बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताओं एवं इसके लिए शिक्षा के स्वरूप का वर्णन कीजिए।

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   बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएं :

1. जिज्ञासा की प्रबलता- बालक की जिज्ञासा विशेष रूप से प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के संपर्क में आता है, उनके बारे में प्रश्न पूछकर हर प्रकार की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। उसके ये प्रश्न शैशवावस्था के साधारण प्रश्नों से भिन्न होते हैं। अब वह शिशु के समान यह नहीं पूछता है-‘वह क्या है?’ इसके विपरीत, वह पूछता है-‘यह ऐसे क्यों हैं?’, यह ऐसे कैसे हुआ है?

2. वास्तविक जगत से संबंध- इस अवस्था में बालक शैशवावस्था के काल्पनिक जगत का परित्याग करके वास्तविक जगत में प्रवेश करता है । वह उसकी हर वस्तु से आकर्षित होकर उसका ज्ञान प्राप्त करना चाहता है ।

स्टैंग के शब्दों में- “बालक अपने को अति विशाल संसार में पाता है तथा उसके बारे में जल्दी-से-जल्दी जानकारी प्राप्त करना चाहता है।”

3. रचनात्मक कार्यों में आनंद- बालक को रचनात्मक कार्यों में विशेष आनंद आता है। वह साधारणत: घर से बाहर किसी तरह का कार्य करना चाहता है, जैसे-बगीचे में काम करना अथवा औजारों से लकड़ी की वस्तुएं बनाना। उसके विपरीत, बालिका घर में ही कोई न कोई कार्य करना चाहती है, जैसे-सीना, पिरोना अथवा कढ़ाई करना।

4. सामाजिक गुणों का विकास- बालक, विद्यालय के छात्रों तथा अपने समूह के सदस्यों के साथ पर्याप्त समय व्यतीत करता है। अतः उसमें कई सामाजिक गुणों का विकास होता है, जैसे-सहयोग, सद्भावना, सहनशीलता, आज्ञाकारिता आदि।

5. नैतिक गुणों का विकास- इस अवस्था के शुरू में ही बालक में नैतिक गुणों का विकास होने लगता है। स्टैंग के मतानुसार- “छ: सात तथा आठ वर्ष के बालकों में अच्छे-बुरे के ज्ञान का और न्यायपूर्ण व्यवहार, ईमानदारी तथा सामाजिक मूल्यों की भावना का विकास होने लगता है।”

6. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास- शैशवावस्था में बालक का व्यक्तित्व अंतर्मुखी होता है, क्योंकि वह एकांतप्रिय तथा सिर्फ अपने में रुचि लेने वाला होता है। इसके विपरीत, बाल्यावस्था में उसका व्यक्तित्व बहिर्मुखी हो जाता है, क्योंकि बाह्य जगत में उसकी रुचि पैदा हो जाती है। अत: वह अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं तथा कार्यों का अधिक से अधिक परिचय प्राप्त करना चाहता है।

7. संवेगों का दमन तथा प्रदर्शन- बालक अपने संवेगों पर अधिकार रखना तथा अच्छी एवं बुरी भावनाओं में अंतर करना जान जाता है। वह इन भावनाओं का दमन करता है, जिनको उसके माता-पिता तथा बड़े लोग पसंद नहीं करते हैं, जैसे-काम-संबंधी भावनाएं ।

8. संग्रह करने की प्रवृत्ति- बाल्यावस्था में बालकों तथा बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति बहुत अधिक पाई जाती है । बालक विशेष रूप से काँच की गोलियों, टिकटों, मशीनों के भागों तथा पत्थर के टुकड़ों का संचय करते हैं। बालिकाओं में चित्रों, खिलौनों, गुड़ियों तथा कपड़ों के टुकड़ों का संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है।

9. निरुद्देश्य भ्रमण की प्रवृत्ति- बालक में बगैर किसी उद्देश्य के इधर-उधर घूमने की प्रवृत्ति बहुत ज्यादा होती है। मनोवैज्ञानिक बर्ट ने अपने अध्ययनों के आधार पर बताया है कि करीब 9 वर्ष के बालकों में आवारा घूमने, बगैर छुट्टी लिये विद्यालय से भागने तथा आलस्यपूर्ण जीवन व्यतीत करने की आदतें सामान्य रूप से पाई जाती हैं।

10. काम-प्रवृत्ति की न्यूनता- बालक में काम-प्रवृत्ति की न्यूनता होती है । वह अपना अधिकांश समय मिलने-जुलने, खेलने-कूदने तथा पढ़ने-लिखने में व्यतीत करता है । अतः वह बहुत ही कम अवसरों पर अपनी काम-प्रवृत्ति का प्रदर्शन कर पाता है ।

11. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता- बालक में सामूहिक प्रवृत्ति बहुत प्रबल होती है वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करने का प्रयत्न करता है रॉस के अनुसार-“बालक प्राय: अनिवार्य रूप से किसी न किसी समूह का सदस्य हो जाता है जो अच्छे खेल खेलने तथा ऐसे कार्य करने हेतु नियमित रूप से एकत्र होता है, जिनके बारे में बड़ी आयु के लोगों को कुछ भी नहीं बताया जाता है।”

12. सामूहिक खेलों में रुचि- बालक को सामूहिक खेलों में अत्यधिक रुचि होती है। वह 6 अथवा 7 वर्ष की आयु में छोटे समूहों में तथा बहुत काफी समय तक खेलता है । खेल के समय बालिकाओं की बजाय बालकों में झगड़े ज्यादा होते हैं। 11 या 12 वर्ष की आयु में बालक दलीय खेलों में भाग लेने लगता है। स्टैंग का विचार है- “ऐसा शायद ही कोई खेल हो, जिसे दस वर्ष के बालक न खेलते हों।”

13. रुचियों में परिवर्तन- बालक की रुचियों में लगातार परिवर्तन होता रहता है। वे स्थायी रूप धारण न करके वातावरण में परिवर्तन के साथ परिवर्तित होती रहती हैं। कोल तथा बूस ने लिखा है- “6 से 12 वर्ष की अवधि की एक अपूर्व विशेषता है- मानसिक रुचियों में स्पष्ट परिवर्तन ।”


बाल्यावस्था में शिक्षा का स्वरूप

बालक की औपचारिक शिक्षा का श्रीगणेश बाल्यावस्था के प्रारंभ के साथ होता है। यह अवस्था किशोरावस्था के लिए आधार तैयार करती है। अतएव बाल्यावस्था की शिक्षा पर अध्यापकों को विशेष ध्यान देना चाहिए । यहाँ कुछ बिन्दुओं पर चर्चा की जा रही है जो शिक्षा का स्वरूप निश्चित करने में मददगार हो सकते हैं-

1. जिज्ञासा की संतुष्टि- बालकों में जिज्ञासा की प्रवृत्ति प्रबल होती है। इस प्रवृत्ति का लाभ उठाकर अध्यापक को उनका ध्यान अध्यापन तथा पाठ की तरफ केन्द्रित करने का प्रयास करना चाहिए । पाठन-सामग्री तथा क्रियाओं का चयन बालकों की जिज्ञासाओं को संतुष्ट करने की दृष्टि से करना चाहिए।

2. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था- बालकों में विधायकता की प्रवृत्ति ज्यादा तीव्र होती है । अतएव विद्यालय में रचनात्मक कार्य करने की व्यवस्था पर अध्यापकों को ध्यान देना चाहिए। रचनात्मक कार्य द्वारा बालकों में हस्तकौशल के प्रति रुचि पैदा की जा सकती है एवं इस तरह है कुशलता का विकास किया जा सकता है।

3. पर्यटन की व्यवस्था- इस आयु के बालकों में घूमने की प्रवृत्ति ज्यादा पाई जाती है। बालक निरुद्देश्य घूमते-फिरते हैं। इसका लाभ शिक्षकों को उठाना चाहिए। विद्यालय में समय-समय पर भ्रमण का आयोजन निकटवर्ती क्षेत्र में करना चाहिए। भ्रमण का आयोजन ऐतिहासिक स्थलों या प्राकृतिक स्थानों का निरीक्षण करने के लिए होना चाहिए । भ्रमण के समय बालकों की निरीक्षण-शक्ति के विकास पर अध्यापक को ध्यान देना चाहिए।

4. सामूहिक क्रियाओं का आयोजन- बाल्यावस्था में बालक समूह में रहना ज्यादा पसंद करता है । अतएव विद्यालय में सामूहिक क्रियाओं तथा सामूहिक खेलों का आयोजन करना चाहिए । इन सामूहिक कार्यों में भाग लेते समय बालक में उदारता, सहकारिता, नेतृत्व आदि गुणों के विकास पर अध्यापक को ध्यान देना चाहिए ।

5. संग्रह प्रवृत्ति को प्रोत्साहन- बालकों में संग्रह प्रवृत्ति का अवदमन न करके उसको प्रोत्साहित करना चाहिए। बालकों को शिक्षाप्रद वस्तुओं के संग्रह हेतु मार्ग-निर्देशन देना चाहिए। डाक-टिकट, सिक्के, चित्र आदि का संग्रह करने हेतु बालकों को प्रोत्साहित करना चाहिए।

6. सामाजिक गुणों का विकास- विद्यालय में खेलकूद, सांस्कृतिक कार्यक्रम शिक्षण-विधियों के द्वारा बालकों में सामाजिक गुणों के विकास के लिए प्रयास करना चाहिए । बालकों को एक-दूसरे का सम्मान करने का पाठ सिखाना चाहिए । सामाजिक गुणों के विकास में अध्यापक के व्यवहार का ज्यादा प्रभाव पड़ता है।

7. अध्यापकों का स्नेहयुक्त व्यवहार- बालक अनुकरण द्वारा बहुत सीखता है। इस अवस्था में दमनात्मक अनुशासन उसकी स्वच्छन्दता में बाधा पैदा करता है । वह शारीरिक दण्ड को पसंद नहीं करता है। अतएव अध्यापक को प्रेम तथा सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करके छात्रों को विद्यालय के कार्य पूर्ण करने हेतु प्रोत्साहित करना चाहिए ।

8. नैतिकता विकास- बालक के शिष्ट आचरण की प्रशंसा करनी चाहिए। उसके द्वारा संपन्न बुरे कामों की निंदा करके ऐसे कार्यों की पुनरावृत्ति को निरुत्साहित करना चाहिए। इस स्तर पर कहानी-विधि द्वारा बालकों में नैतिक गुण विकसित किये जा सकते हैं। उनके पाठ्यक्रमों में धार्मिक एवं राष्ट्रीय नेताओं की जीवनी भी शामिल करनी चाहिए।

9. शारीरिक विकास- शारीरिक विकास पर भी विद्यालय में ध्यान देना चाहिए। इसके लिए जरूरी है कि विद्यालय में शारीरिक व्यायाम की व्यवस्था हो । समय-समय पर विद्यालय में योग्य चिकित्सक द्वारा बालकों के स्वास्थ्य-परीक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए।

10. ‘करके सीखने’ की विधि पर बल- बाल्यावस्था में बालक ज्यादा क्रियाशील रहता है। अध्यापक को शिक्षण में ‘करके सीखने की विधि को प्रयोग में लाना चाहिए ।

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