बालक के सतत और जीवनपर्यन्त समग्र विकास में परिवार के वातावरण और विद्यालय के वातावरण की भूमिका बताइए। निरंतर तथा अनिरंतर विकास के मार्ग बताइए।

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 बालक के सतत (निरंतर) तथा जीवन भर समग्र विकास के लिए वातावरण की भूमिका अतिमहत्त्वपूर्ण है। यदि बालक को घर, पासपड़ौस, विद्यालय, संगी साथी और समुदाय/समाज में निरंतर अनुकूल वातावरण प्राप्त होगा तो बालक का विकास भी सही होगा। बालक पर वातावरण के प्रभाव की साम्यता के रूप में पौधे का विकास का दृष्टांत समझने के लिए उपयुक्त है। यदि पौधे को उपयुक्त भूमि,खाद-पानी और हवा निरंतर मिले तो पौधे का विकास आशानुकूल होगा। इसी प्रकार बालक को विशेषकर परिवार के वातावरण और विद्यालय के वातावरण की उसके जीवन पर्यन्त समग्र विकास पर प्रभाव डालती है।


परिवार के उपयुक्त व निरंतर वातावरण का प्रभाव :

बालक के बचपन में पारिवारिक सदस्यों का स्नेहपूर्ण शिक्षाप्रद व्यवहार बालक के विकास पर असर कारक होता है। जिन घरों में अच्छा वातावरण मिलता है वहाँ बच्चे अनुकूल विकास कर पाते हैं परंतु झगड़ा करने वाले माता-पिता, बालक के स्वास्थ्य का ध्यान न रखने वाले परिवारजन, बालक में अच्छी आदतों के विकास में योगदान न करने वाले परिजन, शिक्षाविहीन पालक, मूल्यविहीन घरेलू वातावरण बालक के विकास को कुप्रभावित करता है घर के वातावरण के प्रभाव का ही कारण है कि जैसा माता-पिता का आचरण व्यवहार, बोलचाल के तरीके और जीवन यापन के तरीके होंगे वैसे ही बालक में विकसित होने की संभावना। आशंका अधिक होगी। वस्तुतः वंशानुक्रम के बाद घर का वातावरण बालक के विकास में असरकारक घटक है।

बालक के शारीरिक विकास पर घर में उसे दिये जाने वाला पौष्टिक व संतुलित आहार, अच्छी आदतें, बीमारियों से इलाज प्रभाव कारक है। वे बच्चे कुपोषण का शिकार हो जाते हैं जिन्हें भरपूर भोजन ही घरों में प्राप्त नहीं होता। घर का अस्वास्थ्यप्रद वातावरण बच्चे को बीमार व दुर्बल बना देता है। शारीरिक ही नहीं बालक के मानसिक विकास पर भी घर के वातावरण का प्रभाव पड़ता है। अशिक्षित परिवारों के माता-पिता बालक की शिक्षा पर समुचित ध्यान नहीं देते हैं इसका प्रभाव बालक के शैक्षिक व बौद्धिक पर पड़ता है । जिन परिवारों में बातें गाली-गलौज से होती हैं या जो भाषा का अशुद्ध उच्चारण करते हैं उनके पाल्य भी वैसी ही भाषा सीख जाते हैं। आदतों के निर्माण में परिजनों की आदतें प्रभावकारक होती हैं । संवेगात्मक अस्थिरता वाले । माता-पिता के बच्चों में भी संवेगात्मक अस्थिरता उत्पन्न होने की आशंका अधिक होती है। परिजनों का चरित्र और चारित्रिक गुण बालकों पर प्रभाव डालते हैं।


विद्यालय के उपयुक्त व निरंतर वातावरण का बालक के विकास पर प्रभाव :

परिवार के बाद बालक के सतत तथा जीवन पर्यन्त विकास में विद्यालय के वातावरण का दूसरा प्रमुख स्थान है। विद्यालय का वातावरण यदि बालक के विकास के अनुकूल हो तो उसका अनुकूल प्रभाव ही पड़ेगा। परंतु कुछ विद्यालयों में अनुशासनहीनता, शिक्षकों की न पढ़ाने की प्रवृत्ति, शिक्षकों की दंड देने की प्रवृत्ति, बच्चों के विकास के प्रति शिक्षक व प्राचार्य की उपेक्षा आदि प्रवृत्तियाँ पाई जाएं तो बालकों का समग्र विकास होना दुर्लभ होगा। शाला में खेल सामग्री व खेल के मैदान का अभाव बालकों के शारीरिक विकास पर बुरा प्रभाव डालेगा। शिक्षकों की शिक्षण कार्य में अरुचि बालक के मानसिक विकास के लिए घातक है। बच्चों की पाठ्यसहगामी क्रियाओं में भागीदारी का शालेय वातावरण छात्रों के भाषागत विकास में बाधक है। इसी प्रकार शाला की अनुशासनहीनता, छात्रों की दलबंदी और आपस में मारपीट की प्रवृत्ति गाली गलौज की आदतें बालकों में चारित्रिक व नैतिक विकास ला सकने में असमर्थ हैं। साथ ही बालक के उचित सामाजिक विकास पर भी विद्यालय के गलत वातावरण का प्रभाव पड़ता है। शैक्षिक विकास और मूल्य विकास भी शाला के अनुपयुक्त वातावरण में नहीं हो पाता।

निरंतर (सतत) और अनिरंतर विकास के मार्ग- बाल विकास प्रक्रिया में निरंतर विकास के कार्यों का अनुकूल प्रभाव पड़ता है परंतु अनिरंतर रूप से कभी-कभी अवसरों पर छात्रों के विकास के लिए प्रयास करना उतना उपयोगी सिद्ध नहीं होता।

यदि बालक को जीवन पर्यन्त विकास के अवसर प्रदान किये जाने के शालेय प्रयास भी निरंतर होते रहते हैं तो उनका अनुकूल प्रभाव पड़ता है।

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