लोकगीत एवं संगीत

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केसरिया बालमयह रजवाड़ी विरह गीत है व राजस्थान का पर्यटन गीत है।
घूमर   यह राज्य का सर्वाधिक लोकप्रिय गीत है जो गणगौर व तीज पर घूमर नृत्य के साथ गाया जाता है।
मूमल  ये जैसलमेर क्षेत्र का प्रेम गीत है।
ढोला मारूयह सिरोही क्षेत्र का प्रेम गीत है।
गोरबन्दयह गीत रेगिस्तानी क्षेत्र में ऊँट का शृंगार करते समय गाया जाता है।
औल्यूँयह गीत किसी की याद मे गाया जाता है।
काजलियो  यह होली व विवाह पर गाया जाने वाला शृंगार गीत है।
कुरजाँ  यह विरहनी द्वारा कुरजाँ पक्षी को सम्बोधित कर गाया जाने वाला संदेश गीत है।
तेजा गीत   यह तेजाजी की भक्ति में खेत की बुवाई करते समय गाया जाता है।
पणिहारी     यह गीत पानी भरते समय गाया जाता है।
काँगसियो  यह बालों के शृंगार का गीत है।
हमसीढोंमेवाड़ क्षेत्र में स्त्री व पुरूष द्वारा साथ साथ  गाया जाता है
हरजस यह भजन गीत शेखावाटी क्षेत्र में  के अवसर पर गाया जाता है।
रसिया यह गीत भरतपुर व धौलपुर क्षेत्र में प्रचलित है।
लावणीइस गीत में नायक अपनी प्रेयसी को बुलाता है।
बधावायह शुभ कार्य का गीत है।
जच्चा  यह गीत पुत्र जन्म पर गाया जाता है। अन्य नाम होलर।
कागा  विरहणी के द्वारा कौए को सम्बोधित कर गाया जाता है।
हींडो  सावन में झूला झूलते समय गाया जाता है। अन्य नाम हिण्डौल्या।
घुड़ला मारवाड़ क्षेत्र में घुड़ला पर्व पर कन्याओं द्वारा गाया जाता है।
कलालीयह एक शृंगार गीत है।
मोरियाइस गीत में सगाई हो चुकी लड़की की व्यथा प्रकट की जाती है।
चिरमीयह गीत नववधु द्वारा भाई व पिता की प्रतीक्षा में गाया जाता है।
पावणा यह गीत दामाद के ससुराल आगमन पर गाया जाता है।
कामणयह गीत वर को जादू टोने से बचाने के लिए गाया जाता है।
रातिजगा  यह रात्रि जागरण के गीत होते हैं।
कूकड़ी ये रात्रि जागरण का अंतिम गीत होता है।
हिचकीयह याद के अवसर पर गाया जाता है।
पपैयो  दाम्पत्य प्रेम के इस आदर्श गीत में पुरूष अन्य स्त्री से मिलने के लिए मना करता है।
झोरावा यह विरह गीत जैसलमेर क्षेत्र में प्रचलित है।
सूंवटिया इसमें भील स्त्री परदेस गये पति को संदेश भेजती है।
दुपट्टा यह गीत दूल्हे की सालियों द्वारा गाया जाता है।
पीपलीयह रेगिस्तानी क्षेत्र का विरह गीत है।
जलो जलाल इस गीत को बारात देखते समय स्त्रियाँ गाती है।
इंडोणीयह गीत पानी भरते समय गाया जाता है।
सुपणायह विरहणी का स्वप्न गीत है।
सींटणाविवाह पर भोजन के समय गाये जाने वाला गाली गीत है।
बना – बनीविवाह अवसर पर वर वधू के लिए गाये जाते हैं।
लाँगूरिया  करौली क्षेत्र में कैला देवी के भक्तों द्वारा गाया जाता है।
बीछूडोहाड़ौती क्षेत्र में लोकप्रिय इस गीत में पत्नी अपनी मृत्यु के पश्चात् अपने पति से दूसरी शादी करने को कहती है
पंछीड़ा यह लोकगीत हाड़ौती व ढूँढाड़ क्षेत्र में मेलों के अवसर पर गाया जाता है।
जीरो  इसमें पत्नी अपने पति से जीरा न बोने का अनुरोध करती है।
घोड़ी यह गीत दूल्हे की निकासी पर गाया जाता है।
परणेत यह विवाह गीत है।
बिणजारा प्रश्नोत्तर परक इस गीत में पत्नी पति को व्यापार हेतु परदेस जाने की प्रेरणा देती है।
गढ़ गीतयह रजवाड़ी व पेशेवर गीत है।
दारूड़ी यह रजवाड़ो में शराब पीते समय गाया जाता है।
लूर   यह राजपूत स्त्रियों द्वारा गाया जाता है।

जन्म सम्बन्धी लोकगीत

फुलेरा, साध, साध-पुराई, पीपळी, झूंटणा, पगल्या, खीचड़ी, मोती, घूघरी, पालणा, टोपी, लोरी, हलरावणा, पीळियो, पोमचो, चिणुटियो, बधावणो, जळवा-पूजण।

विवाह के गीत

लगन, बनोळा, सगाई, विनायक, पीठी, मेहंदी, हळदी, काछबो, ओडणी, भात, बीरा, चूनड़ी, टीको, निकासी, सामेळो, कामण, तोरण, जलो, कुंवर कलेवो, हथळेवो, सेवरो, चंवरी, फेरा, जीमणगीत, सीठणू, पावणो, तम्बोळण, कांकण-डोरड़ी, जुआजुई, हिंयाळी, बनड़ो, बनड़ी, घोड़ी, बछेरी, पहरावणी, समठूणी, कोयल, सीख, ओळयूं, मींजळिया, आरतो, झळमळ, काजळ, कूकड़लो, बधावो, छिबकी, जंवाई, भांग, नणदोई, ताळोटो, बायरो, दांतण, खटमल, माछर, पावणो, घुड़लो।

प्रेम और शृंगार के गीत

मूमल, इंढाणी, दिवलो, कांचोड़ी, सुरमो, काजळ, पणिहारी, बींजा-सोरठ, ढोला-मारू, रतनराणो, जमाई राणो, काछबो राजा, आखमती, आभल-खीवो-जलो जलाल, ढोला, मारूजी, मरवण, निहालदे, गूजरी, पपैया, कुरजां ओळयूं, सुपनो, हिचकी, सुगन, परवानो, चीणोटियो, पोमचो, लहरियो, सोसनी साड़ी, लालर

अन्य लोकगीत

ओळमो, ओळूं, आरती, कांमण, करहला, उमादे, अळिया काचर, करेलडो, कलाळी, काछबो, काळाजी, किसनहर, कुकड़लो, कुरजं, कुरजणियो, कूकड़ो, कोयलड़ी, खमा, खमायची, गाळ, घोड़ी, चिरमी, चाचर, चंवरी, छणियारो, छाजियो, छुटियो, जच्चाआं, जवारमल, जंवाई, जसाआं, जीरो, जेरांणी, जोरसिंह, झूलो, झेडर, टोडरमल, डबड़ी, तेजो, तोडड़ली तोरणियो, थळियामारू, दांतण, अतूर, घवळमंगळ, धूंसो, नींद, नींबूड़ो, पंचडोळियो, पणिहारी, पीळो, पिट्ठी, फूंदी, बटवो, बधावो, बड़लो, बनो, बालोचण, बाय, बीजळ, बुरटी, भात, भावन, भीमजी, भैरूजी, भंवरजी, भावज, मगरियो, मधकर, मरवण, मरवो, मारू, मुजरो, मूमळ, मोरियो, मोरूड़ो, रणतभंवर, रतनरांणो, रतवंतो, रूणझूणियो, लांगोदर, लूंगाकरो, लूंगी, लूर, लोरी, क्याणो, वरूओ, वायरियो, सतराणी, सांझि, सायरसाढो सिंयाळो, सीख, सुहाग, सूवो, सेवरो, हंजलोमारू, हथळेवो, हरियाळो, हाडोराव, हालरियो।

राजस्थानी लोकगीतों का संक्षिप्त विवरण

1. रातीजगा – विवाह, पुत्र जन्मोत्सव, मुंडन आदि शुभ अवसरों पर अथवा मनौती मनाने पर रातभर जाग कर गाए जाने वाले, किसी देवता के गीत ‘रातीजगा’ कहलाते हैं।

2. हिचकी – ऐसी धारणा है कि किसी के द्वारा याद किए जाने पर हिचकी आती है। निम्न हिचकी गीत अलवर-मेवात का प्रसिद्ध गीत है- “म्हारा पियाजी बुलाई म्हानै आई हिचकी”।

3. पपैयो – पपीहा पक्षी पर राज्य के कई भागों में ‘पपैयो’ गीत गाया जाता है। इसमें प्रेयसी अपने प्रियतम से उपवन में आकर मिलने की प्रार्थना करती है। यह दाम्पत्य प्रेम के आदर्श का परिचायक है।                            

4. ढोलामारू – यह सिरोही का लोकगीत है। इसे ढाढी गाते हैं। इसमें ढोलामारू की प्रेमकथा का वर्णन है।

5. गोरबंद – गोरबंद ऊँट के गले का आभूषण होता है, जिस पर राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों – विशेषतः मरूस्थलीय व शेखावाटी क्षेत्रों में लोकप्रिय ‘गोरबंद’ गीत प्रचलित है, जिसके बोल हैं- “म्हारो गोरबंद नखरालौ”।          

6. काजलियो – एक शृंगारिक गीत जो विशेषकर होली के अवसर पर चंग पर गाया बजाया जाता है।

7. ओल्यूँ – ओल्यूँ किसी की याद में गाई जाती है, जैसे बेटी की विदाई पर उसके घर की स्त्रियाँ इसे गाती हैं।

8. कुरजाँ – राजस्थानी लोकजीवन में विरहनी द्वारा अपने प्रियतम को संदेश भिजवाने हेतु कुरजाँ पक्षी को माध्यम बनाकर यह गीत गाया जाता है- “कूरजाँ ए म्हारौ भँवर न मिलाद्यो ए”। 

9. सूंवटिया – भीलनी स्त्री द्वारा परदेस गए पति को इस गीत के द्वारा संदेश भेजा जाता है।

10. मूमल -जैसलमेर में गाया जाने वाला शृंगारिक लोकगीत, जिसमें मूमल का नखशिख वर्णन किया गया है। यह गीत एक ऐतिहासिक प्रेमाख्यान है। मूमल लोद्रवा (जैसलमेर) की राजकुमारी थी।                                  

11. तेजा गीत – किसानों का यह प्रेरक गीत है, जो खेती शुरू करते समय तेजाजी की भक्ति में गाया जाता है।

12. घूमर – राजस्थान के प्रसिद्ध लोकनृत्य घूमर के साथ गाया जाने वाला गीत है।

13. पणिहारी – राजस्थान का प्रसिद्ध लोकगीत जिसमें राजस्थानी स्त्री का पतिव्रत धर्म पर अटल रहना बताया गया है।

14. पावणा – नए दामाद के ससुराल में आने पर स्त्रियों द्वारा ‘पावणा’ गीत गाए जाते हैं।

15. कांगसियो – कांगसियो कंघे को कहते हैं। इस पर प्रचलित लोकगीत ‘कांगसियो’ कहलाते हैं।

16. कामण – राजस्थान के कई क्षेत्रों में वर को जादू-टोने से बचाने हेतु गाए जाने वाले गीत ‘कामण’ कहलाते हैं।

17. झोरावा – जैसलमेर जिले में पति के परदेस जाने पर उसके वियोग में गाए जाने वाले गीत ‘झोरावा’ कहलाते हैं।

18. गणगौर का गीत – गणगौर पर स्त्रियों द्वारा गाया जाने वाला प्रसिद्ध लोकगीत जिसके बोल हैं- “खेलन द्यो गणगौर, भँवर म्हानै खेलन द्यो गणगौर”।

19. पीपली – यह रेगिस्तानी इलाकों विशेषतः शेखावाटी, बीकानेर तथा मारवाड़ के कुछ भागों में स्त्रियों द्वारा वर्षा ऋतु में गाया जाने वाला विरह लोकगीत है जिसमें प्रेयसी अपने परदेशी पति को बुलाती है।                     

20. घुड़ला – मारवाड़ क्षेत्र में होली के बाद घुड़ला त्यौहार के अवसर पर कन्याओं द्वारा गाये जाने वाले लोकगीत।

21. दुपट्टा – शादी के अवसर पर दूल्हे की सालियों द्वारा गाया जाने वाला गीत।

22. हमसीढ़ो – उत्तरी मेवाड़ के भीलों का प्रसिद्ध लोकगीत। इसे स्त्री और पुरुष साथ में मिलकर गाते हैं।

23. हरजस – राजस्थानी महिलाओं द्वारा गाए जाने वाले ये सगुणभक्ति लोकगीत, जिनमें मुख्यतः राम और कृष्ण दोनों की लीलाओं का वर्णन होता है।

24. बधावागीत – शुभ कार्य सम्पन्न होने पर गाया जाने वाला लोकगीत, जिसमें आनन्द और उल्लास व्यक्त होता है।

25. जलो और जलाल – वधू के घर से स्त्रियाँ जब वर की बारात को डेरा देखने जाती है, तब यह गीत गाया जाता है।

26. रसिया – ब्रज, भरतपुर, धौलपुर आदि क्षेत्रों में गाए जाने वाला गीत।

27. इंडोणी – इंडोणी सिर पर बोझा रखने हेतु सूत, मूंज, नारियल की जटा या कपड़े की बनाई गई गोल चकरी है। इंडोणी पर स्त्रियों द्वारा पानी भरने जाते समय यह गीत गाया जाता है। 

28. लावणी – लावणी का मतलब बुलाने से है। नायक के द्वारा नायिका को बुलाने के अर्थ में लावणी गायी जाती है। शृंगारिक व भक्ति संबंधी लावणियाँ प्रसिद्ध है। मोरध्वज, सेऊसमन, भरथरी आदि प्रमुख लावणियाँ हैं।    

29. सीठणे – इन्हें ‘गाली’ गीत भी कहते हैं। ये विवाह समारोहों में खुशी व आत्मानंद के लिए गाए जाते हैं।

30. कलाळी – यह वीर रस प्रधान गीत है।

31. कैसरिया बालम – इस गीत में पति की प्रतीक्षा करती हुई एक नारी की विरह व्यथा है। यह एक रजवाड़ी गीत है।

32. मोरिया – इस सरस लोकगीत में ऐसी बालिका की व्यथा है, जिसका संबंध तो तय हो चुका है लेकिन विवाह में देरी है।

33. जीरो – इस गीत में ग्राम वधू अपने पति से जीरा नहीं बोने की विनती करती है।

34. चिरमी – इस लोक गीत में चिरमी के पौधे को संबोधित कर बाल ग्राम वधू द्वारा अपने भाई व पिता की प्रतीक्षा के समय की मनोदशा का चित्रण है।

35. सुपणा – विरहणी के स्वप्न से सम्बन्धित गीत।

36. जच्चा – बालक जन्मोत्सव पर गाए जाने वाले गीत जच्चा के गीत या होलर के गीत कहलाते हैं।

37. घोड़ी – लड़के के विवाह पर निकासी पर गाए जाने वाले गीत।

38. बना-बनी – विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत।

39. कागा – इसमें विरहणी नायिका कौए को संबोधित करके अपने प्रियतम के आने का शगुन मनाती है।

40. बींछूड़ो – हाड़ौती क्षेत्र का लोकप्रिय गीत है, जिसमें एक पत्नी, जिसे बिच्छु ने डस लिया है और मरने वाली है, अपने पति को दूसरा विवाह करने का संदेश देती है।

41. पंछीड़ा – हाड़ौती व ढूँढाड़ क्षेत्र में मेलों के अवसर पर अलगोजे, ढोलक व मंजीरे के साथ गाये जाने वाला लोक गीत।

42. लांगुरिया – करौली क्षेत्र की कुल देवी “कैला देवी” की आराधना में गाए जाने वाले गीत।

43. हींडो या हिंडोल्या – श्रावण मास में राजस्थानी महिलाएँ झूला झूलते समय यह लालित्यपूर्ण गीत गाती हैं।

44. दोहद गीत – राजस्थानी में ‘दोहद’ के गीतों की परम्परा रही है। दोहद गीतों में गर्भवती स्त्री जिन अभिलाषित वस्तुओं को खाने की इच्छा करती है, उनका बड़ा रोचक वर्णन पाया जाता है। दोहद गीतों में ‘अजमौ’ महत्वपूर्ण लोकगीत है।

45. पीलौ – जन्मोत्सव पर प्रसूता स्त्री को पीली चूनर ओढ़ाते हैं। इसे ‘पीळौ ओढ़ाना’ कहते हैं। राजस्थान में ‘पीलौ’ सौभाग्यवती एवं पुत्रवती स्त्री का मांगलिक परिधान है। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ नव-वधुओं एवं बहुओं को ‘पीला ओढ़ने’ का आशीर्वाद देती है ‘पीलौ’ गीत में ही पीली चूनर की सुन्दरता का वर्णन किया गया है।

46. गादूलौ – ‘गाडूलौ’ नामक लोकगीत भी राजस्थान में बहुत प्रसिद्ध है। स्नेयमयी माता खाती से कह रही है कि मेरे पुत्र के लिए एक सुन्दर-सा गाडूला (गाड़ी-जिसके सहारे बच्चे चलना सीखते हैं) बना कर लाओ।

सुण सुण रे खाती रा बेटा,

गाडूलौ घड़ ल्याय।

47. पीठी गीत – ‘उबटन’ को राजस्थानी में ‘पीठी’ कहते हैं। सोलह शृंगारों में उबटन का भी महत्वपूर्ण स्थान है। इससे शरीर की एवं मुख की कान्ति बढ़ कर रंग निखरने लगता है। वर या कन्या को ‘पीठी’ करते समय स्त्रियाँ पीठी गीत गाती है।

48. कांमण गीत – ‘कांमण’ गीतों द्वारा वधू-वर को वश में करने का प्रयत्न करती है। कांमण गीत गाने का अभिप्राय दूल्हे पर वशीकरण करना होता है। इसलिए कांमण गीतों के साथ-साथ कांमण क्रियाएँ भी की जाती है। सम्भवतयाः यहाँ प्रेम के जादू से मतलब है।

49. भणत – राजस्थान में एक विशेषलय के सान श्रमगीत गाये जाते हैं ऐसे गीतों की यहाँ भणतें कहते हैं।

50. घुड़लौ गीत – गोरी पूजन करने वाली कन्यायें ‘घुड़ला’ घुमाते हुए ‘घुड़लौ’ गीत गाती है। ‘घुड़ला’ एक छोटा-सा छिद्रों वाला घड़ा होता है जिसमें दीपक जलता रहता है। इस घुड़ले को सिर पर रखकर स्त्रियाँ गीत गाती है। इन गीतों के पीछे एक ऐतिहासिक तर्क भी है। गौरी पूजन को जाती हुई कन्याओं को ‘घुड़ले खाँ’ नामक यवन ने अपहरण करने की चेष्टा की थी। जोधपुर नरेश ‘सातलजी’ ने घुड़ले खाँ को मार कर उन कन्याओं का उद्धार किया, उसी की स्मृति स्वरूप तीरों द्वारा छिदे हुए सिर के रूप में मिट्टी का छिद्रों वाला घड़ा लेकर गीत गाती हुई लड़कियाँ घूमती हैं-

घूड़लौ घूमेला जी घूमेला

51.  ‘जमौ’ – रामदेवजी का जागरण करने वालों को ‘कामड़’ कहते हैं। ऐसे जागरण को ‘जमौ’ कहते हैं।

52. ‘रतन राणौं’ – एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक लोकगीत है। ‘रतन’ अमरकोट का एक सोढ़ा राजपूत था। किसी अंग्रेज की हत्या के अपराध में उसे फाँसी दिलवा दी गयी थी। गीत बड़ा करूणापूर्ण है। जिसमें सोढ़ा रतन राणा की पत्नी अपने मृत पति को याद कर रही है। यह एक प्रकार का मरासिया ही है।

– म्हारा रतन रांणा, एकर तौ अमरांणे घोड़ौ फेर।

संगीत

      “विक्रमी संवत की पांचवी शताब्दी में ईरान के बादशाह बहराम गोर ने हिन्दुस्तान पर आक्रमण किया, और यहां से बाहर हजार गायकों कों नौकरी के लिए ले गया। गायकों की यह लूट राजस्थान और गुजरात से ही सम्भव है, जहां से इतने संगीतज्ञ ले जाये जा सकते थे।”

पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा (हिस्ट्री ऑफ पर्सिया)

शास्त्रीय संगीत –

  • राजस्थान में मध्य में युग में वीर रसात्मक सिंधु राग का गायन लोकप्रिय था।
  • राजस्थान में शृंगार रस राग माँड आज भी  प्रचलित है जैसे मारवाड़, मेवाड़, जयपुर और जैसलमेर की माँड आदि।
  • देशी व विदेशी आक्रमणों के समय जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, मेवाड़,  टोंक, अलवर, भरतपुर आदि रियासतों के द्वारा संगीत को आश्रय प्रदान किया गया।
  • राजस्थान के संगीत प्रिय शासकों में अलवर के महाराजा शिवदान सिंह, टोंक के नवाब इब्राहिम खां आदि प्रमुख थे।
  • अकबर के शासनकाल में विकसित हुई अष्टछाप संगीत परम्परा के कारण राजसथान में शास्त्रीय संगीत की ध्रुवपद-धमार, पखावज तथा वीणावादन के शैलियों का विकास हुआ जो “हवेली संगीत’ के रूप में विद्यमान है।
  • वर्तमान राजस्थान के नाथद्वारा, जयपुर, कोटा, कांकरोली, भरतपुर, जोधपुर के मंदिरों में हवेली संगीत विद्यमान है।

राजस्थान के प्रमुख संगीत घराने

  • घराना – भारत में भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा को कुछ विशेष परिवारों द्वारा संरक्षित किया जाता रहा है।  वर्तमान में यह परम्पराएं अपनी विशेषताओं के कारण घरानों के रूप में जानी जाती है।
  • ध्रुवपद-धमार का डागर घराना –
  • राजस्थान में ध्रुवपद गायकी का गायन मानसिंह तोमर के समय से तथा अकबर के समय की इसकी चार वाणियों में से खण्डारी और नोहारी वाणियों का विकास राजस्थान से माना जाता है।
  • आधुनिक समय के ध्रुवपद-धमार के डागर घराने का विकास बहरामखां (जयपुर के महाराजा सवाई राम सिंह के) के द्वारा किया गया।
  • ध्रुवपद-धमार शैली का राजस्थान के उणियारा ठिकाने में भी विकास हुआ था।
  • ख्याल शैली –
  • ध्रुवपद गायन शैली की तरह राजस्थान में ख्याल शैली के भी विभिन्न घराने ग्वालियर, दिल्ली, आगरा, जयपुर, पटियाला, रंगीला, अलादिया खां व कव्वाल बच्चों का घराना आदि प्रमुख रूप से विकसित हुए।
  • राजस्थान में जयपुर घराने के प्रवर्तक मनरंग माने जाते है।
  • इस घराने के प्रसिद्ध गायक मुहम्मद अलीखां कोठी वाले के नाम से प्रसिद्ध थे। ये जयपुर महाराजा राम सिंह के दरबारी संगीतज्ञ थे।
  • ख्याल शैली के प्रमुख गायकों में भूर्जीखां, मंजीखां, गुलुभाई जसदान, कुर्डीकर, मोंगूबाई, केसरबाई केरकर आदि प्रमुख है।
  • मेवाती घराना – 
  • मेवाती घराना ख्याल गायकी का प्रमुख घराना है, जिसका प्रारम्भ राजस्थान से ही हुआ है। इसके आरम्भकर्ता घग्घे नजीरखां थे।
  • घग्घे नजीरखां जोधपुर के महाराजा जसवन्तसिंह के दरबारी गायक थे।
  • पटीयाला घराना –
  • इसे जयपुर घराने का उप घराना माना जाता है। इसके संस्थापक- अलीबख्श और फतहअली को माना जाता है।
  • इन दोनो ने राजस्थान की प्रमुख गायिका गोकीबाई से संगीत शिक्षा ग्रहण की तथा पटियाला दरबार में जाकर अपनी स्वतंत्र गायकी पटियाला घराने के रूप में विकसित की।
  • सेनिया घराना –
  • यह राजस्थान में सितार का प्रसिद्ध घराना है।
  • इस घराने के प्रमुख गायक अलवर व जयपुर राज्यों में रहे।
  • प्रमुख गायक- सुखसेन, रहीमसेन, हिम्मतसेन, लालसेन आदि।
  • जयपुर के बीनकर घराने के रजब अलीखां, सांवलखां, मुर्शरफ खां आदि प्रमुख वाद्यक हुए।

राजस्थान के प्रमुख संगीत ग्रंथ

  • संगीत राज –
  • इसकी रचना मेवाड़ के महाराणा कुम्भा द्वारा 15 वीं सदीं में की गई।
  • ये पाँच कोषो- पाठ्य, गीत, वाद्य, नृत्य और रस रत्नकोष आदि में विभक्त है। इसे ‘उल्लास’ कहा गया है।
  • उल्लास को पुन: ‘परीक्षण’ में बांटा गया है।
  • इसमें ताल, राग, वाद्य, नृत्य, रस, स्वर आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है। 
  • राग मंजरी – 
  • इसकी रचना पुण्डरीक विठ्‌ठल ने की थी।
  •  ये जयपुर महाराजा मानसिंह के दरबारी थे।
  • राग माला – 
  • इस ग्रंथ की रचना भी पुण्डरीक विठ्ठल ने की थी।
  • इसमे राग- रागिनी  व शुद्ध स्वर-सप्तक का उल्लेख किया गया है।
  • शृंगार हार –  
  • रणथम्भौर के शासक हम्मीर देव ने इस ग्रंथ की रचना की थी।
  • इस ग्रंथ में सर्वप्रथम मेल राग पद्वति का उल्लेख मिलता है।
  • पण्डित भावभट्‌ट के संगीत ग्रंथ –  
  • ये बीकानेर के महाराजा अनूपसिंह के दरबारी थे।
  • इनके द्वारा रचित ग्रंथों में ‘अनूप संगीत रत्नाकर’, ‘अनूप विलास’, ‘अनूप राग सागर’, ‘अनूप राग माला’, ‘भाव मंजरी’ आदि प्रमुख है।
  • राधागोविन्द संगीत सागर – 
  • इसकी रचना जयपुर के महाराजा सवाई प्रतापसिंह ने करवाई।
  • इस ग्रंथ में बिलावल को शुद्ध स्वर सप्तक कहा गया है।
  • राग-रत्नाकर –  
  • जयपुर के उणीयारा ठिकाने के राव भीमसिंह के दरबार में रहकर राधा कृष्ण ने इस ग्रंथ की रचना की।
  • राग कल्पद्रुम –  
  • श्री कृष्णानन्द व्यास (मेवाड़) ने इस ग्रंथ की रचना की थी।
  • यह ग्रंथ  संगीत के साथ-साथ हिन्दी साहित्य के इतिहास के निर्माण के लिये भी उपयोगी माना जाता है। 
  • रागमाला ग्रंथ –
  • राजस्थान में रचित ये संगीत विशेष ग्रंथ है जिनमें रागों के गायन-वादन से निर्मित भावों को कवियों द्वारा शब्दों व चित्रकारों द्वारा चित्रों के रूप में वर्णित किया गया है।
  • रागमालाओं में पद्यबद्ध व सचित्र पद्यबद्ध रागमालाएँ प्रमुख है।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

राजस्थान की लोक गायन शैलियाँ

(क) माण्ड गायिकी :- जैसलमेर क्षेत्र में 10वीं सदी में लोक संगीत में विकसित एक परम्परागत गायन शैली है। यह राजस्थान की एक शृंगार रसात्मक राग है। इस गायिकी में घराना परम्परा का अभाव है।

 प्रसिद्ध मांड गायिकाएँ :- ‘स्व. गवरी देवी’ (बीकानेर), गवरी देवी (पाली), स्वर्गीय मांगीबाई (उदयपुर) जमीलाबानो (जोधपुर), स्व. हाजन अल्लाह जिलाह बाई (बीकानेर)।

(ख) मांगणियार गायिकी :- राजस्थान के सीमावर्ती जिलों बाड़मेर, जैसलमेर, जोधपुर में मांगणियार जाति के लोगों द्वारा अपने यजमानों के यहाँ मांगलिक अवसरों पर गायी जाने वाली लोक गायन शैली है। इस गायिकी में 6 राग एवं 36 रागनियाँ होती हैं। मांगणियार मुस्लिम मूलत: सिंध प्रांत के हैं। गायन-वादन ही इनका प्रमुख पेशा है। इनके प्रमुख वाद्य कमायचा, खड़ताल आदि हैं।

 प्रसिद्ध मांगणियार कलाकार :- साफर खाँ मांगणियार, गफूर खाँ मांगणियार, रमजान खाँ (ढोलक वादक), सद्दीक खाँ (खड़ताल वादक), साकर खाँ मांगणियार (कमायचा वादक)।

(ग) लंगा गायिकी :- बीकानेर, बाड़मेर, जोधपुर एवं जैसलमेर जिले के पश्चिमी क्षेत्रों में मांगलिक अवसरों एवं उत्सवों पर लंगा जाति के गायकों द्वारा गायी जाने वाली गायन शैली है। सारंगी एवं कमायचा इनके प्रमुख वाद्य हैं।

 प्रमुख लंगा कलाकार :- फूसे खाँ, महरदीन लंगा, करीम खाँ लंगा।

(घ) तालबंदी गायिकी :- यह राजस्थान के पूर्वी अंचल (धौलपुर, भरतपुर, करौली एवं सवाईमाधोपुर) में लोक गायन की शास्त्रीय परम्परा है, जिसमें राग-रागनियों से निबद्ध प्राचीन कवियों की पदावलियाँ सामूहिक रूप से गायी जाती है। इसमें प्रमुख वाद्य सारंगी, हारमोनियम, ढोलक, तबला व झांझ हैं।

राजस्थान की संगीतजीवी जातियाँ

(क) कलावन्त :- अबुल फजल के अनुसार कलावन्त ध्रुपद के पारंगत गायक है। मारवाड़ के कलावन्त सुन्नी मुसलमान है। ये गायक होते हैं जो वाद्य यंत्र नहीं बजाते हैं तथा नृत्य से परहेज करते हैं। जयपुर का डागर घराना इसी जाति का है। तानसेन के वंशज माने जाते हैं।

(ख) कव्वाल :- सूफी परम्परा के गायक। कव्वाली इनकी गायन शैली है, जिसका आविष्कार अमीर खुसरो ने किया।

(ग) ढाढ़ी :- पश्चिमी राजस्थान की गायक – वादक जाति। सारंगी व रबाब इनका प्रमुख वाद्य हैं। ये ‘चिंकारा’ नामक वाद्य भी बजाते हैं।

(घ) मिरासी :- मुस्लिम गायक जाति जो लोककाव्य को पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रखती है। यह जाति मुख्यत: मारवाड़, जयपुर एवं अलवर क्षेत्र में विस्तृत है।

(ड) मांगणियार :- अर्थ :- मांगने वाला। ये जाति जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर में निवास करने वाली गायक वादक जाति है। लंगा एवं मांगणियार विशिष्ट प्रकार के गीत गाते हैं जो ‘जागड़ा’ कहलाते हैं। ये मुसलमान है और इनकी खापें देधड़ा, बेद, बारणी, कालुंभा, जारया, सोनलिया, गुणसार, पौड़िया हैं।

 प्रमुख वाद्य :- कामयचा, खड़ताल।

(च) भाट :- भाट अपने यजमानों की वंशावलियाँ लिखते हैं और उनका बखान करते हैं। उत्तर पश्चिम राजस्थान में भाट अधिक संख्या में पाए जाते हैं।

(छ) डोम :- ये भाटों का ही उपवंश है जो हिन्दू धर्म को मानते हैं।

(ज) ढोली :- मांगलिक अवसरों पर ढोल बजाने वाली जाति। इन्हें दमामी, नक्कारची, जावड़ आदि भी कहा जाता है। जड़िया, गीता, देधड़ा, देसार, बगार, तेखा, डांगी आदि ढोली की प्रमुख खापें हैं।

(झ) लंगा :- पश्चिमी राजस्थान में निवास करने वाली गायक व वादक जाति लंगा मुस्लिम होते हुए भी हिन्दू त्यौहार मनाते हैं व जोगमाया को मानते हैं। माँड गायन में इनको महारत हासिल हैं। बड़वना (बाड़मेर) गाँव इस जाति का मुख्य स्थान है।

 प्रमुख वाद्य :- सारंगी।

(ञ) भवाई :- नाचने-गाने वाली इस जाति की उत्पत्ति केकड़ी (अजमेर) से नागाजी जाट से मानी जाती है। मेवाड़ क्षेत्र में रहने वाली इस जाति का ‘भवाई’ नृत्य संसारभर में प्रसिद्ध है।

(ट) रावल :- मारवाड़ के सोजत-जैतारण क्षेत्र, बीकानेर तथा मेवाड़ के कुछ क्षेत्रों में पाई जाने वाली संगीत जीवी जाति जिसकी रम्मतें विख्यात हैं। रावल जाति चारणों को अपना यजमान मानती हैं।

(ठ) कामड़ :- रामदेवजी के परमभक्त। कामड़ जाति की स्त्रियाँ तेरहताली नृत्य में प्रवीण होती हैं।

(ड) भोपा :- कथावाचक, जो पड़ का श्रोताओं के सम्मुख ओजपूर्ण रूप से वर्णन करता है। देवरे का मुख्य भोपा पाटवी कहलाता है। कुछ देवी-देवताओं के भोपे भाव आने पर रूई की जलती बाती को जीभ पर रखकर मुँह बंद कर लेते हैं, इसे ‘केकड़ा खाना’ कहते है।

 भोपे  सम्बन्धित वाद्य

 रामदेवजी के भोपे :- तन्दूरा

 पाबूजी के भोपे :- रावणहत्था

 भैरूजी के भोपे :- मशक

 गोगाजी के भोपे :- डेरू

(ढ) सरगड़ा :- ढोल वादक जाति। कच्छी घोड़ी नृत्य में कुशल। बर्गू वाद्य यंत्र का प्रयोग सरगड़ा जाति द्वारा किया जाता है। बर्गू सुषिर वाद्य है।

(ण) कानगूजरी :- मारवाड़ की गायक जाति जो राधा-कृष्ण के भक्ति गीतों का गायन रावणहत्था के साथ करती है।

(त) जोगी :- नाथ पंथ के अनुयायी, जो गाने बजाने का काम करते हैं। इनका मुख्य वाद्य यंत्र सारंगी व इकतारा है।

 बैरागी, कालबेलिया, कठपुतली, अड़ भोपा, फंदाली, चारण, राव, मोतीसर आदि प्रमुख अन्य संगीतजीवी जातियाँ हैं।

प्रमुख संगीतज्ञ :

(1) अल्लाह जिलाह बाई :- राजस्थान की विख्यात मांड गायिका।

 राजस्थान के बीकानेर जिले की निवासी

 1982 में ‘पद्‌मश्री’ अलंकरण से सम्मानित।

 प्रमुख गीत :- केसरिया बालम आवों नी पधारो म्हारे देश……

 मरणोपरान्त राजस्थान रत्न पुरस्कार – 2012 से सम्मानित।

(2) जगजीत सिंह :- विख्यात गजल गायक।

 श्रीगंगानगर में जन्म।

 उपनाम :- गजल किंग।

 2003 में ‘पद्‌मभूषण’ से सम्मानित।

 मरणोपरान्त राजस्थान रत्न पुरस्कार – 2012 से सम्मानित।

(3) करणा भील :- जैसलमेर का प्रसिद्ध नड़ वादक।

 पहले किसी समय कुख्यात डाकू था।

 वह अपनी छ: फुट 8 इंच लम्बी मूछों के लिए भी विख्यात था।

(4) गवरी बाई :- डूंगरपुर निवासी।

 कृष्ण भक्ति के कारण ‘वागड़ की मीरां’ की उपमा।

 ग्रन्थ :- ‘कीर्तनमाला’ (801 पद)।

 1818 ई. में इन्होंने यमुना जी में जल समाधि ले ली।

(5) बन्नो बेगम :- मांड गायिका। जयपुर निवासी।

(6) मेहंदी हसन :- मशहूर गजल गायक। झुंझुनूं जिले से सम्बन्ध।

(7) जमीला बानो :- जोधपुर निवासी मांड गायिका।

(8) नारायण सिंह बैगनियां :- धौलपुर निवासी। राजस्थान का सबसे छोटा कलाकार (24 इंच)। प्रसिद्ध लोक संगीतज्ञ।

(9) रुकमा मांगणियार :- बाड़मेर की ‘कागी’ गायिका। यह मांगणियार जाति की पहली महिला गायिका है।

(10) पण्डित बाबूलाल :- जयपुर कथक घराने के मूर्धन्य कलाकार।

(11) मधु भट्‌ट तैलंग :- ध्रुपद गायिका।

अन्य :-

– राजस्थान का राज्य गीत :- केसरिया बालम ……….।

– केसरिया बालम गीत की गायन शैली :- मांड गायन शैली।

– रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लोकगीतों को संस्कृति का सुखद सन्देश ले जाने वाली कला की संज्ञा दी।

– महात्मा गाँधी के अनुसार ‘लोकगीत ही जनता की भाषा है, लोकगीत हमारी संस्कृति के पहरेदार है।’

– इण्डोणी, पणिहारी गीत मारवाड़ क्षेत्र में कालबेलिया स्त्रियों द्वारा पानी भरते समय गाया जाता हैं।

– गोरबन्द :- रेगिस्तानी क्षेत्र में ऊँट का शृंगार करते समय गाया जाने वाला गीत है। गोरबन्द ऊँट के गले का आभूषण है।

– हिचकी :- अलवर-मेवात क्षेत्र में कभी भी याद करने के लिए गाया जाता है।

– सूवटियां :- मेवाड़ क्षेत्र में गाया जाने वाला विरह गीत है, जिसमें भील स्त्री परदेस गये पति को संदेश भेजती है।

– हमसीढ़ों :- मेवात क्षेत्र में श्रावण/फाल्गुन मास में भील स्त्री-पुरुषों द्वारा साथ में मिलकर गाया जाने वाला युगल गीत है।

– पटेल्या, लालर, बिछियों आदि आदिवासी क्षेत्र में गाये जाने वाले लोकगीत हैं।

– घोड़ी, जला, कामण, काजलियो व ओल्यूं आदि लोकगीत विवाह से सम्बन्धित हैं।

– जच्चा :- पुत्र जन्मोत्सव पर गाया जाने वाला सामूहिक मंगल गीत। इसे ‘होलर’ भी कहा जाता है।

– मोरिया :- विवाह की प्रतीक्षा में बािलका द्वारा गाया जाने वाला गीत।

– पंखिडा :- पंखिडा का अर्थ है ‘प्रेम’। काश्तकारों द्वारा खेतों में काम करते समय अलगोजा और मंजीरा वाद्य यंत्र बजाकर गाते हैं।

– लोटिया :- स्त्रियों द्वारा चैत्र मास में त्यौहार के दौरान तालाबों और कुओं से पानी से भरे लौटे और कलश लाये जाने के दौरान गाया जाता है।

– चोक च्यानणी गीत गणेश चतुर्थी महोत्सव में गाये जाते हैं।

– ‘सद्दीक खाँ मांगणियार लोक कला एवं अनुसंधान परिषद (लोकरंग)’ की स्थापना :- 13 सितम्बर, 2002, जयपुर में।

– महाराणा कुम्भा की पुत्री ‘रमाबाई’ प्रसिद्ध संगीतज्ञ थी, जिसे ‘वागीश्वरी’ की उपमा दी गई।

– हवेली संगीत :- मंदिरों में विकसित संगीत धारा। नाथद्वारा, कांकरोली, जयपुर, कोटा, भरतपुर आदि के मंदिरों में हवेली संगीत की परम्परा आज भी जीवित है।

– ‘Indian Music’ पुस्तक के लेखक :- विलियम जेम्स (बीकानेर)।

– नवाब वाजिद अली शाह ‘ललनपिया’ के उपनाम से ठुमरियों की रचना करते थे।

– ध्रुपद सामदेव का संगीत है। ध्रुपद की चार शैलियाँ – खंडारी, नौहारी, डागुरी एवं गौबरहारी (गोहरहारी)। गोहरहारी शैली की उत्पत्ति ग्वालियर से हुई है तथा इसके प्रवर्तक तानसेन को माना जाता है।

 खण्डारवाणी का उद्‌भव उणियारा (राजस्थान) खंडार के शासक सम्मोखन सिंह के समय हुआ।

 नौहारवाणी :- श्रीचंद नौहर इसके प्रवर्तक थे।

– डागर घराने के प्रसिद्ध गायक :- अमीनुद्दीन खाँ, जहीरुद्दीन खाँ, फैयाजुद्दीन खाँ।

– पुण्डरीक विट्‌ठल जयपुर महाराजा माधोसिंह एवं मानसिंह के आश्रित कवि व संगीतज्ञ थे।

– तबला एवं सितार के आविष्कारक :- अमीर खुसरो।

– मिर्जा गालिब का पूरा नाम :- मौलाना असद अल्ला खाँ गालिब।

– तानसेन :- रीवा के राजा रामचन्द्र के दरबारी एवं अकबर के नवरत्नों में से एक। ग्वालियर में जन्म। प्रकाण्ड संगीतज्ञ।

– गन्धर्व बाइसी :- जयपुर शासक सवाई प्रतापसिंह के समय उनके दरबार में 22 प्रसिद्ध संगीतज्ञों एवं विद्वानों की मंडली।

 देवर्षि द्वारकानाथ भट्ट, ब्रजपाल भट्ट, चाँद खाँ, गणपति भारती सवाई प्रतापसिंह के दरबारी संगीतज्ञ थे।

– प्रसिद्ध संगीतज्ञ भावभट्ट महाराजा अनूपसिंह (बीकानेर) के दरबारी थे।

गायन एवं वादन के प्रमुख घराने :-

घरानाप्रवर्तकविशेषताएँ
जयपुर घरानाभूपत खाँख्याल गायन शैली का घरानाप्रसिद्ध संगीतज्ञ :- मुहम्मद अली खाँ कोठी, केसर बाई केरगर, मंजी खाँ, भूर्जी खाँ।
पटियाला घरानाफतेह अली एवं अलीबख्शजयपुर घराने के उपशाखा।‘गुलाम अली’ इसी घराने से सम्बन्धित
बीनकार घरानारज्जब अली खाँप्रसिद्ध गायक :- सादिक अली खाँ, सावल खाँ
अतरौली घरानाअल्लादिया खाँजयपुर घराने की उपशाखाप्रसिद्ध संगीतज्ञ :- मानतोल खाँ (रुलाने वाले फकीर की उपमा)प्रसिद्ध गायिका :- किशोरी अमोणकर
मेवाती घरानानजीर खाँमोतीराम ज्योतिराम, पं. जसराज, पं. मणिराम इसी घराने से संबंधित है।
डागर घरानाबहराम खाँ(महाराजा रामसिंह के दरबारी)आदि पुरुष :- बाबा गोपालदास।
जयपुर का सेनिया घरानासूरतसेनसितारियों का घराना
किराना घरानाबन्दे अली खाँमहाराष्ट्र में प्रचलित। गंगू बाई हंगल, रोशन आरा बेगम, पं. भीमसेन जोशी प्रसिद्ध संगीतज्ञ है।
दिल्ली घरानासदारंग (नियामत खाँ)सदारंग ख्याल गायन शैली के प्रवर्तक माने जाते है।

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