शेरशाह का प्रारम्भिक जीवन

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पानीपत और घाघरा की लड़ाई में विजय प्राप्तकर बाबर ने न केवल एक नए राजवंश की स्थापना की बल्कि अफगान शक्ति किक रीढ़ तोड़ डाली थी. दो बार की पराजय के फलस्वरूप अफगान शक्ति की रीढ़ तोड़ डाली थी. दो बार की पराजय के फलस्वरूप अफगान शक्ति बिखर चुकी थी. अफगान जातिगत स्वभाव के कारण क्रूर था. बचे-खुचे अफगान हताश नहीं हुए थे. वे गुप्त रूप से अपनी सैन्य सख्ती को संगठित कर मुग़ल राजवंश की नींव रखने के लिए तत्पर थे. संयोग से शेरशाह उर्फ़ शेर खां जैसा योग्य सेनानायक जब उन्हें प्राप्त हुआ तो भारत के अनेक क्षेत्रों में बिखरे हुए अफगान धीरे-धीरे शेरशाह के अधीन आकर एकत्र होने लगे. अफगानों के बीच राष्ट्रीय भावना जागृत कर शेर खां अंततः हुमायूँ को निर्वासित कर पुनः भारतवर्ष में अफगान सत्ता कायम करने का संकल्प पूरा कर दिखाया. आगे चलकर शेरशाह के द्वारा स्थापित शासन-व्यवस्था मुगलों के लिए आदर्श के रूप में काम किया.

शेरशाह का प्रारम्भिक जीवन

शेरशाह का प्रारम्भिक जीवन बाबर और अकबर से कम रोमांचकारी नहीं था. बचपन में शेरशाह का नाम फरीद खां था. उसके शेरशाह के पिता का नाम हसन खां और दादा का नाम इब्राहीम खां था. इब्राहिम खां घोड़े का व्यापार करता था. परन्तु भाग्य का मारा इब्राहिम खां व्यापार में सफल नहीं हो सका. उस समय भारत विभिन्न व्यक्तियों के लिए आश्रय का स्रोत माना जाता था. इसलिए वह नौकरी की तलाश में अफगानिस्तान से भारत आया. कालान्तर में इब्राहीम का पुत्र हसन खां सुल्तान बहलोल लोदी का दरबारी बन गया और उसे जागीर भी दी गई. फरीद खां उर्फ़ शेरशाह का जन्म 1486 ई. में हसन खां की पहली अफगान पत्नी से हुआ था. हसन खां अपनी नयी पत्नियों पर अधिक मेहरबान था इसलिए पिता की उदासीनता और सौतेली माँ की दुष्टता के चलते फरीद का बचपन संकट में व्य्तीं होने लगा.

तंग आकर शेरशाह 39 वर्ष की आयु में घर छोड़कर जौनपुर चला गया. जौनपुर आना फरीद के लिए वरदान साबित हुआ. जौनपुर विद्या का केंद्र था. फरीद ने परिश्रम करके अरबी और फारसी भाषा सीख ली. बाद में पिता के साथ उसके सम्बन्ध फिर अच्छे हो गए. उसके पिता ने उसको सहसराम और ख्वासपुर परगनों के शासन का भार सौंपा. कुछ ही दिनों में शेरशाह ने परगना के शासन को सुव्यवस्थित कर दिया. उसके पिता उससे बहुत प्रसन्न हुए. पर फरीद की विमाता के लिए ये सब असह्य हो गया. अपनी पत्नी के बातों में आकर फरीद के पिता ने अपने बेटे को सहसराम से निष्काषित कर दिया गया.

पिता से क्षुढ्द हो कर वह आगरा चला गया. उस समय इब्राहिम लोदी दिल्ली का सुल्तान था. फरीद की फ़रियाद पर लोदी ने कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि लोदी उसके पिता पर अधिक मेहरबान था. हसन खां की मृत्यु होने के बाद इब्राहिम लोदी ने फरीद को हसन का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया और इस प्रकार एक बार फिर फरीद पैत्रिक जागीरदारी का अधिकारी बनकर सहसराम पहुँच गया.

फरीद खां ने अपने सौतेले भाइयों को यथासंभव संतुष्ट रखने की चेष्टा की. पर ईर्ष्यावश वे फरीद के विरुद्ध षड्यंत्र करने लगे. सौतेले भाइयों के व्यवहार से तंग आकर फरीद ने बिहार के शासक बहार खां की नौकरी स्वीकार कर ली. अपनी योग्यता से प्रभावित कर बहार खां ने फरीद को अपना समर्थक और संरक्षक बना लिया. कहा जाता है कि एक बार फरीद ने शिकार खेलते समय एक शेर को माल डाला. बहार खां ने फरीद की वीरता और साहस को देखते हुए उसे “शेर खां” की उपाधि दी.

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