किशोरावस्था की विशेषताओं एवं इसके लिए शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या कीजिए।

Estimated reading: 3 minutes 113 views

 मानव विकास की सबसे विचित्र तथा जटिल अवस्था किशोरावस्था है। इसका काल 12 वर्ष से 18 वर्ष तक रहता है। इसमें होने वाले परिवर्तन बालक के व्यक्तित्व के गठन में महत्वपूर्ण योग प्रदान करते हैं। अतः शिक्षा के क्षेत्र में इस अवस्था का विशेष महत्व है। ई.ए. किलपैट्रिक ने लिखा है-“इस बात पर कोई मतभेद नहीं हो सकता है कि किशोरावस्था जीवन का सबसे कठिन काल है।” स्टेनले हाल के अनुसार-“किशोरावस्था बड़े संघर्ष, तनाव, तूफान एवं विरोध की अवस्था है।”


किशोरावस्था का अर्थ

किशोरावस्था शब्द अंग्रेजी के ‘एडोलसेंस’ का हिन्दी रूपांतर है। ‘एडोलसेंस’ शब्द लैटिन भाषा के ‘एडोलसियर’ से बना है, जिसका अर्थ है परिपक्वता की तरफ बढ़ना। अतः शाब्दिक अर्थ के रूप में हम कह सकते हैं कि किशोरावस्था वह काल है, जो परिपक्वता की तरफ संक्रमण करता है ।

ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्पसन के अनुसार- “किशोरावस्था हर व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अंत में शुरू होता है तथा प्रौढ़ावस्था के आरंभ में खत्म होता है।

हैडो कमेटी रिपोर्ट इंग्लैंड के अनुसार- “ग्यारह अथवा बारह वर्ष की आयु में बालकों की नसों में ज्वार उठना शुरू होता है, इसे किशोरावस्था के नाम से जाना जाता है। अगर इस ज्वार का चढ़ाव के समय ही उपयोग कर लिया जाये तथा इसकी शक्ति एवं धारा के साथ-साथ नई यात्रा शुरू कर दी जाये, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।”

किशोरावस्था की मुख्य विशेषताएं

किशोरावस्था का काल संसार के सभी देशों में एक-सा नहीं माना जाता है। श्री हैरीमैन ने लिखा है-“यूरोपीय देशों में किशोरावस्था का समय लड़कियों में करीब 13 वर्ष से लेकर 21 वर्ष तथा लड़कों में 15 वर्ष से 21 वर्ष तक माना जाता है। भारत देश में लड़कियों की 11-17 वर्ष तथा लड़कों की 13-19 वर्ष तक किशोरावस्था की सीमा मानी जाती है।”

अत: हम यहाँ पर किशोरावस्था की विशिष्टता को ध्यान में रखते हुए विशेषताओं का वर्णन करेंगे-

1. विकासात्मक विशेषताएं- किशोरावस्था में बालक का सर्वांगीण विकास होता है, वह शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक आदि क्षेत्रों में विकास के चर्मोत्कर्ष पर होता है। इसी समय पुरुषत्व तथा नारीत्व संबंधी विशेषताएं भी प्रकट होने लगती है। अतएव वे स्वयं अपने-अपने समूहों में नियंत्रित होते चले जाते हैं; जैसा कॉलसनिक ने लिखा है-“किशोरों तथा किशोरियों को अपने शरीर और स्वास्थ्य की विशेष चिंता रहती है। किशोरों के लिए बलशाली, स्वस्थ तथा उत्साही बनना और किशोरियों के लिए अपनी आकृति को स्त्रीत्व आकर्षण प्रदान करना महत्वपूर्ण होता है।”

इसी तरह से किशोरों तथा किशोरियों में मानसिक क्षमताओं का पूर्ण विकास हो जाता है। बुद्धि की स्थिरता, कल्पना शक्ति का बाहुल्य, तर्क शक्ति की प्रचुरता, विचार में परिपक्वता तथा विरोधी मानसिक दशाएं आदि मानसिक विशेषताओं का विकास हो जाता है। शारीरिक तथा मानसिक विकास से उनके संवेगात्मक विकास पर भी प्रभाव पड़ता है। इस आयु के किशोर तथा किशोरियाँ भावात्मक और रोगात्मक जीवन व्यतीत करते हैं। वे अपने निश्चय के सामने सामाजिक मान्यताओं की भी परवाह नहीं करते हैं। क्योंकि उनका मन तथा तन उद्वेगात्मक शक्ति से परिपूर्ण रहता है।

2. आत्म-सम्मान की भावना- किशोरावस्था में आत्म सम्मान के भाव की स्वत: ही वृद्धि हो जाती है। वे समाज में वही स्थान प्राप्त करना चाहते हैं, जो बड़ों को प्राप्त है। अतएव आत्मनिर्भर बनना, नायकत्व करना, हर कार्य करने को तैयार रहना तथा महान् पुरुषों की नकल करना आदि आयामों को किशोर प्रगट करते रहते हैं। वे स्वयं को पूर्ण समझते हैं। सभी कार्यों को करने की क्षमता रखते हैं। उनमें माता-पिता अथवा अन्य किसी व्यक्ति के संरक्षण में रहना संभव नहीं होता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि इस आयु में किशोर तथा किशोरियों का जीवन अपूर्वता के साथ विकसित होता है, जिसमें उनकी स्वयं की विशेषताएं होती हैं, जैसा कि ब्लेयर, जॉन्स तथा सिम्पसन ने माना है-“किशोर का महत्वपूर्ण बनना, अपने समूह में स्थिति (स्टेट्स) प्राप्त करना तथा श्रेष्ठ व्यक्ति के रूप में अपने को स्वीकार किया जाना चाहता है।”

3. अस्थिरता- अस्थिरता शब्द का विकास के रूप में अर्थ होता है-‘निर्णय में चंचलता।’ किशोरावस्था में लिये गये निर्णय अस्थिरता से भरे होते हैं। वह शारीरिक शक्ति के वशीभूत होकर निर्णय ले लेता है जो उसके लिए लाभदायक कम तथा हानिकारक ज्यादा होते हैं। वे अपने कार्यों में रुचियों में, आदतों में, संवेगों में तथा सीखने आदि में ‘लापरवाह’ की तरह से संलग्न होते हैं। वे जल्दबाजी में अपनी विशिष्टता को भी खो बैठते हैं । उनको यथार्थ बनावटी लगता है। अत: वे विभिन्न क्षेत्रों में अपनी अस्थिरता को प्रकट करते रहते हैं। इसी बात की पुष्टि ईबे. स्ट्रांग के अध्ययनों से भी होती है।

4. किशोरापराध की प्रवृत्ति का विकास- जब एक निश्चित आयु के बीच के लड़के तथा लड़कियाँ समाज के नियमों का उल्लं और कानूनों का विरोध करने लगते हैं, तो उन्हें किशोरापराध की संज्ञा दी जाती है। इस उम्र की सबसे बड़ी विशेषता होती है-अनुशासनहीनता तथा नियमों को तोड़कर व्यवहार करना। इस अवस्था में जीवन-दर्शन का निर्माण मूल्यों का बनना, आशाओं का पूरा न होना, असफलता प्रेम की तीव्र लालसा तथा अदम्य साहस आदि विशेषताओं के वशीभूत होकर किशोर स्वयं को अपराधी मनोवृत्ति का बना लेता है तथा उसी के द्वारा अपने अहं की तुष्टि करता है।

5. काम भावना की परिपक्वता- इस अवस्था में कामेन्द्रियों का पूर्ण विकास हो जाता है तथा काम भावना अपनी पराकाष्ठा पर होती है। शैशवकाल तथा बाल्यावस्था की सुषुप्त काम भावना इस समय अपने पूर्ण यौवन पर होती है। मनोवैज्ञानिकों के अध्ययनों से पता चलता है कि किशोरों में बेचैनी, नाखून चबाना, पेंसिल मुँह में देना, लड़कियों में बार-बार आंचल लपेटना, स्वप्नातीत विचरण आदि विशेषताएं स्पष्ट देखने को मिलती हैं। काम भावना की परिपक्वता का विकास तीन क्रमों में होता है-

(i) आत्म प्रेम- किशोरावस्था में लड़के तथा लड़कियाँ स्वयं को आकर्षक बनाने में लगे रहते हैं ताकि वे दूसरों को प्रभावित कर सकें। यह भाव आत्म प्रेम, आत्म सम्मान से प्रेरित रहता है। वह हर समय अपने में मस्त रहता है तथा वही करता है जो उसको अच्छा लगता है। इसी भावना को डॉ. फ्रायड ने ‘नारसिसिज्म’ कहकर पुकारा था।

(ii) समलिंगीय काम भावना- आत्म प्रेम की भावना के बाद इस अवस्था में सामूहिक भाव पैदा होते हैं। लड़के, लड़कों के समूह में रहना पसंद करते हैं तथा लड़कियाँ, लड़कियों के समूह में, ये दोनों ही अपना-अपना राजदार बनाने हेतु मित्रता के नये आयामों की खोज करते हैं। ये लोग साथ-साथ कक्षा में बैठते हैं, पिकनिक पर जाते हैं, पार्क में बैठकर बातचीत करते हैं तथा साथ-साथ घूमते-फिरते हैं। इस तरह इस आयु में काम भावना का विकास समलिंगीय समूहों में भी विकसित होता है।

(iii) विषम लिंगीय काम भावना- किशोरावस्था के अंतिम चरण में किशोर तथा किशोरियाँ एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं। इनके भीतर संसार के प्रति यथार्थ दृष्टिकोण विकसित होने लगता है। ये लोग अपने जीवन साथी की कल्पना में मानसिक रूप से संतृप्त रहते हैं। अतएव इनमें विषम लिंगीय प्रेम प्रस्फुटित होता है। लड़का लड़की के प्रति ज्यादा आकर्षित होता है।

6. समाज सेवा- किशोरावस्था में समाज सेवा की भावना बहुत होती है। लड़के ऐसा कार्य करना चाहते हैं कि वे अपने पिता के समान सम्मान प्राप्त कर सकें तथा लड़कियाँ अपनी माँ के समान आदर प्राप्त करना चाहती हैं। वे स्वयं को सामाजिक उत्सवों, कार्यों तथा सेवाओं से ओतप्रोत कर लेते हैं एवं उसको ही प्रमुखता देने लगते हैं। इसी का परिणाम है कि जब भी कोई आयोजन होता है किशोर तथा किशोरियों को याद किया जाता है।

7. कल्पना का बाहुल्य- इस अवस्था की मुख्य विशेषता है कल्पना का दैनिक जीवन में प्रयोग होना। मन की चंचलता, ध्यान परिवर्तन तथा मूल्यों की अस्थिरता के कारण वह यथार्थता से हट जाता है एवं कल्पना जगत में डूबा रहता है। इसी अवस्था को मनोवैज्ञानिकों ने ‘दिवा-स्वप्न’ नाम दिया है।

8. अपराध वृत्ति- किशोरावस्था में अस्थिरता से मानसिक झुकाव नाजुक स्थिति से होकर गुजरता है । इस अवस्था के लड़के तथा लड़कियों को भौतिक जगत का बनावटी आकर्षण दिखाकर चतुर अपराधी अपराध वृत्ति की तरफ आकर्षित कर लेते हैं। बाद में धीरे-धीरे इनका जीवन अपराध करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं रह पाता है तथा समाज और राष्ट्र में अपमान सहते रहते हैं। ये कभी भी अच्छे नागरिक नहीं बन पाते हैं। मनोवैज्ञानिकों के मनोविश्लेषण से स्पष्ट हो गया है कि ये सामाजिक बनने के लिए छटपटाते रहते हैं, पर प्रत्यक्ष रूप से कुछ भी करने में असफल रहते हैं।

9. धार्मिक भावों का उदय- शैशवावस्था की स्वार्थ-भावना, किशोरावस्था में सामाजिक भावना यानि दूसरों की मदद करने में सुख महसूस करने में परिवर्तित हो जाती है। इसी समय किशोर तथा किशोरियाँ धार्मिक भावना और अलौकिकता में विश्वास करने को उत्सुक रहते हैं वे अपने को मानव समाज हेतु अर्पण करने के लिए तैयार होते हैं। उनको एक नयी ज्योति दिखलायी देती है, जो भविष्य का मार्गदर्शन देती है। धीरे-धीरे वे उसको आत्मसात् करते हैं तथा स्वयं को ईश्वरीय शक्ति के प्रति आस्थावान बनाना शुरू कर देते हैं। इसी के कारण आत्मचेतन, संयम, नियंत्रण, कर्तव्य पालन तथा समाज सेवा के भाव आदि महान् व्यावहारिक क्रियाएं शुरू होती हैं। अतः इसी अवस्था में धार्मिक भावनाएं प्रकट होकर अपना प्रभाव स्थायी बनाती हैं।

10. स्वाभाविकता का विकास- जब कोई व्यक्ति अपने कार्यों तथा व्यवहारों में नवीनता प्रकट करना शुरू कर देता है, जो दूसरे के कार्यों तथा व्यवहारों से भिन्न होती है एवं अपूर्वता की परिचायक होती है, इसे व्यक्ति की स्वाभाविकता कहते हैं। ‘स्टेनले हाल’ के शब्दों में- “किशोरावस्था एक नया जन्म है, इसी अवस्था में उच्चतर तथा श्रेष्ठतर मानवीय गुण प्रकट होते हैं।”


किशोरावस्था के विकास के सिद्धांत :

किशोरावस्था में परिवर्तन से संबंधित दो सिद्धांत प्रचलित हैं-

1. आकस्मिक विकास का सिद्धांत- इस सिद्धांत के प्रतिपादक स्टेनले हाल हैं। उनके अनुसार-“किशोरावस्था के परिवर्तन का संबंध न तो शैशवावस्था से होता है तथा न बाल्यावस्था से। इस तरह किशोरावस्था एक नया जन्म कहा जा सकता है। इस अवस्था में बालक में जो परिवर्तन आते हैं, वे परिवर्तन आकस्मिक होते हैं।”

2. क्रमश: विकास का सिद्धांत- इस सिद्धांत के अनुसार-किशोरावस्था के परिवर्तन अचानक न होकर क्रमशः होते हैं। किंग का कथन है, “जिस तरह एक ऋतु का आगमन दूसरी ऋतु के बाद होता है, लेकिन पहली ऋतु में दूसरी ऋतु के आने के लक्षण प्रतीत होने लगते हैं, उसी तरह बालक की अवस्थाएं भी एक-दूसरे से संबंधित होती हैं।”


किशोरों की आवश्यकतायें तथा आकांक्षायें

आवश्यकता वह शक्ति है जो व्यक्ति को किसी विशेष तरह का व्यवहार करने हेतु प्रेरित करती है। किशोरावस्था में किशोर तथा किशोरियाँ विभिन्न आवश्यकताओं से अपने व्यवहार का संचालन करती हैं। उनकी आवश्यकताओं को प्रमुख रूप से तीन भागों में बाँटा जा सकता है।

(1) शारीरिक आवश्यकतायें

(2) मनोवैज्ञानिक आवश्यकतायें

(3) सामाजिक आवश्यकतायें

किशोरों की शारीरिक आवश्यकताओं के अंतर्गत भोजन, वस्त्र, निद्रा, विश्राम, क्रिया तथा यौन संबंधी आवश्यकतायें आती हैं। जीवित रहने के लिए भोजन,शारीरिक सुरक्षा के लिए वस्त्र, जीवन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्रिया, थकान दूर करने के लिए विश्राम व निद्रा तथा काम-वासना की पूर्ति के लिए यौन संबंधी आवश्यकतायें होती हैं। मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं के अंतर्गत किशोरों को प्रेम,स्वतंत्रता, सामाजिक मान्यता तथा सामाजिक प्रतिष्ठा की आवश्यकता होती है। वे चाहते हैं कि माता-पिता, भाई-बहिन, मित्र-पड़ौसी, अध्यापक सभी से उनको प्रेम प्राप्त हो। अपने कार्यों में उनको स्वतंत्रता प्राप्त हो । समाज में उनको सम्मान तथा प्रतिष्ठा मिले तथा समाज में उनकी मान्यता हो । समाज में स्वयं को समायोजित करने एवं व्यवस्थित करने के लिए किशोरों की सामाजिक आवश्यकताएं होती हैं। सामाजिकता की दृष्टि से किशोर-किशोरियाँ एक समूह में रहना पसंद करते हैं तथा विशेषकर उस समूह में जो उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में सहयोग प्रदान कर सकें।

किशोरों की आवश्यकतायें उनकी आकांक्षाओं की देन हैं। आकांक्षाओं का स्तर जितना उच्च होगा, जितना श्रेष्ठ होगा, आवश्यकतायें उन्हीं के अनुरूप बनती चली जायेंगी। अगर आकांक्षाओं के अनुरूप आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं होती तो किशोरों में निराशा, हताशा, असंतोष, कुण्ठा, चिन्ता एवं तनाव पैदा हो जाते हैं। जो किशोर और किशोरियाँ अपने उद्देश्य अपनी योग्यताओं, क्षमताओं, सीमाओं से ऊंचे बना लेते हैं, उनकी अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है तथा वे असफलता की स्थिति में हताश एवं निराश हो जाते हैं। यदि कोई किशोर या किशोरी परीक्षा में अधिकतम अंक प्राप्त करने की आकांक्षा लेकर प्रयत्न करता है और उसमें कोई सफलता नहीं मिलती तो वह निराश हो जाता है तथा अध्ययन में उसकी अरुचि हो जाती है।


किशोरों की समस्यायें

किशोरावस्था को तनाव तथा तूफान की अवस्था कहा गया है । इस अवस्था को जीवन की सबसे कठिन अवस्था कहा गया है। यही वह अवस्था है जब किशोर न तो बालक रहता है एवं न पूर्ण प्रौढ़ बन पाता है। इसे परिवर्तन की अवस्था भी कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में परिवर्तनों का अंबार लग जाता है। किशोर बालक-बालिकाओं में अनेक शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन होते हैं। उनके संवेगात्मक, सामाजिक तथा नैतिक जीवन का स्वरूप बदल जाता है। बाल्यावस्था की विशेषताओं का लोप होने लगता है एवं नये-नये लक्षण जन्म लेने लगते हैं। यही वह अवस्था है जिसमें उनमें अदम्य उत्साह तथा अपूर्व शक्ति होती है, जिनमें वे अपना अधिकतम विकास भी कर सकते हैं एवं अपना सर्वस्व गवां भी सकते हैं । किशोरावस्था को समस्याओं की आयु अथवा समस्याओं की अवस्था भी कहा गया है क्योंकि इस अवस्था में जहाँ स्वयं किशोर बालक-बालिकायें अपने परिवार, विद्यालय, स्वास्थ्य, व्यवसाय, मनोरंजन, भविष्य, यौन आदि से संबंधित समस्याओं से जूझते हैं, वहीं उनके माता-पिता, संरक्षक, अध्यापक, समाज और राष्ट्र के लिए वे भी एक समस्या होते हैं। इस अवस्था में किशोर तथा किशोरियों को जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है, उनमें प्रमुख समस्यायें निम्न तरह हैं-

1. स्वतंत्रता की समस्या- किशोरावस्था में आत्मप्रकाशन की भावना बड़ी प्रबल होती है। वे समाज की रूढ़ियों तथा अंधविश्वासों का घोर विरोध करते हैं। वे माता-पिता के बंधन में बँधकर रहुना नहीं चाहते । यदि उन पर नियंत्रण लगाया जाता है तो वे विद्रोह करने के लिए तैयार रहते हैं। किशोरों को घूमना-फिरना बहुत अच्छा लगता है। वे नये-नये स्थानों पर जाना पसंद करते हैं। उन्हें एक स्थान पर बंधकर रहना अच्छा नहीं लगता। जो माता-पिता किशोरों की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति को अनुचित रूप से दबाते हैं, उनके बालकों में बेचैनी तथा निराशा उत्पन्न हो जाती है और वे उच्छृखल एवं आवारा हो जाते हैं।

2. स्थिरता एवं समंजन की समस्या- जिस प्रकार शिशु की मनःस्थिति स्थिर नहीं होती, उसी तरह किशोर बालक-बालिकाओं में भी अस्थायित्व होता है। उनका व्यवहार बहुत ही परिवर्तनशील होता है। रॉस ने किशोरावस्था को शैशवावस्था का पुनरावर्तन कहा है। शिशुओं की तरह किशोर चंचल होता है। उसे यह भ्रांति होती है कि वह दूसरे व्यक्तियों के आकर्षण का केन्द्र है पर ऐसा हमेशा नहीं होता। शिशु की भाँति उसे अपने चारों तरफ के वातावरण से समंजन करना पड़ता है । वातावरण से समंजन में कठिनाई उसके शारीरिक तथा मानसिक विकास के कारण भी होती है। समंजन की समस्या कभी-कभी उसके लिए दुखदायी हो जाती है जो उसको चिंतित कर देती है। समंजन की समस्या के कारण कभी-कभी उनका व्यवहार अवांछनीय एवं अशोभनीय हो जाता है ।

3. विरोधी मनोभावों की समस्या- किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकाओं में विरोधी मनोभाव चरमसीमा पर होते हैं। किसी क्षण वे बहुत ही सक्रिय दिखायी देते हैं एवं किसी क्षण अत्यधिक आलसी तथा निष्क्रिय। कभी वे अत्यधिक उत्साह से परिपूर्ण आत्म विरोध के द्योतक होते हैं तथा इसका कारण संवेगात्मक ज्ञान योग का अभाव होता है।

4. प्रबल जिज्ञासा की समस्या- किशोरावस्था के उत्तरार्द्ध में जिज्ञासा की प्रबलता हो जाती है। अब किशोर बालक-बालिकायें प्रौढ़ जीवन विषयक ज्ञान की खोज में लग जाते हैं इस अवस्था में होने वाले नये-नये परिवर्तन उनकी जिज्ञासा को उद्दीप्त करने का कार्य करते हैं । विपरीत लिंग के लोगों के संबंध में उनकी जिज्ञासा बढ़ती जाती है क्योंकि उनके विषय में प्राप्त होने वाले अनुभव रुचिपूर्ण और आनंददायक होते हैं। किशोरों की जिज्ञासा का उचित समाधान अति आवश्यक है ।

5. आत्म गौरव की समस्या- किशोरावस्था में आत्म गौरव की भावना का विकास होता। इनका प्रमुख कारण उनके अंदर नवीन दृष्टिकोणों का विकसित होना है। वे जहाँ भी होते हैं, अपना सम्मान चाहते हैं। परिवार में, विद्यालय, समूह में वे अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहते हैं। कक्षा में मानीटर,खेलों में कप्तान, साहित्यिक तथा सांस्कृतिक परिषदों और कार्यक्रमों में वे कोई न कोई पद् प्राप्त करना चाहते हैं, जिससे उनकी आत्म गौरव की भावना की संतुष्टि हो। ऐसा न होने पर वे संघर्ष एवं विद्रोह पर उतारू हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने हेतु किशोरों को उनका उचित साथ दिये जाने की आवश्यकता है।

6. आत्म निर्भरता की समस्या- इस अवस्था में किशोर आत्मनिर्भर तथा स्वावलंबी बनना चाहते हैं क्योंकि एक तो उन्हें अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन की आवश्यकता होती है दूसरे वे यह मानने लगते हैं कि वे अब बड़े हो गये हैं एवं उन्हें माता-पिता पर बोझ वे नहीं बनना चाहिए। अनेक किशोर धन प्राप्ति के लिए अनैतिक तथा आपराधिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं। इस समस्या को दूर करने हेतु उनको समुचित निर्देशन दिया जाना चाहिए।

7. कल्पनाशील क्रियाओं की समस्या- किशोरावस्था में किशोर बालक-बालिकायें कल्पना जगत में विचरण करते रहते हैं। वास्तविक संसार से उनका कोई सरोकार नहीं रहता। वे अपना अलग ही कल्पना का संसार संजोये रहते हैं तथा दिवास्वप्नों में खोये रहते हैं । कल्पना के द्वारा वे अपनी अतृप्त इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश करते हैं। जिन वस्तुओं को उनको अभाव होता है, उनको वे कल्पना के द्वारा पूरा कर लेते हैं। माता-पिता तथा शिक्षकों को चाहिए कि उनको कल्पना को सृजनात्मक कार्य में लगायें।

8. व्यवसाय चयन की समस्या- किशोरों की एक प्रमुख समस्या व्यवसाय का चुनाव करने की होती है। इस अवस्था में वे अपने लिए उपयुक्त व्यवसाय को चुनने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने तथा उसमें उन्नति करने के लिए अत्यधिक चिंतित रहते हैं। पर व्यवसाय के संबंध में उनका चिंतन बड़ा अवास्तविक होता है। वे साधारण व्यवसायों को पुसंद नहीं करते वरन् ऐसे व्यवसायों को चुनना चाहते हैं जो उनकी योग्यता से बहुत ऊंचे होते हैं।

9. नैतिक और सामाजिक मूल्यों की समस्या- किशोर बालक-बालिकाओं के सामने नैतिक तथा सामाजिक मूल्यों की समस्या भी अत्यंत कठिन होती है। वे इन मूल्यों में बंधन महसूस करते हैं एवं इनको अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते हैं। माता-पिता, अध्यापक तथा समाज किशोरों से इन मूल्यों का पालन करने की अपेक्षा रखते हैं और किशोर अपनी एवं अपने साथियों की इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूर्ति करना चाहते हैं जिससे इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में कठिनाई आती है तथा वे दुविधा में फँस जाते हैं। माता-पिता और शिक्षकों का कर्तव्य है कि वे किशोरों के आत्म सम्मान को बनाये रखकर और उनकी उचित इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप उनकी सहायता करें।

10. यौन समस्यायें- इस अवस्था में किशोर बाल-बालिकाओं में काम प्रवृत्ति की प्रबलता उनके लिए एक बड़ी समस्या है। कोई भी किशोर लड़का-लड़की इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहता।

रॉस कहते हैं कि, “यौन, यदि समस्त जीवन का नहीं तो किशोरावस्था का अवश्य ही मूल तत्व है। एक विशाल नदी के अतिप्रभाव के समान यह जीवन की भूमि के बड़े भार्गों को सींचता है और उपजाऊ बनाता है।”


किशोरावस्था में काम शक्ति के विकास की तीन प्रमुख अवस्थायें हैं

(i) स्वप्रेम- इस अवस्था में किशोर लड़के-लड़कियाँ दोनों ही अपने शरीर, आकार-प्रकार तथा लम्बाई-चौड़ाई में बहुत अधिक रुचि लेते हैं। लड़कों को अपने शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाने, पेशियाँ उभारने एवं व्यायाम आदि का शौक पैदा होने लगता है और लड़कियाँ अपने शरीर की सुंदरता, चेहरे-मोहरे की बनावट, रंग आदि में ज्यादा रुचि लेने लगती हैं। लड़के-लड़कियाँ दोनों ही अपने बालों को संवारने, बार-बार बदलने तथा अपनी सुंदरता में वृद्धि करने के प्रयास करते हैं। इसके अलावा वे कृत्रिम तरीकों से अपनी काम प्रवृत्ति की संतुष्टि शरीर के विभिन्न अंगों को स्पर्श करके या घर्षण से स्वत: ही कर लेते हैं। ऐसा करने से उनमें हस्त मैथुन जैसी गंदी आदत का विकास हो जाता है।

(ii) समलिंग कामुकता- इस अवस्था में किशोर लड़के-लड़कियाँ अपने ही लिंग के दूसरे साथियों-सहेलियों के साथ प्रेम करने में रुचि लेते हैं। वे अपने साथियों-सहेलियों के साथ अधिक से अधिक रहना, घूमना, खाना तथा बातचीत करना पसंद करते हैं। वे आपस में आलिंगन एवं चुंबन करते हुए देखे जा सकते हैं। इस तरह समलिंग कामुकता में लड़के-लड़कों के साथ और लड़कियाँ-लड़कियों के साथ अपनी काम-वासना की संतुष्टि करते हैं ।

(iii) विषमलिंग कामुकता- इस अवस्था में किशोर लड़के-लड़कियाँ अपनी काम-वासना की तृप्ति अपने से विपरीत लिंग वालों के साथ करते हैं । किशोर लड़के-लड़कियाँ एक दूसरे के प्रति आकर्षित होते हैं, परस्पर प्रेम करते हैं, पत्र व्यवहार करते हैं, घंटों बातें करते हैं, साथ-साथ घूमते हैं और ज्यादा घनिष्ठता हो जाने पर आलिंगन, चुंबन एवं संभोग का आनंद प्राप्त करते हैं। वे एक-दूसरे के लिए संसार के बंधनों को तोड़ने के लिए तैयार रहते हैं। यह अवस्था किशोर लड़के-लड़कियों के लिए बड़ी नाजुक और गंभीर अवस्था है क्योंकि भारत के अंदर पारिवारिक तथा सामाजिक बंधन बहुत कठोर हैं।

इस तरह किशोरावस्था में किशोर लड़के-लड़कियों के समक्ष कई समस्यायें होती हैं, इसलिए इस अवस्था को ‘समस्याओं की आयु’ कहा गया है। हरलॉक ने निष्कर्ष निकाला है कि किशोरावस्था की अधिकांश समस्यायें मुख्यतः शारीरिक दिखावट और स्वास्थ्य, परिवार एवं परिवार से बाहर लोगों के साथ के संबंधों, विषमलिंग वालों से संबंधों, स्कूल-कालेज के कार्य, भविष्य की योजनाओं जैसे शिक्षा, व्यवसाय चयन, जीवन-साथी का चुनाव तथा यौन, नैतिक व्यवहार, धर्म और अर्थ से संबंधित होती हैं। इन समस्याओं के कारण किशोर लड़के-लड़कियों में जिज्ञासा, उत्सुकता, चिंता, अनिश्चितता, भय, भ्रांति, विषाद आदि के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं, जो किसी न किसी रूप समस्या ही हैं। असफलता तथा निराशा मिलने पर वे अत्यधिक भावुक और संवेदनशील हो जाते हैं। किशोर लड़के-लड़कियों की समस्याओं में पर्याप्त वैयक्तिक विभिन्नतायें पायी जाती हैं। गैरीसन ने अपने अध्ययन में यह देखा कि जिन परिवारों में प्रजातांत्रिक वातावरण रहता है, उन परिवारों में पले बालकों की समस्यायें कम जटिल होती हैं एवं जिन परिवारों में वातावरण प्रभुत्वशाली होता है, उन परिवारों में पले बालकों की समस्यायें अपेक्षाकृत अधिक जटिल हुआ करती हैं। कुछ अध्ययनों से यह निष्कर्ष भी निकाला गया है कि जिन किशोरों का बुद्धि लब्धि अधिक होता है, वे अपेक्षाकृत कम समस्याओं से ग्रस्त होते हैं और जिन किशोरों का बुद्धि लब्धि कम होता है, वे अपेक्षाकृत अधिक समस्याओं से ग्रस्त होते हैं। यह भी देखा गया है कि आयु बढ़ने के साथ-साथ किशोर लड़के-लड़कियाँ अपनी समस्याओं का समाधान करना स्वयं लिखते जाते हैं तथा अपने परिवार, विद्यालय एवं समाज के साथ समायोजन करने में सफल होते हैं।


किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप

किशोरावस्था में शिक्षा के संबंध में हैडो रिपोर्ट में लिखा गया है-“ग्यारह अथवा बारह वर्ष की आयु में बालक की नसों में ज्वार उठना प्रारंभ हो जाता है। इसको किशोरावस्था के नाम से पुकारा जाता है। अगर इस ज्वार का बाढ़ के समय ही उपयोग कर लिया जाये तथा इसकी शक्ति एवं धारा के साथ-साथ नयी यात्रा शुरू कर दी जाये, तो सफलता प्राप्त की जा सकती है।”

उपरिलिखित शब्दों से स्पष्ट हो जाता है कि किशोरावस्था शुरू होने के समय से ही शिक्षा को एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया जाना अनिवार्य है। इस शिक्षा का स्वरूप क्या होना चाहिए, निम्न तरह समझा जा सकता है-

1. शारीरिक विकास हेतु शिक्षा- किशोरावस्था में शरीर में कई क्रांतिकारी परिवर्तन होते हैं, जिनको उचित शिक्षा प्रदान करके शरीर को सबल तथा सुडौल बनाने का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। अत: उसे निम्न का आयोजन करना चाहिए।

(1) शारीरिक तथा स्वास्थ्य-शिक्षा, (2) विभिन्न तरह के शारीरिक व्यायाम, (3) सभी तरह के खेलकूद आदि।

2. मानसिक विकास हेतु शिक्षा- किशोर की मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम तथा अधिकतम विकास करने हेतु शिक्षा का स्वरूप उसकी रुचियों, रुझानों, दृष्टिकोणों तथा योग्यताओं के अनुरूप होना चाहिए। अतः उसकी शिक्षा में निम्न को स्थान दिया जाना चाहिए-

(1) कला, विज्ञान, साहित्य, भूगोल, इतिहास आदि सामान्य विद्यालय-विषय, (2) किशोर की जिज्ञासा को संतुष्ट करने तथा उसकी निरीक्षण-शक्ति को प्रशिक्षित करने हेतु प्राकृतिक, ऐतिहासिक, आदि स्थानों का भ्रमण, (3) उसकी रुचियों, कल्पनाओं तथा दिवास्वप्नों को साकार बनाने हेतु पयर्टन, वाद-विवाद, कविता-लेखन, साहित्यिक गोष्ठी आदि पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाएं ।

3. संवेगात्मक विकास हेतु शिक्षा- किशोर कई तरह के संवेगों में संघर्ष करता है इन संवेगों में से कुछ उत्तम तथा कुछ निकृष्ट होते हैं। अतः शिक्षा में इस तरह के विषयों तथा से पाठ्यक्रम-सहगामी क्रियाओं को स्थान दिया जाना चाहिए, जो निकृष्ट संवेगों का दमन या मार्गान्तरीकरण तथा उत्तम संवेगों का विकास करें। इस उद्देश्य से कला, विज्ञान, साहित्य, संगीत, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।

4. सामाजिक संबंधों की शिक्षा- किशोर अपने समूह को बहुत महत्व देता है तथा उसमें आचार-व्यवहार की कई बातें सीखता है। अत: विद्यालय में ऐसे समूहों का संगठन किया जाना चाहिए, जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर उत्तम सामाजिक व्यवहार तथा संबंधों के पाठ सीख सके । इस दिशा में सामूहिक क्रियाएं, सामूहिक खेल तथा स्काउटिंग बहुत उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।

5. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुसार शिक्षा- किशोर में व्यक्तिगत विभिन्नताओं तथा आवश्यकताओं को सभी शिक्षाविद् स्वीकार करते हैं। अतः विद्यालयों में विभिन्न पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की जानी चाहिए। जिससे किशोरों की व्यक्तिगत माँगों को पूर्ण किया जा सके।

6. पूर्व-व्यावसायिक शिक्षा- किशोर अपने भावी जीवन में किसी न किसी व्यवसाय में प्रवेश करने की योजना बनाता है। लेकिन वह यह नहीं जानता है कि कौनसा व्यवसाय उसके लिए सबसे ज्यादा उपयुक्त होगा। उसे इस बात का ज्ञान प्रदान करने हेतु विद्यालय में कुछ व्यवसायों की प्रारंभिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखकर हमारे देश के बहुद्देश्यीय विद्यालयों में व्यावसायिक विषयों की शिक्षा की व्यवस्था की गयी है-

7. जीवन-दर्शन की शिक्षा- किशोर अपने जीवन-दर्शन का निर्माण करना चाहता है लेकिन उचित पथ-प्रदर्शन के अभाव में वह ऐसा करने में असमर्थ रहता है। इस कार्य का उत्तरदायित्व विद्यालय पर है। इसका समर्थन करते हुए ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्पसन ने लिखा है- “किशोर को हमारे जनतंत्रीय दर्शन के अनुरूप जीवन के प्रति दृष्टिकोणों का विकास करने में मदद देने का महान् उत्तरदायित्व विद्यालय पर है।”

8. धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा- किशोर के मस्तिष्क में विरोधी विचारों में लगातार द्वंद्व होता रहता है । फलस्वरूप, वह उचित व्यवहार के संबंध में किसी निश्चित निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता है। अतः उसे उदार, धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए, ताकि वह उचित तथा अनुचित में अंतर करके अपने व्यवहार को समाज के नैतिक मूल्यों के अनुकूल बना सके।

9. यौन शिक्षा- किशोर बालकों तथा बालिकाओं की अधिकांश समस्याओं का संबंध उनकी काम-प्रवृत्ति से होता है। अतः विद्यालय में यौन-शिक्षा की व्यवस्था होना अति आवश्यक है।

10. बालकों तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रम में विभिन्नता- बालकों तथा बालिकाओं के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होना अति आवश्यक है। इसका कारण बताते हुए बी.एन. झा ने लिखा है-“लिंग-भेद के कारण तथा इस विचार से कि बालकों एवं बालिकाओं को भावी जीवन में समाज में विभिन्न कार्य करने हैं, दोनों के पाठ्यक्रमों में विभिन्नता होनी चाहिए।”

11. उपर्युक्त शिक्षण-विधियों का प्रयोग- किशोर में स्वयं परीक्षण, निरीक्षण, विचार तथा तर्क करने की प्रवृत्ति होती है। अत: उसे शिक्षा देने हेतु परंपरागत विधियों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। उसके लिए किस तरह की शिक्षण-विधियाँ उपयुक्त हो सकती हैं, इस संबंध में रॉस का मत है-“विषयों का शिक्षण व्यावहारिक ढंग से किया जाना चाहिए तथा उनका दैनिक जीवन की बातों से प्रत्यक्ष संबंध स्थापित किया जाना चाहिए।”

12. किशोर के प्रति वयस्क जैसा व्यवहार- किशोर को न तो बालक समझना चाहिए त्था न उसके प्रति बालक जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए। इसके विपरीत, उसके प्रति वयस्क जैसा व्यवहार किया जाना चाहिए।

13. किशोर के महत्व को मान्यता- किशोर में उचित महत्व तथा उचित स्थिति प्राप्त करने की प्रबल इच्छा होती है। उसकी इस इच्छा को पूर्ण करने हेतु उस उत्तरदायित्व के कार्य दिये जाने चाहिए। इस उद्देश्य से सामाजिक क्रियाओं, छात्र-स्वशासन तथा युवक गोष्ठियों का संगठन किया जाना चाहिए।

14. अपराध-प्रवृत्ति पर अंकुश- किशोर में अपराध करने की प्रवृत्ति का प्रमुख कारण है निराशा। इस कारण को दूर करके उसकी अपराध प्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है । विद्यालय, उसको अपनी उपयोगिता का अनुभव कराके उसकी निराशा को कम कर सकता है तथा इस तरह उसकी अपराध-प्रवृत्ति को कम कर सकता है।

15. किशोर-निर्देशन- स्किनर के शब्दों में- “किशोर को निर्णय करने का कोई अनुभव नहीं होता है।” अत: वह स्वयं किसी बात का निर्णय नहीं कर पाता है तथा चाहता है कि कोई उसे इस कार्य में निर्देशन एवं परामर्श दे। यह उत्तरदायितव उसके अध्यापकों तथा अभिभावकों को लेना चाहिए।

Leave a Comment

CONTENTS