मंदिर स्थापत्य

Estimated reading: 2 minutes 84 views

मंदिरों का भारतीय धर्म संस्कृति में प्राचीन काल से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा हैं। अवतारवाद के कारण भारतीय धर्म संस्कृति में देवताओं की मूर्तियाँ एवं मंदिरों का निर्माण भी प्रारम्भ हुआ। मंदिरों का सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है।

भारत में सर्वप्रथम गुप्तकाल में भवनात्मक मंदिरों का निर्माण प्रारम्भ हुआ।

भारत में मंदिर स्थापत्य को तीन शैलियों में विभाजित किया जा सकता हैं :-

1. नागर शैली :- नागर शब्द नगर से बना है। नागर शैली के मंदिर ऊँचे चबूतरे पर आधार से शिखर तक चौपहला या वर्गाकार होते हैं। मंदिर के चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर सीढ़ियाँ होती हैं। वर्गाकार गर्भगृह की ऊपरी बनावट ऊँची मीनार जैसी होती है। नागर शैली का प्रसार पश्चिम में महाराष्ट्र से लेकर पूर्व में बंगाल व उड़ीसा तक तथा दक्षिण में विध्यांचल से लेकर उत्तर में हिमालय के चम्बा कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) तक है। नागर शैली का प्रमुख केन्द्र मध्य प्रदेश है। उड़ीसा के कोणार्क का काला पगोड़ा नामक सूर्य का मंदिर इस शैली का सर्वोत्कृष्ट मंदिर है। इसका निर्माण केसरी कुल के राजा नरसिंह ने 1240 ई. से 1280 ई. के मध्य करवाया। चंदेल शासकों द्वारा मध्य प्रदेश में निर्मित खजुराहों के मंदिर अपनी भव्यता, शिल्प-सौष्ठव एवं कायिक दिव्यता में बेजोड़ है।

2. द्रविड़ शैली :- दक्षिण भारत में विकसित मंदिर स्थापत्य शैली। इस शैली का आधार भाग प्राय: वर्गाकार होता है और शीर्ष भाग गुंबदाकार होता है। इस शैली में गर्भगृह के ऊपर का भाग सीधा पिरामिडनुमा होता है। इस शैली की प्रमुख विशेषता गोपुरम (मंदिर का भव्य प्रवेश द्वार) एवं विमान है। इस शैली का विस्तार तुंगभद्रा नदी से लेकर कुमारी अन्तरीप तक है। द्रविड़ शैली के प्रमुख मंदिर तंजौर, मदुरैई, काँची, हम्पी, विजयनगर आदि क्षेत्रों में हैं। द्रविड़ शैली का आरम्भ ईसा की सातवीं सदी में हुआ था जब मामल्लपुरम में सप्त पगोड़ा नामक मंदिरों का निर्माण पल्लव शासकों द्वारा किया गया था। कैलाशनाथ का मंदिर, तंजौर का वृहदीश्वर मंदिर, पेरूमल मंदिर आदि द्रविड़ शैली के प्रमुख मंदिर हैं।

3. बेसर शैली :- बेसर शैली नागर एवं द्रविड़ शैलियों का मिश्रित रूप हैं। बेसर का शाब्दिक अर्थ – खच्चर अर्थात दो भिन्न जातियों से जन्मा हुआ। बेसर शैली के मंदिरों में विन्यास में द्रविड़ शैली तथा रूप में नागर शैली का प्रयोग किया जाता है। इस शैली का विस्तार विंध्याचल और तुंगभद्रा (कृष्णा) नदी के मध्य है। इस मिश्रित शैली के मंदिर चालुक्य नरेशों ने कन्नड़ जिलों में और हायसल राजाओं ने मैसूर में बनवाये।

 पंचायतन शैली :- हिन्दू मंदिर शैली जिसमें मूलत: पाँच अंग हैं – पंचरथ सान्धार गर्भगृह, अन्तराल, गूढ़मण्डप, रंगमण्डप तथा मुखमण्डप इस मंदिर में मुख्य देवता और उसी देव परिवार के चार अन्य देवताओं के छोटे मंदिर एक ही पीठ या परिक्रमा पथ द्वारा मुख्य मंदिर से जुड़े होते हैं। भारत में पंचायतन शैली का प्रथम उदाहरण देवगढ़ (झांसी) का दशावतार मंदिर है।

राजस्थान में पंचायतन मंदिरों की शैली के सर्वप्रथम उदाहरण ओसियां का हरिहर मंदिर हैं।

राजस्थान में पंचायतन शैली के प्रमुख मंदिरों में बाड़ोली का शिव मंदिर एवं ओसियां का हरिहर मंदिर है।

राजस्थान में मंदिर स्थापत्य

उत्तर भारत के मंदिर स्थापत्य में राजस्थान का अपना महत्व है। आज से लगभग 2300 वर्ष पूर्व मत्स्य देश की राजधानी विराट नगर (बैराठ) में भगवान बुद्ध को समर्पित स्तूप अथवा शिवि जनपद की राजधानी मध्यमिका (नगरी) में संकर्षण और वासुदेव के निर्मित वैष्णव मंदिर राजस्थानी मंदिर स्थापत्य को दर्शाता है। राजस्थान में मंदिर स्थापत्य में तोरण द्वार (अलंकृत प्रवेश द्वार), उप मण्डप, सभा मण्डप (विशाल आँगन), मूल मंदिर का प्रवेश द्वार, गर्भगृह (मूल मंदिर जिसमें नायक की प्रतिमा होती है), गर्भगृह के ऊपर अलंकृत शिखर एवं प्रदक्षिणा पथ (गर्भगृह के चारों ओर गलियारा) प्रमुख अंग हैं।

प्रारम्भिक मंदिर

विराट नगर (बैराठ) बौद्ध धर्म का प्रमुख केन्द्र था, जहाँ से मौर्य शासक अशोक के दो महत्वपूर्ण अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं। बैराठ से पूजा की वस्तु भगवान बुद्ध के अस्थि अवशेषों से सन्निहित स्तूप था। लालसोट (जयपुर) परिसर में भी प्राचीन बौद्ध स्तूप थे जिनके स्तम्भ आज भी बन्जारों की छतरियों के रूप में सुरक्षित हैं।

नगरी (चित्तौड़) में वैष्णव मंदिर के भग्नावशेष तथा आंवलेश्वर (प्रतापगढ़) का शैल भुजा (अभिलेखयुक्त स्तम्भ) मेवाड़ क्षेत्र में भागवत धर्म के प्रमाण हैं।

पूर्वी राजस्थान में नोह (भरतपुर) में आज भी शुंगकालीन 8 फीट ऊँची यक्ष प्रतिमा को ‘जाख बाबा’ के रूप में पूजा जाता है।

नाँद (पुष्कर) में कुषाणकालीन शिवलिंग स्थापित है।

रेढ़ (टोंक) में प्राप्त ‘गजमुखी यक्ष’ प्रतिमा शुंग कालीन है।

गुप्तकालीन मंदिर

गुप्त काल में सर्वप्रथम भवनात्मक मंदिरों के निर्माण का प्रचलन शुरू हुआ।

गंगाधार (झालावाड़) में महाराज विश्ववर्मन के मंत्री मयूराक्ष द्वारा वि. सं. 423 (480 ई.) में विष्णु स्थान के साथ-साथ डाकिनी से युक्त मातृका मंदिर बनवाया जो धार्मिक सहिष्णुता का परिचायक है।

अन्य गुप्तकालीन मंदिराें में भ्रमरमाता का मंदिर (547 ई.), मनोरथ स्वामी का मंदिर (चित्तौड़), चारचौमा (कोटा) का शिव मंदिर, मुकन्दरा का शिव मंदिर प्रमुख हैं।

गुप्तोत्तरकालीन मंदिर

गुप्तोत्तरकालीन मंदिरों में कृत्तिकाओं का मंदिर (तनेसर), झालरापाटन का शीतलेश्वर महादेव मंदिर (राजस्थान का प्रथम तिथियुक्त मंदिर – 689 ई.), कंसुआ (कोटा) का शैव मंदिर (739 ई.) प्रमुख हैं।

महामारू शैली / गुर्जर-प्रतिहारकालीन मंदिर स्थापत्य

राजस्थान में पूर्व मध्यकालीन कला को निखार प्रदान करने में गुर्जर राजवंश का विशिष्ट योगदान है, जिनका मुख्य क्षेत्र जालौर-भीनमाल-मंडोर था।

8वीं से 12वीं सदी तक का काल गुर्जर-प्रतिहारों का काल है। सांस्कृतिक निर्माण की दृष्टि से यह काल राजस्थान का स्वर्णकाल है।

गुर्जर-प्रतिहारों के द्वारा क्षेत्रीय मंदिर स्थापत्य शैली का विकास किया गया जिसे महामारू शैली कहा गया। इस शैली का विस्तार मरू प्रदेश से लेकर आभानेरी, चित्तौड़, उत्तरी मेवाड़, उपरमाल पट्‌टी तक हुआ। इस शैली के प्रारम्भिक उत्कर्ष काल में चित्तौड़, आभानेरी एवं ओसियां प्रमुख हैं। ओसियां में प्रतिहार राजा वत्सराज द्वारा 8वीं सदी में निर्मित महावीरजी का मंदिर राजस्थान में अब तक ज्ञात सबसे प्राचीन जैन मंदिर है। प्रतिहार राजा कक्कुक ने 861 ई. में घटियाला (जोधपुर) में जैन अम्बिका मंदिर बनवाया।

मंडोर के मंदिरों का निर्माण महामारू वास्तुशैली का है।

गोठ मांगलोद (नागौर) का मंदिर 9वीं सदी में प्रतिहार शैली में बना है।

महामारू शैली में निर्मित मंदिर अधिकांशत: विष्णु या सूर्य को समर्पित हैं।

गुर्जर-प्रतिहार काल के प्रमुख मंदिर –

1. ओसियां (जोधपुर) के सूर्य मंदिर, महावीर मंदिर एवं हरिहर मंदिर (8वीं सदी)

2. चित्तौड़ का कालिका मंदिर

3. 10वीं सदी में निर्मित आभानेरी का मंदिर

4. 10वीं सदी में निर्मित नागदा का सास-बहू मंदिर।

5. आऊवा (पाली) का कामेश्वर मंदिर – 9वीं सदी में निर्मित।

6. खेड़ (बाड़मेर) का रणछोड़ जी का मंदिर

7. कैकीन्द का नीलकण्ठेश्वर मंदिर

8. हर्षनाथ का मंदिर (सीकर)

9. ब्रह्माणस्वामी का मंदिर (सिरोही)

गुर्जर-प्रतिहार शैली का अन्तिम एवं सबसे भव्य मंदिर किराडू का सोमेश्वर मंदिर हैं। किराडू को राजस्थान का खजुराहो भी कहा जाता है।

मारू-गुर्जर (सोलंकी) शैली

1000 ई. के पश्चात विकसित सोलंकी शैली में स्थापत्य को प्रधानता दी गई।

इस शैली के प्रमुख मंदिर –

1. मोढ़ेरा का सूर्य मंदिर (गुजरात) – यह इस शैली का पहला मंदिर है।

2. समिद्धेश्वर मंदिर (चित्तौड़)

3. सच्चियाय माता मंदिर (ओसियां)

4. चन्द्रावती के मंदिर

5. देलवाड़ा के जैन मंदिर (पहला मंदिर – 1031 ई. में विमलशाह द्वारा निर्मित। दूसरा मंदिर 1231 ई. में तेजपाल द्वारा निर्मित)

नोट:- राजस्थानी मंदिर स्थापत्य का उत्कर्ष काल :- 11वीं से 13वीं सदी के मध्य।

भूमिज शैली :-

मध्य प्रदेश और उत्तरी महाराष्ट्र में विकसित मंदिर स्थापत्य की उप शैली। राजस्थान में भूमिज शैली का सबसे पुराना मंदिर सेवाड़ी का जैन मंदिर (पाली) है जो 1010 ई. से 1020 ई. के मध्य बनाया गया। इस शैली के अन्य मंदिर महानालेश्वर मंदिर (मैनाल), भण्डदेवरा (बारां), सूर्य मंदिर (झालरापाटन), अद्‌भुत नाथ मंदिर (चित्तौड़), उण्डेश्वर मंदिर (बिजौलिया) आदि हैं।

देवल :-

जिन स्मृति स्मारकों में चरण या देवताओं की प्रतिष्ठा कर दी जाती है और जिनमें गर्भगृह, शिखर, नंदीमण्डप, शिवलिंग बनाया जाता है उन्हें देवल कहा जाता हैं।

राजस्थान के प्रमुख मंदिर

जयपुर

सुहाग (सौभाग्य) मन्दिर : गणेशपोल की छत पर स्थित आयताकार महल जो रानियों के हास-परिहास व मनोविनोद का केन्द्र था।

शिलादेवी का मन्दिर : आमेर के महलों में शिलादेवी का प्रसिद्ध मंदिर है। शिलामाता की मूर्ति का राजा मानसिंह 16वीं शताब्दी के अन्त में जैस्सोर (बंगाल) शासक केदार राय को परास्त करके लाये थे। शिलादेवी के मंदिर में संगमरमर का कार्य सवाई मानसिंह द्वितीय ने 1906 ई. में करवाया था। पूर्व में यह साधारण चूने का बना हुआ था। शिलादेवी जयपुर के कच्छवाहा शासकों की आराध्य देवी है।

जगत शिरोमणि मंदिर : आमेर में स्थित यह वैष्णव मंदिर महाराजा मानसिंह-I की रानी कनकावती ने अपने पुत्र जगतसिंह की याद में बनवाया था। इस मंदिर में भगवान कृष्ण की काले पत्थर की मूर्ति प्रतिष्ठित है जो वही है जिसकी पूजा मीराबाई करती थी। स्थानीय लोग इसे लालजी का मंदिर भी कहते हैं।

– गोविन्द देवजी का मंदिर : गौड़ीय सम्प्रदाय का यह राधाकृष्ण मंदिर सिटी पैलेस के पीछे बने जयनिवास बगीचे के मध्य अहाते में स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 1735 में सवाई जयसिंह द्वारा करवाया गया। यहाँ वृन्दावन से लाई गोविन्द देवजी की प्रतिमा प्रतिस्थापित है। यह मंदिर सांधार शैली का है जिसमें प्रदक्षिणा पथ बना हुआ है। गोविन्द देवजी की पूजा-विधि ‘अष्टयाम सेवा’ के नाम से प्रसिद्ध है।

– गणेश मंदिर : मोतीडूँगरी की तलहटी में स्थित यह मंदिर महाराजा माधोसिंह प्रथम के काल में 1761 ई. में बनाया गया था। यहाँ स्थापित गणेश प्रतिमा जयपुर नरेश माधोसिंह प्रथम की पटरानी के पीहर (मावली) से लाई गई थी। यहाँ प्रतिवर्ष गणेश चतुर्थी पर मेला भरता है।

– बिड़ला मंदिर : मोती डूँगरी के निकट श्वेत संगमरमर से निर्मित लक्ष्मीनारायण मंदिर जिसे बिड़ला गुप (गंगाप्रसाद बिड़ला) के हिन्दुस्तान चेरिटेबल ट्रस्ट ने बनवाया है। मंदिर में स्थापित भगवान नारायण तथा देवी लक्ष्मी की मूर्तियाँ एक ही संगमरमर के टुकड़े से बनी है। मंदिर की दीवारों पर लगे सुन्दर एवं भव्य काँच बैल्जियम से आयात किए गए है, उन पर हिन्दू देवी-देवताओं के सुन्दर चित्र अंकित किए गए हैं। यह मंदिर एशिया का प्रथम वातानुकूलित मंदिर है जो मकराना के सफेद संगमरमर से निर्मित है।

– राजेश्वर मंदिर : मोतीडूँगरी (जयपुर) में स्थित यह मंदिर जयपुर के राजाओं का एक निजी मंदिर है जो आम जनता के लिए केवल शिवरात्रि को ही खुलता है। इसका निर्माण 1864 ई. में जयपुर नरेश रामसिंह द्वारा करवाया गया था।

– नकटी माता का मंदिर : जयपुर के निकट जय भवानीपुरा में ‘नकटी माता‘ का प्रतिहारकालीन मंदिर है।

– गलताजी (जयपुर) : जयपुर के वृन्दावन नाम से प्रसिद्ध प्राचीन कुण्ड। प्राचीन समय में यहाँ ऋषि गालव का आश्रम था। बन्दरों की अधिकता के कारण ‘Monkey Valley’ के रूप में प्रसिद्ध। रामानन्दी सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ। गलता को ‘उत्तर तोताद्रि’ के रूप में जाना जाता है। मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा को गलता स्नान का विशेष महत्व है।

– सूर्य मंदिर (आमेर, जयपुर) : इस मंदिर का निर्माण आमेर के चामुण्डहरि के पुत्र ने करवाया।

– कल्की मंदिर (जयपुर) :  कलयुग के अवतार कल्की भगवान का ऐतिहासिक विष्णु मंदिर जिसका निर्माण सवाई जयसिंह ने 1739 ई. में करवाया। यह मंदिर विश्व का एकमात्र कल्की भगवान का मंदिर है।

– खलकाणी माता का मंदिर (लूणियावास, जयपुर) : यहाँ प्रतिवर्ष गधों का मेला भरता है।

– जमुवाय माता का मंदिर (जमुवारामगढ़, जयपुर) : इसका निर्माण दुलहराय ने करवाया। जमुवाय माता आमेर के कच्छवाहों की कुलदेवी है।

– वीर हनुमान मंदिर (सामोद, जयपुर) : इस मंदिर में हनुमानजी की वृद्ध प्रतिमा की पूजा की जाती है।

– ज्वाला माता का मंदिर (जोबनेर, जयपुर) : ज्वाला माता खंगारोतों की कुलदेवी है।

– बृहस्पति मंदिर (जयपुर) : राजस्थान का प्रथम बृहस्पति मन्दिर है। इस मंदिर में जैसलमेर के पीले पत्थरों से निर्मित बृहस्पति भगवान की सवा पाँच फीट ऊँची प्रतिमा स्थापित की गई है।

– पदमप्रभु मंदिर (पदमपुरा, जयपुर) : यह दिगम्बर जैन मंदिर है।

– शीतला माता मंदिर (चाकसू, जयपुर) : चाकसू में शील की डूंगरी नामक पहाड़ी पर महाराजा माधोसिंह द्वितीय द्वारा निर्मित मंदिर। शीतला माता खण्डित अवस्था में पूजी जाने वाली एकमात्र देवी है। शीतलाष्टमी को यहाँ विशाल मेला भरता है।

– देवयानी (सांभर, जयपुर) : पौराणिक तीर्थ। यहाँ वैशाख पूर्णिमा को विशाल स्नान पर्व का आयोजन होता है।

– इंदिरा गांधी मंदिर : अचरोल (जयपुर) में।

दौसा

– पंचमहादेव : यहाँ नीलकण्ठ, बेजड़नाथ, गुप्तेश्वर, सहजनाथ व सोमनाथ के मंदिर स्थित है।

– मेहन्दीपुर बालाजी : आगरा-जयपुर राजमार्ग पर स्थित बालाजी के इस मंदिर में स्थापित मूर्ति पर्वत का ही एक अंग है। इस मूर्ति के बायीं ओर एक पतली जलधारा निरन्तर बहती रहती है। ऐसी मान्यता है इस मंदिर की मूर्ति भूधराकार है यानि प्रकृति निर्मित है। मूर्ति के चरणों में स्थित छोटी सी कुण्डी का जल कभी नहीं सूखता। भूत-प्रेत पीड़ा से पीड़ित नर-नारियों का यहाँ हर वर्ष तांता लगा रहता हैं।

– आभानेरी (दौसा) : पंचायतन शैली में निर्मित हर्षद माता के मंदिर के लिए आभानेरी (दौसा) प्रसिद्ध है। यह मंदिर गुर्जर प्रतिहार काल का उत्कृष्ट नमूना है। यह मूलत: विष्णु भगवान का मंदिर है, जिसमें चतुर्व्यूह विष्णु भगवान की मूर्ति एवं कृष्ण-रुकमणि के पुत्र प्रद्युम्न की मूर्ति स्थापित है।

– झाझेश्वर महादेव मंदिर (दौसा) : इस मंदिर में एक ही जलहरी में 121 महादेव हैं। यहां निर्मित गौमुख से सर्दियों में गरम पानी तथा गर्मियों में ठण्डा पानी बहता है।

– नाथ सम्प्रदाय का गुरुद्वारा : हींगवा (दौसा)।

सीकर

– खाटूश्यामजी : सीकर से लगभग 65 किमी. दूर दांतारामगढ़ तहसील के खाटू ग्राम में श्यामजी (कृष्णजी) का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसकी नींव अभयसिंह (अजमेर राजा अजीतसिंह के पुत्र) द्वारा रखी गई। यहाँ फाल्गुन व कार्तिक माह में विशाल मेला लगता है। खाटूश्यामजी में महाभारत कालीन यौद्धा बर्बरीक का मंदिर है। यह ‘शीश के दानी’ के नाम से भी प्रसिद्ध है।

– हर्ष महादेव का मंदिर : सीकर से 14 किमी. दक्षिण में हर्षगिरी की पहाड़ियों में हर्ष महादेव का मंदिर स्थित है। इस शिखरयुक्त मंदिर के गर्भगृह में विशाल एवं भव्य सफेद मकराने के संगमरमर का 10वीं सदी का शिवलिंग स्थापित है। इस लिंगोद्भव मूर्ति में ब्रह्मा व विष्णु को शिवलिंग का आदि व अंत जानने हेतु परिक्रमा करते हुए दिखाया गया है। यह मंदिर 973 ई. में विग्रहराज द्वितीय के काल में निर्मित करवाया गया।

– जीणमाता का मंदिर : यह ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल गोरियाँ रेल्वे स्टेशन से लगभग 4 किमी. दूर रैवासा गाँव में तीन पहाड़ियों के मध्य स्थित है। जीणमाता के मंदिर में चैत्र और आश्विन माह के नवरात्रों में दो विशाल मेले लगते हैं। यहाँ लोग विवाह की जात देने, बच्चों के मुण्डन करवाने तथा अन्य मनौतियों के लिए आते हैं। यहाँ कनफड़ा जोगी जीणमाता का गीत गाते हैं। जीणमाता को भंवरों वाली देवी के रूप में जाना जाता है।

– रैवासा धाम : यहाँ निर्मित सप्त गौमाता मंदिर राजस्थान का पहला एवं भारत का चौथा मंदिर है। इसके अलावा यहाँ काले पत्थर की आकर्षक मूर्ति से प्रतिष्ठित 700 वर्ष पुराना श्रीकृष्ण मंदिर, पुराने जैन मंदिर आदि मिले हैं।

– सिकराय माता मंदिर : सीकर में। सिकराय माता को सनकारी माता भी कहा जाता है।

अलवर

नारायणी माता का मंदिर : राजगढ़ तहसील में बरवा डूँगरी की तलहटी में स्थित इस स्थल पर नाइयों की कुल देवी नारायणी माता का मंदिर स्थित है। प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ला एकादशी को यहाँ नारायणी माता का मेला भरता है।

– रथ यात्रा : पुरी की तरह अलवर में प्रति वर्ष बढ़लिया नवमी को आयोजित होने वाली इस रथयात्रा में सजे-धजे इन्द्रविमान रथ पर जगन्नाथजी की प्रतिमा को पूरे लवाजमे के साथ रूपवास मंदिर ले जाया जाता है। यहाँ एकादशी को वरमाला उत्सव आयोजित होता है।

– विजयमंदिर : अलवर से 11 किमी. दूर स्थित इस भव्य राजप्रसाद का निर्माण अलवर के तत्कालीन महाराज जयसिंह ने 1917-18 में करवाया।

– भर्तृहरि मंदिर : सरिस्का (अलवर) में उज्जैन के राजा एवं महान योगी भर्तृहरि की तपोस्थली है जहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद और वैशाख माह में मेला लगता है जिसे कनफटे साधुओं का कुंभ कहा जाता है। यह नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल है।

– पांडुपोल हनुमान जी का मंदिर (अलवर) : इसे लेटे हुए हनुमानजी का मंदिर कहा जाता है। यहाँ भाद्रपद माह में विशाल मेला भरता है।

– नीलकण्ठ महादेव मंदिर (टहला, अलवर) : इस मंदिर में नृत्य करते हुए गणेशजी की मूर्ति स्थापित है। इस मंदिर का निर्माण गुर्जर प्रतिहार शासक अजयपाल ने करवाया था। इस मंदिर के गर्भगृह में काले रंग का नीलम धातु का बना शिवलिंग प्रतिष्ठित है।

– चंद्रप्रभु जैन मंदिर (तिजारा, अलवर) : यहाँ 8वें जैन तीर्थंकर भगवान चंद्रप्रभु का विशाल मंदिर है। देहरा नामक स्थल पर चंद्रप्रभु भगवान की प्रतिमा प्राप्त हुई थी।

झुंझुनूं

– रघुनाथजी चुंडावत मंदिर : खेतड़ी में स्थित इस प्रसिद्ध मंदिर में भगवान श्रीराम व लक्ष्मण की मूँछों वाली मूर्तियाँ स्थापित हैं। लगभग 150 वर्ष पूर्व इस मंदिर का निर्माण राजा बख्तावर सिंह की रानी चुंडावतजी ने करवाया था। यह खेतड़ी का सबसे बड़ा एवं प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर के अलावा पूरे भारत में किसी भी मंदिर में श्रीराम एवं लक्ष्मण की मूँछों वाली मूर्तियाँ स्थापित नहीं है।

– राणी सती का मंदिर :- राणी सती का वास्तविक नाम नारायणी (अग्रवाल जाति) था। अत: इस मंदिर को नारायणीबाई का मंदिर भी कहा जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा अमावस्या को मेला भरता था लेकिन वर्तमान में सरकार द्वारा इस मेले पर रोक लगा दी गई। यह चण्डिका के रूप में पूजी जाती है।

– मनसा माता का मंदिर : झुंझुनूं में स्थित है।

– लाेहार्गल झुंझुनूं :- मालकेतु पर्वत की शंखाकार घाटी में स्थित प्रसिद्ध तीर्थ। इस तीर्थ की चौबीस कौसी परिक्रमा प्रसिद्ध है जो भाद्रपद कृष्ण नवमी से प्रारम्भ होकर भाद्रपद अमावस्या को समाप्त होती है।

भरतपुर

– लक्ष्मण मंदिर : भरतपुर शहर के मध्य स्थित भारत में लक्ष्मण जी का एकमात्र मंदिर जिसका निर्माण महाराजा बलदेवसिंह ने करवाया। इस मंदिर की भव्य इमारत सफेद पत्थर के आकर्षक बेलबूटे युक्त पच्चीकारी से बनी है। श्री लक्ष्मण जी भरतपुर के जाट राजवंश के कुलदेवता है।

– गंगामंदिर : भरतपुर शहर के मध्य स्थित यह एक कलात्मक देवालय है। लाल रंग के पत्थरों से निर्मित इस मंदिर की दो मंजिला इमारत 84 खम्भों पर टिकी हुई है। इसका शिलान्यास महाराजा बलवंतसिंह ने 1846 में किया था, जिसका निर्माण कार्य 90 वर्ष तक चलता रहा। इसमें 12 फरवरी, 1937 को महाराज ब्रजेन्द्र सिंह ने गंगा की मूर्ति प्रतिष्ठित करवाई। इस मंदिर में गंगामैया के वाहन मगरमच्छ की विशाल मूर्ति भी विराजमान है।

– उषा मंदिर : लाल पत्थरों के विशाल स्तम्भों पर खड़े इस मंदिर की स्थापना बाणासुर ने करवायी थी। प्रेमाख्यान पर आधारित इस मंदिर का जीर्णोद्वार शासक लक्ष्मण सेन की रानी चित्रलेखा व पुत्री मंगलाराज ने 936 ई. में करवाया।

– गोकुलचंद्र मंदिर (कामां, भरतपुर) : यह पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का प्रसिद्ध मंदिर है।

– ढंढार वाले हनुमानजी का मंदिर : रुदावल कस्बे में ककुन्द नदी के किनारे स्थित।

सवाई माधोपुर

– काला-गोरा भैरव मंदिर : पहाड़ी पर स्थित 9 मंजिला आकर्षक मंदिर। इस मंदिर को झूलता हुआ भैरू मंदिर कहा जाता है।

– चमत्कारजी का मंदिर : आलनपुर में भगवान ऋषभदेव की चमत्कारी प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध मंदिर।

– त्रिनेत्र गणेश मंदिर : रणथम्भौर दुर्ग में स्थित। यहाँ पर स्थित गणेश जी विश्व में एकमात्र त्रिनेत्र गणेशजी है। भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी को यहाँ विशाल मेला भरता है जो संभवत: देश का सबसे प्राचीन मेला है। जनमान्यता है कि विवाह एंव माँगलिक अवसर पर कार्यों को प्रारम्भ करने से पूर्व गणेशजी को निमंत्रण दिया जाता है।

– घुश्मेश्वर महादेव मंदिर (शिवाड़, सवाईमाधोपुर) : यहाँ भगवान शिव का 12वाँ एवं अन्तिम ज्योर्तिलिंग अवस्थित है। मंदिर के गर्भगृह में स्थित शिवलिंग सदैव जल में डूबा रहता है तथा भक्तों को दर्शन सामने लगे काँच में से होता है। इस पवित्र मंदिर में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि को विशाल मेला आयोजित होता है।

– चौथ माता का मंदिर : चौथ का बरवाड़ा (सवाईमाधोपुर) में स्थित।

करौली

– श्री महावीर जी (करौली) : गम्भीर नदी के किनारे श्री महावीर जी (पूर्व में चंदनपुर) नामक स्थल पर प्रतिवर्ष (महावीर जयन्ती) चैत्र शुक्ला तेरस से बैशाख कृष्णा प्रतिपदा (मार्च-अप्रैल) तक विशाल लक्खी मेला लगता है। यह मंदिर करौली के लाल पत्थर और संगमरमर के योग से चतुष्कोण आकार में निर्मित है। दिगम्बर और श्वेताम्बर समान रूप से यहाँ पूजा-अर्चना करते हैं। मेले का मुख्य आकर्षण जिनेद्र रथ यात्रा है जो मुख्य मंदिर से प्रारम्भ होकर गंभीरी नदी के तट तक जाती है। स्वर्ण आभा से सुशोभित भव्य रथ पर विराजित प्रतिमा का अभिषेक पीतवस्त्रधारी भक्तजन करते हैं, जबकि शासन (राजा) के प्रतिनिधि स्वरूप क्षेत्रीय उपखंड अधिकारी रथ के सारथी बनते हैं।

– ज्ञातव्य है कि श्री महावीर जी जैन धर्म के लोगों का प्रमुख तीर्थ स्थल है। इनके अलावा मीणा एवं गुर्जर समुदाय के लोग भी इनकी पूजा करते हैं।

– कैलादेवी मंदिर : करौली से 25 किमी. दूर त्रिकूट पर्वत पर कालीसिल नदी के किनारे स्थित कैलादेवी का श्वेत संगमरमर से बना आकर्षक मंदिर राजपूत वास्तुकला का अनुपम नमूना है।

– इसमें कैलादेवी की मूर्ति केदारगिरी द्वारा यहाँ स्थापित (1114) की गई। कालान्तर में खींची राजा मुकुन्ददास, यादव राजा गोपाल सिंह एवं भँवरपाल सिंह द्वारा इस मंदिर में अनेक भवनों का निर्माण करवाया।

– इस मंदिर के ठीक सामने ही लांगुरिया भक्त का मंदिर है। लांगुरियों के बारे में कहा जाता है कि यह भैरव का अवतार है और देवी का परम भक्त है। लोकमान्यता है कि लांगुरिया को रिझाए बिना देवी प्रसन्न नहीं होती। इसलिए करौली क्षेत्र की कुलदेवी कैला देवी की आराधना में लांगुरिया गीत गाते हुए जोगनिया नृत्य कर उसे रिझाने का प्रयास करती है। इस मंदिर के सामने बोहरा भक्त की छतरी है।

– यह चैत्र माह की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को 84 भोग के दर्शन के निमित्त विशाल मेला लगता है।

– मदनमोहन मंदिर (करौली) : 1748 ई. में महाराजा गोपालसिंह द्वारा निर्मित मंदिर। इस मंदिर में स्थापित मदनमोहन जी की मूर्ति महाराजा गोपालसिंह जयपुर से लाये थे। यह मंदिर माध्वी गौड़ीय सम्प्रदाय का मंदिर है।

– अंजनी माता का मंदिर : यहाँ अंजनी माता की हनुमानजी को स्तनपान कराती हुई भारत की एकमात्र मूर्ति है।

कोटा

– मथुराधीश मंदिर : पाटनपोल स्थित इस मंदिर का शुमार वल्लभ सम्प्रदाय की प्रमुख सात पीठों में से एक पीठ में होता है। इस मंदिर का निर्माता राजा शिवगण था। विक्रम संवत 1801 में कोटा नरेश दुर्जनशाल हाड़ा मथुराधीश की प्रतिमा को कोटा लाये। यह मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है।

– रंगबाड़ी : यहाँ महावीरजी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।

– जगमंदिर : महारानी बृज कँवर द्वारा 1740 में किशोर सागर झील में निर्मित मंदिर।

– बूढ़ादीत का सूर्य मंदिर : दीगोद से 14 किमी. दूर स्थित पंचायतन शैली का मंदिर जो 9वीं शताब्दी का माना जाता है।

– कंसुआ शिव मंदिर : 8वीं सदी का शिव मंदिर जिसके गर्भगृह में काले पत्थर का चतुर्भुज शिवलिंग है। यहाँ स्थित मंदिर में भैरव की आदमकद मूर्ति विराजमान है। यहाँ 8वीं शताब्दी की कुटिल लिपि में शिवगण मौर्य का शिलालेख है।

– गेपरनाथ महादेव मंदिर : रथकांकरा में जमीन की सतह से लगभग 300 फुट नीचे गर्भ में स्थित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि मंदिर में स्थित शिवलिंग पर सदैव एक जलधारा बहती रहती है।

विभीषण मंदिर : कैथून (कोटा) में स्थित यह मंदिर भारत का एकमात्र विभीषण मंदिर है। इसका निर्माण तीसरी सदी से पाँचवी सदी के मध्य माना जाता है। इस मंदिर के गर्भगृह में स्थापित मूर्ति की विशेषता यह है कि इस मूर्ति का धड़ नहीं है।

– चार चौमा शिवालय : कोटा में स्थित यह शिवालय गुप्तकालीन शिव मंदिर है। यह कोटा राज्य का सबसे प्राचीन शिवालय माना जाता है। (चौथी-पाँचवी सदी में निर्मित)

– खटुम्बरा शिव मंदिर : कोटा में स्थित यह मंदिर उड़ीसा के मंदिरों से साम्यता रखता है।

– भीमचौरी का मंदिर : दर्रा (कोटा) में स्थित यह मंदिर राजस्थान में ज्ञात गुप्तकालीन मंदिरों में प्राचीनतम है।

– करणेश्वर महादेव मंदिर : कनवास (सांगोद, कोटा) में स्थित।

बून्दी

– कंवलेश्वर/कपालीश्वर महादेव मंदिर : इन्द्रगढ़ से 7 किमी. दूर चाखन नदी के किनारे स्थित इस मध्यकालीन मंदिर का निर्माण रणथम्भौर के चौहान शासक हम्मीर के पिता जैत्रसिंह के राज्य काल में कराया गया।

– केशवरायजी मंदिर, केशवरायपाटन : यह मंदिर चम्बल नदी के तट पर निर्मित है, जो भगवान विष्णु का मंदिर है। इसका विवरण स्कन्धपुराण, पदमपुराण और वायुपुराण में भी मिलता है। इस मंदिर का निर्माण 1601 ई. में बूँदी के राजा शत्रुसाल ने करवाया। यहाँ के अन्य मंदिरों में पाण्डवों की यज्ञशाला, पाण्डवों की गुफा, प्राचीन जैन मंदिर, हनुमान मंदिर, पंचशिवलिंग एवं अंजनी माता का मंदिर है।

– बीजासण माता का मंदिर : इन्द्रगढ़ (बूँदी) में स्थित।

– रक्त दंतिका माता का मंदिर : सतूर (बूँदी) में स्थित।

– लड़केश्वर महादेव का मंदिर : बूँदी में स्थित।

– खटकड महादेव मंदिर : नैनवा (बूँदी) में स्थित।

बारां

– लक्ष्मीनारायण का मंदिर (तेली का मंदिर) : मांगरोल तहसील के श्रीनाल गाँव  में स्थित प्रसिद्ध मंदिर। इस शिखर बंध मंदिर के तोरण द्वार पर हाथी बने हुए है।

– ब्रह्माणी माता का मंदिर : बारां से लगभग 20 किमी. दूर सोरसण गाँव के समीप स्थित एक प्राचीन मंदिर। यह एकमात्र मंदिर है जिसमें देवी की पीठ का शृंगार तथा पूजा की जाती है।

– इस मंदिर में विगत 400 वर्ष़ों से अखण्ड ज्योति जल रही है। चारों ओर ऊंचे परकोटे से घिरे इस मन्दिर को शैलाश्रय मन्दिर गुफा या मंदिर भी कहा जाता है।

– यहाँ माघ शुक्ला सप्तमी को लगने वाला ब्रह्माणी माता का मेला हाड़ौती क्षेत्र का एकमात्र गधों का मेला है।

– भंडदेवरा शिव मंदिर : खजुराहो शैली में 10वीं सदी में मेदवंशीय राजा मलय वर्मा द्वारा निर्मित शिव मंदिर। इस मंदिर का जीर्णोद्धार राजा त्रिशावर्मन द्वारा करवाया गया। यह मंदिर पंचायतन शैली का उत्कृष्ट नमूना है। इसे हाड़ौती का खजुराहो एवं राजस्थान का मिनी खजुराहो भी कहा जाता है।

– काकूनी मंदिर समूह : बारां जिले की छीपाबड़ौद तहसील में मुकुन्दरा की पहाड़ियों में परवन नदी के किनारे स्थित 108 मंदिरों की शृंखला। यह शैव, वैष्णव एवं जैन मंदिर 8वीं सदी के बने हुए हैं।

– फूल देवरा का शिवालय : अटरू (बारां) में स्थित शिवालय। इस शिवालय के निर्माण में चूने का प्रयोग नहीं किया गया है। इस मंदिर को मामा-भान्जा का मंदिर भी कहा जाता है।

– गड़गच्च देवालय : अटरू (बारां) में 10वीं सदी में निर्मित शिव मंदिर। इस मंदिर को मुगल शासक औरंगजेब ने तोपों से तुड़वा दिया।

– श्री कल्याणजी का मंदिर : इसे श्रीजी का मंदिर भी कहा जाता है। इस मंदिर का निर्माण बूँदी की राजमाता राजकुंवर बाई ने करवाया था।

– जोड़ला मंदिर : बारां में स्थित है।

झालावाड़

– झालरापाटन का सूर्य मंदिर : यह 10वीं सदी का भव्य पद्मनाथ/सूर्य मंदिर है जिसे सात सहेलियों का मंदिर भी कहते हैं। खजुराहो मंदिर शैली में बना यह मंदिर अपनी भव्यता और सुन्दर कारीगरी के कारण प्रसिद्ध है। कर्नल टॉड ने इसे चारभुजा मंदिर कहा है। इस मंदिर में पृष्ठभाग में बनी सूर्य की मूर्ति घुटनों तक जूते पहने हुए है। मंदिर के गर्भगृह में काले रंग के पथर की आदमकद दिगम्बर जैन प्रतिमा है। इस पूरे मंदिर में सूर्य और विष्णु के सम्मिलित भाव की एक ही प्रतिमा मंडोवर के पीछे की मुख्य रथिका में है। मूल रूप से 10वीं शताब्दी में बने इस मंदिर का 16वीं शताब्दी में जीर्णोद्धार हुआ था। 18वीं शताब्दी में यहाँ छतरिया बनी। सम्पूर्ण हाड़ौती क्षेत्र में इतना विशाल एवं सुन्दर उत्कीर्ण स्तम्भों वाला ऐसा मंदिर अन्यत्र नहीं है। झालरापाटन के सूर्य मंदिर एवं शांतिनाथ जैन मंदिर, कच्छपघात शैली (जिन मंदिरों में विशालकाय शिखर, मेरू मण्डावर, स्तम्भों पर घटपल्लवों का अंकन, पंचशाखा द्वार जिनमें से एक सर्पो द्वारा वेष्टित हुआ हों, आदि हो, उन मंदिरों को कच्छपघात शैली का माना जाता है) के है।

– शीतलेश्वर महादेव का मंदिर : इसका मूल नाम चन्द्रमौली मंदिर था। यह राजस्थान का पहला समयांकित मंदिर है जो 689 ई. में महामारू शैली में निर्मित है। इस मंदिर का निर्माण राजा दुर्ग्गण के सामन्त वाप्पक ने विक्रम संवत 746 ई. में करवाया था। इस शैली का प्रभाव 8वीं से 10वीं शताब्दी के बीच बने हिन्दू और जैन मंदिरों में देखा जा सकता है।

– चन्द्रावती : चन्द्रभागा नदी के किनारे स्थित वैभवशाली मंदिरों (शीतलेश्वर महादेव, काली देवी, शिव, विष्णु और वराह मंदिर) के लिए प्रसिद्ध स्थल। इस नगर का निर्माण मालवा के राजा चन्द्रसेन द्वारा करवाया गया। यहाँ हाल ही में 11-12वीं सदी के अनेक मंदिरों के ध्वस्त अवशेष मिले हैं।

– नागेश्वर पार्श्वनाथ मंदिर : उन्हेल गाँव में स्थित मंदिर जिसमें अढ़ाई हजार साल पुरानी ग्रेनाइट सैन्डी स्टोन से निर्मित प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

– आदिनाथ दिगम्बर जैन मंदिर : चाँदखेड़ी (झालावाड़) में स्थित।

– बौद्धकालीन गुफाएँ : कोलवी (झालावाड़) में।

अजमेर

– ब्रह्माजी का मंदिर : चतुर्मुखी मूर्ति जिसमें ब्रह्माजी पालती मारकर विराजमान है। केन्द्र सरकार के भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने जगत पिता ब्रह्मा मंदिर को राष्ट्रीय महत्व का स्मारक घोषित किया है। इस मंदिर को वर्तमान स्वरूप गोकलचन्द पारीक द्वारा 1809 ई. में दिया गया।

– सावित्री का मंदिर : ब्रह्मा जी की पत्नी सावित्री जी का यह मंदिर सम्पूर्ण भारत में एकमात्र इसी स्थान पर स्थित है। यहाँ सावित्री जी के चरण और उनकी पुत्री सरस्वती जी की मूर्ति प्रतिष्ठित है। इसका निर्माण गोकलचन्द पारीक द्वारा किया गया।

– रंगनाथजी : दक्षिण भारतीय शैली में बना राजस्थान का सबसे बड़ा विष्णु मंदिर। यह मंदिर भगवान विष्णु, लक्ष्मी एवं नृसिंह की मूर्तियों से मंडित है। इस मंदिर का निर्माण 1844 ई. में सेठ पूरणमल ने करवाया।

– वराह मंदिर : इसका निर्माण अर्णोराज ने (1123-50) करवाया। इस मंदिर का जीर्णोद्धार महाराणा प्रताप के भाई सागर ने करवाया।

– काचरिया मंदिर : किशनगढ़ (अजमेर) में स्थित इस मंदिर में राधाकृष्ण का स्वरूप विराजमान है। कृष्ण का विग्रह अष्ट धातु निर्मित घनश्याम वर्ण का है। वहीं राधारानी का विग्रह पीतल का है। मंदिर में भगवान की सेवा निम्बार्क पद्धति से की जाती है।

– सोनीजी की नसियाँ : सेठ मूलचंदजी सोनी द्वारा 1864 ई. में इसका निर्माण प्रारम्भ किया गया, जो सेठ टीकमचंद सोनी के समय बनकर तैयार हुआ। यह जैन सम्प्रदाय का प्रसिद्ध मंदिर है, जिसमें प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की मूर्ति है। इसे सिद्धकूट चैत्यालय भी कहा जाता है। यह लाल मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

– नारेली तीर्थ : अजमेर में मदार के पास स्थित दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र।

– नवग्रह मंदिर : किशनगढ़ (अजमेर) में स्थित।

– सलेमाबाद : निम्बार्क सम्प्रदाय की प्रधान पीठ।

– रमा बैकुण्ठ मन्दिर : पुष्कर झील के निकट स्थित रामानुज सम्प्रदाय का विशाल मंदिर है।

– कल्पवृक्ष मंदिर : मांगलियावास (अजमेर)।

– आनंडी माता का मंदिर : नोसल (किशनगढ़) में स्थित।

– पीपलाज माता का मंदिर : ब्यावर (अजमेर) में स्थित।

– पातालेश्वर महादेव मंदिर : पुष्कर (अजमेर) में स्थित।

नागौर

– ब्रह्माणी माता का मंदिर : नागौर में प्राचीन ब्रह्माणी माता का मंदिर स्थित है। इसे बरमायां व योगिनी का मंदिर कहा जाता है।

– दधिमति माता का मंदिर : गोठ मांगलोद में स्थित दाधीच ब्राह्मण समाज के लोगों की पूज्य देवी का मंदिर। यह मंदिर महामारू शैली में 7वीं से 9वीं शताब्दी पूर्वार्द्ध में निर्मित है। प्रतिहार कालीन मंदिरों में रामकथा के दृश्यों का अंकन केवल इसी मंदिर में हुआ है। यहाँ नवरात्रा में भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। इसे गोठ मांगलोद मंदिर भी कहते हैं।

– चारभुजा मंदिर : मेड़ता स्थित मीराबाई का प्रसिद्ध मंदिर जिसका निर्माण मीराबाई के पितामह राव दूदा द्वारा करवाया गया। यहाँ श्रावणी एकादशी से पूर्णिमा तक झूलोत्सव मेला आयोजित किया जाता है। इस मंदिर को मीराबाई का मंदिर भी कहा जाता है।

– गुसाई मंदिर : जुंजाला में स्थित यह मंदिर गुस्से वाले अवतार-गुसाईजी का पावन स्थल है। इस मंदिर के गर्भगृह में शिला पर अंकित पर चिह्न की आराध्य बिन्दु है। यह पदचिन्ह राजा बलि व वामनावतार की कथा कहता है।

– यहाँ मालदेव ने मालकोट का किला बनवाया था।

कैवाय माता का मंदिर : किणसरिया (परबतसर, नागौर) में पर्वत शिखर पर निर्मित प्राचीन मंदिर।

पाडा माता का मंदिर : डीडवाना झील के निकट स्थित मंदिर। इस मंदिर को सरकी माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

भंवाल माता का मंदिर : मेड़ता से 20 किमी. दूर भंवाल गाँव में स्थित। इस शक्ति पीठ में चामुण्डा एवं महिषमर्दिनी के स्वरूपों की पूजा की जाती है।

तेजाजी मंदिर : खरनाल (नागौर) में स्थित। यहाँ भाद्रपद माह में मेला भरता है।

– जैन विश्व भारती : लाडनूं (नागौर) में स्थित यह स्थल जैन दर्शन के अध्ययन, जैन संस्कृति के प्रशिक्षण, अभिव्यक्ति एवं साधना का प्रमुख केन्द्र है। यह आचार्य श्री तुलसी की प्रेरणा से सन् 1970 में स्थापित किया गया। यह एक डीम्ड यूनिवर्सिटी है।

टोंक

– डिग्गी कल्याणजी : टोंक जिले में मालपुरा तहसील में डिग्गी नामक स्थान पर डिग्गी कल्याणजी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। जिसका निर्माण मेवाड़ के राणा संग्राम सिंह के राज्यकाल में संवत् 1584 के ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष में हुआ। यहाँ विष्णु की चतुर्भुज प्रतिमा है। मुस्लिम इसे कलंह पीर के नाम पुकारते हैं। डिग्गी के बैशाख की पूर्णिमा, भाद्रपद शुक्ला की एकादशी तथा श्रावण की अमावस्या को विशाल मेला लगता है। डिग्गी के भगवान कल्याणजी विष्णु के अवतार माने जाते हैं। कुष्ठ रोग से छुटकारा पाने के लिए इनकी विशेष मान्यता है। जयपुर के ताड़केश्वर मंदिर से प्रतिवर्ष लक्खी पद यात्रा डिग्गी कल्याणजी के मंदिर तक जाती है। ध्यातव्य है कि कल्याणजी का एक मंदिर जयपुर में भी बना हुआ है।

– देवधाम, जोधपुरिया :  गुर्जर समाज का सबसे बड़ा यह पौराणिक तीर्थस्थल मासी, बांडी एवं खोराक्सी तीन नदियों के संगम पर स्थित है। यहाँ भगवान देवनारायण का मंदिर भी स्थित है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में भगवान देवनारायण की प्रतिमा नीले घोड़े पर सवार है। इसके दक्षिण में इनकी माता सेडू का मंदिर है। यहाँ भाद्रपद शुक्ला षष्ठी एवं माघ शुक्ला सप्तमी में मेले आयोजित किये जाते हैं। इस मेले में श्रद्धालु विशेषतः भगवान श्री देवनारायण के दर्शन करने व मंदिर के भोपे द्वारा नृतक मुद्रा में हाथ में थाली पर बनाये जाने वाले कमल पुष्प आकृति मंचन को देखने आते हैं।

– अन्नपूर्णा डूँगरी : टोंक से 3 किमी. दूरी पर 400 फीट ऊंची पहाड़ी पर भगवान श्री गणेश का विख्यात मंदिर है। प्राचीनकाल में इसी पहाड़ी पर फाँसी घर भी था।

– गुणाद माता : मालपुरा के पास स्थित धोली का खेड़ा ग्राम से 1 किमी. दूर स्थित पहाड़ी की तलहटी में यह रमणीय स्थान लोक आस्था का केन्द्र है।

– दाताजी मंदिर : टोडारायसिंह के पास दाताजी ग्राम में स्थित भगवान देवनारायण का मंदिर जन मन की आस्था का केन्द्र ही नहीं है, अपितु ऐतिहासिक व सर्वधर्म समभाव की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। ये भडाना गौत्र के गुर्जरों के द्वारा पूजा जाता है।

– टोंक के अन्य मंदिरों में कंकाली मंदिर, तेलियों का मंदिर, महिषासुर मर्दिनी का मंदिर, माण्डकला के 16 प्राचीन मंदिर प्रमुख हैं।

भीलवाड़ा

– तिलस्वां महादेव का मंदिर : माण्डलगढ़ से लगभग 40 किमी. दूर स्थित तिलस्वां महादेव के इस मंदिर पर प्रतिवर्ष शिवरात्रि को विशाल मेला लगता है। चर्म रोग एवं कुष्ठ रोग से पीड़ित व्यक्ति यहाँ स्वास्थ्य लाभ हेतु आते हैं।

– यहाँ 12वीं सदी का प्रसिद्ध मंदाकिनी मंदिर स्थित है।

– सवाई भोज मंदिर : आसींद (भीलवाड़ा) में स्थित है। यह गुर्जर समाज का प्रमुख तीर्थ स्थल है। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद माह में विशाल पशु मेला भरता है। राजस्थान में देवनारायणजी के चार प्रमुख मंदिर हैं – 1. गोठा दड़ावताँ (आसीन्द) 2. देवधाम जोधपुरिया (टोंक) 3. देवमाली (अजमेर) 4. देव डूंगरी (चित्तौड़गढ़)।

– धनोप माता का मंदिर : धनोप गाँव (भीलवाड़ा) में स्थित है। धनोप माता राजा धुंध की कुलदेवी है। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्रसुदी एकम से चैत्रसुदी 10वीं तक मेला भरता है।

– हरणी महादेव मंदिर : भीलवाड़ा से 6 किमी. दूर स्थित इस मंदिर में महाशिवरात्रि को विशाल मेला भरता है।

– मंदाकिनी मंदिर : बिजौलिया में स्थित है।

– बाईसा महारानी मंदिर : गंगापुर (भीलवाड़ा) में ग्वालियर के महाराजा महादजी सिंधिया की महारानी गंगाबाई का प्रसिद्ध मंदिर है।

बीकानेर

– भांडासर जैन मंदिर : सैंकड़ों मन देशी घी की नींव पर बना यह कलात्मक मंदिर 5वें जैन तीर्थंकर भगवान सुमतिनाथजी का है। यह मंदिर घी वाला मंदिर के नाम से जाना जाता है।

– इसके निर्माता शाह भांडा थे जिन्होंने संवत् 1468 में इसका निर्माण करवाया। मंदिर के केन्द्र में सुमतिनाथजी की श्वेत धवल-संगमरमर की आदमकद मूर्ति स्थापित है जिसके चारों ओर काँच का सुन्दर काम किया हुआ है। इस मंदिर को त्रिलोक दीपक प्रसाद मंदिर भी कहा जाता है।

– भंडेश्वर-संडेश्वर मंदिर : 14वीं सदी में दो जैन भाइयों द्वारा बनाये गये जैन मंदिर। इनमें कांच का सुन्दर काम एवं सुनहरी पेंटिग दर्शनीय है।

– कोडमदेसर : यहाँ भैंरूजी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है।

– करणी माता का मंदिर : देशनोक (बीकानेर) में स्थित है। करणी माता मंदिर को चूहों का मंदिर भी कहा जाता है। करणी माता बीकानेर के राठौड़ों की कुलदेवी है। करणी माता के मंदिर में पाए जाने वाले सफेद चूहों को ‘काबा’ कहा जाता है। इस मंदिर के पुजारी केवल चारण जाति के ही होते हैं।

– कपिल मुनि का मंदिर : कोलायत (बीकानेर) में सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि का मंदिर है। इस मंदिर के निकट स्थित सरोवर के किनारे 52 घाट और 5 मंदिर निर्मित हैं। यहाँ कार्तिक पूर्णिमा को विशाल मेला भरता है जिसमें कोलायत झील में दीपदान का कार्यक्रम देखने लायक होता है। यह जांगल प्रदेश का सबसे बड़ा मेला है।

– हेरम्ब गणपति मंदिर : बीकानेर के जूनागढ़ दुर्ग में 33 करोड़ देवताओं का मंदिर स्थित है, जिसमें दुर्लभ हेरम्ब गणपति मंदिर प्रमुख है। इस मंदिर की विलक्षण बात यह है कि इसमें गणपति चूहे पर सवार न होकर सिंह पर सवार है। इस मंदिर का निर्माण बीकानेर शासक अनूपसिंह ने करवाया।

– अंता देवी का मंदिर : इस मंदिर में ऊंट पर आरूढ़ देवी की प्रतिमा है।

– सूसानी देवी का मंदिर : मोरखाणा में स्थित जैन मंदिर। यह मंदिर केन्द्र सरकार द्वारा संरक्षित स्मारक है।

– लक्ष्मीनारायण मंदिर : राव लूणकरण द्वारा निर्मित मंदिर। इस मंदिर में विष्णु जी एवं लक्ष्मी जी की मूर्ति स्थापित है।

– बीकानेर के अन्य मंदिरों में नेमीनाथ का मंदिर, धूनीनाथ का मंदिर, रसिक शिरोमणि का मंदिर, सुनारी माता का मंदिर व सांडेश्वर मंदिर आदि प्रमुख हैं।

चूरू

– स्यानण का मंदिर : रतनगढ़-सालासर मार्ग के पूर्व में लगभग 300 मीटर ऊँची पहाड़ी पर स्यानण की डूंगरी पर स्थित प्रसिद्ध काली माता का मंदिर।

– सालासर बालाजी मंदिर : मोहनदास जी नामक किसान द्वारा सुजानगढ़ तहसील में सालासर नामक स्थान पर स्थापित हनुमानजी का प्रसिद्ध मंदिर। इनको 1757 ई. में आसोटा ग्राम के खेत में हल चलाते समय बालाजी की मूर्ति प्राप्त हुई। यहाँ स्थित हनुमान मूर्ति में केवल शीश की पूजा की जाती है।

– दाढ़ी-मूंछ युक्त यह हनुमान विग्रह विशेष दर्शनीय है। दाढ़ी में एक भव्य हीरा चमकता है। यह स्थान सिद्ध हनुमत पीठ माना जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष दो मेले लगते हैं जिनमें दूर-दर से हजारों लोग मनौती मांगने आते हैं।

– सालासर बालाजी के मंदिर का आरम्भिक निर्माण कार्य 2 मुस्लिम कारीगरों नूरा और दाउद ने किया।

– वैंकटेश्वर (तिरूपति बालाजी) मंदिर : सुजानगढ़ में वैंकटेश्वर फाउण्डेशन ट्रस्ट के श्री सोहन लाल जानोदिया द्वारा 2 करोड़ रुपये की लागत से 1994 में निर्मित मंदिर। दक्षिण भारत के मंदिरों की स्थापत्य कला के विशेषज्ञ डॉ. एम. नागराज एवं वास्तुविद् डॉ. वैंकटाचार्य की देखरेख में इस मंदिर का निर्माण हुआ।

– गोगाजी का मंदिर : ददरेवा (चूरू) में स्थित। ददरेवा में गोगाजी का शीश आकर गिरा था इसी कारण इसे शीशमेड़ी कहा जाता है। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्णा नवमी को मेला भरता है।

श्रीगंगानगर

– गुरुद्वारा बुड्ढ़ाजोहड़ : सिक्खों का यह परम धार्मिक स्थल श्रीगंगानगर से 85 किमी. दूर द. पश्चिम में स्थित है।

– रायसिंहनगर के पास बुड्ढ़ा जोहड़ गाँव के पास स्थित राजस्थान का प्रसिद्ध गुरुद्वारा, पंजाब के अमृतसर में बने स्वर्ण मंदिर के बाद इसे गुरुद्वारे की मान्यता है।

– इसका निर्माण कार्य संत फतेहसिंह जी ने करवाया। इसका मुख्य द्वार संगमरमर का बना हुआ है।

– यहाँ एक छोटा सा पुस्तकालय भी है जिसमें सिक्ख शहीदों के चित्र सुरिक्षत है।

– यहीं हर माह की अमावस्या को बड़ा मेला लगता है। यह राजस्थान का सबसे विशाल गुरुद्वारा है।

– डाडा पम्पाराम का डेरा : श्रीगंगानगर जिले के विजयनगर में पम्पारामजी का समाधि स्थल है। यह सिक्ख सम्प्रदाय का धार्मिक स्थल है।

हनुमानगढ़

– गोगामेड़ी : हनुमानगढ़ जिले के नोहर तहसील में सर्पों के देवता के रूप में विख्यात गोगाजी के इस प्रमुख आराध्य मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण फीरोजशाह तुगलक ने करवाया। इसका वर्तमान रूप महाराजा गंगासिंह की देन है। गोगामेड़ी को ‘धुरमेड़ी’ कहा जाता है। गोगामेड़ी की बनावट मकबरे के समान है। यहाँ ‘बिस्मिल्लाह’ शब्द अंकित है। यहाँ भाद्रपद कृष्णा नवमी को विशाल मेला भरता है। इस मेले में सभी श्रद्धालु पीले वस्त्र पहनते हैं। यह स्थल साम्प्रदायिक सद्‌भाव एवं एकता की मिसाल है।

– भद्रकाली मंदिर : अमरपुरा थेहड़ी (हनुमानगढ़) में स्थित इस मंदिर की स्थापना बीकानेर के महाराजा रामसिंह ने की थी। इस मंदिर में चैत्रमास में मेला भरता है।

– सिलामाता का मंदिर : हनुमानगढ़ में प्राचीन सरस्वती नदी के प्रवाह क्षेत्र में स्थित मंदिर।

जोधपुर

– श्वेताम्बर जैन मंदिर: ओसवाल समाज की कुलदेवी सच्चिका माता का मंदिर तथा सूर्य मंदिर के अलावा यहाँ कुल 16 मंदिर है जिनका निर्माण 7वीं से 10वीं शताब्दी के मध्य में प्रतिहारों द्वारा करवाया गया।

– महामंदिर : नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ स्थल, जहाँ महाराज मानसिंह द्वारा 1812 में 84 खम्भें पर भव्य मंदिर का निर्माण करवाया गया।

– रावण का मंदिर : जोधपुर में उत्तरी भारत का पहला रावण मंदिर बनाया जा रहा है। रावण की पत्नी मंदोदरी जोधपुर की प्राचीन राजधानी मंडोर की रहने वाली थी।

– सच्चियाय माता मंदिर : ओसियां (जोधपुर) में 11वीं सदी में निर्मित मंदिर। सच्चियाय माता ओसवालों की कुलदेवी मानी जाती है। सच्चियाय माता का मंदिर महिष मर्दिनी की सजीव प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। ओसियां 8वीं सदी के बने गुर्जर प्रतिहार कालीन जैन एवं वैष्णव मंदिर समूह के लिए प्रसिद्ध है।

– 33 करोड़ देवी-देवताओं की साल : मण्डोर (जोधपुर) में स्थित है। इसे ‘Hall of Heroes’ और ‘वीरों की साल’ के नाम से जाना जाता है।

– अचलनाथ महादेव मंदिर : जोधपुर में स्थित अचलनाथ महादेव मंदिर का निर्माण मारवाड़ के राजा राव गंगा की रानी नानक देवी द्वारा 1531 ई. में करवाया गया था।

– तीजा मांगी मंदिर : जोधपुर में स्थित इस मंदिर का निर्माण मारवाड़ के राजा मानसिंह की रानी प्रताप कुँवरी द्वारा करवाया गया।

– ज्वालामुखी मंदिर : जोधपुर दुर्ग की पचेटिया पहाड़ी पर एक चट्टान को काटकर महिषासुर मर्दिनी की प्रतिमा बनाकर मंदिर का निर्माण करवाया।

सिरोही

– सारणेश्वर महादेव : सिरोही से लगभग 3 किमी. दूर देवड़ा राजकुल का 15वीं सदी का भव्य सारणेश्वर मंदिर स्थापित है। यह मंदिर दुर्ग के रूप में निर्मित है। महाराव लाबाजी की पटरानी अपूर्वादेवी ने 1526 में इस मंदिर में हनुमानजी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी। यहाँ रेबारी जाति को सबसे बड़ा मेला भाद्रपद शुक्ला द्वादशी को आयोजित होता है। इसके पास एक दुधिया तालाब स्थित है जिसके निकट सिरोही राजघराने की छतरियाँ हैं।

– मीरपुर का जैन मंदिर : सिरोही से लगभग 12 किमी. दूरी पर तीनों ओर से पहाड़ियों की गोद में स्थित इस मंदिर का निर्माण अशोक के पौत्र सम्प्रति ने करवाया। यह प्राकृतिक सौन्दर्य एवं शिल्प भव्यता के लिए प्रसिद्ध है।

– बामणवाडजी : सिरोही से 17 किमी. दूर स्थित इस मंदिर का निर्माण महावीर स्वामी काल में पूरणपाल नामक राजा ने करवाया। इसकी प्रतिष्ठा केशी नामक गणधर ने की।

– सायला : जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध स्थल।

– देरीसेरी : सिरोही के राजमहल के निकट स्थित 15 जैन मंदिरों का कतारबद्ध समूह।

– दिलवाड़ा जैन मंदिर : दिलवाड़ा (आबू) में पाँच जैन मंदिरों का समूह हैं जिनमें विमलवसही (आदिनाथ) एवं लूणवसही (नेमीनाथ) मंदिर स्थापत्य प्रमुख हैं। यह 11वीं से 13वीं सदी में नागर शैली में निर्मित सोलंकी कला के उत्कृष्ट मंदिर हैं। आबू पर्वत पर दिलवाड़ा मंदिर परिसर में पाँच श्वेताम्बर मंदिर एवं एक दिगम्बर जैन मंदिर है।

i. विमलवसही मंदिर (आदिनाथ)

ii. लूणवसही मंदिर (नेमीनाथ)

iii. पितलहर (भीमशाह) मंदिर

iv. पार्श्वनाथ जैन मंदिर

v. महावीर स्वामी जैन मंदिर

i. विमलवसही मंदिर (आदिनाथ मंदिर) : भगवान ऋषभदेव का मंदिर जिसे 1031 में चालुक्य राजा भीम के मंत्री विमलशाह ने निर्मित करवाया। आदिनाथ की पीतल की मूर्ति 48 स्तम्भों के मंडप में प्रतिष्ठित है। इस मंदिर का शिल्पी किर्तिधर था। मंदिर के केन्द्रीय कक्ष में आठ स्तम्भों पर टिकी गोलाकार छत की भव्य नक्काशी स्थापत्य का एक उत्कृष्ट नमूना हे। कर्नल टॉड ने कहा है कि- “भारतवर्ष के भवनों में ताजमहल के बाद यदि कोई भवन है तो वह विमलशाह का मंदिर।’’ ऋषभदेव काे समर्पित इस मंदिर के निर्माण के समय आबू पर परमार शासक राजा धंधुक का शासन था।

ii. लूणवसही (नेमीनाथ) मंदिर : चालुक्य राजा वीर धवल के महामंत्री तेजपाल व वास्तुपाल के शिल्पी शोभनदेव द्वारा (1230-31 ई. में) निर्मित दो मंदिर। मुख्य मंदिर के द्वार के दोनों ओर दो ताक हैं, जिन्हें देवरानी-जेठानी के गवाक्ष कहते हैं। इस मंदिर का निर्माण वास्तुपाल एवं तेजपाल ने अपने स्वर्गीय भाई लंूबा की याद में बनवाया था। यहाँ नेमीनाथ जी की काले पत्थर की प्रतिमा स्थापित की गयी है। इस मंदिर को देवरानी-जेठानी का मंदिर भी कहा जाता है। यह मंदिर 22वें जैन तीर्थंकर नेमीनाथ का है।

iii. पार्श्वनाथ जैन मंदिर : 15वीं सदी में मंडलीक द्वारा निर्मित तीन मंजिला मंदिर। इस मंदिर को चौमुखा पार्श्वनाथ मंदिर व सिलावटों का मंदिर भी कहा जाता है।

iv. महावीर स्वामी का मंदिर : हस्तीशाला के पास स्थित लघु मंदिर जिसकी दीवारों व गुम्बद में प्राचीन चित्रकारी विद्यमान है।

v. भामाशाह मंदिर : भामाशाह द्वारा निर्मित मंदिर। जैन तीर्थंकर आदिनाथ की 108 मण की पीतल प्रतिमा के कारण इस मंदिर को पितलहर भी कहते हैं।

– भगवान कुंथुनाथ का दिगम्बर जैन मंदिर (सिरोही) : यह मंदिर लूणवसही मंदिर के बाहर दायीं ओर स्थित है। सन् 1449 में महाराणा कुंभा ने इसको बनवाया था। यही दायीं ओर वृक्षों के झुरमुट में युगप्रधान दादा जिनदत्त सूरि की छतरी बनी हुई है। यह मंदिर दिगम्बर जैन मंदिर है जबकि दिलवाड़ा के अन्य जैन मंदिर श्वेताम्बर सम्प्रदाय के हैं।

– वशिष्ठ का मंदिर : सिरोही में बसंतगढ़ दुर्ग में स्थित मंदिर। यहाँ प्रसिद्ध अग्निकुण्ड स्थित है जिससे वशिष्ठ मुनि द्वारा चार राजपूत जातियों की उत्पत्ति करने का उल्लेख मिलता है।

– अर्बुदा/अधर/अम्बिका देवी का मंदिर : दुर्गा माता का 4250 फीट ऊँचा यह मंदिर विशाल शिला के नीचे गुफा में स्थित है, जिसमें प्रवेश के लिए नीचे बैठकर जाना पड़ता है। इसकी तलहटी में दूध बावड़ी नामक ऐतिहासिक स्थल स्थित है।

– अचलेश्वर महादेव का मंदिर : इसमें शिवलिंग के स्थान पर एक खड्ढ़ा बना हुआ है जो ब्रह्म खण्ड कहलाता है। इस मंदिर में शिवजी के पैर का अंगुठा है। मंदिर में राणा लाखा द्वारा अर्पित एक त्रिशुल भी स्थापित है। यहाँ शिव को समर्पित अचलेश्वर महादेव मंदिर में पीतल की बनी नंदी की सुंदर प्रतिमा है। इसके पास ही मन्दाकिनी कुण्ड है जिसका जल गंगा की तरह पवित्र है। कहा जाता है कि इसका जल कभी नहीं सूखता। इसके ऊपर जाने पर भृर्तहरि की गुफा मिलती है।

– जीरावला : रेवदर से 10 किमी. दूर स्थित गाँव जहाँ लगभग 2 हजार वर्ष पुराने जैन मंदिर है।

– बाजना गणेश का मंदिर : यहाँ 10-12 फुट की ऊंचाई से एक झरने का जल एक कुण्ड में गिरता है। इस झरने की आवाज के कारण यहाँ विराजमान गणेशजी बाजना गणेश कहलाते हैं।

– ऋषिकेश मंदिर : आबू के उमरणी गाँव में लगभग 7000 वर्ष पुराना भगवान विष्णु का मंदिर। इस मंदिर का प्रथम उल्लेख स्कन्द पुराण में मिलता है। राजा अमरीश द्वारा निर्मित इस मंदिर में भाद्रपद शुक्ल एकादशी को भव्य मेला भरता है।

– भूरिया बाबा का मंदिर : चौटीला ग्राम के पास सूकड़ी नदी के किनारे स्थित मंदिर। भूरिया बाबा मीणा समाज के आराध्य देव माने जाते हैं। इस मंदिर को गौतम ऋषि महादेव का मंदिर भी कहा जाता है।

– कुंवारी कन्या का मंदिर / रसिया बालम मंदिर : देलवाड़ा के दक्षिण में पर्वत की तलहटी में स्थित है। इस मंदिर में देव मूर्ति के स्थान पर दो पाषाण मूर्तियाँ स्थापित है। इन दोनों में से एक मूर्ति युवक क है जिसके हाथ में विष का प्याला है तथा दूसरी मूर्ति युवती की है। इस मंदिर को प्रेम प्रासंगिक मंदिर भी कहा जाता है।

– सिरोही के अन्य मंदिरों में क्षेमकरी मात का मंदिर (बसंतगढ़), मार्कण्डेश्वर मंदिर (अंजारी), भुवनेश्वर (डाडुआ), सूर्य मंदिर (वरमान), शिव मंदिर (कुसुमा) एवं भद्रकाली माता मंदिर प्रमुख हैं।

बाड़मेर

– किराडू : बाड़मेर में हाथमा गाँव के पास किराडू में ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक महत्व के पाँच मंदिर विद्यमान हैं, जिसमें चार मंदिर भगवान शिव को एवं एक मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है। यहाँ के मंदिरों में सबसे सुन्दर एवं अलंकृत मंदिर ‘सोमेश्वर मंदिर’ है। इस मंदिर में अलंकृत मूर्तियाँ सागर मंथन, रामायण एवं महाभारत से संबंधित दृश्य एवं श्रीकृष्ण की लीलाओं का जीवंत बखान करती हैं। सोमेश्वर मंदिर नागर शैली के मंदिर की परम्परा में शिव मंदिरों की श्रेणी में महामारू गुर्जर शैली की एक उच्च कोटि की बानगी है। यहाँ मिथुन मूर्तियों की भव्यता के कारण इसे ‘राजस्थान का खजुराहो’ भी कहा जाता है।

– विरात्रा माता का मंदिर : चौहटन से लगभग 10 किमी. दूर लाख एवं मुद्गल के वृक्षों के बीच रमणीय पहाड़ों की एक घाटी में स्थित भोपा जनजाति की कुलदेवी का मंदिर। यह 400 वर्ष पुराना बताया गया है। विरात्रा माता का मंदिर तो साधारण है परन्तु प्रतिमा सुंदर एवं चमत्कारी है। जगदम्बे मां की एक नहीं अनेक प्रतिमाएँ मंदिर में विराजमान है। कांच के एक समचौरस बने लकड़ी की छोटी-सी अलमारी में चाँदी की बनी प्रतिमा पर सोने का लेप अत्यन्त सुन्दर एवं आकर्षक लगता है। यहाँ चैत्र, भाद्रपद व माघ माह में शुक्ल पक्ष चतुर्दशी को मेले लगते हैं।

– मल्लीनाथ का मंदिर : यह बालोतरा से लगभग 10 किमी. दूर लूनी की तलहटी में स्थित है। यहाँ राव मल्लीनाथ ने चिरसमाधि ली थी। समाधि स्थल पर भक्तजनों द्वारा निर्मित मल्लीनाथ का मंदिर और उनकी चरण पादुकाएँ दर्शनीय है। यहाँ चैत्र बदी एकादशी से चैत्र सुदी एकादशी तक पशुमेला लगता है जिसे मल्लीनाथ का मेला या तिलवाड़ा पशु मेला के नाम से जाना जाता है। वीर योद्धा रावल मल्लीनाथ की स्मृति में आयोजित इस पशु मेले में थारपारकर, कांकरेज आदि नस्ल के बैलों की अधिक बिक्री होती है।

– नागणेची माता का मंदिर : पचपदरा के समीप नागाणा ग्राम में स्थित इस मंदिर में विद्यमान लकड़ी की प्राचीन मूर्ति दर्शनीय है।

– पार्श्वनाथ जैन मंदिर : बाड़मेर शहर में स्थित श्री पार्श्वनाथ जैन मंदिर दर्शनीय है। 12वीं सदी में बने इस मंदिर में शिल्पकला, कांच व चित्रकला के आकार व रूप दर्शनीय है।

– नाकोड़ा : बालोतरा से 9 किमी. दूर भाकरियाँ (झाकरियाँ) नामक पहाड़ी पर स्थित जैन मतावलम्बियों का प्रसिद्ध तीर्थ स्थल। यह मेवा नगर/वीरानीपुर के नाम से भी जाना जाता है। इस स्थल पर भैरव जी (1511 में आचार्य कीर्ति रत्न सूरि द्वारा स्थापित) तथा पार्श्वनाथ का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। यहाँ प्रतिवर्ष तीर्थंकर पार्श्वनाथ के जन्मोत्सव के दिन पौष कृष्णा दशमी को विशाल मेला भरता है। यहाँ आदिनाथ व शांतिनाथ मंदिर भी दर्शनीय है।

– देवका : शिव तहसील से लगभग 12 किमी. दूर 12वीं – 13वीं सदी के शिलालेखों से युक्त इस स्थान पर एक वैष्णव मंदिर है।

– कपालेश्वर महादेव का मंदिर : बाड़मेर जिले के चौहटन की विशाल पहाड़ी के बीच स्थित कपालेश्वर महादेव का मंदिर 13वीं शताब्दी में निर्मित किया गया है। ऐसा कहा जाता है कि पांडवों ने अपने वनवास का अंतिम समय छिपकर यहीं बिताया था। यहाँ से 2 किमी. दूर बिशन पगलिया नामक पवित्र स्थान है जहाँ भगवान विष्णु के चरण चिह्न पूजे जाते हैं।

– यहीं स्थित पहाड़ों पर 14वीं सदी के एक दुर्ग के अवशेष मौजूद है जिसे हापाकोट कहते हैं। इसका निर्माण जालोर के सोनगरा राजा कान्हड़देव के भाई सालमसिंह के पुत्रा हापा ने करवाया।

– गरीबनाथ का मंदिर : इसकी स्थापना वि.सं. 900 कोमनाथ ने की। इसका पुराना नाम शिवपुरी या शिवबाड़ी होना पाया जाता है।

– हल्देश्वर महादेव मंदिर : पीपलूद गाँव (बाड़मेर) के समीप छप्पन की पहाड़ियों में स्थित मंदिर। पीपलूद को राजस्थान का लघु माउंट आबू कहा जाता है।

– ब्रह्माजी का मंदिर : आसोतरा (बाड़मेर) में स्थित मंदिर। इस मंदिर में 1984 ई. में खेतारामजी महाराज द्वारा ब्रह्माजी की मूर्ति स्थापित करवाई गई। यह मंदिर पुष्कर के बाद राजस्थान में दूसरा ब्रह्माजी का मंदिर है।

– आलमजी का मंदिर : धोरीमन्ना (बाड़मेर) में स्थित मंदिर जहाँ प्रतिवर्ष माघ कृष्णा द्वितीया एवं भादवा शुक्ला द्वितीया को विशाल मेला लगता है। यह स्थल ‘घोड़ों के तीर्थ स्थल’ के रूप में भी जाना जाता है।

– रणछोड़राय जी का खेड़ मंदिर : प्रमुख वैष्णव तीर्थ का पवित्र धाम श्री रणछोड़राय जी के मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1230 में हुआ था। मजबूत परकोटे से घिरे इस मंदिर में प्रतिवर्ष राधाष्टमी, माघ पूर्णिमा, वैशाख पूर्णिमा एवं श्रावण पूर्णिमा को भव्य मेलों का आयोजन होता हैं।

पाली

– चामुण्डा मंदिर : राजा भोज द्वारा निमाज कस्बे के निकट स्थापित यह मंदिर लाल पत्थर की मूर्तियों पर बारीक कारीगरी की उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध है।

– पार्श्वनाथ मंदिर : वैश्या का मंदिर, रणकपुर के मंदिर के सामने स्थित इस मंदिर में अश्लील मूर्तियों की अधिकता है।

– सोमनाथ मंदिर : पाली शहर के मध्य में स्थित यह मंदिर अपनी शिल्पकला के लिए प्रसिद्ध है। इसका निर्माण गुजरात के राजा कुमारपाल सोलंकी ने वि.स. 1209 में करवाया।

– आशापुरा माताजी का मंदिर : नाडोल गाँव के पास स्थित चौहानों की कुलदेवी का यह मंदिर राजेश्वर लाखनसिंह चौहान द्वारा 1009 में निर्मित करवाया गया।

– फालना का स्वर्ण मंदिर : बेजोड़ स्थापत्य कला पर सैकड़ों किलो सोने का श्रृंगार समर्पण का वह साक्ष्य है जो केवल पाली जिले के फालना में ही देखने को मिलता है। जोधपुर से 130 किमी. की दूरी पर स्थित फालना के इस जैन मंदिर के गुम्बद पर सोने की परत चढ़ाने में दो महीने का वक्त लगा था। सदियों पुराने इस जैन मंदिर की स्थापत्य कला पर स्वर्ण श्रृंगार जहाँ बेजोड़ कारीगरी का उदाहरण है, वहीं समाज की महिलाओं द्वारा मंदिर के जीर्णोद्वार व स्वर्ण इकट्ठा करने में दिया सहयोग प्रभु प्रेम के वह उदाहरण हैं जो बिरले ही देखने को मिलते हैं।

– फालना के इस स्वर्ण मंदिर को गेटवे ऑफ गोडवाड़ व मिनी मुम्बई के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर त्रिशिखरी है जो प्रसिद्ध जैन तीर्थ रणकपुर और देलवाड़ा मंदिरों की तर्ज पर बना हुआ हे। मंदिर में तीनों शिखर, स्तम्भ प्रांगण को सोने की परतों से सुशोभित किया गया है। इस मंदिर का निर्माण वि.सं. 1970 में करवाया गया था। जिसमें सर्वप्रथम मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा भट्टारक आचार्य मुनिचन्द्र सूरीश्वर ने की थी। मंदिर में भगवान शंखेश्वर पार्श्वनाथ और जैन तीर्थकरों के साथ धर्मनाथ, केसरियाजी, पदमप्रभु चिन्तामणि पार्श्वनाथ, नाकोड़ा भैरवनाथ, परमावतीदेवी, अम्बिकादेवी, महालक्ष्मीदेवी की मूर्तियाँ शोभायमान हैं। इन मूर्तियों के मुख मंडल से ही इतना तेज बरसता है कि कोई भी दर्शन मात्र से मनोकामनापूर्ण होने की आशा के साथ आगे बढ़ता है।

– निंबों का नाथ मंदिर : पाली में स्थित नाथ महादेव मंदिर के बारे में जनमान्यता है कि इस मंदिर में पाण्डवों की माता कुन्ती शिव पूजा करती थी।

– परशुराम महादेव मंदिर : सादड़ी (पाली) से 14 किलोमीटर पूर्व में अरावली पर्वतमाला की गुफा में स्थित शिव मंदिर। इस मंदिर में प्राकृतिक शिवलिंग बना हुआ है जिसकी परशुराम तपस्या करते थे।

– मूंछाला महावीर मंदिर : यह मंदिर कुम्भलगढ़ अभयारण्य में घाणेराव के निकट 10वीं सदी का बना है। इस मंदिर में मंूछों वाले महावीर स्वामी की मूर्ति स्थापित है।

– चौमुख जैन मंदिर रणकपुर : पाली की देसूरी तहसील में स्थित यह प्रसिद्ध श्वेताम्बर जैन मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण राणा कुम्भा के काल में धरणकशाह द्वारा शिल्पी दापा की देखरेख में 1439 ई. में बनवाया गया। यह मंदिर भगवान आदिनाथ का मंदिर है। यह मंदिर 1444 स्तम्भों पर टिका हैं। इस मंदिर को ‘स्तम्भों का वन’ भी कहते हैं। इस मंदिर को कवि माघ ने ‘त्रिलोक दीपक’ व आचार्य विमल सूरि ने ‘नलिनी गुल्म विमान’ कहा है। इस मंदिर का उपनाम ‘चतुर्मुख जिनप्रासाद’ है।

– नारलाई : पाली में स्थित यह स्थान जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। नारलाई में गिरनार तीर्थ, सहसावन तीर्थ एवं भंवर गुफा दर्शनीय है।

– वरकाणा :- यहाँ पार्श्वनाथ भगवान का प्राचीन जैन मंदिर है।

– सिरियारी : पाली में स्थित यह स्थान श्वेताम्बर तेरापंथी सम्प्रदाय का लोकतीर्थ है।

– पाली के पंचतीर्थ : वरकाणा, नारलाई, नाडोल, मूंछाला महावीर एवं रणकपुर।

जैसलमेर

– भटियाणी का मंदिर : जैसलमेर शहर के निकट स्थित प्रसिद्ध सतीमाता का मंदिर।

यहाँ स्थित भव्य चिन्तामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर (इसका निर्माण थारूशाह भंसाली ने करवाया), हिंगलाज माता का मंदिर दर्शनीय है।

– रामदेवरा : जैसलमेर-बीकानेर मार्ग पर जैसलमेर से 125 किमी. दूर स्थित गाँव जिसे रूणेचा भी कहा जाता है। यहाँ लोकदेवता बाबा रामदेवजी का प्रसिद्ध मंदिर, परचा बावड़ी, रामदेवजी की शिष्या डालीबाई की समाधि दर्शनीय है। इस मंदिर में भाद्रपद माह में विशाल मेला भरता है जिसमें आने वाले तीर्थयात्रियों को ‘जातरु’ कहा जाता है। यह मेला राष्ट्रीय एकता एवं साम्प्रदायिक सद्‌भाव का मुख्य केन्द्र है। इस मंदिर के पुजारी तंवर जाति के राजपूत होते हैं।

– स्वांगिया जी के मंदिर : स्वांगियाजी जैसलमेर के भाटियों की कुलदेवी है। स्वांगिया देवी का प्रतीक त्रिशूल है। जैसलमेर में स्वांगियाजी के सात मंदिर हैं –

i. तनोटराय मंदिर : भाटी तणु राव द्वारा तनोट में निर्मित मंदिर। वर्तमान में इस मंदिर में पूजा का कार्य सीमा सुरक्षा बल के भारतीय सैनिकों द्वारा सम्पादित किया जाता है। तनोटराय मंदिर के सामने ही 1965 के भारत-पाक युद्ध में भारत की विजय का प्रसिद्ध स्मारक विजय स्तम्भ स्थित है। तनोट देवी को ‘थार का वैष्णो देवी’ कहा जाता है।

ii. तेमडीराय का मंदिर : जैसलमेर के गरलाउणे नामक पहाड़ की गुफा में निर्मित मंदिर। यहाँ पर श्रद्धालु भक्तों को देवी के दर्शन छछुन्दरी के रूप में होते हैं।

iii. सुग्गा माता का मंदिर : जैसलमेर के भादरिया गाँव में स्थित मंदिर। इस मंदिर का निर्माण महारावल गजसिंह ने करवाया। इस मंदिर को आधुनिक रूप संत हरवंश सिंह निर्मल ने दिया। इस मंदिर को भादरियाराय का मंदिर भी कहा जाता है।

iv. काला डूँगरराय का मंदिर : जैसलमेर में महारावल जवाहरसिंह द्वारा निर्मित मंदिर

v. घंटियाली राय का मंदिर : यह मंदिर तनोट से 5 किलोमीटर की दूरी पर दक्षिण पूर्व मेंं स्थित है।

vi.  देगराय का मंदिर : जैसलमेर के पूर्व में देगराय जलाशय पर निर्मित मंदिर।

vii. गजरूप सागर मंदिर : महारावल गजसिंह द्वारा निर्मित मंदिर।

– भगवान लक्ष्मीनाथ का मंदिर : जैसलमेर दुर्ग में 1437 ई. में रावल लक्ष्मणसिंह के राज्यकाल में निर्मित मंदिर। इसमें लक्ष्मी व विष्णु की युगल प्रतिमा है। इस मंदिर के निर्माण में शासक के अलावा सात जातियों द्वारा निर्माण कार्य में सहयोग प्रदान करने के कारण यह ‘जन-जन का मंदिर’ कहलाता है।

– पार्श्वनाथ मंदिर : जैसलमेर दुर्ग में स्थित इस मंदिर का निर्माण शिल्पकार ‘घन्ना’ ने विक्रम संवत् 1473 में महारावल लक्ष्मणसिंह के समय किया। वृदिरत्न माला के अनुसार इस मंदिर में 1235 मूर्तियाँ हैं।

– संभवनाथ मंदिर : विक्रम संवत् 1497 में महारावल बैर सिंह के समय श्वेताम्बर पंथी जैन परिवार द्वारा निर्मित मंदिर। इस मंदिर के भूगर्भ में बने कक्ष में दुर्लभ पुस्तकों का भण्डार ‘जिनदत्त सूरी ज्ञान भंडार’ स्थित है।

– चंद्रप्रभु मंदिर : 12वीं सदी में निर्मित तीन मंजिला विशाल जैन मंदिर, जो जैन तीर्थंकर चंद्रप्रभु को समर्पित है। अलाउद्दीन खिलजी ने जैसलमेर पर आक्रमण के समय इस मंदिर को ध्वंस कर दिया था।

– लोद्रवा जैन मंदिर : इस मंदिर का निर्माण विक्रम संवत् 1675 में थारूशाह नामक श्रेष्ठी ने करवाया। मंदिर के गर्भगृह में सहस्रफण पार्श्वनाथ की श्याम प्रतिमा प्रतिष्ठित है।

– वैशाखी हिन्दू महातीर्थ : यहाँ वैशाख पूर्णिमा को विशाल मेला भरता है। जहाँ तीर्थ यात्री वैशाखी के कुण्डों में स्नान करते हैं।

– चुन्धी गणेश मंदिर : यह मंदिर मुख्यत: घर की मन्नत पूर्ण करने के लिए प्रसिद्ध है। यहाँ गंगा सप्तमी एवं गणेश चतुर्थी को मेला भरता है।

– खींवज माता का मंदिर : पोकरण (जैसलमेर) में स्थित मंदिर।

– अषृपाद मंदिर : जैसलमेर में स्थित है।

जालौर

– सिरे मंदिर : जालोर दुर्ग की निकटवर्ती पहाड़ियों में स्थित सिरे मंदिर नाथ सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ऋषि जालन्धर नाथ की तपोभूमि के कारण प्रसिद्ध वर्तमान मंदिर का निर्माण मारवाड़ रिसायत के राजा मानसिंह ने करवाया। विपत्ति के दिनों में इन्होंने यहाँ शरण ली थी।

– आशापुरी माता का मंदिर : जालोर से 40 किमी. दूर मोदरा स्थित आशापुरी माता का मंदिर महिषासुर मर्दिनी, महोदरी माता एवं मोदरा माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ स्थापित मूर्ति लगभग 1000 वर्ष पुरानी है। जालोर के सोनगरा चौहानों की जो शाखा नाडोल से उठकर आयी थी उनकी ये कुलदेवी थी। यहाँ प्रतिवर्ष होली के तीसरे दिन विशाल मेले का आयोजन किया जाता है।

– सेवड़ा मंदिर : रानीवाड़ा-सांचोर मार्ग पर अत्यन्त प्राचीन शिव मंदिर अवस्थित है। मंदिर के चारों ओर कलात्मक खुदाई वाले प्रस्तर बिखरे हुए हैं।

– जगन्नाथ महादेव : अरावली पर्वतमाला में बना यह आश्रम चारों ओर रेत के टीलों से घिरा हुआ है। यहाँ वर्ष भर झरना बहता है। यहाँ प्राचीन शिवलिंग स्थापित है। यहाँ शिवरात्रि के अवसर पर विशाल मेले का आयाजन किया जाता है।

– सुन्धा मंदिर : अरावली पर्वत शृंखला में 1220 मीटर की ऊँचाई के सुन्धा पर्वत पर जसवन्तपुरा पंचायत समिति क्षेत्र में दांतलावास ग्राम के समीप चामुण्डा देवी का प्रख्यात मंदिर स्थित है। यह जालोर का प्रमुख धार्मिक स्थल है। यहाँ वर्ष भर झरना बहता है। यहाँ माँ अहेटेश्वरी देवी का मंदिर है। यह श्रीमाली ब्राह्मणों की कुलदेवी है। इस मंदिर में माता के सिर्फ सिर की पूजा की जाती है। यहाँ पर प्रति माह पूर्णिमा को तथा भाद्रपद और वैशाख शुक्ल की तेरस से पूर्णिमा तक विशाल मेला भरता है। सुन्धा पर्वत पर राजस्थान का पहला राेपवे 20 दिसम्बर, 2006 को प्रारम्भ किया गया।

– वीर फत्ता जी का मंदिर : साथू गाँव में स्थित मंदिर जहाँ भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला भरता है।

– आपेश्वर महादेव : 13वीं सदी में बना भगवान अपराजितेश्वर शिव मंदिर आज आपेश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है। यहाँ स्थापित शिव प्रतिमा 5 फुट ऊँची है। मंदिर के बायीं ओर गोमती कुण्ड नामक बावड़ी है। मंदिर में श्वेत-श्याम वर्ण की दो मूर्तियाँ स्थापित है।

– माण्डोली का गुरु मंदिर : गुरुवर शांति सूरिश्वर का यह मंदिर पूरे भारत के जैन मतावलम्बियों के लिए अत्यन्त श्रद्धा एवं विश्वास का केन्द्र है।

– नन्दीश्वर दीप तीर्थ : भीनमाल (जालोर) में स्थित मंदिर। यहाँ 52 जिनालय हैं। मंदिर में एक कीर्ति स्तम्भ भी है।

– सुभद्रा माता का मंदिर : भाद्राजून (जालौर) में स्थित मंदिर। इस मंदिर को धूमड़ा माता का मंदिर कहा जाता है।

– क्षेमकरी / खीमज माता का मंदिर : भीनमाल (जालौर) में स्थित। यह सोलंकियों की कुलदेवी मानी जाती है।

– श्री लक्ष्मीवल्लभ पार्श्वनाथ जिनालय : भीनमाल में स्थापित देश का सबसे बड़ा जैन मंदिर। यह मंदिर सर्वतोभद्र श्रीयंत्र रेखा पर बनाया गया है। यह मंदिर लुंकड परिवार द्वारा बनाया गया। यह किसी एक परिवार द्वारा बनाया जाने वाला देश का पहला विशाल तीर्थ है। इस मंदिर में 72 जिनालय हैं।

डूंगरपुर

– देव सोमनाथ : डूंगरपुर से लगभग 24 किमी. दूर सोम नदी के तट पर स्थित इस तीन मंजिले शिव मंदिर का निर्माण सफेद पत्थरों से किया गया है। 12वीं सदी में निर्मित बिना सीमेंट, चूने और मिट्टी के प्रयोग से सिर्फ पत्थरों से बना यह मंदिर स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है।

– बेणेश्वर (नवाटापरा) : डूंगरपुर से 41 किमी. दूर आसपुर तहसील में बेणेश्वर महादेव का मंदिर स्थित है जिसमें 5 फीट ऊंचा एवं ऊपर से पाँच स्थानों से खण्डित शिवलिंग स्थापित है। यह भारत का एकमात्र मंदिर है, जहाँ खण्डित शिवलिंग की पूजा होती है। यहाँ प्रतिवर्ष माघ शुक्ला एकादशी से माघ शुक्ला पूर्णिमा तक विशाल मेला भरता है। इस मेले को भीलों का कुंभ, आदिवासियों का कुंभ, वागड़ का पुष्कर आदि नामों से जाना जाता है। मावजी महाराज का संबंध इसी धाम से है।

– गवरी बाई का मंदिर : ‘बागड़ की मीरा‘ गवरी बाई का मंदिर महारावल शिवसिंह द्वारा निर्मित किया गया है।

– विजयराज राजेश्वर मंदिर : गैप सागर के तट पर स्थित परेवा प्रस्तर से निर्मित इस मंदिर का निर्माण महारावल उदयसिंह द्वितीय की महारानी उम्मेद कंवर ने 1882 में करवाया।

– विजया माता मंदिर : विंध्यवासिनी देवी का मंदिर जो आरोग्यदाता धाम के रूप में प्रसिद्ध है। प्रत्येक रविवार को यहाँ मेला लगता है।

– हरिमंदिर : डूंगरपुर से 60 किमी. दूर उदयपुर-बाँसवाड़ा मुख्य मार्ग पर साबला में स्थित मावजी महाराज की जन्मस्थली के रूप में प्रसिद्ध इस मंदिर में भगवान निष्कलंक की मूर्ति है। यहाँ मावजी रचित ग्रन्थ ‘चोपड़ा‘ रखा है।

– संत मावजी का मंदिर : डूंगरपुर से लगभग 55 किमी. दूर साबला ग्राम में स्थित चतुर्भुज विष्णु के कलयुगी अवतार औदिच्य ब्राह्मण मावजी महादेव का मंदिर दर्शनीय है। संत मावजी को विष्णु का कल्कि अवतार माना जाता है। ध्यातव्य है कि संत मावजी के अन्य मंदिर सैंसपुर (मेवाड़), पारोदा गाँव (बाँसवाड़ा) एवं पूंजपुर में है।

– शिव मंदिर : गैप सागर तट पर स्थित शिव ज्ञानेश्वर शिवालय 300 वर्ष पुरानी उत्कृष्ट कला का अप्रतिम उदाहरण है। इसका निर्माण राजमाता ज्ञान कुंवर की स्मृति में महारावल शिव सिंह ने ई. 1730 से 1785 के मध्य करवाया।

– वसुंधरा (वसूंदरा) : डूँगरपुर के वसूंदरा गाँव में स्थित प्राचीन मंदिर।

– बोरेश्वर महादेव मंदिर : सोलज गाँव (डूँगरपुर) में सोम नदी के किनारे स्थित मंदिर।

– डूँगरपुर के अन्य मंदिरों में हरि मंदिर, मुरलीमनोहर मंदिर, फुलेश्वर महादेव मंदिर, राधेबिहारी मंदिर एवं महालक्ष्मी मंदिर प्रमुख हैं।

राजसमंद

– द्वारकाधीश मंदिर : कांकरोली (राजसमंद) में पुष्टिमार्गी वल्लभ सम्प्रदाय का सुप्रसिद्ध मंदिर है। सन् 1669 में औरंगजेब के आतंक से भयभीत वल्लभ सम्प्रदाय के पुजारियों द्वारा मथुरा से यह प्रतिमा लायी गयी।

– चारभुजानाथ मंदिर : राणा मोकल द्वारा निर्मित गढ़बोर (राजसमंद) में स्थित भव्य मंदिर है। इसकी गिनती मेवाड़ के चार प्रमुख धामों (केसरिया जी, कैलाशपुरी, नाथद्वारा एवं चारभुजा नाथजी) में की जाती है। यहाँ वर्ष में दो बार होली तथा देवझुलनी एकादशी पर मेले भरते हैं। इसी मंदिर के पास गोमती नदी बहती है।

– कुन्तेश्वर महादेव : राजसमंद से 12 किमी. दूर फरारा गाँव में कुन्तेश्वर महादेव का भव्य शिव मंदिर है। जनश्रुति के अनुसार इसकी स्थापना महाभारत काल में पाण्डवों की माता कुन्ती ने की।

– श्रीनाथजी का मंदिर : राजसमंद जिले में सीहाड़ गाँव में स्थित ‘नाथद्वारा’ वल्लभ सम्प्रदाय का प्रमुख तीर्थ है। यहाँ बनास नदी पर श्रीनाथजी का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है जिसमें श्रीकृष्णजी की काले संगमरमर की प्रतिमा है। मंदिर में स्थित प्रतिमा श्रीनाथ जी की मूर्ति औरंगजेब के समय वृन्दावन से यहाँ पर 1718 में लाई गई थी। यहाँ भगवान कृष्ण के विविध स्वरूपों की सेवा की जाती है। इस सेवा पद्धति में सात प्रकार के दर्शन होते हैं- मंगला, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, आरती एवं शयन रूप में ऐसी ही सतरंगी ध्वजायें हैं। श्रीनाथ जी का मंदिर विशाल एवं भव्य रूप से निर्मित है। जिस स्थान पर श्री विग्रह विराजित है उसकी छत खपरैल की बनी हुई है। इसके ऊपर श्री सुदर्शनचक्रराज सुशोभित है और सात ध्वज लहराती रहती है। श्रीनाथ जी को सात ध्वजा का नाथ/स्वामी कहा जाता है। श्रीनाथजी के साथ नाथद्वारा आये इनकी गौत्र के ठाकुर नवनीत प्रियाजी को श्रीलालन कहते हैं। गोवर्धन से जब कृष्ण स्वरूप श्रीनाथजी को तिलकायत दामोदर मुगलों से बचाते-बचाते नाथद्वारा आये थे तो श्रीलालन भी उनके साथ आये थे। ये श्रीनाथजी के गौत्र के ठाकुर है। श्रीनाथजी को अचल स्वरूप माना जाता है। अतः श्रीलालन उनका प्रतिनिधित्व करते हैं। श्रीनाथजी के दर्शन के पश्चात् श्रीलालन के दर्शन करना फलदायी माना जाता है। ज्ञातव्य है कि 2006 में श्रीलालन को पहली बार ब्रज की परिक्रमा करवायी गयी। श्रीनाथजी का मंदिर ‘हवेली संगीत’ का मुख्य केन्द्र है। ‘पिछवाई’ नाथद्वारा की प्रसिद्ध चित्रकारी है। यहाँ कृष्ण जन्माष्टमी, फूलडोल तथा दीपावली का अन्नकूट महोत्सव का आयोजन किया जाता है।

– राजसमन्द के अन्य मंदिरों में कुन्तेश्वर महादेव मंदिर (फरारा गाँव), रोकड़िया हनुमान मंदिर, परशुराम महादेव, आमज माता का मंदिर (रीछेड़), पीपलाद माता का मंदिर (उनवास) आदि प्रमुख हैं।

उदयपुर

– एकलिंगजी मंदिर : उदयपुर से 21 किमी. दूर मेवाड़ के महाराणाओं के इष्टदेव श्री एकलिंगजी (शिवजी) की काले पत्थर से निर्मित चौमुखी मूर्ति वाला यह मंदिर कैलाशपुरी में स्थित है। इसका निर्माण बप्पा रावल द्वारा 734 ई. में करवाया गया। मंदिर को वर्तमान स्वरूप महाराणा रायमल ने प्रदान किया। यह उदयपुर राजाओं के कुलदेवता का मंदिर कहलाता है। मंदिर के चारों ओर विशाल परकोटा है। यहाँ शिवरात्रि को विशाल मेला लगता है। यह मंदिर राज्य में पाशुपत सम्प्रदाय का सबसे प्रमुख स्थल है।

जगत : उदयपुर से लगभग 55 किमी. दूर स्थित इस स्थान को बेहतरीन मूर्तिकला के कारण खजुराहो के समकक्ष माना जाता है। यहाँ स्थित अम्बिका देवी का मंदिर (10वीं शताब्दी की) का निर्माण नागर शैली में किया गया है। इस मंदिर में नृत्य करते हुए गणेश जी की विशाल प्रतिमा स्थापित है। इस मंदिर को ‘राजस्थान का दूसरा खजुराहो’ और ‘मेवाड़ का खजुराहो’ भी कहा जाता है।

– ऋषभदेव : धुलैव स्थान पर आदिनाथजी (ऋषभदेवजी) का मंदिर स्थित है। इस मंदिर में संसार में सर्वाधिक केशर चढ़ाने से यह केसरियानाथ जी का मंदिर कहलाता है। ऋषभदेव जी के मंदिर में मूर्ति काले पत्थर की है अतः यह कालाजी मंदिर (कालिया बावजी) कहलाता है। धूला भील द्वारा मूर्ति लाने पर धुलेव देव भी कहलाता है। मंदिर का विशाल परिसर संगमरमर पत्थर से निर्मित है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि यह 1100 खंभों पर निर्मित है जिसमें कहीं भी चूने का जोड़ नहीं है। मंदिर में डेढ़ लाख आकृतियाँ हैं। सम्पूर्ण भारत में ऋषभदेव जी का मंदिर ही एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसमें जैन, आदिवासी, वैष्णव तथा मुस्लिम समान रूप से पूजा करते हैं। यहाँ चैत्र मास की अष्टमी को विशाल मेला लगता है।

– जगदीश मंदिर (उदयपुर) : राजमहल के मुख्य द्वार बड़ी पोल से 175 गज की दूरी पर स्थित इस वैष्णव मंदिर का निर्माण 1651 में जगतसिंह प्रथम ने करवाया। इस मंदिर का निर्माण अर्जुन, सूत्रधार भाणा और उसके पुत्र मुकुन्द की देखरेख में हुआ। इस मंदिर में प्रभु जगन्नाथ राय की काले कसौटी पत्थर की मूर्ति विराजमान है। इस मंदिर के निर्माण में स्वप्न संस्कृति का बड़ा महत्वपूर्ण योग रहा है। इसलिए इसे सपने से बना मंदिर भी कहते हैं। यह मंदिर पंचायतन शैली में निर्मित है। मंदिर में काले पत्थर से निर्मित भगवान जगदीश की भव्य मूर्ति है। 80 फुट ऊंचे प्लेटफॉर्म पर निर्मित यह मंदिर 50 कलात्मक स्तम्भों पर अवस्थित है। इसके चारों कोणों में शिव, पार्वती, गणपति आदि के चार लघु मंदिर हैं।

– सास-बहू का मंदिर : 10वीं सदी में निर्मित यह मंदिर नागदा (उदयपुर) में स्थित है। यह मूलत: सहस्रबाहु (भगवान विष्णु) का मंदिर है। यह मंदिर सोलंकी व महामारू शैली में निर्मित है।

– जावर का विष्णु मंदिर : मेवाड़ शासक महाराणा कुम्भा की पुत्री रमाबाई द्वारा पंचायतन शैली में निर्मित मंदिर। इस मंदिर के शिल्पी एवं सूत्रधार ईश्वर थे।

– ईडाणा माता मंदिर : बंबोरा (उदयपुर) में स्थित चमत्कारी शक्ति स्थल। यहाँ ईडाणा माता अक्सर अग्नि स्नान करती है।

– आहड़ के जैन मंदिर : 10वीं सदी में निर्मित जैन मंदिरों का समूह। आचार्य जगच्चन्द्र सूरि ने यहाँ 12 वर्षों तक कठोर तपस्या की।

– स्कंध कार्तिकेय मंदिर : तनेसर (उदयपुर) में छठी शताब्दी में निर्मित कार्तिकेय का मंदिर।

– मछदरा (संइया) मंदिर : उदयपुर में स्थित।

बांसवाड़ा

– तलवाड़ा के प्राचीन मंदिर : बाँसवाड़ा से लगभग 15 किमी. दूर स्थित 11वीं शताब्दी के आसपास निर्मित इन मंदिरों में प्रमुख मंदिर सूर्य व लक्ष्मीनारायण का मंदिर है। सूर्य की मूर्ति एक कोने में रखी हुई है। और बाहर के चबूतरे पर सूर्य के रथ का एक चक्र टूटा पड़ा है। यहाँ के सोमपुरा जाति के मूर्तिकार प्रसिद्ध है।

– छींछ का ब्रह्माजी मंदिर : छींछ ग्राम 12वीं सदी में सिसोदिया वंश के महारावल जगमाल द्वारा निर्मित ब्रह्माजी के मंदिर की मूर्ति 6 फीट ऊँची व चार मुखों वाली स्थापित है। मंदिर के बाहर संगमरमर के 6 पत्थरों पर नवग्रहों की मूर्तियाँ खुदी गयी है। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1495 ई. में देवदत्त ने करवाया।

– घोटिया अम्बा मंदिर : बागीदोरा (बाँसवाड़ा) में स्थित मंदिर। यहाँ प्रतिवर्ष चैत्र अमावस्या को मेला भरता है। महाभारत काल में पाण्डवों ने वनवास के समय अपना कुछ समय घोटिया अम्बा नामक स्थल पर व्यतीत किया।

– कालिंजरा मंदिर : बाँसवाड़ा में हारन नदी के किनारे निर्मित ऋषभदेव जी का प्रसिद्ध जैन मंदिर।

– त्रिपुरा सुंदरी मंदिर : तलवाड़ा (बाँसवाड़ा) में स्थित मंदिर। त्रिपुरा सुंदरी पाँचाल जाति की कुलदेवी है। इस मंदिर में देवी के पीठिका के मध्य में ‘श्रीयंत्र’ अंकित है। त्रिपुरा सुंदरी माता को तुरताय माता भी कहा जाता है।

– अर्थूना के मंदिर : प्राचीन समय में बागड़ के परमारों की राजधानी रहा अर्थूना में मंडलेश्वर महादेव मंदिर, हनुमानगढ़ी मंदिर, कुम्भेश्वर मंदिर, सोमनाथ मंदिर, कनफटा साधु का मंदिर एवं कोरणी माता का मंदिर प्रमुख हैं। अर्थूना में जैन मंदिर भी निर्मित है।

चित्तौड़गढ़

– सतबीस देवरी : 11वीं शताब्दी में निर्मित भव्य जैन मंदिर जिसमें 27 देवरियाँ स्थित होने के कारण यह सतबीस देवरी कहलाता है।

– भदेसर : यहाँ असावरा माता का प्रसिद्ध मंदिर है जहाँ लकवा के मरीजों को उपचार हेतु लाया जाता है।

– श्री सांवलिया जी का मंदिर : चित्तौड़गढ़ से लगभग 40 किमी. दूर मडफिया नामक ग्राम में स्थित इस मंदिर में जल झूलनी एकादशी मेला भरता है। इस मंदिर को ‘अफीम मंदिर’ के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर में श्रीकृष्ण भगवान की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है।

– कुम्भ-श्याम मंदिर (वैष्णव मंदिर) तथा मीरा बाई का मंदिर : 1449 ई. में महाराणा कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भ-श्याम मंदिर इण्डो-आर्यन स्थापत्य कला का एक उत्कृष्ट नमूना है। कुम्भ-श्याम मंदिर के अहाते में मीराबाई का मंदिर है। इस मंदिर में मुरली बजाते हुए श्रीकृष्ण एवं भक्ति में लीन भजन गाती हुई मीरा का चित्र लगा है। मीरा मंदिर के सामने मीरा के गुरु रैदास की स्मारक छतरी बनी हुई है।

– कालिका माता का मंदिर : इसका निर्माण मेवाड़ के गुहिल वंशीय राजाओं ने 8वीं-9वीं शताब्दी में करवाया था। प्रारम्भ में यह सूर्य मंदिर था मुगलों के आक्रमण क समय सूर्य की मूर्ति तोड़ दी गई। तदुपरान्त कालान्तर में उसकी जगह कालिका माता की मन्दिर स्थापित की गई। महाराणा सज्जन सिंह ने इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया। यह मंदिर भगवान सूर्य को समर्पित है। राज्य में विष्णु के कुर्मावतार का सर्वाधिक प्राचीन अंकन इसी माता के मंदिर से प्राप्त होता है।

– सांवरिया जी का मंदिर : चित्तौड़गढ़ से 40 किमी. दूर मण्डफिया गाँव में सांवरिया जी (श्रीकृष्ण जी) का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। शीघ्र ही यहाँ करोड़ों की लागत से सांवरिया जी का नया मंदिर बनने जा रहा है।

– मातृकुण्डिया मंदिर : चन्द्रभागा नदी के तट पर राशमी नामक तहसील मुख्यालय में स्थित भगवान शिव का मंदिर जो मेवाड़ के हरिद्वार के रूप में जाना जाता है। यहाँ प्रसिद्ध लक्ष्मण झूला भी है।

– समिद्धेश्वर महादेव (मोकलजी का मंदिर) : नागर शैली में बने इस शिव मंदिर का निर्माण मालवा के परमार राजा भोज ने करवाया तथा महाराणा मोकल ने 1428 में इसका जीर्णोद्धार करवाया। नागर शैली में बना यह मंदिर वास्तुकला के नियमों के आधार पर बनाया गया है।

– बाड़ोली के शिव मंदिर : उत्तर गुप्त कालीन यह मंदिर परमार राजा हुण द्वारा निर्मित है। यह बामनी एवं चम्बल नदी के संगम क्षेत्र में चित्तौड़गढ़ के भैंसरोड़गढ़ में स्थित है। यह गुर्जर प्रतिहार कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह नौ मंदिरों का समूह हैं। इन मंदिरों को सर्वप्रथम प्रकाश में लाने का कार्य 1821 ई. में कर्नल जेम्स टॉड ने किया।

– मीरा बाई का मंदिर : चित्तौड़ दुर्ग में कुंभश्याम मंदिर के निकट निर्मित मंदिर जिसका निर्माण महाराणा सांगा ने करवाया। इंडो-आर्य शैली में निर्मित इस मंदिर के सामने मीरा के गुरु रैदास की छतरी है।

– समिद्धेश्वर मंदिर : 11वीं सदी में मालवा के परमार राजा भोज द्वारा निर्मित मंदिर। इस मंदिर का जीर्णोद्धार 1428 ई. में महाराजा मोकल ने सूत्रधार जैता के निर्देशन में करवाया था। यह शिव मंदिर नागर शैली में बना हुआ है। इसे मोकल जी का मंदिर भी कहा जाता है।

– शृंगार चँवरी मंदिर : चित्तौड़ दुर्ग में स्थित शांतिनाथ जैन मंदिर जिसका निर्माण महाराणा कुम्भा के कोषपाल के पुत्र वेलका ने 1448 ई. में करवाया।

– असावरी (आवरी) माता का मंदिर : निकुंभ (चित्तौड़गढ़) में स्थित मंदिर। यहाँ लकवे के मरीजों का इलाज किया जाता है।

– तुलजा भवानी मंदिर : चित्तौड़ दुर्ग में बनवीर द्वारा निर्मित मंदिर।

प्रतापगढ़

– गौतमेश्वर : अरनोद तहसील में स्थित यह स्थल गौतम ऋषि की तपस्थली मानी जाती है। यहाँ वैसाख पूर्णिमा पर विशाल मेला भरता है। यहाँ गौतमेश्वरजी, मंगलेश्वरजी, हनुमानजी, कालीमाता तथा एकलिंगजी के मंदिर दर्शनीय हैं। गौतमेश्वरजी के मंदिर में 1505 ई. का एक शिलालेख लगा हुआ है।

– अरनोद : अरनोद से 18 किमी. दूर सोली में हनुमानजी का सुप्रसिद्ध मंदिर है। यहाँ पर एक पुराने दुर्ग के अवशेष हैं। यहाँ प्राचीन नगर के अवशेष तथा महाकाल का मंदिर भी दर्शनीय है।

छोटी मांजी साहिबा का किला, पुराना बाण माता मंदिर, पोरवाल समाज का मंदिर, पालीवालों का रामकृष्ण मंदिर, श्वेताम्बर महिला स्थानक, गोवर्धननाथ जी का मंदिर, तेली समाज का श्री कृष्ण मंदिर, भैंरूजी का ओटला, धोबियों का गादी माता का मंदिर तथा मालियों का चारभुजा मंदिर दर्शनीय हैं।

धौलपुर

– सैपऊ महादेव मंदिर : सैपऊ (धौलपुर) में पार्वती नदी के किनारे स्थित मंदिर जिसमें विशाल चमत्कारी शिवलिंग है।

– महाकालेश्वर मंदिर : सरमथुरा (धौलपुर) में स्थित इस मंदिर में भाद्रपद शुक्ला सप्तमी से चतुर्दशी तक विशाल मेला भरता है।

मचकुण्ड तीर्थ : प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थल जिसे तीर्थों का भान्जा कहा जाता है। यह धौलपुर जिले में गंधमादन पर्वत पर स्थित है। मान्यता है कि मचकुण्ड में स्नान से चर्म रोग दूर हो जाते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल षष्टमी को विशाल मेला भरता है। ध्यातव्य है कि तीर्थों का मामा पुष्कर (अजमेर) को कहा जाता है।

– राधा-बिहारी मंदिर :  धौलपुर के लाल पत्थर से निर्मित भव्य मंदिर, जिसमें ताजमहल की तरह बारीक नक्काशी की गई है।

– शेर शिकार गुरुद्वारा : मचकुण्ड (धौलपुर) में स्थित गुरुद्वारा। सिक्खों के छठे गुरु हरगोविन्दसिंह ने इसी स्थान पर तलवार के एक वार से शेर का शिकार किया था।

Leave a Comment

CONTENTS