लोक देवी-देवता

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I. लोक देवियाँ –

  • करणी माता – बीकानेर के राठौड़ शासकों की कुलदेवी। ‘चूहों वाली देवी’ के नाम से विख्यात। जन्म सुआप गाँव के चारण परिवार में।

मंदिर : देशनोक (बीकानेर)।

करणीजी के काबे : इनके मंदिर के चूहे। यहाँ सफेद चूहे के दर्शन करणजी के दर्शन माने जाते हैं।

–  राव जोधा के समय मेहरानगढ़ दुर्ग की नींव करणीमाता ने रखी।

–  करणीमाता की गायों का ग्वाला-दशरथ मेघवाल

–  राव कान्ह ने इनकी गायों पर हमला किया।

–  महाराजा गंगासिंह ने इस मन्दिर में चांदी के किवाड़ भेंट किया।

–  इनके बचपन का नाम रिद्धुबाई था।

–  मठ – देवी के मन्दिर को मठ कहते हैं।

– अवतार – जगत माता

– उपनाम – काबा वाली माता, चूहों की देवी।

– करणी जी की इष्ट देवी ‘तेमड़ा जी’ हैं। करणी जी के मंदिर के पास तेमड़ा राय देवी का भी मंदिर है। करणी देवी का एक रूप ‘सफेद चील’ भी है।

 ‘नेहड़ी’ नामक दर्शनीय स्थल है जो करणी माता के मंदिर से कुछ दूर स्थित है।

 करणी जी के मठ के पुजारी चारण जाति के होते हैं।

 करणी जी के आशीर्वाद एवं कृपा से ही राठौड़ शासक ‘राव बीका’ ने बीकानेर में राठौड़ वंश की स्थापना की थी। चैत्र एवं आश्विन माह की नवरात्रि में मेला भरता है।

  • जीण माता – चौहान वंश की आराध्य देवी। ये धंध राय की पुत्री एवं हर्ष की बहन थी। मंदिर में इनकी अष्टभुजी प्रतिमा है। मंदिर का निर्माण रैवासा (सीकर) में पृथ्वीराज चौहान प्रथम के समय राजा हट्टड़ द्वारा।

–  जीणमाता की अष्टभुजा प्रतिमा एक बार में ढ़ाई प्याला मदिरा पान करती है। इसे प्रतिदिन ढाई प्याला शराब पिलाई जाती है।

–  जीणमाता का मेला प्रतिवर्ष चैत्र और आश्विन माह के नवरात्रों में लगता है।

जीण माता तांत्रिक शक्तिपीठ है। इसकी अष्टभुजी प्रतिमा के सामने घी एवं तेल की दो अखण्ड ज्योति सदैव प्रज्वलित रहती हैं।

जीण माता का गीत राजस्थानी लोक साहित्य में सबसे लम्बा है। यह गीत कनफटे जोगियों द्वारा डमरू एवं सारंगी वाद्य की संगत में गाया जाता है।

जीण माता का अन्य नाम भ्रामरी देवी है।

  • कैला देवी – करौली के यदुवंश (यादव वंश) की कुल देवी। इनकी आराधना में लागुरिया गीत गाये जाते हैं। मंदिर : त्रिकूट पर्वत की घाटी (करौली) में। यहाँ नवरात्रा में विशाल लक्खी मेला भरता है।
  • कैला देवी का लक्खी मेला प्रतिवर्ष चैत्र मास की शुक्ला अष्टमी को भरता है। कैला देवी मंदिर के सामने बोहरा की छतरी है।
  • शिला देवी – जयपुर के कछवाहा वंश की आराध्य देवी/कुल देवी। इनका मंदिर आमेर दुर्ग में है।
  • अन्नपूर्णा – शिलामाता की यह मूर्ति पाल शैली में काले संगमरमर में निर्मित है। महाराजा मानसिंह पं. बंगाल के राजा केदार से ही सन् 1604 में मूर्ति लाए थे।

–  इस देवी को नरबलि दी जाती थी तथा यहाँ भक्तों की मांग के अनुसार मन्दिर का चरणामृत दिया जाता है। मान्यता है कि इस देवी की जहाँ पूजा होती है उसे कोई नहीं जीत सका।

  • जमुवाय माता – ढूँढाड़ के कछवाहा राजवंश की कुलदेवी। इनका मंदिर जमुवारामगढ़, जयपुर में है। दुलहराय द्वारा मंदिर का निर्माण करवाया गया।
  • आईजी माता – सिरवी जाति के क्षत्रियों की कुलदेवी। इनका मंदिर बिलाड़ा (जोधपुर) में है। मंदिर ‘दरगाह’ व थान ‘बडेर’ कहा जाता है। ये रामदेवजी की शिष्या थी। इन्हें मानी देवी (नवदुर्गा) का अवतार माना जाता है।

–  इनके मन्दिर में मूर्ति नहीं होती तथा एक दीपक की लौ से केसर टपकती रहती है। इनके मन्दिर का पूजारी दीवान कहलाता है।

  • राणी सती – वास्तविक नाम ‘नारायणी’। ‘दादीजी’ के नाम से लोकप्रिय। झुंझुनूँ में राणी सती के मंदिर में हर वर्ष भाद्रपद अमावस्या को मेला भरता है।

–  इनके पति का नाम – तनधनदास

नोट – इन्होंने हिसार में मुस्लिम सैनिकों को मारकर अपने पति की मृत्यु का बदला लिया और स्वयं सती हो गयी कुलदेवी।

– अग्रवाल समाज की कुलदेवी।

–  राज्य सरकार ने 1988 में इस मेले पर प्रतिबंध लगा दिया क्योंकि 1987 में देवराला (सीकर) में “रूपकंवर” नामक राजपूत महिला सती हो गयी थी।

  • आवड़ माता – जैसलमेर के भाटी राजवंश की कुलदेवी। इनका मंदिर तेमड़ी पर्वत (जैसलमेर) पर है।

–  जैसलमेर के तेमड़ी पर्वत पर एक साथ सात कन्याओं को देवियों के रूप में पूजा जाता है।

  • स्वांगियाजी माता – सुगनचिड़ी को आवड़ माता का स्वरूप माना जाता है।
  • शीतला माता – चेचक की देवी। बच्चों की संरक्षिका देवी। जांटी (खेजड़ी) को शीतला मानकर पूजा की जाती है। मंदिर-चाकसू (जयपुर) जिसका निर्माण जयपुर के महाराजा श्री माधोसिंह द्वितीय जी ने करवाया था। चैत्र कृष्णा अष्टमी को वार्षिक पूजा व इस मंदिर में विशाल मेला भरता है। इस दिन लोग बास्योड़ा मनाते हैं। इनकी पूजा खंडित प्रतिमा के रूप में की जाती है तथा पुजारी कुम्हार होते हैं। इनकी सवारी ‘गधा’ है। इसे सैढल माता या महामाई भी कहा जाता है। शीतलाष्टमी को लोग बास्योड़ा (रात का बनाया ठण्डा भोजन) खाते हैं। शीतला माता एकमात्र देवी है जो खण्डित रूप में पूजी जाती है।
  • सुगाली माता – आउवा के ठाकुर परिवार की कुलदेवी। इस देवी प्रतिमा के दस सिर और चौपन हाथ है।

– इन्हें 1857 की क्रान्ति की देवी माना जाता है।

  • नकटी माता – जयपुर के निकट जय भवानीपुरा में ‘नकटी माता’ का प्रतिहारकालीन मंदिर है।
  • ब्राह्मणी माता – बाराँ जिले के अन्ता कस्बे से 20 किमी. दूर सोरसन ग्राम के पास ब्राह्मणी माता का विशाल प्राचीन मंदिर है। विश्व में संभवतः यह अकेला मंदिर है जहाँ देवी की पीठ की ही पूजा होती है अग्र भाग की नहीं। यहाँ माघ शुक्ला सप्तमी को गधों का मेला भी लगता है।
  • जिलाणी माता – अलवर जिले के बहरोड़ कस्बे की लोक देवी। यहाँ इनका प्रसिद्ध मंदिर है।
  • अम्बिका माता – जगत (उदयपुर) में इनका मंदिर है, जो मातृदेवियों को समर्पित होने के कारण शक्तिपीठ कहलाता है। जगत का मंदिर ‘मेवाड़ का खजुराहो’ कहलाता है। यह राजा अल्लट के काल में 10वीं सदी के पूर्वार्द्ध में महामारु शैली में निर्मित है। यह मंदिर मातृदेवियों को समर्पित हैं।
  • पथवारी माता – तीर्थयात्रा की सफलता की कामना हेतु राजस्थान में पथवारी देवी की लोक देवी के रूप में पूजा की जाती है। पथवारी देवी गाँव के बाहर स्थापित की जाती है।

राजस्थान की अन्य लोक देवियाँ

  • नागणेची – जोधपुर। जोधपुर के राठौड़ों की कुलदेवी। थान-नीम के वृक्ष के नीचे। 18 भुजाओं वाली प्रतिमा जोधपुर में राव बीका ने स्थापित करवाई थी।
  • घेवर माता – राजसमन्द की पाल पर इनका मंदिर है। यह एक सती मन्दिर है। नोट – ये बिना पति के सती होने वाली देवी है।, राजसमन्द की पाल बनाने का श्रेय इन्हें ही जाता है।
  • बाणमाता – राजसमंद। सिसोदिया राजवंश की कुल देवी।
  • सिकराय माता – उदयपुरवाटी (झुंझुनूँ)। खण्डेलवालों की कुलदेवी।
  • ज्वाला माता – जोबनेर। खंगारोतों की कुल देवी।
  • सच्चियाँ माता – ओसियाँ (जोधपुर)। ओसवालों की कुलदेवी। मारू गुर्जर (सोलंकी) शैली में निर्मित।
  • आशापुरी या महोदरी माता – मोदरां (जालौर)। जालौर के सोनगरा चौहानों की कुलदेवी।
  • भदाणा माता – भदाणा (कोटा)। यहाँ मूठ से पीड़ित व्यक्ति का इलाज होता है।
  • असावरी माता – निकुम्भ (चित्तौड़गढ़)। यहाँ लकवे का इलाज होता है।
  • तनोटिया देवी – तनोट (जैसलमेर)। राज्य में सेना के जवान इस देवी की पूजा करते हैं। थार की वैष्णोदेवी। रूमालों वाली देवी। नोट- 1965 में पाक द्वारा गिराये गये बम निष्क्रिय हो गये थे। वर्तमान में यह मन्दिर “सीमा सुरक्षा बल” के अन्तर्गत आता है।
  • महामाया माता – मावली। शिशु रक्षक लोकदेवी। (उदयपुर)
  • शाकम्भरी देवी – शाकम्भरी (सांभर)। यह चौहानों की कुल देवी है।
  • बड़ली माता – आकोला (चित्तौड़गढ़)। बेड़च नदी के किनारे मंदिर की दो तिबारियों में से बच्चों को निकालने पर उनकी बीमारी दूर हो जाती है।
  • त्रिपुर सुंदरी (तुरताई माता) – तलवाड़ा (बाँसवाड़ा)। काले पत्थर में उत्कीर्ण मूर्ति है।
  • क्षेमकरी माता – भीनमाल (जालौर)।
  • लटियाल देवी – फलौदी (जोधपुर)।
  • अम्बा माता – उदयपुर एवं अम्बानगर (आबूरोड़)।
  • आसपुरी माता – आसपुर (डूँगरपुर)।
  • छिंछ माता – बाँसवाड़ा।
  • सुंडा देवी – सुंडा पर्वत (भीनमाल)।
  • नारायणी माता – राजगढ़ (अलवर)।
  • मरकंडी माता – निमाज।
  • चारभुजा देवी – खमनौर (हल्दीघाटी)।
  • दधिमति माता – गोठ-मांगलोद (जायल, नागौर)। यह दाधीच ब्राह्मणों की आराध्य देवी है।
  • इंदर माता – इन्द्रगढ़ (बूँदी)।
  • भद्रकाली – हनुमानगढ़।
  • सीमल माता – वसंतगढ़ (सिरोही)।
  • अधरदेवी – माउण्ट आबू (सिरोही)।
  • भँवाल माता – भांवल ग्राम (मेड़ता, नागौर)।
  • चौथ माता – चौथ का बरवाड़ा (सवाईमाधोपुर)।
  • पीपाड़ माता – ओसियाँ (जोधपुर)।
  • कैवाय माता – किणसरिया (परबतसर, नागौर)। किणसरिया (नागौर) में कैवाय माता का प्राचीन मन्दिर है। इस मन्दिर का निर्माण सांभर के चौहान शासक दुर्लभराज के सामन्त चच्चदेव ने वि. स. 1056 में करवाया था। मंदिर में दीवारों पर 10 शिलालेख और उत्कीर्ण हैं।
  • बिरवड़ी माता – चित्तौड़गढ़ दुर्ग एवं उदयपुर।
  • हिंगलाज माता – नारलाई (जोधपुर), लोद्रवा (जैसलमेर)
  • अर्बुदा देवी – इनका मन्दिर माउण्ट आबू (सिरोही) में स्थित है। इन्हें राजस्थान की वैष्णों देवी के नाम से जाना जाता है।
  • इडाणा माता – सलूम्बर (उदयपुर) में इनका मन्दिर है। आदिवासी इन्हें अग्नि स्नान करने वाली देवी कहते हैं।
  • राजेश्वरी माता – भरतपुर में जाटों की कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है।
  • चामुंडा माता (अजमेर) – सन् 1183 ई. में महामाया चामुण्डा देवी का यह भव्य सुन्दर मन्दिर पृथ्वीराज चौहान ने निर्मित करवाया था। देवी चामुण्डा – पृथ्वीराज चौहान की तथा चारण भाट कवि चंदबरदाई की इष्ट देवी थी।
  • जोगणिया माता – ऊपरमाल (भीलवाड़ा)

– यात्रियों की मनोकामना पूरी होने पर मन्दिर परिसर में मुर्गे छोड़कर जाने की भी प्रथा है।

नोट – चरजा – चारण देवियों की स्तुति चरजा कहलाती है। जो दो प्रकार की होती है।

1. सिघाऊ – शांति/सुख के समय उपासना

2. घाडाऊ – विपत्ति के समय उपासना

ढाला – सात देवियों की सम्मिलित प्रतिमा स्वरूप

राजस्थान के ग्रामीण अंचलों में चबूतरेनूमा बने हुए लोकदेवताओं के पूजा स्थल ‘देवरे’ कहलाते हैं तो अलौकिक शक्ति द्वारा किसी कार्य को करना अथवा करवा देना “पर्चा देना” कहलाता है।

II. लोक देवता

मारवाड़ के पंच पीर : (1) गोगाजी (2) पाबूजी (3) हड़बूजी (4) रामदेव जी (5) मेहा जी।

पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया मेहा।

पाँचों पीर पधारजो गोगाजी गेहा।।

(1) गोगाजी चौहान :

  • पंच पीरों में सर्वाधिक प्रमुख स्थान।
  • जन्म – संवत् 1003 में, जन्म स्थान – ददरेवा (चूरू)।
  • पिता – जेवरजी चौहान, माता – बाछल दे, पत्नी – कोलुमण्ड (फलौदी, जोधपुर) की राजकुमारी केलमदे (मेनलदे)।
  • केलमदे की मृत्यु साँप के कांटने से हुई जिससे क्रोधित होकर गोगाजी ने अग्नि अनुष्ठान किया। जिसमें कई साँप जलकर भस्म हो गये फिर साँपों के मुखिया ने आकर उनके अनुष्ठान को रोककर केलमदे को जीवित करते हैं। तभी से गोगाजी नागों के देवता के रूप में पूजे जाते हैं।
  • गोगाजी का अपने मौसेरे भाईयों अर्जन व सुर्जन के साथ जमीन जायदाद को लेकर झगड़ा था। अर्जन – सुर्जन ने मुस्लिम आक्रान्ताओं (महमूद गजनवी) की मदद से गोगाजी पर आक्रमण कर दिया। गोगाजी वीरतापूर्वक लड़कर शहीद हुए।
  • युद्ध करते समय गोगाजी का सिर ददरेवा (चूरू) में गिरा इसलिए इसे शीर्षमेडी (शीषमेडी) तथा धड़ नोहर (हनुमानगढ़) में गिरा इसलिए इसे धड़मेड़ी/ धुरमेड़ी/गोगामेड़ी भी कहते हैं।
  • बिना सिर के ही गोगाजी को युद्ध करते हुए देखकर महमूद गजनवी ने गोगाजी को जाहिर पीर (प्रत्यक्ष पीर) कहा।
  • उत्तर प्रदेश में गोगाजी को जहर उतारने के कारण जहर पीर/जाहर पीर भी कहते हैं।
  • गोगामेड़ी का निर्माण फिरोजशाह तुगलक ने करवाया। गोगामेड़ी के मुख्य द्वार पर बिस्मिल्लाह लिखा है तथा इसकी आकृति मकबरेनुमा है। गोगामेड़ी का वर्तमान स्वरूप बीकानेर के महाराजा गंगासिंह की देन है। प्रतिवर्ष गोगानवमी (भाद्रपद कृष्णा नवमी) को गोगाजी की याद में गोगामेड़ी, हनुमानगढ़ में भव्य मेला भरता है।
  • गोगाजी की आराधना में श्रद्धालु सांकल नृत्य करते हैं।
  • गोगामेड़ी में एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी है।
  • प्रतीक चिहृ – सर्प।
  • खेजड़ी के वृक्ष के नीचे गोगाजी का निवास स्थान माना जाता है।
  • गोगाजी की ध्वजा सबसे बड़ी ध्वजा मानी जाती है।
  •  ‘गोगाजी की ओल्डी‘ नाम से प्रसिद्ध गोगाजी का अन्य पूजा स्थल – साँचौर (जालौर)।
  • गोगाजी से सम्बन्धित वाद्य यंत्र – डेरू।
  • किसान वर्षा के बाद खेत जोतने से पहले हल व बैल को गोगाजी के नाम की राखी गोगा राखड़ी बांधते हैं।
  • सवारी – नीली घोड़ी।
  • गोगा बाप्पा नाम से भी प्रसिद्ध है।

(2) पाबूजी राठौड़ :

  • जन्म – 1239 ई. में, जन्म स्थान – कोलुमण्ड गाँव (फलौदी, जोधपुर)।
  • पिता – धाँधल जी राठौड़, माता – कमलादे, पत्नी – फूलमदे/सुपियार दे सोढ़ी।
  • फूलमदे अमरकोट के राजा सूरजमल सोढ़ा की पुत्री थी।
  • पाबूजी की घोड़ी – केसर कालमी (यह काले रंग की घोड़ी उन्हें देवल चारणी ने दी, जो जायल, नागौर के काछेला चारण की पत्नी थी)।
  • सन् 1276 ई. में जोधपुर के देचू गाँव में देवलचारणी की गायों को जींदराव खींची से छुड़ाते हुए पाबूजी वीर गति को प्राप्त हुए, पाबूजी की पत्नी उनके वस्त्रों के साथ सती हुई। इस युद्ध में पाबूजी के भाई बूड़ोजी भी शहीद हुए।
  • पाबूजी के भतीजे व बूड़ोजी के पुत्र रूपनाथ जी ने जींदराव खींची को मारकर अपने पिता व चाचा की मृत्यु का बदला लिया। रूपनाथ जी को भी लोकदेवता के रूप में पूजते हैं। राजस्थान में रूपनाथ जी के प्रमुख मंदिर कोलुमण्ड (फलौदी, जोधपुर) तथा सिम्भूदड़ा (नोखा मण्डी, बीकानेर) में है। हिमाचल प्रदेश में रूपनाथ जी को बालकनाथ नाम से भी जाना जाता है।
  • पाबूजी की फड़ नायक जाति के भील भोपे रावण हत्था वाद्य यंत्र के साथ बाँचते हैं।
  • फड़/पड़ – किसी भी महत्पूर्ण घटना या महापुरुष की जीवनी का कपड़े पर चित्रात्मक अंकन ही फड़/पड़ कहलाता है। फड़ का वाचन केवल रात्रि में होता है। फड़-वाचन के समय भोपा वाद्य यंत्र के साथ फड़ बाँचता है तथा भोपी संबंधित प्रसंग वाले चित्र को लालटेन की सहायता से दर्शकों को दिखाती है तथा साथ में नृत्य भी करती रहती है।

– राजस्थान में फड़ निर्माण का प्रमुख केन्द्र शाहपुरा (भीलवाड़ा) है। वहाँ का जोशी परिवार फड़ चित्रकारी में सिद्धहस्त है। शांतिलाल जोशी व श्रीलाल जोशी प्रसिद्ध फड़ चित्रकार हुए हैं। यह जोशी परिवार वर्तमान में ‘द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका‘ तथा ‘कलिंग विजय के बाद अशोक‘ विषय पर फड़ बना रहा है।

– सर्वाधिक फड़ें तथा सर्वाधिक लोकप्रिय/प्रसिद्ध फड़ पाबूजी की फड़ है।

– रामदेवजी की फड़ कामड़ जाति के भोपे रावण हत्था वाद्य यंत्र के साथ बाँचते हैं।

– सबसे प्राचीन फड़, सबसे लम्बी फड़ तथा सर्वाधिक प्रसंगों वाली फड़ देवनारायण जी की फड़ है।

– भारत सरकार ने राजस्थान की जिस फड़ पर सर्वप्रथम डाक टिकट जारी किया वह देवनारायण जी की फड़ (2 सितम्बर, 1992 को 5 रु. का डाक टिकट) है।

– देवनारायण जी की फड़ गुर्जर जाति के कुँआरे भोपे जंतर वाद्य यंत्र के साथ बाँचते हैं।

– भैंसासुर की फड़ का वाचन नहीं होता, इसकी केवल पूजा (कंजर जाति के द्वारा) होती है।

– रामदला-कृष्णदला की फड़ (पूर्वी राजस्थान में) एकमात्र ऐसी फड़ है जिसका वाचन दिन में होता है।

– शाहपुरा के जोशी परिवार द्वारा बनाई गई अमिताभ बच्चन की फड़ को बाँचकर मारवाड़ का भोपा रामलाल व भोपी पताशी प्रसिद्ध हुए।

  • मारवाड़ में साण्डे (ऊँटनी) लाने का श्रेय पाबूजी को जाता है।
  • पाबूजी ‘ऊँटों के देवता‘, ‘गौरक्षक देवता‘ तथा ‘प्लेग रक्षक देवता‘ के रूप में प्रसिद्ध है।
  • पाबूजी को ‘लक्ष्मण का अवतार‘ माना जाता है।
  • ऊंटों की पालक जाति राईका/रेबारी/देवासी के आराध्य देव पाबूजी हैं।
  • पाबूजी की जीवनी ‘पाबू प्रकाश‘ के रचयिता- आशिया मोड़जी।
  • हरमल व चाँदा डेमा पाबूजी के रक्षक थे।
  • माघ शुक्ला दशमी तथा भाद्रपद शुक्ला दशमी को कोलुमण्ड गाँव (फलौदी, जोधपुर) में पाबूजी का प्रसिद्ध मेला भरता है।
  • पाबूजी के पवाड़े/पावड़े (गाथा गीत) प्रसिद्ध है, जो माठ वाद्य यंत्र के साथ गाये जाते हैं।
  • प्रतीक चिहृ – भाला लिए हुए अश्वारोही तथा बायीं ओर झुकी हुई पाग।

(3) हड़बूजी :

  • मारवाड़ के पंच पीरों में से एक हड़बूजी के पिता का नाम-मेहाजी सांखला (भुंडेल, नागौर)।
  • हड़बूजी बाबा रामदेवजी के मौसेरे भाई थे।
  • गुरु – बालीनाथ।
  • संकटकाल में हड़बूजी ने जोधपुर के राजा राव जोधा को तलवार भेंट की और राव जोधा ने इन्हें बैंगटी (फलौदी, जोधपुर) की जागीर प्रदान की।
  • बैंगटी में इनका प्रमुख पूजा स्थल है। यहाँ हड़बूजी की गाड़ी (छकड़ा/ऊँट गाड़ी) की पूजा होती है। इस गाड़ी में हड़बूजी विकलांग गायों के लिए दूर-दूर से घास भरकर लाते थे।
  • हड़बूजी शकुन शास्त्र के ज्ञाता थे।
  • हड़बूजी की सवारी सियार मानी जाती है।

(4) रामदेवजी :

  • रामसा पीर, रूणेचा रा धणी व पीरां रा पीर नाम से प्रसिद्ध।
  • रामदेव जी को कृष्ण का तथा उनके बड़े भाई बीरमदेव को बलराम का अवतार माना जाता है।
  • पिता का नाम-अजमलजी तंवर, माता-मैणादे, पत्नी-नेतलदे (नेतलदे अमरकोट के राजा दल्लेसिंह सोढ़ा की पुत्री थी।)
  • लोकमान्यता के अनुसार रामदेवजी का जन्म उंडूकाश्मीर गाँव (शिव-तहसील, बाड़मेर) में भाद्रपद शुक्ला द्वितीया को हुआ।
  • समाधि-रूणेचा (जैसलमेर) में रामसरोवर की पाल पर भाद्रपद शुक्ला दशमी को ली।
  • रामदेवजी के लिए नियत समाधि स्थल पर उनकी मुँह बोली बहिन डाली बाई ने पहले समाधि ली।
  • रामदेवजी की सगी बहिनें – लाछा बाई, सुगना बाई।
  • रामसापीर उपनाम से प्रसिद्ध बाबा रामदेवजी ने अपने जीवन काल में कई परचे (चमत्कार) दिखाये। उन्होंने मक्का से पधारे पंचपीरों को भोजन कराते समय उनका कटोरा प्रस्तुत कर उन्हें चमत्कार दिखाया जिससे मक्का के उन पीरों ने कहा कि हम तो केवल पीर हैं, पर आप तो पीरों के पीर हैं।
  • प्रमुख शिष्य-हरजी भाटी, आईमाता।
  • गुरु का नाम-बालीनाथ। बालीनाथजी का मन्दिर-मसूरिया, जोधपुर में।
  • सातलमेर (पोकरण) में भैरव राक्षस का वध रामदेवजी ने किया।
  • नेजा – रामदेवजी की पचरंगी ध्वजा।
  • जातरू – रामदेवजी के तीर्थ यात्री।
  • रिखियां – रामदेवजी के मेघवाल भक्त।
  • जम्मा – रामदेवजी की आराधना में श्रद्धालु लोग रिखियों से जम्मा जागरण (रात्रि कालीन सत्संग) दिलवाते हैं।
  • कुष्ठ रोग निवारक देवता।
  • हैजा रोग के निवारक देवता।
  • सवारी – लीला (हरा) घोड़ा।
  • कामड़ पंथ का प्रारम्भ किया।
  • राजस्थान में कामड़ पंथियों का प्रमुख केन्द्र पादरला गाँव (पाली) इसके अलावा पोकरण (जैसलमेर) व डीडवाना (नागौर) में भी कामड़ पंथी निवास करते हैं।
  • तेरहताली नृत्य- रामदेवजी की आराधना में कामड़ जाति की महिलाएं मंजीरे वाद्य यंत्र का प्रयोग करके प्रसिद्ध तेरहताली नृत्य करती हैं।

– यह बैठकर किया जाने वाला एकमात्र लोकनृत्य है।

– तेरहताली नृत्य के समय कामड़ जाति का पुरुष तन्दुरा (चौतारा) वाद्य यंत्र बजाता है। इस नृत्य को करते समय नृत्यांगना तेरह मंजीरे (नौ दाहिने पांव पर, दो कोहनी पर तथा दो हाथ में) के साथ तेरह ताल उत्पन्न करते हुए तेरह स्थितियों में नृत्य करती है।

– यह एक व्यावसायिक/पेशेवर नृत्य है।

– प्रसिद्ध तेरहताली नृत्यांगनाएँ – मांगीबाई, दुर्गाबाई।

  • रामदेवजी की फड़ कामड़ जाति के भोपे रावण हत्था वाद्य यंत्र के साथ बाँचते हैं।
  • प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला द्वितीया को रामदेवरा (जैसलमेर) में बाबा रामदेवजी का भव्य मेला भरता है। पश्चिमी राजस्थान का यह सबसे बड़ा मेला साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए प्रसिद्ध है।
  • रामदेवजी का प्रतीक चिहृ – पगल्यां (पत्थर पर उत्कीर्ण रामदेवजी के प्रतीक के रूप में दो पैर)।
  • रामदेवजी एकमात्र ऐसे लोकदेवता थे, जो कवि थे। ‘चौबीस बाणियां‘ रामदेवजी की प्रसिद्ध रचना है।
  • रामदेवरा में स्थित रामदेवजी के मंदिर का निर्माण बीकानेर के महाराजा गंगासिंह ने करवाया था।
  • रामदेवजी के पूजा स्थल-रामदेवरा/रूणेचा (जैसलमेर), मसूरिया (जोधपुर), बिराठिया (पाली), बिठूजा (बालोतरा, बाड़मेर), सूरताखेड़ा (चित्तौड़गढ़), छोटा रामदेवरा (जूनागढ़, गुजरात)।

(5) मेहाजी :

  • मांगलियों के ईष्ट देव होने के कारण इन्हें मांगलिया मेहाजी कहते हैं।
  • इनके घोड़े का नाम – किरड़ काबरा।
  • जैसलमेर के राव राणंगदेव भाटी से युद्ध करते हुए शहीद।
  • बापिनी गाँव (ओसियां, जोधपुर) में प्रमुख पूजा स्थल।
  • कृष्ण जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्णा अष्टमी) को लोकदेवता मेहाजी की जन्माष्टमी मनाई जाती है।

मारवाड़ के पंच पीरों के अलावा अन्य लोक देवता

(6) तेजाजी :

  • जन्म – 1074 ई., खड़नाल/खरनाल (नागौर) में, माघ शुक्ला चतुदर्शी को।
  • तेजाजी नागवंशीय जाट थे।
  • पिता का नाम-ताहड़जी जाट, माता का नाम-राजकुंवरी/रामकुंवरी, पत्नी-पेमलदे (पनेर के रायचन्द्र की पुत्री थी।)। 7 सितम्बर, 2011 को सचिन पायलट ने खरनाल (नागौर) में तेजाजी पर 5 रु. का डाक टिकट जारी किया।
  • तेजाजी ने लाछा गुर्जरी की गायों को मेर (वर्तमान आमेर) के मीणाओं से छुड़ाया।
  • सुरसरा (किशनगढ़, अजमेर) में जीभ पर साँप काटने से तेजाजी की मृत्यु।
  • घोड़ी का नाम-‘लीलण‘।
  • तेजाजी की मृत्यु की सूचना उनकी घोड़ी ने घर आकर दी।
  • तेजाजी के पुजारी को घोड़ला कहते थे।
  • काला और बाला के देवता, कृषि कार्य़ों के उपकारक देवता, गौरक्षक देवता के रूप में पूजनीय।
  • अजमेर व नागौर में विशेष पूजनीय।
  • तेजाजी की याद में प्रतिवर्ष तेजादशमी (भाद्रपद शुक्ला दशमी) को परबतसर (नागौर) में भव्य पशु मेला भरता है जो आय की दृष्टि से राजस्थान का सबसे बड़ा पशु मेला है।
  • सेंदरिया, ब्यावर, भावतां, सुरसरा (अजमेर) तथा खरनाल (नागौर) में तेजाजी के प्रमुख पूजा स्थल है।
  • साँप काटने पर तेजाजी के भोपे चबूतरे (तेजाजी के थान) पर पीड़ित व्यक्ति को ले जाकर गौ मूत्र से कुल्ला करके तथा दाँतों में गोबर की राख दबाकर साँप कांटे हुए स्थान से जहर चूसना प्रारम्भ करता है।

(7) देवनारायणजी :

  • जन्म – 1243 ई., वास्तविक नाम-उदयसिंह।
  • बगड़ावत परिवार में जन्म।
  • इनके अनुयायी गुर्जर जाति के लोग इन्हें विष्णु का अवतार मानते हैं।
  • पिता-सवाईभोज, माता-सेढू देवी, पत्नी-पीपलदे।
  • घोड़ा – लीलागर।
  • देवनारायणजी के जन्म से पूर्व ही इनके पिता सवाईभोज भिनाय के शासक से संघर्ष करते हुए अपने 23 भाईयों सहित शहीद हो गये। बाद में देवनारायणजी ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लिया व लम्बी लड़ाईयाँ लड़ी, जिसकी गाथा ‘बगड़ावत महाभारत‘ के रूप में प्रसिद्ध है।
  • देवजी की फड़-गुर्जर जाति के कुँआरे भोपे जंतर वाद्य यंत्र के साथ बाँचते हैं। इनके मन्दिर में मूर्ति की बजाय ईंटों की पूजा नीम की पत्तियों के साथ होती है।
  • 1 मंतर = 1 जंतर, जंतर वाद्य यंत्र को 100 मंतर (मंत्र) के समान माना गया है।
  • सबसे प्राचीन फड़, सबसे लम्बी फड़ तथा सर्वाधिक प्रसंगों वाली फड़ देवनारायण जी की फड़ है।
  • भारत सरकार ने राजस्थान की जिस फड़ पर सर्वप्रथम डाक टिकट जारी किया वह देवनारायण जी की फड़ (2 सितम्बर, 1992 को 5 रु. का डाक टिकट) है।
  • गुर्जरों का तीर्थ स्थल-सवाईभोज का मंदिर, आसीन्द (भीलवाड़ा)।
  • जोधपुरिया (टोंक) में देवजी का प्रमुख पूजा स्थल है। देवबाबा के ग्वालों के पालनहार, कष्ट निवारक देवता आदि नामों से प्रसिद्ध है।

(8) देव बाबा :

  • नगला जहाज गाँव (भरतपुर) में मंदिर।
  • भाद्रपद शुक्ला पंचमी व चैत्र शुक्ला पंचमी को मेला भरता है।
  • इनकी याद में चरवाहों को भोजन करवाया जाता है।
  • देवबाबा की सवारी भैंसा होता है। इनका स्थान नीम के पेड़ के नीचे स्थित होता है।

(9) वीर कल्लाजी राठौड :

  • जन्म – विक्रम संवत् 1601 में, जन्म स्थल- मेड़ता (नागौर)।
  • पिता-राव अचलाजी, दादा-आससिंह।
  • कल्लाजी मीराबाई के भतीजे थे।
  • 1567 ई. में अकबर के विरूद्ध तथा उदयसिंह के पक्ष में युद्ध करते हुए जयमल राठौड़ तथा पत्ता सिसोदिया सहित वीर कल्लाजी भी शहीद हुए। युद्ध भूमि में चतुर्भुज के रूप में वीरता दिखाए जाने के कारण इनकी ख्याति चार हाथों वाले लोकदेवता के रूप में हुई।
  • कल्लाजी के सिद्ध पीठ को ‘रनेला‘ कहते हैं।
  • कल्लाजी के गुरु भैरवनाथ थे।
  • चित्तौड़गढ़ किले के भैरवपोल के पास कल्लाजी की छतरी बनी हुई है।
  • वीर कल्लाजी चार हाथों वाले देवता (शेषनाग का अवतार) वाले लोकदेवता के रूप में प्रसिद्ध हुए।
  • नोट – डूंगरपुर जिले के सामलिया क्षेत्र में कल्लाजी की काले पत्थर की मूर्ति स्थापित है। इस मूर्ति पर प्रतिदिन केसर तथा अफीम चढ़ाई जाती है।
  • कल्लाजी शेषनाग के अवतार के रूप में पूजनीय है।
  • कल्लाजी के थान पर भूत-पिशाच ग्रस्त लोगों व रोगी पशुओं का इलाज होता है।

(10) भूरिया बाबा (बाबा गौतमेश्वर) :

  • मीणा जाति के लोग भूरिया बाबा की झूठी कसम नहीं खाते।
  • दक्षिण राजस्थान के गौड़वाड़ क्षेत्र में इनके मन्दिर हैं।

(11) मल्लीनाथ जी :

  • जन्म – 1358 ई., पिता का नाम – राव सलखा (मारवाड़ के राजा), दादा – रावतीड़ा, माता का नाम – जाणीदे।
  • खिराज नहीं देने के कारण 1378 ई. में मालवा के सूबेदार निजामुद्दीन व फिरोजशाह तुगलक की संयुक्त सेना की तेरह टुकड़ियों ने मल्लीनाथ जी पर हमला कर दिया और मल्लीनाथ जी ने इन्हें हराकर अपनी पद व प्रतिष्ठा में वृद्धि की।
  • प्रतिवर्ष इनकी याद में चैत्र कृष्ण एकादशी से चैत्र शुक्ला एकादशी तक तिलवाड़ा (बाड़मेर) में मल्लीनाथ पशु मेला आयोजित होता है, जहाँ पर मल्लीनाथ जी का प्रमुख मंदिर भी है।
  • यहाँ तिलवाड़ा के पास ही मालाजाल गाँव में मल्लीनाथ जी की पत्नी रूपादे का मन्दिर है।
  • गुरु – उगमसी भाटी (पत्नी रुपादे की प्रेरणा से मल्लीनाथ जी उगमसी भाटी के शिष्य बने)।

(12) बाबा तल्लीनाथ :

  • वास्तविक नाम – गांगदेव राठौड़।
  • मारवाड़ के राजा वीरमदेव के पुत्र तथा मंडोर के राजा राव चूँडा राठौड़ के भाई थे।
  • तल्लीनाथ जी ने शेरगढ़ पर राज किया।
  • जहरीला जानवर काटने पर तल्लीनाथ की पूजा की जाती है।
  • तल्लीनाथ जी ओरण (धार्मिक मान्यता से पशुओं के चरने के लिए जो स्थान रिक्त छोड़ा जाता है) के देवता के रूप प्रसिद्ध।
  • भारत की पहली ओरण पंचायत – ढोंक गाँव (चौहटन, बाड़मेर) है, जहाँ पर वीरात्रा माता का मंदिर है।
  • जालौर के प्रसिद्ध लोकदेवता।
  • जालौर जिले के पाँचोटा गाँव के निकट पंचमुखी पहाड़ी के बीच घोड़े पर सवार बाबा तल्लीनाथ जी की मूर्ति स्थापित है।

(13) वीर फत्ताजी :

  • जन्म – साथूँ गाँव (जालौर)।
  • गाँव पर लूटेरों के आक्रमण के समय इन्होंने भीषण युद्ध किया।
  • इनकी याद में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ला नवमी को मेला भरता है।

(14) बाबा झूंझारजी :

  • जन्म – इमलोहा गाँव (सीकर)।
  • भगवान राम के जन्म दिवस रामनवमी को स्यालोदड़ा (सीकर) में इनका मेला भरता है।
  • बाबा झूंझारजी का स्थान सामान्यतः खेजड़ी के पेड़ के नीचे होता है।

(15) वीर बिग्गाजी :

  • जन्म – जांगल प्रदेश। रीडी गाँव (बीकानेर)
  • पिता – राव मोहन, माता – सुल्तानी देवी।
  • बीकानेर के जाखड़ समाज के कुल देवता।
  • मुस्लिम लूटेरों से गायों की रक्षा की।

(16) डूंगजी-जवाहरजी (गरीबों के देवता) :

  • सीकर जिले के लूटेरे लोकदेवता, जो धनवानों व अंग्रेजों से धन लूटकर गरीबों में बांट देते थे। 1857 की क्रांति में सक्रिय भाग लिया।

(17) हरिराम बाबा :

  • झोरड़ा (नागौर) में इनका पूजा स्थल है।
  • गुरु – भूरा।
  • इन्होंने साँप काटे हुए पीड़ित व्यक्ति को ठीक करने का मंत्र सीखा।

(18) पनराजजी :

  • जन्म – नगा गाँव (जैसलमेर)।
  • मुस्लिम लूटेरों से काठौड़ी गाँव के ब्राह्मणों की गायें छुड़ाते हुए शहीद हुए।

(19) केसरिया कुंवरजी :

  • लोकदेवता गोगाजी के पुत्र।
  • इनके थान पर सफेद रंग की ध्वजा फहराते हैं।

(20) भोमियाजी :

  • गाँव-गाँव में भूमि रक्षक देवता के रूप में प्रसिद्ध।

(21) मामादेव :

  • वर्षा के देवता।
  • मामादेव का कोई मंदिर नहीं होता न ही कोई मूर्ति होती है।
  • गाँव के बाहर लकड़ी के तोरण के रूप में मामादेव पूजे जाते हैं।
  • इन्हें प्रसन्न करने के लिए “भैंस की कुर्बानी” दी जाती है। इनका प्रमुख मन्दिर स्यालोदड़ा (सीकर) में स्थित है। जहाँ प्रतिवर्ष रामनवमी को मेला भरता है।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

– सकराय माता :- मलयकेतु पर्वत (उदयपुरवाटी, सीकर)।

– सच्चियाय माता :- यह मंदिर 8वीं सदी का माना जाता है। सच्चियाय माता के मंदिर का निर्माण परमार राजकुमार उपलदेव ने करवाया था।

– सुंधा माता :- सुंधा माता के केवल सिर की पुजा होती है। मूर्ति में धड़ नहीं होने से इन्हें अधरेश्वरी माता भी कहते है। यहाँ वैशाख एवं भाद्रपद माह में शुक्ला त्रयोदशी से पूर्णिमा तक मेले भरते हैं।

– नारायणी माता :- नाईयों की कुलदेवी। पुजारी :- मीणा

 वर्तमान में मंदिर की पूजा को लेकर नाई और मीणा में विवाद हुआ जो न्यायालय तक जा पहुँचा।

– राठासण देवी :- मेवाड़ में।

– सुराणा देवी :- गोरखाण (नागौर) में।

– स्वांगियाजी :- जैसलमेर में।

– आमजा देवी :- केलवाड़ा (राजसमन्द)। भीलों की देवी के रूप में प्रसिद्ध। मंदिर में पूजा के लिए एक भील भोपा एवं दूसरा ब्राह्मण पुजारी है।

–  रुपण माता :- हल्दीघाटी (राजसमन्द)।

– वीरातरा माता :- चौहटन (बाड़मेर) भोपों की कुलदेवी। यहाँ मेले में नारियल की जोत जलाई जाती है तथा बकरे की बलि दी जाती है।

– छीक माता :- जयपुर।

– द्रष्टा माता :- कोटा। कोटा राजपरिवार की कुलदेवी।

– गायत्री माता :- पुष्कर (अजमेर)।

– सावित्री माता :- पुष्कर (अजमेर)। भाद्रपद शुक्ल अष्टमी को विशाल मेला लगता है।

– उंठाला माता :- वल्लभनगर (उदयपुर)।

– उष्ट्रवाहिनी देवी :- पुष्करणा ब्राह्मणों की कुलदेवी। इन्हें ‘सारिका देवी’ भी कहा जाता है। जोधपुर तथा बीकानेर में इनके कई मंदिर हैं।

– मातर माता :- सिरोही।

– हिचकी माता :- सनवाड़।

– कंठेसरी माता :- यह आदिवासियों की माता है।

– आदमाता :- झाला राजवंश की कुलदेवी।

– त्रिपुर सुन्दर (तुरतई माता) :- पंचाल समाज की कुलदेवी है।

– सांभर झील में शाकम्भरी माता देवी का मन्दिर है।

लोक देवता

– गोगाजी :- गुरु :- गोरखनाथ।

 गोगाजी ने गौ-रक्षा एवं तुर्क आक्रांताओं (महमूद गजनवी) से देश की रक्षार्थ अपने प्राण न्यौछावर कर दिये।

 गोगामेड़ी के चारों तरफ फैला हुआ जंगल ‘वणी’ या ‘ओयण’ कहलाता है। गोगामेड़ी को मकबरे का स्वरूप फिरोजशाह तुगलक ने प्रदान किया।

– पाबूजी :- पाबूजी राठौड़ों के मूल पुरुष राव सीहा के वंशज थे।

 पाबूजी के साथी :- चाँदोजी, सावंतजी, डेमाजी, हरमल जी राइका एवं सलजी सोलंकी।

– रामदेवजी :-

 परचा :- रामदेवजी के चमत्कार

 ब्यावले :- भक्तों द्वारा गाये जाने वाले भजन।

 बाबे री बीज :- भाद्रपद शुक्ला द्वितीया।

– मेहाजी :- लोक मान्यता है कि इनकी पूजा करने वाले भोपा की वंश वृद्धि नहीं होती। वे गोद लेकर पीढ़ी आगे चलाते हैं।

 राव चूण्डा (जोधपुर शासक) के समकालीन।

– देवनारायण जी :- गुर्जर समाज इन्हें ‘विष्णु का अवतार’ मानते है। आसीन्द में प्रतिवर्ष भाद्रपद शुक्ल सप्तमी को मेला लगता है।

 बगड़ावतों का गाँव :- देवमाली (अजमेर)।

 देवनारायण जी प्रथम लोकदेवता है जिन पर 2011 में केन्द्रीय संचार मंत्रालय द्वारा डाक टिकट जारी किया गया।

– आलमजी :- मालाणी प्रदेश (बाड़मेर) के लोकदेवता।

 ‘आलमजी का धोरा’ :- आलमजी का थान, जो घोड़ों के तीर्थस्थली के रूप में माना जाता है।

 मेला :- भाद्रपद शुक्ला द्वितीया।

– भूरिया बाबा :- मीणा आदिवासियों के इष्टदेव।

 मंदिर :- चांदीला (सिरोही)

 अरनोद (प्रतापगढ़)

– इलोजी :- छेड़छाड़ के देवता के रूप में प्रसिद्ध।

 मारवाड़ क्षेत्र में पूजे जाते है।

 बाड़मेर में होली पर इलोजी की सवारी निकालने का रिवाज है।

– मल्लीनाथ :- 1399 में कुंडा पंथ की स्थापना की।

अन्य :-

– क्षेत्रपाल :- स्थान विशेष के देवता। इनके स्थान स्वतंत्र रूप से भी पाये जाते हैं। भैरव पूरे राजस्थान में पूजे जाने वाले क्षेत्रपाल है। क्षेत्रपाल के सर्वाधिक मंदिर राजस्थान के डूंगरपुर जिले में प्राप्त होते हैं। खेतला शब्द क्षेत्रपाल से बना है। यह मुख्य ग्राम देवता होता है तथा इसे जगदम्बा का पुत्र माना जाता है। राजस्थान में पूजे जाने वाले अन्य क्षेत्रपालों में मामाजी, झुंझारजी, वीर बापजी, खवि, सतीजी तथा बायासां आदि प्रमुख हैं।

 खवि को राजस्थान में भूत, प्रेत, यक्ष, गन्धर्व और राक्षस से भी खतरनाक माना जाता है। ‘खवि’ का अर्थ होता है – कबंध अर्थात मस्तिष्क रहित धड़।

– दीवड़ा :- डूंगरपुर जिले में दीपावली के दिन से 15 दिन का पखवाड़ा पितृ पूजन के लिये होता है। इसे ‘दीवड़ा’ कहते हैं।

रामदेवजी से जुड़ी रचनाएँ :-

1. रामदेवजी का ब्यावला :- पूनमचंद

2. श्री रामदेवजी चरित :- ठाकुर रुद्रसिंह तोमर

3. श्री रामदेव प्रकाश :- पुरोहित रामसिंह

4. रामसापीर अवतार लीला :- ब्राह्मण गौरीदासात्मक

5. श्री रामदेवजी री वेलि :- हरजी भाटी।

– कायमखानी मुसलमान गोगाजी को अपना पूर्वज मानते है।

– नकटी माता का मंदिर जयपुर में है।

– भदाणा माता – मूठ पीड़ित का इलाज।

 आवरी माता – लकवे का इलाज।

 बड़ली माता – शिशुओं का इलाज।

– करौली स्थित लोक देवी कैला देवी के मंदिर का निर्माण शासक गोपालसिंह ने करवाया।

– भाद्रपद शुक्ल छठ को गुर्जर समुदाय दूध को जमाने व बेचने का कार्य नहीं करते हैं।- ‘धौलागढ़ देवी’ का मंदिर :- अलवर में।

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