शिक्षण सूत्रों से क्या अभिप्राय है ? शिक्षण में इसकी उपयोगिता व महत्व लिखिए।

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शिक्षक की योग्यता एवं ज्ञान को वितरण करना दोनों बातें अलग – अलग हैं। शिक्षक कितना ही योग्य, गुणी एवं विषय का ज्ञाता हो, शिक्षा – कार्य में असफल ही माना जायेगा अगर वह ज्ञान को बालकों तक पहुँचाने में असमर्थ है। शिक्षण एक कला है तथा इस कला में दक्षता प्राप्त करने हेतु शिक्षक को आवश्यकता है –

(1) विषय – सामग्री का पूर्ण ज्ञान एवं (2) ज्ञान को बालकों तक पहुँचाने की पाठन शैली का वैज्ञानिक ज्ञान की। मनोवैज्ञानिकों ने समय – समय पर अनेक प्रयोगों द्वारा हमें सीखने के नियमों एवं आवश्यक तत्वों का ज्ञान कराया है। इन नियमों एवं तत्वों को शिक्षण का आधार मानते हुए शिक्षा – शास्त्रियों ने अपने – अपने अनुभवों तथा निर्णयों को सूत्र रूप में प्रकट किया है। इन्हीं सूत्र रूप में प्रकट किये हुए अनुभवों तथा निर्णयों को शिक्षण– सूत्रों की संज्ञा दी जाती है। इन शिक्षण – सूत्रों का अनुसरण करके शिक्षक को शिक्षण कार्य में आश्चर्यजनक सफलता मिलती है। बालक ज्ञान को सरलतापूर्वक प्राप्त कर लेते हैं । जिन शिक्षा – शास्त्रियों ने इन सूत्रों के निर्माण में सहयोग प्रदान किया है। उनमें हरबर्ट स्पेन्सर एवं कमेनियस के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। सफल शिक्षण के लिए शिक्षण – सूत्रों का प्रयोग परम आवश्यक है।

नये अध्यापक एवं छात्र – अध्यापकों को शिक्षण – कार्य करते समय कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें प्रशिक्षण काल में ही इन शिक्षण – सूत्रों का ज्ञान दिया जाता है । इससे उन्हें यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शिक्षण कब आरंभ किया जाये, किस क्रम से किया जाये तथा कैसे किया जाये? इन शिक्षण – सूत्रों के द्वारा इस बात का स्पष्ट ज्ञान हो जाता है कि पाठ्य – वस्तु को कहाँ से आरंभ किया जाये तथा लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किस दिशा में अग्रसर हुआ जाये इसलिए इनका अनुसरण करने से शिक्षण – कार्य में कोई कठिनाई नहीं होगी।

प्रमुख शिक्षण – सूत्र निम्न हैं –

1. सरल से जटिल की ओर – बालकों में नवीन ज्ञान के प्रति रुचि पैदा करके आत्म – विश्वास विकसित करना सफल शिक्षण की कुंजी है । इस दृष्टि से अगर शिक्षण को सफल बनाना है तो सरल से जटिल की ओर नामक सूत्र का प्रयोग करना बहुत जरूरी है। इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि बालक को पहले सरल एवं बाद में जटिल बातों का ज्ञान दिया जाये। अगर ऐसा नहीं किया जायेगा तो वे आत्म – विश्वास खो बैठेंगे। इससे उनकी विषय के प्रति रुचि खत्म हो जायेगी। दूसरे शब्दों में वे हिम्मत खो बैठेंगे एवं उनका मन पढ़ने में नहीं लगेगा। हमें चाहिये कि हम पाठ्य – सामग्री को इस तरह से विभाजित करें कि पहले सरल बातें आयें एवं बाद में क्रमानुसार कठिन । क्या सरल है तथा क्या कठिन इसका निर्णय शिक्षक को बालक की रुचि, रुझान, योग्यता एवं शक्ति और आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुये करना चाहिये । जैसे – जैसे बालक का मानसिक विकास होता जाय वैसे – वैसे पाठ का विषय जटिल होता जाना चाहिये । इससे बालक की पाठ में रुचि बनी रहेगी तथा शिक्षक को भी शिक्षण – कार्य में सफलता मिलेगी।

2. ज्ञात से अज्ञात की ओर – ज्ञात से अज्ञात का अर्थ यह है कि हम नवीन ज्ञान का आधार बालक के पूर्व ज्ञान को बनायें। यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जब बालक के सामने एकदम नवीन ज्ञान को पेश किया जाता है तो इसके प्राप्त करने में उसे बड़ी कठिनाई होती है । लेकिन जब नवीन ज्ञान का संबंध बालक के पूर्व अर्जित किये हुये ज्ञान से कर दिया जाता है तो वह इसे हृदयगंम करने में रुचि लेने लगता है । शिक्षक का कर्त्तव्य है कि पूर्व ज्ञान को जगाये एवं उस जगाये हुए ज्ञान के आधार पर नवीन ज्ञान को पेश करे। जिन छोटी – छोटी एवं सरल बातों से बालक परिचित हो, उन्हीं को आधार मानकर उन्हें अपरिचित बातों का ज्ञान दिया जाना चाहिये।

3. प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष की ओर – इस सत्र का अर्थ यह है कि बालकों को पहल उन वस्तुओं का ज्ञान कराया जाय जो उनके सामने प्रत्यक्ष रूप से हैं। तत्पश्चात अप्रत्यक्ष या उनका जो उनके सामने मौजूद नहीं हैं। इसका एकमात्र कारण यह है कि मनोवैज्ञानिक दृष्टि से छः वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु का बालक प्रत्यक्ष ज्ञान के स्तर पर ही कार्य करता है । बालक का पहले वर्तमान का ज्ञान दिया जाय, तत्पश्चात भूत तथा भविष्य की बातों का । शिक्षक को चाहिये कि वह बालकों को अप्रत्यक्ष का ज्ञान देने हेतु प्रत्यक्ष वस्तुओं का ही प्रयोग करे एवं उन्हीं के उदाहरण दे । इससे बालकों को अप्रत्यक्ष बातो के संबंध में जरूरी ज्ञान सरलतापूर्वक हो जायेगा।

4. स्थूल से सूक्ष्म की ओर – यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बालक का मानसिक विकास पहले स्थूल वस्तुओं से शुरू होता है तथा फिर इसके बाद वह इनके लिये सूक्ष्म शब्दा को ग्रहण करता है। इसलिए बालक की शिक्षा को शुरू करते समय उसे पहले स्थूल पदाथा एव तथ्यों का ज्ञान कराना चाहिये। छोटी – छोटी कक्षा के बालकों को जब किसी सूक्ष्म वस्तु का ज्ञान कराना हो तो शिक्षक को बालकों के विचारों को निश्चित रूप देने के लिये या तो पहले उसी वस्तु को दिखाना चाहिये या उसके नमूनों, चित्रों एवं रेखाओं का प्रयोग करना चाहिये।

5. विशिष्ट से सामान्य की ओर – इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि बालकों के सामने पहले विशिष्ट उदाहरण रखे जायें एवं उन्हीं उदाहरणों द्वारा सामान्य नियम या सिद्धान्त निकलवाये जायें । इसलिए इस सूत्र के अनुसार पहले शिक्षक को बालकों के सामने कुछ विशिष्ट उदाहरण पेश करने चाहियें। इसके बाद उन्हें इन्हीं उदाहरणों की परीक्षा करके तथ्यों को समझकर सामान्य सिद्धान्त निकालने हेतु प्रेरित करना चाहिये । उदाहरण के लिये अगर शिक्षक बालकों को यह बताना चाहता है कि सिंधु घाटी की सभ्यता के समकालीन जो भी सभ्यतायें भारत में मौजूद थीं, उनमें साम्य पाया गया। इस तथ्य को स्पष्ट करने के लिये राजस्थान की कालीबंगा की खुदाई, उत्तर प्रदेश के हस्तिनापुर तथा सहारनपुर जिले के यमुना के कछार में पाये गये अवशेषों से सामान्यीकरण किया जायेगा।

6. पूर्ण से अंग की ओर – शिक्षक को बालकों के सामने नई शिक्षण सामग्री पहले पूर्ण एवं संगठित रूप में पेश करनी चाहिये एवं उसी के आधार पर बाद में उसके अंगों को समझाना चाहिये। इस सूत्र के अनुसार बालक को पूर्ण वस्तु से शुरू करके वस्त के हर भाग का ज्ञान कराया जाता है । इसलिए इतिहास पढ़ाते समय पहले सम्पूर्ण युग का ज्ञान कराया जाना चाहिये. तत्पश्चात् उसके अंशों का । इस संबंध में यह निश्चित कर लेना जरूरी है कि आखिर पर्ण क्या है ? ऐसा न हो कि कहीं इतिहास पढ़ाते समय शिक्षक संसार को ही पूर्ण समझ बैठे तथा पहले बालकों को संसार का ज्ञान देने लगे, तत्पश्चात विभिन्न देशों एवं उनके विभिन्न भागों का बाट में । स्मरण रहे कि पूर्ण का परिणाम बालक के ज्ञान में वृद्धि होने के साथ – साथ बढता जाता है । छ: वर्ष के बालक के लिये पूर्ण उसका मुहल्ला है एवं बारह वर्ष के बालक के लिये उसका प्रान्त । इसलिए पहले बालक के पूर्ण को निश्चित कर लेना चाहिये। इसके बाद उसके अंगों का ज्ञान कराना चाहिये।

7. अनिश्चित से निश्चित की ओर – यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि बालक का बौद्धिक विकास अनिश्चित से निश्चितं की तरफ होता है । जैसे – जैसे बालक बड़ा होता जाता है वैसे – वैसे उसकी ज्ञानेद्रियाँ विकसित होती जाती हैं। इन्हीं ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से वह अपने माता – पिता, भाई – बहन एवं परिवार के अन्य सदस्यों तथा चारों तरफ के सामाजिक वातावरण के सम्पर्क में रहते हुए अनुकरण द्वारा विभिन्न वस्तुओं के विषय में ज्ञान प्राप्त करता रहता है। इस अजित किये हुए ज्ञान के आधार पर वह शनै: शनैः हर वस्तु के संबंध में अपनी निजी धारणायें भी बना लेता है । ये धारणायें या विचार प्रायः धन्धले. अस्पष्ट एवं अनिश्चित होते हैं। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह स्थूल वस्तुओं, चित्रों एवं उदाहरणों के द्वारा बालकों के अनिश्चित ज्ञान को निश्चयात्मकता प्रदान करे।

8. मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मिक क्रम की ओर – इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि बालकों को ज्ञान देते समय मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मिक क्रम को अपनाना चाहिए। मनोवैज्ञानिक क्रम के अनुसार, किसी वस्तु या विषय के ज्ञान को बालको की आयु, जिज्ञासा, रुचि एवं आवश्यकता तथा ग्रहण शक्ति के अनुसार पेश किया जाता है । इसके विपरीत, तर्कात्मिक क्रम का अर्थ बालक के सामने ज्ञान को तर्कात्मिक ढंग से विभिन्न खण्डों में विभाजित करके पेश करना है । क्योंकि तर्कात्मक ढंग से ज्ञान को पेश करते समय बालक की रुचि एवं आयु तथा ग्रहण शक्ति की अवहेलना करते हुए सिर्फ इसी बात पर जोर दिया जाता है कि विषय – सामग्री को सिर्फ तर्कात्मिक ढंग से ही पेश किया जाय भले ही बालक उसे समझें या नहीं, अतएव तर्कात्मिक ढंग से शिक्षण करने की बजाय मनोवैज्ञानिक क्रम से ज्ञान को पेश करना निश्चय ही उत्तम एवं उपयोगी है । हमें इस सूत्र के अनुसार छोटी कक्षाओं में तर्कात्मिक क्रम की बजाय मनोवैज्ञानिक क्रम से शिक्षण करना चाहिए। लेकिन मानसिक विकास के साथ – साथ जैसे – जैसे बालक ऊँची कक्षाओं में पहुंचते जायें वैसे – वैसे तर्कात्मिक क्रम को जरूर अपनाया जाय। दूसरे शब्दों में, हमें मनोवैज्ञानिक से तर्कात्मिक क्रम की तरफ चलना चाहिए ।

9. अनुभूत से युक्तियुक्त की ओर – इस सूत्र का अर्थ यह है कि बालक के अनुभूत ज्ञान को तर्क – युक्त या युक्तसंगत बनाया जाय जिससे वह सच्चा एवं निश्चित हो जाय । स्मरण रहे कि अनुभूत ज्ञान उस ज्ञान को कहते हैं जिसे बालक अपने निरीक्षण द्वारा प्राप्त करता है। बालक प्रायः जाड़ों में पानी को जमते हुए देखते हैं एवं गर्मियों में भाप बनकर उड़ते हुए। ऐसे ही वे दिन प्रतिदिन सूरज को निकलते तथा डूबते हुए देखते हैं। अगर इन्हीं बालकों से जाड़ों में पानी जमने एवं गर्मियों में भाप बनकर उड़ने के कारण को पूछा जाय तो स्वभावत: वे वैज्ञानिक और तर्कात्मिक विवेचना करते हुए सही उत्तर नहीं दे सकेंगे। ऐसी स्थिति में इस सूत्र के अनुसार यह जरूरी है कि शिक्षक बालक के अनुभूत ज्ञान को तर्कयुक्त बनाये। इससे बालक का ज्ञान सच्चा तथा निश्चित हो जायेगा।

10. विश्लेषण से संश्लेषण की ओर – प्रारम्भिक अवस्था में बालक का ज्ञान अस्पष्ट एवं अनिश्चित तथा अव्यवस्थित होता है। उसके ज्ञान को स्पष्ट एवं निश्चित तथा सुव्यवस्थित करने हेतु विश्लेषण से संश्लेषण नामक सूत्र का उपयोग करना बहुत जरूरी है। विश्लेषण का अभिप्राय किसी समस्या को ऐसे जीवित अंशों या भागो में विभाजित करना है जिनके जोड़ने पर समस्या का समाधान हो जाय । दूसरे शब्दों में, विश्लेषण के अन्तर्गत समस्या को विभिन्न अंगों में अलग – अलग करके अध्ययन किया जाता है । समस्या का विश्लेषण करने से ही बालकों को समस्या के संबंध में स्पष्ट एवं निश्चित ज्ञान प्राप्त नहीं होगा। इसके लिए हमें संश्लेषण की भी जरूरत है। संश्लेषण का अभिप्राय समस्या के विभाजित जीवित अंगों द्वारा प्राप्त किये हुये ज्ञान को जोड़कर समझना है। उदाहरण के लिए इतिहास पढ़ाते समय हम पहले किसी भी भाग या स्थान के ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन करेंगे । तत्पश्चात अन्य भागों का तुलनात्मक अध्ययन करेंगे तथा अन्त में हर भाग को जोड़कर सम्पूर्ण संसार का ज्ञान प्राप्त करेंगे। विश्लेषण एवं संश्लेषण दोनों विधियाँ एक दूसरे की पूरक हैं । आदर्श शिक्षण हेतु दोनों ही विधियों का सम्मिश्रण जरूरी है।

11. प्रकृति का अनुसरण – इस सत्र का अभिप्राय बालक की शिक्षा को उसका प्रकृति के अनसार संचालित करना है । इसलिए शिक्षा के सभी साधन बालक के शारीरिक एव मानासक विकास के नियमों पर आधारित होने चाहिए। दूसरे शब्दों में बालक को जो भी ज्ञान दिया जाए वह उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास के अनुसार होना चाहिये । इसलिए शिक्षक का अपना मनमानी न करके बालक की प्रकृति के अनुसार ही चलना चाहिए। कहने का अभिप्राय यह ह कि जो शिक्षा बालक के विकास में किसी तरह की बाधा डालती है वह अप्राकृतिक एव अमनोवैज्ञानिक है, अतएव शिक्षक को कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए जो बालक के शारारिक एवं मानसिक विकास को कुण्ठित करे। संक्षेप में शिक्षक को बालक की प्रकृति का अनुसरण करना चाहिए।

12. इन्द्रियों का प्रशिक्षण – बालकों की प्रमुख रूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ होती हैं । ये है – (1) आँख, (2) कान,(3) स्वाद,(4) ध्राण एवं (5) स्पर्श । ये सभी ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान के वास्तविक द्वार हैं। इन ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा बालक संसार के विभिन्न आकार, प्रकार, रंग – रूप, भार, मात्रा घनत्व एवं क्षेत्रफल तथा तापमान आदि के विषय में अपने मस्तिष्क में प्रत्यय बनाता है । इसलिए इस सत्र के अनुसार शिक्षक को बालक की उक्त सभी ज्ञानेन्द्रियाँ का अधिक से अधिक प्रशिक्षण करना चाहिए। अगर ज्ञानेन्द्रियाँ उचित रूप से प्रशिक्षित हो जायेंगी तो बालक अपने मस्तिष्क में हर वस्तु का प्रत्यय सही – सही बना लेगा। इससे उसका ज्ञान सच्चा एवं निश्चित हो जायेगा। मॉन्टेसरी एवं फ्रोबिल आदि शिक्षा – शास्त्रियों ने इस सूत्र के प्रयोग पर विशेष रूप से बल दिया है |

13. स्वाध्याय को प्रोत्साहन – इस सूत्र के अनुसार स्वाध्याय पर बल दिया जाता है । इसका एकमात्र कारण यह है कि वास्तविक शिक्षक बालक में ही छिपा रहता है। जब बालक स्वाध्याय में लीन होकर किसी तरह के ज्ञान को प्राप्त करता है तो वह ज्ञान उसके मस्तिष्क का स्थायी अंग बन जाता है। अतएव रूसो जैसे महान शिक्षाशास्त्री ने स्वाध्याय को महत्वपूर्ण स्थान दिया। डाल्टन प्रणाली का आधार ही स्वाध्याय है । इसलिए इस सूत्र के अनुसार शिक्षक को चाहिए कि वह पहले पाठ्य – वस्तु का स्वयं अध्ययन करे । तत्पश्चात उसे बालकों को स्वाध्याय हेतु दे एवं उनकी कठिनाइयों को दूर करे। संक्षेप में, बालकों को स्वाध्याय के लिए प्रेरणा, सहायता तथा प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।

इन सभी सूत्रों पर प्रकाश डालने से स्पष्ट हो जाता है कि ये सभी सूत्र शिक्षण के समय शिक्षक को बालकों की रुचियों, रुझानों, योग्यताओं एवं क्षमताओं एवं विकास के विभिन्न स्तरों को दष्टि में रखते हुए पाठ योजना बनाने और उसका विकास करने में पथ – प्रदर्शक का कार्य करते हैं। अगर शिक्षकों और छात्र अध्यापकों को इतिहास के शिक्षण – कार्य में सफलता प्राप्त करनी है तो उन्हें इनका पूर्ण ज्ञान तथा प्रयोग की दक्षता का होना परम आवश्यक है।

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