्योंकि छात्र व्यर्थ के वाद-विवाद व कमियों का पता नहीं लगा सकते हैं।

2. छात्रों को अधिक स्वतन्त्रता देने से यह भय रहता है कि कहीं वे स्वतन्त्रता का दुरुपयोग न करें।

13. संवेदनशील प्रशिक्षण

भूमिका- इसको प्रशिक्षण समूह के नाम से भी पुकारा जाता है । संवेदनशील प्रशिक्षण में छोटे-छोटे कई समूह होते हैं, जो पारस्परिक विचार-विमर्श के आधार पर अपनी समस्याओं को हल करते हैं। ये छात्र समूह सप्ताह व मास में कम से कम एक बार मिलकर कार्य करते हैं। अध्यापक केवल उनके कार्य की प्रगति की जानकारी रखता है।

संवेदनशील प्रशिक्षण का आधार संवेदनाओं की जागृति है । इससे उनमें अहं जागृत होता है और वे पूरी शक्ति से उस कार्य में लग जाते हैं। इस विधि का प्रयोग छोटे समूह के प्रशिक्षण के लिए किया जाता है । मार्टिन ने इसके तीन मुख्य उद्देश्य बताये हैं-

1. व्यक्ति के निजी व्यवहार के प्रति दूसरे व्यक्ति के द्वारा की गई प्रतिक्रिया को समझने की योग्यता का विकास करना है।

2. दूसरे के मध्य सम्बन्धों की दशा को मापने की योग्यता का विकास करना ।

3. स्थिति द्वारा आवश्यक व्यवहार को कुशलतापूर्वक पूरा करने की योग्यता को बढ़ाना।

संवेदनशील प्रशिक्षण, जिसे टी ग्रुप प्रशिक्षण या प्रयोगशाला प्रशिक्षण या समूह गतिशीलता कहा जाता है, एक ऐसी तकनीक है जो सामूहिक रूप से भाग लेने के कार्य को इस ढंग से प्रयुक्त करती है कि भाग लेने वाले व्यक्तियों को इस तरह से जागरूक होने में सहायता करती है कि वे दूसरे को कैसे प्रभावित करते हैं और दूसरे उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं।

गुण-

1. इस विधि द्वारा छात्रों का सामाजिक विकास होता है। इसके द्वारा व्यक्तिगत समूह की क्रियाओं तथा समस्याओं का अध्ययन किया जा सकता है।

2. छात्रों में आपसी सम्बन्ध तथा मेलजोल की भावना का विकास होता है।

3. स्वयं एक-दूसरे को समझने का अवसर मिलता है।

4. स्पष्टता चित्त में भावना की उत्पत्ति मतान्तर की सहनशीलता का विकास होता है |

5. छात्र दूसरों के व्यवहार तथा भावनाओं के प्रति संवेदनशील बनते हैं।

6. यह व्यूह रचना ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तर के उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक है |

दोष-

1. यदि समूह का प्रशिक्षण अथवा निरीक्षण संवेदनशील एवं उचित प्रकार से प्रशिक्षित व्यक्तियों द्वारा नहीं किया जाता तो हानि होने की सम्भावना रहती है।

शिक्षण व्यूह रचनाओं पर शिक्षक का अधिकार

शिक्षण प्रक्रिया के निम्नलिखित तीन महत्त्वपूर्ण बिन्दु होते हैं-

(1) शिक्षक, (2) छात्र, (3) पाठ्यक्रम।

शिक्षण इनके मध्य होने वाली प्रक्रिया का नाम है। शिक्षण एक सामाजिक तथा सुनियोजित प्रक्रिया है। शिक्षण का मुख्य उद्देश्य छात्रों के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन लाना है। पाठ्य-वस्तु को ध्यान में रखकर शिक्षक लक्ष्य प्राप्ति के लिए पाठ्य-वस्तु के आधार पर सीखने व अनुभवों को योजनाबद्ध रीति से प्रस्तुत करता है । इसके लिए वह पाठ का नियोजन करता है। पाठ नियोजन में उसे छात्र की आयु, मानसिक क्षमता, रुचि, योग्यता आदि को ध्यान में रखना पड़ता है। इस सबका पता वह उनके पूर्व व्यवहार का पता लगाकर करता है । शिक्षण करने के लिए शिक्षक को कक्षा में पूरी तैयारी के साथ जाना पड़ता है। वास्तव में देखा जाये तो शिक्षण की सफलता उसके पूर्व नियोजन पर निर्भर करती है। पाठ्य वस्तु के प्रस्तुत करने के लिए उसे कुछ प्रमुख विधियों, प्रविधियों, सहायक सामग्री आदि का प्रयोग करना पड़ता है । सेना की भाँति शिक्षक को भी एक नीति अथवा व्यूह रचना के निर्माण की आवश्यकता होती है। शिक्षक छात्र के व्यवहार में अपेक्षित परिवर्तन एक शिक्षण व्यूह रचना का प्रयोग करके ही ला सकता है । जिससे शिक्षण उद्देश्य की प्राप्ति सम्भव है । इसलिए यह आवश्यक है कि शिक्षक को शिक्षण व्यूह रचनाओं पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए ।

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