बालक के सहपाठियों से संबंधों के बारे में लिखो।

Estimated reading: 2 minutes 149 views

समाजीकरण में साथियों की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। साथियों के व्यवहार के देखकर बालक बहुत-से सामाजिक दृष्टि से उपयुक्त आचरणों को सीखता है । इसके साथ-साथ बालक के साथी उसे अक्सर इस बात पर भी टोकते हैं कि उसमें अमुक वातावरण सामाजिक दृष्टि से अनुपयुक्त है। इस तरह साथियों की मदद से सामाजिक दृष्टि से बहुत से उपयुक्त आचरणों को सीख लेता है एवं कई अनुपयुक्त आचरणों को त्यागकर सामाजिक परिपक्वता की तरफ अग्रसर होता है ।

बालक के तीन तरह के संगी-साथी हो सकते हैं। पहले तो खेल के साथी, जिनमें आस-पड़ोस एवं स्कूल के बालक-बालिकाएँ होते हैं। दूसरे वे जिन्हें बालक अपना अंतरंग साथी अथवा मित्र मानता हो, आमतौर पर समान आयु तक समान यौन के बच्चे ही बालक के मित्र होते हैं। तीसरे वे जो किसी आयु वर्ग अथवा किसी भी यौन के हो सकते है, जो बालक को मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। ये तीनों तरह के साथी बालक को समाजीकरण में अपने-अपने स्तर से मदद प्रदान करते हैं। पूर्व-बाल्यावस्था में बालक माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों को अपना साथी मानता है एवं इन्हीं के अनुरुप अनुकरण द्वारा सामाजिक व्यवहार करना सीखता है। उत्तर बाल्यावस्था में स्कूल एवं मित्रों के कारण बालक में समाजीकरण से संबंधित एवं शीलगुण; जैसे- सहयोग, सहनशीलता, नेतृत्व, ईमानदारी आदि विकसित होते हैं। इस तरह स्पष्ट है कि बालक के समाजीकरण में बालक के सहपाठियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है।


मित्र-समूह तथा संबंध

मित्र-समूह सम आयु, योग्यता एवं सामाजिक स्थिति का समूह होता है। माता-पिता है अपने बच्चों की बजाय मित्र-र व-समूह को कम महत्त्व देते हैं। किशोर पर अपने मित्र-समूह का सर्वांगीण प्रभाव पड़ता है। किशोर किसी न किसी मित्र-समूह का सदस्य होता है। समूह के सदस्य एक ही प्रकार से सोचते, बोलते एवं कार्य करते हैं। एक मित्रत्र-समूह अपने समूह के सदस्यों हेतु हम की भावना रखता है। किशोर हेतु उसके मित्र-समूह विश्वासपात्र, सत्यवादी एवं ईमानदार होते हैं। मित्र-समूह युवाओं हेतु शरणस्थली होते हैं, जो युवा अपने परिवार के साथ भिन्नता रखते हैं, मित्र-समूह उन्हें सहारा देते हैं। किशोरावस्था में मित्र-समूह में किशोर का काफी समय व्यतीत होता है। किशोर मित्र-समूह में खेलकूद, शिक्षा, राजनीति, परिवार, संगीत, कला एवं अन्य सांसारिक बातों पर विचार-विमर्श करते हैं । वे एक-दूसरे के साथ सामंजस्य रखते हैं। वे एक-दूसरे के साथ मिलकर विचित्र-विचित्र शरारतें करते हैं तथा समूह की गतिविधियों को पूर्णरुपेण सुरक्षित रखा जाता है। किशोरों पर उसके मित्र-समूह का काफी प्रभाव होता है परन्तु फिर भी उसे ऐसे मित्रों के साथ नहीं रहना चाहिए जो धूम्रपान, शराब एवं नशीली दवाओं के शौकीन हों। किशोर अक्सर हताशा तथा कुण्ठा की स्थिति में ऐसे मित्र-समूह को ज्वाइन कर लेते हैं जो गलत कार्यों में संलग्न होते हैं एवं फिर इन लोगों के दबाव में आकर गलत आदतों के शिकार हो जाते हैं। किशोरों को अपने आपको अराजक कार्यों, समाज विरोधी कार्यों एवं नशीली दवाओं से बचकर रहना चाहिए।

एक बुद्धिमान किशोर अपने लक्ष्यों को समझता है तथा अपने लक्ष्यों की पूर्ति के अनुसार ही अपने मित्रों के चुनाव में विवेक का सहारा लेता है। किशोरों को हमेशा अच्छी आदतों वाले योग्य मित्रों का ही चयन करना चाहिए। गलत मित्र-समूह का हिस्सा बनने से उसका परिचय भी गलत ढंग से दिया जाता है। मित्र-समूह में भी योग्यता का विशेष महत्त्व होता है, जो वाद-विवाद, खेलकूद, नाट्यकता एवं रचनात्मक कार्यों में दक्ष होते हैं, वे समूह के नेता बन जाते हैं। जब किशोर एवं उसके माता-पिता के बीच संघर्ष होता है, ऐसी स्थिति में किशोर अपने साथी समूहों की तरफ मुड़ जाता है। ज्यादातर बच्चे एवं किशोर इस स्थिति में यह निश्चय नहीं कर पाते हैं कि उन्हें किस समूह का सदस्य बनना चाहिए तथा किस समूह का सदस्य नहीं बनना चाहिए एवं जिस समूह का सदस्य बनने जा रहे हैं, वह समूह किस तरह का है। वे उस समूह की तरफ मुड़ते हैं जो सरलता से उन्हें स्वीकार कर लेता है। हालांकि कई बार समूह अवैध तथा नकारात्मक क्रिया-कलापों से जुड़े होते हैं, जिन्हें गैंग कहा जाता है । गैंग प्रमुख रुप से सामान्य गतिविधियों पर, लिंग पर आधारित होते हैं। ज्यादातर किशोर परिवार से विरोध प्रकट करने हेतु गैंग के सदस्य बन जाते हैं एवं शराब और नशीली दवाओं का सेवन करना शुरु कर देते हैं। इससे टूटे हुए संबंध और आर्थिक भार किशोरों पर और बढ़ जाता है तथा वे ज्यादा तनाव में आ जाते हैं। लेकिन कुछ किशोर माता-पिता के केन्द्रीकृत व्यवहार के कारण भी नकारात्मक समूहों के सदस्य बन जाते हैं।

मित्र-समूह बच्चों को विविध सामाजिक क्षमताओं के विकास के अवसर भी प्रदान करते हैं; जैसे- नेतृत्व, समूह कार्य की योग्यता आदि । मित्र-समूह नवीन भूमिका तथा अन्तःक्रिया हेतु इन अवसरों को स्वीकार कर लेता है, वे समूह के साथ समानता का व्यवहार करते हैं, लेकिन वे कम व्यवस्थित होते हैं। इस कारण बहुत-से बच्चे एवं किशोर एक समूह से दूसरे समूह में चले जाते हैं ।


मित्रता एवं लिंग

मित्र- व-समूह का ढाँचा आयु के साथ-साथ बदलता रहता है। पूर्व-किशोरावस्था में समूह के कम सदस्य होते हैं। इनकी संख्या औसत रुप से 6 होती है एवं यह सभी समान लिंग के होते हैं, लेकिन जैसे-जैसे किशोर उत्तर किशोरावस्था में प्रवेश करता है । उसके समूह में विषमलिंगी व्यक्ति भी आने लगते हैं। किशोरावस्था खत्म होने पर मित्र-समूह की एकता कमजोर पड़ जाती है। प्राकृतिक आकर्षण तथा उत्तेजना के कारण किशोर विषमलिंगीय मित्र बनाते हैं। परिवार एवं मित्र-समूह के दबावों से बचते हुए किशोर अपनी पहचान बनाते हुए आगे बढ़ता है तथा कुछ समय बाद विकसित किशोर प्रौढ़ों की दुनिया में स्वतन्त्र सदस्य बनकर उभरता है। किशोर एवं किशोरियों में इस समय प्राकृतिक रुप से विषमलिंगी आकर्षण होता है । इस समय वे भावात्मक एवं रागात्मक जीवन व्यतीत करते हैं। उनके आकर्षण का केन्द्र विपरीत लिंग के सदस्य होते हैं। वे उन्हें अपना मित्र बनाने का प्रयत्न करते हैं एवं बहुत सजते-सँबरते हैं तथा एक-दूसरे को आकर्षित करने का प्रयत्न करते हैं। किशोरों में प्राकृतिक रुप से चंचलता पायी जाती है । किशोरों में पुरुषत्व के गुण आने लगते हैं तथा किशोरियों में नारीत्व के गुण ।


प्रतियोगिता एवं सहयोग

बच्चों के समाजीकरण में प्रतियोगिता एवं सहयोग दोनों ही भावनाएँ पायी जाती हैं प्रतियोगिता में प्रतिस्पर्धा पायी जाती है जिससे दूसरों से आगे रहने का भाव होता है, परन्तु अपने को दूसरों से बेहतर बनाकर आगे रहना ही प्रतियोगिता में भाव निहित होता है। दूसरों को नुकसान पहुँचाकर आगे जाने का भाव संघर्ष को जन्म दे देता है । प्रतियोगिता हमेशा सकारात्मक भाव पर निहित होती है। समाजीकरण में प्रतियोगिता का विशेष महत्त्व है । खेलकूद एवं पढ़ाई के क्षेत्र में आगे रहने हेतु स्वस्थ प्रतियोगिताएँ करायी जाती हैं जिससे विद्यालय एवं राष्ट्र को योग्य तथा प्रतिभाशाली नागरिक प्राप्त होते हैं। समान उद्देश्य की पूर्ति हेतु सम्मिलित रुप से दो या ज्यादा बालकों का प्रयास सहयोग कहलाता है। दो-तीन वर्ष का बालक झगड़ालू होता है। इसलिए उसमें सहयोग नहीं होता है। तीसर-चौथे वर्ष में बालक में सहयोग दिखाई देने लगता है । सहयोग के प्रथम लक्षण बच्चों में सामूहिक खेल में दृष्टिगोचर होने लगते हैं। यह देखा गया है कि एक बच्चा दूसरे बच्चों के साथ जितना भी ज्यादा रहता है, उसमें सहयोग के लक्षण उतनी ही जल्दी उत्पन्न हो जाते हैं। लगभग छ: अथवा सात वर्ष का बच्चा सहयोग का अर्थ थोड़ा-थोड़ा समझने लगता है। जिन परिवारों में बच्चों के लालन-पालन में प्रभुत्वशाली विधियाँ अपनायी जाती हैं, वहाँ बच्चे अक्सर निषेधात्मक व्यवहार अपना लेते हैं तथा वे असहयोगी व्यवहार करने वाले हो जाते हैं। सहयोग करना ज्यादातर बच्चे सामूहिक खेलों के माध्यम से एवं अपने घरेलू परिवेश से सीखते हैं तथा इसी सहयोगात्मक व्यवहार का उपयोग वे घर के बाहर विद्यालय एवं सामाजिक पर्यावरण में करने लगते हैं । जो बच्चे घर में असमायोजित होते हैं उनमें सहयोग की भावना कम पायी जाती है।


सहयोग से आशय

सहयोग दो या दो ज्यादा व्यक्तियों द्वारा समान रुप से किसी इच्छित काम को पूरा करने या किसी निश्चित लक्ष्य तक पहुँचने के सार्वजनिक तथा निरन्तर प्रयत्न को कहा जाता है । सहयोग वह सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें दो या दो से अधिक अथवा व्यक्ति संगठित होकर समान उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु कार्य करते हैं। सहयोग करने वाले लोग अथवा समूह अक्सर लक्ष्य की प्राप्ति तक लगातार प्रयत्न करते हैं। जब व्यक्तियों एवं समूहों के बीच सहयोग होता है तब उनमें अच्छे संबंध होते हैं। सहयोग के कारण ही व्यक्तियों तथा समूहों को सुख तथा सन्तोष की प्राप्ति होती है तथा सहयोग के कारण ही संगठन एवं सामाजिक जीवन पैदा होता है। सहयोग के द्वारा कठिन से कठिन परिस्थितियों पर भी विजय प्राप्त की जा सकती है।


सहयोग के प्रकार :

सहयोग प्रमुख रुप से तीन तरह का होता है-

1. प्राथमिक सहयोग- जब किसी सामाजिक अन्तः क्रिया में इस तरह सहयोग पाया जाता है तब लोगों को मित्रता तथा घनिष्ठता दिखाई देती है; उदाहरणार्थ, माँ तथा बेटे के साथ,पति तथा पत्नी के साथ इसी तरह का सहयोग करता है यह वह सहयोग है जब दो या दो से ज्यादा व्यक्ति समूह के उद्देश्य को ही अपना उद्देश्य समझते हैं।

2. द्वितीयक समूह- यह वह सहयोग है जिसमें दो या दो से ज्यादा व्यक्ति या समूह समान उद्देश्य की प्राप्ति के लिए इसलिए प्रयत्न करते हैं जिससे उनके स्वार्थों की पूर्ति होती रहे; उदाहरणार्थ, एक क्लर्क अपने अधिकारी के साथ इसलिए करता है, क्योंकि वह उसके स्वार्थों की पूर्ति का साधन है।

3. तृतीयक सहयोग- यह वह सहयोग है जिसमें दो या दो से ज्यादा व्यक्ति मिलकर समाज की परिवर्तित अवस्थाओं के साथ अनुकूलन करने हेतु प्रयास करते हैं; उदाहरणार्थ, युद्धकाल में समस्त राजनैतिक दल सत्ता पक्ष के साथ सहयोग करते हैं।


सहयोग के कारण

(अ) सामाजिक कारण – सहयोग के मुख्य कारण इस तरह हैं-

1. आवश्यकताओं की पूर्ति- कोई भी व्यक्ति अथवा समूह अपने आप में पूर्ण नहीं हैं अतः आपस में सहयोग करते हैं। लोगों को अपनी जरुरतों की पूर्ति हेतु सहयोग एवं सहायता की जरुरत होती है।

2. स्वार्थों की पूर्ति- आधुनिक काल में व्यक्ति में अहं की भावना बहुत बढ़ गयी है तथा वह अपनी इस भावना की सन्तुष्टि समाज में उच्च गमाजिक तथा आर्थिक स्तर प्राप्त करके करना चाहता है। समाज के लोग तथा स्वार्थी होते जाते हैं । व्यक्ति अपने स्वार्थों की पूर्ति निरंतर गलत हथकण्डे अपना रहे हैं।

3. उन्नति तथा सफलता- समाज में हर व्यक्ति तथा समूह अपनी उन्नति करना चाहता है। वह यह सब तब तक प्राप्त नहीं कर सकता है जब तक दूसरों को सहयोग न दे अथवा उनके साथ सहयोग न करे।

4. सामाजिक दबाव- सामाजिक तथा सार्वजनिक कार्यों के लिए व्यक्ति स्वेच्छा से सहयोग नहीं करता है, वरन् सामाजिक दबाव के कारण भी करता है।

(ब) मनोवैज्ञानिक कारण – व्यक्ति दूसरों के साथ सहयोग कुछ मनोवैज्ञानिक कारणों के कारण भी करता है। ये कारण अग्रलिखित होते हैं-

1. सम्प्रेषण- सम्प्रेषण जितना ज्यादा होता है सहयोगात्मक व्यवहार को उतना ही ज्यादा प्रोत्साहन प्राप्त होता है। जब सम्प्रेषण कम होने लगता है तो सहयोगात्मक व्यवहार भी घटने लगता है।

2. पुरस्कार- कोई भी किसी ऐसे व्यक्ति के साथ भी सहयोग करने हेतु तत्पर रहता है जिससे उसे किसी न किसी रुप में पुरस्कार प्राप्त होता है। यह सहयोग उस समय ज्यादा दिखाई देता है जब सहयोग के बाद पुरस्कार प्राप्त होता है।

3. सामाजिक शक्ति- जो व्यक्ति सामाजिक रुप से ज्यादा शक्तिशाली होते हैं, उनके सामने कमजोर व्यक्ति सहयोगात्मक व्यवहार करते हैं। जब शक्तिशाली व्यक्ति अपने प्रभाव का उपयोग न करके कमजोर व्यक्ति के साथ सहयोगात्मक व्यवहार करता है तब कमजोर व्यक्ति इस कारण भी उसके साथ सहयोगात्मक व्यवहार करता है जिससे शक्तिशाली व्यक्ति क्रोधित न हो जाये।

4. परिचितता- एक व्यक्ति किसी अपरिचित व्यक्ति की बजाय परिचित व्यक्तियों से सहयोग ज्यादा करता है। परिचितता जितनी ज्यादा होती है सहयोग संबंधी व्यवहार के घटित होमे की सम्भावना उतनी ही ज्यादा होती है। जब परिचितता के साथ पसन्द जुड़ जाती है तब सहयोग संबधी व्यवहार उतना ही ज्यादा घटित होता है।

5. दूसरे व्यक्तियों का व्यवहार- ज्यादातर यह देखा गया है कि हम दूसरे व्यक्ति के साथ वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा वह हमारे साथ करता है। अगर किसी व्यक्ति का हमारे साथ व्यवहार सहयोगात्मक होता है तो हम भी उसके साथ सहयोगात्मक व्यवहार करते हैं एवं इसके विपरीत अगर दूसरे व्यक्ति का व्यवहार हमारे साथ असहयोगात्मक एवं चालाकी भरा होता है तो हमारा व्यवहार भी सहयोगात्मक नहीं रहता है ।


प्रतियोगिता/प्रतिस्पर्धा तथा संघर्ष

प्रतियोगिता/प्रतिस्पर्धा से तात्पर्य

प्रतिस्पर्धा वह सामाजिक प्रक्रिया है जो अवैयक्तिक होता है। यह प्रक्रिया सीमित समान उद्देश्यों के लिए होती है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए तब तक प्रयत्न करता रहता है जब तब असफलता का अनुभव नहीं करता है। हर समाज एवं समूह के व्यक्तियों में कुछ न कुछ प्रतिस्पर्धा अवश्य पायी जाती है। एक समाज में व्यक्ति चाहे किसी भी जाति, वर्ग अथवा समूह के क्यों न हों उनमें कुछ न कुछ प्रतिस्पर्धा जरुर रहती है। प्रतिस्पर्धा से व्यक्ति सिर्फ प्रोत्साहित ही नहीं होता है, वरन स्वस्थ स्पर्धा से व्यक्ति की उन्नति भी होती है तथा उसकी कार्यक्षमता में भी वृद्धि होती है एवं व्यक्ति प्रतिस्पर्धा के माध्यम से समाज में उच्च प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकता है। प्रतिस्पर्धा की उपस्थिति में व्यक्ति अपने उद्देश्यों की पूर्ति हेतु नवीन उपाय ढूँढ़ता है। सामूहिक स्तर पर प्रतिस्पर्धा लोगों को संगठित करती है । प्रतिस्पर्धा का व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त सामूहिक जीवन में ही महत्त्व है। समाज एवं व्यक्ति के लिए प्रतिस्पर्धा तभी लाभकारी होती है जब प्रतिस्पर्धा का स्वरुप स्वस्थ होता है। वर्तमान समय में समाज में लोगों के मूल्य बहुत तेजी से बदल रहे हैं। नैतिक स्तर में गिरावट आ रही है। ऐसी स्थिति में प्रतिस्पर्धा का स्वरुप भी अस्वस्थ हो गया है। आज प्रतिस्पर्धा में भी बुरे तरीके अपनाते हैं एवं हिंसात्मक व्यवहार करते हैं।

प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करने वाले कई कारक हैं। इन कारकों में मूल्य सांस्कृतिक प्रतिमान आदि मुख्य कारक हैं। इसके अतरिक्त समाज में व्यक्ति की स्थिति, व्यक्ति का चरित्र, व्यक्ति के कार्य भी उसकी प्रतिस्पर्धा को प्रभावित करते हैं।


प्रतिस्पर्धा के प्रकार

1. व्यक्तिगत स्तर- यह प्रतिस्पर्धा व्यक्तिगत स्तर तक रहती है ।

2. चेतन स्तर पर- यह प्रतिस्पर्धा भी व्यक्तिगत स्तर तक रहती है।

3. अचेतन स्तर- सामूहिक स्तर पर प्रतिस्पर्धा का स्वरुप अचेतन हो जाता है।


प्रतिस्पर्धा के रुप

प्रतिस्पर्धा के दो रुप होते हैं-

1. वैयक्तिक प्रतिस्पर्धा- यह ऐसे दो व्यक्तियों अथवा समूहों में पायी जाती है जो आपस में परिचित होते हैं।

2. अवैयक्तिक प्रतिस्पर्धा- यह ऐसे दो व्यक्तियों में पायी जाती है जो आपस में अपरिचित होते हैं।


प्रतिस्पर्धा के प्रकार

गिलिन तथा गिलिन (1960) ने प्रतिस्पर्धा के चार प्रकार बताये हैं-

1. सांस्कृतिक प्रतिस्पर्धा- यह वह प्रतिस्पर्धा है जो दो अथवा दो से ज्यादा संस्कृति के लोगों में पायी जाती है। हर संस्कृति के मूल्य, आदर्श, विश्वास एवं व्यवहार प्रतिमान भी भिन्न होते हैं। हर संस्कृति के लोग अपनी संस्कृति को ज्यादा अच्छा एवं उच्च समझते हैं तथा संस्कृति को उच्च प्रदर्शित करने हेतु दूसरी संस्कृति के साथ प्रतिस्पर्धा रखते हैं।

2. आर्थिक प्रतिस्पर्धा- आर्थिक प्रतिस्पर्धा दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों या समूहों के मध्य आर्थिक वस्तुओं की प्राप्ति हेतु होती है। हर समाज के व्यक्तियों में स्वयं का आर्थिक स्तर बढ़ाने एवं नवीन वस्तुओं के संग्रह की इच्छा पायी जाती है लेकिन समाज में इनके सीमित साधन होते हैं तब लोग एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करके इनको पाना चाहते हैं। व्यापारियों एवं उद्योगपतियों में यह प्रतिस्पर्धा पायी जाती है।

3. प्रजातीय प्रतिस्पर्धा- यह वह प्रतिस्पर्धा है जो दो अथवा दो से ज्यादा प्रजाति के लोगों में पायी जाती है। हर जाति या प्रजाति के लोग दूसरी जाति एवं प्रजाति के लोगों से अपने आप को श्रेष्ठ मानते हैं। इसी भावना के कारण प्रजातीय प्रतिस्पर्धा विकसित होती है। उदाहरणार्थ, हमारे देश में निम्न जाति के लोग उच्च जाति के लोगों में प्रतिस्पर्धा करके सिर्फ उनके समानान्तर ही नहीं आना चाहते हैं, वरन् उनसे आगे निकलने का प्रयत्न करते हैं।

4. स्थिति तथा भूमिका के लिए प्रतिस्पर्धा- हर समाज में सभी व्यक्तियों की कुछ न कुछ सामाजिक स्थिति होती है। समाज में व्यक्तियों की सामाजिक स्थिति के अनुसार ही उनकी भूमिकाएँ सुनिश्चित होती हैं। वर्तमान समाज में सामाजिक प्रतिष्ठा का आकलन पद, योग्यता एवं धन के आधार पर किया जाता है। इसलिए व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने हेतु उच्च योग्यता, उच्च पद तथा धन अर्जित करना चाहता है। उच्च पद एवं प्रतिष्ठा प्राप्त होने पर उसकी भूमिकाएँ भी उसी रुप में बदल जाती हैं। समाज में एक साथ कई लोग पद तथा प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं, अतः उनके मध्य प्रतिस्पर्धा होना स्वाभाविक है।


प्रतिस्पर्धा के परिणाम

1. व्यक्तित्व पर प्रभाव- प्रतिस्पर्धा करने वाले व्यक्ति प्रतिस्पर्धा से महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रभावित होते हैं। उदाहरणार्थ, जब एक बालक दूसरे बालक या समूहों के साथ स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करता है तब उसमें जो व्यक्तित्व संबंधी गुणों का विकास होता है वह न सिर्फ उस बालक हेतु लाभदायक है, वरन् समाज हेतु भी लाभदायक होते हैं, जबकि दूसरी तरफ जब व्यक्ति गलत तरीके अपनाकर प्रतिस्पर्धा करते हैं तब उनका जो व्यक्तित्व विकसित करता है तथा जो आदत प्रतिमान बनते हैं वे भविष्य में स्वयं उस बालक हेतु एवं समाज हेतु भी हानिकारक सिद्ध होते हैं।

2. विघटनात्मक परिणाम- कई बार बालक प्रतिस्पर्धा में दूसरों को हानि पहुँचाकर या शारीरिक चोट या हिंसा करके अपने उद्देश्यों की प्राप्ति करना चाहते हैं। जब बालक अथवा समूह गलत तरीके से प्रतिस्पर्धा करते हैं तो समाज में तनाव तथा वैमनस्यता की भावनाएँ पैदा हो जाती हैं।

3. संगठनात्मक परिणाम- जब प्रतिस्पर्धा स्वस्थ रुप में होती है तो इससे न सिर्फ बालक की उन्नति होती है, वरन समाज भी उन्नति करता है । आधुनिक समय में समाज में छात्रों, व्यापारियों, शिक्षकों, डॉक्टरों एवं वकीलों के विविध संगठन बने हुए हैं। इनके माध्यम से भी लोग अपने वर्गों के लोगों तथा समूहों की उन्नति हेतु प्रतिस्पर्धा करते हैं।


संघर्ष से आशय

संघर्ष वह पारस्परिक एवं सामाजिक प्रक्रिया है जिसमें दो अथवा दो से ज्यादा व्यक्ति या समूह किसी उद्देश्य को प्राप्त करने हेतु विरोधी कार्य करते हैं। वे विरोधी कार्यों में समाज को नुकसान भी पहुँचा सकते हैं, तोड़-फोड़ कर सकते हैं एवं हिंसात्मक व्यवहार भी कर सकते हैं। संघर्ष में बालक कहासुनी, गाली-गलौच, गुत्थम-गुत्था आदि व्यवहार अपनाकर अपनाकर विरोध प्रदर्शित करते हैं। आज समाज में तेजी से बढ़ती जनसंख्या से समस्त संसाधन कम पड़ते जा रहे हैं। महंगाई बढ़ती जा रही है एवं लोगों का नैतिक स्तर दिन प्रतिदिन गिर रहा है। इन परिस्थितियों में सफलता तथा धनोपार्जन के लिए लोग गलत तरीके अपना रहे हैं। परिणामस्वरुप प्रतिदिन विविध तरह के संघर्ष होते रहते हैं । संघर्ष सिर्फ राजनीतिक दलों के बीच ही नहीं होता है, वरन् खिलाड़ी टीमों, जातियों एवं धर्मों के बीच भी होता है । नैतिक मूल्यों के पतन के कारण आज पारिवारिक संघर्ष भी एक आम बात बन गयी है । संघर्ष के कारण लोगों के आपसी संबंध खराब हो जाते हैं एवं समाज में विघटन शुरु हो जाता है । संघर्ष के कारण सम्पत्ति की बरबादी होती है एवं कभी-कभी व्यक्ति का जीवन भी दाँव पर लग जाता है। इससे सामाजिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।


संघर्ष के कारण

1. सामाजिक परिवर्तन- संघर्ष का एक महत्त्वपूर्ण कारण सामाजिक परिवर्तन है सामाजिक परिवर्तनों के साथ-साथ बालक तथा किशोर जब समायोजन करने में असमर्थ रहते हैं तब उनके पृथक्समूह बन जाते हैं । इन भिन्न भिन्न समूहों के भिन्न भिन्न मूल्यों में रहन-सहन के ढंग एवं खान-पान के अलग ढंग विकसित होते हैं। इस तरह की भिन्नता को संगठित करने के स्थान पर विघटित करने का कार्य ज्यादा करती है।

2. सांस्कृतिक भिन्नता- दो अथवा दो से ज्यादा संस्कृतियों की प्रथाओं, व्यवहार प्रतिमानों एवं मूल्यों में अन्तर पाया जाता है। उनके खान-पान के तरीके, रहन-सहन का ढंग एवं जीवन जीने का तरीका भी भिन्न होता है। यह सांस्कृतिक अन्तर लोगों में तनाव एवं संघर्ष को जन्म देता है।

3. राजनैतिक कारण- भारतीय समाज में संघर्ष का एक प्रमुख कारण राजनैतिक भी । एक राजनैतिक कार्य अपने विरोधी राजनैतिक पार्टी को नीचा दिखाने हेतु ऐसे कार्य करती है जिसमें किशोरों का दुरुपयोग करती है एवं अनुशासनहीनता फैलाती है जिससे समाज में संघर्ष पैदा होता है।

4. व्यक्तिगत भिन्नताएँ- एक समाज के विविध व्यक्तियों में शारीरिक एवं मानसिक विशेषताओं में कई भिन्नताएँ पायी जाती हैं। एक समाज के लोग लम्बाई, चौड़ाई, रुप, रंग में दूसरे समाज के लोगों से भिन्नता लिए होते हैं। उसी तरह रुचि, तर्क, स्मृति, बुद्धि, मूल्यों तथा अभिवृत्तियों की दृष्टि से भी वे एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। इस तरह की शारीरिक भिन्नताएँ एक समाज के लोगों के आपसी संबंधों को स्थापित होने में बाधा डालते हैं। इस तरह की बाधा के कारण भी समाज में संघर्षों की उत्पत्ति होती है।

5. अहम् भाव- सामाजिक परिवर्तनों के कारण लोगों में हम’ की भावना का लोप होता जा रहा है एवं ‘मैं’ की भावना विकसित होती जा रही है। स्वार्थ भाव दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है । अहम् भाव के कारण व्यक्ति अहंकारी बन गया है तथा आपसी मित्रता, सहयोग जैसे एकीकृत करने वाले भावों का विकास कठिन हो गया है। इसी कारण तनाव एवं संघर्षों की उत्पत्ति हो रही है।

6. सुविधाओं का अभाव- आज सुविधाओं के अभाव के कारण भी निरंतर संघर्ष की उत्पत्ति हो रही है। अपने देश की बढ़ती जनसंख्या के कारण भी सुविधाओं का अभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इससे समाज में कानून एवं व्यवस्था का स्तर गिर रहा है। आधुनिक युग में पानी, बिजली एवं राशन जैसी बुनियादी चीजों हेतु भी संघर्ष दिखाई पड़ते हैं ।


संघर्ष के रुप

1. वैयक्तिक संघर्ष- वैयक्तिक संघर्ष उस संघर्ष को कहा जाता है जो दो व्यक्तियों के बीच पाया जाता है। वैयक्तिक संघर्ष में घृणा, द्वेष,क्रोध की भावनाएँ पैदा होती हैं। इस तरह के संघर्ष में डराना, धमकाना, गाली-गलौज, मार-पीट, हत्या आदि कार्य भी हो जाते हैं ।

2. सामूहिक संघर्ष- सामूहिक संघर्ष वह संघर्ष होता है जो दो या दो से ज्यादा व्यक्तियों के बीच पाया जाता है। यह समूह चाहे जाति के आधार पर बजे हों अथवा प्रजाति के आधार पर हों । अमेरिका में गोरी अथवा काली प्रजाति के बीच संघर्ष, दो खेलों टीमों के मध्य संघर्ष है एक तरह का सामूहिक संघर्ष कहा जा सकता हैं ।

3. राजनैतिक संघर्ष- यह वह संघर्ष है जो दो या दो से ज्यादा राजनैतिक पार्टियों के मध्य पाया जाता है । जब शासन करने वाली राजनैतिक पार्टी तथा मुख्य विरोधी पार्टी की शक्ति लगभग समान होती है तब संघर्षों की मात्रा तथा तीव्रता बढ़ जाती है। इस तरह संघर्षों से राजनैतिक पार्टियों का अहित तो होता ही है साथ ही राष्ट्र का भी अहित होता है। दो राजनैतिक पार्टियों के संघर्ष का मुख्य कारण पार्टी के आदर्शों, उद्देश्यों एवं नियमों में भिन्नता होना है, लेकिन आजकल राजनैतिक संघर्ष कुर्सी के कारण हो रहे हैं।

4. वर्ग संघर्ष- वर्ग संघर्ष वह संघर्ष है जो दो या दो से ज्यादा वर्गों के मध्य पाया जाता है। समाज में वर्ग, धन, पद, व्यवसाय, शिक्षा आदि के आधार पर बने होते हैं। वर्तमान समय में अपने समाज में मिल मालिकों एवं श्रमिकों के मध्य अक्सर संघर्ष होते रहते हैं जिसके कारण उद्योगों में तालाबन्दी तथा हड़तालें होती रहती हैं। इससे उत्पादन गिर जाता है एवं देश की प्रगति की गति धीमी पड़ जाती है।

5. अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष- यह वह संघर्ष है जो दो या दो से ज्यादा राष्ट्रों के बीच होता है । इस तरह के संघर्ष का प्रमुख कारण राजनैतिक ही होता है। इस तरह के संघर्ष के परिणाम काफी घातक होते हैं । उदाहरण के लिए, भारत एवं चीन का युद्ध, भारत तथा पाकिस्तान का युद्ध आदि । इन संघर्षों से सिर्फ जनजीवन को हानि ही नहीं पहुँचती, वरन् संबंधित देशों के आर्थिक विकास को भी धक्का लगता है।


संघर्ष का परिणाम

(i) समाज में संघर्ष के कारण अराजकता का वातावरण पैदा हो जाता है।

(ii) अविश्वास एवं सन्दीह का वातावरण बन जाता है ।

(iii) राष्ट्र का विकास अवरुद्ध हो जाता है।

(iv) संबंधित लोगों को आर्थिक हानि होती है।

(v) जनजीवन की नियमित क्रियाओं में अवरोध पैदा हो जाता है।

(vi) सम्पत्ति को हानि पहुँचती है।


प्रतियोगिता तथा संघर्ष में संबंध

सामूहिकता की अवस्था में बालक अपने निजी उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु प्रतियोगिता करता है। अपने साथी समूह में हर बालक दूसरे से आगे निकलने की होड़ करता है। ऐसा वह बड़ों का समर्थन एवं स्वीकृति प्राप्त करने के लिए करता है । (G.G. Thompson, 1963)। बाल्यावस्था में प्रतियोगिता के कई रुप दिखाई देते हैं, जो अग्रांकित हैं-

(i) बालक अपने ही समूह के अन्य बालकों से प्रतियोगिता करते हैं। इससे आपस में संघर्ष हो जाता है तथा समूह का संगठन दुर्बल हो जाता हैं।

(ii) समूह-समूह में प्रतियोगिता उस समय होती है जब दो खेल के समूह एक ही खेल में अलग-अलग टीमों में खेलते हैं या दो समूह एक ही खेल एक ही स्थान पर खेलते हैं। इस तरह की प्रतियोगिता से समूह का संगठन मजबूत होता हैं।

(iii) एक दल अथवा समूह की दूसरे किन्हीं बड़े बच्चों या वयस्कों से प्रतियोगिता हो सकती है। इस तरह की प्रतियोगिता से बालकों में स्वतंत्रता के अभाव पैदा होते हैं।

वर्तमान समय में आगे बढ़ने हेतु प्रतियोगिता जरुरी हो गयी है। प्रतिभाशाली बच्चों, खिलाड़ी बच्चों, मन्दबुद्धि बच्चों की पहचान करने हेतु भी प्रतियोगिताएँ आयोजित की जाती हैं । जहाँ एक तरफ यह हमें होनहार बालक प्रदान करती है जो राष्ट्र की बागडोर सँभाल सकें, वहीं दूसरी तरफ इनके माध्यम से हमें पिछड़े हुए बालकों का भी पता चलता है जिन्हें विशिष्ट देखभाल एवं प्रशिक्षण देकर सामान्य बालकों की श्रेणी में लाया जा सकता है। खेल के माध्यम से हमें अच्छे खिलाड़ियों की पहचान होती है, जो राष्ट्र अथवा राष्ट्रीय स्तर पर खेल सकें एवं परीक्षा के माध्यम से योग्य प्रतिभाशाली बच्चों का पता चलता है। हालाँकि प्रतियोगिता बहुत जरुरी मानी जाती है, परन्तु जहाँ-जहाँ प्रतियोगिता होती है वहाँ संघर्ष भी साथ-साथ चलता है।

प्रतियोगिता में पिछड़ने का आभास होने पर कुछ बलिष्ठ एवं पहुँच वाले बच्चे संघर्ष पर उतर आते हैं। वे गलत हथकण्डे अपनाकर प्रतियोगिता को अपने पक्ष में करना चाहते हैं। इसके लिए वह शक्तिशाली प्रतियोगी को हराने हेतु उसे नुकसान पहुँचाने का प्रयत्न करते हैं, उसे चोट पहुँचाते हैं एवं प्रतियोगिता के परिणामों को प्रभावित करने का प्रयत्न करते हैं। प्रतियोगिता में विजयी होने वाले बच्चे से कुछ बच्चे ईर्ष्या भी रखते हैं। वे हर सम्भव हर प्रयत्न करते हैं कि वह प्रतियोगी समय पर प्रतियोगिता स्थल पर न पहुँच सके तथा प्रतियोगिता में भाग न ले सके। ज्यादातर प्रतियोगिता एवं संघर्ष समवयस्क बच्चों में ही होता है तथा यह बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक चलता है। साथी समूह जहाँ बच्चे के व्यवहार एवं निर्णयों को प्रभावित करते हैं, वहीं प्रतियोगिता जीतने वाले प्रतियोगी के प्रति बालक के मन में ईर्ष्या भर जाती है, वह उसे नीचा दिखाने एवं नुकसान पहुँचाने का पूरा प्रयत्न करता है । इस कार्य हेतु कभी-कभी वह मारपीट करने पर उतारू हो जाता है। नकल की सामग्री जीतने की सम्भावना वाले प्रतियोगी के पास रख देता है जिसका उसे पता भी नहीं होता है, खिलाड़ी बच्चे चीटिंग करते हैं, कभी टंगड़ी मार कर गिरा देते हैं एवं कभी प्रतियोगी को विभिन्न अवरोधक लगाकर प्रतियोगिता स्थल तक नहीं पहुँचने देते हैं।

इसलिए इस तरह समवयस्क छात्रों में प्रतियोगिता एवं संघर्ष साथ-साथ चलता है।

प्रारंभिक बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक आक्रोश तथा बल प्रयोग एवं डराना-धमकाना

प्रारंभिक बाल्यावस्था से किशोरावस्था तक बालकों तथा किशोरों में कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ भी पायी जाती हैं जिससे बालक एवं किशोरों में अत्यधिक आक्रोश होता है। वे बल द्वारा डराते-धमकाते हैं अथवा गाली-गलौच करके अपना अन्य साथियों पर प्रभुत्व जमाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे बच्चे कभी-कभी इतने ज्यादा असामाजिक एवं अनैतिक हो जाते हैं जिससे अन्य बच्चे भयभीत हो जाते हैं। वे कक्षा में अराजकता का वातावरण पैदा करते हैं। वे दूसरों को अपने अधीन करने हेतु विविध हथकण्डे अपनाते हैं। ऐसे बालक शारीरिक रुप से बलिष्ठ होते हैं एवं उनका विद्यालय में ज्यादा प्रभुत्व होता है। वे अपने से कमजोर बच्चों को एवं नये आने वाले बच्चों को अपना निशाना बनाते हैं। अत्यधिक आक्रोश में मार-पीट करते हैं, टोली में ज्यादा रहते हैं एवं उनका नेतृत्व कोई एक बालक करता है जिसकी पहुँच ऊपर तक होती है। विद्यालय प्रशासन, ट्रस्टी आदि के निकटतम संबंधी अथवा बच्चे भी यह नेतृत्व कर सकते हैं ।

Leave a Comment

CONTENTS