विकास की अवधारणा का वर्णन करो।

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विकास : अर्थ एवं प्रकृति

आज के युग में ज्ञान-विज्ञान के विकसित होने के कारण मानव विकास को लिपिबद्ध कर लिया गया है। मानव विकास के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान की अनेक नई शाखाओं का विकास हुआ है। मनोविज्ञान भी व्यक्ति के गर्भ में आने से लेकर मृत्यु के विकास तक के अनेक नवीन पहलुओं को प्रस्तुत करता है जिससे नवीन उपलब्धियाँ होती हैं । एल ई. टेलर ने कहा है-“मनुष्य में, जो कुछ वह अभी है, उससे बदल कर कुछ भिन्न हो जाने की जीवन के प्रत्येक क्षण प्रक्रिया चलती रहती है। उसकी समस्त शैली बदल रही है और एक ही समय में शैली एवं परिवर्तन के तथ्य दोनों को ध्यान में रखना आवश्यक है। किसी विशेष अवस्था में शैली क्या होगी, यह पहली शैली तथा उस व्यक्ति पर, उसके वर्तमान वातावरण द्वारा डाले गये प्रभावों पर निर्भर है। साथ ही यह उसकी अपनी अनुक्रियाओं पर भी निर्भर है, उन बातों के प्रति भी जो पहले हो चुकी हैं तथा उन प्रभावों के प्रति भी जो अब उस पर पड़ रहे हैं। कोई भी व्यक्ति किसी भी हद तक क्रमिक अवस्थाओं में अपनी जीवन शैली का निर्माण अपनी पसन्दों तथा निर्णयों द्वारा करता है। एक बार चुनाव हो जाने पर तथा उस चुनाव का प्रभाव विकसित हो रहे ढाँचे पर पड़ चुकने के बाद वह कभी भी मिटाया नहीं जा सकता। विकास एक-मार्ग पथ है।”

गर्भाधान से लेकर जन्म तक व्यक्ति में अनेक प्रकार के परिवर्तन होते हैं जिन्हें भूणावस्था का शारीरिक विकास माना जाता है। जन्म के बाद वह कुछ विशिष्ट परिवर्तनों की ओर संकेत करता है; जैसे गति, भाषा, संवेग और सामाजिकता के लक्षण उसमें प्रकट होने लगते हैं। विकास का यह क्रम वातावरण से प्रभावित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के लिये यह आवश्यक है कि वह सफलता प्राप्त करने के लिए बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करे। इन अवस्थाओं के कारण बालक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार वह अपनी कार्य-प्रणाली को विकसित कर सकता है।

व्यक्ति का जन्म, विकास तथा मृत्यु सदैव ही मानव के अध्ययन के लिये जिज्ञासा बने रहे हैं। विकास का अध्ययन मानव व्यवहार की पूर्णता को जानने के लिए होने लगा है। यों इसका महत्त्व और बढ़ गया। आज व्यक्ति के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त करना अनेक नवीन पहलुओं का अध्ययन करने के लिए आवश्यक हो गया है ।

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व्यक्ति के विकास से अभिप्राय उसके गर्भ में आने से लेकर प्रौढ़ता प्राप्त होने तक की स्थिति से है। पितृ-सूत्र तथा मातृ-सूत्र के संयोग से जीव स्थित होता है। जब तक भ्रूण गर्भ से बाहर नहीं आता, यह गर्भ-स्थिति-काल कहलाती है। 9 कैलेण्डर मास एवं 10 या 12 दिन अथवा 10 चन्द्र-मास या 280 दिन तक भ्रूण गर्भ में रहता है और वहाँ उसका विकास होता रहता है । इस अवधि में उसके शरीर के अंगों का विकास होता है। जब भ्रूण पूर्ण विकसित हो जाता है तब वह गर्भ में नहीं रह पाता और उसे बाहर आना पड़ता है। गर्भ से बाहर आने पर उसके विकास का नया दौर आरम्भ होता है । इसे गर्भोतर स्थिति कहते हैं । मुनरो ने ऐसे विकास की परिभाषा देते हुए कहा है-“परिवर्तन श्रृंखला की वह अवस्था, जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।”

विकास का अर्थ बड़े होने या कद एवं भार के बढ़ने से नहीं है । विकास में परिपक्वता की ओर बढ़ने का निश्चित् क्रम होता है । यह एक प्रगतिशील श्रृंखला होती है। प्रगति का अर्थ । भी दिशाबोध युक्त होता है, यह दिशाबोध आगे भी होता है और पीछे भी। निश्चित क्रम से अभिप्राय है कि विकास में व्यवस्था रहती है। प्रत्येक प्रकार का परिवर्तन इस बात पर आधारित होता है कि वह किस प्रकार क्रम का निर्धारण करता है। गैसल के अनुसार-“विकास सामान्य प्रयत्न से अधिक महत्त्व की चीज है। विकास का अवलोकन किया जा सकता है एवं किसी सीमा तक इसका मूल्यांकन एवं मापन भी किया जा सकता है। इसका मापन तथा मूल्यांकन तीन रूपों में हो सकता है- (i) शरीर निर्माण, (ii) शरीर शास्त्रीय, (iii) व्यावहारिक व्यवहार चिन्ह विकास के स्तर एवं शक्तियों की विस्तृत रचना करते हैं।”


विकास का अर्थ :

विकास का अर्थ परिवर्तन है । परिवर्तन एक प्रक्रिया है जो हर समय चलती रहती है। है अतः प्रत्येक क्षण विकास भी हो रहा है । हरलॉक के अनुसार-“विकास बड़े होने तक ही सीमित है नहीं है । वस्तुतः यह तो व्यवस्थित तथा समानुगत प्रगतिशील क्रम है जो परिपक्वता प्राप्ति में सहायक होता है।”

विकास चिन्तन का मूल है। यह एक बहुमुखी क्रिया है और इसमें केवल शरीर के अंगों के विकास का ही नहीं प्रत्युत सामाजिक, सांवेगिक अवस्थाओं में होने वाली परिवर्तनों को भी सम्मिलित किया जाता है। इसी के अन्तर्गत शक्तियों और क्षमताओं के विकास को भी गिना जाता है। हेनरी सीसल वील्ड ने विकास को इस प्रकार परिभाषित किया है- (1) विकास के कारण और उसकी प्रक्रिया, किसी क्रिया में निहित प्रक्रिया, (2) मानव मस्तिष्क में सभ्यता की, प्राणी के जीवन के विकास की अवस्था या विकास की वह प्रक्रिया जो अभिवृद्धि, प्रसार आदि में योग देने की स्थिति में हो, (3) विकास की प्रक्रिया का परिणाम जो अनेक कारण, दशायें, वर्ग-भेद आदि सामाजिक समस्याओं के रूप में प्रकट होते हैं।’

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इसी प्रकार जेम्स डेवर ने विकास की परिभाषा दी है-“विकास वह दशा है जो प्रगतिशील परिवर्तन के रूप में प्राणी में सतत् रूप में व्यक्त होती है। यह प्रगतिशील परिवर्तन किसी भी प्राणी में भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक होता है। यह विकास तन्त्र को सामान्य रूप में नियन्त्रित करता है। यह प्रगति का मान-दण्ड है और इसका आरम्भ शून्य से होता है।”


विकास का अध्ययन :

(1) प्राचीन से आधुनिक काल तक- आज ज्ञान-विज्ञान के विकास के साथ-साथ बाल विकास का अध्ययन महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। वेदों में भी बाल विकास पर विशेष ऋचायें मिलती हैं-‘हे प्रिय बालक ! तेरा मन, वाणी, प्राण, नेत्र,श्रोत्र सुविकसित हों। तेरे स्वभाव से कूरता दूर हो, तू शुद्ध और पवित्र हो जाये; तेरा धैर्य सुविकसित हो। दिन रात तुझे शांति दें और माता-पिता सुरक्षा प्रदान करते रहें ।’ चार सौ वर्ष पूर्व प्लेटो ने बालक के विकास तथा प्रशिक्षण पर बल दिया था। प्लेटो का विचार था कि शिशु में व्यक्तिगत भिन्नता पाई जाती है और उन व्यक्तिगत भिन्नताओं का विकास होना अनिवार्य है। जॉन लॉक ने सत्रहवीं शताब्दी में बालक के विकास पर बल देते हुए उसकी सहज प्रवृत्तियों तथा आदतों के विकास पर बल दिया था। रूसो ने प्रकृति की ओर चलो का नारा लगाया और प्रगतिशील की योजना में एमिल एवं सोफी नामक पात्रों के माध्यम से बालक के विकास की प्रक्रिया को समझाया। इसी प्रकार हरलॉक ने बाल-विकास एवं विकासात्मक मनोविज्ञान नामक पुस्तकों में बाल विकास के अध्ययनों, विचारधाराओं एवं प्रक्रिया पर प्रकाश डाला है।

(2) जीवन शास्त्रीय पक्ष- बाल विकास के जीव शास्त्रीय अध्ययन का आरम्भ डार्विन के प्राकृतिक उद्विकास एवं अस्तित्व के लिये संघर्ष से हुआ। इसी प्रकार मेंडल ने चूहों, मटरों, मुर्गी के चूजों पर प्रयोग करके बाल विकास के महत्त्वपूर्ण पक्ष वंशक्रम तथा वातावरण की नवीन उद्भावनायें प्रकाशित की। पॉवलव ने कुत्तों पर प्रयोग करके अनुकूलित अनुक्रिया पर प्रकाश डाला । शिशुओं में सांवेगिक दशाओं का अध्ययन करने के लिये वाटसन ने अनेक प्रयोग किये।

(3) जीवन वृत्त- जीवन वृत्त के द्वारा भी बाल विकास का अध्ययन किया गया । अठारहवीं शताब्दी में टीइडमैन ने डेढ़ से दो वर्ष तक के बालकों के शारीरिक तथा मनोवैज्ञानिक विकास का अध्ययन किया। शिशुओं के अनेक जीवन-वृत्त बीसवीं शताब्दी में प्रकाशित हुए हैं । यद्यपि ये जीवन-वृत्त अधिकारिक नहीं हैं किन्तु बाल विकास के अध्ययन में सहायक हुए हैं।

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(4) प्रयोगात्मकता- वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित होने से प्रयोगात्मक तथा निरीक्षणात्मक अध्ययनों का विकास हुआ। जी. स्टेनहल हॉल ने बाल विकास के क्षेत्र में प्रयोगात्मक दिशा प्रदान की है। कोंकलिन, प्रैसल, गोडार्ड, कुल्हमैन, मतीर एवं टर्मन ने मानव विकास के अध्ययन हेतु अनेक विधियों तथा प्रणालियों का आविष्कार किया है । हल ने किशोरों के अध्ययन सम्बन्धी दो प्रतिवेदनों में बाल-विकास सम्बन्धी नवीन उद्भावनायें स्थापित की हैं बीने ने बालकों के मनोवैज्ञानिक विकास के अध्ययन में कीर्तिमान स्थापित किया है। इसने साइमन के साथ मिलकर अनेक बुद्धि-परीक्षणों की रचना की है ।

आज विश्व भर में अनेक विद्वान तथा अनेक संस्थायें बाल विकास के अध्ययन में लगी हैं। इनके द्वारा किये गये अध्ययनों के परिणामों से अनेक योजनायें आरम्भ की गई हैं और बालकों के व्यक्तित्व का विकास किया गया है। भारत में ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ पब्लिक कोऑपरेशन एण्ड चाइल्ड डेवलपमेंट’, इस दिशा में कार्य कर रहा है।

अभिवृद्धि और विकास :

बालक के विकास का स्वरूप दो सामान्य कारकों से प्रभावित होता है-

(1) बालक के पिता के पितृ-सूत्रों की रचना तथा वंशक्रम,  (2) गर्भ स्थिति के बाद पड़ने वाले प्रभाव । जैविक वंशक्रम तथा सामाजिक वंशक्रम की प्रक्रिया में अनेक छोटे-मोटे कारक-प्रतिकारक विद्यमान रहते हैं। पितृ-सूत्रों पर पड़ने वाले प्रभावों से बालक की विकास प्रक्रिया प्रभावित होती है। विकास के जैविक स्वरूप की व्याख्या जीवन-प्रतिमान के संदर्भ में सभी अवस्थाओं में की जानी चाहिये। विकास, सर्वांगीण पक्ष को लेकर चलता है। इसमें किसी एक पहलू का अध्ययन पृथक रूप से नहीं किया जा सकता।

(1) विकास का परिपक्वता से सम्बन्ध- अभिवृद्धि का सम्बन्ध शारीरिक तथा मानसिक परिपक्वता से है। विकास वातावरण से भी सम्बन्धित है। एक अन्य विचार यह भी है कि विकास प्राणी में होने वाले कुल परिवर्तन का योग है जबकि अभिवृद्धि किसी विशेष पक्ष अथवा आंशिक स्वरूप को ही व्यक्त करता है। परन्तु हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि अभिवृद्धि तथा विकास एक-दूसरे के पूरक दो शब्द हैं।

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(2) समान प्रतिमान नहीं- अभिवृद्धि में विकास का प्रतिमान समान नहीं होता। अभिवृद्धि में व्यक्तिगत भेद पाये जाते हैं। प्रत्येक बालक की अभिवृद्धि भिन्न होती है। विकास के पदों में समानता पाई जाती है, परन्तु इसकी दर, सीमा तथा भिन्नता में अन्तर होता है अभिवृद्धि पर वातावरण से सम्बन्धित कारकों का प्रभाव पड़ता है। अभिवृद्धि पर यह प्रभाव लाभप्रद है अथवा हानिप्रद, यह वातावरणीय कारकों पर निर्भर करता है। व्यक्ति अपने वातावरण के प्रति प्रतिक्रिया व्यक्त करता है और परिपक्वता के विकास का सम्बन्ध अभिवृद्धि से है।

(3) व्यवस्थित पद- जहाँ तक विकास का सम्बन्ध है, वह एक व्यवस्थित पहलू है। यह एक प्रक्रिया है जिसमें आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों एवं मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं द्वारा उद्दीप्त परिवर्तन का अध्ययन किया जाता है। एन्डरसन ने विकास को शारीरिक परिवर्तन ही नहीं माना अपितु वह इसे संरचना एवं प्रकार्य को समन्वित करने की प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करता है।


विकास के सिद्धान्त :

अनेक विद्वानों ने विकास के सिद्धान्तों का अध्ययन किया किन्तु इरिक एच. इरिकसन, जीन पियाजे तथा रॉबर्ट आर. सीयर्स का योगदान इस प्रवृत्ति तथा विद्या को विकसित करने में विशेष रहा है। इन तीनों विद्वानों ने विकास के पृथक्-पृथक् पहलुओं-संवेगात्मक, मानसिक तथा सामाजिक विकास के सन्दर्भ में चिन्तन किया है। ये सभी सिद्धान्त बाल विकास के सन्दर्भ को समग्र रूप प्रदान करते हैं। ये सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

1. मनोविश्लेषणात्मक सिद्धान्त- इस मत के प्रतिपादक इरिक एच. इरिकसन हैं । इनका जन्म जर्मनी के फ्रेंकफर्ट क्षेत्र में डेनिस माता-पिता से 1902 में हुआ था। पिता की मृत्यु शीघ्र हो जाने के कारण इनकी माता ने पुनर्विवाह किया और इनके सौतेले पिता ने इनको गोद ले लिया। इनका आरम्भ का नाम हॉमबर्गर था परन्तु बाद में इन्होंने अपना नाम बदल लिया। इरिकसन ने अपनी धारणा का विकास फ्रायड के सिद्धान्तों पर किया । इरिकसन अपनी बौद्धिकता के प्रति इतना ईमानदार रहा है कि वह कहता है-“मैं नये सिद्धान्त का विकास नहीं कर रहा हूँ ।’ इसका मत फ्रायड के मत से तीन रूप में भिन्न है।

(1) इरिकसन इड से इगो तक के परिवर्तन पर बल देता है। इस धारणा का विकास फ्रायड पॉब्लम्स ऑफ एक्जाइटी में कर चुका है । इरिकसन यह मानकर चलता है कि इड तथा इगो से ही पारस्परिक सामाजिक सम्बन्धों का विकास होता है।

(2) इरिकसन ने व्यक्ति को उसके परिवेश में देखा है। यह परिवेश व्यक्ति, परिवार, समाज तथा संस्कृति का होता है। इससे सामाजिक गतिशीलता का विकास होता है।

(3) इरिकसन समय की माँग के प्रति भी सचेत रहा है। मनोवैज्ञानिक बाधाओं पर विजय प्राप्त करके ही व्यक्ति को विकास के अवसर प्राप्त होते हैं।

इरिकसन द्वारा प्रतिपादित विकास के मनो-विश्लेषणात्मक सिद्धान्तों का सार यह है-

(i) यह सिद्धान्त सम्पूर्णता तथा संगठन पर बल देता है।

(ii) मानव जीवन में विकास का क्रम होता है।

(iii) वह आधारभूत मानव मूल्यों में विश्वास करता है ।

(iv) मानव व्यवहार का संचालन करने वाले तत्त्वों यथा-शक्ति, चालक, -प्रवृत्ति के अस्तित्व पर विश्वास करता है। काम

(v) वह फ्रायड के इस मत का पूर्ण रूप से समर्थक है कि मानवीय कार्यों से जीवन के अनेक पक्षों का विकास होता है।

(vi) मानव विकास के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, वैचारिक वातावरण का निर्माण अनिवार्य है।

इरिकसन का योगदान बाल विकास के क्षेत्र में नयी धारणाओं तथा मान्यताओं को विकसित करने में महत्त्वपूर्ण रहा है। हैनरी डब्ल्यू. मेयर के अनुसार-“फ्रायड के बाद अनुसंधानकर्ता, सर्जनात्मक चिन्तन तथा लेखक के रूप में इरिकसन ने सम्पूर्ण परिवेश के सन्दर्भ में व्यक्ति का अध्ययन किया है। मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के क्षेत्र में उसने महान् कार्य किया है। उसने व्यक्ति को वातावरण के सन्दर्भ में आन्तरिक शक्तियों का उपयोगकर्ता माना है।”

2. ज्ञानात्मक सिद्धान्त- इस मत के प्रतिपादक जीन पियाजे का जन्म (1896) ई. में न्यू चैटल में हुआ था। इनके अपने विकास पर पागल माँ और बुद्धिमान पिता का प्रभाव पड़ा।

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पियाजे के विचारों पर प्राकृतिक विज्ञान के साथ-साथ दर्शन तथा मनोविज्ञान का प्रभाव भी परिलक्षित होता है।

पियाजे का मत एक-पक्षीय है। यह मानव व्यवहार पर अधिक बल देता है। उसने अपने अध्ययन का आधार जीवशास्त्र को बनाया। उसके अध्ययन का प्राराम्भ सर्वेक्षण तथा अनुसन्धान है। उसने विभिन्न प्रकार के प्राणियों का सर्वेक्षण करके आधारभूत सूचनायें एकत्र की। उसने इस आधार पर सार्वभौमिक नियम के दर्शन किये। विकास क्रम-विश्व भर में एकताहोती और वह प्राकृतिक है। अलग-अलग प्राणियों में यह पृथक्-पृथक् रूप जाता है। उसने व्यक्तित्व के विकास में चेतन, अचेतन, पहचान, खेल, संवेग आदि का योग बताया। उसके विचार में व्यक्ति परिवेश में विकसित आवश्यकताओं को पूर्ण करने की प्रक्रिया से ही विकास-पथ पर बढ़ता है। पियाजे के मत का सार इस प्रकार है-

(i) सभी विकास एक दिशा में होते हैं।

(ii) विकास के सभी पक्ष मानसिक स्तरों पर पाये जाते हैं।

(iii) बालक तथा प्रौढ़ के व्यवहार में अन्तर आता है।

(iv) सभी प्रकार के परिपक्व व्यवहारों का मूल शैशवावस्था के व्यवहार में है।

पियाजे ने विकास के सिद्धान्त को इन्द्रियगति संज्ञान की आरम्भिक अवस्था तथा संज्ञानावस्था में बाँटा है। आरम्भ के 24 मास में इन्द्रियाति का विकास होता है। इसके बाद संज्ञानात्मक विकास होता चलता है। इसी में चिन्तन, तर्क तथा कल्पना का विकास होता है । पियाजे द्वारा प्रतिपादित विकास की दर इतनी क्रमबद्ध है कि उसने अनेक नवीन धारणाओं को विकसित किया है-

(i) विकास के सभी पक्ष समान क्रम में आगे बढ़ते हैं।

(ii) विकास की जटिल प्रक्रिया में विकास प्राकृतिक एवं स्वाभाविक रूप से बढ़ता है।

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(iii) हर प्रकार का विकास शुद्ध सामान्य समस्या से आरभ होता है।

(iv) पहले शारीरिक, फिर सामाजिक तथा वैचारिक विकास होता है। है

(v) व्यक्तित्व के विकास में अहं का योग प्रमुख रहता है।

(vi) बौद्धिक व्यवहार सक्रिय तथा निष्क्रिय रूप से विकसित होता है।

(vii) विकास स्थूल से सूक्ष्म की ओर होता है।

(viii) नैतिकता, न्याय एवं अवरोध का विकास सामाजिक पारस्परिक से अधिक होता है।

(ix) विकास के समय पूर्व अवस्था में प्राप्त गुण एवं विशेषतायें उम्र भर साथ रहती हैं।

हैनरी डब्ल्यू. मेयर ने ठीक ही कहा है-“पियाजे की विकासात्मक प्रवृत्तियाँ व्यक्ति की क्षमता का वर्णन करती हैं। इससे हम व्यक्ति की दशा, अवबोध के विस्तार आदि की घोषणा विकास के मध्य कर सकते हैं।”

3. अधिगम सिद्धान्त- विकास के अधिगम सिद्धान्त का प्रतिपादन रॉबर्ट रिचर्डसन सीयर्स ने किया है। इनका जन्म (1908) में पालो अल्टो कैलीफोर्निया में हुआ था। इनकी विशेष रुचि बालक के अधिगम की प्रक्रिया में थी। इनके विचारों पर क्लार्क हल का प्रभाव था। इनके द्वारा प्रतिपादित विचारों में व्यवहारवाद तथा मनोविश्लेषणवाद, दोनों का समन्वय पाया जाता है।

अधिगम सिद्धान्त बालक की आधारभूत आवश्यकताओं तथा उनके आधार पर सीखने की क्षमता के विकास पर बल देता है। आवश्यकतायें उन चालकों को जन्म देती हैं, जो व्यक्ति को किसी क्रिया के सीखने के लिये प्रेरित करते हैं। बालक स्तन चूस सकता है, वस्तु पकड़ता है,खाता है, पीता है, इन सभी क्रियाओं के मूल में उसकी आवश्यकतायें निहित होती हैं। सीयर्स का मत व्याख्यात्मक है। यह ऐसे विकास की ओर संकेत करता है जो अछूते रहे हैं। बालक के विकास के सम्बन्ध में उसका मत है-

(i) विकास के साथ-साथ बालक के सीखने तथा कार्य करने की गति में भी परिवर्तन होता रहता है।

(ii) बालक में जिज्ञासा तथा इच्छा सामाजिक सम्पर्क के कारण उत्पन्न होती है ।

बालक का शारीरिक तथा सामाजिक विकास उसके वातावरण पर निर्भर करता है। पूर्व व्यवहार के क्रम पर ही विकास की गति निर्भर करती है। सामाजीकरण की प्रक्रिया भी इसी आधार पर होती है। माता-पिता की भूमिका इस प्रक्रिया में अत्यन्त जटिल हो जाती है। सीयर्स बाल-विकास की प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक कारकों पर बल नहीं देता। इसलिए वह कहता है- “बालक का पोषण एक सतत् क्रिया है। वह प्रत्येक क्षण, जो बालक अपने माता-पिता के साथ व्यतीत करता है, उसके भावी व्यवहार की ओर संकेत करता है। बालक का विकास क्रमबद्ध प्रक्रिया है। वह जीवन की दशाओं के अनुरूप नवीन व्यवहार को ग्रहण करता है।”

इसलिये यह कहा जा सकता है कि बालक का विकास बालक के व्यवहार की पूर्णता है। बालक जैसा व्यवहार करता है, उसका वैसा ही विकास होता है। उसका व्यवहार, उसके सामाजिक अनुभवों की देन है। यह अभिभावक एवं बालक के विकास की प्रस्फुटित होने वाली प्रक्रिया है।

विकास की विशेषतायें :

जब हम किसी भी व्यक्ति के विकास की चर्चा करते हैं तो हमारा आशय उसकी कार्यक्षमता परिपक्वता तथा शक्तिग्रहण करने से होता है। इसलिये विकास के सामान्य सिद्धान्तों पर विचार करते समय हमें इन सिद्धान्तों पर विशेष ध्यान देना होगा

(1) परिपक्वता का सिद्धान्त- जब व्यक्ति अपनी आन्तरिक शक्तियों एवं वातावरण के प्रति कुशलतापूर्वक प्रतिक्रिया करता है, तब हम यह मान लेते हैं कि वह किन्हीं विशिष्ट क्रियाओं को करने में सक्षम अथवा परिपक्व हो गया है। परिपक्वता में सामान्यतः स्थायित्व आ जाता है। यह स्थायित्व कद, व्यक्तित्व निष्पत्ति आदि में होता है जिसका प्रभाव अन्ततः बालक के सीखने की क्षमता पर पड़ता है। परिपक्वता एवं सीखना या अधिगम, विकास के दो पहलू ये एक-दूसरे से इतने जुड़े हैं कि इनको अलग नहीं किया जा सकता। परिपक्वता की क्षमता पर वंशक्रम तथा वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। हैं।

(2) मूल-प्रवृत्यात्मक अभिगमन- विकास के संदर्भ में मैक्डूगल ने मूल प्रवृत्यात्मक व्यवहार का विश्लेषण किया है। मैक्डूगल ने नारियों में मातृत्व मूल-प्रवृत्ति बताई और इस बात पर बल दिया कि उनका विकास इन मूल प्रवृत्ति के आधार पर होता है। यदि मूल-प्रवृत्ति का प्रयोग केवल जटिल व्यवहारों के प्रतिमानों के लिए होता है और ये प्रतिमान विकास को प्रभावित करते हैं तो हम यह मान सकते हैं कि इनके अभाव में सीखने की क्रिया सम्पन्न नहीं हो सकती । क्लार्क एवं वीर्घ ने नर चिम्पांजी के शरीर में स्त्री-हारमोन प्रवेश कराये और इसके परिणामस्वरूप उसमें आज्ञा पालन तथा सामाजिक प्रभुत्व के गुण आ गये । इसका कारण यह है कि मनुष्य का व्यवहार किन्हीं ग्रन्थियों के विकास तथा उनकी रासायनिक क्रिया से प्रभावित होता है।

(3) सहज क्रिया अभिगमन- वाटसन का कहना है कि सभी बालक जन्म के समय समान होते हैं। उनकी निश्चित शारीरिक रचना होती है, उनमें कुछ सहज क्रियायें होती हैं एवं तीन संवेग होते हैं-प्रेम, भय और क्रोध। इनके अतिरिक्त कुछ अधिग्रहणात्मक प्रवृत्तियाँ होती हैं।

वातावरण के अनुसार बालक इनका प्रयोग करता है और यही उनकी अनुक्रिया होती है। यह सहज क्रिया ही बालक के विकास की ओर संकेत करती है।


विकास की कुछ विशिष्ट विशेषताएं :

(1) सामान्य से विशिष्ट की ओर- इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास सामान्य परिस्थिति से होता है। धीरे-धीरे यह विकास विशिष्ट स्थिति की ओर होता है। आरम्भ में बालक पूरे हाथ का संचालन करता धीरे-धीरे वह अंगुलियों पर भी नियन्त्रण कर लेता है। इसी प्रकार सम्बन्धों का विकास होता है। आरम्भ में वह केवल उत्तेजना अनुभव करता है । कालान्तर में वह संवेगों की अभिव्यक्ति करना भी सीख लेता है। भाषा का विकास भी क्रन्दन से आरम्भ होता है। निरर्थक सार्थक शब्दों के माध्यम से वह वाक्यों के विकास तक पहुँचता है ।

(2) मस्तकोषमुखी सिद्धान्त- इस मत के अनुयायियों का कथन है कि विकास की क्रिया का आरम्भ सिर से होता है । भ्रूणावस्था में भी पहले सिर का विकास होता है। सिर के पश्चात् धड़ एवं टाँगों आदि का विकास होता है। जन्म के पश्चात् भी पहले बालक अपने सिर को इधर-उधर घुमाता है तथा उसे ऊपर उठाने का प्रयत्न करता है। बैठने तथा चलने की है प्रक्रिया वह बाद में करता है। यह सिद्धान्त शारीरिक विकास की प्रक्रिया पर आधारित है

(3) निकट-दूर सिद्धान्त- इस मत के मानने वालों का कहना है कि विकास का केन्द्र-बिन्दु स्नायुमण्डल होता है। पहले स्नायुमण्डल का विकास होता है, इसके पश्चात् स्नायुमण्डल के निकट के भागों का विकास होता है जैसे हृदय, छाती, कुहनी आदि। इसके पश्चात् उंगलियों आदि का विकास होता है।

(4) संगठित प्रक्रिया- बालक के विकास से अभिप्राय केवल शारीरिक विकास से नहीं है । शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक विकास भी होने से व्यक्तित्व में पूर्णता आती है । इसलिए ओलसन एवं ह्यूज ने आवयविक आयु का विचार विकसित किया है। इस विचार के अनुसार शारीरिक दृष्टि से कोई बालक 8 वर्ष का है तो वह मानसिक दृष्टि से 12 वर्ष का हो सकता है। संवेगात्मक दृष्टि से वह 14 वर्ष का हो सकता है। अत: विकास को आयु की किसी एक सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है। वह तो एक संगठित प्रक्रिया है।

(5) भिन्नता का सिद्धान्त- विकास की गति समान नहीं होती यह गति जीवन भर चलती रहती है परन्तु इसके स्वरूप भिन्न-भिन्न होते हैं। विकास की गति शैशव में तीव्र होती है। बाल्यावस्था में गति धीमी होती है और किशोरावस्था में यह तीव्र होती हुई पूर्णता प्राप्त करती है। लड़कों तथा लड़कियों का विकास भी समान ढंग से नहीं होता उसमें भी भिन्नता पाई जाती है।

(6) अनवरत प्रक्रिया- विकास की प्रक्रिया गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त तक चलती रहती है। सच यह है कि यह अनवरत् प्रक्रिया है जिसमें प्रत्येक प्राणी को गुजरना पड़ता है । व्यवहार का आधार प्रतिक्षण बदलता रहता है और व्यवहार परिवर्तन से ही विकास की गति की पहचान की जाती है ।

(7) विकास प्रक्रिया के समान प्रतिमान- इस मत के मानने वालों का कथन है कि समान प्रजाति में विकास की गति समान प्रतिमानों से प्रवाहित होती है। मनुष्य चाहे अमेरिका में पैदा हुआ हो या भारत में, उसका शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक भाषा आदि का विकास अन्य व्यक्तियों के समान होता है।


विकास का स्वरूप :

विकास के सामान्य तथा विशेष सिद्धान्तों का अध्ययन करने से एक प्रमुख बात स्पष्ट होती है, वह है-विकास की प्रक्रिया अपनी कुछ विशेषताओं को लेकर आगे बढ़ती है। इससे हमें यह ज्ञात होता है-(1) प्रत्येक बालक से उसकी विकास की अवस्था पर क्या सम्भावना हो सकती है; (2) विकास की इन अवस्थाओं पर व्यवहार का कौनसा रूप विकसित होता है; (3) बालक की आयु, कद, भार एवं मानसिक विकास के अनुसार उसके लिए मार्ग-प्रदर्शन की सम्भावनाओं का विकास कर सकते हैं। विकास प्रक्रिया के दौरान ये विशेषताएं प्रकट होती हैं।

(1) आकार तथा भार- शारीरिक अभिवृद्धि के समय बालक के आकार तथा भार में परिवर्तन दृष्टिगत होता है। जैसे-जैसे बालक बढ़ता है, उसके शरीर के भार में, कद में, व्यास में असामान्य वृद्धि होती है। आन्तरिक अवयवों में हृदय, फेफड़े, आंतें, उदर आदि की अभिवृद्धि होती है। इसी प्रकार मानसिक विकास भी होता है।

(2) आनुपातिक परिवर्तन- विकास की प्रक्रिया के मध्य बालक के शारीरिक विकास में आनुपातिक परिवर्तन होता है । इसी आधार पर बालक लघु प्रौढ़ के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रौढ़ व्यक्ति के शरीर के अनुपात में इसकी वृद्धि होती है। बालक के मानसिक विकास में भी आनुपातिक परिवर्तन दिखाई देते हैं । बालक की रुचि, योग्यता, क्षमता, क्रियाशीलता में आनुपातिक परिवर्तन होता है।

(3) पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन- विकास के साथ-साथ बालक की शारीरिक रूपरेखा में परिवर्तन होते रहते हैं । ये परिवर्तन जाँच, दाँत, छाती आदि में थाइमस तथा पीनियल ग्रन्थियों के कारण होता है। चिन्तन, गतिशीलता, रेंगना, घुटनों के बल चलना, स्वाद, ध्राण शक्ति आदि में भी परिवर्तन होते हैं।

(4) नवीन रूपरेखा ग्रहण करना- विकास प्रक्रिया के मध्य जहाँ पुरानी रूपरेखा समाप्त होती है, वहाँ पर बालक का शरीर नवीन रूपरेखा ग्रहण करने लगता है। उसका शारीरिक मानसिक स्वरूप नवीन रूप में उभरने लगता है। पुराने तथा नए दाँत निकलना, यौन विशेषताओं का उभरना आदि इसके उदाहरण हैं । विकास की विशेषताओं के सन्दर्भ में हैविंगहर्ट ने कहा है-“जब शरीर परिपक्व हो जाता है और व्यक्ति किसी भी कार्य को करने के लिए तैयार रहता है, समाज को उसकी आवश्यकता होती है। ऐसे समय विकास प्रक्रिया में व्यक्ति नवीन ज्ञान तथा कौशल को सीखता है।”

(5) विकास की घोषणा- विकास की गति क्या है ? इनका स्वरूप क्या होगा। इन सब की घोषणा करना सम्भव है। बालक की कलाई के एक्सरे चित्र द्वारा उसके भावी आकार की घोषणा की जा सकती है। बालक के विकास की गति से उसी के आधार पर भावी आयोजना की जा सकती है ।

(6) विकास का निश्चित प्रतिमान- विकास जिस भी स्वरूप में होता है, उसका निश्चित प्रारूप होता है। देखने में हमें वह भले ही अव्यवस्थित लगता हो परन्तु वह निश्चित क्रम में उभरता है। गैसल ने इसे प्रकृति का नियम माना है।

(7) विकास में विशिष्टता पाई जाती है- विकास की प्रत्येक अवस्था में कुछ संकुलों का विकास होता है। फील्डमैन के अनुसार-“मानव जीवन अनेक अवस्थाओं में गुजरता है, मानव जीवन गर्भीय-अवस्था से किसी भी अवस्था में कम नहीं है। प्रत्येक अवस्था में प्रभावशाली विशेषतायें उभरती हैं, उनमें विशिष्टतायें होती हैं। इसमें एकता तथा वैशिष्ट्य पाया जाता है।

विकास की इन विशेषताओं को संक्षेप में इस प्रकार कहा जा सकता है-

1. विकास का निश्चित स्वरूप होता है।

2. विकास प्रकृति द्वारा निर्धारित क्रम से होता है।

3. विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है।

4. विकास एक सतत क्रिया है।

5. विकास की दर में भिन्नता पाई जाती है।

6. शरीर के विभिन्न भागों का विकास भिन्न-भिन्न रूपों में होता है।

7. विकास के अधिकांश संकुल पारस्परिक रूप से सम्बन्धित होते हैं।

8. विकास की भावी घोषणा सम्भव है।

9. विकास की प्रत्येक अवस्था की अपनी विशेषतायें होती हैं।

10. हम जिन व्यवहारों को विकास की प्रक्रिया के दौरान असामान्य समझते हैं, वे सामान्य होते हैं।

11. प्रत्येक व्यक्ति विकास की प्रक्रिया से होकर गुजरता है।


विकास को प्रभावित करने वाले कारक :

बालक का विकास किसी भी राष्ट्र के लिए निवेश है। यदि उसका विकास समुचित ढंग से नहीं होता तो इससे बालक तो प्रभावित होता ही है, परन्तु राष्ट्र कमजोर पड़ता जाता है विकास के उद्देश्य की व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा है-“नैतिक बनो, वीर बनो, सम्पूर्ण हृदय वाले नैतिक तथा विकट परिस्थितियों से जूझने वाले मनुष्य बनो। धर्म तत्त्वों से उलझकर मानसिक कठिनाइयों में मत पड़ो। कायर ही पाप करते हैं। वीर कभी पाप नहीं करते, मन से भी नहीं” अत: विकास की प्रक्रिया का उद्देश्य बालक को वीर, संकल्प-शक्तिवान, दृढ़-प्रतिज्ञ बनाना है। इसकी तैयारी बालक को नहीं अपितु उनकी माँ की करनी पड़ती है। बालक के विकास को प्रभावित करने वाले प्रतिकारक इस प्रकार हैं।

(1) बुद्धि- बुद्धि का बालक के विकास पर अधिक एवं महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। यदि बालक बुद्धिमान है तो उसमें नवीन क्रियाओं को सीखने में तत्परता दिखाई देती है और उसमें परिपक्वता शीघ्र आती है। इसके विपरीत मन्द बुद्धि बालकों का शारीरिक विकास भले ही हो जाये, किन्तु उसकी सामाजिक सांवेगिक, नैतिक, मानसिक विकास गति बहुत धीमी रहती है। टर्मन ने बालक के पहली बार चलने तथा काम करने की अवस्था का अध्ययन किया। 13वें मास में चलने वाले प्रखर बुद्धि, 14वें मास में चलने वाले सामान्य, 22वें मास में चलने वाले मन्दबुद्धि और 23वें मास में चलने वाले मूढ़ बालक पाये गये। इसी प्रकार बोलने के अध्ययन में क्रमशः 11, 16, 34, 51 मास में बोलने वाले बालक इसी क्रम में प्रखर बुद्धि, सामान्य, मन्द एवं मूढ़ पाये गये।

(2) यौन- यौन का बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण योग होता है। इसका प्रभाव बालक के शारीरिक तथा मानसिक विकास पर पड़ता है। जन्म के समय लड़के, लड़कियों से आकार में बड़े होते हैं किन्तु लड़कियों की अभिवृद्धि तीव्र गति से होती है। यौन-परिपक्वता लड़कियों में शीघ्र आती है एवं वे अपना पूर्ण आकार लड़कों की अपेक्षा शीघ्र ग्रहण कर लेती है। लड़कों का मानसिक विकास लड़कियों की अपेक्षा देर से होता है।

(3) ग्रन्थियों का स्राव- ग्रन्थियों के अध्ययन ने विकास के क्षेत्र में नवीन परिणाम प्रस्तुत किये हैं। बालक के विकास पर ग्रन्थियों के अन्तःस्राव का प्रभाव पड़ता है। यह प्रभाव जन्मपूर्व तथा जन्म-पश्चात् दोनों दशाओं में होता है। उदाहरणार्थ, गले में थायराइड ग्रन्थि के -थायराइड ग्रन्थियों द्वारा रक्त में कैल्शियम का परिभ्रमण होता है। इसके दोष से मांसपेशियों में अत्यधिक संवेदनशीलता आती है। मानसिक तथा शारीरिक वृद्धि के लिए थायरॉक्सिन जो कि थायरॉइड ग्रन्थियों से निकलता है, आवश्यक होता है। इसकी कमी से बालक मूढ़ हो जाता है। इसी प्रकार छाती में स्थित थायमस ग्रन्थि तथा मस्तिष्क के आधार पर स्थित पीनियल ग्रन्थियों से होने वाले स्राव यौन विकास करते हैं। इसमें दोष आने से बालक में यौन परिपक्वता शीघ्र आ जाती है ।

(4) पोषण- बालक के विकास पर पोषण का पूरा-पूरा प्रभाव पड़ता है । बालक के लिए वह आहार ही पर्याप्त नहीं है अपितु उस आहार में निहित संतुलित पोषण तत्त्वों का होना भी अनिवार्य है। विटामिन, प्रोटीन, वसा, कार्बोहाइड्रेट, लवण, चीनी आदि ऐसे तत्त्व हैं जो शरीर तथा मस्तिष्क दोनों के सन्तुलित विकास में योग देते हैं। पोषक तत्त्वों के अभाव में बालक का विकास सन्तुलित ढंग से नहीं होता है।

(5) शुद्ध वायु एवं प्रकाश- जीवन के आरम्भिक दिनों में बालक को शुद्ध वायु तथा प्रकाश की नितान्त आवश्यकता होती है । वायु तथा प्रकाश बालक के विकास के लिए अनिवार्य तत्त्व हैं। इनके अभाव से शरीर अक्षम हो जाता है।

(6) रोग एवं चोट- बालक के सिर में चोट लगने से उसका मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है। यदि माता गर्भकाल में धूम्रपान तथा औषधि के रूप में टॉक्सिन का सेवन करती रही है तो भी उसका प्रभाव गर्भ में स्थित बालक पर पड़ता है। बालक यदि रोगी हो तो उसके भावी विकास पर दूषित प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

(7) प्रजाति- प्रजाति तत्त्वों का प्रभाव बालक के विकास पर देखा गया है। यद्यपि हरलॉक ने इस मत की पुष्टि नहीं की किन्तु अँग प्रजातीय प्रभाव को बालक के विकास में महत्त्वपूर्ण मानते हैं। भू-मध्यसागरीय तट पर रहने वाले बालकों का शारीरिक विकास शेष योरोप के बालकों की अपेक्षा शीघ्र होता है । नीग्रो बच्चे, श्वेत बच्चों की अपेक्षा 80 प्रतिशत परिपक्वता शीघ्र प्राप्त करते हैं

(8) संस्कृति- डेनिस ने बालकों के विकास पर संस्कृति के प्रभाव का अध्ययन किया। उसने अमेरिका के रेड इण्डियन बच्चों तथा शेष सामान्य अमेरिकी बच्चों का अध्ययन किया । उसने यह परिणाम निकाला कि सांस्कृतिक भिन्नता होते हुए भी रैड इण्डियन बच्चों की सामाजिक तथा गत्यात्मक अनुक्रियायें समान रहीं। शर्म, भय आदि का विकास समान आयु स्तर पर हुआ। उसने 40 श्वेत बच्चों के इतिहास का अध्ययन करके तुलना भी की। डेनिस का निष्कर्ष यह था-“शैशव काल की विशेषतायें सार्वभौम हैं एवं संस्कृति उनमें भिन्नता उत्पन्न करती है।”

(9) परिवार में स्थान- बालक का विकास इस बात पर भी निर्भर करता है कि परिवार में उसकी स्थिति क्या है ? प्राय: देखा गया है कि पहला बालक अथवा अन्तिम बालक विशेष लाड़ प्यार से पाला जाता है। सीखने की जहाँ तक बात है, छोटे बच्चे अपने बड़े भाई-बहनों की अपेक्षा शीघ्र सीखते हैं। लेखक की बड़ी लड़की ने साइकिल चलाना आठ दिन में सीखा और जब साइकिल घर में आ गई तो छोटी लड़की ने एक ही दिन में साइकिल चलाना सीख लिया।

इस प्रकार हम देखते हैं कि विकास तथा अभिवृद्धि को प्रभावित करने में इन सभी प्रतिकारकों का थोड़ा बहुत योग रहता है और कोई भी व्यक्ति इससे अछूता नहीं रह सकता।


विकास की अध्ययन प्रणाली :

किसी भी विज्ञान की समस्याओं का अध्ययन करने के लिए कुछ विधियों तथा प्रविधियों का सहारा लेना पड़ता है। विधियाँ तथा प्रविधियाँ दोष रहित होनी चाहिए। इनसे प्राप्त परिणाम वैध तथा विश्वसनीय हों। बाल विकास का अध्ययन करने के लिए अनेक प्रणालियाँ प्रचलित हैं, उनमें प्रमुख ये हैं-

(1) जीवन वृत्तान्त विधि- इस विधि में बालकों के जीवन-क्रम का लेखा जोखा सतर्कता पूर्वक एकत्र किया जाता है। बालक के जन्म के समय से होने वाली अनेक घटनाओं का अंकन किया जाता है। बालक की सहज क्रिया, ज्ञानात्मक और क्रियात्मक प्रतिक्रियाओं का अध्ययन भी इस विधि के अन्तर्गत किया जाता है। माता-पिता, अभिभावक तथा रिश्तेदार से बालक के विषय में सूचना प्राप्त की जाती है

यह विधि बहुत पुरानी है टाइडमैन ने सर्वप्रथम इस विधि का प्रयोग 1787 ई. में किया था। इसके बाद (1885) ई. में प्रेयर ने जर्मनी में इस विधि का प्रयोग किया। इस विधि का पूर्ण उल्लेख प्रेयर ने अपनी पुस्तक ‘द माइण्ड ऑफ द चाइल्ड’ में किया है । शीन तथा वैलेनटीन ने अमेरिका तथा इंगलैण्ड में इस विधि का प्रयोग किया। यह विधि बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है। इससे बालक के विकास का क्रमबद्ध विवरण प्राप्त होता है। यह विधि सरल तथा सुगम है। इस विधि में कुछ दोष भी हैं, जो इस प्रकार हैं-

(i) माता-पिता प्रायः अपने बच्चों के विषय में गलत सूचनायें देते हैं।

(ii) जीवन की घटनाओं का संकलन करने में कोई निश्चित योजना नहीं अपनाई जाती ।

(iii) संकलित घटनाओं में यदि तथ्य दूषित हैं तो उनसे प्राप्त परिणामों में वैधता तथा विश्वसनीयता नहीं पाई जाती।

जीवन वृत्तान्त विधि के इन दोषों को सतर्कता बरत कर नियन्त्रित किया जा सकता है तथा उनको दूर किया जा सकता है।

(2) आत्मनिष्ठ अंकन विधि- बालकों के व्यक्तित्व का अध्ययन करने के लिए इस विधि का प्रयोग किया जाता है। इसके अन्तर्गत बालक के अनौपचारिक व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। यह विधि अभियांत्रिक है। इस विधि में अनेक बातें बालकों के विषय में पता चलती हैं इन बातों तथा तथ्यों में अनेक उपयोगी होती हैं। बालक जो कुछ भी कहता तथा करता है, उसमें उसका व्यक्तित्व निहित होता है। जो बालक साहित्य पढ़ने में रुचि लेते हैं, उनमें साहित्यकार बनने की संभावनायें विकसित हो जाती हैं।

यह विधि अत्यन्त सरल है। इस विधि से प्राप्त सूचनायें अन्य विधियों से प्राप्त सूचनाओं के साथ तुलना करने में उपयोगी सिद्ध हुई हैं। साथ ही इस विधि को पूर्णरूप से आत्मनिष्ठ भी माना जाता है, क्योंकि इससे प्राप्त परिणामों का विश्लेषण भी प्रयोगकर्ता आत्मनिष्ठता के साथ करता है।

(3) नियन्त्रित निरीक्षण विधि- यह विधि बालक के निजी व्यवहार का अंकन करने में सहायक होती हैं। इसमें निरीक्षणकर्ता चैकलिस्ट या सिम्पटन शीट के द्वारा बालक के व्यवहार का अंकन करता है । इस विधि की अनेक प्रविधियों में से प्रमुख इस प्रकार हैं-

(i) परिस्थिति विश्लेषण- विभिन्न परिस्थितियों में घटने वाले बालक के व्यवहार का अध्ययन इस विधि द्वारा किया जाता है। माता-पिता, शिक्षक, साथी, समुदाय आदि सभी पक्षों के साथ बालक के व्यवहार में क्यों भिन्नता पाई जाती हैं, इस बात की जानकारी उन परिस्थितियों का विश्लेषण करने से होती हैं जिनमें निर्दिष्ट व्यवहार किया गया है।

(ii) सामुदायिक सर्वेक्षण- इस विधि द्वारा किसी समुदाय में रहने वाले बालकों का अध्ययन किया जाता है। इससे किसी विशेष समुदाय के बालकों में विशेष व्यवहार क्यों उत्पन्न होता है, यह अन्य समुदायों के बालकों के व्यवहार से क्यों भिन्न होता है, की जानकारी मिलती है।

(iii) समय निदर्शन- इस विधि द्वारा किसी निर्धारित समय में बालक के विकास तथा व्यवहार का निरीक्षण किया जाता है । एक वर्ष में अनेक बालकों के शारीरिक विकास में भिन्नता तथा उसके कारकों की जानकारी इस विधि से हो जाती है।

(iv) चैक-लिस्ट- यह बालकों के विभिन्न प्रकार के विकास तथा व्यवहारों की एक सूची होती है। इस सूची में दिये गये पदों के अनुसार जाँच करके ही व्यवहार तथा विकास का निरीक्षण किया जाता है।

उपर्युक्त चारों प्रविधियों की सीमायें इस प्रकार हैं-

(अ) इनका प्रयोग प्रशिक्षित व्यक्ति ही कर सकते हैं।

(ब) इन विधियों द्वारा एक साथ बहुत से बालकों का अध्ययन नहीं किया जा सकता।

इन विधियों का प्रयोग करते समय वातावरण को नियन्त्रित करने में कठिनाई आती है।

(4) मनोभौतिकी विधि- इस विधि द्वारा मन तथा शरीर के सम्बन्धों के आधार पर व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। शरीर के विकास के साथ-साथ शरीर की अन्य मानसिक शक्तियों का विकास भी होता है। इसी अध्ययन पर बिनेट ने बुद्धि-लब्धि की कल्पना की तथा मानसिक आयु का विचार प्रतिस्थापित किया।

इस विधि में उद्दीपन, अनुक्रिया के मध्य होने वाले सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है। किसी भी उद्दीपन से शरीर तथा व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं, यह जानना भी इस विधि का उद्देश्य है । इसलिए डी.के. कैडलैंड ने कहा है-“मनोभौतिकी, उत्तेजनाओं तथा अन्य उत्तेजनाओं के प्रति हमारी मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाओं के मध्य सम्बन्ध स्थापित करती है।” फैचनर ने इसे और भी अधिक स्पष्ट करते हुए कहा है- “मनोभौतिकी मन तथा शरीर के मध्य निर्भरता के कार्यात्मक सम्बन्धों का विज्ञान है।” इस विधि द्वारा प्राणी की अवसीमा की सत्यता को जानने का प्रयास किया जाता है। सीमा विधि, मध्यमान अशुद्धि, सतत् उद्दीपन विधि आदि का प्रयोग इस विधि में किया जाता है ।

(5) प्रश्नावली विधि- अनेक प्रश्नों के उत्तर बालकों से प्राप्त किये जाते हैं। उनके उत्तरों के अध्ययन पर बालक के विकास का अध्ययन किया जाता है। जी. स्टेनले हॉल ने सर्वप्रथम 123 प्रश्नों की सूची बोस्टन स्कूल के बच्चों का अध्ययन करने के लिए तैयार की। पाइल्स, स्टोल्स आदि ने भी इस विधि का आश्रय लिया। इस विधि की सीमायें इस प्रकार हैं-

(i) बच्चे प्रश्नों का भाव कठिन भाषा होने के कारण समझ नहीं पाते ।

(ii) जानबूझ कर गलत उत्तर आ जाते हैं।

(iii) काम सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर नहीं मिल पाते ।

(iv) माता-पिता पक्षपातपूर्ण उत्तर देते हैं।

(6) चिकित्सात्मक विधि- जी. लेस्टर एण्डर्सन ने इस विधि के विषय में कहा है-“यह साधारणतया विशिष्ट अधिगम, व्यक्तित्व या आचरण सम्बन्धी जटिल ग्रन्थियों के अध्ययन के लिए काम में लाई जाती है और उसमें विचाराधीन समस्या के अनुकूल विविध क्लिनिकल कार्य पद्धतियाँ तथा प्रविधियाँ इस्तेमाल की जाती हैं। उनका लक्ष्य इस बात को पहचानना या मालूम करना होता है कि उनके पात्र की विधि पर आवश्यकतायें क्या हैं? यह ग्रन्थि किस कारण या किन कारणों से पैदा हुई है और पात्र को क्या सहायता दी जानी चाहिए।” बालकों में कभी-कभी असामान्य व्यवहार पाया जाता है। यदि इस असामान्य व्यवहार का समय रहते उपचार नहीं किया जाता तो उसमें मानसिक विक्षिप्तता विकसित होने लगती है। चिकित्सात्मक विधि द्वारा ही ऐसे बालकों का उपचार किया जाता है ।

(7) प्रयोगात्मक विधि- इस प्रणाली का उपयोग नियोजित वातावरण में बालकों के विकास के अध्ययन में किया जाता है। क्रो एवं क्रो ने इस विधि के विषय में कहा है-“मनोवैज्ञज्ञनिक प्रयोग का उद्देश्य किसी निश्चित परिस्थितियों या दशा में मानव व्यवहार से सम्बन्धित किसी विश्वास या विचार का परीक्षण करना है।” इस विधि में एक वर्ग नियन्त्रित रहता है और एक प्रयोगात्मक । दोनों वर्गों से प्राप्त परिणामों की तुलना की जाती है । एक पक्षीय परदे तथा फोटोग्राफी डोम विधि प्रयोगात्मक विधियों में प्रमुख हैं। यह विधि मनोवैज्ञानिक, विश्वसनीय तथा उत्तम परिणाम देने वाली हैं ।

(8) सांख्यिकीय विधि- इस विधि से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करके परिणामों की वैधता तथा विश्वसनीयता का पता चलता है।

निष्कर्ष- बाल विकास तथा व्यवहार के अध्ययन के लिये किसी एक विधि पर आश्रित नहीं रहा जा सकता। इसलिये अनेक विधियों का सहारा अध्ययन के लिए किया जाता है । बाल अध्ययन की सामग्री इन स्रोतों से प्राप्त की जाती है-

(i) बालक के शाब्दिक-अशाब्दिक वर्तमान व्यवहार से ।

(ii) बालक द्वारा निर्मित वस्तुओं के अध्ययन से।

(iii) घर विद्यालय, सरकारी अधिकरण, स्वास्थ्य विभाग, सामाजिक संस्थाओं से प्राप्त सूचनाओं से।

(iv) बालक के अन्तर्दर्शन से।

(v) आरम्भिक जीवन की घटनाओं से ।

(vi) बालक के जीवन को प्रभावित करने वाले घटकों से ।

(vii) बालक के वातावरण से ।

बालकों के अध्ययन में आजकल खेल विधि का भी सहारा लिया जाता है। सूचनायें प्राप्त करने के लिये साइक्रोमीट्रिक परीक्षण, रेटिंग, स्केल, टेस्ट रिजल्ट्स, सामाजिक दबाव से सम्बन्ध, वैधता तथा विश्वसनीयता, उत्तम निष्पत्ति आदि का आश्रय लिया जाता है।


विकास की अवस्थायें :

लॉबटन ने विकास की अवस्थाओं की चर्चा करते हुए कहा है- “हमारे जीवन का विस्तार अनेक अंशों में विभक्त है और प्रत्येक अंश की समायोजन की समस्या है। आयु एवं काल का सम्बन्ध आरम्भिक कक्षाओं से नहीं है। यह तो समस्या को हल करने की एक प्रणाली है। जीवन भर व्यक्ति अपनी समस्याओं को हल करने की विधि तथा प्रविधि का आविष्कार करता है। इनमें कुछ विधियाँ उपयोगी होती हैं तो कुछ अनुपयोगी। ये एक अंश से दूसरे अंश पर आरोपित भी की जा सकती हैं और नहीं भी की जा सकतीं।” इस कथन से यह स्पष्ट है कि विकास की प्रक्रिया तो एक है किन्तु उसका विभाजन अनेक अवस्थाओं में है।

व्यक्ति का विकास अनेक सोपानों में पूरा होता है। विद्वानों में विकास की इस प्रक्रिया को लेकर अनेक मतभेद रहे हैं। हम यहाँ पर कुछ विद्वानों द्वारा किये गये विकास की अवस्थाओं का वर्गीकरण प्रस्तुत कर रहे हैं।

(1) सैखे ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण इस प्रकार किया है-

1. शैशव- 1 से 5 वर्ष तक

2. बाल्यावस्था- 5 से 12 वर्ष तक

3. किशोरावस्था- 12 से 18 वर्ष तक


(2) रॉस- ने अपने ढंग से विकास की अवस्थायें इस प्रकार बताई हैं-

1. शैशव- 1 से 3 वर्ष तक

2. आरम्भिक बाल्यावस्था- 3 से 6 वर्ष तक

3. उत्तर बाल्यकाल-6 से 12 वर्ष तक

4. किशोरावस्था- 12 से 18 वर्ष तक


(3) कॉलसनिक- ने विकास प्रक्रिया का वर्गीकरण बहुत अधिक चरणों में किया है-

1. गर्भाधान से जन्म तक- पूर्व जन्म काल

2. नवशैशव- जन्म से 3 या 4 सप्ताह तक

3. आरम्भिक शैशव- 1 या 2 मास से 15 तक

4. उत्तर शैशव- 15 से 30 मास तक

5. पूर्व बाल्यकाल- 2.5 से 5 वर्ष तक

6. मध्य बाल्यकाल- 9 से 12 वर्ष तक

7. किशोरावस्था- 12 से 21 वर्ष तक

विद्वानों ने सामान्यतः इस वर्गीकरण को अपने अध्ययनों का आधार बनाया है। इस आधार पर हमने इस पुस्तक में उक्त प्रकरणों पर चर्चा की है।

(1) गर्भाधार काल- गर्भाधान से 250 या 300 दिन तक

(i) भूणिक- 0 से 2 सप्ताह तक

(ii) भ्रूणीय- 2 से 10 सप्ताह तक

(iii) भ्रूण- 10 सप्ताह से जन्म तक


(2) बाल्यकाल- जन्म से 12 वर्ष तक

(i) शैशव- जन्म से 3 वर्ष तक

 (ii) शैशव पूर्व बाल्यकाल- 3 से 6 वर्ष तक

(iii) उत्तर बाल्यकाल- 6 से 13 वर्ष तक


(3) किशोरावस्था- 13 से 19 वर्ष तक

(4) परिपक्वावस्था- 20 वर्ष तथा ऊपर

अध्ययन की सुविधा के लिए हम विकास प्रक्रिया को इस प्रकार विभाजित करेंगे-

(i) गर्भाधान काल- गर्भ स्थिति से जन्म तक

(ii) शैशव- जन्म से 5 वर्ष तक

(iii) बाल्यकाल- 6 से 12 वर्ष तक

(iv) किशोरावस्था- 12 से 19 वर्ष तक

उपर्युक्त विभाजन के आधार पर हम यहाँ पर विवेचन प्रस्तुत कर रहे हैं-

(1) गर्भाधान काल- कारमाइकेल के अनुसार- “गर्भाधान के व्यवहार के ज्ञान ने मनोवैज्ञानिक समस्याओं पर पारस्परिक प्रकाश डाला है। उदाहरणार्थ-वंशक्रम तथा वातावरण द्वारा वयस्क व्यक्ति के कारण मानसिक विकास के निर्धारण के सापेक्षिक परम्परागत प्रश्न का उत्तर इस अध्ययन ने प्रदान किया है। अनुभवाश्रित तथा जन्माश्रित प्रतिबोध के मतों में संघर्ष रहा है। विकास अनवरत है या रुक-रुक कर होने वाली क्रिया है, व्यवहार पहले सामान्रु है और बाद में विशिष्ट अथवा पहले विशिष्ट है और बाद में सामान्य, जो आधारभूत रूप से मानव की अधिगम की प्रकृति है, ये सभी गर्भाधान काल के व्यवहार के अध्ययन से अभिव्यक्त हुये हैं।”

गर्भकाल में गर्भ स्थिति से लेकर शिशु के जन्म तक की प्रक्रिया तीन चरणों में पूर्ण होती है। पहले भ्रूणीय स्थिति से जीव की रचना होती है । इस का अस्तित्व पितृसूत्र तथा मातृसूत्र के संयोग से होता है । भ्रूणीय स्थिति में पहले सिर एवं बाद में अंगों के अंकुर निकलते हैं । दूसरी स्थिति भ्रूणिक है । इसमें 2 सप्ताह से 10 सप्ताह तक शरीर के विभिन्न अंगों का विकास होता है। तीसरी स्थिति भ्रूण है। इसमें बालक के अंगों का संचालन तथा गति का अनुभव माता को होता है। यह स्थिति बालक के जन्म तक रहती है। 19वीं सदी से गर्भकाल के अध्ययन आरम्भ हुये इन अध्ययनों के कुछ निष्कर्ष इस प्रकार हैं-

(i) पहले दो मास में सिर का आकार शरीर से आधा होता है ।

(ii) दसवें मास में सिर शेष शरीर का एक चौथाई भाग रह जाता है।

(iii) 14 सप्ताह के पश्चात् भ्रूण गति अनुभव होने लगती है ।

(iv) 6 मास में भ्रूण की गति तीव्र तथा जटिल हो जाती है।

यह क्रिया- प्रतिक्रिया अन्तः, बाह्य वातावरण में पूर्णरूप से प्रभावित होती है ।

(2) शैशव काल- जन्म के पश्चात् से 5 वर्ष की आयु तक को शैशव-काल के नाम से अभिहित किया गया है। जन्म के समय बालक की लम्बाई लगभग 20 इंच, भार 5 से 8 पौंड होता है। इस आयु में बालक पूर्णतः पराश्रित होता है। उसे विकास के लिए परिवार के सदस्यों पर निर्भर रहना पड़ता है।

(3) बाल्यावस्था- विद्वानों ने बाल्यावस्था को 6 से 12 वर्ष तक माना है। इस काल में बालक का शारीरिक विकास होता रहता है। शारीरिक विकास के साथ-साथ उसका सामाजिक, सांस्कृतिक एवं संवेगात्मक विकास भी होता है।

(4) किशोरावस्था- किशोरावस्था को 13 से 19 वर्ष तक मानते हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने इसे ‘टीन एज’ भी कहा है। यह अवस्था के विकास की सबसे जटिल स्थिति मानी जाती है।

अभी हम कह आये हैं कि बालक के विकास की विभिन्न अवस्थायें हैं। इन विभिन्न अवस्थाओं में बालक का व्यक्तित्व अनेक प्रकार से विकसित होता है। विकास की प्रक्रिया का स्वरूप अपने में शारीरिक, मानसिक संवेदनात्मक तथा सामाजिक तत्त्वों को संजोये है। विकास के स्वरूपों में, (i) शारीरिक, (ii) मानसिक, (iii) संवेदनात्मक, (iv) सामाजिक, (v) गति, तथा (vi) भाषा विकास प्रमुख है।


विकास के अध्ययन का महत्त्व :

बाल विकास का अध्ययन आज पारिवारिक तथा सामाजिक जीवन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बन गया है। बाल विकास, अन्य सामाजिक विज्ञानों की भाँति एक स्वतन्त्र ज्ञान बन गया है। इसका अध्ययन सम्पूर्ण मानव विकास की इकाई माना जाता है । क्रो एवं क्रो ने इसलिए कहा है-“व्यक्ति तथा समाज के कल्याण के क्षेत्र में रुचि रखने वाले मनोवैज्ञानिक, शिक्षक, अभिभावक, सामाजिक कार्यकर्ता बालकों के विकास के अध्ययन को महत्त्व देने लगे हैं। बालक व्यक्ति का पिता है, बालक के प्रथम छ: वर्ष महत्त्वपूर्ण होते हैं, आदि लोकोक्तियों ने बाल-विकास के अध्ययन के महत्त्व को बढ़ाया ही है।”

बाल-विकास के अध्ययन ने समाज के समक्ष दो पहलू प्रस्तुत किये हैं- (i) व्यावहारिक, (ii) सैद्धान्तिक । समाज में प्रत्येक अभिभावक के लिये सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक, दोनों पक्षों का ज्ञान आवश्यक है। बाल-विकास की प्रक्रिया का कुशल सम्पादन इसके ज्ञान के अभाव में नहीं किया जा सकता। बालक के विकास का आधार है उसे दी जाने वाली शिक्षा, जिसे बालक की प्रवृत्तियों, आवश्यकताओं के अनुसार दिया जाना चाहिए।

बाल-विकास के अध्ययन से अभिभावकों तथा भावी माताओं को ये लाभ हैं-

(1) बाल-पोषण का ज्ञान- बालक के गर्भ में आने से लेकर संसार में प्रथम दर्शन देने तक की सम्पूर्ण प्रक्रिया अपने में महत्त्वपूर्ण होती है। कम अवस्था में यदि बाल विकास का क्रमिक ज्ञान भावी, माता तथा उसके संरक्षकों को होगा तो वे उसकी उचित देखभाल करेंगे और गर्भावस्था की आपदाओं से गर्भिणी की रक्षा हो सकेगी। मार्गरेट मीड तथा नाइल न्यूटन ने अपने लेखों में उन तत्त्वों का विश्लेषण किया है जो नर-नारी को माता-पिता तथा पारिवारिक ढाँचे में फिट करते हैं। मातृत्व, पितृत्व दायित्व जैसे आधारभूत प्रश्नों का उत्तर बाल विकास के गम्भीर अध्ययन से ही प्राप्त होता है। समाज के विभिन्न वर्गों में बाल विकास का पोषण किस प्रकार होता है, उनकी सामाजिक सांस्कृतिक परम्परायें क्या हैं, आदि की जानकारी देने में यह शास्त्र उपयोगी सिद्ध हुआ है।

(2) अभिभावकत्व का ज्ञान- मार्गरेट मीड तथा नाईल न्यूटन ने बाल विकास के अध्ययनों में इस बात पर बल दिया है कि केवल यौन सम्बन्धों की प्रतिक्रिया मात्र से ही नर-नारी अभिभावकत्व प्राप्त नहीं करते। वह अभिभावकत्व, चाहे पितृत्व हो या मातृत्व, सामाजिक-सांस्कृतिक परिवेश में विकसित होता है तथा मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों में आगे बढ़ता है। यौन सम्बन्धों की वैधानिकता ही वैधानिक तथा उत्तरदायी अभिभावकत्व का निर्माण करती । अवैधानिक यौन सम्पर्क का परिणाम असामाजिक होता है और इस स्थिति में उत्पन्न बालकों की समाज में प्रतिष्ठा नहीं होती ।

(3) बालक का सामान्य व्यवहार- बालक विकास का प्रमुख लक्ष्य है- बालक का विकास इस तरह हो कि उसमें सामान्य व्यवहार का सर्जन हो । मानव अधिकारों का अस्तित्व तभी होता है जबकि बालक का मानसिक तथा शारीरिक विकास सामान्य रूप से होगा। कार्लो वैलेन्टी ने एक अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला कि 2% बालक असामान्य रूप से विकसित होते हैं । बाल विकास का यह अध्ययन अभिभावकों को इस बात के लिए प्रेरित करता है कि उनका व्यवहार सामान्य हो । उनके बालक का व्यवहार एवं विकास सामान्य हो, तभी वे दोनों समाज के लिए उपयोगी हो सकते हैं ।

(4) बालकों का विश्वास- प्रायः देखा जाता है कि बालक माता-पिता से झूठ बोलते हैं। ऐसी स्थिति में बालक अपने माता-पिता का विश्वास खो बैठता है। बाल विकास का अध्ययन माता-पिता को सामाजिक निर्देशन देता है और उन परिस्थितियों तथा उपायों की ओर ध्यान दिलाता है जिनके द्वारा माता-पिता तथा बालक, दोनों में सद्भाव विकसित होता है।

(5) विकास की अवस्थाओं का ज्ञान- बाल विकास के अध्ययन से माता-पिता को यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार बालक शैशव से प्रौढ़ावस्था की ओर विकसित होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं में उसमें कौन-कौन से शारीरिक, संवेगात्मक सामाजिक, नैतिक तथा भाषा सम्बन्धी परिवर्तन आते हैं।

(6) सामाजीकरण का ज्ञान- बालक का सामाजीकरण उसके जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना है। इसी के कारण वह समाज के लिये उपयोगी बनता है। बाल विकास के अध्ययन सामाजीकरण की विभिन्न प्रक्रियाओं की ओर संकेत करते हैं। परिवार समाज तथा समुदाय की परिस्थितियों को सामाजीकरण के लिये और भी उपयोगी बनाने में इस अध्ययन का महत्त्व स्वयं सिद्ध है। सम्पर्क, अन्तःक्रिया अनुसन्धान व्यवहार बालक के सामाजीकरण की ओर संकेत करते हैं। इसी प्रकार खोज करने की प्रवृत्ति जिज्ञासा मूलक व्यवहार से प्रकट होती है।

(7) बालक का व्यक्तित्व- बाल विकास के अध्ययन से बालक के व्यक्तित्व का विकास सरलता से किया जा सकता है। बालक में अनेक शक्तियाँ तथा क्षमतायें पाई जाती हैं। यह क्षमता तभी उचित दिशा में विकसित होती हैं जबकि बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान अभिभावकों को होता है । जो बालक सर्जनात्मक गुणों से पूर्ण है, उसे सामान्य शिक्षा के द्वारा विकसित नहीं किया जा सकता। अत: बालक की बुद्धि, प्रतिभा आदि को वांछित दिशा देकर उसके व्यक्तित्व के अनेक गुणों को विकसित किया जा सकता है ।

(8) खेल तथा बालक- खेल बालक के जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। खेलों से ही बालक के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में गति आती है। अभिभावकों को बाल विकास का अध्ययन यह बताता है कि खेलों को बालक के विकास की प्रक्रिया में किस प्रकार रखा जाये कि उसका सन्तुलित विकास हो सके। घर, विद्यालय तथा समुदाय, तीनों स्थानों पर बालक के खेलों में विविधता आ जाती है। इसलिए उसके चयन की ओर भी बाल विकास परामर्श देता है।

(9) स्वास्थ्य- बालक का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य उसके विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी है। जिन बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य खराब होता है । वे मानसिक रूप से भी अस्वस्थ पाये जाते हैं। ऐसी स्थिति में बालक का निरोग रहना आवश्यक है। बालक का निरोध रहना उसके दिये जाने वाले भोजन तथा उसके पोषण के प्रतिमानों पर निर्भर करता है। यह जानकारी बाल विकास के अध्ययन से ही आती है ।

(10) शैक्षिक प्रक्रिया- बाल विकास के अध्ययन ने शिशु-शिक्षा के मानदण्ड बदल दिये हैं। माता-पिता भी बालक के शैक्षिक विकास के लिये उतने ही जिम्मेदार हैं जितना कि शिक्षक । बालक की शिक्षा की प्रक्रिया में रुचि, अभिरुचि, योग्यता, क्षमता आदि का विशेष महत्त्व हो गया है। पाठ्यक्रम आयु, बुद्धि तथा परिवेश के अनुसार बनने लगे हैं। डाल्टन, किन्डरगार्टन, मॉन्टेसरी, नई तालीम आदि अनेक शिक्षण विधियाँ बालक को विशेष महत्त्व देती । समय-सारणी बनाते समय बालकों की क्षमता तथा शक्ति का अधिकतम ध्यान रखा जाता हैं।

(11) वैयक्तिक भेदों पर बल- बालक विकास का आधार व्यक्ति है । यह दो व्यक्तियों के समान व्यवहारों का समान क्रिया-प्रतिक्रियाओं का फल नहीं मानता। एक माता-पिता के दो बालकों में समानता नहीं पाई जाती । एक किसी बात को शीघ्र समझ लेता है और समझ पाता। अतः ऐसे वैयक्तिक भेदों से युक्त बालक को व्यक्तिगत शिक्षण की आवश्यकता नहीं दूसरा होती है। बाल विकास का अध्ययन इसलिए मन्दबुद्धि, प्रतिभाशाली तथा विकलांग बालकों की पृथक शिक्षा पर बल देते हैं। वास्तविकता यह है कि बाल विकास ने बालकों को नई दिशा दी है और एक आन्दोलन को जन्म दिया है । इस आन्दोलन के फलस्वरूप बाल विकास का अध्ययन वैज्ञानिक हो गया है। ब्लेयर के शब्दों में, “आधुनिक अभिभावक को सफलता प्राप्त करने के लिए ऐसा विशेषज्ञ होना चाहिए जो बालकों को समझे वे कैसे विकसित होते हैं, सीखते एवं समायोजित होते हैं। कोई अपरिचित या मनोवैज्ञानिक विधियों से अनभिज्ञ व्यक्ति अभिभावक के दायित्व एवं कार्य को पूरा नहीं कर सकता।”


मानवतावादी मनोविज्ञान एवं विकासात्मक सिद्धान्त :

मनोविश्लेषणवादी मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि बालक में व्यवहार संबंधी परिवर्तन मूल प्रवृत्ति अथवा जन्मजात प्रेरक के कारण विकसित होते हैं जबकि संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त एवं सामाजिक अधिगम सिद्धान्तों में माना जाता है कि बालकों में ज्यादातर व्यवहार वातावरण संबंधी कारकों के प्रभाव से सीखे जाते हैं। लेकिन कुछ मनोवैज्ञानिकों (मैसलो, कार्ल रोजर्स) ने विकास की व्याख्या हेतु एक भिन्न तरह का दृष्टिकोण अपनाया जिसे मानवतावादी दृष्टिकोण कहा गया। मानवतावादी सिद्धान्त को सेल्फ थ्योरी भी कहा जाता है।

मैसलो को मानवतावादी मनोविज्ञान का आध्यात्मिक जनक माना जाता है। मैसलो ने विकास के संबंध में मानवतावादी सिद्धान्त का प्रतिपादन सन् 1960 में किया। मानवतावादी मनोवैज्ञानिकों ने मनोविश्लेषणवाद तथा व्यवहारवाद की विचारधाराओं की आलोचना ही नहीं की वरन् इनका मानना था कि मनोविश्लेषणवाद तथा व्यवहारवाद में विकास हेतु बहुत ही संकीर्ण दृष्टिकोण अपनाया गया है।

मैसलो ने अपने सिद्धान्त में व्यक्ति की व्यक्तिगत विवृद्धि व्यक्तित्व के मूल्यों तथा आत्म-निर्देशन की क्षमता को महत्त्व दिया है । मैसलो का विचार है कि व्यक्ति का विकास संगठित प्रकार से होता है। उसने विकास में आन्तरिक बलों को बहुत ज्यादा महत्त्व दिया है। मैसलो का मानना है कि व्यक्ति कई मनोवैज्ञानिक शक्तियों तथा क्षमताओं का केन्द्र होता है। हर बालक विकास क्रम में स्वयं को पहचानने की क्षमता एवं आत्मबोध को अपने अंदर विकसित कर लेता है जिसके कारण बालक अथवा व्यक्ति समस्त जरुरतों को जानने लगता है एवं उसे अपनी क्षमताओं तथा सीमाओं का ज्ञान भी होने लगता है जिसके कारण बालक में व्यक्तित्व का विकास शुरु होता है । इसी कारण मैसलो के सिद्धान्त को सम्पूर्ण गत्यात्मक सिद्धान्त के नाम से भी जाना जाता है । मैसलो के सिद्धान्त की व्याख्या इस तरह है-

1. मास्लो की आवश्यकता क्रमबद्धता विचारधारा :

1943 में अब्राहम एच. मास्लो ने इस विचारधारा का निष्पादन किया था। प्रबंध शास्त्र में इसे व्यापक मान्यता मिली है। इस विचारधारा के अनुसार मानवीय आवश्यकताओं की एक क्रमबद्धता होती है। इसी क्रम में अपनी असंतुष्ट आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मनुष्य को अभिप्रेरित किया जा सकता है। व्यक्ति की आवश्यकताएं अनंत होती हैं किन्तु वह एक क्रम में इनकी पूर्ति हेतु प्रयास करता है । अत: उसकी असंतुष्ट आवश्यकताओं के स्तर को मालूम करके उनकी पूर्ति हेतु प्रेरणाएं उपलब्ध करायी जा सकती हैं। यह विचारधारा निम्न मान्यताओं पर आधारित है-

(i) आवश्यकता श्रेणियाँ- मास्लो के अनुसार व्यक्ति की अनंत आवश्यकताएं हैं जो निरंतर पूर्ति के बाद भी उत्पन्न होती रहती हैं। व्यक्ति की इन आवश्यकताओं को पाँच श्रेणियों-शारीरिक, सुरक्षात्मक, सामाजिक, स्वाभिमान व आत्म-विकास में बाँटा जा सकता है मनुष्य की शारीरिक व सुरक्षा संबंधी आवश्यकताएं प्राकृतिक व जन्मजात होती हैं, जबकि प्रेम, सम्मान,सामाजिक प्रतिष्ठा, अहम संबंधी आवश्यकताएं जन्मजात न होकर अनुभव, शिक्षा, संस्कार व समाज के द्वारा विकसित होती हैं।

(ii) आवश्यकता क्रमबद्धता- मास्लो के अनुसार आवश्यकताओं को उनकी शक्ति एवं पुनरावृत्ति की संभावना के आधार पर क्रमबद्ध किया जा सकता है। चित्र-1 से स्पष्ट है कि इस आधार पर शारीरिक आवश्यकताएं प्रथम श्रेणी में आती हैं तथा आत्म-विकास संबंधी आवश्यकताएं पाँचवीं श्रेणी में । मास्लो के अनुसार आवश्यकताओं की ये श्रेणियाँ व उनकी क्रमबद्धता सार्वभौमिक है तथा प्रत्येक संस्कृति पर लागू होती है।

(iii) अभाव एवं प्रभुत्व- मास्लो के अनुसार किसी आवश्यकता की जितनी कम संतुष्टि होती है, व्यक्ति के लिए वह उतनी ही प्रभावी हो जाती है । अर्थात् अतृप्त आवश्यकताओं का महत्व एवं शक्ति सदैव ज्यादा होती है। निचले स्तर की असंतुष्ट आवश्यकताओं का प्रभाव अन्य आवश्यकताओं की अपेक्षा अधिक होता है। अत: जब तक इनकी पूर्ति नहीं हो जाती, व्यक्ति का समस्त ध्यान व साधन इनकी पूर्ति में लगे रहेंगे।

(iv) संतुष्टि एवं उत्प्रेरण- जिन आवश्यकताओं की संतुष्टि हो जाती है, उनका महत्व एवं शक्ति कम हो जाती है तथा अगले स्तर की आवश्यकताएं क्रियाशील हो उठती हैं। दूसरे शब्दों में, जब किसी स्तर की आवश्यकताएं ठीक प्रकार से संतुष्ट हो जाती हैं तभी अगले स्तरों की आवश्यकताएं क्रम से जागृत हो पाती हैं। संतुष्ट आवश्यकता मानवीय व्यवहार को अभिप्रेरित नहीं करती हैं।

(v) शारीरिक आवश्यकताओं का अत्यधिक महत्व- शारीरिक आवश्यकताएं सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती हैं। मास्लो के अनुसार, “जिस व्यक्ति के पास भोजन, सुरक्षा, प्रेम व आत्म-सम्मान का अभाव है, वह सबसे पहले भोजन की ही माँग करेगा, अन्य की नहीं।”

(vi) आत्म-संतुष्टि कभी न होना- निचले स्तर की आवश्यकताओं की भाँति आत्म-विकास के स्तर पर संतुष्टि कभी घटित नहीं होती है। अत: अभिप्रेरण का आधार सदैव विद्यमान रहता है।


आवश्यकताओं की क्रमबद्धता :

मास्लो की विचारधारा में आवश्यकताओं की क्रमबद्धता निम्न प्रकार है-

(1) शारीरिक आवश्यकताएं- शारीरिक आवश्यकताएं मानव जीवन को चलाने के लिए आवश्यक होती हैं। इनमें हवा, पानी, भोजन नींद, कपड़ा, मकान, यौन संपर्क आदि को सम्मिलित किया जाता है। ये आवर्तक प्रकृति की होती हैं।

(2) सुरक्षा आवश्यकताएं- व्यक्ति की शारीरिक आवश्यकताएं संतुष्ट हो जाने के पश्चात् सुरक्षा आवश्यकताएं जागृत हो जाती हैं। प्रत्येक व्यक्ति भय, हानि, बीमारी,खतरों, आतंक, भय व जोखिमों के विरुद्ध शारीरिक, आर्थिक व मनोवैज्ञानिक सुरक्षा चाहता है ।

(3) सामाजिक आवश्यकताएं- सामाजिक आवश्यकताएं व्यक्ति की प्रेम, स्नेह, सहयोग, आत्मीयता, अपनत्व, मैत्री व सामाजिक संबंध के प्रति इच्छा को अभिव्यक्त करती हैं । व्यक्ति एक सामाजिक प्राणी होने के नाते इन आवश्यकताओं की पूर्ति चाहता है ।

(4) स्वाभिमान आवश्यकताएं- सामाजिक आवश्यकताओं की संतुष्टि के बाद व्यक्ति की अहम एवं स्वाभिमान संबंधी आवश्यकताएं क्रियाशील हो जाती हैं। स्वाभिमानी होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति संगठन में सम्मान, प्रशंसा, मान्यता, पद, ख्याति, प्रतिष्ठा, स्वतंत्रता, उपलब्धि आदि की इच्छा करने लगता है। आवश्यकताएं व्यक्ति के महत्व को प्रकट करती हैं तथा उसमें आत्म-विश्वास जगाती हैं

(5) आत्म-विकास आवश्यकताएं- ये आवश्यकताएं व्यक्ति की क्षमताओं, प्रतिभाओं व संभावनाओं के समग्र विकास से संबंध रखती हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपनी आंतरिक क्षमताओं को निखारने व अपनी चरम ऊंचाइयों को छू लेने की इच्छा रखता है तथा इस स्थिति तक पहुँचे बिना बेचैन रहता हैमास्लो के अनुसार, “एक व्यक्ति जो है, वह अधिक से अधिक हो जाने तथा जो वह बन सकता है, वह सब कुछ बन जाने की इच्छा ही आत्मविकास है।”

मास्लो के मॉडल को चित्र में दर्शाया गया है-

मास्लो के अनुसार आवश्यकता का क्रम विभिन्न बातों पर निर्भर करता है। उनमें से कुछ प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं-

(i) उच्च आवश्यकताएं निम्न आवश्यकताओं की संतुष्टि का परिणाम होती हैं।

(ii) कोई भी आवश्यकता मनुष्य के लिए अभिप्रेरण का कार्य तब करेगी जबकि उसकी अन्य निम्न-स्तरीय आवश्यकताएं पूरी हो चुकी हों।

(iii) आवश्यकताएं जितनी ऊंची होंगी, जीवन रक्षा की दृष्टि से उनका उतना ही कम महत्व होगा।

(iv) उच्च आवश्यकताओं की पूर्ति में मानसिक तनाव कम होता है।

(v) उच्च आवश्यकताओं की पूर्ति से मानसिक संतोष में वृद्धि होती है।

(vi) उच्च आवश्यकताएं बाह्य वातावरण तथा आर्थिक दशा पर निर्भर करती हैं।

(vii) व्यक्ति के आत्म-मूल्यांकन में उच्च-स्तरीय आवश्यकताओं की भूमिका अधिक महत्वपूर्ण होती है।


मास्लो की विचारधारा का मूल्याँकन :

मास्लो की विचारधारा अभिप्रेरण व मानवीय व्यवहार की मौलिक विचारधारा है। इसकी व्यावहारिकता के कारण ही इसे अधिकांश देशों में स्वीकार किया गया है। प्रबंधकीय विचारकों ने इसके आधार पर अभिप्रेरण के अन्य सिद्धांतों का विकास किया है। प्रबंधक इस विचारधारा के द्वारा अपने अधीनस्थों की असंतुष्ट आवश्यकताओं को ज्ञात करके उन्हें अभिप्रेरित कर सकते हैं। आवश्यकताओं की क्रमबद्धता के द्वारा मानवीय व्यवहार को बड़ी सुगमता से समझा जा सकता है। किन्तु अनेक प्रबंध-विचारकों ने इस विचारधारा की कुछ आलोचनाएं भी की हैं जो इस प्रकार हैं-

(1) आवश्यकता-क्रमबद्धता का लागू न होना- आलोचकों का यह विचार है कि व्यक्ति मास्लो के द्वारा बताए गए क्रम में अपनी आवश्यकताओं को पूरा नहीं करते हैं। एल.एच. पोर्टर के अनुसार, “आवश्यकताएं एक क्रमबद्धता का अनुगमन नहीं करती हैं, विशेषकर जब निम्न-स्तरीय आवश्यकतायें संतुष्ट हो जाती हैं।” अनेक शोध कार्यों से सिद्ध हुआ है कि व्यक्ति की पारिवारिक पृष्ठभूमि एवं सामाजिक मान्यताएं भी आवश्यकताओं के रूप को प्रभावित करती हैं। यह भी पाया गया कि उच्च-स्तर पर आवश्यकताओं का महत्व व्यक्तियों के अनुसार बदल जाता है।

(2) वर्गीकरण की अस्पष्टता- अधिकांश आवश्यकताओं के एक दूसरे में व्याप्त होने के कारण उनमें स्पष्ट अंतर कर पाना संभव नहीं है। इसके अतिरिक्त, मास्लो के इस वर्गीकरण को अंतिम नहीं माना जा सकता। स्वयं मास्लो ने कुछ वर्ष बाद दो अन्य आवश्यकताओं-एकीकरण तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं का वर्णन किया है।

(3) व्यवहार की जटिलता- मानवीय व्यवहार विभिन्न घटकों से निर्धारित एवं प्रेरित होता है। अत: कई बार प्राथमिक आवश्यकताओं की संतुष्टि न होने पर भी सामाजिक व स्वाभिमान संबंधी आवश्यकताएं उत्पन्न हो सकती हैं।

(4) संतुष्टि आवश्यक नहीं- अनेक अनुसंधानों से स्पष्ट हो गया है कि कई बार कुछ आवश्यकताएं संतुष्टि के साथ-साथ घटती नहीं हैं वरन् बढ़ जाती हैं, जैसे यौन व अहम् संबंधी आवश्यकताएं । अत: इन पर नियंत्रण व इनकी संतुष्टि असंभव हो जाती हैं।

(5) यह विचारधारा मानती है कि मनुष्य की एक समय में एक ही प्रकार की आवश्यकता होती है जबकि व्यवहार में व्यक्ति की एक समय में एक से अधिक आवश्यकताएं भी हो सकती हैं ।

(6) यह ज्ञात करना कठिन होता है कि किस व्यक्ति की कौनसी आवश्यकता महत्वपूर्ण है तथा कौनसी नहीं।

(7) व्यक्तियों का व्यवहार संवेदनशील है। अत: कभी-कभी बुनियादी आवश्यकता की पूर्ति न होने पर भी अहंकार या सम्मान संबंधी आवश्यकता उत्पन्न हो सकती है।

(8) यह विचारधारा व्यक्तियों की आवश्यकताओं की संतुष्टि पर आधारित है किन्तु कुछ आवश्यकताएं कभी भी संतुष्ट नहीं होती हैं।


आत्मसिद्ध व्यक्ति का विकास : स्वस्थ व्यक्तित्व :

मैसलो (1971) ने आत्मसिद्ध व्यक्तियों को प्रोत्साहित करने के लिए विद्यालय को सबसे उत्तम स्थान बताया है। मैसलो का विचार है कि विद्यालय में छात्रों को अपनी स्वतन्त्रता पहचानने का, अपनी रुचियों के अनुसार व्यवसाय खोजने का तथा उत्तम मूल्यों को समझने का उपयुक्त अवसर मिलता है एवं जो छात्र इस तरह के प्रयास करते हैं उनमें प्रयत्नों के कारण आत्मसिद्धि का विकास होता है, दूसरे शब्दों में उनमें स्वस्थ व्यक्तित्व का विकास होता है ।

मैसलो ने आत्मसिद्ध व्यक्तियों की विशेषताओं का वर्णन भी किया है। इन विशेषताओं को जानने हेतु उन्होंने कई महापुरुषों के व्यक्तित्व संबंधी विशेषताओं तथा गुणों का अध्ययन तथा विश्लेषण किया है। जिन आत्मसिद्ध व्यक्तियों का मैसलो द्वारा अध्ययन किया गया है उनके नाम इस तरह से हैं- अब्राहम लिंकन, जेफरसन, व्हाइटमैन, बीथोवेन, रुजवेल्ट, आइन्स्टीन आदि। मैसलो ने आत्मसिद्ध व्यक्तियों की अग्रलिखित विशेषताएँ अथवा लक्षण बताये हैं-

(1) आत्मसिद्ध व्यक्ति यथार्थता उन्मुख होते हैं। इनका प्रत्यक्षीकरण वास्तविकता पर आधारित होता है। उसमें किसी तरह की अनियमितता नहीं पायी जाती है।

(2) ये व्यक्ति अपने आपको, दूसरे का तथा वातावरण की प्राकृतिक वस्तुओं का प्रत्यक्षीकरण बिल्कुल वैसे ही करते हैं, जिस रुप में वे होती हैं।

(3) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में सरलता, स्वाभाविकता तथा सहजता होती है ।

(4) इन व्यक्तियों का व्यवहार आत्म-केन्द्रित न होकर समस्या केन्द्रित होता है।

(5) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में अनासक्ति का भाव होता है तथा इन्हें गोपनीयता प्रिय होती है।

(6) आत्मसिद्ध व्यक्ति स्वतन्त्रता तथा स्वायत्ता को पसन्द करने वाले होते हैं ।

(7) आत्मसिद्ध व्यक्ति लोगों तथा घटनाओं को नवीन दृष्टिकोण से देखते हैं। वे इनका घिसे-पिटे ढंग से देखना पसन्द नहीं करते हैं।

(8) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में अलौकिक शक्ति तथा अनुभूतियाँ पायी जाती हैं। ये स्वस्थ, साहसी एवं निर्णायक होते हैं अर्थात् इन विशेषताओं को मिलाकर कहा जाए तो यह लोग शीर्ष अनुभूतियों वाले होते हैं।

(9) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में मानवीयता का भाव पर्याप्त मात्रा में होता है, इनमें सामाजिक रुचियाँ भी ज्यादा पायी जाती हैं ।

(10) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में तमाम लोगों के साथ सतही संबंध बनाने की आदत नहीं होती है। इनके कुछ महत्वपूर्ण लोगों से घनिष्ठ संबंध होते हैं।

(11) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में प्रजातान्त्रिक मूल्य तथा अभिवृत्तियाँ ज्यादा पाये जाते हैं।

(12) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में साधन तथा साध्य में कोई भ्रान्ति नहीं होती है।

(13) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में मनोविनोद का भाव दार्शनिक होता है, इनमें मनोविनोद का भाव किसी भी तरह से विद्वेषी नहीं होता है।

(14) इन व्यक्तियों को सृजनात्मकता बहुत पसन्द होती है।

(15) आत्मसिद्ध व्यक्तियों में संस्कृति के प्रति अनुरुपता नहीं पायी जाती है।

(16) आत्मसिद्ध व्यक्ति अपने वातावरण के साथ समायोजन करते हैं तथा उत्कर्ष बनाते हैं।

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