वंशानुक्रम क्या है? इसके विभिन्न सिद्धांतों एवं बालक के विकास पर वंशानुक्रम के प्रभाव का वर्णन कीजिये।

Estimated reading: 2 minutes 160 views

बालक में पैदा विशेषताओं हेतु उसके माता-पिता को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है, वरन् उससे संबंधित अन्य संबंधी भी जिम्मेदार होते हैं। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि जो विशेषताएँ उसके माता-पिता से मिलती-जुलती हैं, उनका हस्तान्तरण माता-पिता से होता है एवं जो माता-पिता से विषमता रखती हैं, उनका हस्तान्तरण उनके सगे-संबंधियों से होता है। जैसा कि डगलस तथा हालैण्ड ने विचार पेश किया है-“एक प्राणी के वंशानुक्रम में वे सभी संरचनाएँ, शारीरिक विशेषताएँ, कियाएँ अथवा क्षमताएँ शामिल रहती हैं, जिन्हें वह अपने माता-पिता, अन्य पूर्वजों अथवा प्रजाति से प्राप्त करता है।’

“वंशानुक्रम माता-पिता से सन्तान को प्राप्त होने वाले गुणों का नाम है।” – रूथ बेंडिक्ट

“प्रकृति में पीढ़ी का हर कार्य माता-पिता द्वारा सन्तानों में कुछ जैवकीय अथवा मनोवैज्ञानिक विशेषताओं का हस्तान्तरण करना है। इस तरह से विशेषताओं के संगठित हस्तान्तरण को वंशानुक्रम के नाम से जाना जाता है।” -पी. जिसबर्ट

उपर्युक्त विद्वानों के मतों से स्पष्ट होता है कि वंशानुक्रम की धारणा अमूर्त होती है इसको हम व्यक्ति के व्यवहारों तथा विशेषताओं के द्वारा ही जान अथवा समझ सकते हैं । इसलिए हम कह सकते हैं कि मानव व्यवहार का वह पूर्ण संगठित रूप, जो बालक में उसके माता-पिता एवं पूर्वजों द्वारा हस्तान्तरित होता है, को वंशानुक्रम कहते हैं ।

वंशानुक्रम के सिद्धान्त

वंशानुक्रम की प्रक्रिया के संबंध में विभिन्न परीक्षण तथा प्रयोग किये गये हैं। आज हम वंशानुक्रम के स्वरूप को इन्हीं परीक्षणों के आधार पर परिभाषित कर सकते हैं। अतः विभिन्न विद्वानों द्वारा की गयी खोजों को हम सिद्धान्त तथा नियम मानते हैं। इनका वर्णन निम्न प्रकार से है-

1. मूल जीवाणु की निरन्तरता का नियम- फ्रान्सिस गाल्टन ने सन् 1775 ई. में बालक को उतना ही योग्य बताया था, जितना कि उसके पूर्वज को। आपने कई अध्ययनों से निम्न निष्कर्ष निकाले-

1. वंशानुक्रम = 1/2  पिता +1/2 माता पक्ष।

2. दादा तथा परदादा आदि पूर्वजों के गुण निश्चित मात्रा में होते हैं

3. वंश-दर-वंश यह गुण कम होते जाते हैं; जैसे 1/2, 1/4, 1/8, 1/16 आदि।

गाल्टन का समर्थन करते हुए बीजमैन ने बालक की उत्पत्ति बीजकोष से बतलायी है मानव शरीर में काय कोष तथा उत्पादक कोष होते हैं। ‘कायकोष’ शारीरिक विकास करते हैं एवं उत्पादक कोष वंश परम्परा में हस्तान्तरित होते रहते हैं। आपने 25 पीढ़ियों तक चूहों पर प्रयोग किये। वे चूहों की पूँछों को हर बार काट देते थे, पर बगैर पूँछ के चूहे कभी भी पैदा नहीं हुए। इसलिए यह निष्कर्ष निकला कि अगली सन्तान के मूल जीवाणु हस्तान्तरित होते रहते हैं । क

2. अर्जित गुणों का हस्तान्तरण- लेमार्क, मैक्डूगल, पावलव तथा हैरिसन आदि प्रभृति विद्वानों ने वंशानुक्रम का आधार अर्जित गुणों का हस्तान्तरण माना है। ‘लेमार्क’ ने जिराफ की गर्दन का लम्बा होना परिस्थितिवश बताया, पर अब वह वंशानुक्रमीय हो चुका है। इसी तरह से मैक्डूगल ने चूहों पर प्रयोग किया। आपने पानी से भरे बड़े बर्तन में चूहों को छोड़ दिया। बर्तन से बाहर आने के दो मार्ग थे-प्रकाशित मार्ग एवं अन्धकारयुक्त मार्ग। प्रकाशित मार्ग में बिजली का झटका लगता था तथा अन्धकार युक्त मार्ग में नहीं। अतः सभी चूहे झटके से परेशान होकर अन्धकार वाले मार्ग से बाहर निकलते थे। 23 पीढ़ियों के अध्ययन से पाया गया कि पहली पीढ़ी में चूहों ने 165 बार त्रुटियाँ की तथा 23 वीं पीढ़ी में सिर्फ 25 बार। इस तरह स्पष्ट होता है कि अर्जित गुणों का अगली पीढ़ी में हस्तान्तरण होता है ।

3. प्रत्यागमन का सिद्धान्त- प्रत्यागमन शब्द का अर्थ विपरीत होता है। जब माता-पिता के बच्चे उसके विपरीत विशेषताओं वाले विकसित होते हैं, तो यहाँ पर प्रत्यागमन का सिद्धान्त लागू होता है; जैसे- मन्द बुद्धि, माता-पिता की सन्तान का प्रखर बुद्धि होना । विद्वानों ने इसके सन्दर्भ में निम्न धारणाएँ पेश की हैं-

1. अगर वंश सूत्रों का मिश्रण सही रूप से नहीं हो पाता है, तो विपरीत विशेषताओं वाले बच्चे विकसित होते हैं।

2. जाग्रत एवं सुषुप्त दो तरह के गुण वंश को निश्चित करते हैं। विपरीत विशेषताएँ सुषुप्त गुणों का परिणाम होती हैं।

4. मेण्डल का नियम- वंशानुक्रम की विशेषताओं का पता लगाने के लिए ‘ग्रेसर जॉन मेण्डल’ ने विभिन्न प्रयोग किये थे। आप चेकोस्लोवाकिया के एक ईसाई मठ के पादरी थे। इनके प्रयोगों के निष्कर्षों को ही ‘मेण्डलवाद’ अथवा मेण्डल का नियम कहा जाता है।

मेण्डल का निष्कर्ष- ‘मेण्डल’ के प्रयोगों के निम्न निष्कर्ष थे –

(1) मेण्डल का नियम प्रत्यागमन को स्पष्ट करता है ।

(2) बच्चे में माता-पिता की तरफ से एक-एक गुणसूत्र आता है।

(3) गुणसूत्र की अभिव्यक्ति संयोग पर निर्भर करती है।

(4) एक ही तरह के गुणसूत्र अपने ही तरह की अभिव्यक्ति करते हैं।

(5) जाग्रत गुणसूत्र अभिव्यक्ति करता है, सुषुप्त नहीं ।

(6) कालान्तर में यह अनुपात 1:2, 2:4, 1:2, 1:2 होता जाता है।


बालक के विकास पर वंशानुक्रम का प्रभाव

मनोवैज्ञानिकों ने वंशानुक्रम के प्रभाव को रोकने हेतु विभिन्न प्रयोग किये एवं उन्होंने यह सिद्ध किया कि बालक का विकास वंशानुक्रम से प्रभावित होता है। हम यहाँ पर वंशानुक्रम के प्रभाव का विभिन्न क्षेत्रों में वर्णन कर रहे हैं-

1. तुन्त्रिका तन्त्र की बनावट- तन्त्रिका तन्त्र में प्राणी की बुद्धि, सीखना, आदतें, विचार तथा आकांक्षाएँ आदि केन्द्रित रहती हैं। ये प्राणी की क्रियाओं को एकीकरण प्रदान करता है । तन्त्रिका तन्त्र बालक में वंशानुक्रम से ही प्राप्त होती है। इससे ही ज्ञानेन्द्रियाँ,पेशियाँ एवं ग्रन्थियाँ आदि प्रभावित होती रहती हैं। बालक की प्रतिक्रियाएँ तन्त्रिका तन्त्र पर निर्भर करती हैं। इसलिए हम बालक के तन्त्रिका तन्त्र के विकास को सामान्य, पिछड़ा तथा असामान्य आदि भागों में विभाजित कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अपने परीक्षणों से यह सिद्ध कर दिया है कि बालक का भविष्य तन्त्रिका तन्त्र की बनावट पर ही निर्भर करता है।

2. बुद्धि पर प्रभाव- मनोवैज्ञानिकों ने अपने प्रयोगों से यह स्पष्ट कर दिया है कि वंशानुक्रम के द्वारा ही बालक में बुद्धि आती है। इसलिए बुद्धि को जन्मजात माना जाता है । ‘स्पियर मैन’ ने बुद्धि में विशिष्ट तथा सामान्य तत्वों को वंशानुक्रम की देन माना है। ‘गोडार्ड’ महोदय ने वंश का बुद्धि पर प्रभाव देखने हेतु ‘कालिकाक’ नामक एक सैनिक के वंशजों का अध्ययन किया। इससे निम्न निष्कर्ष ज्ञात हुए-

कालिकाक x मन्द बुद्धि स्त्री कालिकाक x तीव्र बुद्धि स्त्री
480कुल वंशज496
143मन्द बुद्धि03
46सामान्यx
36अवैध संतानx
32वैश्याएंx
24शराबीx
08वैश्यालय का स्वामीx
03मृगी रोगीx
03अपराधीx
xसम्मानित स्थानशेष

अत: प्रो. ट्रायोन, न्यूमैन तथा कॉलसनिक आदि के समान ही उपर्युक्त निष्कर्ष प्राप्त हुए। इसलिए हम कह सकते हैं कि बालक की बुद्धि वंशानुक्रम से ही निश्चित होती है।

3. मूल प्रवृत्तियों पर प्रभाव- मूल प्रवृत्ति व्यक्ति के व्यवहार को शक्ति प्रदान करती है इसको हम देख नहीं सकते वरन् व्यक्ति के व्यवहार को देखकर पता लगाते हैं कि कौन-सी मूल प्रवृत्ति जाग्रत होकर व्यवहार का संचालन कर रही है। ‘मैक्डूगल’ महोदय ने इनका पता लगाया था एवं इनको जानने हेतु उन्होंने हर मूल प्रवृत्ति के साथ एक संवेग’ को भी जोड़ दिया, जो मूल प्रवृत्ति का प्रतीक होता है। हम संवेग को देखकर मूल प्रवृत्ति का पता लगा लेते हैं। आपने यह भी स्पष्ट किया है कि ये भी वंश से ही प्राप्त होती हैं। कुछ मूल प्रवृत्तियाँ तथा सहयोगी संवेग नीचे दिये जा रहे हैं-

मूल प्रवृत्ति    संवेग

पलायन      भय

निवृत्ति       घृणा

जिज्ञासा      आश्चर्य

युयुत्सा      क्रोध

आत्म-गौरव   सकारात्मक आत्मानुभूति

4. स्वभाव का प्रभाव- बच्चों के स्वभाव का प्रकटीकरण उनके माता-पिता के स्वभाव के अनुकूल होता है। अगर बच्चों के माता-पिता मीठा बोलने वाले हैं तो बच्चों का स्वभाव भी मीठा बोलने वाला होगा। इसी तरह से क्रोधी और निर्दयी स्वभाव वाले माता-पिता के बच्चे भी निर्दयी तथा क्रोधी होते हैं। सन् 1940 ई. में शैल्डन महोदय ने मानवीय स्वभाव का अध्ययन किया एवं उसे निम्न तीन भागों में विभाजित किया-

(अ) विसेरोटोनिया- इस तरह के स्वभाव के अन्तर्गत समाजाप्रय व्यक्ति आते हैं। ये आराम पसन्द होते हैं, स्वादिष्ट भोजन में रुचि रखते हैं तथा बड़े ही हँसमुख होते हैं।

(ब) सोमेटोटोनिया- इस तरह के स्वभाव के अन्तर्गत महत्त्वाकांक्षी लोग आते हैं। ये क्रोधी, निर्दयी, ताकतवर, सम्मानप्रिय, स्वाग्रही तथा दृढ़ प्रतिज्ञ आदि विशेषताओं वाले होते हैं।

(स) सेरेब्रोटोनिया- इस तरह के स्वभाव के अन्तर्गत वे सभी व्यक्ति आते हैं, जिनमें चिन्तन शक्ति की प्रबलता होती है। ये एकान्तप्रिय होते हैं। ये ज्यादा नियन्त्रण पसन्द, दमित स्वभाव, अवरुद्ध समाज से दूर तथा विचारशील व्यक्ति होते हैं ।

5. शारीरिक गठन एवं बनावट- बालक का शारीरिक गठन तथा शरीर की बनावट उसके वंशजों पर निर्भर करती है। कार्ल पियरसन ने बताया है कि माता-पिता की लम्बाई, रंग तथा स्वास्थ्य आदि का प्रभाव बच्चों पर पड़ता है। सन् 1925 ई. में ‘क्रेश्मर’ महोदय ने एक अध्ययन किया एवं शारीरिक गठन के आधार पर सम्पूर्ण मानव जाति को निम्न तीन भागों में बाँटा है-

(अ) पिकनिक- इस तरह का व्यक्ति शरीर से मोटा, कद में छोटा, गोल-मटोल एवं ज्यादा चर्बीयुक्त होता है। उसका सीना चौड़ा पर दबा हुआ एवं पेट निकला (तोंद) हुआ होता है। चेहरा लालामीयुक्त तथा गोल होता है।

(ब) एथलैटिक- इस तरह का व्यक्ति शारीरिक क्षमताओं से युक्त होता है जैसे-सिपाही अथवा खिलाड़ी। इसका सीना चौड़ा, कन्धे ताकतवर तथा पैर एवं भुजाएँ पुष्ट माँसपेशियों से युक्त आदि होता है। इसकी चाल में मस्ती तथा प्रभाव झलकता रहता है ।

(स) एस्थेनिक- इस तरह का व्यक्ति दुबला-पतला एवं शक्तिहीन शरीर का होता है और वह संकोची स्वभाव का होता है। इनकी पतली भुजाएँ तथा कन्धे एवं सीना दबा हुआ होता है। यह लोग किसी भी तरह से अन्य लोगों को प्रभावित नहीं कर पाते हैं।

6. व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव- वंशानुक्रम के यन्त्र विज्ञान से यह स्पष्ट हो चुका है कि बच्चों में माता-पिता की विशेषताएँ हस्तान्तरित होती हैं। इन विशेषताओं में व्यावसायिक योग्यता अथवा कुशलता भी शामिल है। कैटेल ने 885 अमेरिकन वैज्ञानिकों के परिवारों का अध्ययन किया एवं पाया कि उनमें से 2/5 व्यवसायी वर्ग, 1/2 भाग उत्पादक वर्ग तथा सिर्फ 1/4 भाग कृषि वर्ग के थे। इसलिए यह स्पष्ट होता है कि व्यावसायिक कुशलता वंश पर आधारित होती है ।

7. सामाजिक स्थिति पर प्रभाव- सामाजिक सम्मान अथवा प्रतिष्ठा पाना स्वयं की विशेषता नहीं होती, जो लोग वंश से अच्छा चरित्र, गुण अथवा सामाजिक स्थिति संबंधी विशेषताओं को लेकर उत्पन्न होते हैं, वे ही सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। अत: ‘विनसिप’ का मत है कि “गुणवान तथा प्रतिष्ठित माता-पिता की सन्तान ही प्रतिष्ठा प्राप्त करती है।” आपने ‘रिचर्ड एडवर्ड’ नामक परिवार का अध्ययन किया। ‘रिचर्ड’ एक प्रतिष्ठित तथा गुणवान नागरिक था। उसने अपने समान स्तर वाली ‘एलिजाबेथ’ नामक स्त्री से विवाह किया था। इनकी सन्ताने (वंशज) विधान सभा के सदस्य तथा महाविद्यालयों के अध्यक्ष आदि प्रतिष्ठित पदों पर आसीन हुए । उनका एक वंशज अमेरिका का उपराष्ट्रपति भी बना । इसलिए स्पष्ट होता है कि सामाजिक स्थिति वंशानुक्रमीय होती है।

Leave a Comment

CONTENTS