संत एवं सम्प्रदाय

Estimated reading: 4 minutes 84 views

राजस्थान के प्रमुख सम्प्रदाय  

हिन्दू धर्म राजस्थान प्रदेश का मुख्य धर्म है। हिन्दू धर्म के अंतर्गत विष्णु पूजक अर्थात वैष्णव धर्म में आस्था रखने वाले लोगों की संख्या सर्वाधिक हैं। वैष्णवों के अतिरिक्त शैव एवं शाक्त मतावलम्बी भी प्रदेश में न्यून संख्या में निवास करते हैं। वैष्णव, शैव एवं शाक्त तीनों ही मत अनेक पंथों एवं सम्प्रदायों में बंटे हुए हैं।

सगुण सम्प्रदायनिर्गुण सम्प्रदायरामानुज सम्प्रदायविश्नोई सम्प्रदायवल्लभ सम्प्रदायजसनाथी सम्प्रदायनिम्बार्क सम्प्रदायदादू सम्प्रदायनाथ सम्प्रदायरामस्नेही सम्प्रदायगौड़ीय सम्प्रदायपरनामी सम्प्रदायपाशुपत सम्प्रदायनिरंजनी सम्प्रदायनिष्कलंक सम्प्रदायकबीरपंथी सम्प्रदायचरणदासी सम्प्रदायलालदासी सम्प्रदायमीरादासी सम्प्रदाय

 वैष्णव धर्म एवं उसके सम्प्रदाय :-वैष्णव :- विष्णु के उपासक वैष्णव धर्म के विषय में प्रारम्भिक जानकारी उपनिषदों से मिलती है। वैष्णव धर्म को भागवत धर्म भी कहा जाता है। प्रवर्तक :- वासुदेव श्रीकृष्ण आधार :- अवतार विष्णु के 14 अवतार हैं। मत्स्य पुराण में इसके 10 अवतारों का वर्णन हैं। सबसे पवित्र अवतार :- वराह का अवतार दक्षिण भारत में वैष्णव भक्ति आन्दोलन को सक्रिय करने में तमिल के आलवार सन्तों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। एकमात्र महिला आलवार सन्त :- अंडाल दिव्य प्रबधम :– 12 आलवार सन्तों की काव्य रचना। राजस्थान में वैष्णव धर्म का सर्वप्रथम उल्लेख द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के घोसुण्डी अभिलेख में मिलता है। वैष्णव धर्म के सम्प्रदाय :- (i) रामानुज सम्प्रदाय (ii) रामानन्दी सम्प्रदाय (iii) निम्बार्क सम्प्रदाय (iv) वल्लभ सम्प्रदाय (v) ब्रह्म या गौड़ीय सम्प्रदाय(i) रामानुज सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- रामानुजाचार्य द्वारा 11वीं सदी में। इस दर्शन में राम को परब्रह्म मानकर उसकी पूजा-आराधना की जाती है। रामानुजाचार्य मुक्ति का मार्ग ज्ञान को नहीं मानकर ईश्वर भक्ति को मानते हैं। वे सगुण ब्रह्म की उपासना में विश्वास रखते हैं। रामानुज सम्प्रदाय का उत्तर भारत में प्रमुख पीठ उत्तर तोताद्रि-अयोध्या मठ एवं गलताजी (जयपुर) है। रामानुजाचार्य का जन्म 1017 ई. में तमिलनाडु के तिरुपति नगर में हुआ था। इनके गुरु यमुनाचार्य थे। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर ‘श्री भाष्य’ की रचना की तथा भक्ति का नया दर्शन ‘विशिष्टाद्वैतवाद’ प्रारम्भ किया। श्रीरामानुजाचार्य ने ‘श्री’ सम्प्रदाय चलाया। रामानुज के क्रियाकलापों का प्रमुख केन्द्र श्रीरंगपट्टनम एवं काँची था।(ii) रामानन्दी सम्प्रदाय :- श्री राघवानंद जी के शिष्य रामानन्द पहले संत थे जिन्होंने दक्षिण भारत से उत्तर भारत में भक्ति परम्परा की शुरुआत की। रामानन्द द्वारा उत्तरी भारत में प्रवर्तित मत ‘रामावत’ या ‘रामानन्दी सम्प्रदाय’ कहलाया। इस सम्प्रदाय में ‘ज्ञानमार्गी राम भक्ति की प्रधानता’ थी। रामानन्द ऊँच-नीच, जाति-पाँति एवं छुआछूत के प्रबल विरोधी थे। रामानन्द के शिष्य :- संत कबीर (जुलाहा), पीपा (दर्जी), धन्ना (जाट), रैदास (चर्मकार), सेना (नाई), सुरसुरी, पद्मावती, सुखानंद आदि। रामानंद की भक्ति दास्य भाव की थी। इस सम्प्रदाय में श्रीराम-सीता की शृंगारिक जोड़ी की पूजा की जाती है। राजस्थान में रामानंदी सम्प्रदाय का प्रवर्तन संत श्री कृष्णदास जी ‘पयहारी’ ने किया, जो अनन्तानंद जी के शिष्य थे। राजस्थान में रामानन्दी सम्प्रदाय क प्रमुख पीठ गलताजी (जयपुर) में है। पयहारी के शिष्य अग्रदास जी ने 16वीं सदी में सीकर के पास रैवासा ग्राम में इस सम्प्रदाय की अन्य पीठ स्थापित की। अग्रदास जी ने रसिक सम्प्रदाय की स्थापना की। इस पंथ में सीता एवं राम की शृंगारिक जोड़ी की पूजा की जाती है। रसिक सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ :- ध्यान मंजरी (अग्रअली द्वारा रचित) जयपुर के संस्थापक सवाई जयसिंह ने रामानन्दी सम्प्रदाय को पश्रय दिया तथा राजकवि श्रीकृष्ण भट्ट कलानिधि से ‘राम रासा’ ग्रन्थ की रचना करवाई। रसिक सम्प्रदाय को जानकी सम्प्रदाय, सिया सम्प्रदाय तथा रहस्य सम्प्रदाय भी कहा जाता है।(iii) निम्बार्क सम्प्रदाय :- अन्य नाम :- हंस सम्प्रदाय / सनकादि सम्प्रदाय प्रवर्तक :– आचार्य निम्बार्क (12वीं सदी में)– रचित भाष्य :- वेदान्त पारिजात। प्रवर्तित दर्शन :- द्वैताद्वैत या भेदाभेद। इस सम्प्रदाय में राधा को श्रीकृष्ण की परिणीता माना जाता है तथा युगल स्वरूप की मधुर सेवा की जाती है। आचार्य निम्बार्क द्वारा लिखित ग्रंथ :- दशश्लोकी। (राधा एवं कृष्ण की भक्ति पर बल)- हरिव्यास – देवाचार्य जी इस सम्प्रदाय के प्रमुख संत थे।- सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ :- सलेमाबाद (अजमेर)। इस पीठ की स्थापना आचार्य परशुराम जी देवाचार्य द्वारा की गई।- सखी सम्प्रदाय :- निम्बार्क सम्प्रदाय के संत हरिदासजी ने कृष्ण भक्ति के ‘सखी सम्प्रदाय’ का प्रवर्तन किया। इनके अनुयायी श्रीकृष्ण की भक्ति उन्हें सखा मानकर करते हैं।(iv) वल्लभ सम्प्रदाय :- कृष्ण भक्ति का मत। प्रवर्तक :- वल्लभाचार्य (16वीं सदी में) वल्लभाचार्य को विजयनगर शासक कृष्णदेवराय ने ‘महाप्रभु’ की उपाधि से विभूषित किया। रचित भाष्य :- अणु भाष्य प्रवर्तित दर्शन :– शुद्धाद्वैतवाद‘पुष्टिमार्ग’ सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। ‘पुष्टिमार्ग’ का अर्थ होता है – ईश्वर की कृपा। इस सम्प्रदाय में भक्ति को रस के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है।- वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ जी ने ‘अष्टछाप कवि मंडली’ का संगठन किया।- वल्लभाचार्य को वैश्वानरावतार (अग्नि का अवतार) कहा गया है।- वल्लभ सम्प्रदाय की प्रमुख पीठ :- नाथद्वारा। (बनास नदी के तट पर बसा) 1669 ई. में मेवाड़ महाराणा राजसिंह के समय श्रीनाथजी की प्रतिमा वृन्दावन से सिहांड़ (नाथद्वारा) लाई गयी।- इस सम्प्रदाय में मूर्तियों की प्राण-प्रतिष्ठा या स्थापना न करके कृष्ण के बालरूप की उपासना ‘सेवा’ के रूप में की जाती है।- ‘हवेली संगीत’ इस सम्प्रदाय की प्रमुख विशेषता है।- वल्लभ सम्प्रदाय (पुष्टिमार्ग) की सात पीठें :-(क) मथुरेश जी – कोटा(ख) विट्ठलनाथ जी – नाथद्वारा (राजसमन्द)(ग) द्वारकाधीश जी – कांकरोली (राजसमन्द)(घ) गोकुलनाथ जी – गोकुल (UP)(ड) गोकुलचन्द्र जी – कामां (भरतपुर)(च) बालकृष्ण जी – सूरत (गुजरात)(छ) मदनमोहन जी – कामां (भरतपुर)- नाथद्वारा स्थित श्रीनाथ जी के मंदिर में मुख्य मंदिर की छत आज भी खपरैल की ही बनी हुई है। निजमंदिर के ऊपर कलश, सुदर्शन चक्र और सप्त ध्वजा है।- किशनगढ़ के शासक सावंतसिंह इस सम्प्रदाय के इतने भक्त हो गये कि समस्त राजपाट छोड़कर वृन्दावन चले गये तथा कृष्ण भक्ति में लीन हो गये तथा अपना नाम ही ‘नागरीदास’ रख लिया।- पुष्टिमार्गीय उपासना पद्धति में भक्ति को साध्य माना गया है।- ध्यातव्य है कि वल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक वल्लभाचार्य के पिता का नाम लक्ष्मण भट्ट तथा माता का नाम इल्लमागारु था।- विट्ठलनाथ जी सूरदास जी को ‘पुष्टिमार्ग का जहाज’ की संज्ञा दी।- पुष्टिमार्ग भगवान श्रीकृष्ण का सम्बन्धित मत है।(v) ब्रह्म या गौड़ीय सम्प्रदाय :– प्रवर्तक :- स्वामी मध्वाचार्य (12वीं सदी में) रचित भाष्य :- पूर्ण प्रज्ञ भाष्य दर्शन :- द्वैतवादउनके अनुसार ईश्वर सगुण है तथा वह विष्णु है। उसका स्वरूप सत्, चित् और आनन्द है।इस सम्प्रदाय को नया रूप देकर प्रवर्तित करने व जन-जन तक फैलाने का कार्य बंगाल के ‘गौरांग महाप्रभु चैतन्य’ ने किया।- चैतन्य का जन्म नदिया (बंगाल) में हुआ तथा बचपन का नाम निमाई था।- प्रमुख पीठ :- गोविन्द देवजी का मंदिर (जयपुर)। इस मंदिर का निर्माण सवाई जयसिंह ने करवाया था।- गौड़ीय सम्प्रदाय का अन्य प्रसिद्ध मंदिर करौली में ‘मदनमोहन जी का मंदिर’ है।- गौड़ीय सम्प्रदाय में ‘राधा-कृष्ण’ के युगल स्वरूप की पूजा की जाती है।- ‘सहज पंथ’ गौड़ीय सम्प्रदाय की एक शाखा है जिसमें भजन व साधना के लिए एक सुन्दर व परकीया स्त्री की आवश्यकता होती है।- आमेर के राजा मानसिंह इस सम्प्रदाय के अनुयायी थे।शैव सम्प्रदाय :- भगवान शिव के उपासक। ऋग्वेद में शिव के लिये रुद्र देवता का उल्लेख है। अथर्ववेद में शिव को भव, पशुपति या भूपति कहा गया है। शिवलिंग पूजा का पहला स्पष्ट वर्णन मत्स्य पुराण में मिलता है।- नयनार :- दक्षिण भारत में शैव धर्म का प्रचार-प्रसार करने वाले नयनार कहलाते है। नयनार सन्तों की कुल संख्या 63 थीं।- शैव मत के चार सम्प्रदाय :- (i) कापालिक (ii) पाशुपात (iii) लिंगायत (वीरशैव) (iv) काश्मीरक(i) कापालिक सम्प्रदाय :- इस सम्प्रदाय में भैरव को शिव का अवतार मानकर पूजा की जाती है। इस सम्प्रदाय के साधु तांत्रिक व श्मसानवासी होते हैं और अपने शरीर पर भस्म लपेटते हैं। इनके छ: चिह्न माला, भूषण, कुण्डल, रत्न, भस्म एवं उपवीत मुख्य है।(ii) पाशुपत सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- लकुलीश। इस मत में लकुलीश को शिव का 28वाँ एवं अंतिम अवतार माना जाता है। मेवाड़ के हारित ऋषि लकुलीश सम्प्रदाय के थे। बापा रावल द्वारा निर्मित मेवाड़ के आराध्य देव एकलिंगजी का शिव मंदिर पाशुपत सम्प्रदाय का प्रमुख मंदिर है। सुण्डा माता मंदिर में भी भगवान शिव की मूर्ति लकुलीश सम्प्रदाय की है।(iii) वीरशैव :- प्रवर्तक :- बासवन्ना द्वारा। कर्नाटक में पनपा।(iv) काश्मीरक :- कश्मीर में प्रचलित सम्प्रदाय। शाक्त सम्प्रदाय :- युद्ध कार्य में संलग्न रहने वाले राजा, सेनापति एवं सैनिक शक्ति प्राप्त करने के लिए प्राचीन काल से ही शक्ति पूजा करते आये हैं। शाक्त पंत के दो पंथ :– (i) वामाचार (ii) दक्षिणाचार। वामाचारी मतानुयायी पंचमकारो से शक्ति की उपासना करते है। इन पंचमकारों में मद्य, मुद्रा, मैथुन, मत्स्य एवं माँस शामिल हैं।राजपरिवार कुलदेवीमेवाड़ (सिसोदिया वंश) बाणमाताआमेर (कच्छवाह वंश) अन्नपूर्णा (शिलादेवी)जोधपुर  (राठौड़ वंश) नागणेच्या देवीजैसलमेर (भाटी वंश) स्वागिया जीनाथ सम्प्रदाय :- प्रवर्तक – नाथ मुनि। पंथ के प्रमुख साधु :- मत्स्येन्द्र नाथ, गोपीचन्द, भर्तृहरि, गोरखनाथ। महामंदिर :- नाथ सम्प्रदाय का प्रमुख केन्द्र। राठौड़ शासक मानसिंह द्वारा मंदिर निर्माण। गुरु आयस देवनाथ मानसिंह के गुरु माने जाते हैं।राजस्थान में नाथ पंथ की शाखाएँ :-(i) बैराग पंथ :- मुख्य केन्द्र – राताडूंगा (पुष्कर)। प्रथम प्रचारक – भर्तृहरि(ii) माननाथी पंथ :- मुख्य केन्द्र – महामंदिर (महाराजा मानसिंह द्वारा स्थापित)- लोद्रवा के भाटी शासक देवराज ने नाथपंथी साधु योगी रतननाथ का आशीर्वाद प्राप्त किया था।- जालौर में नाथपंथी साधु जालन्धरनाथ के मंदिर का निर्माण करवाया गया।- ‘कानपा पंथ’ :- प्रवर्तक :- योगी जालन्धरनाथ के शिष्य कानपानाथ द्वारा।राजस्थान के अन्य सम्प्रदाय :-1. रामस्नेही सम्प्रदाय :- रामानंद के निर्गुण शिष्यों की परम्परा से विकसित निर्गुण सम्प्रदाय। चार केन्द्र :-(i) शाहपुरा (भीलवाड़ा) :- रामचरण जी(ii) रेण (नागौर) :- दरियाव जी(iii) सिंहथल (बीकानेर) :- हरिरामदास जी(iv) खेड़ापा (जोधपुर) :– रामदास जी- निर्गुण-निराकार राम का नाम स्मरण ही रामस्नेही भक्त अपनी मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ अथवा एकमात्र साधन मानता है।- सद्‌गुरु एवं सत्संग को इस सम्प्रदाय का प्राण तत्व माना गया है।- मूर्तिपूजा, तीर्थयात्रा आदि साधना पद्धतियों का रामस्नेही सम्प्रदाय में निषेध किया गया है।- बाह्य आडम्बरों व जातिगत भेदभाव का प्रबध विरोध, गुरु की सेवा, सत्संगति एवं राम नाम स्मरण आदि इनके प्रमुख उपदेश है।- इस सम्प्रदाय में निर्गुण भक्ति तथा सगुण भक्ति की रामधुनी तथा भजन कीर्तन की परम्परा के समन्वय से निर्गुण निराकार परब्रह्म राम की उपासना की जाती है। इस सम्प्रदाय में राम दशरथ पुत्र राम न होकर कण-कण में व्याप्त निर्गुण-निराकार परब्रह्म है।- रामद्वारा – रामस्नेही सम्प्रदाय का सत्संग स्थल।- शाहपुरा (भीलवाड़ा) रामस्नेही सम्प्रदाय की मुख्य पीठ है जहाँ प्रतिवर्ष फूलडोल महोत्सव मनाया जाता है।2. विश्नोई सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- जाम्भोजी। (1485 ई. में) (कार्तिक कृष्णा 8) निर्गुण सम्प्रदाय (निराकार विष्णु (ब्रह्म) की उपासना पर बल) मुख्य पीठ :- मुकाम-तालवा (बीकानेर) अनुयायी 29 नियमों का पालन करते हैं, जिसमें हरे वृक्षों के काटने पर रोक, जीवों पर दया, नशीली वस्तुओं के सेवन पर प्रतिबन्ध, प्रतिदिन सवेरे स्नान, हवन एवं आरती तथा विष्णु के भजन करना, नील का त्याग आदि शामिल है। पर्यावरण संरक्षण हेतु प्राणों तक का बलिदान कर देने के लिए प्रसिद्ध सम्प्रदाय। यह सम्प्रदाय ईश्वर को सर्वव्यापी तथा आत्मा को अमर मानता है। इस सम्प्रदाय में मोक्ष की प्राप्ति हेतु गुरु का सान्निध्य आवश्यक माना जाता है। सम्प्रदाय के अन्य तीर्थ स्थल :- जाम्भा (फलौदी-जोधपुर), जागुल (बीकानेर) रामड़ावास (पीपाड़-जोधपुर) सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ :- जम्ब सागर (120 शब्द और 29 उपदेश)। इस सम्प्रदाय में नामकरण, विवाह, अन्त्येष्टि आदि संस्कार कराने वाले को ‘थापन’ कहते है।3. जसनाथी सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- जसनाथ जी। प्रमुख पीठ :- कतरियासर (बीकानेर) मूर्तिपूजा विरोधी सम्प्रदाय। इसमें निर्गुण भक्ति को ईश्वर-साधना का मार्ग बतलाया है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 36 नियमों का पालन करते हैं। जसनाथी सम्प्रदाय का अग्नि नृत्य प्रसिद्ध है। इसमें सिद्ध भोपे ‘फतै-फतै’ उद्‌घोष के साथ अंगारों पर नाचते हैं। सिकन्दर लोदी जसनाथी सम्प्रदाय से काफी प्रभावित था। जसनाथ सम्प्रदाय के अनुयायी काली ऊन का धागा गले में पहनते हैं। जसनाथी सम्प्रदाय के लोग जाल वृक्ष तथा मोर पंख को पवित्र मानते हैं। इस सम्प्रदाय में ’84 बाड़ियां’ प्रसिद्ध हैं। बाड़ियों को ‘आसंण’ (आश्रम) भी कहते है। जसनाथी सम्प्रदाय के अन्य विरक्त संत ‘परमहंस’ कहलाते है।- जसनाथी सम्प्रदाय के प्रमुख ग्रंथ :- सिभुन्दड़ा एवं कोड़ा।- जसनाथी सम्प्रदाय के संत :- लालनाथजी, चोखननाथ जी, सवाईदास जी।- जसनाथी सम्प्रदाय की बाइबिल :- यशोनाथ-पुराण। (सिद्ध रामनाथ द्वारा रचित)।- सिद्ध रुस्तम जी जसनाथी सम्प्रदाय को भारत में विख्यात करने वाले एकमात्र संत थे।4. लालदासी सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- लालदास जी प्रमुख स्थल :– शेरपूर एवं धोलीदूब गाँव (अलवर)- इस पंथ में हिन्दू-मुस्लिम एकता, ऊँच-नीच के भेदभावों की समाप्ति, दृढ़ चरित्र एवं नैतिकता की प्राप्ति, रुढ़ियों व आडम्बरों का विरोध तथा सामाजिक सदाचार पर अत्यधिक बल दिया गया है।- इस पंथ में भिक्षावृत्ति का विरोध किया गया है। इसमें पुरुषार्थी पर बल दिया गया है।- मेवात प्रदेश में इस सम्प्रदाय का प्रभाव अधिक है।- इस सम्प्रदाय के लोग गृहस्थी जीवन यापन कर सकते हैं।5. अलखिया सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- लालगिरि। इस सम्प्रदाय के लोग जाति-पांति तथा ऊँच-नीच को नहीं मानते हैं। प्रमुख केन्द्र :- गलता (जयपुर)।6. चरणदासी पंथ :- प्रवर्तक :- चरणदास। प्रमुख पीठ :– दिल्ली। इस पंथ में निर्गुण-निराकार ब्रह्म की सखी भाव से सगुण भक्ति की जाती है। यह पंथ सगुण और निर्गुण भक्ति मार्ग का मिश्रण है। इस पंथ के अनुयायी ‘श्रीमद्‌भागवत्’ को बड़ी श्रद्धा की दृष्टि से देखते है तथा राधा-कृष्ण की उपासना करते हैं। इस पंथ के अनुयायी सदैव पीत वस्त्र धारण करते हैं। गुरु के प्रति दृढ-भक्ति और उनका देव-तुल्य सम्मान तथा पूजन भी इस पंथ की एक विशेषता है।- राजस्थान में इस सम्प्रदाय का अत्यधिक प्रसार अलवर एवं जयपुर क्षेत्र में हुआ।- चरणदासी ‘नवधाभक्ति’ (राधाकृष्ण की उपासना) का समर्थन भी करते है।- इसमें गुरु के सान्निध्य को अत्यधिक महत्व, कर्मवाद को मान्यता तथा नैतिक शुद्धता व करुणा पर बल दिया गया है।- चरणदासी पंथ के अनुसार करुणा के बिना ज्ञान प्राप्ति सम्भव नहीं है।- चरणदासी पंथ के अनुयायी 42 नियमों का पालन करते हैं।- चरणदासी सम्प्रदाय की परम्परा दो प्रकार की हैं – (A) बिन्दु कुल परम्परा :- इस परम्परा की शृंखला पिता-पुत्रवत् चलती है। (B) नाद कुल परम्परा :– इस परम्परा की शृंखला गुरु-शिष्यवत् चलती है।7. निरंजनी सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- हरिदास जी प्रमुख पीठ :– गाढ़ा (डीडवाना, नागौर)- पूर्ण रूप से निर्गुणी पंथ है।- यह सम्प्रदाय मूर्ति पूजा का खंडन नहीं करता है। यह वर्णाश्रम एवं जाति व्यवस्था का भी विरोध नहीं करता है।- निरंजनी अनुयायी दो प्रकार के होते हैं – (क) निहंग :- वैरागी जीवन व्यतीत करते हैं एवं एक गुदड़ी व एक पात्र धारण करते हैं। (ख) घरबारी :- गृहस्थ जीवन यापन करते हैं।- इसमें परमात्मा को अलख निरंजन, हरि निरंजन कहा गया है।- इस मत का प्रभाव उड़ीसा में भी है।- सहिष्णुता एवं सह-अस्तित्व इस सम्प्रदाय के आधार बिन्दु है।8. परनामी सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- प्राणनाथ जी। निर्गुण विचारधारा वाला सम्प्रदाय। इनके आराध्यदेव श्रीकृष्ण है। मुख्य गद्दी :- पन्ना (MP)। जयपुर में इस सम्प्रदाय का कृष्ण मंदिर है। कुलजम स्वरूप :– सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रंथ जिसमें उपदेशों का संग्रह है।9. दादू सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- संत दादूदयाल। प्रमुख पीठ :- नरायणा (जयपुर)। दादू पंथ निर्गुण-निराकार – निरंजन ब्रह्म को अपना आराध्य मानता है। दादू पंथी साधु विवाह नहीं करते तथा गृहस्थी के बच्चों को गोद लेकर अपना पंथ चलाते हैं। अलख दरीबा :- दादू पंथ का सत्संग। इस पंथ में मृत व्यक्ति के शव को जंगल में छोड़ देने की प्रथा है। दादू पंथी ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते हैं। दादू पंथी की 6 शाखाएँ :-(i) खालसा :- मुख्य पीठ (नरायणा) से सम्बद्ध, इसके मुखिया गरीबदास थे।(ii) विरक्त :- रमते-फिरते दादू पंथी साधु, जो गृहस्थियों को उपदेश देते थे।(iii) उतरादे व स्थान धारी :– संस्थापक – बनवारीदास जी। गद्दी – रतिया (हिसार)(iv) खाकी :– ये शरीर पर भस्म लगाते थे तथा खाकी वस्त्र पहनते थे।(v) नागा :– संस्थापक – सुन्दरदास जी। ये वैरागी होते थे, नग्न रहते हैं तथा शस्त्र धारण करते हैं।(vi) निहंग :– घुमन्तु साधु दादू पंथ के 52 स्तम्भ :- दादू के 52 प्रमुख शिष्य। (राधौदास के ग्रन्थ ‘भक्तमाल’ में दादूजी के 52 शिष्यों के नामों का उल्लेख है)10. नवल सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- नवलदास जी मुख्य मंदिर :– जोधपुर इनके उपदेश ‘नवलेश्वर अनुभव वाणी’ में संग्रहित है।11. गूदड़ सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- संतदास जी प्रमुख गद्दी :- दाॅतड़ा। (भीलवाड़ा)। निर्गुण भक्ति सम्प्रदाय। संतदास जी गूदड़ी से बने कपड़े पहनते थे।12. ऊंदरिया पंथ :- अतिमार्गीय पंथ। जयसमंद के भीलों में प्रचलित।13. कांचलिया पंथ :- अतिमार्गीय पंथ।14. कुण्डा पंथ :- प्रवर्तक :- रावल मल्लीनाथ जी। वाममार्गी पंथ। इसमें आध्यात्मिक साधना की विचित्र प्रणाली का प्रावधान किया गया है।15. निष्कलंक सम्प्रदाय :- प्रवर्तक :- संत मावजी। मावजी विष्णु के ‘कल्कि अवतार’ माने जाते है। इस सम्प्रदाय के लोग सफेद वस्त्र धारण करते हैं। ‘प्रशातियां’ नामक भजन इस सम्प्रदाय के अनुयायी गाते हैं। मुख्य पीठ :- साबला (डूंगरपुर)16. तेरापंथी :- राजस्थान की श्वेताम्बर शाखा की स्थानकवासी उपशाखा से विकसित पंथ। प्रवर्तक :– संत भिक्षु। (भीखण्जी) 1760 ई. में स्थापना। मेवाड़ के राजनगर और केलवा में तेरापंथ का अत्यधिक प्रभाव रहा। राजस्थान के प्रमुख संत1. संत दादूदयाल :– जन्म :- 1544 ई. में (वि. स. 1601 ई.) अहमदाबाद में। गुरु :- श्री वृद्धानंद जी 1585 ई. में फतेहपुर सीकरी के इबादतखाने में मुगल सम्राट अकबर से भेंट की। उपनाम :- राजस्थान का कबीर- ये आमेर के राजा मानसिंह के समकालीन थे।- दादूदयाल 1568 ई. में सांभर आ गए तथा जनसाधारण को उपदेश देने प्रारम्भ किये।- पुत्र :- गरीबदास एवं मिस्किनदास।- दादू सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।- दादू पंथ के पाँच प्रमुख स्थानों को पंचतीर्थ (नरायणा, कल्याणपुर, सांभर, आमेर, भैराणा) कहा जाता है।– शिष्य :- संत रज्जबजी, सुन्दरदास जी, संतदास जी, बालिंद जी। दादूजी के उपदेश ‘दादूजी री वाणी’ व ‘दादूजी रा दूहा’ में संग्रहित है।- मृत्यु :- नरायणा में (1603 ई. में)।– दादूखोल :- नरायणा में भैराणा पहाड़ी पर स्थित गुफा। कृतियां :- ‘पद’, ‘साखी’, ‘आत्मबोध’, ‘परिचय का अंग’ तथा ‘कायाबेलि ग्रन्थ’। ‘पंथ परीक्षा’ दादू पंथ का एक प्रसिद्ध ग्रंथ है।2. जसनाथ जी :- जन्म :- 1482 ई. में कतरियासर में देवउठनी ग्यारस (कार्तिक शुक्ला एकादशी) के दिन। बचपन का नाम :- जसवंत। पिता :- हम्मीर जी जाट माता :- रुपादे पत्नी :- काललदे। गुरु :- गोरखनाथजी प्रारम्भिक अनुयायी :- हारोजी एवं जियोजी। जसनाथी पंथ का प्रवर्तन किया। (निर्गुण पंथ)। कतरियासर में आश्विन शुक्ला सप्तमी वि. स. 1563 को जीवित समाधि ले ली। जसनाथ जी ने ‘गोरखमालिया’ नामक स्थान पर निरन्तर 12 वर्ष तक तप किया। यह स्थान बीकानेर जिले में है।जसनाथ जी के उपदेश ‘सिंभूदड़ा’ एवं ‘कोंडा’ ग्रन्थ में संग्रहित है।- इनके अनुयायियों में जाट वर्ग के लोग प्रमुख है।- ‘गोरख-छन्दो’ जसनाथ जी की अन्य रचना है।- सिकन्दर लोदी के समकालीन।- जसनाथ जी ने राव लूणकरण को बीकानेर राज्य की गद्दी-प्राप्ति का वरदान दिया था।- जसनाथ जी के समाधिस्थ होने के बाद उनके प्रमुख शिष्य जागोजी सम्प्रदाय की प्रमुख गद्दी पर बैठे।- जसनाथी सम्प्रदाय की उप-पीठे :- बमलू, लिखमादेसर, पुनरासर, मालासर एवं पांचला सिद्धा।3. जाम्भोजी :- जन्म :- 1451 में (कृष्ण जन्माष्टमी के दिन) पीपासर (नागौर) में। पिता :- लोहट जी (पंवार वंशीय राजपूत) माता :– हंसा देवी।- जाम्भोजी को वैदिक देवता विष्णु का अवतार माना जाता है।- जाम्भोजी के 29 उपदेश और 120 शब्दों का संग्रह ‘जम्भ सागर’ में संग्रहित है।- विष्णु भक्ति पर बल। विधवा विवाह के समर्थक।- विश्नोई सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया। (1485 ई. में)– कार्यस्थल :- समराथल (बीकानेर) मृत्यु :- मुकाम-तालवा (नोखा, बीकानेर) 1536 ई. में।- मुकाम-तालवा में प्रतिवर्ष दो बार आश्विन एवं फाल्गुन माह की अमावस्या को मेला भरता है।- जाम्भोजी के ग्रन्थ :- ‘जम्भसागर’, ‘जम्भ संहिता’, ‘गुरुवाणी’, ‘सबदवाणी’, ‘विश्नोई धर्म प्रकाश’ एवं 120 वाणियाँ।- जाम्भोजी के उपदेशों पर कबीर का प्रभाव झलकता है।- पर्यावरण वैज्ञानिक के रूप में प्रसिद्ध संत।- साथरिया :- जाम्भोजी द्वारा दिये गये ज्ञानोपदेश का स्थान।- जम्भ सागर इस सम्प्रदाय का प्रमुख ग्रन्थ है।4. लालदास जी :- जन्म :- 1540 ई. में धोलीदूब (अलवर) में। पिता :- श्री चाँदमल। माता :- समदा।- लालदास जी मेव (मुस्लिम) जाति के लकड़हारे थे।- गुरु :- गद्दन चिश्ती।- पत्नी :- भोगरी।- लालदासी सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।– मृत्यु :- 1648 ई. में नगला (भरतपुर) में।- समाधि :- शेरपुर (अलवर) में।- इनके पुत्र कुतुब (मियां साहब) का मठ बांधोली में है।- रचनाएँ :- ‘लालदासजी की वाणी’, ‘लालदास की चेतावनी’।- निर्गुण भक्ति के उपासक।5. चरणदास जी :- जन्म :- 1703 ई. में डेहरा (अलवर) में।- पिता :- मुरलीधर जी- माता :- कुंजो देवी।- बचपन का नाम :- रणजीत।- चरणदासजी ने मुनि शुकदेव से दीक्षा ली।- आजीवन ब्रह्मचारी जीवन व्यतीत किया।- चरणदासी पंथ का प्रवर्तन किया।- प्रमुख ग्रन्थ :- ब्रह्म ज्ञान सागर, ब्रह्म चरित्र, भक्ति सागर, ज्ञान स्वरोदय।- ये सदैव पीले वस्त्र पहनते थे।- चरणदासजी ने नादिरशाह के आक्रमण की भविष्यवाणी की थी।- ये श्रीमद्‌भागवत को अपना धर्मग्रन्थ मानते थे।- 1782 ई. को दिल्ली में निधन, जहाँ इनकी समाधि बनी हुई है और बसंत पंचमी को मेला भरता है।- शिष्य :- 52 शिष्य। रामरूप, रामसखी, सहजोबाई, दया बाई, जुगतानंद, जीवनदास आदि।- मेवात (अलवर-भरतपुर) क्षेत्र के प्रसिद्ध संत।6. हरिदास जी :- जन्म :- 1452 ई. में कापड़ोद (डीडवाना, नागौर)।- यह संत बनने से पूर्व डाकू थे।- निरंजनी सम्प्रदाय के प्रवर्तक। निर्गुण भक्ति के उपासक।- मूल नाम :- हरिसिंह सांखला। इनके उपदेश ‘मंत्र राज प्रकाश’ तथा ‘हरिपुरुष जी की वाणी’ में संग्रहित है।- मृत्यु :- गाढ़ा (नागौर) में।7. संत रामचरण जी :– जन्म :- 24 फरवरी, 1720 ई. सोडा ग्राम (टोंक) में।- पिता :- बखताराम जी।- माता :- देउजी। वैश्य कुल में उत्पन्न।- बचपन का नाम :- रामकृष्ण।- गुरु :- कृपाराम।- रामस्नेही सम्प्रदाय के प्रवर्तक।- अणभैवाणी :- इस ग्रन्थ में संत रामचरण जी के उपदेश संग्रहित है।- ‘राम रसाम्बुधि’ रामचरण जी का अन्य ग्रंथ है।- मूर्तिपूजा एवं कर्मकाण्ड विरोधी संत।- मृत्यु :- 1798 में शाहपुरा (भीलवाड़ा) में।- स्वामी रामचरण जी ने राम-नाम स्मरण एवं सत्संग पर बल दिया।8. संत दरियाव जी :– जन्म :- 1676 ई. में जैतारण (पाली) में।- पिता :- भानजी धुनिया- माता :- गीगा बाई।- 7-8 वर्ष की अायु में साधु स्वरूपानंद ने दरियाव जी की हस्तरेखा देखकर कहा कि ये एक बड़े फकीर (औलिया) होंगे।– गुरु :- प्रेमदास जी।- ईश्वर के नाम स्मरण एवं योग-मार्ग का उपदेश दिया।- शिष्य :- कृष्णदास, हरिदास, सांवलदास, नानकदास, जयमल।– मृत्यु :- 1758 ई. में रैण (नागौर) में।- दरियाव जी का देवल ‘धाम’ के नाम से जाना जाता है।9. संत हरिरामदास जी :– जन्म :- 1719 ई. में।- मृत्यु :- 1778 ई. में सिंहथल (बीकानेर) में- पिता :- भागचंद जोशी- माता :- रामी- पत्नी :- चांपा- गुरु :- जैमलदास जी।- प्रमुख कृति :- निसाणी। संत रामचरण के समकालीन। हरिरामदास जी ने हिन्दू-मुस्लिम भेदभाव को स्वीकार नहीं किया।10. संत रामदास जी :– जन्म :- 1726 ई. को भीकमकोर (जोधपुर) में।- पिता :- शार्दुल जी- माता :- अणमी- गुरु :- श्री हरिरामदास जी।- ग्रन्थ :- 24 ग्रन्थों की रचना (गुरु ग्रन्थ महिमा, ग्रंथ घघर निशाणी, ग्रंथ भक्तमाल, ग्रंथ रामरक्षा आदि)।- मृत्यु :- 1798 में खेड़ापा में।11. संत पीपा :– जन्म :- 1425 ई. में गागरोण में।- पिता :- कड़ावा राव (खींची)- माता :- लक्ष्मावती।- बचपन का नाम :- प्रतापसिंह- गुरु :- संत रामानंद- पीपा राजस्थान में भक्ति आंदोलन की अलख जगाने वाले प्रथम संत थे।- दर्जी समुदाय के आराध्य देव।- पीपाजी का भव्य मंदिर :- समदड़ी (बाड़मेर)।- पीपाजी की गुफा :- टोडा (टोंक) में।- निर्गुण भक्ति के उपासक।- पीपाजी की छतरी :- गागरोण (झालावाड़) में।- दिल्ली सुल्तान फिरोज तुगलक को परास्त किया।- रचित ग्रन्थ :- श्री पीपाजी की बाणी, चितावनी जोग।12. संत सुन्दरदास जी :– जन्म :- 1596 ई. दौसा में। वैश्य परिवार से सम्बन्धित।- पिता :- परमानन्द जी- माता :- सती- ग्रन्थ :- ज्ञान समुद्र, ज्ञान सवैया, सुंदर विलास, सुन्दर सार, सुन्दर ग्रन्थावली बारह अष्टक।- दादूजी के परम शिष्य।- निधन :- 1746 में साँगानेर में।- इन्होंने दादू पंथ में ‘नागा’ साधु वर्ग प्रारम्भ किया।- शिष्य :- दयालदास, श्यामदास, दामोदरदास, निर्मलदास, नारायणदास।- सुन्दरदास जी ने दार्शनिक सिद्धान्तों को ज्ञानमार्गी पद्धति में पद्यबद्ध किया।- संत सुन्दरदास जी ने 42 ग्रंथों की रचना की।- इन्हें ‘हिन्दी साहित्य का शंकराचार्य’ कहा जाता है।- मुख्य कार्यस्थल :- दौसा, साँगानेर, नरायणा एवं फतेहपुर शेखावटी।- भारतीय डाक विभाग ने इनकी स्मृति में 8 नवम्बर, 1997 को 2 रुपये का डाक टिकट जारी किया गया था।13. संत रज्जब जी :- 16वीं सदी में साँगानेर (जयपुर) में पठान परिवार में जन्म।- संत रज्जब जी जीवनपर्यन्त दूल्हे के वेश में रहे।- रचनाएँ :- रज्जब वाणी, सर्वंगी, अंगबधू।- निधन :- वि.स. 1746 में साँगानेर में।- भक्तमाल :- राधौदास रचित कृति जिसमें रज्जब जी के 10 शिष्यों का उल्लेख है।- रजबावत :- संत रज्जब जी के अनुयायी।14. संत धन्नाजी :- संवत 1472 में धुवन (टोंक) में जाट परिवार में जन्म।- संत रामापंद के शिष्य।- रचनाएँ :- धन्नाजी की परची, धुन्नाजी की आरती।- इनके विषय में कहा जाता है कि इन्होंने हठपूर्वक भगवान की मूर्ति को भोजन कराया था।- इन्होंने राम-नाम स्मरण को ही ईश्वर प्राप्ति का मुख्य साधन बताया है।- धन्ना की सबसे ज्यादा लोकप्रियता पंजाब में है।15. बालिन्द जी :- संत दादूजी के शिष्य- रचना :- आरिलो।16. संत रैदास जी :- संत रामानंद के शिष्य। चमार जाति के थे। बनारस निवासी। इन्होंने ‘निर्गुण ब्रह्म’ की भक्ति का उपदेश दिया। ईश्वर नाम स्मरण को सर्वोच्च मानते थे। मीराबाई के गुरु। इनके उपदेश ‘रैदास की परची’ में संग्रहित है।- छतरी :- चित्तौड़ दुर्ग में। रैदास का कुण्ड व कुटी माण्डोगढ़ में ही है। संत कबीर के समकालीन। जाति प्रथा के विरोधी। साधु संगति पर बल दिया।17. भक्त कवि दुर्लभ :- वि. स. 1753 में वागड़ क्षेत्र में जन्म। कृष्ण भक्ति के उपदेश दिये।- कार्यक्षेत्र :- डूँगरपुर – बाँसवाड़ा- उपनाम :- राजस्थान का नृसिंह।18. संत जैमलदास जी :- रामस्नेही सम्प्रदाय के संत।- गुरु :- संत माधोदास जी दीवान। इन्होंने रामस्नेही सम्प्रदाय की सिंहथल शाखा के प्रवर्तक संत हरिरामदास जी को दीक्षा दी।19. संत मावजी :- वागड़ प्रदेश के संत- जन्म :- साबला (डूंगरपुर) में ब्राह्मण परिवार में।- पिता :- दालम जी। सन् 1727 में बेणेश्वर नामक स्थान पर ज्ञान प्राप्ति। निष्कलंकी सम्प्रदाय के प्रवर्तक। बेणेश्वर धाम की स्थापना संत मावजी ने करवाई। मावजी का मंदिर एवं पीठ माही नदी तट पर साबला गाँव में ही है। इन्होंने वागड़ी भाषा में श्रीमद् भागवत की कृष्ण लीलाओं की रचना की। इनकी वाणी ‘चोपड़ा’ कहलाती है। चोपड़ा में स्वयं को कृष्ण का दसवां अवतार घोषित किया है।- साध :- संत मावजी के अनुयायी।- मावजी के अन्य मंदिर :- पुंजपुर (डूंगरपुर), बेणेश्वर व ढालावाला, शेषपुर (मेवाड़) एवं पालोदा (बाँसवाड़ा) मावजी ने जाति प्रथा समाप्ति व अन्तरजातीय विवाह व विधवा विवाह को बढ़ावा दिया। लसोड़िया आन्दोलन (अछूतोद्वार हेतु) के प्रवर्तक। निष्कलंकी सम्प्रदाय में ईश्वर को जगाने हेतु ‘प्रभातिया’, भजन एवं भगवान के भाेग लगाते समय ‘आरोगणा’ भजन गाते हैं। बेणेश्वर धाम में संत मावजी का मंदिर जनकुंवरी ने बनवाया।जैन संत1. आचार्य भिक्षु स्वामी :- अन्य नाम :- भीखण जी श्वेताम्बर जैन आचार्य।- जन्म :- 1726 में कंटालिया (मारवाड़) में। 1760 में जैन श्वेताम्बर के तेरापंथ सम्प्रदाय की स्थापना की। ये इस सम्प्रदाय के प्रथम आचार्य बने।2. आचार्य श्री तुलसी :- जन्म :- 1914 में लाडनूं में। तेरापंथ सम्प्रदाय के आचार्य। ‘अणुव्रत’ का सिद्धान्त दिया। ‘जैन श्वेताम्बर सम्प्रदाय’ के 9वें आचार्य। 1949 को चूरू जिले के सरदारशहर से ‘अणुव्रत आन्दोलन’ प्रारम्भ किया। 1980 में लाडनूं में समण श्रेणी को प्रारम्भ किया। फरवरी 1994 में सुजानगढ़ में मर्यादा महोत्सव का आयोजन करवाया। 23 जून, 1997 को निधन।3. आचार्य महाप्रज्ञ :- जन्म :- 1920 टमकोर (झुंझुनूं) में।- 1970 के दशक में ‘प्रेक्षाध्यान’ सिद्धान्त दिया। इस सिद्धान्त के चार चरण हैं – ध्यान, योगासन एवं प्राणायाम, मंत्र एवं थेरेपी।- सुजानगढ़ से 2001 में ‘अहिंसा यात्रा’ प्रारम्भ की।- 1991 में लाडनूं में ‘जैन विश्व भारती’ डीम्ड विश्वविद्यालय की स्थापना की।- 2003 में जारी सूरत स्प्रिचुअल घोषणा (SSD) के नेतृत्वकर्ता।- रचित पुस्तकें :- मंत्र साधना, योग, अनेकांतवाद, Art of thinking Positive, Mistries of Mind, Morror of World.- 9 मई, 2010 को देहावसान।4. आचार्य श्री महाश्रमण :- 13 मई, 1962 को सरदार शहर में जन्म।- मूल नाम :- मोहन दूगड़।- रचित पुस्तकें :- आओ हम जीना सीखें, दु:ख मुक्ति का मार्ग, संवाद भगवान से, ‘महात्मा महाप्रज्ञ’ आदि।मुस्लिम संत1. ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती :-जन्म :- संजरी (फारस)- अन्य नाम :- गरीब नवाज- गुरु :- हजरत शेख उस्मान हारुनी।- ख्वाजा साहब पृथ्वीराज चौहान तृतीय के काल में राजस्थान आये तथा अजमेर को कार्यस्थली बनाया।- चिश्ती ने राजस्थान में चिश्तियां सम्प्रदाय का प्रवर्तन किया।- अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह है जहाँ प्रतिवर्ष रज्जब माह की 1 से 6 रज्जब तक उर्स का विशाल मेला भरता है। यह हिन्दू-मुस्लिम साम्प्रदायिक सद्‌भाव का सर्वोत्तम स्थल है।- इंतकाल :- 1233 में अजमेर में।- रचित पुस्तक :- कंजुल इसरार (1215 ई. में)- ‘आफताबे हिंद’ उपाधि से विभूषित।- मुहममद गौरी ने ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को ‘सुल्तान-उल-हिन्द’ की उपाधि दी।- अजमेर में ख्वाजा साहब की दरगाह का निर्माण इल्तुतमिश ने करवाया था।- ईश्वर प्रेम तथा मानव की सेवा उनके प्रमुख सिद्धान्त थे।2. शेख हमीदुद्‌दीन नागौरी :- चिश्ती परम्परा के संत।- कार्यक्षेत्र :- नागौर का सुवल गाँव। नागौरी ने इल्तुतमिश द्वारा प्रदत्त ‘शेख-उल-इस्लाम’ के पद को अस्वीकार कर दिया। नागौरी केवल कृषि से जीविका चलाते थे।- उपाधि :- ‘सुल्तान-उल-तरीकीन’ (सन्यासियों के सुल्तान) यह उपाधि ख्वाजा मुइनुद्‌दीन चिश्ती द्वारा दी गई।- मृत्यु :- 1274 ई. में।- शेख हमीदुद्‌दीन नागौरी का उर्स :- नागौर में।3. नरहड़ के पीर :– अन्य नाम – हजरत शक्कर बार- दरगाह :- नरहड़ ग्राम (चिड़ावा, झुंझुनूं) शेख सलीम चिश्ती के गुरु, जिनके नाम पर बादशाह अकबर ने अपने पुत्र का नाम सलीम रखा। जन्माष्टमी (भाद्रपद कृष्ण अष्टमी) के दिन नरहड़ के पीर का उर्स का मेला भरता है।- उपनाम :- बागड़ के धणी। नरहड़ के पीर की दरगाह भावात्मक राष्ट्रीय एवं सामाजिक एकता का प्रतीक मानी जाती है।4. पीर फखरुद्दीन :- दोउदी बोहरा सम्प्रदाय के आराध्य पीर।- दरगाह :- गलियाकोट (डूंगरपुर)। गलियाकोट (डूंगरपुर) दाउदी बोहरा सम्प्रदाय का प्रमुख धार्मिक स्थल है।महिला संत1. मीराबाई :- 16वीं सदी की प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री व गायिका।– जन्म :- 1498 में वैशाख शुक्ला तृतीया (आखातीज) के दिन कुड़की (पाली) में।- पिता :- रतन जी राठौड़ (बाजोली के जागीरदार)- दादा :- राव दूदा- बचपन का नाम :- पेमल- विवाह :- 1516 में भोजराज से (राणा सांगा का ज्येष्ठ पुत्र)- गुरु :- संत रैदास व रूप गोस्वामी।- रचनाएँ :- पदावली, टीका राग गोविन्द, नरसी मेहता की हुंडी, रुक्मिणी मंगल, सत्यभामाजी नू रुसणो। मीरा बाई ने सगुण भक्ति का सरल मार्ग भजन, नृत्य एवं कृष्ण स्मरण को बताया। मीरा के निर्देशन में रतना खाती ने ‘नरसी जी रो मायरो’ की रचना ब्रज भाषा में की।- उपनाम :- राजस्थान की राधा। मीराबाई ने अपने जीवन के अंतिम दिन गुजरात के डाकोर स्थित रणछोड़ मंदिर में गुजारे।2. गवरी बाई :- डूंगरपुर के नागर कुल में जन्म।- इन्होंने कृष्ण को पति के रूप में स्वीकार कर कृष्ण भक्ति की।- उपनाम :- वागड़ की मीरा।- रचना :- कीर्तनमाला।- डूंगरपुर के महारावल शिवसिंह ने गवरी बाई के प्रति श्रद्धास्वरूप बालमुकुन्द मन्दिर का निर्माण करवाया था।- गवरी बाई ने अपनी भक्ति में हृदय की शुद्धता पर बल दिया।3. संत रानाबाई :-जन्म :- 1504 ई. में हरनावां (नागौर) में।- दादा :- जालम जाट- पिता :- रामगोपाल संत राना बाई ने खोजी जी महाराज से शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। राना बाई कृष्ण भक्ति की संत थी।- गुरु :- संत चतुरदास।- उपनाम :- राजस्थान की दूसरी मीरा। राना बाई ने 1570 में फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी के दिन हरनावा में जीवित समाधि ले ली।4. संत करमेती बाई :-पिता :- परशुराम कांथड़िया (खण्डेला निवासी) कृष्ण भक्ति की संत। इन्होंने वृन्दावन के ब्रह्मकुण्ड में साधना की।- मंदिर :- खण्डेला में।5. संत दया बाई :- चरणदास जी की शिष्या / राधा कृष्ण भक्ति की उपासिका।- रचित ग्रन्थ :- दयाबोध, विनय मालिका।- समाधि :- बिठूर।6. संत सहजो बाई :- राधाकृष्ण भक्ति की संत नारी। चरणदासी मत की प्रमुख संत।- रचित ग्रन्थ :- सोलह तिथि, सहज प्रकाश।7. संत भूरी बाई अलख :- मेवाड़ की महान महिला संत। इन्होंने निर्गुण-सगुण समन्वित भक्ति को स्वीकार किया। भूरीबाई उदयपुर की अलारख बाई तथा उस्ताद हैदराबादी के भजनों से प्रभावित थी।8. संत नन्ही बाई :- खेतड़ी की सुप्रसिद्ध गायिका। दिल्ली घराने से सम्बन्धित तानरस खाँ की शिष्या।9. संत ज्ञानमति बाई :-कार्यक्षेत्र :- गजगौर (जयपुर) इनकी 50 वाणियाँ प्रसिद्ध हैं।10. संत रानी रुपादे :- निर्गुण भक्ति उपासिका। राव मल्लीनाथ की रानी।- गुरु :- नाथजागी उगमासी।- इन्होंने अलख को पति रूप में स्वीकार कर ईश्वर के एकत्व का उपदेश दिया था।- देवी सन्त के रूप में रानी रुपादे तोरल जेसल में पूजी जाती है।11. संत समान बाई :– कार्यक्षेत्र :- अलवर कृष्ण उपासिका।12. संत ताज बेगम :- कृष्ण भक्ति की संत नारी।- गुरु :- आचार्य विट्ठलनाथ। वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित- कार्यक्षेत्र :- कोटा13. संत करमा बाई :- कृष्णोपासिका। अलवर से सम्बद्ध।14. संत कर्मठी बाई :- कृष्णोपासिका। वृन्दावन में साधना की।- कार्यक्षेत्र :- बागड़ क्षेत्र।15. संत जनसुसाली बाई :- हल्दिया अखेराम की शिष्या।- रचित ग्रन्थ :- सन्तवाणी, गुरुदौनाव, अखैराम, लीलागान, हिण्डोरलीला की मल्हार राग, साधु महिमा, बन्धु विलास।16. संत करमा बाई :- नागौर के जाट परिवार में जन्म। भगवान जगन्नाथ की भक्त कवियत्री। मान्यता है कि भगवान ने उनके हाथ से खीचड़ा खाया था। उस घटना की स्मृति में आज भी जगन्नाथपुरी में भगवान को खीचड़ा परोसा जाता है।17. संत फूली बाई :- जाेधपुर महाराजा जसवन्तसिंह ने फूली बाई को धर्मबहिन बनाया था- कार्यक्षेत्र :- जोधपुर।अन्य तथ्य :-– राजस्थान में ‘ऊंदरिया पंथ’ भीलों में प्रचलित है।- लोद्रवा जैनियों के लिए प्रसिद्ध है।- भगत पंथ का संस्थापक :-  गुरु गोविन्द गिरि।- दादूजी के देहान्त के पश्चात नरायणा दादू पंथ की खालसा उपशाखा का मुख्य स्थान रहा है।- मुरीद :- सूफी अनुयायी।- जसनाथ जी के चमत्कारों से प्रभावित होकर सुल्तन सिकन्दर लोदी ने उन्हें जागीर प्रदान की।- जैन विश्व भारती संस्थान :- लाडनूं- दादू पंथ का अधिकांश साहित्य ढूंढाड़ी बोली में लिपिबद्ध है।- संत पीपा के अनुसार मोक्ष का साधन भक्ति है।- राजस्थान का उत्तर-तोताद्रि :- गलता (जयपुर)- सुप्रसिद्ध ‘कायाबेलि’ ग्रन्थ की रचना दादू दयाल ने की।- रसिक सम्प्रदाय का प्रवर्तक :- अग्रदास जी।- संत मीठेशाह की दरगाह :- गागरोण दुर्ग में। मलिक शाह पीर की दरगाह :- जालौर में। चोटिला पीर दुलेशाह की दरगाह :- पाली। खुदाबक्श बाबा की दरगाह :- सादड़ी (पाली)- अमीर अली शाह पीर की दरगाह :- दूदू (जयपुर)- पारसी धर्म के संस्थापक जरथ्रुष्ट्र थे। पारसी धर्म के अनुयायी सूर्य की पूजा करते है।- राजस्थान के बाॅसवाड़ा जिले में ईसाई सर्वाधिक संख्या में है।- उमराव कंवर अर्चना देश की पहली जैन साध्वी है, जिन पर डाक टिकट जारी किया गया है। (2011 में 5 रुपये का डाक टिकट)- गुण हरिरस एवं देवियाणा ग्रंथ के लेखक :- ईसरदास।- कुंडा पंथ के प्रणेता राव मल्लीनाथ थे। यह वाममार्गी पंथ है।- राधावल्लभ सम्प्रदाय के प्रवर्तक :- गोस्वामी हितहरिवंश।- चतु:सम्प्रदाय :- वैष्णव भक्ति के लिए प्रसिद्ध चार सम्प्रदाय (i) श्री (ii) ब्रह्म (iii) रुद्र (iv) सनक।- ‘धौलागढ़ देवी’ का मंदिर :- अलवर में।- विश्नोई सम्प्रदाय के लोग भेड़ पशु को पालना पसन्द नहीं करते हैं।- पंडित गजाधर :- मीरा बाई के शिक्षक।- दासी मत का संबंध मीरा से है।- हठ योग प्रणाली के जन्मदाता :- गोरखनाथ जी।- मारवाड़ में निम्बार्क सम्प्रदाय को ‘नीमावत’ के नाम से जाना जाता है।- चरणदासी पंथ के संत रामरूपजी की गद्दी :- पानों की दरीबा (जयपुर)।- वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित वल्लभ घाट पुष्कर में है।- रामद्वारा :- रामस्नेही सम्प्रदाय का प्रार्थना स्थल।- लालदासी सम्प्रदाय के सर्वाधिक अनुयायी मेव जाति के हैं।- ’84 वैष्णवों की वार्ता’ एवं ’52 वैष्णवों की वार्ता’ ग्रन्थ वल्लभ सम्प्रदाय से सम्बन्धित है।- ‘गुरु-दीक्षा’, ‘डोली-पाहल’ एवं ‘थापन’ संस्कार का संबंध विश्नोई सम्प्रदाय से है।- चरणदासी सम्प्रदाय सगुण एवं निर्गुण भक्ति मार्ग का मिश्रण है।- चरण सम्प्रदाय का ‘बड़े रियापाड़ी वाला मंदिर’ व ‘टोली के कुएं वाला मंदिर’ राजस्थान के अलवर जिले में स्थित है।- संत सुन्दरदास जी की प्रधान पीठ :- फतेहपुर में।- संत सुन्दरदास जी ने काशी के 80 घाट पर गोस्वामी तुलसीदास के साथ निवास किया था।- ‘श्रीनाथ जी’ की प्रतिमा मुगल शासक औरंगजेब के समय वृन्दावन से सिंहाड़ (नाथद्वारा) लाई गई।- ‘लश्करी पीठ’ का सम्बन्ध रामानन्दी सम्प्रदाय से है।- निरंजनी सम्प्रदाय नाथमल एवं संतमल के मध्य की कड़ी माना जाता है।- परमहंस :- जसनाथी सम्प्रदाय के विरक्त सन्त।- राजस्थान में निर्गुणी संत-सम्प्रदायों का आविर्भाव 15वीं सदी में हुआ।- हरड़े बानी :- संत दादूजी की वाणियों का संग्रह।- निम्बार्क सम्प्रदाय के साधुओं को ‘विष्णु स्वामी’ कहा जाता है।- ‘जो पिण्ड में है वही ब्रह्माण्ड में है।’ सिद्धान्त का विवेचन संत पीपा द्वारा किया गया।

Leave a Comment

CONTENTS