मूल्य-परक (नैतिक)विकास की विभिन्न अवस्थाओं तथा उसे प्रभावित करने वाले विभिन्न कारकों का वर्णन करो।

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बालक अपने वातावरण में कई व्यक्तियों एवं वस्तुओं से घिरा रहता है। विकास क्रम में वह धीरे-धीरे इनके सम्पर्क में आने लगता है तथा इनसे संबंध स्थापित करने लगता है। इन संबंधों के कारण वह सुख-दुःख का अनुभव करने लगता है । फलस्वरूप वातावरण में उपस्थित व्यक्तियों तथा विभिन्न वस्तुओं के प्रति इसके भीतर मनोवृत्तियों का निर्माण होने लगता है बालक अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर कुछ व्यक्तियों में स्थायी रूप से रुचि लेने लगता है । जब बालक कुछ बड़ा हो जाता है, तब अपने परिवार, समुदाय एवं समाज के द्वारा अपनायी हुई नैतिक भावनाओं, आदर्शों या मूल्यों को भी ग्रहण करने लगता है। यह प्रक्रिया एक क्रमिक प्रक्रिया होती है तथा इस दौरान बालक को यह चेतना भी नहीं रहती कि वह सामाजिक आदर्शों को सीख रहा है। धीरे-धीरे बालक का अधिकांश व्यवहार उसके परिवार, विद्यालय एवं समुदाय द्वारा स्वीकृत नैतिक मूल्यों के नियंत्रण में आ जाता है । सामाजिक नैतिक मूल्यों को अपनाकर ही बालक अपने परिवार अथवा समुदाय की वास्तविक सदस्यता प्राप्त कर पाता है।

मूल्य व्यक्ति की वह नैतिक शक्ति है। जिसकी मदद से वह अच्छे-बुरे एवं उचित-अनुचित में अन्तर समझ पाता है। मूल्यों को बालक शुरू में अपने सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिवेश से सीखते हैं एवं जब वह उन्हें भली-भाँति ग्रहण कर लेता है, तो वे नैतिक विशेषताएँ बन जाती है।

बालक अपने जीवन प्रसार में जिस परिवार, पाठशाला तथा समाज का सदस्य बनता है उनके कुछ विशेष सामाजिक और नैतिक मूल्य एवं आदर्श होते हैं। बालक को इन सामाजिक मानों के अनुरूप बनना पड़ता है तथा उन्हीं के द्वारा निर्देशित आचरण करने पड़ते हैं। अतः सामाजिक तथा नैतिक मूल्य बालक के सम्पूर्ण आचरण के निर्धारक माने जाते हैं एवं उनका उसके व्यवहार पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों में भिन्न-भिन्न तरह के मूल्य विकसित होते हैं। यही नहीं एक ही बालक के परिवार एवं उसके समुदाय के मूल्यों में भी अन्तर पाया जाता है। अगर बालक के परिवार एवं उसके समुदाय के नैतिक स्तरों में महत्त्वपूर्ण अन्तर हुआ तो बालक के आचरण पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ता है तथा उसके सामने मानसिक द्वन्द्व की स्थिति पैदा हो जाती है। ऐसी दशा में सबसे उत्तम बात यह समझी जाती है कि व्यक्ति अपने पुराने तथा नये दोनों समुदायों के मुख्य-मुख्य नैतिक मूल्यों को स्वीकार कर ले। लेकिन ऐसा तभी सम्भव है जब दोनों समुदायों के मूल्यों में परस्पर बहुत ज्यादा विरोध न हो।

मूल्य परक (नैतिक) विकास की अवस्थाएँ :

मनोवैज्ञानिकों ने बालक के नैतिक विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ निर्धारित की हैं। फिर भी एक ही आयु के बालकों में नैतिक विकास में भिन्नता देखी जाती है।

1. नवजात शिशु- नवजात शिशु में नैतिकता संबंधी भावना अविकसित होती है।

2. प्रथम तीन वर्ष- प्रारम्भिक वर्षों में बालक आत्मकेन्द्रित होता है। उसका प्रत्येक व्यवहार संवेगजनक होता है। वह नैतिकता को ठीक-ठीक नहीं समझ पाता।

3. तीन से छ: वर्ष की आयु- इस आयु में नैतिकता का पूरा-पूरा विकास नहीं होता है। उसका व्यवहार अब भी प्रौढ़ व्यक्तियों की प्रशंसा तथा निन्दा पर निर्भर करता है। बालक अभी ‘झूठ’ तथा ‘सच’ की पहचान नहीं कर सकता। उसकी किसी बात को ‘झूठ’ कहने पर वह हैरान होता है।

4. छ: से नौ वर्ष की आयु- छ: वर्ष की आयु में बालक में ध्वंसात्मक प्रवृत्ति जोर पकड़ लेती है। इस अवस्था के बालक प्राथमिक पाठशाला के छात्र होते हैं। वे न्याय तथा दयानंतदारी में बड़ी गहरी आस्था रखते हैं। उनके व्यवहार में अभी भी संवेगात्मकता का पर्याप्त अंश रहता है।

5. नौ से बारह वर्ष की आयु- इस अवस्था में वह अच्छाई तथा बुराई को समझने लगता है। किशोरावस्था से पहले बालक नैतिक विकास की दृष्टि से अभी भी अपरिपक्व होता है। प्रौढ़ों के उपदेशों की बजाय वह उनके व्यावहारिक जीवन से ज्यादा प्रभावित होता है।


मूल्यों के विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व :

बालक के मूल्यों के विकास को प्रभावित करने वाले तत्त्व निम्न हैं-

1. बुद्धि का प्रभाव- बालक की बुद्धि का प्रभाव उसकी नैतिकता के विकास पर भी पड़ता है। बालक नैतिक तथा अनैतिक आचरणों, सत्य एवं असत्य निर्णयों और अच्छी तथा बुरी भावनाओं के अन्तर को अपनी बौद्धिक क्षमता के आधार पर ही समझ पाता है

2. आयु का प्रभाव- स्याने बालकों में अल्प आयु के बालकों की बजाय बुरे-भले, उचित-अनुचित एवं सत्य-असत्य के भेद को समझने की क्षमता ज्यादा विकसित हो जाती है।

3. यौन भिन्नता का प्रभाव- बालक तथा बालिकाओं में नैतिक एवं चारित्रिक स्तरों में यौन के कारण भी भिन्नता दिखाई पड़ती है। बालक-बालिकाओं के भीतर ग्रंथि संस्थान भिन्न-भिन्न तरह का होता है । इसकी भिन्नता का प्रभाव उनके चरित्र, नैतिकता तथा व्यक्तित्व के ऊपर बहुत ज्यादा पड़ता है।

4. घर का प्रभाव- बालक की नैतिकता तथा चरित्र को प्रभावित करने वाला सबसे शक्तिशाली तत्व उसका परिवार माना जाता है। जिन घरों में बालकों को ज्यादा प्यार मिलता है, उन पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है एवं उनके साथ सद्भावनापूर्ण व्यवहार किया जाता है, वहाँ के बालकों का परिवार समायोजन अच्छे तरह का होता है।

5. विद्यालय का प्रभाव- बालक के नैतिक विकास में उसके विद्यालय का बहुत बड़ा हाथ होता है। विद्यालय के शिक्षक, शिक्षकों द्वारा चुना गया पाठ्यक्रम, विद्यालय के साथी एवं विद्यालय की व्यवस्था ये चार तत्व उसके ऊपर विभिन्न रूपों में अपना प्रभाव डालते हैं।

6. धार्मिक संस्थाओं का प्रभाव- धार्मिक संस्थाओं की स्थापना व्यक्तियों के भीतर नैतिक तथा चारित्रिक विकास के लिए होती है, लेकिन इन धार्मिक संस्थाओं का प्रभाव बालक के ऊपर उसी सीमा तक पड़ सकता है जिस सीमा तक उसके माता-पिता अथवा शिक्षक उसमें विश्वास रखते हैं।

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