मराठों का उत्थान

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महाराष्ट्र में रहने वाले और मराठी बोलने वाले भारतवासी मराठा कहलाते हैं. महाराष्ट्र प्रदेश एक त्रिभुजाकार पठार और चारों ओर पहाड़ों से घिरा हुआ है. यह प्रदेश पहाड़ों, वनों और अनेक स्थानों पर ऊबड़-खाबड़ होने के कारण बड़ा दुर्गम है. महाराष्ट्र की भौगोलिक परिस्थितियों ने ही मराठों की वीर, परिश्रमी, सुटढ़ और शक्तिशाली बना दिया. यहाँ की पथरीली, कम उपजाऊ भूमि और स्वास्थ्यप्रद जलवायु ने मराठों में अनेक चारित्रिक गुण उत्पन्न किए. इसलिए उनका एक राजनैतिक शक्ति के रूप में उदय हुआ. चलिए में जानते हैं मराठों के उत्थान/उदय के बारे में.

दक्कन में मराठों का उदय और उत्थान उत्तर मुगल काल की महलपण र्ण और अत्यंत आकर्षक घटना है. मराठे शिवाजी के अधीन (1627-80 ई.) स्वयं को एक शक्तिशाली जाति और स्वतंत्र राज्य के निर्माता के रूप में अनेक कारणों से उदित हो सके.

मराठों के उदय के कारण

प्राकृतिक कारण

महाराष्ट्र की प्राकृतिक परिस्थितियों ने मराठों के चरित्र पर गहरा और अच्छा प्रभाव डाला. महाराष्ट्र के पहाड़ी प्रदेशों में वर्ष की कमी और बंजर भूमि ने मराठों में साहस और आत्म-विश्वास के गुण उत्पन्न किए और वे आलस्प और विषय-सुख के दोषों से बचे रहे. वे पहाड़ी प्रदेश के निवासी होने के कारण बहुत परिश्रमी बन गए. वे अपने प्रदेश में छापामार पद्धति का आसानी से सफलतापूर्वक प्रयोग कर सके. पहाड़ों की श्रृंखंलाओं ने उन्हें प्राकृतिक और मजबूत किले प्रदान किए. प्राकृतिक परिस्थतियों ने उन्हें अपने शत्रुओं से युद्ध जीतने में बड़ी सहायता प्रदान की.

महाराष्ट्र में धार्मिक जागृति

मुगलों के आने से पहले ही महाराष्ट्र में अनेक महान सुधारकों ने जाति भेदभाव की निंदा की और मराठों को एकता के सूत्र में बाँधा. एकनाथ, तुकाराम, रामदास और वामन पंडित जैसे मराठा धर्म-सुधारकों ने क्रमानुसार कई वर्षों तक ईश्वर भक्ति मानव समानता, कार्य और परिश्रम की महत्ता और सिद्धांतों का प्रचार किया. उन्होंने मराठा जाति में आत्म-विश्वास और एकता के बीज बोये. शिवाजी के गुरु रामदास एक महान धर्म प्रचारक थे. उसने अपनी रचना “दास बोध” के माध्यम से यह कार्य किया और मराठों को बहुत प्रभावित किया.

युद्ध कला और प्रशासन में प्रशिक्षण

अहमद नगर के प्रसिद्ध सेनापति मलिक अम्बर ने मराठों को बड़ी संख्या में अपनी सेना में भर्ती किया. अहमदनगर में मराठों ने सैनिक और प्रशासनिक पदों पर रहकर प्रशासन और सेना का प्रशिक्षण प्राप्त किया. शिवाजी के पिता शाहजी भोंसले ने अहमदनगर के कुछ इलाकों पर अपना प्रभाव स्थापित किया. उसने कर्नाटक की अशांति का लाभ उठाकर अ६र्ध-स्वायत्त राज्य की स्थापना करने की कोशिश की. निजामशाही शासन के अंतिम वर्षों में वह शासक निर्माता बन गया. लेकिन दूसरे दरबारियों की ईर्ष्या के कारण उसे बीजापुर में नौकरी करनी पड़ी. इसी तरह अनेक मराठों ने बीजापुर और गोलकुंडा राज्यों में भी सेवा करके प्रशासन और शासन के विषय में प्रशिक्षण प्राप्त किया.

साहित्य और भाषा का योगदान

मराठों को जहाँ तुकाराम के भजनों ने एकता प्रदान की वहीं एकनाथ ने उन्हें अपनी मातृभाषा से प्रेम सिखलाया. मराठों की एक भाषा, एक धर्म और सामान्य जीवन ने उसमें एकता और सहयोग भरा जिससे उन्हें अपनी शक्ति के उत्थान में सहायता मिली.

शिवाजी का व्यक्तित्व

कुछ इतिहासकारों के अनुसार मराठों के उत्थान का कारण शिवाजी जैसे योग्य कूटनीतिज्ञ, कुशल सैनिक और महान नेता था. शिवाजी के उज्जवल चरित्र और महान व्यक्तित्व का निर्माण उसकी माता जीजाबाई के कारण हुआ. उसकी शिक्षाओं और परामर्श के कारण शिवाजी मराठों को संगठित कर सका.

दक्षिण के शिया राज्यों का मुगलों से संघर्ष

दक्षिण के शिया सुल्तानों और मुगल सम्राटों के बीच दीर्घकालीन युद्ध से मराठों ने अपनी शक्ति को आसानी से विकसित किया. दक्कन के शिया सुलतान और मुगल दोनों ही मराठों का समर्थन प्राप्त करना चाहते थे. मराठों ने इस दोनों की फूट का फायदा समय-समय पर अपनी शक्ति मजबूत करने के लिए उठाया.

दादाजी कोंडदेव का प्रभाव

दादाजी कोंडदेव शिवाजी के संरक्षक और सैनिक विद्या के गुरु थे. उन्होंने हिवाजी और अन्य मराठों को युद्ध लड़ने की कला, घुड़सवारी, तलवारबाजी और कुशल सैन्य व्यवस्था करने की कला सिखाई

आध्यात्मिक गुरु रामदास का प्रभाव

गुरु रामदास ने शिवाजी के दिल में हिंदू धर्म के प्रति कूट-कूटकर प्रेम भरा. उन्होंने उसे गाय, ब्राह्मण और धर्म तीनों का करने की प्रेरणा दी. उन्होंने शिवाजी को निर्देश दिया कि मराठों को इकट्ठा करें और उनमें एकता की भावना

पंचायती संस्थाओं का योगदान

महाराष्ट्र में देश के अन्य भागों की तरह प्रशासन की स्थानीय संस्थाएँ अर्थात्‌ पंचायतें पूरी तरह कार्य करती रहीं. इन संस्थाओं ने मराठों में सत्ता और स्वतंत्रता प्राप्ति की भावना को जागृत किया.

मुगलों की निर्बलता

1682 से लेकर 1707 ई. तक औरंगजेब दक्षिण में ही रहा. इन वर्षों में मुगल सेनाओं को कभी-कभी सफलता मिली तो भी उन्हें निर्णयात्मक विजय कभी नहीं मिली. इससे शिवाजी के उत्तराधिकारियों और परवर्ती मराठा सरदारों को अपने प्रभाव शक्ति बढ़ाने का अवसर मिल गया.

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