बाल्यावस्था में विकास की विशिष्ट परिस्थितियों का वर्णन करो।

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 बाल्यावस्था जिसका समय विद्वानों ने 6 से 12 वर्ष तक माना है। विकास का वह 6 काल होता है जो शैशवकाल की विशेषताओं को पीछे छोड़ देता है एवं किशोरावस्था की विशेषताओं को प्रकट करने हेतु तैयार रहता है। इस अवस्था में सामान्य बालक एवं विशिष्ट परिस्थितियों में रह रहे बच्चों की विकासात्मक अवस्थाओं में अंतर आ जाता है। कुप्पूस्वामी के अध्ययन से स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालक का स्वभाव उग्र होकर नकारात्मक दृष्टिकोण को प्रकट करता है। उसमें एकाकीपन, उदासीनता तथा सामाजिक विकास आदि के भाव विकसित होने लगते हैं। वह विद्यालय के नियंत्रण से मुक्त होना चाहता है तथा समाज के सामने कोई रोमांचकारी प्रदर्शन करना चाहता है।

बाल्यावस्था वास्तव में मावन जीवन का वह स्वर्णिम समय है जिसमें बच्चे का सर्वांगीण विकास होता है। फ्रायड यह मानते हैं कि बालक का विकास पाँच वर्ष कि आयु तक हो जाता है, परन्तु बाल्यावस्था में विकास की यह सम्पूर्णता गति प्राप्त करती है तथा एक परिपक्व व्यक्तित्व के निर्माण की तरफ अग्रसर होती है।

शैशवावस्था के बाद ही बाल्यावस्था का प्रारम्भ होता है। बाल्यावस्था से सभी बच्चे गुजरते हैं एवं सभी बच्चों की प्राकृतिक शक्तियों का विकास स्वाभाविक रुप से होता है। यह अवस्था बालक के व्यक्तित्व के निर्माण की होती है। इस अवस्था में बच्चों की विविध आदतों, व्यवहार, रुचि तथा इच्छाओं के प्रतिरुपों का निर्माण होता है।

ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्पसन के अनुसार, “शैक्षिक दृष्टिकोण से जीवन चक्र में बाल्यावस्था से ज्यादा कोई महत्त्वपूर्ण अवस्था नहीं है । जो शिक्षक इस अवस्था के बालकों को शिक्षा देते हैं, उन्हें बालकों का, उनकी आधारभूत आवश्यकताओं का, उनकी समस्याओं तथा उनकी परिस्थितियों की पूर्ण जानकारी होनी चाहिए जो उनके व्यवहार को रुपान्तरित तथा परिवर्तित करती है।”

कौल एवं ब्रूस ने बाल्यावस्था को जीवन का अनोखा काल बताते लिखा है“वास्तव में माता-पिता एवं बाल विकास की इस अवस्था को समझना कठिन है।” इस अवस्था को समझना कठिन क्यों है ? कुप्पूस्वामी के अनुसार, इस अवस्था में बालकों में अनोखे परिवर्तन होते हैं, उदाहरणार्थ, 6 वर्ष की आयु में बालक का स्वभाव बहुत उग्र होता है तथा वह लगभग सभी बातों का उत्तर ‘न’ अथवा ‘नहीं’ में देता है। 7 वर्ष की अवस्था में वह उदासीन होता है एवं अकेला रहना पसन्द करता है। 8 वर्ष की आयु में उसमें अन्य बालकों से सामाजिक संबंध स्थापित करने की भावना बहुत प्रबल हो जाती है। 9 से 12 वर्ष तक की आयु में विद्यालय में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रह जाता है। वह कोई नियमित कार्य न करके, कोई महान् तथा रोमांचकारी कार्य करना चाहता है । बाल्यावस्था में बच्चे प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा शुरु करते हुए हैं अतः शिक्षाशास्त्री इसे प्रारंभिक विद्यालय आयु भी कहते हैं । इस अवधि में बालक में स्फूर्ति ज्यादा होने के कारण कुछ लोग इसे स्फूर्ति अवस्था भी कहते हैं। कुछ लोग इसे गन्दी अवस्था भी कहते हैं क्योंकि इस अवस्था में बालक खेलकूद, भाग-दौड़, उछल-कूद में लगे रहते हैं जिससे वे प्रायः गंदे तथा लापरवाह रहते हैं।

एक सामान्य बालिका को वे सभी सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जो जीवन यापन हेतु जरुरी होती हैं। उनका बचपन स्वाभाविक रुप से व्यतीत होता है। वे स्वाभाविक परिस्थितयों में बढ़ी होती है। चंचलता, बालपन, स्नेह, प्रेम तथा सुरक्षा उन्हें प्राप्त करने हेतु ज्यादा संघर्ष नहीं करना पड़ता है लेकिन कुछ विशेष परिस्थितियों जैसे- मलिन बस्तियों में रह रही बालिकाएँ स्वाभाविक रुप से जीवनयापन नहीं कर पाती हैं उन्हें जरुरी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भी संघर्ष करना पड़ता है । असुरक्षा, शोषण एवं बालपन की चपलता, शिक्षा का अधिकार जैसे मुद्दे उनके जीवन को प्रभावित करते हैं। गन्दी बस्तियों में जीवन गुजार रहा बचपन सामान्य जीवन जीने हेतु तरसता है । जीविनोपयोगी जरुरी आवश्यकताओं को पूरा करने हेतु इन बालिकाओं को बचपन से ही दूसरों के घरों में काम करना पड़ता है एवं बाल मजदूर की तरह शोषण सहना पड़ता है। गन्दे परिवेश, माता-पिता की अक्षमता एवं बुरी लतों के करण ये बच्चियाँ अपना बचपन खो देती हैं।


मलिन बस्तियों में विकसित होती बालिकाएँ

सामान्य घरों में विकसित हो रही बालिकाएँ एवं शहरी मलिन बस्तियों में विकसित हो रही बालिकाओं के बचपन में कुछ समानताएँ और कुछ भिन्नताएँ पायी जाती हैं।

समानताएँ

1. शारीरिक विकास- सभी वर्गों में बालिकाओं का शारीरिक विकास एक ही पैटर्न से होता है। उनकी लम्बाई, भार में वृद्धि होती है। शारीरिक विकास की गति शैशवावस्था की बजाय कम हो जाती है। 6 अथवा 7 वर्ष की आयु के बाद शारीरिक विकास में स्थिरता आ जाती है। मांसपेशियाँ सुदृढ़ हो जाती हैं। 9 से 10 वर्ष तक बालकों का भार बालिकाओं से ज्यादा होता है। उसके बाद बालिकाओं का भार ज्यादा होना शुरु हो जाता है। 6 से 12 वर्ष तुक की लम्बाई कम बढ़ती है। लगभग 6 वर्ष की आयु में बालिका के दूध के दाँत गिरने लगते हैं तथा स्थायी दाँत निकलने शुरु हो जाते हैं। बालिकाओं के स्थायी दाँत बालकों से जल्दी निकलते हैं। इस तरह बालिकाओं का शारीरिक विकास एक समान रुप से होता है।

2. मानसिक विकास- सभी वर्गों की बालिकाओं में मानसिक विकास के विभिन्न पक्ष जैसे-रुचि, जिज्ञासा, निर्णय, चिन्तन, स्मरण तथा समस्या समाधान के गुणों का पर्याप्त विकास शुरु हो जाता है। लगभग 6 वर्ष बालिकाओं में ज्यादातर मानसिक योग्यताओं का विकास हो जाता है। मानसिक विकास एक जटिल प्रक्रिया है एवं बुद्धि-लब्धि के अंशों में वृद्धि, विकास का ढंग, परिवेश और परिस्थिति इसके प्रमुख आधार हैं। सभी बालिकाओं का मानसिक विकास एक समान गति से होता है।

3. सामाजिक विकास- सभी वर्गों की बालिकाओं का सामाजिक विकास बाल्यावस्था में होने लगता है। सामाजिक विकास का प्रारम्भ शैशवावस्था से ही शुरु हो जाता है। बाल्यावस्था में सामाजिक विकास ज्यादा सुदृढ़ होने लगता है। परिवेश चाहे जो हो सभी बालिकाएँ अपने परिवारीजनों, संगी-साथियों के साथ समय बिताकर, सम्प्रेषण करके अपने सामाजिक विकास को सुदृढ़ करती हैं । क्रो तथा क्रो के अनुसार, इस अवस्था में बालक की अपने प्रिय कार्यों में बहुत ज्यादा रुचि हो जाती है लेकिन बालकों एवं बालिकाओं के इन कार्यों में अन्तर स्पष्ट दिखाई देने लगता है, उदाहरणार्थ बालकों को जीवनियाँ पढ़ने तथा बालिकाओं को वाद यन्त्र बजाने में रुचि होती है। सामाजिक व्यवस्था, बालिका के सामाजिक विकस को एक निश्चित रुप तथा दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, नगर, जनतंत्र तथा अधिनायक तंत्र में बालिकाओं का विकास विविध तरह का होता है लेकिन सभी बालिकाओं का सामाजिक विकास होता है ।

4. संवेगात्मक विकास- सभी वर्गों की बालिकाओं का संवेगात्मक विकास होता है। सभी में कुछ महत्त्वपूर्ण संवेग जैसे क्रोध, ईर्ष्या, प्रेम, सहयोग, भय आदि बाल्यावस्था में पाये जाते हैं। इस अवस्था में संवेग ज्यादा निश्चित एवं कम शक्तिशाली हो जाते हैं। बालिकाओं में लगभग 6 वर्ष के बाद अपने संवेगों का दमन करने की क्षमता भी पैदा हो जाती है। इसी कारण वे अपने माता-पिता, शिक्षक तथा बड़ों के सामने अपने उन संवेगों को प्रकट नहीं होने देतीं, जिनको वे पसन्द नहीं करते हैं। बालिकाओं के संवेगों पर विद्यालय के वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है । स्वस्थ विद्यालयी वातावरण में संवेगों का परिष्कार होता है तथा भय, आतंक एवं कठोरता के वातावरण में ऐसा होना सम्भव नहीं है। सभी बालिकाएँ शिक्षकों के व्यवहार से भी संवेगात्मक रुप से प्रभावित होती हैं। शिक्षकों का अप्रिय व्यवहार, शारीरिक दण्ड तथा कठोर अनुशासन में विश्वास करने वाला शिक्षक बालिका में मानसिक ग्रन्थियों का निर्माण कर देता है एवं उनको संवेगात्मक रुप से आहत कर देता है ।


असमानताएँ

1. शिक्षा- मलिन शहरी बस्तियों में रह रही बालिकाओं की शिक्षा प्रदान करना एक समस्या बन गयी है। हम विकासशील देशों की पंक्ति में शामिल हैं इसलिए अंग्रेजी सीखना आर्थिक सशक्तिकरण हेतु जरुरी हो गया है। जहाँ मलिन शहरी बस्तियों में जुआ खेलना. शराबु पीना एवं अस्वास्थ्यकर वातावरण है वहीं बाहर के अच्छे वातावरण में रहने वाली बालिकाएँ स्कूल जा रही हैं, उन्हें शिक्षा के विविध अवसर प्राप्त हैं। नवीन टेक्नोलॉजी जैसे सेलफोन, डिजिटल कैमरा, लेपटॉप आदि का वे प्रयोग कर रही हैं। एक तरफ विभिन्न स्कूलों में माइक्रो संस्कृतियों के मॉडल का निर्माण हो रहा है। उपयोगकर्ता केन्द्रित डिजाइन प्रक्रियाओं की बेहतर से बेहतर माँग कर रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ इन बस्तियों में रहने वाली एवं पल्लवित होने वाली बालिकाएँ सामान्य शिक्षा प्राप्त करने हेतु एवं सामान्य रुप से जीवन जीने के लिये भी संघर्ष कर रही हैं ।

विविध समुदायों में लड़कियों को शिक्षा प्रदान करने हेतु मतभेद बने हुए हैं। ये समुदाय शिक्षा एवं साक्षरता के स्तर को कम करने हेतु एक बाधा बने हुए हैं । विकासशील देशों में आर्थिक सशक्तिकरण के बाद भी शिक्षा हेतु आई.सी.टी. के लाभों को इन शहरी मलिन बस्तियों तब पहुँचाना बहुत कठिन कार्य है। परन्तु फिर भी दो गैर सरकारी संगठन (एन.जी.ओ) प्रथम अजीम प्रेमजी फाउण्डेशन ने शिक्षा को इसमें सम्मिलित किया है। उन्होंने शहरों में प्रचलित कम्प्यूटर गेम को शहरी बच्चों की तरह मलिन शहरी बस्तियों में भी पहल की है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह यादृच्छिक अनुदैर्ध्य प्रयोग एक के रुप में किये गये 10,000 शहरी मलिन बस्तियों के बच्चों पर किया गया है तथा इससे प्राप्त होने वाले लाभ भी देखे गये । शहरी मलिन बस्तियों के बच्चे इसे खेलना चाहते थे। इससे उनके सीखने की रुचि विकसित हुई एवं वे कम्प्यूटर की तरफ आकर्षित हुए।

इन शहरी मलिन बस्तियों के बच्चों को सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं वरन् कई क्षेत्रों में असमानताओं का सामना करना पड़ता है।

2. स्वास्थ्य- स्वास्थ्य की दृष्टि से भी शहरी मलिन बस्तियों की बालिकाएँ सामान्य बालिकाओं से बहुत पीछे हैं। वे विभिन्न रोगों से ग्रसित होती हैं एवं सामान्य तौर पर उनके पास चिकित्सा सुविधा नहीं पहुँच पाती हैं । उनका स्वास्थ्य स्तर काफी निम्न होता है। उन्हें ज्यादा एवं बचपन से ही रोजगार करना पड़ता है। विविध घरों में वे घरेलू नौकरानी की तरह कार्य करती हैं। काम के घण्टे ज्यादा होते हैं एवं उनका बचपन छिन जाता है एवं बहुत शीघ्र ही वे विभिन्न रोगों से ग्रसित हो जाती हैं।

3. शोषण- शोषण भी शहरी मलिन बस्तियों की बालिकाओं को सहने पड़ते हैं। यह शोषण सिर्फ बाहर के व्यक्ति ही नहीं करते हैं वरन पारिवारिक एवं घनिष्ठ सम्बन्धी भी उनका शोषण करते हैं। शोषण के अन्तर्गत उनका दैहिक शोषण सर्वाधिक होता है। शहरी मलिन बस्तियों में घरेलू हिंसा भी सर्वाधिक होती है। पति, पिता, भाई एवं अन्य रिश्तेदार जहाँ यह बालिकाएँ अपना संरक्षण ढूँढ़ती हैं वहीं वे इनका शोषण करते हैं। पुरुष किसी भी रुप में हो (पति, पिता अथवा भाई या अन्य) महिलाओं तथा बालिकाओं पर होने वाले शोषण हेतु सर्वाधिक उत्तरदायी होता है। महिलाओं के खिलाफ बहुत से हिंसात्मक कार्य किये जा रहे हैं । बालिकाओं एवं महिलाओं के खिलाफ होने वाले हिंसात्मक मुद्दे निपटाये जाने चाहिए । महिलाओं के खिलाफ हिंसा रोकने हेतु एक ओर मान्यता है कि अपराधियों के रुप में पुरुषों का पता होना चाहिए । पुरुषों में भी यह मान्यता होनी चाहिए कि महिलाओं एवं बालिकाओं को आगे बढ़ाना चाहिए क्योंकि घरेलू हिंसा तथा शोषण तथा अत्याचार से बचने हेतु बालिकाओं को आत्मन-निर्भर बनाना जरुरी है

4. सामाजिक-आर्थिक स्तर- मलिन बस्तियों में विकसित होती बच्चियाँ सामाजिक-आर्थिक स्तर में सामान्य बच्चियों से भिन्न होती हैं। समाज में उनका निम्न स्तर होने से ऐसी बच्चियों से कम अपेक्षाएँ की जाती हैं एवं वे निर्धन वर्ग के होते हैं। उन्हें पढ़ने के साथ अपना घरेलू कार्य भी करना पड़ता है जिससे उन पर काम का बोझ ज्यादा होता है । वे सामान्य बच्चों की तरह अपना ज्यादातर समय शिक्षा में नहीं लगा पाती हैं। इससे विद्यालय में शिक्षक एवं अन्य सहपाठी बच्चे उन्हें घृणा की दृष्टि से देखते हैं एवं उनका मजाक उड़ाते हैं। कई बार ज्यादा आयु में प्रवेश लेने से भी वे कक्षा में ज्यादा बड़ी दिखाई देती हैं। इस बात को लेकर भी उनका मजाक उड़ाया जाता है ।

मलिन बस्तियों में रहने वाले लोग ज्यादातर मजूदरी करते हैं तथा जब वे मजदूरी पर जाते हैं तो उनकी छोटी बच्चियाँ अपने से छोटे भाई-बहनों की देखभाल करती हैं एवं घरेलू कार्य करती हैं, इस कारण भी येबच्चियाँ स्कूल में उपस्थित नहीं रह पाती हैं तथा स्कूल में नामांकित होने के बाद भी अपनी पढ़ाई जारी नहीं रख पाती हैं।


बाल्यकाल में दलित घरों में पल-बढ़ रहे बच्चे

दलित घरों में आज बहुत से बाल्यावस्था में पहुँचे बच्चे जीवन यापन कर रहे हैं । इन बच्चों एवं सामान्य घरों के बच्चों के बचपन में काफी अन्तर है परन्तु कुछ समानताएँ भी हैं जो दोनों ही तरह के बच्चों के जीवन में हैं।


समानताएँ
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1. शारीरिक विकास- बच्चे चाहे सामान्य उच्च परिवारों में जन्मे हों या निम्न परिवारों में उन सभी का शारीरिक विकास एक ही पैटर्न पर होता है। सभी बच्चे बाल्यावस्था में धीमी गति से लम्बाई तथा भार वृद्धि का सामना करते हैं, उनकी मांसपेशियों का विकास होता है। दूध के अस्थायी दाँत टूटते हैं तथा स्थायी दाँत निकलते हैं। बाल्यकाल में सभी बच्चों की अस्थियों में दृढ़ता आती है तथा अस्थियों की संख्या 270 से बढ़कर 350 हो जाती है। 12 वर्ष तक लगभग सभी स्थायी दाँत निकल आते हैं। बच्चों में लड़कों के कन्धे चौड़े, कूल्हे पतले तथा पैर सीधे एवं लम्बे हो जाते हैं । बालिकाओं के कन्धे पतले, कूल्हे चौड़े तथा पैर कुछ अन्द की ओर झुके हो जाते हैं। 11 अथवा 12 वर्ष की आयु में बालकों एवं बालिकाओं के यौनांगों का विकास तेजी से होता है। सभी बच्चे एक निश्चित पैटर्न से शारीरिक विकास करते हैं।

2. मानसिक विकास- बाल्यकाल में बच्चे चाहे उच्च घरों में पले-बढ़ रहे हों अथवा दलित घरों में उनमें संवेदना। स्मरण, चिन्तन, बुद्धि, प्रत्यक्षीकरण, तर्क, भाषा-ज्ञान, निरीक्षण, कल्पनाशीलता, निर्णय, रुचि तथा सीखना जैसे मानसिक विकास के पक्ष पाये जाते हैं। यह अवश्य है कि इसमें व्यक्तिगत भिन्नता एवं पर्यावरण प्रभाव से कुछ तत्व ज्यादा अथवा कम हो सकते हैं।

3. सामाजिक विकास- बाल्यकाल में सभी बच्चे नये वातावरण से अनुकूलन करना, सामाजिक कार्यों में भाग लेना तथा नये मित्र बनाना सीखते हैं जिसके कारण उनमें स्वतंत्रता, सहायता एवं उत्तरदायित्व के गुणों का विकास होता है। बाल्यकाल में बच्चे (किसी भी वर्ग के हों) टोली बनाना पसन्द करते हैं। हरलॉक ने लिखा है-“टोली बालक के आत्म-नियंत्रण, साहस, न्याय, सहनशीलता, नेता के प्रति भक्ति, दूसरों के प्रति सद्भावना और गुणों का विकास करती है।” क्रो तथा को लिखा है कि “6 से 10 वर्ष तक बालक अपने वांछनीय अथवा अवांछनीय व्यवहार में लगातार प्रगति करता रहता है। वह बहुधा उन्हीं कार्यों को करता है जिनके किये जाने का कोई उचित कारण नहीं जान पड़ता है।’

4. संवेगात्मक विकास- सभी बालकों में बाल्यावस्था में संवेगात्मक परिवर्तन होते हैं। क्रो एवं क्रो के अनुसार, “सम्पूर्ण बाल्यावस्था में संवेगों की अभिव्यक्ति में लगातार परिवर्तन होते रहते हैं।” इस अवस्था में सभी बालकों के संवेग निश्चित एवं कम शक्तिशाली हो जाते हैं सभी बालकों में प्रेम, स्नेह, ईर्ष्या, द्वेष एवं घृणा एवं क्रोध पाया जाता है।

5. चारित्रिक विकास- जब बालक दूसरे बालकों के सम्पर्क में आता है तो उसके आचरण में परिवर्तन आने लगता है। उनमें उचित एवं अनुचित समझने की क्षमता बढ़ने लगती है । क्रो तथा क्रो ने कहा है कि बाल्यावस्था में बालकों में नैतिकता की सामान्य धारणाओं अथवा नैतिक सिद्धान्तों के कुछ ज्ञान का विकास हो जाता है ।


असमानताएँ :

सामान्य परिवारों के बच्चों एवं दलित घरों में पल-बढ़ रहे बच्चों के व्यक्तित्व में काफी अन्तर आ जाता है । यह अन्तर शिक्षा, परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति, माता-पिता का दृष्टिकोण, समाज का दृष्टिकोण, वंशानुक्रम तथा वातावरण आदि के कारण आता है। इसलिए सामान्य परिवारों एवं दलित परिवारों में पल रहे बच्चों की मुख्य असमानाएँ इस तरह हैं-

1. शिक्षा- दलित परिवारों के बच्चों को शैक्षिक सुविधाएँ प्राप्त नहीं होती हैं। माता-पिता अशिक्षित होते हैं। इसलिए वे अपने बच्चों की शिक्षा के प्रति ज्यादा जागरुक नहीं होते हैं। प्रतियोगिता के इस युग में अंग्रेजी माध्यम के बड़े-बड़े विद्यालय खुल गये हैं। ऐसी स्थिति में अगर ये बच्चे सरकारी स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर भी लेते हैं तो भी उन बच्चों की तुलना में खड़े नहीं हो पाते हैं। इन्हें बाल्यावस्था से ही काम पर लगा दिया जाता है एवं काम को छोड़कर प्रतिदिन विद्यालय जाना इनके लिए काफी कठिन होता है । इसलिए ये बच्चे सामान्य बच्चों से शैक्षिक स्तर में काफी पीछे होते हैं ।

2. परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति- दलित परिवारों का सामाजिक-अर्थिक स्तर काफी निम्न होता है। दलित लोग एक तो शिक्षा के प्रति वैसे ही उदासीन होते हैं दूसरे जब उनके बच्चे विद्यालय में जाते हैं तथा शिक्षक एवं सहयोगी छात्र उनसे भेदभाव मानते हैं और उनको छूना भी पसन्द नहीं करते हैं एवं उन्हें हर समय यह ध्यान दिलाते रहते हैं कि वे दलित हैं और उनका वही कार्य है तो उनके बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते हैं। भारत में गम्भीर आर्थिक असमानताएँ एवं सामाजिक विषमताएँ हैं । जाति-पाँति का भेदभाव तथा आर्थिक एवं सामाजिक दशाओं का भेद भारतीय समाज में दीर्घकाल में चला आ रहा है। दलित परिवारों की आर्थिक स्थिति खराब होने से उनके बच्चे वैसे ही बाल्याकाल से ही काम पर लगा दिये जाते हैं । इस तरह उन्हें अन्य बालकों की तरह समान अवसर प्राप्त नहीं हो पाते हैं। आय एवं धन की असमानता के कारण शिक्षा प्राप्त करना वे समय की बरबादी समझते हैं। निर्धनता तथा निम्न जीवन-स्तर की चक्की में पिसने हेतु वे विवश हो होते हैं ।

3. माता-पिता का दृष्टिकोण- माता-पिता का दृष्टिकोण भी दलितों के विकास को प्रभावित करता है। अगर माता-पिता अशिक्षित होते हैं तो उनका दृष्टिकोण भी वैसा ही नकारात्मक बन जाता है। वे यह समझने लगते हैं कि चाहे वे कितनी भी शिक्षा अपने बच्चों को दिला लें समाज में उनकी निम्न स्थिति में बदलाव नहीं आ सकता है एवं वे उन्हें काम में लगाकर अपना आर्थिक बोझ कम करना चाहते हैं। इस दृष्टिकोण से दलित घरों में बालपन से ही शोषण का रास्ता खुल जाता है। बाल श्रम एवं कानूनों से अज्ञानता के कारण उनका जीवन पुरानी परम्पराओं के आधार पर ही चलने लगता है ।

4. समाज का दृष्टिकोण- सामान्य परिवारों में पल-बढ़ रहे बच्चे दलित परिवारों के बच्चों को अपने साथ एक विद्यालय में देखकर उनसे दूरी बनाकर रखते हैं। समाज उन्हें निम्न दृष्टि से ही देखता है। इस तरह प्राचीन काल से उनके प्रति चला आ रहा भेदभाव उन्हें झेलना पड़ता है। बच्चे अपने साथ वर्गभेद देखते हैं तथा इसे अपनी नियति समझ लेते हैं, वे स्वयं भी सामान्य बच्चों के साथ बैठकर शिक्षा ग्रहण नहीं करना चाहते हैं।

5. वंशानुक्रम- सामान्य एवं दलित बच्चों में कुछ वंशानुगत अन्दर भी होता है, माता-पिता के जीन्स के माध्यम से जो गुण उन्हें प्राप्त होते हैं उस कारण उनमें चिन्तन की क्षमता, बुद्धि, योग्यता में भी अन्तर होता है। हालांकि यह अन्तर सभी बच्चों में पाया जाता है। व्यक्तिगत भिन्नता का प्रभाव सभी बच्चों पर लागू होता है।

6. वातावरण- दलित परिवारों में पल-बढ़ रहे बच्चों एवं सामान्य बच्चों में सबसे बड़ा अन्तर उनके वातावरण का होता है। दलित परिवारों में शुरु से ही बच्चों को पुश्तैनी कार्य में लगा दिया जाता है। शिक्षा के प्रति उनमें ज्यादा जागरुकता नहीं होती है। सामाजिक भेदभाव को वे अपनी नियति मान लेते हैं। सभी बच्चे बालपन से ही माता-पिता के साथ पुश्तैनी कार्यों में जुट जाते हैं। अगर वे विद्यालय जाते भी हैं तो विद्यालयों में पढ़ाई शीघ्र छोड़ देते हैं। इस तरह शिक्षा प्राप्ति में अवरोधन एवं अपव्यय ले आते हैं। दलित बच्चों को उनके माता-पिता वे सुविधाएँ भी प्रदान नहीं कर पाते हैं जो उनके विकास हेतु जरुरी हैं। पुस्तकें, कम्प्यूटर, वीडियो गेम, इण्टरनेट, मोबाइल आदि आज शिक्षा व्यवस्था से अभिन्न रुप से नई तकनीकी के रुप में जुड़ा हुआ है। सामान्य बच्चों में ज्यादातर बच्चों को ये सुविधाएँ प्राप्त होती हैं जिससे उनका ये मानसिक एवं बौद्धिक विकास भी तेजी से होता है। लेकिन बच्चे आर्थिक रुप से भी निर्बल होते हैं। उनके माता-पिता उन्हें ये सुविधाएँ नहीं दे पाते हैं। वे शिक्षा में इतना व्यय नहीं कर सकते हैं या करना नहीं चाहते हैं इससे दोनों में परिवेशजन्य भिन्नता आ जाती है जो उनके मानसिक एवं बौद्धिक विकास को प्रभावित करती है तथा दलित वर्ग इन सुविधाभोगी बच्चों से स्वयं को हीन समझने लगते हैं एवं खेल-कूद हेतु अपना वंचित वर्ग का एक अलग ही समूह बना लेते हैं जो स्वयं उनके समूह का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस तरह उनका बचपन अभावों तथा कष्टों में व्यतीत होता है, इसके कारण उनके संगी-साथी भी उसी प्रकार वंचित वर्ग के होते हैं बुरे व्यसनों में शीघ्र फँस जाते हैं, क्योंकि उनका परिवेश इस तरह के कार्यों हेतु उन्हें प्रेरित करता है।

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