शिक्षण के अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान का वर्णन कीजिए।

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प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक डेविड आसुवेल ने इस प्रतिमान का विकास किया । यह प्रतिमान शाब्दिक सीखने या अधिगम सिद्धांत से लिया गया है । यह बूनर की शिक्षा प्रक्रिया के अनुरूप है। इसका मत है कि प्रत्येक विषय विभिन्न प्रत्ययों की संरचना है एवं इन प्रत्ययों की पहचान कर छात्रों को आत्मसात् कराया जा सकता है। यह विशिष्ट पक्ष की व्याख्या करने तथा उसकी समस्याओं को सुलझाने में सहायक है।

आसुबेल ने दो प्रमुख सिद्धांतों पर बल दिया है –

(1) प्रथम सिद्धांत प्रगतिशील विभेदीकरण का है, जिसमें सर्वप्रथम विषय संबंधी सामान्य विचार प्रस्तुत किये जाते हैं तथा उसके उपरांत धीरे – धीरे उनके विस्तार से विभेदीकरण द्वारा जानकारी दी जाती है। यह एक क्रमिक संरचना है, जिसमें विभिन्न प्रत्ययों का बोध संभव है।

(2) दूसरा सिद्धांत पूर्व ज्ञात पाठ्य – वस्तु के आधार पर नये विचारों को संगठित करना तथा समझना है। इस तरह पाठ्य – वस्तु को एक क्रमिक रूप में व्यवस्थित किया जाता है। ज्ञान धीरे – धीरे पूर्व ज्ञान के आधार पर आगे बढ़ता है। पाठ्य – वस्तु के प्रत्येक भाग से पूर्व एक संगठित प्रत्यय उपस्थित रहता है, जो गतिशील संगठनकर्ता का कार्य करता है।

इस प्रतिमान के अंतर्गत हम बालक के सम्मुख ज्ञान को संगठित कर इस तरह विकसित करते हैं कि मस्तिष्क में पूर्व से धारण किये ज्ञान के साथ – अंतःक्रिया कर नये ज्ञान को अर्थपूर्ण तरीके से सीख सकें। अर्थपूर्ण ज्ञान का तात्पर्य है कि इस सीखे गये ज्ञान का उपयोग अन्य परिस्थितियों में भी कर सकें अर्थात् दैनिक जीवन में उसके सम्मुख आने वाली अनेक समस्याओं का निराकरण सहज तथा स्वाभाविक ढंग से पूर्व अनुभवों के आधार पर किया जा सके।

आसूबेल के अनुसार, “अग्रिम संगठन शिक्षण प्रतिमान की संरचना का प्रमुख उद्देश्य है, छात्रों की संज्ञानात्मक संरचनाओं को प्रभावी बनाना, जहाँ संज्ञानात्मक संरचना का तात्पर्य है किसी समय विशेष पर किसी विषय में किसी व्यक्ति का ज्ञान कितना स्पष्ट, सुव्यवस्थित एवं स्थायी है।”

इस सिद्धांत के अनुसार अध्यापक किसी भी विषय – वस्तु को सीखने हेतु प्रत्यय विशेष से संबंधित विषय – वस्तु को व्यवस्थित रूप से इस तरह प्रस्तुत करता है कि विषय – वस्तु छात्र के लिए सहज ही बोधगम्य हो जाती है।

अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान की विशेषताएं :

इस प्रतिमान की सीखने में प्रमुख विशेषताएं निम्न हैं –

(1) विषय – वस्तु को सीखने की दृष्टि से महत्वपूर्ण बनाना ।

(2) सीखने हेतु यह प्रतिमान आगमन सिद्धांत पर बल देता है और निर्गमन सिद्धांत के विरुद्ध है, क्योंकि आगमन सिद्धांत के अंतर्गत छात्र विभिन्न सूचनाओं में वर्गीकरण एवं संबंध स्थापित कर स्वयं निष्कर्ष निकालता है।

(3) छात्रों को स्पष्ट तथा अर्थपूर्ण सूचनाएं देकर सीखने की नवीन धारणाओं का विकास करता है।

(4) छात्रों में सीखने की ज्ञानात्मक संरचनाओं को इस प्रकार विकसित किया जाता है कि वे अपना भावी जीवन सफलतापूर्वक बिता सकें ।

(5) इसमें सिखाने वाला सूचनाओं का मूल स्रोत होता है ।

(6) यह प्रतिमान एक्स पोजिटरी – डिडक्टिव शिक्षण प्रारूप है।

अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान की व्याख्या :

अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान की व्याख्या निम्न तरह स्पष्ट की जा सकती है –

1. उद्देश्य – इस प्रतिमान का मख्य उद्देश्य विद्यार्थियों में संज्ञानात्मक सरचनामा का प्रभावी विकास है। संज्ञानात्मक संरचना से आशय किसी विशिष्ट समय पर व्यक्ति विर विषय – वस्तु का संगठित तथा स्थायी ज्ञान कराना है।

2. संरचना – संरचना के अंतर्गत निम्नलिखित क्रियाएं संपादित का जाती है –

(अ) विषय – सामग्री का संगठन,

(ब) अधिगम सामग्री का प्रस्तुतीकरण,

(स) संज्ञानात्मक सन सुदृढ़ बनाना।

(अ) विषय – सामग्री का संगठन – छात्रों की विशेषताओं के अनुरूप शिक्षक शिक्षण इकाई के उद्देश्यों का निर्धारण करता है एवं समस्त शिक्षण – वस्तु को पढ़ाये जाने वाले क्रम में सगाठत करता है, जिससे अग्रिम संगठन का निर्माण होता है।

पहले विषय – वस्तु के प्रमुख शिक्षण बिन्दु पेश किये जाते हैं एवं क्रम से विश्लेषित विचारों को विस्तृत रूप में प्रस्तुत किया जाता है, जिससे छात्र जटिल शिक्षण – वस्तु को समझ सकें।

इस स्तर पर विषय – वस्तु संबंधी तथ्यों, आंकड़ों तथा प्रत्ययों को इस तरह प्रस्तुत करते हैं कि छात्र उनमें संबंध स्थापित कर उच्च स्तरीय अमूर्त ज्ञान को समझ सकें।

(ब) अधिगम सामग्री का प्रस्तुतीकरण – इस स्तर पर छात्रों के सम्मुख शिक्षण इकाई के निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने हेतु अधिगम सामग्री या अधिगम अनुभवों को तार्किक क्रम में प्रस्तुत किया जाता है। अधिगम अनुभवों का चयन छात्रों के पूर्व – ज्ञान, विषय – वस्तु को जाटलता, छात्रों की रुचि तथा निर्धारित व्यवहारपरक उद्देश्यों के आधार पर करते हैं, जिससे छात्र ज्ञान को आत्मसात कर अमूर्तिकरण कर सके । सामान्य ज्ञान से छात्रों को विशिष्ट ज्ञान की तरफ निर्देशित किया जाता है।

(स) संज्ञानात्मक संगठन को सुदृढ़ बनाना – इस स्तर पर शिक्षक नवीन ज्ञान को सुदृढ़ करने के लिए विभिन्न तरह के चार्ट,रेखांकित पुनरावृत्ति प्रश्न, अनुप्रयोगात्मक प्रश्न तथा सारांश आदि पूछता है, जिससे नवीन ज्ञान छात्रों को स्पष्ट रूप से समझ में आ सकें।

3. सामाजिक प्रणाली – आसुबेल की यह धारणा है कि अमूर्त विचारों को प्रभावशाली ढंग से पेश किया जा सकता है, जिससे छात्र पाठ्य – वस्तु का विश्लेषण कर लेता है। उससे संबंध स्थापित करते हुए नवीन ज्ञान का बोध कराया जा सकता है। इसमें शिक्षक का स्थान प्रधान होता है तथा शिक्षक को अधिक क्रियाशील रहना पड़ता है। प्रभुत्ववादी सामाजिक वातावरण पैदा किया जाता है । सीखने की परिस्थितियों के अनुसार शिक्षक क्रियाएं बदल देता है। छात्रों और शिक्षक के मध्य अंतःप्रक्रिया होती है। छात्रों को अवसर दिया जाता है कि वे पाठ्य – वस्तु के साथ संबंध स्थापित कर सकें । यहाँ शिक्षक छात्रों को अभिप्रेरणा भी देता है।

4. मल्यांकन प्रणाली – इसमें मूल्यांकन अनुदेशन के आधार पर किया जाता है।

5. प्रयोग – इस प्रतिमान का प्रयोग अमूर्त पाठ्य – वस्तु के शिक्षण में भी किया जाता है। पाठ्य – वस्तु के क्रमबद्ध ज्ञान हेतु यह अधिक उपयोगी प्रतिमान है । प्रत्ययों में संबंध स्थापित करने के लिए आसुबेल का प्रतिमान अधिक प्रयुक्त होता है । ज्ञानात्मक पक्ष के उच्च स्तर के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इसका प्रयोग किया जाता है।

आसुबेल के ‘अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान’ को व्याख्यानात्मक शिक्षण प्रतिमान भी कहते हैं और इसमें अग्रिम व्यवस्थापक का कार्य महत्वपूर्ण होता है। शिक्षण को व्यवस्थित करने एवं प्रभावशाली बनाने के लिए यह प्रतिमान बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसकी पाठ योजना को विभिन्न अवस्थाओं में बाँटा गया है –

अवस्थाएँक्रियाएँ
प्रथम  –अग्रिम व्यवस्थापक का प्रस्तुतीकरण(1) पाठ के उद्देश्यों का स्पष्टीकरण ।(2) व्यवस्थापक का प्रस्तुतीकरण ।(क) सहज गुणों को पहचान एवं परिभाषित करके।(ख) उदाहरण देकर ।(ग) संदर्भ देकर ।(घ) प्रयुक्त नियमों की उपधारा को दोहराकर ।(ङ) प्रासंगिक ज्ञान की त्वरित जागृति एवं छात्र की पृष्ठभूमि के आधार पर अनुभवों को देखकर।
द्वितीय –अधिगम कार्य का प्रस्तुतीकरण(1) अधिगम सामग्री को छात्रों के सम्मुख क्रमिक रूप में प्रस्तुत करके।(2) उत्प्रेरित बनाये रखकर।(3) व्यवस्था को स्पष्ट करके ।
तृतीयज्ञानात्मक व्यवस्था का सुदृढ़ीकरण(1) एकीकरण समाधान के सिद्धांत का प्रयोग करके।(2) सक्रिय ग्राह्यता को बढ़ाकर।(3) विषय – वस्तु के आलोचनात्मक उपागम को निकलवाकर ।(4) स्पष्टीकरण देकर।

अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान की उपयोगिता :

अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान की निम्न उपयोगिताएं हैं

(1) ज्ञानात्मक तथ्य युक्त विषय – वस्तु के शिक्षण में उपयोगी है ।

(2) छात्रों में विभिन्न सूचनाओं, तथ्यों,आंकड़ों,प्रत्ययों के वर्गीकरणं,संबद्धीकरण एवं अर्थपूर्ण प्रक्रियाकरण में सहायक है ।

(3) छात्रों की अर्थ ग्रहण क्षमता को बढ़ाता है ।

(4) शिक्षक के शिक्षण अधिगम अनुभवों की संरचना प्रक्रिया को प्रभावी बनाता है। (5) पाठ्यक्रम संरचना में उपयोगी है ।

(6) प्रभावी शिक्षण – प्रक्रिया में अमूर्त विचारों को मूर्त रूप प्रदान करने तथा प्रभावी शिक्षण साधनों के चयन में सहायक है।

(7) पुस्तक लेखन में विषय – वस्तु के विश्लेषण एवं विषय – सामग्री के चयन और अनुभवों के संश्लेषण में सहायक है।

आसुबेल के सिद्धांत का पाठ्यक्रम की दृष्टि से महत्व :

आसुबेल के विषय – वस्तु एवं ज्ञानात्मक ढाँचे के प्रति दिये गये विचार महत्वपूर्ण हैं तथा उनका पाठ्यक्रम संगठन तथा निर्देशात्मक प्रक्रिया से सीधा संबंध हैं। उनके पाठ्यक्रम संगठन के संबंध में दो सिद्धांत हैं –

(1) विकासात्मक भेदीकरण

(2) एकीकृत समाधान ।

1. विकासात्मक विभेदीकरण – प्रथम सिद्धांत से आसुबेल का तात्पर्य है कि पाठ्यक्रम निर्माण करते समय इस बात का ध्यान रखा जाये कि सामान्य विचार.पहले प्रस्तुत हों एवं धीरे – धीरे उनका विस्तृत तथा विशिष्ट रूप विकसित हो।

2. एकीकृत समाधान – दूसरे सिद्धांत, ‘एकीकृत समाधान’ से उनका अभिप्राय है कि पाठ्यक्रम संगठन इस रूप में हो कि नये विचार पूर्व सीखने की विषय – वस्त से चेतन रूप में सीधे जुड़े हों।

आसुबेल का विचार है कि अगर समस्त सीखने की विषय – वस्तु ज्ञानात्मक हो जाये एवं इसका ‘विकासात्मक विभेदीकरण’ के रूप में प्रस्तुतीकरण हो, तब पाठ्यक्रम का आंतरिक मूल्य स्वभावतः सामने आ जायेगा। इसके लिए उनका कहना है कि अधिकांश पाठ्य – पुस्तका का संगठन इस प्रकार हो कि प्रत्येक प्रकरण या उप – प्रकरण के रूप में प्रस्तुत हो सभी प्रकरण प्रधानता प्राप्त तथा एक – दूसरे के विचारों से एकीकृत रूप में संगठित हों इस तरह ज्यादातर दृष्टांतों में विद्यार्थी नवीन तथा अनजाने विचारों को विस्तृत रूप में तब तक सीखेंगे, जब तक कि वे किसी सिद्धांत के संयोग के उपयुक्त स्तर को प्राप्त न कर लें।

आसबेल के अनुसार शिक्षक छात्रों के सम्मुख सीखी जाने वाली शिक्षण सामग्रा का अंतिम रूप में प्रस्तुत करता है। छात्रों को किसी भी प्रकार की खोज या आविष्कार के लिए नही कहा जा सकता है । यह व्याख्यान – शिक्षण के काफी निकट है।

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