शिक्षक व्यवहार में सुधार का वर्णन कीजिए।

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विद्यालयों में कई प्रकार के शिक्षक मिलते हैं। कुछ बहुत प्रभावशाली तो कुछ बहुत कम प्रभाव वाले । शिक्षक की प्रभावशीलता उसके सामान्य तथा कक्षागत क्रिया – कलापों पर आधारित होती है। ये क्रिया – कलाप शिक्षक के व्यवहारों की ओर संकेत देते हैं। पूरी शिक्षक – तकनीकी, शिक्षक के व्यवहारों में सुधार लाने, परिमार्जन करने तथा उनमें वांछित परिवर्तन लाने की प्रक्रिया पर विशेष बल देती है।

डी.जी. रायन, एल्बर्ट, डेवीज आदि अनेक विद्वान विश्वास करते हैं कि शिक्षक का व्यवहार परिवर्तनीय है, उसमें सुधार तथा परिमार्जन किया जा सकता है।

शिक्षण – तकनीकी के क्षेत्र में शिक्षक के व्यवहार में परिवर्तन या परिमार्जन अथवा सुधार लाने के लिये अनेक विधियों का विकास किया गया है। इनमें से प्रमुख हैं –

1. अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण

2. टी – समूह प्रशिक्षण

3. सूक्ष्म शिक्षण

4. अन्तःक्रिया विश्लेषण

5. अभिक्रमित अनुदेशन

(1) अनुकरणीय प्रशिक्षण विधि :

अध्यापक शिक्षा संस्थाओं में शिक्षण अभ्यास से पूर्व पाठ – प्रदर्शन की परम्परा है। छात्राध्यापकों के एक या दो पाठों का प्रदर्शन किया जाता है और उन्हें कक्षा – शिक्षण के लिए भेज दिया जाता है । छात्राध्यापक पाठ – प्रदर्शन का ही अनुकरण करने का प्रयास करते हैं और अपनी मौलिक क्षमताओं का प्रयोग नहीं कर पाते हैं । उन्हें कक्षा के सामाजिक व्यवहारों का बोध नहीं होता है, इसलिए उन्हें कक्षा – शिक्षण में अधिक कठिनाइयाँ होती हैं और अपेक्षित शिक्षण व्यवहार का विकास नहीं होता है ।

अन्य व्यवसायों में प्रशिक्षणार्थियों को पूर्व – अभ्यास में रखा जाता है तब उन्हें अपने व्यवसाय में कार्य करने की अनुमति दी जाती है। शिक्षण – व्यवसाय में पूर्व अभ्यास का अवसर नहीं दिया जाता है जबकि व्यावसायिक कुशलता में यह अधिक आवश्यक है । इसी पूर्व अभ्यास को अनुकरणीय शिक्षण कहते हैं। इसका विवेचन यहाँ किया गया है।

अनुकरणीय शिक्षण की अवधारणायें –

इस प्रविधि का विकास संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में हुआ है। इसका विकास कुक शैन्क (1968) ने अध्यापक प्रशिक्षण प्रणाली के लिए किया था। इसे भमिका निर्वाह अथवा नाटकीय प्रविधि भी कहते हैं। ‘कार्ल ओपिनशाह तथा उनके साथियों ने, शिक्षक – व्यवहार वर्गीकरण का विकास किया है।

इस प्रविधि की प्रमुख अवधारणा यह है कि प्रभावशाली – शिक्षक के लिए शिक्षक व्यवहार के कुछ प्रारूप आवश्यक होते हैं। इन शिक्षक – व्यवहार के प्रारूपों का अभ्यास किया जा सकता है।

अनुकरणीय शिक्षण का स्वरूप –

इस प्रविधि को छात्राध्यापकों के शिक्षण के प्रशिक्षण के लिए प्रयुक्त किया जाता है । कक्षा – शिक्षण अभ्यास से पूर्व अनुकरणीय – शिक्षण (SSST) का अभ्यास कराया जाता है यह एक भूमिका निर्वाह या नाटकीय प्रविधि मानी गयी है। छात्राध्यापक इसके अभ्यास में शिक्षक तथा छात्र दोनों का कार्य करते हैं एक छात्राध्यापक शिक्षक का कार्य करता है और अन्रु छात्राध्यापक उस स्तर के छात्रों का कार्य करते हैं। एक छोटे प्रकरण का शिक्षण किया जाता है। अन्य छात्राध्यापक छात्रों के समान ही व्यवहार करते हैं। शिक्षक – कालांश दस अथवा पन्द्रह मिनट का होता है । उसके बाद पाँच मिनट शिक्षण युक्तियों के सम्बन्ध में वाद – विवाद होता है, प्रशंसा भी करते हैं, सुझाव भी दिये जाते हैं। इसके बाद एक अन्य छात्राध्यापक शिक्षक का कार्य करता है। पहले जिसने शिक्षक का कार्य किया है वह शेष के साथ बैठकर छात्रों के समान व्यवहार करता है। वाद – विवाद छात्राध्यापक को उसके शिक्षण के सम्बन्ध में जानकारी देता है जो पृष्ठपोषण का कार्य करता है और जिससे अपेक्षित व्यवहार का अनुसरण किया जाता है। कुछ क्रियाओं का प्रदर्शन भी किया जाता है।

प्रथम सोपान में छात्राध्यापकों को शिक्षक के पद का कार्य एक क्रम में सौंपा जाता है और शेष अवसरों पर छात्र तथा निरीक्षक का कार्य सौंपा जाता है।

द्वितीय सोपान में उस शिक्षण – कौशल को निर्धारित किया जाता है जिसका अभ्यास करना और विकास के लिए सुझाव दिये जाते हैं। छात्राध्यापक अपने शिक्षण के प्रकरण का चयन करते हैं और पाठ का नियोजन करते हैं।

तृतीय सोपान में शिक्षण के आरम्भ करने तथा अन्त करने के लिये कार्यक्रम की रूपरेखा निश्चित की जाती है।

चतुर्थ सोपान में शिक्षक – व्यवहार की क्रियाओं के मापन की विधियों को निश्चित किया जाता है।

पंचम सोपान में अनुकरणीय – शिक्षण (SSST) का अभ्यास किया जाता है और उन्हें पृष्ठ – पोषण दिया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर अभ्यास की विधि को दूसरे सूत्र में बदल लिया जाता है।

षष्टम सोपान में शिक्षण की विधियों को बदल लिया जाता है जिससे शिक्षण के आगामी कौशल का अभ्यास किया जा सके। परिवर्तन आवश्यक समझा जाता है जिससे छात्राध्यापक की शिक्षण के प्रति रुचि बनी रहे।

अनुकरणीय प्रशिक्षण एक पृष्ठपोषण प्रविधि –

अनुकरणीय प्रशिक्षण को अध्यापक शिक्षा में सामाजिक कौशलों तथा व्यवहारों के विकास हेतु प्रयुक्त करते हैं। परन्तु इसको एक पृष्ठपोषण प्रविधि के रूप में प्रयुक्त करते है। सामाजिक अधिगम अनुकरण तथा अभ्यास से किया जाता है। इसमें व्यक्ति को भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है । इस प्रविधि में शिक्षक को तीन भूमिकाओं का निर्वाह करना होता है –

(1) छात्र की भूमिका

(2) शिक्षक की भूमिका तथा

(3) निरीक्षक की भूमिका ।

इन तीनों परिस्थितियों में छात्राध्यापक अभ्यास एवं अनुभव करता है तथा उसे अनुकरण भी करना होती है। जब अभ्यर्थी शिक्षण की क्रियाओं का निरीक्षण करता है तब उसे वांछित और अवांछित व्यवहारों का बोध होता है। जब उसे शिक्षण का अवसर मिलता है तब वांछित व्यवहारों का ही अभ्यास करता है । अच्छे और वांछित व्यवहारों का अनुकरण करता है । अभ्यास और अनुकरण से व्यवहारों में सुधार होता है क्योंकि अनुकरणीय प्रशिक्षण की परिस्थितियाँ पृष्ठपोषण का कार्य करती है। अनुकरणीय प्रशिक्षण प्रविधि का विस्तृत विवरण इस पुस्तक के अध्याय 15 में दिया गया है।

(2) कक्षा अन्तः प्रक्रिया विश्लेषण :

डी.जी. रायन के शिक्षक व्यवहार के सिद्धान्त की स्वतः सिद्ध परिकल्पना यह भी है कि शिक्षक – व्यवहार का मापन किया जा सकता है। शिक्षक व्यवहार के मापन की प्रविधियों को अन्तः प्रक्रिया – विश्लेषण प्रणाली कहते हैं। अन्तः प्रक्रिया विश्लेषण प्रविधि के सन्दर्भ में नैड. फ्लैण्डर्स का नाम अधिक विख्यात है।

वे शिक्षक व्यवहार को निम्न दो पक्षों में विभाजित करते हैं –

(1) शाब्दिक अन्तःप्रक्रिया तथा

(2) अशाब्दिक अन्तःप्रक्रिया।

एमोडोन, हफ, ओबर तथा फ्लैण्डर्स आदि ने शाब्दिक अन्तःप्रक्रिया के मापन के लिये प्रविधियाँ विकसित की हैं। अशाब्दिक प्रक्रिया के मापन के लिए ग्लोबे ने एक प्रविधि का विकास किया है।

अन्तः प्रक्रिया विश्लेषण एक पृष्ठपोषण की प्रविधि के रूप में –

शिक्षक व्यवहार के सुधार के लिये फ्लैण्डर्स की कक्षा अन्त प्रक्रिया विश्लेषण प्रविधि का प्रयोग पृष्ठ – पोषण प्रविधि के रूप में भी किया जाता है। लेखक के निर्देशन में श्री के.के. वशिष्ट ने अपने शोध कार्य में अन्त प्रक्रिया विश्लेषण का एक पृष्ठ – पोषण प्रविधि के रूप में अध्ययन किया और विज्ञान के छात्राध्यापकों के शिक्षण– व्यवहार में अपेक्षित सुधार एवं परिवर्तन पाया।

इस प्रविधि का पृष्ठपोषण के रूप में उपयोग करने के लिए छात्राध्यापकों को इसकी परी जानकारी होनी चाहिए। उन्हें वर्गों को याद करना चाहिए और कक्षा व्यवहार के निरीक्षण में इस प्रविधि को प्रयुक्त करके आलेख तैयार करना चाहिए। आलेख की सहायता से आव्यूह तालिका बनाकर व्यवहार चरों तथा व्यवहार – प्रवाह की व्याख्या करने का अभ्यास कराना चाहिए। प्रभावशाली शिक्षण के व्यवहार चरों तथा व्यवहार – प्रवाह की भी जानकारी देनी चाहिए। छात्राध्यापकों को इन क्रियाओं का ज्ञान तथा इनके प्रयोग की क्षमताओं को विकास के बाद उनके कक्षा शिक्षण का निरीक्षण इसी प्रविधि की सहायता से करना चाहिए ।

इन दस वर्गों की सहायता से उस पूरे कालांश का आलेख तैयार करके उसी छात्राध्यापक को अपने व्यवहार की व्याख्या करने के लिए देनी चाहिए। अपने कक्षा व्यवहार के लिए आव्यूह तालिका बनाकर व्यवहार चरों का तथा प्रवाह की गणना करके वे उनकी व्याख्या भी स्वयं करें। ऐसा करने में छात्राध्यापक को अपने शिक्षण व्यवहार की अनुभूति करना होता है, जिससे प्रभावशाली शिक्षण के लिए व्यवहारों का बोध कराया जाता है और प्रशंसा की जाती है.सुधार के लिए सुझाव दिये जाते हैं। ये क्रियायें पृष्ठपोष्ज्ञण का कार्य करती हंश और वह अपने कक्षा व्यवहार में समुचित अनुक्रियाओं का अनुसरण करने का प्रयास करता है । कक्षा – व्यवहार के आलेख के लिये टेपरिकॉर्डर तथा वीडियोटेप की भी सहायता ली जा सकती है। इसमें छात्राध्यापक स्वयं आलेख भी तैयार करता है और अपने व्यवहार की व्याख्या भी करता है।

कक्षा अन्तः प्रक्रिया विश्लेषण के लिए सावधानियाँ –

इस प्रविधि का उपयोग करते समय पर्यवेक्षकों को निम्नांकित सावधानियाँ रखनी चाहिए।

(1) पृष्ठपोषण प्रविधि के रूप में प्रयुक्त करने के लिए इस प्रविधि की पूरी जानकारी छात्राध्यापकों को देनी चाहिए।

(2) वर्गों के आलेख के लिए अभ्यास करना आवश्यक है। निरीक्षकों की विश्वसनीयता की गणना भी करनी चाहिए।

(3) एक ही शिक्षण विषय के छात्राध्यापकों को निरीक्षण के लिए अनुमति दी जानी चाहिए।

(4) पृष्ठपोषण प्रविधि के रूप में प्रयुक्त करते समय परम्परागत विधियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए।

(5) छात्राध्यापक को अपने व्यवहार की व्याख्या करने में व्यवहार के मानकों तथा व्यवहार के प्रतिमानों की सहायता लेनी चाहिए।

(3) प्रशिक्षण समूह प्रविधि :

बेने के अनुसार प्रशिक्षण समूह अचानक (1946) में उत्पन्न हुआ जबकि निरीक्षण आलेखों का उन्हीं व्यक्तियों के समक्ष वाद – विवाद किया गया जिनका निरीक्षण किया गया। उसके एक वर्ष बाद कई विश्वविद्यालयों में इसका प्रयोग किया गया। प्रशिक्षण – समूह प्रविधि व्यक्तियों को अपने व्यवहार को समझने का अवसर प्रदान करती है।

अनुभवी प्रशिक्षक होते हैं । यह समूह बिना किसी आयोजन के मिलता है और इसकी सभा 2 से 3 घण्टे तक चलती है। इस प्रकार की सभायें सप्ताह में एक या दो बार होती हैं।

सभाओं में वाद विवाद का ‘विषय’ परिस्थितियों से उत्पन्न होता है। पहले से कुछ भी निश्चित नहीं किया जाता। सदस्यों से यह आशा की जाती है कि वे प्रशिक्षण सम्बन्धी समस्याओं पर वार्ता आरम्भ करें। प्रशिक्षण समूह की सभाओं की व्यवस्था बिना नेतृत्व के की जाती है। परन्तु कुछ व्यक्ति समूह का नेतृत्व आवश्यक समझते हैं और इस बात का समर्थन करते हैं कि सभाओं का आयोजन निश्चित होना चाहिए।

इन सभाओं में प्रशिक्षणार्थी को अपनी भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रोत्साहित किया जाता है । प्रशिक्षण समूह की सभाओं में लगातार भाग लेने से सदस्य अपने प्रत्यक्षीकरण में ईमानदार, स्पष्ट, अन्तर्दृष्टि युक्त तथा चिन्तनशील हो जाते हैं। प्रशिक्षण देने वाला व्यक्ति अधिक चिन्तनशील निर्देशन प्रदान करता है और छात्रों को अपने व्यवहार के विश्लेषण के लिए सहायता देता है। इस प्रकार छात्रों को स्वयं अपने व्यवहार की जानकारी होती है जिससे सुधार के लिए पृष्ठपोषण मिलता है । इस प्रकार प्रशिक्षणार्थी अपनी – अपनी समस्याओं पर वाद – विवाद करते हैं। उन्हें अपने व्यवहार को समझने का अवसर मिलता है और वे व्यवहार में सुधार लाने का प्रयास करते हैं।

प्रशिक्षण समूह का प्रयोग –

अध्यापक – शिक्षा में शिक्षण – अभ्यास के लिए प्रशिक्षण समूह का प्रयोग किया जाता है और क्रियाओं में उसी क्रम का अनुसरण किया जाता है जिसकी चर्चा पीछे की जा चुकी है। शिक्षण अभ्यास में पर्यवेक्षक को छात्राध्यापकों की चिन्तन तथा अपने व्यवहार की अन्तर्दृष्टि के लिए निर्देशन देना चाहिये जिससे छात्राध्यापक अपने कक्षा – शिक्षण व्यवहार को समझ सकें और उसके सुधार के लिये सूझ का विकास कर सके। चूँकि प्रशिक्षण – समूह का अनुभव छात्राध्यापक के व्यवहार में सुधार के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता है, अतः अन्य पृष्ठपोषण की प्रविधियों को भी प्रयुक्त करना चाहिए।

प्रशिक्षण समूह से छात्राध्यापकों को पृष्ठपोषण दिया जाता है । वह सदस्यों के व्यक्तिगत विचारों पर ही निर्भर होता है । इसलिए पर्यवेक्षक को सदस्यों के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए समुचित निर्देशन देना चाहिए । छात्राध्यापक जब स्वयं किन्हीं विचारों को स्वीकार करता है तभी वह उन्हें अपने व्यवहार में अपनाता है। इसका प्रयोग विशेष रूप से मानव सम्बन्धों के लिए किया जाता है।

प्रशिक्षण – समूह से छात्राध्यापकों में निम्नलिखित गुणों का विकास होता है –

1. वे अपनी अनुभूति तथा दूसरों के व्यवहारों के प्रति संवेदनशील हो जाते हैं।

2. उनके व्यवहार में लचीलापन आ जाता है। जो प्रभावशाली शिक्षण के लिए शिक्षक व्यवहार की प्रमुख विशेषता मानी जाती है।

3. प्रशिक्षण समूह के निर्णयों के प्रति भी छात्र संवेदनशील हो जाते हैं।

4. छात्राध्यापकों में निदानात्मक क्षमताओं का विकास होता है जिससे वे अपने स्वयं के व्यवहार को समझ सकते हैं और कमजोरियों का सुधार कर सकते हैं।

(4) अभिक्रमित अनदेशन :

अभिक्रमित – अनुदेशन का विकास बी.एफ.स्किनर ने (1954) में हारवर्ड विश्वविद्यालय को मनोविज्ञान की प्रयोगशाला में किया था। इनका शोध पत्र ‘अधिगम का विज्ञान और शिक्षण कला’ (1954) में प्रकाशित हुआ था। इसका विकास एक अधिगम की प्रविधि के रूप में हुआ है । यह सक्रिय अनुबद्ध अधिगम सिद्धान्तों पर आधारित है। यह स्किनर के शिक्षण प्रतिमान का एक व्यावहारिक रूप है। इसको कई नामों से सम्बोधित किया जाता है । व्यक्तिगत – अनुदेशन तथा आभऋमित – अनुदेशन आदि । सुसन मारकल ने अभिक्रमित अनुदेशन की परिभाषा इस प्रकार की है।

“आभक्रमित अधिगम” व्यक्तिगत – अनदेशन की विधि है जिसमें छात्र सक्रिय रहकर अपनी गति से सीखता है और उसे तत्काल ज्ञान मिलता है और शिक्षक की आवश्यकता नहा होती है।

अभिक्रमित अनुदेशन के आधारभूत सिद्धान्त –

यह प्रत्यय कुछ मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित है जिनका प्रतिपादन मनोविज्ञान के प्रयोग के आधार पर किया गया है। यह सक्रिय अनुबन्ध अनुक्रिया सिद्धान्त पर आधारित है जिसमें अधोलिखित पाँच सिद्धान्त हैं –

(1) छोटे पदों का सिद्धान्त – इसमें पाठयवस्तु को छोटे – छोटे पदों में क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है जिससे छात्र अधिक सीखते हैं ।

(2) तत्पर अनुक्रिया का सिद्धान्त – छोटे पदों में रिक्त स्थान छोड़ दिये जाते हैं उनको पूरा करने के लिए छात्रों को तत्पर होकर अनुक्रिया करनी होती है ।

(3) तत्कालीन जाँच का सिद्धान्त – छात्रों की अनुक्रियाओं के साथ – साथ छात्रों को पुष्टि करनी होती है जिससे पुनर्बलन मिलता है।

(4) स्वत: अध्ययन गति का सिद्धान्त – प्रत्येक छात्र अपने अध्ययन गति एवं योग्यताओं के अनुसार पदों को पढ़ता है और सीखता है ।

(5) छात्र आलेख का सिद्धान्त – छात्र अध्ययन करते समय अपने सीखने का आलेख तैयार करता है। अनुक्रियाओं से छात्र के अध्ययन की परीक्षा भी होती है ।

श्रृंखला अभिक्रमित अनुदेशन की अवधारणाएं –

इसकी धारणायें अधोलिखित हैं –

1. छात्र अध्ययन के समय अनुक्रिया करने से अधिक सीखता है।

2. अध्ययन की त्रुटि सीखने में बाधक होती है।

3. पाठ्य – वस्तु को छोटे पदों को क्रमबद्ध रूप में रखने से अधिगम अधिक होता है |

4. अध्ययन के समय निरन्तर पुनर्बलन देने से अधिगम प्रभावशाली होता है।

5. छात्रों को उनकी योग्यताओं के अनुसार अवसर देने पर अधिगम प्रभावशाली होता है।

(5) सूक्ष्म अध्यापन :

सूक्ष्म अध्यापन अध्यापकों को कक्षा अध्यापन प्रक्रियाओं की शिक्षा देने हेतु नवीन प्रशिक्षण प्रणाली है। भारत और विश्व के अनेक भागों में इस पर अभी शोध कार्य चल रहा है। पिछले एक दशक में इतना तो स्पष्ट हो ही गया है कि अध्यापकों के प्रशिक्षण में इस प्रणाली को कम समय में अधिक उपयोगी पाया गया है। प्रारम्भ से लेकर आज तक अनेक प्रकार से सूक्ष्म अध्यापन की परिभाषा देने के प्रयत्न किये गये हैं जिनसे सूक्ष्म अध्यापन की कख्या होती है।

1968 में स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय में जहाँ इस प्रणाली का जन्म हुआ एलन ने बताया कि – “Microteaching is a scaled down teaching encounter in class size and time.” – Dwight Allen

आगे चलकर बुश ने अध्यापन की परिभाषा देते हुए कहा –

“A teacher education technique which allows teachers to apply clearly defined teaching skills to carefully prepared lessons in a planned series of five to ten minutes encounter with a small group of real students often with an opportunity to observe the result on videotape.”– Bush (1968)

इस वर्ष के अन्त में ऐलन और ईव ने इस प्रक्रिया को निम्न प्रकार बताया –

“A system of controlled practice that makes it possible to concentrate on specific teaching behaviours and to practice teaching under controlled conditions.” – Allen and Eve (1968)

अपनी पुस्तक में ऐलन और रायान (1968) ने सूक्ष्म अध्यापन की निम्न पाँच मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित बताया है –

1. सूक्ष्म अध्यापन वास्तविक शिक्षण है।

2. परन्तु इस प्रणाली में साधारण कक्षा अध्यापन की जटिलताओं को कम कर दिया जाता है।

3. एक समय में किसी भी एक विशेष कार्य एवं कौशल के प्रशिक्षण पर ही जोर दिया जाता है।

4. अभ्यास क्रम की प्रक्रिया पर अधिक नियन्त्रण रखा जा सकता है।

5. परिणाम सम्बन्धी साधारण ज्ञान एवं पृष्ठपोषण के प्रभाव की परिधि विकसित होती है।

सूक्ष्म अध्यापन के अध्यापक शिक्षा कार्यक्रमों के विभिन्न पक्षों के सन्दर्भ में इसकी जो विभिन्न प्रकार की व्याख्यायें दी गई हैं उनसे इसकी लचीली और अनुकूलनशील प्रकृति का स्पष्ट आभास मिलता है। स्टेनफोर्ड में सूक्ष्म अध्यापन के आदर्श का स्वरूप अन्य विभिन्न पाठ्यक्रमों से स्वतन्त्र अतिरिक्त एवं स्वतन्त्र अनुभव प्रदान करना था। इसके विपरीत सूक्ष्म अध्यापन को विशिष्ट पाठ्यक्रमों के अन्तरंग समझना अधिक श्रेयस्कर होगा। इसके द्वारा पाठ्यक्रम के अमूर्त विषय वस्तु को मूर्त एवं क्रियाशील अनुभवों एवं अभ्यासों के रूप में छात्रों को उपलब्ध कराया जा सकता है । इस आयाम को ब्रिटेन के स्टर्लिंग एवं उलस्टर विश्वविद्यालयों के मनोविज्ञान के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित किया गया है।

सूक्ष्म – शिक्षण के उपयोग की तीसरी विधि है कि छात्रों को उन्हीं कौशलों के विकास हेतु अभ्यास दिया जाये कि जिनमें उनकी कमजोरी का पता चले । भारत तथा अन्य देशों में इस पर अनेक प्रयोग किए गये हैं।

सूक्ष्म – शिक्षण की अवधारणायें –

सूक्ष्म – शिक्षण की प्रमुख धारणायें यह हैं कि प्रभावशाली शिक्षण के लिये शिक्षक व्यवहार के प्रारूप आवश्यक होते हैं। पृष्ठपोषण के द्वारा अपेक्षित व्यवहार के प्रारूपों का विकास किया जा सकता है। यह एक उपचारी कार्यक्रम है। इसमें शिक्षक को कक्षा में एक छोटे से प्रकरण का शिक्षण करना पड़ता है। शिक्षण क्रियाओं का वस्तुनिष्ठ रूप में निरीक्षण किया जाता है और उनका निदान करके सुधार के लिए सुझाव दिये जाते हैं। यह व्यक्तिगत क्षमतओं के विकास के पूर्ण अवसर प्रदान करती है।

सूक्ष्म – शिक्षण का स्वरूप –

इस प्रविधि के नाम से ही इसके स्वरूप का बोध होता है। इस प्रविधि के अभ्यास में पाठ योजना छोटी कक्षा में छात्रों की संख्या कम, शिक्षण प्रकरण का छोटा रूप, शिक्षण की अवधि पाँच से दस मिनट होती है । छात्राध्यापक के शिक्षण का निरीक्षण किया जाता है। शिक्षण समाप्त होने पर वाद – विवाद किया जाता है। छात्राध्यापकों को शिक्षण क्रियाओं की जानकारी करायी जाती है और विकास के लिए सुझाव दिये जाते हैं। इसके उपरान्त उसी शिक्षक को वहा पाठ दूसरे समूह को पढ़ाना पड़ता है और फिर वाद – विवाद होता है। इससे पृष्ठपोषण दिया जाता है। इस पर भी यदि पर्यवेक्षक आवश्यक समझता है तो पुनः शिक्षण करना पड़ता है । यह क्रिया चलती ही रहती है जिससे छात्राध्यापक में अपेक्षित शिक्षण – कौशल का विकास किया जाता है । उदाहरण स्वरूप यदि प्रश्न पूछने के कौशल का विकास करना है तो शिक्षण, वाद – विवाद, पुन शिक्षण वाद – विवाद चलता ही रहेगा जब तक प्रश्न पूंछने के कौशल का पूर्ण रूप से विकास हो जाये । इसी प्रकार शिक्षण में सुधार लाया जाता है।

सूक्ष्म-शिक्षण का स्वरूप –

नियोजन तथा शिक्षणवाद-विवाद प्रदर्शनपुनः नियोजन तथा पुनः शिक्षणवाद-विवाद
1. छोटे प्रकरण के लिए पाठ का नियोजन करता है।1. शिक्षण के सम्बन्ध में वाद-विवाद।1. वही शिक्षण उसी पाठ का पुनः नियोजन करता है। 
2. शिक्षण का कालांश 15 से 10 मिनट तक।2. शिक्षण कौशल के लिये सुझाव दिये जाते है।2. वही प्रकरण दूसरी कक्षा को पुनः शिक्षण किया जाये।2. शिक्षण पर वाद विवाद तथा अनुक्रियाओं की प्रशंसा।
3. एक ही शिक्षण कौशल का अभ्यास किया जाता है।3. शिक्षण क्रियाओं की प्रशंसा भी करते हैं।3. शिक्षण कालांश 5 से 15 मिनट तक।3. अपेक्षित शिक्षण कौशल के लिये सुझाव।
4. छोटी कक्षा में विशिष्ट कौशल का अभ्यास करता है।4. अपेक्षित शिक्षण कौशल का प्रदर्शन किया जाता है।4. सुझाव के आधार पर उसी शिक्षण कौशल का अभ्यास किया जाता है।4. आवश्यकता होने पर उसी कौशल का प्रदर्शन किया जाता है।
निरीक्षणपृष्ठ पोषणनिरीक्षणपृष्ठ-पोषण प्रदर्शन

सूक्ष्म शिक्षण की विशेषताएं –

इसके स्वरूप की प्रमुख विशेषतायें अधोलिखित हैं –

(1) कुक्षा का आकार छोटा होता है अर्थात् छात्रों की संख्या 5 से 10 तक होती है |

(2) कालांश का समय 5 से 10 मिनट होता है।

(3) शिक्षण प्रकरण का रूप भी छोटा है जिससे 5 से 10 मिनट में पढ़ाया जा सके।

(4) एक समय में एक ही शिक्षण कौशल के विकास का प्रयास किया जाता है

जैसे – विकासात्मक प्रश्न पूछने का कौशल।सूक्ष्म – शिक्षण के अभ्यास में शिक्षण कौशल के विकास के मूल्यांकन के लिए अनेक मानदण्डों का प्रयोग किया जाता है। पर्यवेक्षक तथा सहयोगियों द्वारा रेटिंग का प्रयोग किया जाता है। स्टेनफोर्ड विश्वद्यालय में “शिक्षण योग्यता मूल्यांकन सूची” का निर्माण किया जिसका प्रयोग सूक्ष्म – शिक्षण की प्रभावशीलता के लिए किया जाता है।

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