राजस्थान की लोक कलाएँ

Estimated reading: 1 minute 92 views

कलाएँ जीवन की सुरुचिपूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। कला में जीवन का आनन्द और अतिरेक निरुपित होता है। आम जन अर्थात् सभी लोगों के मध्य विकसित एवं संचारित कला को लोक कला कहा जाता है। जनमानस की सांस्कृतिक इच्छाएँ एवं आकांक्षा जब कलात्मक सौन्दर्य के साथ सहज अभिव्यक्ति पाती है एवं उपलब्ध वस्तुओं की सहायता से अनूठे रूप में प्रस्तुत की जाती है तो वह लोक कला का स्वरूप ग्रहण करती है। राजस्थान की लोक कलाओं ने विश्व बाजार और कला प्रेमियों के मन में अपनी एक विशिष्ट पहचान बनाई हैं।

राजस्थान की प्रमुख लोक कलाएँ :-

1. फड़ (पड़) चित्रण :- रेजी अथवा खादी के कपड़े पर लोक देवताओं की जीवन गाथाएँ, धार्मिक व पौराणिक कथाएँ व ऐतिहासिक गाथाओं के चित्रित स्वरूप को ही ‘फड़’ कहा जाता है।

– शाहपुरा (भीलवाड़ा) :- फड़ (पड़) चित्रण का मुख्य केन्द्र।

 फड़ का चित्रण शाहपुरा के छीपा जाति के जोशी करते हैं।

– फड़ चित्रण में लोक नाट्य, लोक गायन, लोकवादन, मौखिक साहित्य, चित्रकला व लोकधर्म का अनूठा संगम देखने को मिलता है।

– फड़ की लम्बाई अधिक व चौड़ाई कम होती है।

– इसकी रंग योजना चटक व प्रभावशाली होती है। इसमें रंगों का प्रतीकात्मक प्रयोग भावाभिव्यक्ति में सहायता प्रदान करता है।

– फड़ चित्रण में लाल व हरे रंग का प्रयोग किया जाता है।

– शाहपुरा (भीलवाड़ा) का जोशी परिवार फड़ चित्रण हेतु सम्पूर्ण राज्य में प्रसिद्ध है।

– लगभग 700 वर्ष पूर्व पूरे (मेवाड़) में विकसित परम्परागत ‘फड़’ चित्र शैली के प्रसिद्ध चित्रकार पांचाजी जोशी ने शाहपुरा में फड़ चित्रण को आगे बढ़ाया।

– श्रीलाल जोशी के शिष्य जयपुर निवासी प्रदीप मुखर्जी ने फड़ शैली में नये प्रयोग कर महत्वपूर्ण पौराणिक आख्यानों (श्रीमद‌्‌भागवत, गीत-गोविन्द आदि) का चित्रण किया।

– श्रीमती पार्वती जोशी (कन्हैयालाल जोशी की पत्नी) देश की प्रथम फड़ चितेरी महिला है।

– गौतली देवी :- अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त फड़ कलाकार।

– भीलवाड़ा के श्रीलाल जोशी ने ‘फड़’ चित्रकला को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी है। श्रीलाल जोशी को वर्ष 2006 में पद्‌मश्री से सम्मानित किया गया है।

– शाहपुरा के फड़ चित्रकार दुर्गालाल को वर्ष 1967 ई. में राष्ट्रपति पदक से सम्मानित किया गया था। शाहपुरा निवासी शांतिलाल को फड़ चित्रण के लिए सन् 1993 में राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

– चातुर्मास में फड़ चित्रण नहीं होता है क्योंकि देवता सो जाते हैं। पुन: देवउठनी ग्यारस (कार्तिक शुक्ला ग्यारस) से फड़ चित्रण का कार्य आरम्भ हो जाता है।

– फड़ का वाचन प्राय: मनौती के रूप में किसी अनिष्ट की आशंका को दूर करने हेतु सामूहिक रूप से प्राय: देवी-देवताओं से संबंधित तिथि पर ही किसी खुली जगह या चौपाल में पूर्ण आस्था व श्रद्धा के साथ होता है।

– फड़ में चित्र संयोजन में प्रमुखाकृति को सबसे बड़ा बनाकर प्रधानता एवं केन्द्रत्व दिया जाता है।

– फड़ लगभग 30 फीट लम्बी एवं 5 फीट चौड़ी होती है।

– फड़ का वाचन ‘भोपों’ द्वारा किया जाता हैं।

– फड़ कथा में मुख्य चरित्रों की वेशभूषा लाल एवं खलनायक की वेशभूषा हरे रंग की होती है।

– सबसे लोकप्रिय फड़ :- पाबूजी की फड़।

– सबसे लम्बी फड़ :- देवनारायणजी की फड़।

– फड़ ठंडी करना :- फड़ के फट जाने या जीर्णशीर्ण हो जाने पर पुष्कर सरोवर में विसर्जित कर दिया जाना। इस अवसर पर भोपे समाज में सवामणी का आयोजन करते हैं।

– फड़ चित्र का वाचन भोपों द्वारा किसी वाद्य यंत्र की सहायता से किया जाता हैं।

– श्रीलाल जोशी द्वारा बनाई गई देवनारायणजी की फड़ पश्चिमी जर्मनी के एक संग्रहालय में रखी हुई है।

पाबूजी की फड़ :-

– फड़ वाचक जाति :- नायक या थोरी जाति के भोपे।

– वाद्य यंत्र :- रावणहत्था।

– सबसे लोकप्रिय फड़।

– इस फड़ में मुख के सामने ‘भाले का चित्र’ होता है एवं युद्ध के दृश्यों का चित्रांकन आकर्षक होता हैं।

– पाबूजी की घोड़ी ‘केसर कालमी’ को काले रंग से चित्रित किया जाता है।

– इस फड़ का वाचन रात्रि में किया जाता है।

– ध्यातव्य है कि पाबूजी को प्लेग रक्षक व ऊँटों के रक्षक देवता के रूप में माना जाता है।

देवनारायण जी की फड़ :-

– फड़ वाचक जाति :- गुर्जर जाति के भोपे।

– वाद्य यंत्र :- जंतर

– यह फड़ सबसे लम्बी, सबसे पुरानी, सर्वाधिक चित्रांकन वाली एवं सर्वाधिक समय लगने वाली फड़ है।

– फड़ के मुख के सामने सर्प का चित्र होता है तथा इनकी घोड़ी ‘लीलागर’ को हरे रंग से चित्रित किया जाता है।

– इस फड़ का वाचन दो या दो से अधिक भोपों द्वारा रात्रि में किया जाता हैं।

– देवनारायण की एक फड़ जर्मनी के कला संग्रहालय में रखी हुई है।

– भारतीय डाक विभाग ने 2 सितम्बर, 1992 को देवनारायण जयन्ती के अवसर पर देवनारायण जी की फड़ पर 2 X 2 सेमी. के आकार में डाक टिकट जारी किया गया।

– देवनारायणजी की फड़ में नाट्य, गायन, मौखिक साहित्य, चित्रकला एवं लोकधर्म का अनूठा संगम मिलता है।

रामदेवजी की फड़ :-

– फड़ वाचक जाति :- कामड़ जाति के भोपे।

– वाद्य यंत्र :- रावणहत्था।

– रामदेवजी की फड़ का सर्वप्रथम चित्रांकन चौथमल चितेरे ने किया।

– यह फड़ मेघवाल, कोली, चमार, बलाई तथा अन्य रामदेवजी की भक्त जातियों में प्रचलित है।

रामदला – कृष्णदला की फड़ :-

– फड़ वाचक जाति :- भाट जाति के भोपे।

– इस फड़ का वाचन बिना वाद्य यंत्र के किया जाता है।

– इस फड़ का सर्वप्रथम चित्रण शाहपुरा के धूलजी चितेरे ने किया था।

– यह फड़ राम व कृष्ण भगवान के प्रसंगों पर आधारित होती है।

– इस फड़ का वाचन सर्वाधिक हाड़ौती अंचल में होता है।

– इस फड़ का वाचन दिन में होता है।

– इस फड़ में सम्पूर्ण जगत का लेखा-जोखा बताया जाता है।

भैंसासुर की फड़ :-

 यह फड़ बावरी या बागरी जाति के लोग रखते हैं जो चोरी के लिए जाते समय शकुन के रूप में पूजते हैं।

 इस फड़ का वाचन नहीं किया जाता है।

अभिताभ की फड़ :-

 मारवाड़ के भोपा रामलाल व भोपी पतासी देवी द्वारा इस फड़ का वाचन अमेरिका में किया गया।

2. पाने :- कागज पर निर्मित देवी-देवताओं के चित्र जिसके द्वारा राजस्थान में विभिन्न पर्व, त्यौहारों एवं मांगलिक अवसरों पर देवताओं का प्रतिष्ठान किया जाता है। ये पाने शुभ, समृद्धि व आनन्द के द्योतक माने जाते हैं। राजस्थान में गणेशजी, लक्ष्मीजी, रामदेवजी, गोगाजी, श्रवण कुमार, राम-कृष्ण, देवनारायण जी, श्रीनाथजी का पाने प्रमुख हैं। श्रीनाथ जी का पाना सबसे अधिक कलात्मक है जिसमें 24 शृंगारों का चित्रण हैं।

3. मांडणा :- मांडणा का अर्थ होता है चित्रित अथवा लिखित अंकन चित्र।

– ‘मांडणे’ माँगलिक अवसरों पर महिलाओं द्वारा घर-आँगन को लीपपोत कर खड़िया, हिरमिच व गैरुं से अनामिका की सहायता से निर्मित किये गये ज्यामितीय अलंकरण है।

– मांडणे की इकाईयों को चीरण, जुआँ, झंबरा, बेलभरत व फुलड़ी कहते है।

– ‘मांडणे’ श्री एवं समृद्धि के प्रतीक माने जाते हैं।

– सबसे छोटा मांडणा स्वास्तिक चिह्न होता है जो गणेशजी का प्रतीक है।

– विभिन्न क्षेत्रों में मांडणा के नाम :-

 क्षेत्र मांडणा

 गुजरात सातियाँ

 महाराष्ट्र रंगोली

 बंगाल अल्पना

 उत्तरप्रदेश सोन या चौक पूरना

 भोजपुरी थापा

 तेलगू मोगु

 केरल अत्तापु

 तमिल कोलम

 बिहार अपहन

 ब्रज सांझा

– ताम :-  विवाह के समय लग्न मंडप में तैयार कया गया मांडणा।

– चौकड़ी :- होली के अवसर पर बनाया गया मांडणा, जिसमें चार कोण होते हैं।

– साट्या/सातिये :- बच्चे के जन्म के अवसर पर ग्रामीण क्षेत्र में बनाया जाने वाला मांडणा। साट्या को स्वास्तिक के नाम से भी जाना जाता है, जो चारों दिशाओं को संबोधित करता है।

माेरडी :- दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान में मीणा जनजाति की महिलाओं द्वारा घरों में बनायी जाने वाली मोर की आकृति का मांडणा।

पगल्या :- ‘पगल्या’ मांडणे को पूजा-पाठ के अवसर पर आराध्य देव के घर में पर्दापण की अभिलाषा में उनके पदचिन्हों को प्रतीक रूप में तथा उनके स्वागत हेतु घर के आँगन व पूजा के स्थान पर चित्रित किया जाता है। राजस्थान के मांडणों में इनका चित्रण सर्वाधिक होता हैं।

4. साँझी :- यह राजस्थानी कुँवारी कन्याओं का अत्यन्त रंगीन एवं व्रतोत्सव है जो आश्विन माह में श्राद्धपद की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक मनाया जाता है। इस त्यौहार में कुँवारी कन्याओं द्वारा अपने पिता के घर में दीवार पर गोबर से साँझी बनायी जाती है जिसे आटे, हल्दी, कुंकुम एवं कौड़िया द्वारा सजाया जाता है।

– नाथद्वारा के श्रीनाथ के मंदिर के ‘केले की संइया’ (कदली पत्तों की साँझी) पूरे भारत भर में प्रसिद्ध है।

– उदयपुर का मछन्दरनाथ मंदिर अपनी सांझियों के लिए इतना प्रसिद्ध है कि उसका नाम ही ‘संझ्या मंदिर’ पड़ गया है।

– जयपुर के लाडली जी का मंदिर में श्राद्ध पक्ष में प्रतिदिन आकर्षक साँझी बनाई जाती है।

– साँझी बनाने की परम्परा भगवान श्रीकृष्ण ने प्रारम्भ की थी।

– राजस्थान में साँझी बनाने की परम्परा वृन्दावन से आयी।

– कंघा, पंखा, हुक्का, दपैण, ढोलक, बैण्डबाजा, फूल-पत्तियाँ आदि आकृतियाँ साँझी में बनाई जाती हैं।

संझ्याकोट :- सांझी का विकसित अथवा बड़ा रूप। इन्हें बड़ी साँझी भी कहा जाता है।

5. कावड़ :- मन्दिरनुमा काष्ठ कलाकृति, जिसमें कई कपाट (द्वार) होते हैं। इस पर विभिन्न प्रकार के धार्मिक एवं पौराणिक कथाओं से संबंधित देवी-देवताओं के मुख्य-मुख्य प्रसंग चित्रित होते हैं। यह एक चलता-फिरता देवघर है। चित्तौड़गढ़ का बस्सी गाँव राजस्थान में कावड़ निर्माण के लिए प्रसिद्ध है। कावड़ पूरी लाल रंग से रंगी जाती है व उसके ऊपर काले रंग से पौराणिक कथाओं का चित्रांकन किया जाता है। खेरादी जाति का सम्बन्ध कावड़ निर्माण से ही है। माँगीलाल मिस्त्री कावड़ चितरावण के प्रसिद्ध चित्रकार है।

6. काष्ठ कलाकृतियाँ :-

(क) चौपड़े :- विवाह एवं माँगलिक अवसरों पर कुंकुम, अक्षत, चावल आदि रखने हेतु प्रयुक्त लकड़ी का पात्र।

(ख) बाजोट :- लकड़ी की चौकी जिसे भोजन या पूजा के समय प्रयुक्त करते है।

(ग) बेवाण :- लकड़ी के बने देव विमान, जिनकी देव झूलनी एकादशी को झाँकी निकाली जाती है। बेवाण को ‘मिनिएचर वुडन टेम्पल’ भी कहते है।

(घ) छापे :- कपड़े पर हाथ से छपाई करने में प्रयुक्त लकड़ी के छापे खेरादी जाति के लोग बनाते हैं।

(ड) खाण्डा (खांडे) :- होली के अवसर पर लकड़ी से नीर्मित तलवारनुमा आकृति। बस्सी के खेरादी जाति के लोग इसका निर्माण करते हैं। पूर्वी राजस्थान में दुल्हन द्वारा दुल्हे के घर खांडे भेजने की परम्परा है।

(च) पातरे-तिपरणी :- श्वेताम्बर जैन साधु-सन्तों के प्रयोग में आने वाले लकड़ी के पात्र। जोधपुर के पीपाड़ कस्बे में विशेष रूप से बनाए जाते हैं।

(छ) तोरण :- विवाह के अवसर पर वधू के घर के मुख्य प्रवेश द्वार पर लटकायी जाने वाली लकड़ी की कलाकृति जिसके शीर्ष पर मोर या तोता बना होता है। तोरण जाल, बेर या खेजड़ी की लकड़ी का बना होता है। वर वधू के घर में प्रवेश करने से पहले हरी डाली, तलवार, खाडे या गोटा लगी डंडी से स्पर्श करता है। तोरण शक्ति परीक्षण का प्रतीक माना जाता है। जयपुर के विद्याधर जी के रास्ते (त्रिपोलिया बाजार) में तोरण बहुतायत से बनाये जाते हैं।

(ज) कठपुतली :- जन्मस्थली :- राजस्थान

– नृतक जाति :- नट या भाट।

– कठपुतली बनाने के केन्द्र :- उदयपुर, चित्तौड़गढ़ व कठपुतली नगर (जयपुर)।

– कठपुतली के क्षतिग्रस्त होने पर इसे फेंका न जाकर जल में प्रवाहित कर दिया जाता है।

– वर्षा काल में कठपुतली का प्रदर्शन नहीं होता है।

– स्थापक :- कठपुतली नाटक में कठपुतलियों का सूत्रधार, जो नाटक का मूल स्तम्भ होता है।

– कठपुतलियाँ अरडू की लकड़ी की बनाई जाती हैं।

– स्व. श्री देवीलाल सामर के नेतृत्व में लोक कला मंडल, उदयपुर ने कठपुतली कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

– प्रसिद्ध कठपुतली खेल :- राजा विक्रमादित्य की सिंहासन बतीसी

 पृथ्वीराज संयोगिता।

 नागौर के अमरसिंह राठौड़ का खेल।

– भारत में चार प्रकार की कठपुतलियों का प्रचलन हैं –

 1. दस्ताना पुतली 2. छड़ पुतली

 3. छाया पुतली 4. धागा या सूत्र पुतली

7. गोदना :- अंग चित्रांकन की विशिष्ट कला। जनजातियों में विशेष रूप से प्रचलित। शरीर पर गोदना। गोदने की कला का आरम्भ भगवान श्रीकृष्ण ने किया था। गोदने का कार्य अधिकतर नट जाति के स्त्री-पुरुष करते हैं।

8. मेहंदी :- मेहंदी महिलाओं के सौन्दर्य प्रसाधन की प्रमुख रचनाओं में गिना जाता है। राजस्थान में मेहंदी को सुहाग एवं सौभाग्य का शुभ चिह्न माना जाता है। राजस्थान में सोजत (पाली) की मेहंदी प्रसिद्ध है। मेहंदी का हरा रंग जहाँ एक और हरीतिमा, प्रसन्नता व समृद्धि का परिचाक है वहीं लाल रंग प्रेम, रंग व जीवन संगीत का प्रतीक है।

9. पथवारी :- राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में पथवारी निर्माण की परम्परा सर्वत्र मिलती है। गाँवों में पथरक्षक के रूप में पूजे जाने वाले स्थल को पथवारी कहा जाता है। पथवारी में एक ओर काला-गौरा भैरु जी एवं दूसरी ओर कावड़िया वीर (श्रवण कुमार) के चित्र होते हैं। तीर्थ यात्रा पर जाते समय इसकी पूजा की जाती है।

10. वील :- ग्रामीण अंचल में महिलाओं द्वारा गृह सज्जा एवं दैनिक उपयोग की छोटी-मोटी चीजों को सुरक्षित करने के लिए निर्मित मिट्‌टी की महलनुमा चित्रित कलाकृति। मेघवाल जाति की महिलाएँ इस कला में निपुण होती हैं।

11. देवरे :- खुले चबूतरे पर निर्मित मंदिर, जिनकी आकृति त्रिकोणात्मक होती हैं। राजस्थान में विभिन्न क्षेत्रों में रामदेवजी, गोगाजी, भैरुजी, तेजाजी आदि के देवरे देखने को मिलते हैं।

12. थापे :- महिलाओं द्वारा ग्रामीण क्षेत्र में विभिन्न त्यौहार व उत्सवों पर परम्परागत रंगों द्वारा किया गया चित्रण ‘थापा’ कहलाता है। सभी ‘थापों’ में राजस्थानी धर्म-संस्कृति के प्रतीक देवी-देवताओं के आदर्श स्वरूप परिलक्षित होते हैं।

13. पिछवाई :- श्रीनाथजी के स्वरूप के पीछे बड़े आकार के कपड़े के पर्दों पर किया गया चित्रण, ‘पिछवाई’ कहलाता है। यह नाथद्वारा शैली की मौलिक देन है। पिछवाई चित्रण का प्रमुख विषय ‘श्रीकृष्ण-लीला’ है।

14. बटेवड़े या थापड़ा :- राजस्थान में गोबर निर्मित सूखे उपलों को सुरक्षित रखने के लिए बनाई गई आकृतियाँ।

15. सोहरियाँ :- भोजन सामग्री रखने के मिट्‌टी के बने कलात्मक पात्र। ग्रामीण अंचलों में प्रचलित।

16. ओका-नाका-गुणा :- व्याधि निवारण हेतु ग्रामीण अंचलों में गोबर से बनायी जाने वाली कलाकृति जो चेचक निकलने पर विशेषत: बनाकर पूजा जाता है।

17. मोण :- मेड़ता क्षेत्र में बनाये जाने वाले मिट्‌टी के बड़े माटे (मटके)।

18. भराड़ी :- आदिवासी भीलों द्वारा लड़की के विवाह पर घर की दीवार पर बनाया जाने वाला लोक देवी का माँगलिक चित्र। यह चित्र घर के जंवाई द्वारा चावल के विविधरंगी गोल से बनाया जाता है।

19. घोड़ा बावसी :- मिट्‌टी के बने कलात्मक घोड़े, जिनकी आदिवासी भील, गरासियों में बड़ी मान्यता है। मनौती पूर्ण होने पर इन्हें पूजकर इष्ट देवता के चढ़ाया जाता है।

20. हीड़ :- मिट्‌टी का बना हुआ पात्र, जिसमें ग्रामीण अंचलों में दीपावली के दिन बच्चे तेल व रुई के बिनौले जलाकर अपने परिजनों के यहाँ जाते हैं और बड़ों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

21. कोठियां :- राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में अनाज संग्रह हेतु प्रयुक्त मिट्‌टी के कलात्मक पात्र।

– ध्यातव्य है कि सूत कातने के चरखे को रहंटा और भैरेला भी कहते हैं।

 ध्यातव्य है कि गोरबन्द ऊँट के गले का आभूषण है।

– राई के दाने पर मीरा का चित्रांकन :- किशन शर्मा (बेगूं) द्वारा।

– क्लोथ आर्ट के प्रणेता :- कैलाश जागोटिया (भीलवाड़ा)

Leave a Comment

CONTENTS