एरिक्सन के व्यक्तित्व सम्बन्धी उपागम का वर्णन कीजिए ।

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एरिक्सन व्यक्तित्व निर्धारण तथा उसके विकास को स्वाभाविक रूप में मानता है। जिस तरह बालक का गर्भ में विकास स्तर के अनुसार स्वाभाविक रूप से होता है। ठीक उसी तरह मानव व्यक्तित्व भी अहम् , इदम् तथा अत्यहम् के कारण निर्धारित होता है। व्यक्तित्व सम्बन्धी विचारों में एरिक्सन नकारात्मक तथा सकारात्मक पक्ष दोनों को साथ-साथ लेकर चलता है। व्यक्तित्व विकास में यह जरूरी नहीं है कि सकारात्मक योग्यता ही विकसित हो, वरन् नकारात्मक योग्यता भी विकसित हो सकती है। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि नकारात्मक योग्यताओं का ज्यादा विकास व्यक्तित्व को असामान्य बनाता है। अत: अधिक से अधिक सकारात्मक योग्यताएं स्थापित होनी चाहिए । एरिक्सन ने व्यक्तित्व सम्बन्धी विचार निम्न बिन्दुओं के माध्यम से स्पष्ट किये हैं-

1. विश्वास विपरीत अविश्वास- इसका सम्बन्ध शिशु सम्बन्धी क्रियाओं से होता है जिसे वह जन्म से लेकर 1 वर्ष तक के बीच में सीखता है । इस अवस्था में बालक की आवश्यकता पूर्ति माता-पिता द्वारा की जाती है । उसको माता-पिता के द्वारा प्रेम मिलता है तो संसार में उसका विश्वास स्थापित हो जाता है। इसके विपरीत उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं की जाती है, उसके प्रति प्रेम का प्रदर्शन नहीं किया जाता है तो बालक का संसार के प्रति अविश्वास पैदा हो जाता है। उसके मन में संसार के प्रति भय तथा शंका का भाव पैदा हो जाता है।

2. स्वाधीनता विपरीत शंका तथा शर्म अथवा झेंपना- प्रथम अवस्था में जब बालक अपने माता-पिता पर विश्वास करने लगता है तो उसको कार्य करने की स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए। यह स्वतन्त्रता बालक की योग्यता के अनुसार मिलनी चाहिए। इससे बालक में स्वाधीनता की भावना का विकास होता है। इसके साथ-साथ ही बालक में वातावरण का सामना करने की योग्यता का विकास होता है तथा बालक अपने कार्य के द्वारा वातावरण में समायोजन पैदा करता है। इसके विपरीत बालक को ऐसा कार्य करने से रोका जायेगा तो उसमें अपनी योग्यता के प्रति शंका पैदा हो जायेगी। अतः यह जरूरी है कि बालक के द्वारा किये गये हर व्यवहार के लिए जो कि प्रौढ़ व्यक्तियों द्वारा पसन्द नहीं किया जाता है, संकोच नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से बालक अपने आप पर सन्देह करने लगता है। इसकी अवधि 2 से 3 वर्ष तक की होती है।

3. पहल विपरीत दोष- इस अवस्था की अवधि 4 से 5 वर्ष की होती है । इस अवस्था में बालकों को प्रयोग तथा खोज करने की स्वतन्त्रता प्रदान की जाती है तो वह प्रत्येक कार्य करने की पहल करते हैं। उन्हें कार्य के प्रति लगाव पैदा होता है। इसके विपरीत बालक पर प्रतिबन्ध लगाये जाते हैं तो कार्य के प्रति दोष की भावना पैदा होती है अर्थात् प्रत्येक कार्य में रुचि का अभाव पैदा हो जाता है। इस तरह वह कार्य करने की प्रेरणा से वंचित रहते हैं।

4. परिश्रम विपरीत हीनता- इस अवस्था में बालक को प्रोत्साहन मिलता है तो वह परिश्रमी बन जाते हैं। हर कार्य को बालक पूर्ण निष्ठा के साथ सम्पादित करता है। अगर इसके विपरीत बालक किसी कार्य में विफल हो जाता है एवं उसको उत्साहित नहीं किया जाता है तो बालक में हीनता की भावना जागृत होती है। इस तरह उसका मन किसी कार्य में नहीं लगता है। इसकी अवधि 6 से 11 वर्ष होती है।

5. अभिज्ञान विपरीत द्विविधा तथा भूमिका- इस अवस्था की अवधि 12 से 18 वर्ष होती है। इस अवस्था को किशोरावस्था भी कहते हैं। किशोरावस्था में बालक अभिज्ञान की खोज में रहता है। विभिन्न स्थितियों में भूमिकाओं का एकत्रीकरण करने में किशोर सफल हो जाते हैं ताकि वह अपने अनुभवों में अपने आत्म की निरन्तरता का अनुभव कर सकें । अध्यापकों तथा अभिभावकों को उन्हें वह अल्पकालिक उद्देश्य चुनने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए जिसको वह प्राप्त कर सके । इससे वह अपने को महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व वाला व्यक्ति समझते हैं। इसके विपरीत दिशा में भूमिका के सम्बन्ध में द्विविधा उत्पन्न होती है कि कौनसा कार्य वांछित है? तथा उन्हें क्या कार्य करना चाहिए जिससे कि समाज के व्यक्ति उनको अच्छा समझें ।

6. घनिष्ठता विपरीत अकेलापन- यह अवस्था युवा तथा प्रौढ व्यक्तियों से सम्बन्धित होती है । युवा व्यक्ति अपने अभिज्ञान को दूसरे व्यक्तियों के साथ मिलाने को इच्छुक रहता है इस अवस्था में अन्य व्यक्तियों के साथ घनिष्ठता का सम्बन्ध रहता है। इस तरह यह अवस्था घनिष्ठता के लिए तैयार रहती है। इस अवस्था में सबसे संकट का विषय यह होता है कि घनिष्ठता,होड़ करना एवं द्वन्द्वात्मक सम्बन्ध अपने जैसे समान विचार तथा अभिज्ञान प्राप्त व्यक्तियों से ही किये जाते हैं, जिसमें व्यक्ति अकेलेपन का अनुभव करने लगता है। इसलिए यह जरूरी है कि घनिष्ठता का सम्बन्ध अकेलेपन में न बदलने पाये इसके विशेष ध्यान होना चाहिए।

7. उत्पादकता विपरीत ठहराव- यह अवस्था व्यक्ति की मध्य आयु से सम्बन्धित होती है । उत्पादकता का सम्बन्ध प्रमुख रूप से नवीन पीढ़ी को निर्देश प्रदान करने से होता है। इस अवस्था में व्यक्ति नयी पीढ़ी को निर्देश प्रदान करके उनके व्यक्तित्व में सहयोग प्रदान करता है। किसी कारणवश व्यक्ति इस प्रक्रिया से अलग हो जाता है। आवश्यक निर्देश प्रदान नहीं कर पाता है तो उसे व्यक्तित्व में ठहराव आ जाता है। वह उत्पादकता की विपरीत अवस्था ठहराव में पहुँच जाता है।

8. सन्निष्ठता विपरीत निराशा- यह अवस्था वृद्धावस्था से सम्बन्धित होती है सन्निष्ठता की अवस्था जब होती है तब व्यक्ति अपने व्यतीत जीवन से सन्तुष्ट होता है। वह मानकर चलता है कि उसने अपने जीवन को सार्थक ढंग से व्यतीत किया है। इसमें किसी तरह का परिवर्तन उसके द्वारा सम्भव नहीं हो सकता था। जैसा होना चाहिए वही उसने अपने जीवन में किया है। इसके विपरीत अपने जीवन से असन्तुष्ट व्यक्ति निराशा से भर गया है वह सोचता है कि शेष जीवन को किस तरह सन्तोषप्रद और सुखप्रद बनाया जा सकता है ? समय तथा साधनों का अभाव उसके मन में निराशा के भाव पैदा कर देता है।

इस तरह एरिक्सन ने अपने विचारों में यह स्पष्ट किया है कि इस तरह व्यक्तित्व का निर्माण तथा विकास होता है। शिक्षक तथा अभिभावक कर्तव्यों का भी उल्लेख करते हुए कहा है कि शिक्षक अपने अनुभव और कार्यों से व्यक्तित्व निर्माण तथा विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकता है जिस पर चलकर छात्र अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सकते हैं।

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